Bihar board class 11th notes chapter 4 civics
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सामाजिक न्याय
•क्या न्याय का अर्थ निष्पक्षता है?
•न्याय व समानता में क्या संबंध है ?
•अन्याय के विभिन्न प्रकार कौन से हैं?
•किन माध्यमों द्वारा न्याय सुरक्षित हो सकता है ?
• न्याय से हम साधारणतः उस शब्द का अर्थ लगाते हैं, जो कानून द्वारा विदित होता है।
वास्तव में “Justice” शब्द की उत्पति लैटिन शब्द Jus से हुई है जिसका अर्थ जोड़ना
है। अत: न्याय का अर्थ व्यक्तियों तथा उनके बीच अधिकारों का नियमन करना है। न्याय
की अवधारणा का उद्देश्य सम्पूर्ण समाज की भलाई करना होता है। प्लेटो ने कहा है कि
न्याय यह गुण है जो अन्य गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है।
• सामाजिक न्याय (Social Justice)-सामाजिक न्याय का अर्थ है कि नागरिकों के
साथ, धर्म, जाति, लिंग तथा रंग के आधार पर भेदभाव न किया जाए। सार्वजनिक स्थानों
के प्रयोग में भेदभाव की समाप्ति की जाए। नागरिकों के रीति-रिवाज तथा धार्मिक
विश्वास में राज्य का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए।
• न्याय के आधारभूत तत्त्व (Fundamental elements and Justice)-(i) सत्य; (ii)
स्वतंत्रता, (iii) समानता, (iv) प्राकृतिक अनिवार्यताएं।
• नैतिक न्याय (Moral Justice)- नैतिक न्याय यह निर्धारित करता है कि क्या ठीक है
और क्या गलत। व्यक्ति के रूप में हमारे क्या अधिकार हैं तथा क्या कर्तव्य हैं।
• आर्थिक न्याय (Economic Justice)-आर्थिक न्याय का अर्थ है सभी व्यक्तियों को
उनके जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के अवसर प्रदान किए जाएं। राष्ट्रीय
सम्पत्ति का वितरण ऐसा न हो कि वह थोड़े से व्यक्तियों के हाथों में ही इकट्ठी होकर
रह जाए और समाज का अधिक भाग उससे वंचित रह जाए। सामाजिक न्याय तथा
आर्थिक न्याय में संबंध है। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। न्याय का स्वतंत्रता तथा समानता
से भी संबंध है। एक स्वतंत्र राष्ट्र को सम्पूर्ण स्वतंत्र तभी कहा जाएगा जब उसके नागरिकों
को कुछ स्वतंत्रताएं प्रदान की जाएँ। जैसे भाषण देने की स्वतंत्रता संघ बनाने की स्वतंत्रता,
व्यवसाय करने की स्वतंत्रता। इसी प्रकार बिना समानता के स्वतंत्रताएंँ बेकार हो जाएंँगी।
• पूर्ण समानता संभव नहीं (Absolute equality is not possible)– न्यायपूर्ण समाज
में असमानताओं के लिए कोई स्थान नहीं है, परन्तु कुछ ऐसे आधार भी हैं जिनके आधार
पर भेदभाव किया जा सकता है। जैसे-भारत में अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति
के लिए विशेष सुविधाओं की व्यवस्था की गयी है। महिलाओं को आरक्षण देना भी इसी
कदम को दर्शाता है।
प्रश्न 1. हर किसी को उसका प्राप्य देने का मतलब समय के साथ-साथ कैसे बदला?
उत्तर-न्याय की संकल्पना के विषय में विभिन्न कालों और विभिन्न सामाजिक, आर्थिक एवं
राजनीतिक माहौल में विभिन्न अर्थ रहा है। न्याय शब्द की मूल आवश्यकता ‘जस’ से है जिसका
अर्थ ‘उचित’ है अर्थात् ‘किसी को देने को’ है। परन्तु क्या ‘किसी को देने को’ (One’s die)-
का अर्थ विभिन्न अवधि में विभिन्न समाजों में विभिन्न है। उदाहरण के लिए समय के एक बिन्दु
पर महिलाओं को समाज में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। परन्तु कालान्तर में इसकी उपेक्षा की गयी
और उनकी स्थिति खराब हो गयी तथा विभिन्न प्रकार की यातनाएं दी जाने लगीं। वे उदारवादी,
प्रजातात्रिक और विकासवादी विश्व में अपने उचित स्थान की खोज में हैं। अब न्याय के विचार
के लिए सत्यता, ईमानदारी, निष्पक्षता, समान अवसर, समान व्यवहार और आवश्यकताओं की पूर्ति
आदि आवश्यक तत्व माने गए हैं।
प्लूटो का न्याय की स्थिति के विषय में अलग दृष्टिकोण है। वह न्याय के अंतर्गत प्रत्येक
वर्ग को अपनी क्षेत्र में कार्यों की उपलब्धि और दूसरी के कार्यों में हस्तक्षेप न करना को माना
है। अरस्तू ने उपयोगिता के आधार पर गुलामी को न्यायसंगत ठहराया है। उसने न्याय को स्वामी
के द्वारा कार्य को करने और स्वामी का दास के प्रति कर्तव्य को न्याय माना है। उसने राजा की
सेवा के अर्थ में भी न्याय पर प्रकाश डाला है। उसके अनुसार सेवक का यह कर्त्तव्य है कि वह
अपने राजा की सेवा अच्छी तरह से करे।
मार्क्सवादी विचार न्याय की अवधारणा की दृष्टि से अलग है और इसलिए ‘किसी का उचित
स्थान’ का विचार भी अलग है। मार्क्स पूँजीवादी व्यवस्था से अच्छी तरह से परिचित था जो अन्याय
पर आधारित था। इसलिए उसने न्याय की अलग आवश्यकताएं बताईं। उसने अपने न्याय की
योजना में सुझाव दिया कि उत्पादन के साधनों और वितरण पर सामूहिक स्वामित्व होना चाहिए।
इसी के साथ प्रत्येक व्यक्ति की मूल आवश्यकताओं को पूर्ति होनी चाहिए।
वर्तमान में न्याय की अवधारणा में कुछ तथ्यों का समावेश हो गया है। आज न्याय न केवल
सामाजिक, आर्थिक पक्ष की व्याख्या करता है बल्कि नैतिक, मनोविज्ञान, आत्मिक और मानववादी
पक्ष को व्याख्या करता है।
प्रश्न 2. अध्याय में दिए गए न्याय के तीन सिद्धान्तों की संक्षेप में चर्चा करो। प्रत्येक
को उदाहरण के साथ समझाइए।
उत्तर-‘किसी को उसका देना’ न्याय के विचार का केन्द्रीय सिद्धान्त था परन्तु “किसको
क्या देना है” के सम्बन्ध में विभिन्न कालों में विभिन्न विचार रहे हैं। विभिन्न प्रकार के अनेक
सिद्धान्त उनके अनुसार बनाये गए हैं। ये निम्नलिखित हैं :-(i) समान के लिए समान व्यवहार,
(ii) आनुपातिक न्याय, (iii) विशेष आवश्यकता की पहचान।
(i) समान के लिए समान व्यवहार-समान के लिए समान व्यवहार अति महत्वपूर्ण और
न्याय का आवश्यक सिद्धान्त माना जाता है। यह अपेक्षा स्वीकार किया जाता है कि व्यक्ति में
कुछ विशेषताएं मानव जाति के रूप में दिखता है, इसलिए प्रत्येक समान दशाओं में समान व्यवहार
कायम रहता है। अधिकांश क्षेत्रों में जिसमें हम समानता के व्यवहार की आशा करते हैं, ये
निम्नलिखित हैं-
(i) नागरिक अधिकार अर्थात् समान आधार पर मूलभूत आवश्यकताओं की उपलब्धता।
(ii) राजनीतिक अधिकार जैसे-मतदान का अधिकार और राजनीतिक कार्यों में शामिल होने
का अधिकार
(iii) सामाजिक अधिकार जैसे-समान व्यवहार और सामाजिक कार्यो में मूलभूत आवश्यकताओं
को प्राप्त करने का अधिकार।
समान के लिए समान व्यवहार का एक अन्य पहलू यह है कि वर्ग, जाति या लिंग के आधार
पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्रतिभा और कौशल
के आधार पर मूल्यांकन करना चाहिए।
(ii) आनुपातिक न्याय-समानता का व्यवहार समान हो सकता है। इसे स्वीकार करना
चाहिए और आनुपातिक स्तर को दूढ़ना चाहिए। हम कह सकते हैं कि प्रत्येक को सभी दशाओं
में समान व्यवहार को आवश्यकता होती है। आनुपातिक न्याय का तात्पर्य है-लोगों का वेतन और
गुण में एक अनुपात होना चाहिए। कर्तव्य और पुरस्कार का निर्धारण करना चाहिए और परिभाषित
करना चाहिए। वास्तविक न्याय के लिए आधुनिक समाज में समान व्यवहार का सिद्धान्त
आनुपातिक सिद्धान्त में संतुलित करने की आवश्यकता है।
(iii) विशेष आवश्यकता की पहचान-तीसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त विशेष आवश्यकताओं
की पहचान है। यह लोगों की विशेष आवश्यकताओं के सन्दर्भ में पहचान करती है। जब किसी
को पुरस्कार या कार्य वितरित किया जाता है, तो हमें अपनाया जाता है। कभी-कभी हमें न्याय
के लिए संशोधित उपायों का सहारा लेना पड़ता है और लोगों के साथ विशेष व्यवहार करना
पड़ता है। इसको ही विशेष आवश्यकता की पहचान कहते हैं। इस असंतुलन को संतुलन करना
भी कहा जाता है। इससे समान व्यवहार के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं होता। यह सकारात्मक कार्य
का प्रकार है। लोगों के कुछ प्राकृतिक अयोग्यता के कारण उनके लिए विशेष व्यवहार या इलाज
की आवश्यकता होती है। यद्यपि वे असमान दिखाई देते हैं परन्तु न्याय के लिए उनकी विशेष
आवश्यकता की पूर्ति जरूरी होती है। वे लोग जो सुविधा सम्पन्न हैं और सुविधाहीन हैं, इन सबको
कुछ भिन्न व्यवहार या इलाज देने की आवश्यकता पड़ती है। सुविधाहीन लोगों को विशेष मदद
की जरूरत होती है।
प्रश्न 3. क्या विशेष जरूरतों का सिद्धान्त सभी के साथ समान बर्ताव के सिद्धान्त के
विरुद्ध है?
उत्तर-लोगों की विशेष आवश्यकता का विचार करने का सिद्धान्त सभी के लिए समान
व्यवहार के सिद्धान्त से विरोधाभास उत्पन्न कर सकता है, परन्तु अब इसे विस्तृत दृष्टिकोण से
न्याय के विचार से देखते हैं तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। कि किसी व्यक्ति को विशेष
आवश्यकता का विचार करने के सिद्धान्त से सभी के लिए समान व्यवहार के सिद्धान्त का
उल्लंघन नहीं होता। वस्तुतः यह वितरण योग्य न्याय पर आधारित है। संशोधित उपाय के रूप
में हम उस व्यक्ति की विशेष सहायता करते हैं जो अयोग्य हैं और उसे समान स्तर पर लाने की
जरूरत होती है।
समान रूप से समाज के साथ व्यवहार लागू हो सकता है कि लोग जो कुछ दृष्टियों से समान
नहीं हैं, उन्हें विभिन्न प्रकार से विचार कर सकते हैं। शारीरिक अयोग्यताएँ, आयु, सफलता की
कमी, अच्छी शिक्षा या स्वास्थ्य आदि कुछ महत्वपूर्ण कारक हैं जो विशेष व्यवहार के रूप में
विचार किया जा सकता है। यदि दोनों समूहों के लोगों अर्थात् सामान्य लोग और अपंग लोग दोनों
के साथ समान व्यवहार किया जाय तो यह अन्याय होगा। इसलिए यदि अपंग व्यक्तियों को विशेष
मदद या उनकी कुछ आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके तो इससे न्याय की आवश्यकता की
पूर्ति होगी परन्तु यह न्याय से अलग या समान न्याय नहीं होगा।
प्रश्न 4. निष्पक्ष और न्यायपूर्ण वितरण को युक्तिसंगत आधार पर सही ठहराया जा
सकता है। रॉल्स ने इस तर्क को आगे बढ़ाने में अज्ञानता के आवरण’ के विचार का उपयोग
किस प्रकार किया।
उत्तर-उपेक्षित स्थान के आवरण की योग्यता यह है कि यह लोगों के लिए न्याय की आशा
करता है। उनसे यह सोचने के लिए आशा की जाती है कि वे अपनी रुचि के लिए क्या चाहते
हैं। वे उपेक्षा के आवरण के अन्तर्गत चुनाव करते हैं, वे यह पायेंगे कि यह उनकी रुचि ही है
जो अरुचि की स्थिति से हटकर सोचने के लिए है। इसलिए यह प्रथम चरण है जिससे सही कानून
और नीतियों की व्यवस्था आती है। बुद्धिमान लोग न केवल खराब स्थिति में वस्तुओं को देखेंगे,
सही बनाने के लिए प्रयास भी कर सकते हैं। वे जो नीतियां बनाते हैं वह समाज के लिए होती
हैं। इसलिए यह कोई नहीं जानता कि भविष्य के समाज में उनकी क्या स्थिति होगी ? वे ऐसे
कानूनों का निर्धारण करते हैं जो सुरक्षा प्रदान करते हैं चाहे वे भले ही अनैच्छिक लोगों के हों।
इसलिए यह सभी की भलाई में है कि कानून और नीतियों से सम्पूर्ण समाज के लोगों को
लाभान्वित करावें। केवल किसी विशेष वर्ग के लिए ऐसा न किया जाय। इस प्रकार की ईमानदारी
अच्छे कार्य की उपलब्धि होगी।
इसलिए रॉल यह तर्क देते हैं कि यह योग्य विचार है न कि नैतिक, जो समाज के कार्यों
और लाभ के वितरण के सन्दर्भ में उचित और पक्षपातरहित हो सकता है। यह उनका सामान्यीकरण
है जो रॉल के सिद्धान्त को महत्वपूर्ण बनाता है और ईमानदारी और न्याय के लिए पहुंच
(Approach) प्रदान करता है।
प्रश्न 5. आम तौर पर एक स्वस्थ और उत्पादक जीवन जीने के लिए व्यक्ति की
न्यूनतम बुनियादी जरूरतें क्या मानी गई हैं ? इस न्यूनतम को सुनिश्चित करने में सरकार
की क्या जिम्मेदारी है?
उत्तर-समाज उस समय अन्यायपूर्ण माना जाता है जब व्यक्ति-व्यक्ति में अंतर इतना बड़ा
होता है जो उनके न्यूनतम् आवश्यकताओं के पहुंच के सन्दर्भ में पर्याप्त नहीं होते हैं। इसलिए एक
न्यायपूर्ण समाज को लोगों के न्यूनतम मूल आवश्यकताओं के साधन उपलब्ध करना चाहिए जिससे
लोग स्वस्थ, सुरक्षित जीवन जी सकें तथा अपने प्रतिभा का विकास कर सकें। लोगों को समाज
में सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने के लिए समान अवसर भी उपलब्ध कराना चाहिए।
लोगों की आवश्यकताओं, जो जीवन के मूल न्यूनतम दशाएं होती संचालन के लिए
विभिन्न सरकारों द्वारा विभिन्न प्रकार के उपाय किए गए। इसमें अंतर्राष्ट्रीय संगठनों-विश्व स्वास्थ्य
संगठन (WHO) और राष्ट्रीय सेवा योजना (NSS) का भी महत्वपूर्ण योगदान है। इन आवश्यकताओं
में स्वास्थ्य, आवास, खान-पान, पेयजल, शिक्षा और न्यूनतम मजदूरी आदि शामिल हैं।
देशवासियों को मूल आवश्यकता की सुविधाएं प्रदान करना प्रजातांत्रिक सरकार का
उत्तरदायित्व है। आज राज्य एक कल्याणकारी संगठन है। इसलिए लोगों के कल्याण का ध्यान
रखना उसका कर्तव्य है। प्रजातांत्रिक सरकार लोगों की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करके लोगों
के दशाओं में सुधार लाती है।
प्रश्न 6. सभी नागरिकों को जीवन की न्यूनतम बुनियादी स्थितियाँ उपलब्ध कराने के
लिए राज्य की कार्यवाई को निम्न में से कौन-से तर्क से वाजिब ठहराया जा सकता है ?
(क) गरीब और जरूरतों को निशुल्क सेवाएं देना एक धर्म कार्य के रूप में न्यायोचित है।
(ख) सभी नागरिकों को जीवन का न्यूनतम बुनियादी स्तर उपलब्ध करवाना अवसरों
की समानता सुनिश्चित करने का एक तरीका है।
(ग) कुछ लोग प्राकृतिक रूप से आलसी होते हैं और हमें उनके प्रति दयालु होना
चाहिए।
(घ) सभी के लिए बुनियादी सुविधाएँ और न्यूनतम जीवन स्तर सुनिश्चित करना
साझी मानवता और मानव अधिकार की स्वीकृति है।
उत्तर-कथन (ख) और (घ) लोगों के जीवन की न्यूनतम् दशाएँ उपलब्ध कराने में राज्य
के कार्यों के सम्बन्ध में न्यायसंगत है।
(ब) सभी के लिए मूल सुविधाएँ और न्यूनतम स्तर की जीविका प्रदान करना मानवता और
मानव अधिकार की पहचान है।
1. ‘सामाजिक न्याय’ का प्रमुख तत्व क्या है ? [B.M.2009A]
(क) अवसर की समानता (ख) विधि के समक्ष समानता
(ग) विधि की तार्किकता (घ) कल्याणकारी विधिक प्रावधान उत्तर-(क)
2. राजनीतिक न्याय का सरोवर है: [B.M.2009A]
(क) कानून न्यायसंगत होने चाहिए
(ख) कानून के अनुसार न्याय मिलना चाहिए
(ग) जनता की राज्य सत्ता में भागीदारी होनी चाहिए
(घ) बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समाज में समान अवसर एवं सुख सुविधा
उपलब्ध है।
3. किसने कहा है ? न्यायपूर्ण समाज वह है जिसमें परस्पर सम्मान की बढ़ती हुई भावना
और अपमान ही घटती हुई भावना मिलकर एक करुणा भरे समाज का निर्माण करें।
(क) डॉ० भीमराव अम्बेदकर
(ख) महात्मा गांधी
(ग) पंडित जवाहर लाल नेहरू
(घ) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
4. ‘न्याय का सिद्धांत’ नामक पुस्तक के लेखक कौन हैं ? [B.M.2009A]
(क) आस्टिन
(ख) प्रोधा
(ग) जॉन राल्स
(घ) डायसी
प्रश्न 1. न्याय से आपका क्या अभिप्राय है?
(What do you understand by Justice ?).
अथवा, न्याय का अर्थ समझाइए।
(Explain the term Justice.)
उत्तर-इतिहास में न्याय की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। किसी ने न्याय को ‘जैसी
करनी वैसी भरनी’ के रूप में तो किसी ने उसे ईश्वर की इच्छा कहकर अथवा पूर्वजन्मों का फल
कहकर पुकारा है।
सालमण्ड के अनुसार “न्याय का अर्थ है, प्रत्येक व्यक्ति को उसका भाग प्रदान करना।”
जे. एस, मिल के अनुसार, “न्याय उन नैतिक नियमों का नाम है जो मानव कल्याण की
धारणाओं से संबंधित है और इसलिए जीवन के पथ-प्रदर्शन के लिए किसी भी अन्य नियम से
अधिक महत्वपूर्ण है।”
प्रश्न 2. न्याय के किन्हीं दो आधारभूत तत्वों का वर्णन कीजिए।
(Describe any two fundamental postulates of Justice.)
उत्तर-न्याय के दो आधारभूत तत्व निम्नलिखित हैं-
(i) सत्य (Truth) – सत्य की कसौटी पर खरा उतरने वाला न्याय अमीर-गरीब सबको एक
दृष्टि से देखता है। घटनाओं का प्रस्तुतीकरण ज्यों का त्यों किया जाता है।
(ii) स्वतंत्रता (Freedom) – राज्य को व्यक्ति की स्वतंत्रता पर केवल सामाजिक हित में
प्रतिबंध लगाना चाहिए। बहुत से तानाशाह शासक अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए व्यक्ति की
स्वतंत्रता पर अनुचित प्रतिबंध लगाकर न्याय का गला घोंट देते हैं।
प्रश्न 3. संरक्षणकारी न्याय से क्या तात्पर्य है?
(What is meant by Protective Justice 2)
उत्तर-यदि राज्य कमजोर तथा दरिद्र वर्ग के हित में कुछ कार्य करता है तो यह स्पष्ट है
कि वह ऐसा उन लोगों की उन्नति के लिए कर रहा है जिन्हें दूसरे वर्गों ने उनको उनके अधिकारों
से चित कर रखा है, इसे संरक्षणकारी न्याय कहा जाता है।
प्रश्न 4. आर्थिक न्याय का क्या अर्थ है ? [B.M.2009A]
(What is meant by Economic Justice ?)
उत्तर-आर्थिक न्याय का अर्थ (Meaning of the term Economics Justice)-
आर्थिक न्याय से यह अभिप्राय है कि राष्ट्र की सम्पत्ति व आय में सब समान रूप से भागीदार
हों। आर्थिक न्याय के अनुसार लोगों की न्यूनतम भौतिक आवश्यकताएं पूरी होनी चाहिए। एक
जैसा करने वालों को समान वेतन दिया जाए। प्रत्येक व्यक्ति अपने सामर्थ्य के अनुसार काम
करे और उसे अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई रुकावट न आए। स्त्रियों और बच्चों
का आर्थिक शोषण न हो। बुढ़ापे, बीमारी व अपंग अवस्था में राज्य उनके कल्याण के लिए
आर्थिक सहायता प्रदान करे।
प्रश्न 5. नैतिक न्याय का अर्थ बताइए।
(Discuss the meaning of Moral Justice.)
उत्तर-संसार में कुछ नियम सर्वव्यापी, अपरिवर्तनशील और प्राकृतिक हैं। इनके अनुसार होने
वाले आचरण व व्यवहार को ही नैतिक न्याय कहते हैं। उदाहरणस्वरूप, सच बोलना,
प्रतिज्ञा-पालन, दया, सहानुभूति, उदारता, क्षमता आदि नैतिक न्याय के अन्तर्गत आते हैं। ऐसे
व्यवहार को स्थापना में राज्य को हस्तक्षेप करने की आवश्यकता ही न पड़ेगी। स्वतः ही सबको
नैतिक न्याय की प्राप्ति हो जाएगी।
प्रश्न 6. कानूनी न्याय से क्या तात्पर्य है ?
(What is meant by Legal Justice ?)
उत्तर-न्याय की समाज में जो भी मान्यताएं होती हैं जब उन्हें विधियों के द्वारा मूर्त रूप
दे दिया जाता है तब वह कानूनी न्याय कहलाता है। कानूनी न्याय-संगत होना चाहिए। कानूनी न्याय
निष्पक्ष व सस्ता हो।
प्रश्न 7. कानूनी न्याय तथा नैतिक न्याय में क्या अन्तर है?
(What is the difference between the legal justice and the moral justice ?)
उत्तर-कानूनी न्याय और नैतिक न्याय में अन्तर-
कानूनी न्याय
(Legislative Justice)
( i) कानूनी न्याय का सम्बन्ध उन सिद्धान्तों | (i ) नैतिक न्याय यह बतलाता है कि क्या
से है जो किसी राज्य के कानून द्वारा
निर्धारित होते हैं।
(ii) कानूनी न्याय नैतिक न्याय की रक्षा (ii) नैतिक न्याय कानूनी न्याय को आधार
करता है।
(iii) कानूनी न्याय के पीछे कानून अर्थात् (iii) नैतिक न्याय के पीछे कानूनी शक्ति नहीं |
राज्य की शक्ति होती है।
प्रश्न 8. आनुपातिक न्याय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो।
(Write a short note on Proportional Justice ?)
उत्तर-आनुपातिक न्याय का अर्थ परिस्थितियों की समता अर्थात् समान मामलों को समान
रूप से और असमान को असमान रूप में लिया जाए। निष्पक्षता के रूप में न्याय का अर्थ कठोर
समानता नहीं है। इसका अभिप्राय तो न्याय-संगत आनुवादि वितरण से है। इसके अंतर्गत राज्य
कुछ विशिष्ट वर्गीकरणों के आधार पर भेदभाव कर सकता है। ऐसा वर्गीकरण लिंग, आवश्यकता,
परिस्थिति, योग्यता तथा क्षमता के आधार पर किया जा सकता है। समाज के कमजोर लोगों की
विशेष सहायता की जानी चाहिए।
प्रश्न 9. संरक्षणकारी विभेद क्या है ?
(What is protective discrimination ?)
उत्तर-हमारे संविधान में कानून के समक्ष समानता को एक शासन के आधारभूत सिद्धांत
के रूप में स्वीकार किया गया है। धर्म, जाति, लिंग, जन्मस्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं
किया जा सकता। परन्तु जो लोग अधिक पिछड़े हैं उनके लिए संरक्षणात्मक भेदभाव रखे गए
हैं। राज्य अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाओं और अन्य पिछड़े लोगों के उत्थान के
लिए विशेष प्रकार की व्यवस्था कर सकता है। राज्य उन्हें सरकारी नौकरियों में स्थान दिलाने के
लिए आरक्षण की व्यवस्था करता है।
प्रश्न 10. सामाजिक न्याय की मुख्य विशेषताएंँ क्या हैं ?
(What are main characteristics of Social Justice ?)
उत्तर-समाज में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए
पूर्ण सुविधाएं उपलब्ध करवाना तथा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही सामाजिक
न्याय है।
सामाजिक न्याय की मुख्य विशेषताएँ (Main Characteristics of Social Justice)
(i) धर्म, जाति, रंग तथा लिंग आदि के आधार पर सभी प्रकार के भेदभावों को समाप्त किया
जाता है। सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए जाते हैं।
(ii) सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग के लिए नागरिकों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए।
(iii) व्यक्ति के रीति-रिवाज, धार्मिक विश्वास तथा अन्य निजी मामलों में राज्य द्वारा हस्तक्षेप
नहीं किया जाता।
प्रश्न 11. भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय के क्या प्रावधान हैं ?
(What are the provisions for Social tice in Indian Constitution ?)
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सभी भारतीय नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक
तथा राजनीतिक न्याय प्रदान करना संविधान का सर्वोच्च लक्ष्य बताया गया है। इस लक्ष्य की प्राप्ति
के लिए-
(i) नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं।
(ii) प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता प्रदान की गई है।
(iii) सरकारी नौकरी पाने के क्षेत्र में सभी नागरिक को समान अवसर प्रदान किए गए हैं।
(iv) छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। इसका प्रयोग करने वाले को राज्य द्वारा दण्डित
किया जाता है।
(v) समाज में असमानता उत्पन्न करने वाली सभी उपाधियों का अन्त कर दिया गया है।
(vi) प्रत्येक नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता दी गयी है। धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। राज्य
को उसमें हस्तक्षेप करने की मनाही कर दी गई है।
(vii) उच्च वर्ग के व्यक्तियों के द्वारा पिछड़े, दलितों तथा कम आयु के बच्चों को शोषण
करने की मनाही कर दी गई है।
प्रश्न 1. न्याय के किन्हीं दो पक्षों का उल्लेख करो।
( (Mention any two dimensions of Justice.)
उत्तर-न्याय अंग्रेजी शब्द Justice का हिन्दी रूपान्तर है। Justice शब्द लैटिन भाषा के
शब्द Jus से बना है जिसका अर्थ होता है बंधन या बाँधना (Bind or Tie) जिसका अभिप्राय
यह है कि ‘न्याय’ उस व्यवस्था का नाम है जिसके व्यक्ति के पारस्परिक संबंधों का उचित एवं
सामंजस्यपूर्ण संयोजन किया जाता है।
(i) राजनीतिक न्याय (Political Justice)- न्याय का एक पक्ष राजनीतिक न्याय माना
जाता है। अरस्तू ने न्याय को एक प्रकार का वितरण संबंधी न्याय (Distributive Justice)
बताया था जिसका अर्थ राजनीतिक समाज में व्यक्ति को उसका उचित स्थान प्रदान करना था।
राजनीतिक न्याय का तात्पर्य व्यक्ति का शासन में भाग लेना, चुनाव में खड़े होना, चुनाव में मतदान
करना, योग्यता के अनुसार राजकीय पद ग्रहण करना आदि से है। इन अधिकारों की उचित व्यवस्था
सबके लिए उचित एवं निष्पक्ष रूप से होने की स्थिति को हम राजनीतिक न्याय की व्यवस्था कहते
हैं। लोकतन्त्र की सफलता के लिए राजनीतिक न्याय का होना आवश्यक है।
(ii) कानूनी न्याय (Legal Justice) – कानूनी न्याय से अभिप्राय है कानून न्याय-संगत
हो, समान व्यक्तियों के लिए समान कानून हो। कानून जनता के प्रतिनिधियों द्वारा बनाए जाएंँ और उनका
औचित्य समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा परखा जाए। न्याय निष्पक्ष, सरल व सस्ता हो।
प्रश्न 2. कानूनी न्याय तथा नैतिक न्याय में क्या सम्बन्ध है ?
(What is the relationship between Legal and Moral Justice ?)
उत्तर-कानूनी न्याय तथा नैतिक न्याय में सम्बन्ध (Relationship between Legal &
Moral Justice) – कानूनी तथा नैतिक न्याय में घनिष्ठ संबंध है। प्राचीन दार्शनिकों ने इस
दृष्टिकोण का समर्थन किया कि न्याय नैतिकता पर आधारित होना चाहिए। अभी भी एक सीमा
तक न्याय नैतिकता पर आधारित है परन्तु दोनों एक नहीं हैं। दोनों में अन्तर पाया जाता है। कानूनी
न्याय का संबंध उन सिद्धांतों और कार्यविधियों से है जो किसी राज्य के कानून द्वारा निर्धारित
होती हैं। कानूनी न्याय का सम्बन्ध कानूनों, रीति-रिवाजों, पूर्व निर्णय तथा मानवीय अभिकरण द्वारा
निर्मित कानूनों से होता है।
नैतिक न्याय वह होता है जिसके द्वारा हमें पता चलता है कि क्या ठीक है और क्या गलत
है ? मनुष्य के रूप में हमारे क्या अधिकार हैं ? हमारे क्या कर्त्तव्य हैं ? कानूनी न्याय इन अधिकारों
और कर्तव्यों को सुरक्षा प्रदान करता है।
प्रश्न 3. भारतीय राजनीतिक चिन्तन में न्याय की धारणा समझाइए।
(Explain the concept of Justice in Indian political thought.)
उत्तर-भारतीय सामाजिक चिन्तन में राज्य की व्यवस्था के लिए न्याय को अत्यन्त महत्वपूर्ण
माना गया है। मनु, कौटिल्य, वृहस्पति, शुक्राचार्य, भारद्वाज एवं सोमदेव आदि अनेक महान् भारतीय
राजनीतिक चिन्तक हुए हैं। इनकी विशेषता यह रही है कि उन्होंने न्याय के विषय में उस कानूनी
दृष्टिकोण को प्राचीनकाल में ही अपना लिया था, जिसे पाश्चात्य जगत् के विचारकं आधुनिक
युग में आकर ही अपना सके हैं।
कौटिल्य ने कहा है,”न्याय की सुव्यवस्था राज्य का प्राण है। जिसके बिना राज्य जीवित
नहीं रह सकता।”
प्रश्न 4. भारतीय संविधान में न्याय की अवधारणा पर टिप्पणी लिखिए।
(Write a short note on “The concept of Justice in Indian Constitution.”
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों प्रकार
के न्याय की गारंटी दी गयी है। राजनैतिक न्याय सुलभ कराने के लिए समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष
एवं लोकतान्त्रिक गणराज्य की स्थापना की गई है। आर्थिक न्याय की व्यवस्था के लिए संविधान
में नीति निर्देशक तत्वों का वर्णन है जो राज्य को अनेक कार्य करने का निर्देश देते हैं। समान कार्य
के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को समान वेतन, बाल श्रमिकों का शोषण रोकना, बन्धुआ मजदूरी पर
रोक लगाना, वृद्धावस्था या बीमारी की अवस्था में राजकीय सहायता आदि। सामाजिक न्याय की
स्थापना के लिए अनुच्छेद 14 के अनुसार सभी नागरिक कानून के समक्ष समान हैं। अनुच्छेद 15
में धर्म, मूलपंथ, जाति, लिंग या जन्म के आधार पर भेदभाव की मनाही है। अनुच्छेद 16 में सब
नागरिकों को राज्य के अधीन पदों पर नियुक्ति का समान अधिकार दिया गया है। अनुच्छेद 17
द्वारा छुआछूत की समाप्ति कर दी गई है। अनुच्छेद 24 व 25 में बेगार तथा शोषण को गैरकानूनी
घोषित कर दिया गया है।
प्रश्न 5. सामाजिक न्याय का अर्थ और महत्व बताइए। [B.M.2009A]
(Discuss the meaning and importance of Social Justice.)
उत्तर-सामाजिक न्याय का अर्थ है कि नागरिकों के बीच सामाजिक दृष्टिकोण से किसी
प्रकार का भेदभाव न किया जाए। श्री गजेन्द्र गड़कर के अनुसार ‘सामाजिक न्याय का अर्थ
सामाजिक असमानताओं को समाप्त करके सामाजिक क्षेत्र में व्यक्ति को अवसर प्रदान करने से है।’
सामाजिक न्याय की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित हैं-
(i) धर्म, जाति रंग तथा आदि के आधार पर भेदभाव की समाप्ति।
(ii) सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग में भेदभाव की समाप्ति।
(iii) राज्य के हस्तक्षेप की सीमा अर्थात् रीति-रिवाज या धार्मिक विश्वास जैसे व्यक्तिगत
मामलों में राज्य को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
सामाजिक न्याय का महत्त्व-आधुनिक युग में सामाजिक न्याय का बहुत महत्व है क्योंकि
समाज के अन्तर्गत सबको उचित स्थान प्राप्त होता है। सभी लोग उन्नति करने लगते हैं।
प्रश्न 6. न्याय से आपका क्या अभिप्राय है ?
(What do you mean by Justice ?)
उत्तर-पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन में न्याय का अध्ययन प्लेटो से प्रारंभ किया जा सकता
है। प्लेटो ने अपने ग्रन्थ ‘रिपब्लिक’ (Republic) में न्याय की स्थापना के उद्देश्य में नागरिकों
के कर्तव्यों पर बल दिया है। प्लूटो के न्याय संबंधी विवेचन में बार्कर का कथन है कि “न्याय
का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति द्वारा उस कर्तव्य का पालन, जो उसके प्राकृतिक गुणों तथा सामाजिक
स्थिति के अनुकूल है। नागरिक को अपने धर्म की चेतना तथा सार्वजनिक जीवन में उसकी
अभिव्यंजना ही राज्य का न्याय है।”
अरस्तू ने न्याय की इस समस्या को व्यक्तियों के आपसी विनिमय में राज्य के पदों के वितरण
में किन-किन नियमों का पालन होना चाहिए पर विचार करके ‘न्याय’ को व्यावहारिक रूप प्रदान
किया है। जिन राज्यों में न्याय नहीं रह जाता वह डाकुओं के झुण्ड के समान है। एक्वीनास के
अनुसार “न्याय प्रत्येक व्यक्ति को उसके अधिकार दिए जाने की निश्चित व सनातन इच्छा है।”
प्रश्न 7. न्याय के विभिन्न रूपों को वर्णित करें।
( (Describe the different forms of Justice.)
उत्तर-न्याय के विभिन्न रूपों को निम्न विषयों से जाना जाता है, जैसे नैतिक न्याय, सामाजिक
न्याय, राजनीतिक न्याय, कानूनी न्याय और आर्थिक न्याय। नैतिक न्याय की सर्वोच्च अवधारणा
है। नैतिक न्याय का स्रोत प्राकृतिक नियम है और प्राकृतिक नियम मनुष्यों द्वारा अपरिवर्तनीय हैं।
मनुष्यों को वास्तव में सत्य की अवधारणा को पहचानना और लागू करना है तो उसका मूल रास्ता
और कोई नहीं सिर्फ नैतिक न्याय ही है। बिना नैतिक मूल्यों के न्याय का न तो व्यावहारिक स्वरूप
रह पाता है और न ही सैद्धान्तिक स्वरूप रह पाता है। इस कारण न्याय की सच्ची अवधारणा
को पहचानने का एकमात्र रास्ता और कोई नहीं बल्कि नैतिक मूल्य है। सामाजिक न्याय में समाज
में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को जब उसके सामाजिक अधिकार के अनुरूप न्यायगत तरीके से
अधिकार एक दूसरे से प्राप्त होंगे तो निश्चित है कि सामाजिक न्याय वास्तव में सबसे विकास
और स्वयं समाज के विकास का कारण बनेगा। राजनीतिक न्याय वास्तव में केवल प्रजातांत्रिक
शासन पद्धति के ही माध्यम से सम्भव है क्योंकि राजनीतिक न्याय का मूल तात्पर्य यह है कि
सत्ता में प्रत्येक व्यक्ति को भागीदारी का अधिकार तथा बिना किसी भेदभाव के सभी व्यक्तियों
को सार्वजनिक पद प्राप्त होना। कानूनी न्याय में कानून वास्तव में ऐसा हो जो लोगों को न्याय
देने में मदद करे न कि न्याय देने में रोड़े अटकाए।
प्रश्न 8. कानूनी न्याय का तात्पर्य क्या है ?
(What is meaning of legal justice ?)
उत्तर-कानूनी न्याय का तात्पर्य यह है कि कानून अपने सैद्धान्तिकता में जहाँ नैतिक मूल्यों
के अनुरूप है, वहीं अपने क्रियान्वयन के स्तर पर इसी सैद्धान्तिकता के कारण नैतिक हो। इसलिए
कानूनी न्याय का स्थायित्व सिर्फ मूल्यों और नैतिकता पर निर्भर होता है। राज्य का शासक वर्ग
इसी के माध्यम से कानून को गठित और उसका क्रियान्वयन करता है लेकिन यह सिद्धान्त कानून
को निरंकुशता का मूल तात्पर्य नहीं होता है। इसलिए कानूनी न्याय का मूल अर्थ है कि कानून
नैतिक मूल्यों के अनुरूप हो तथा इसको लागू कराने संबंधी व्यावहारिकता भी नैतिक हो। कानूनी
न्याय जब राज्य के माध्यम से लागू होता है तो स्वाभाविक है कि राज्य को बलपूर्वक भी न्याय
को लागू करवाना पड़ता है। इसलिए कानूनी न्याय का अर्थ और परिभाषा का क्षेत्र काफी वृहद
होता है जो न्याय के हर स्तर पर उस व्यावहारिकता को खत्म कर दे, जो न्याय को काल्पनिक
या कानून को निरंकुश बनाना चाहता है। इसलिए कानूनी न्याय का तात्पर्य न्याय से और काफी
बृहद् और प्रभावी हो जाता है।
प्रश्न 9. स्वतंत्रता, समानता और न्याय के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करें।
(Find out the inter relationship of liberty, equality and justice.)
उत्तर-न्याय, स्वतंत्रता और समानता के संदर्भ में इस मौलिक तत्व की ओर विशेष रूप से
ध्यान दिया जाता है कि न्याय, स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों का मूल्यांकन करके स्वतंत्रता
और समानता को लोगों पर लागू करवाता है। न्याय वास्तव में स्वतंत्रता और समानता के वास्तविक
मूल्यों की पहचान करवाता है। वही न्याय स्वतंत्रता और समानता को बिना किसी भेदभाव के लागू
करवाने का माध्यम बनता है। स्वतंत्रता का मूल्य ही स्वतंत्रता के अस्तित्व और उसके प्रभाव का
कारण बनता है तथा स्वतंत्रता तभी तक हितकर है, जब तक कि उसके साथ न्याय का भाव जुड़ा
हुआ है। वैसे ही समानता लोगों पर जब तक न्यायपूर्ण लागू होगी, तभी तक समानता का अस्तित्व
है, नहीं तो समानता का अस्तित्व खत्म हो जाएगा क्योंकि समानता का अस्तित्व समानता के
मूल्यों पर निर्भर करता है और मूल्यों का सम्बन्ध न्याय से होता है। न्याय वास्तव में स्वतंत्रता
और समानता को स्थायी रूप से प्रभावी बनाता है इसलिए न्याय की अवधारणा को स्वयं स्वतंत्रता
और समानता नकार नहीं सकते हैं।
प्रश्न 10. स्वतंत्रता और न्याय के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट करें।
(Clarify the inter relationship of liberty and Justice.)
उत्तर-स्वतंत्रता और न्याय के बीच का सम्बन्ध इसलिए है कि स्वतंत्रता वास्तव में लोगों
पर अपने गुण के अनुरूप ढंग से लागू हो सके। स्वतंत्रता बिना अपने गुणों के असीमित होने से
लोगों के लिए अन्यायपूर्ण हो जाती है, और इसी अपार स्वतंत्रता से इसका प्रयोग करने वाले लोगों
का अन्त होता है इसलिए स्वतंत्रता का न्यायपूर्ण पहलू स्वतंत्रता के अस्तित्व को कारगर ढंग से।
लागू करने में सहायक होता है। स्वतंत्रता पर अंकुश न्यायपूर्ण ढंग से और कोई नहीं स्वयं स्वतंत्रता
के मूल्य लगाते हैं। स्वतंत्रता के मूल्यों का निर्धारण नैतिक नियमों के स्रोत से ही होता है, इस
कारण स्वतंत्रता का सीमित स्वरूप को सही ढंग से लागू करवाने के लिये न्याय की आवश्यकता
होती है। स्वतंत्रता का सीमित स्वरूप और उसका न्यायपूर्ण परिपालन राज्य के माध्यम से ही होगा।
वह न्याय के आधार पर ही होगा लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि राज्य लोकतान्त्रिक पद्धति
के लोक कल्याणकारी राज्य में विश्वास करता हो। इसलिए न्याय का स्थान, स्वतंत्रता संबंधी तथ्यों
के बावजूद राज्य, व्यक्ति और समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण होता है। राज्य स्वतंत्रता के संदर्भ
में किस प्रकार व्यक्ति और व्यक्तियों के बीच संतुलन करता है यह राज्य की न्याय व्यवस्था पर
निर्भर करता है।
प्रश्न 1. न्याय की अवधारणा के विविध रूपों का वर्णन कीजिए।
(Describe the various forms of the concept of justice.)
उत्तर-न्याय की अवधारणा के विविध रूप (Various forms of concept of
Justice)- न्याय की अवधारणा के विविध रूप निम्न प्रकार हैं-
(i) प्राकृतिक न्याय Natural Jistice)-समाज में व्यवस्था तभी बनी रहेगी यदि व्यक्तियों
को स्वतंत्रता और समानता प्रदान की जाए परन्तु यह अव्यावहारिक है। प्राकृतिक स्वतंत्रता
व्यवस्थित समाज के अस्तित्व में आने से पहले की कल्पना हो सकती है।
(ii) नैतिक न्याय (Moral Justice)- परम्परागत रूप से न्याय की नैतिक धारणा को ही
अपनाया जा रहा है। नैतिक न्याय के प्रमुख नियमों में जो आदर्श सम्मिलित हैं, उनमें सत्य बोलना,
प्राणिमात्र के प्रति दया का व्यवहार करना, परस्पर प्रेम करना, प्रतिज्ञा पूरी करना, वचन का पालन
करना, उदारता व दान का परिचय देना आदि है।
(iii) राजनीतिक न्याय (Political Justice)– अरस्तू ने न्याय को एक प्रकार का वितरण
सम्बन्धी (Distributive) न्याय बताया था, जिसका अर्थ राजनीतिक समाज में व्यक्ति को उसका
उचित स्थान प्रदान करना था। आधुनिक युग में राजनीतिक समाज के सदस्य होने के नाते व्यक्ति
द्वारा उसकी योग्यता के अनुसार शासन में भाग लेने, उसके सम्बन्ध में मत व्यक्त करने, चुनाव
में अपना मत देने, चुनाव में स्वयं खड़े होने तथा राजकीय पद ग्रहण करने आदि के अधिकार
प्राप्त होते हैं। इन अधिकारों की उचित व्यवस्था सबके लिए तथा निष्पक्ष रूप से होने की स्थिति
को ही राजनीतिक न्याय कहते हैं। लोकतंत्र की सफलता के लिए राजनीतिक न्याय अत्यन्त
आवश्यक हैं।
(iv) सामाजिक न्याय (Social Justice)- सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज में
प्रत्येक व्यक्ति का महत्व है। समाज में जाति, धर्म, वर्ग आदि के आधार पर भेदभाव न किया
जाए। दास प्रथा के समय दासों को अन्य नागरिकों से हेय समझा जाता था। संसार के अनेक
भागों में अब भी समाज में स्त्रियों की स्थिति पुरुषों के समान नहीं है। ये सब सामाजिक अन्याय
की स्थितियाँ हैं। सामाजिक न्याय की स्थिति में सबको समाज में उचित स्थान पर प्राप्त होता है।
(v) आर्थिक न्याय (Economic Justice)-आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन के
साधन और सम्पत्ति के वितरण की ऐसी व्यवस्था हो जिसमें सबको उनके श्रम का उचित
पारिश्रमिक मिल सके तथा कोई व्यक्ति, समुदाय या वर्ग किसी अन्य व्यक्ति, समुदाय या वर्ग का
शोषण न कर सके। सभी लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। आधुनिक युग में आर्थिक
न्याय का बड़ा महत्व है। आर्थिक विषमता होने पर समाज घनी और निर्धन, पूँजीपति और श्रमिकों
एवं शोषक और शोषित के वर्गों में विभाजित हो जाता है। फलत: समाज उन्नति नहीं कर सकता।
(vi) कानूनी न्याय (Legal Justice)-कानूनी न्याय से अभिप्राय है कि कानून न्याय-संगत
हो, समान व्यक्तियों के लिए समान कानून हो। किसी भी वर्ग को विशेषाधिकार प्राप्त न हो। कानून
जनता द्वारा समय-समय पर परखा जाए। न्याय निष्पक्ष, सरल व सस्ता हो ताकि निर्धन व्यक्ति
भी धन के अभाव में कहीं न्याय से वंचित न रहें और धनी वर्ग के शोषण के शिकार न हो जाए।
प्रश्न 2. भारत में नागरिकों के सामाजिक न्याय की सुरक्षा के क्या उपाय किए गए हैं ?
(With measures have been taken in India to secure social jistice to its
citizens?)
उत्तर-सामाजिक न्याय का अर्थ है कि समाज में निर्बल वर्ग के लोगों, अशिक्षितों, निर्धनों
को शक्तिशाली वर्ग, शिक्षितों और धनवानों की भांति उन्नति के समान अवसर प्राप्त होने चाहिए।
भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय दिलाने के लिए निम्नलिखित उपाय किए गए हैं-
सामाजिक न्याय के उपबन्ध (Provisions of Social Justice)-
(i) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के अनुसार छुआछूत को पूर्णतया समाप्त कर दिया गया है।
(ii) अनुच्छेद 16 के अनुसार सरकार का कर्तव्य है कि हरिजनों, पिछड़ी जातियों और कबीलों
की शिक्षा को अधिक उन्नत कर तथा उनके अधिक हितों की रक्षा करे।
(iii) अनुच्छेद 15 के अनुसार सरकार का कर्त्तव्य है कि दुकानों, होटलों, सार्वजनिक विश्राम
गृहों या भोजनालयों, कुओं, तालाबों, स्नानघरों, सड़कों, मनोविनोद के स्थानों में हरिजनों, पिछड़ी
जातियों और कबीलों के प्रवेश के लिए कोई रुकावट है तो उसे दूर करे।
(iv) अनुच्छेद 25 के अनुसार हिन्दुओं के सब धार्मिक स्थान हरिजनों, पिछड़ी जातियों और
कबीलों के प्रवेश के लिए खोल दिए जाएंँ।
(v) हरिजन, कबीले और पिछड़ी हुई जातियां कोई भी काम-धन्धा और व्यापार कर सकती
हैं और उन पर कोई रुकावट नहीं होगी।
(vi) अनुच्छेद 19 के अनुसार हरिजनों, कबीलों और पिछड़ी जातियों को राज्य की ओर से
सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश की मनाही नहीं की जाएगी।
(vii) सरकार का यह परम कर्तव्य है कि नौकरियों में पिछड़ी हुई जातियों तथा जनजातियों
को उचित प्रतिनिधित्व दे।
(viii) संविधान के आरम्भ होने से 10 वर्ष तक अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए
लोकसभा तथा राज्यों के विधानमण्डलों में स्थान आरक्षित किए गए थे। हर 10 वर्ष के बाद फिर
से संविधान में संशोधन करके यह आरक्षण अभी तक लागू है।
(ix) समान कार्य के लिए समान वेतन की नीति अपनायी जा रही है।
(x) कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म का पालन कर सकता है।
(xi) प्रत्येक जाति एवं सम्प्रदाय को अपनी संस्कृति, भाषा तथा लिपि को सुरक्षित रखने का
अधिकार दिया गया है।
प्रश्न 3. भारतीय परिप्रेक्ष्य में न्याय की अवधारणा का वर्णन कीजिए।
(Describe the concept of Justice in Indian perspective.)
उत्तर-हिन्दू धर्म की स्मृतियों के अनुसार कानून धर्म की एक शाखा है। विभिन्न स्मृतियाँ,
धर्म के नियमों के अनुसार ही न्याय व्यवस्था को निश्चित करती हैं। स्मृतियों के अनुसार दण्ड
की व्यवस्था न्याय से संबंधित है। इनके अनुसार राजा को दैवीय गुणों के अनुसार कार्य करना
चाहिए। जो भी प्राणी अपने स्वधर्म का पालन नहीं करता था उसे धर्म के नियमों के अनुसार दण्डित
किया जाता था। मनुस्मृति में फौजदारी और दीवानी कानूनों से संबंधित धर्म-कर्तव्यों के उल्लंघन
के लिए कानून विधि, दण्ड-विधि की व्यवस्था की गई है। मनु ने अपराध के अनुपात के अनुसार
दण्ड-फटकार लगाना, जुर्माना करना, बनवास देना तथा मृत्युदण्ड का विधान किया है परन्तु यह
दण्ड वर्णमूलक व्यवस्था के अनुसार समय, स्थान व उद्देश्य के आधार पर दिए जाते थे। समान
अपराध पर, जातिगत आधार पर असमान दण्ड की व्यवस्था थी। ब्राह्मणों को मृत्युदण्ड नहीं दिया
जाता था, परंतु भयंकर अपराध के लिए ब्राह्मण को मौत की सजा जल में डुबोकर मारने की
थी। जुआ खेलने वालों को कोड़ों की सजा दी जाती थी। उत्तराधिकार कानून की सूक्ष्म व्यवस्था
थी जिसमें बड़े भाई की सम्पत्ति के अलावा कुंआरी बहनों का भी भाग होता था। न्याय प्रशासन
का उद्देश्य सुधारात्मक था। मनु ने चार प्रकार के दण्ड बताए हैं– (i) वाक दण्ड, (ii) धिक दण्ड,
(iii) धन दण्ड, 4. मृत्यु दण्ड।
न्यायालयों के चार श्रेणी थे-
(i) राजा द्वारा नियुक्त अधिकारी-सभा की अध्यक्षता राजा करता था। सभा में वेदों,
धर्म-शास्त्रों और स्मृतियों के योग्य, निष्पक्ष, अनुभवी ब्राह्मण सलाहकार होते थे।
(ii) पूग-पूग-अथवा गण जाति वालों के समूह को कहते थे। इनका अलग न्यायालय होता था।
(iii) श्रेणी-एक ही प्रकार का व्यवसाय करने वाला व्यक्ति या समूह चाहे वह किसी भी
जाति का क्यों न हो, श्रेणी कहलाता था। उनके लिए अलग न्यायालय की व्यवस्था थी।
(iv) कुल-चौथे प्रकार का न्यायालय था। इसमें जाति विशेष के बन्धु-बान्धव होते थे।
मनुस्मृति में यह भी बताया गया है कि न्यायकर्ताओं की संख्या कम से कम तीन होनी चाहिए।
न्यायालयों के संगठन में सबसे नीचे की इकाई एक ग्राम तक ही सीमित थी। इसका न्यायिक
अधिकारों के पास विवाद भेजा जाता था। उसके बाद अति, सहस्राधिपति के पास विवाद भेज
दिया जाता था।
प्रश्न 4. प्लूटो के न्याय सिद्धान्त पर एक निबन्ध लिखिए।
(Write an essay on Plato’s concept of justice.)
उत्तर-प्लूटो का न्याय सिद्धान्त (Plato’s Concept of Justice) – प्लूटो के अनुसार
न्याय का सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दी रिपब्लिक’ (The
Republic) में न्याय की विस्तृत व्याख्या की है। प्लूटो के अनुसार, भूख (Appetite), साहस
(Spirit) व विवेक (Wisedom) मानव आत्मा के तीन तत्त्व हैं। इसी प्रकार गज्य में क्रमशः
उत्पादक (Producers), सैनिक (रक्षक) (Guardians) तथा शासक (Rulers) तीन वर्ग होते
हैं। तीनों वर्गों को अपने-अपने निर्धारित कार्यों को करना होता है। प्रत्येक वर्ग को ईमानदारी से
अपने कर्तव्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मानव आत्मा में निहित न्याय व्यक्तित्व के विविध
पक्षों जैसे-क्षुधा, साहस और विवेक को समुचित संतुलन और समन्वय उपलब्ध कराता है। प्लूटो
की दृष्टि में राज्य के सन्दर्भ में न्याय विभिन्न सामाजिक वर्गों में सामंजस्य स्थापित करता है।
जब हर वर्ग अपने कार्य से ही सम्बद्ध रहता है तथा केवल वही कार्य करता है, जिसके लिए वह
प्राकृतिक रूप से सर्वाधिक उपयुक्त होता है और दूसरों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करता है तो उस
स्थिति में उस राज्य में न्याय चरितार्थ होता है। प्लूटो के न्याय का सिद्धान्त कानूनी न होकर नैतिक
है जो कि यह बताता है कि क्या सही है और क्या गलत, क्या उचित है और क्या अनुचित। उचित
और सही कार्य को करना न्याय है जबकि अनुचित और गलत कार्य को करना अन्याय है।
प्रश्न 5. पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में न्याय की अवधारणा का अर्थ समझाइए।
(Explain the meaning of the concept of Justice in Western perspective.)
उत्तर-अति प्राचीन काल में न्याय का रूप कबीलाई था। तब “दाँत के बदले दांत, आँख
के बदले आँख” के सिद्धान्त पर कार्य किया जाता था। प्राचीन यूनानी न्याय में सोफिस्टो,
पाइथागोरस, प्लूटो और अरस्तू के द्वारा न्याय की धारणा बताई गयी है। सोफिस्टो के द्वारा न्याय
शक्तिशाली का हित है। पाइथागोरस ने समानता के आधार पर न्याय को परिभाषित किया है।
प्लूटो के अनुसार न्याय समाज को एक सूत्र में रखने वाली शक्ति है। न्याय का अर्थ व्यक्ति द्वारा
अपने कर्तव्यों को पूरा करना है। अरस्तू ने न्याय दो प्रकार का बताया। प्रथम, समानान्तर न्याय,
वह न्याय है जो सामाजिक जीवन को व्यवस्थित करता है। दूसरा आनुपातिक न्याय, वह न्याय
है जो राजनीतिक जीवन को व्यवस्थित करता है। मध्य युग में ईसाई धर्म के आधार पर न्याय
को सामाजिक गुण के रूप में देखा गया। सन्त ऑगस्टाइन ने कहा, “न्याय केवल इसाई राज्य
में होता है।” वह चर्च को प्रधानता देता है, उसका विचार है कि राज्य का चर्च के मामलों में
हस्तक्षेप न्याय का उल्लंघन है।
रोमन धारणा के अनुसार व्यक्ति के अधिकारों की न्यायपूर्वक सुरक्षा ही न्याय है। बीसवीं
सदी में कल्याणकारी राज्यों में न्याय की अवधारणा में कानूनी, राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक
पक्ष भी सम्मिलित किए गए। विश्व के सभी राज्य, जिनमें भारत भी शामिल है, आज न्याय की
पाश्चात्य अवधारणा को ही मानते हैं। इस अवधारणा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति के लिए भोजन,
शिक्षा, स्वास्थ्य की देखभाल, कानून पर आधारित शासन तथा नागरिक अधिकारों की सुरक्षा
आवश्यक है।