11- psychology

bihar board class 11 psychology | चिंतन

bihar board class 11 psychology | चिंतन

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चिंतन
                              [ THINKING]
                           पाठ के आधार-बिन्दु
●चितन सभी संज्ञानात्मक गतिविधियों का आधार है।
●चिंतन प्रायः संगठित अथवा निर्देशित होता है।
●चिंतन एक आंतरिक मानसिक प्रक्रिया होती है।
●प्रतिभा संवेदी अनुभवों का एक मानस चित्रण होता है।
●अभिप्रेरणा के अभाव में दक्षता या कुशलता अक्रिय मानी जाती है।
●निर्णय लेने में अर्जित ज्ञान और उपलब्ध साक्ष्य की सहायता लेकर निष्कर्ष तक पहुंँचते
हैं।
●निर्णयन में कई संभावित विकल्पों में से सही समाधान का चयन किया जाता है।
●मौलिकता को सर्जनात्मक चिंतन का आवश्यक तत्व माना जाता है ।
●जे. पी. गिलफर्ड के मतानुसार चिंतन दो प्रकार के होते हैं-
(i) अपसारी चिंतन और
(ii) अभिसारी चिंतन ।
●लचीलापन चिंतन में विविधता को इंगित करता है
●अपसारी चिंतन में तरह-तरह के विचारों को उत्पन्न करना सुगम माना जाता है।
●सर्जनात्मक चिंतन करने में अवरोध आते हैं जिन्हें आभ्यासिक, प्रात्यासिक, अभिप्रेरणात्मक,
संवेगात्मक एवं सांस्कृतिक वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है ।
●सांस्कृतिक अवरोधों का संबंध परम्परा का अत्यधिक अनुपालन, अनुरूपता दबाव
तथा रूढ़ियों से है।
●भाषा विचार को निर्धारित करती है और विचार भाषा को तथा भाषा एवं विचार
के उद्गम भिन्न-भिन्न होते हैं।
●वेंजामिन ली व्होर्फ के अनुसार भाषा विचार की अन्तर्वस्तु का निर्धारण करती है ।
इसे ‘भाषायी सापेक्षता प्राक्कल्पना’ कहा जाता है ।
●बच्चे संसार का आंतरिक निरूपण चिंतन के माध्यम से करते हैं ।
●चिंतन के माध्यम में भाषा भी एक साधन मात्र है।
●नवजात शिशु और छोटे बच्चे विविध प्रकार की ध्वनियाँ निकालते हैं ।
●निर्णय लेना तथा निर्णयन अंत:सर्बोधत प्रक्रियाएँ हैं ।
●तर्कना भी समस्या समाधान की तरह लक्ष्य निर्देशित होते हैं।
●भाषा स्पष्ट रूप से मानवीय विशेषता है।
●भाषा का विकास मुख्यतः तीन वर्ष की उम्र के दौरान होती है।
         पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर
Q1. चिंतन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए ।
Ans. सम्पूर्ण प्राणी जगत में मानव ही एक ऐसा जीवधारी है जिसमें सोचने, निर्णय लेने
तथा तर्क करने की विशिष्ट क्षमता होती है। चिंतन प्रतीकात्मक स्वरूप की विचारात्मक प्रक्रिया
होती है, जो सभी संज्ञानात्मक गतिविधियों या प्रतिक्रियाओं का आधार होता है। चिंतन में वातावरण
से प्राप्त सूचनाओं का प्रहस्तन एवं विश्लेषण सम्मिलित होती है
किसी शिल्पकार की कृति को सामने पाकर कोई व्यक्ति उसके रंग-रूप, स्वरूप, चमक
और चिकनापन के अतिरिक्त कला में सन्निहित भाव एवं उद्देश्य को भी समझना चाहता है । कला
के सम्बन्ध में मनन करने के उपरान्त उस व्यक्ति के ज्ञान में वृद्धि होती है । अपने परिवेश की
परख से उत्पन्न अनुभूति या संवेदना तथा प्राप्त होनेवाले अनुभव को मानवीय चिंतन का परिणाम
माना जाता है।
अत: कहा जा सकता है कि चिंतन एक उच्चतर मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम अर्जित
अथवा वर्तमान सूचना का प्रहस्तन एवं विश्लेषण करते हैं ।
चिंतन को व्यावहारिक स्वरूप देने के क्रम में हमें प्रस्तुत करने, कल्पना करने, तर्क देने तथा
किसी समस्या के लिए सही समाधान करने की योग्यता में वृद्धि होती है ।
हम किसी कार्य को करके वांछित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए योजना बनाते हैं अथवा पूर्व
करने का प्रयोग करते हैं। कार्य के सफल सम्पादन में रचना-कौशल का सक्रिय योगदान होता
है । अत: चिंतन को प्रायः संगठित और लक्ष्य निर्देशित माना जाता है।
ताश अथवा शतरंज का खिलाड़ी खेल में जीत पाने के लिए सदा सोच-सोच कर आगे
बढ़ता है । वह प्रत्येक चाल के लिए संभावित परिणाम या प्रतिक्रिया का सही अनुमान लगाना
चाहता है । वह अपनी सोच में नयापन लाकर अपनाई गई युक्तियों का मूल्यांकन करना चाहता
है। अत: चिंतन को एक मानसिक क्रिया कह सकते हैं।
ऊपर बर्णित तथ्यों के आधार पर चिंतन का स्वरूप मानसिक प्रक्रिया, लक्ष्य निर्देशन,
संज्ञानात्मक गतिविधियों का आधार, ज्ञान का उपयोग एवं विश्लेषण, कल्पना, तर्क जैसे पदों के
समूह के द्वारा निर्धारित किया जा सकता है।
Q.2.संप्रत्यय क्या है ? चिंतन प्रक्रिया में संप्रत्यय की भूमिका की व्याख्या कीजिए।  [B.M.2009A]
Ans. संप्रत्यय-ज्ञान-परिधान की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई संप्रत्यय है। संप्रत्यय उन वस्तुओं
एवं घटनाओं के मानसिक संवर्ग हैं जो कई प्रकार से एक-दूसरे के समान हैं । अर्थात् संप्रत्यय
निर्माण हमें अपने ज्ञान को व्यवस्थित या संगठित करने में सहायता करता है।
चिंतन प्रक्रिया में संप्रत्यय की भूमिका-चिंतन हमारे पूर्व अर्जित ज्ञान पर निर्भर करता
है। जब हम एक परिचित अथवा अपरिचित वस्तु या घटना को देखते हैं तो उनके लक्षणों को
पूर्व ज्ञान से जोड़कर उन्हें जानना-पहचानना चाहते हैं । यही कारण है कि हमें सेब को फल कहने
में, कुत्ता को जानवर मानने में, औरत को दया की प्रतिमा कहने में कोई कठिनाई या झिझक नहीं
होती है। संप्रत्यय एक संवर्ग का मानस चित्रण है । यह एक समान या उभयनिष्ठ विशेषता रखने
वाली वस्तु, विचार या घटना को वर्गीकृत करने में हमारी मदद करता है ।
संप्रत्यय के कारण व्यवस्थित एवं संगठित ज्ञान के द्वारा हम अपने ज्ञान का उपयोग ऐच्छिक
तौर पर करके कम समय और प्रयास के बल पर अच्छे परिणाम पा लेते हैं । छिपे सामानों को
खोजने में संप्रत्यय हमारी मदद करता है । संप्रत्यय के सहयोग हम अपने ज्ञान और अनुभव
को अधिक उपयोगी और दक्ष बना पाते हैं। संप्रत्यय का निर्माण हमें श्रम और समय संबंधी सुविधा
प्रदान करता है।
अतः चिंतन प्रक्रिया में संप्रत्यय की भूमिका सहयोगी मित्र तथा तकनीकी साधनों के अनुरूप
होती है, जो श्रम, ज्ञान, प्रयास तथा समय संबंधी प्रक्रियाओं में अपनी उत्कृष्ट व्यवस्था जैसे गुणों
के कारण जिज्ञासु समस्याओं का सही समाधान कम समय में उपलब्ध करा देता है ।
Q.3.समस्या समाधान की बाधाओं की पहचान कीजिए।
अथवा, समस्या समाधान से क्या तात्पर्य है? इसके अवरोधों को वर्णन करें।   [B.M.2009A]
Ans. कोई व्यक्ति समस्या समाधान के लिए समस्या की पहचान के साथ-साथ लक्ष्य,
कार्य-विधि एवं निरीक्षण को भी महत्त्व देता है। यह भी ज्ञात है कि मानसिक विन्यास को ही
समस्या समाधान की सर्वोत्तम प्रवृत्ति मानता है। लेकिन कभी-कभी यह प्रवृत्ति मानसिक दृढ़ता
को जिद्द के रूप में बदलकर नए नियमों या युक्तियों के पता लगाने का अवसर ही नहीं देता है।
जैसे 5 कलमों का मूल्य 20 रु. जानकर एक कलम का मूल्य जानने के लिए 20 में 5 से भाग देकर
उसका पता लगाता है। किन्तु जब उसे कहा जाता है 5 मजदूर एक गड्ढ़ा को 20 दिनों में खोद
सकते हैं तो 1 मजदूर को गड्ढा खोदने में कितना समय लगेगा । उत्तर के लिए यदि पुन: 20
÷5 की क्रिया करके तो 4 दिन के रूप में परिणाम मिलेगा जो बिल्कुल अस्वाभाविक है । इस
तरह ज्ञात नियमों में आवश्यक संशोधन किये बिना प्रयोग में लाना गलत परिणाम का कारण बन
जाता है। अर्थात् किसी पूर्व ज्ञान के प्रयोग सम्बन्धी हठधर्मिता समस्या समाधान में अवरोधक
सिद्ध होता है । समस्या समाधान में प्रकार्यात्मक स्थिरता को अपनाने वाला समाधान प्राप्त करने
में विफल हो जाता है।
रेडियो बजाने की विधि का प्रयोग यदि हारमोनियम बजाने में किया जाएगा तो पूर्व अर्जित
ज्ञान समाधान पाने में विफल रह जाएगा।
किसी विशिष्ट समस्या के समाधान करने में कुशल व्यक्ति भी अभिप्रेरणा के अभाव में
अपनी दक्षता एवं योग्यता का सही लाभ उठा नहीं पाता है। कभी ऐसा भी होता काम प्रारम्भ
करने के तुरन्त बाद ही कर्ता अपने को असहाय मानकर काम करना छोड़ देता है । यह संदिग्ध
सोच समस्या समाधान का बाधक बन जाता है।
सारांशतः माना जा सकता है कि समस्या समाधान के लिए मानसिक विन्यास, कार्यात्मक
स्थिरता, अधिप्रेरणा का अभाव तथा दृढ़ता प्रमुख अवरोधक माने जाते हैं। कोई भी कर्ता समस्या
समाधान के क्रम में उचित परिणाम का अभाव पाते ही अवरोध के रूप में प्रयुक्त साधनों या
विधियों को अवरोधक मान लेता है । अत: समस्या समाधान के दो प्रमुख अवरोधक के रूप में
मानसिक विन्यास तथा अभिप्रेरणा का अभाव अपनी पहचान गलत परिणाम के कारण पहचान
लिये जाते हैं।
Q.4. समस्या समाधान में तर्कना किस प्रकार सहायक होती है ?
Ans. किसी के घर में आग की लपेटों को देखकर बहू का जलाया जाना सदा सत्य नहीं
होता है। आग की लपटें कई कारणों से देखी जा सकती हैं । बहू का जलाया जाना मात्र एक
अनुमान है। जब हम यह जान लेते हैं कि उस घर में कोई बहू है ही नहीं तो अपने अनुमान को
वहीं लुप्त कर देते हैं । समस्या के लक्षणों के आधार पर अनुमान लगाना और समस्या के सही
कारणों का पता लगाना अलग-अलग बात है। हम समस्या जानकर तर्क के आधार पर परिणाम
पाने का प्रयास करते हैं जिसमें तर्कना हमारा काफी सहयोग करता है ।
तर्कना एक निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सूचनाओं को एकत्रित एवं विस्तारित करने की
एक प्रक्रिया है । अतः तर्कना के माध्यम से कोई व्यक्ति अपने चिन्तन को क्रमबद्ध बनाता है तथा
तर्क-वितर्क के आधार पर एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है । इस अर्थ में तर्कना समस्या
समाधान की एक सफल विधि है । तर्कना के द्वारा ही हम प्राप्त सूचनाओं को सही निष्कर्ष में
रूपांतरित कर सकते हैं।
तर्कना की शुरुआत पूर्वज्ञान अथवा अनुभव पर आधारित अनुमान से होती है । जो तर्कना
एक अभिग्रह या पूर्वधारणा से प्रारम्भ होता है उसे निगमनात्मक तर्कना कहते हैं। कुछ तर्कना
विशिष्ट तथ्यों एवं प्रेक्षण पर आधारित होता है, उसे आगमनात्मक तर्कना के रूप में पहचानते
हैं।
तर्कना हमें क्रमबद्ध अनुमानों पर सोचने-समझने का अवसर देता है और सही निष्कर्ष पाने
में सहयोग देता है । आग की लपटें देखकर पहला अनुमान किया गया कि लगता है बहू जला
दी गई। लेकिन जब पता चला कि घर में कोई बहू नहीं है तो पहला अनुमान प्राप्त सूचना के
कारण असत्य माना गया । दूसरा अनुमान किया गया कि कोई अंगीठी जलाया होगा। सूचना
मिली कि गर्मी के मौसम में कौन अंगीठी जलायेगा । फलत: इसका अनुमान भी गलत सिद्ध हो
गया। इसी प्रकार खाना बनाने, कच्चा कोयला जलाने, रद्दी कागज को नष्ट करने जैसी कल्पनाएँ
की गई लेकिन तर्क के द्वारा सबके सब अनुमान असत्य निकले । सम्बन्धित घर जाकर पता लगाया
गया । सूचना प्राप्त हुई कि आतिशबाजी का खेल खेला जा रहा था ।
इस प्रकार असंख्य उदाहरण हैं जो इस बात के साक्षी हैं कि समस्या समाधान के लिए
अनुमान को तर्क-वितर्क के द्वारा परखने के बाद ही निर्णय लिया जाना चाहिए ।
काले रंग से कोयला और पूर्ववत वर्ण से तर्क का माना जाना कोरी कल्पना भी हो सकती
है। सही निष्कर्ष तर्कना के माध्यम से ही संभव होता है ।
Q.5. क्या निर्णय लेना एवं निर्णयन अंतः संबंधित प्रक्रियाएँ हैं ? व्याख्या कीजिए।
Ans. निर्णय लेना एवं निर्णयन अंत: संबंधित प्रक्रियाएँ हैं । निर्णय लेने में ज्ञात जानकारियों
तथा उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष प्राप्त किया जाता है। धारणा स्थापित किये जाते
हैं और संबंधित वस्तुओं और घटनाओं का मूल्यांकन किए जाते हैं। कुछ निर्णय स्वचालित भी
होते हैं । तमाम संभव परिणामों के मूल्यांकन पर अतिम निर्णय लेना उचित माना जाता है ।
निर्णयन में पूर्व ज्ञात विभिन्न समाधान या विकल्पों में से एक का चयन कर लिया जाता
है। चयनित विकल्प कभी-कभी व्यक्तिगत स्वार्थ, समझ और रुचि पर आधारित होता है ।
विकल्पों में से लागत-लाभ के आधार पर किसी एक को चयन करने की विधि प्रचलित है।
निर्णय अस्थायी तथा अस्वाभाविक भी हो सकता है । जैसे, एक सज्जन पुरुष को पहली
मुलाकात में पोशाक के आधार पर हमारे होने का गलत निर्णय ले लिया जा सकता है। निर्णयन
में भी विकल्पों के चयन में गलत परामर्श के कारण गलत विकल्प को सही निष्कर्ष माना जा
सकता है।
अत: निर्णय लेने तथा निर्णयन समस्या समाधान के क्रम में सम्पादित की जाने वाली क्रियाएँ
हैं । दोनों के पास कुछ प्रेरक विशेषताएँ होती हैं तो कुछ दोषपूर्ण स्थितियाँ भी दोनों के साथ जुड़ी
रहती हैं। फिर भी, दोनों को अन्त: संबंधित मानना सही निर्णय है, क्योंकि दोनों विचारों को
प्राथमिकता देने या कार्यरूप में परिणत करने का साधन माना जा सकता है।
Q.6. सर्जनात्मक चिंतन प्रक्रिया में अपसारी चिंतन क्यों महत्त्वपूर्ण है ?
Ans. दृश्य और साध्य अपनी नवीनता लिए स्वरूप के कारण दर्शनीय बन जाते हैं।
तरह-तरह की आकृति, संरचना एवं उपयोगिता के साथ लोग पुराने मोबाइल सेट के बदले नया
सेट लेने को उत्सुक हो जाते हैं । यह प्रवृत्ति सृजनात्मक चिंतन के कारण ही उत्पन्न होती है।
निर्माता अपनी संरचना में सृजनात्मक चिन्तन का प्रयोग करके उपभोक्ताओं को कुछ नया कमाल
दिखाना चाहते हैं।
किसी चिंतन को तब सर्जनात्मक माना जाता है जब वास्तविकता की ओर उन्मुख उपयुक्त,
रचनात्मक तथा सामाजिक रूप से वांछित हो ।
सर्जनात्मकता शोध के अग्रणी जे. पी. जिलफर्ड के मतानुसार सृजनात्मक चिंतन दो प्रकार
के होते हैं-
(i) अभिसारी चिंतन तथा
(ii) अपसारी चिंतन ।
(i) अभिसारी चिंतन -अभिसारी चिंतन की आवश्यकता वैसी समस्या को हल करने में
पड़ती है जिसका मात्र एक सही उत्तर होता है । जैसे-1, 4, 9, 16 के बाद 25 ही होगा।
(ii) अपसारी चिंतन-अपसारी चिंतन को एक मुक्त चिंतन माना जाता है जिसमें किसी
समस्या के समाधान हेतु कई संभावित उत्तर हो सकते हैं। जैसे-नदी से क्या लाभ है के लिए
कई सही उत्तर होते हैं। अपसारी चिंतन नवीन एवं मौलिक विचारों को उत्पन्न करने में सहायक
होता है। अपसारी चिंतन योग्यता के अन्तर्गत सामान्य तथा (i) चिंतन प्रवाह (ii) लचीलापन और
(iii) विस्तारण आते हैं। जिन विशेषताओं के कारण अपसारी चिंतन को महत्त्वपूर्ण माना
जाता है।
अपसारी चिंतन के महत्त्वपूर्ण कहलाने के कारण-अपसारी चिंतन में मौलिक विचारों
को प्राथमिकता दी जाती है। निम्न वर्णित विशेषताओं के कारण इसे महत्त्वपूर्ण माना जाता है-
(i) चिंतन प्रवाह-किसी विशिष्ट चिंतन के कारण उत्पन्न समस्याओं के लिए अनेक विचार
प्रकट करने की स्वतंत्रता रहती है। कोई व्यक्ति किसी समस्या के समाधान हेतु अपनी योग्यतानुसार
अन्य व्यक्तियों की तुलना में कई संभावनाओं को प्रकट कर सकता है । जैसे-बाढ़ की विभीषिका
से बचने के कई उपाय सुझाये जा सकते हैं । विचारों की संख्या के बढ़ने से चिंतन प्रवाह का
अधिक होना माना जायगा ।
(ii) लचीलापन-किसी एक ही वस्तु, घटना या समस्या के संबंध में अलग-अलग राय
प्रकट की जाती है । एक ही फिल्म के दर्शकों में से कोई संगीत को पसन्द करता है तो कोई
मार-धाड़ के दृश्यों से प्रभावित होता है । अर्थात् एक ही समस्या के समाधान हेतु विविध विधियों,
व्याख्याओं तथा साधन के संबंध में चिंतन किया जा सकता है।
(iii) मौलिकता-परम्परागत विचारों को सम्मान देते हुए नये विचारों की व्याख्या करना
अथवा नवीन संबंधों का प्रत्यक्षण, चीजों को भिन्न परिप्रेक्ष्य में देखना आदि मौलिकता को बनाए
रखने में सहायक होते हैं । चिंतन की इस विशेषता के द्वारा दुर्लभ या असाधारण विचारों को
उत्पन्न किया जा सकता है। कोई व्यक्ति मौलिकता को बनाये रखते हुए जितने अधिक एवं विविध
विचार प्रस्तुत करता है, उसमें उतनी ही अधिक योग्यता या क्षमता मानी जाती है।
(iv) विस्तरण-अपसारी चिंतन की एक विशेषता विस्तरण भी है जो किसी व्यक्ति को नए
विचार को विस्तार (पल्लवित) करने तथा उसके निहितार्थ को स्पष्टतः समझने का अवसर जुटाती
है । अर्थात् अपसारी चिंतन में विविध प्रकार के ऐसे विचारों को उत्पन्न करना सुगम हो जाता
है जो एक-दूसरे से संबंधित होते हैं । जैसे, फसल की वृद्धि के लिए आवश्यक साधनों, उपायों
एवं पद्धतियों के सम्बन्ध में तरह-तरह के विचारों (खाद, खरपतवार, सिंचाई) को प्रकट करने
की क्षमता तथा आवश्यकता उभरकर सामने आती है।
अपसारी चिंतन की महत्ता को बचाने के लिए विचारों को स्थिर एवं उपयोगी बनाकर रखना
वांछनीय है । अत: अपसारी चिंतन विविध प्रकार के विचार को उत्पन्न करने के लिए अति
आवश्यक है।
Q.7.सर्जनात्मक चिंतन में विभिन्न प्रकार के अवरोधक क्या हैं ?
Ans. सामान्य या साधारण मनुष्य भी सृजनात्मक चिंतन करके उपयोगी उपाय, विधि,
नियम आदि को प्रस्तुत करने की क्षमता रखता है । व्यक्ति बदलने से अभिव्यक्ति में अंतर आ
सकता है । लेकिन उन्हें प्रोत्साहन देने के साथ-साथ अवरोध मुक्त रहने की आवश्यकता होती
है । सृजनात्मक चिंतन में अवरोध उत्पन्न करने वाले कारणों को कई भागों में वर्गीकृत किया
जा सकता है-
(i) आभ्यासिक
(ii) प्रात्यक्षिक
(iii) अभिप्रेरणात्मक
(iv) संवेगात्मक तथा
(v) सांस्कृतिक ।
(i) आभ्यासिक अवरोध-आदतों के अधीन होकर सोचने की विधि पाने का प्रयास
हानिकारक हो सकती है। पूर्व अर्जित ज्ञान के अधिक प्रचलित व्यवहार के कारण नई विधियों
की आवश्यकताओं पर कोई चिंतन करना नहीं चाहता है। शीघ्रता से निष्कर्ष पाने की प्रवृत्ति,
समस्याओं को नया स्वरूप देने में अरुचि, पुरानी विधि का अत्यधिक कार्य करने के सामान्य एवं
घिसे-पिटे तरीके से संतुष्ट हो जाना आदि सृजनात्मक चिंतन के लिए नया रास्ता पाने में अवरोधक
का काम करते हैं। हमारी पुरानी धारणाएँ एवं पुरानी कुशलता नये प्रयास के प्रति हमारी रुचि
का हनन करने में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
(ii) प्रात्यक्षिक अवरोध-प्रात्यक्षिक अवरोध हमें नए और मौलिक विचारों के प्रति खुला
दृष्टिकोण रखने से रोकते हैं । विचारों अथवा विधियों पर प्रतिबन्ध लगाकर सृजनात्मक चिंतन
पर रोक लगा दी जाती है । मवेशियों को बिना लाठी का चराना इसी तरह के प्रतिबन्ध का एक
उदाहरण है।
(ii) अभिप्रेरणात्मक अवरोध-किसी नये काम पूरा करने से सक्रिय व्यक्ति बाहरी
व्यक्ति के परामर्श से परेशान होकर काम करना बन्द कर देते हैं । कोई उसे गड्ढा खोदने से
रोकता है, कोई माता-पिता के जानने का काम करता है। इस प्रकार उचित अभिप्रेरणा का अभाव
चिंतन के लिए बाधक बन जाता है ।
(iv) संवेगात्मक अवरोध-किसी काम से जुड़े, व्यक्ति को असफलता की गारंटी बताकर
हतोत्साह करना, हँसी का पात्र बन जाने की संभावना बताना, दुर्बल धारणा को जन्म देकर चिंतन
क्षमता में कमी लाने का प्रयास है । स्वयं के प्रति नकारात्मक विचार, असमर्थता का बोध, निन्दा
की चिन्ता आदि संवेगात्मक अवरोध बनकर सृजनात्मक चिंतन को विराम की स्थिति में ला देते
हैं।
(v) सांस्कृतिक अवरोध-सृजनात्मक चिंतन के क्रम में पारस्परिक विधियों का अत्यधिक
अनुपालन, अस्वाभाविक अपेक्षाएँ, अनुरूपता दबाव, रूढ़िवादी विचार, साधारण लोगों से भिन्न
प्रतीत हो जाने का भय, यथास्थिति बनाये रखने की प्रवृत्ति, सुरक्षा का संचरण, सामाजिक दबाव,
दूसरों पर अत्यधिक निर्भरता आदि के प्रभाव में पड़कर सृजनात्मक चिंतन से विमुख हो जाते हैं।
अतः सृजनात्मक चिंतन के लिए स्वतंत्र रूप से आशावादी दृष्टिकोण के साथ विचार प्रकट करने
की सुविधा मिलनी चाहिए ।
Q.8. सर्जनात्मक चिंतन को कैसे बढ़ाया जाता है ?
Ans. सर्जनात्मक चिंतन को बढ़ाने के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण अभिवृत्तियों, प्रवृत्तियों तथा
कौशल के प्रति सतर्कता निभाने की आवश्यकता होती है । कुछ प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं-
(i) अपने परिवेश (अनुभूतियों, दृश्यों, ध्वनियों, रचना, गुणों) के प्रति सदा सतकर्ता बरतना
चाहिए तथा संवेदनशील बनकर समस्याओं, सूचनाओं, असंगतियों, कमियों, अपूर्णताओं पर जिज्ञासु
नजर रखना चाहिए । विस्तृत अध्ययन, सूचना, संग्रह, आदतों में सुधार, प्रश्नोत्तर विधि से
परिस्थितियाँ तथा वस्तुओं के रहस्य को जानकर अपने चिंतन का विकास किया जा सकता है।
(ii) योजना, परामर्श, प्रतिक्रिया, प्रबंधन, व्यवस्था सम्बन्धी समस्याओं को चातुर्यपूर्ण तरीके
से हल कर लेना चाहिए ।
(iii) किसी कार्य को बहुविधीय पद्धति से परीक्षण करते रहना चाहिए ।
(iv) बुरी आदतों, क्रोधी मित्रों, असहाय व्यक्तियों से उत्तम व्यवहार करना चाहिए ।
(v) विचारों को मूल्यांकन के बाद ही सार्वजनिक कराना चाहिए ।
(vi) विचार-प्रवाह के लचीलेपन को कायम रखना चाहिए ।
(vii) शान्त चित्त से स्वतंत्र अवस्था में रहकर चिंतन करना चाहिए।
(viii) विचारों में नए संयोजन को विकसित करना चाहिए ।
(ix) अभ्यास एवं उपयोग के प्रति निरन्तरता और सावधानी बनाए रखना चाहिए ।
(x) जीवन में साहित्य एवं भाषा ज्ञान को प्राथमिकता देनी चाहिए ।
(xi) सूचनाओं का भंडार बनाकर उपयोगी सूचनाओं के सम्बन्ध में ही चिंतन करना चाहिए।
(xii) अपने विचार को उद्भवित होने का अवसर देना चाहिए ।
(xiii) सदा असफलता से सामंजस्य स्थापित करके चिंतन करना चाहिए ।
(xiv) कारणों और परिणामों को परिस्थितियों से जोड़कर पहचानना चाहिए ।
(xv) समस्या से जुड़े भय या संकट से मुक्ति का सर्वमान्य तरीका अपनाना चाहिए ।
(xvi) आत्मविश्वासी, धैर्यवान, शांत प्रकृति वाला एक योग्य चिंतक बनकर नित्य अभ्यास
और चिंतन में लगा रहना चाहिए ।
Q.9. क्या चिंतन भाषा के बिना होता है ? परिचर्चा कीजिए।
Ans. भाषा के अभाव में चिंतन लगभग असंभव ही होता है, क्योंकि भाषा चिंतन सामग्री
को जुटाने में सहायता करता है । भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं,
विचारों आदि को सामाजिक रूप से स्वीकृत मानकों के रूप में अभिव्यक्त करता है। मनुष्य की
अभिव्यक्ति के लिए शब्द या भाषा का होना अतिआवश्यक है । चिंतन और भाषा के पारस्परिक
संबंधों को तीन विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है जो इस प्रकार है-
(i) विचार के निर्धारक के रूप में भाषा,
(ii) भाषा निर्धारक के रूप में विचार तथा
(iii) भाषा एवं चिन्तन के भिन्न उद्गम ।
(i) विचार के निर्धारक के रूप में भाषा-हमारी चिंतन प्रक्रिया पूर्णता भाषा की समृद्धि
पर निर्भर करती है । बेंजामिन ली व्हार्फ का मानना था कि भाषा विचार की अंतर्वस्तु का निर्धारण
करती है । इस दृष्टिकोण को ‘भाषाई सापेक्षता प्राक्कल्पना’ के नाम से जाना जाता है । अत:
व्यक्ति संभवतः क्या और किस प्रकार सोच सकता है, इसका निर्धारण उस व्यक्ति के द्वारा प्रयुक्त
भाषा-भाषाई वर्गों के भाषा ‘नियतित्ववाद’ से होता है। सच तो यह है कि सभी भाषाओं में
विचार की गुणवत्ता एवं महत्त्व का समान स्तर पाया जाना स्वाभाविक होता है। भले किसी भाषा
में विचार प्रकट करना अपेक्षाकृत सरल हो जाता है।
(ii) भाषा निर्धारक के रूप में विचार-प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक जीन पियाजे का मानना था
कि भाषा न केवल विचार का निर्धारण करती है, बल्कि यह इसके पहले भी उत्पन्न होती है।
उसके अनुसार बच्चे संसार का आंतरिक निरूपण चिंतन के माध्यम से ही करते हैं । बच्चों में
अनुकरण की स्वाभाविक वृत्ति में भाषा के प्रयोग आवश्यक नहीं होता है। बच्चों के व्यवहार
में चिंतन का उपयोग संभव होता है। सही है कि चिंतन के साधनों में से भाषा भी एक साधन
मात्र होता है । पियाजे का मानना था कि बच्चों को भाषा का ज्ञान दिया जा सकता है, किन्तु
ज्ञान का होना भी आवश्यक होता है । भाषा को समझने के लिए विचार (चिंतन) आधारभूत
एवं आवश्यक कारक (तत्व) होते हैं।
(iii) भाषा एवं चिन्तन के भिन्न स्वरूप-रूसी मनोवैज्ञानिक लेल पायगोत्संकी ने बच्चों
की प्रवृत्ति पर विशेष ध्यान करने के उपरान्त बतलाया था कि लगभग दो वर्ष की उम्र तक बच्चों
में भाषा और विचार का विकास अलग-अलग स्तरों पर होता है । इस अवस्था में बच्चों को
पूर्ववाचिक माना जाता है । बच्चे अपने हाव-भाव के द्वारा अपने विचार को प्रकट किया करते
हैं। बच्चे ध्वनिरहित भाषा के माध्यम से अपने विचार को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने की क्षमता
रखते हैं । जब चिंतन का माध्यम अवाचित होता है तो विचार का उपयोग बिना भाषा के किया
जा सकता है । भाषा का उपयोग बिना चिंतन या विचार के तब किया जाता है जब भावना (खुशी,
गम, दिल्लगी) को अभिव्यक्त करना होता है । क्रिया और प्रतिक्रिया एक-दूसरे में व्याप्त होती
है । इस दशा में विचार एवं तार्किक भाषा को उत्पन्न करने में वाचक और श्रोता समान रूप
से भागीदारी निभाते हैं । अर्थात् दो वर्षों से अधिक उम्र वाले बच्चों में संप्रत्ययात्मक चिंतन का
विकास आंतरिक भाषा की गुणवत्ता पर निर्भर करता है, क्योंकि बड़े बच्चे अपने विचार को वाणी
के माध्यम से व्यक्त करने लगते हैं।
अत: विभिन्न आयु वाले व्यक्तियों में भाषा अर्जन करने तथा अपने विचारों को व्यक्त करने
का तरीका अलग-अलग होता है । भाषा के अभाव में अपनी अनुभूतियों को संप्रेषित करना बहुत
ही अस्वाभाविक या कठिन कार्य माना जाता है। दूसरों के विचार को पूर्णतः समझ पाना भी भाषा
के माध्यम से ही सरल होता है । बच्चे भाषा की जगह प्रतीकों अथवा इशारों का प्रयोग करना
सीख जाते हैं । यही कारण है कि छोटे बच्चे (नवजात शिशु) तरह-तरह की ध्वनियों के माध्यम
से माता-पिता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। बच्चों के द्वारा बलबलाना या छोटे शब्दों का
प्रयोग करना स्पष्ट करता है कि वे भाषा-ज्ञान की प्राप्ति एवं प्रयोग के लिए बेचैनी महसूस कर
रहे हैं।
प्रस्तुत परिचर्चा से स्पष्ट हो जाता है कि भाषा और चिंतन जटिल रूप से सम्बन्धित होते
हैं।
Q. 10. मनुष्य में भाषा का अर्जन किस प्रकार होता है ?
Ans. मनुष्य में भाषा अर्जन में प्रकृति और परिपोषण का योगदान महत्त्वपूर्ण होता है
व्यवहारवादी बी. एम. स्किनर के साथ-साथ अनेक विद्वानों का मानना है कि साहचर्य, अनुकरण
तथा पुनर्बलन को अपनाकर ही भाषा अर्जन का आरम्भ किया जा सकता है । सामान्य तौर पर
भाषा के अर्जन के लिए भाषा में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ जानना, कथन को समझने की क्षमता बढ़ाना,
शब्दावली का निर्माण, वाक्यों की संरचना एवं आशय को पहचानना तथा शुद्ध उच्चारण की कला
सीखना आदि शामिल हैं।
दूसरे दृष्टिकोण से यह भी माना जा सकता है कि भाषा अर्जन के लिए उत्तम स्वास्थ्य,
उचित बुद्धि का विकास, सामाजिक प्रथाओं अथवा नियमों का ज्ञान, आर्थिक दशायें, सम्पन्नता,
परिवेश, जन्म-क्रम, आयु, यौन आदि कारकों पर भी ध्यान रखना अनिवार्य होता है।
भाषा अर्जन का आरम्भ जन्म क्रन्दन से होता है । इसके बाद विस्फोटक ध्वनियाँ,
बलबलाना, हाव-भाव के साथ अस्पष्ट ध्वनि के द्वारा विचार प्रकट करना आदि पाये जाते हैं।
शिशुओं की मौन अवस्था के पश्चात् एक वर्ष की उम्र में वह पहला शब्द बोलता है। दो वर्ष
की उम्र तक भाषा एवं विचार का विकास अलग-अलग स्तर पर होता है। भाषा अर्जन में
अगल-बगल में उत्पन्न ध्वनियों का अनुकरण क्रमिक रूप से वाछित अनुक्रिया के समीप ले आता
है। फलतः प्रभाव में आने वाला बच्चा सार्थक वाक्य के रूप में भावना को व्यक्त करना सीख
लेता है।
बड़े होकर मुनष्य कहानी, साहित्य, नाटक, वार्तालाप, पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भाषा
सम्बन्धी ज्ञान का अर्जन करता है।
किसी विशिष्ट भाषा से सम्बन्धित व्याकरण का ज्ञान, शब्द-युग्मों का प्रयोग, पर्यायवाची
शब्द, अलंकार आदि को जानकर कोई व्यक्ति भाषा ज्ञान को समृद्ध बनाता है।
        अन्य महत्त्वपूर्ण परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
                         वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
(OBJECTIVE ANSWER TYPE QUESTIONS)
1. रेल की पटरी का आपस में मिलना किस भ्रम का उदाहरण है              [B. M. 2009 A]
(a) व्यक्तिगत
(b) सार्वभौम
(c) आभासी
(d) ज्यामितीय                                       (उत्तर-B)
2. चिंतन का स्वरूप होता है।                                                          [B.M.2009]
(a) संगठित
(b) असंगठित
(c) दिशाहीन
(d) इनमें से कोई नहीं।                              (उत्तर-A)
                       अति लघु उत्तरीय प्रश्न
(VERY SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. चिन्तन क्या है?
Ans. मनोविज्ञान के अनुसार किसी भी समस्या के समाधान के लिये सोचने की प्रक्रिया
चिन्तन कहलाती है।
Q.2. चिन्तन की धारणा से आप क्या समझते हैं ?
Ans. चिन्तन की धारणा एक ऐसी जटिल मानसिक प्रक्रिया है जो किसी समस्या के
उपस्थित होने पर सोचने की क्रिया शुरू होती है। प्राणी या जीव के सोचने की प्रक्रिया की धारणा
ही चिन्तन है । समस्या के समाधान होने पर चिन्तन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।
Q.3. चिन्तन की समुचित परिभाषा क्या है ?
Ans. चिन्तन एक विचारात्मक प्रक्रिया है जो प्रतीकात्मक स्वरूप का होता है और जिसका
प्रारम्भ व्यक्ति के सामने उपस्थित किसी समस्या से होता है । इसमें व्यक्ति की समस्या एवं
मानसिक वृत्ति से संबंद्ध प्रयत्न और भूल की क्रिया देखी जाती है और अंत में समस्या का समाधान
हो जाता है।
Q.4. चिंतन किस प्रकार की प्रक्रिया है ?
Ans. चिंतन प्रतीकात्मक स्वरूप की विचारात्मक प्रक्रिया है।
Q.5. चिंतन में समस्या का समाधान किस प्रकार होता है ?
Ans. चिंतन में समस्या का समाधान प्रयत्न एवं भूल के आधार पर होता है ।
Q.6. चिंतन में कौन-कौन प्रक्रियाएँ संलग्न होती हैं ?
Ans. चिंतन में सबसे पहली प्रक्रिया है समस्या का उपस्थित होना, उसके बाद विभिन्न
विचारों का आना, प्रयल एवं भूल का होना, सक्रिय रहना, आंतरिक संभाषण होना तथा समस्या
समाधान के साथ चिन्तन क्रिया सम्पन्न होती है।
Q.7.चिंतन में प्रयल एवं भूल क्या है ?
Ans. चिंतन के समय व्यक्ति समस्या से सम्बन्धित विभिन्न विचारों को समस्या के निदान
के लिए लागू करता है । यदि वह एक विचार से समाधान नहीं कर पाता तो दूसरे विचार की
सहायता लेता है । यह क्रम तबतक चलता है जबतक समस्या का समाधान नहीं हो जाता है ।
Q.8. चिंतन में आंतरिक संभाषण क्या है ?
Ans. चिंतन की प्रक्रिया में व्यक्ति मन-ही-मन भाषा एवं प्रतिमा का प्रयोग करता है |
उसके कण्ठ में गतियाँ होती हैं । यही आंतरिक संभाषण है।
Q.9. रचनात्मक एवं सृजनात्मक चिंतन क्या है ?
Ans. रचनात्मक चिंतन एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिससे किसी समस्या को नए ढंग
से हल करने के लिए व्यक्ति में नये विचार या नयी अनुक्रिया की उत्पत्ति होती है ।
Q.10. चिंतन में तत्परता से क्या तात्पर्य है ?
Ans. तत्परता का अर्थ किसी कार्य विशेष या अनुभव के प्रति प्रारम्भिक आयोजन या
तैयारी है।
Q.11. चिंतन में उद्भवन या गीकरण की अवस्था क्या है ?
Ans.चिंतन में उद्भवन एक विश्राम की अवस्था है। जब व्यक्ति को समाधान नहीं मिलता
है तो वह निष्क्रय हो जाता है और समस्या के हल की दिशा में प्रयास करना छोड़ कर किसी
अन्य कार्य में लग जाता है।
Q.12. रचनात्मक चिंतन में स्फुरण क्या है ?
Ans. स्फुरण से तात्पर्य अचानक सफलता से है। यह उद्भवन के तुरन्त बाद होता है।
यह व्यक्ति को समस्या का समाधान करने के लिए समर्थ बनाता है।
Q. 13. रचनात्मक चिंतन में प्रमाणीकरण से क्या तात्पर्य है ?
Ans. प्रमाणीकरण से तात्पर्य समस्या के हल के लिए मिले समाधान के विश्वसनीयता एवं
वैधता की जाँच से है।
Q.14. चिंतन के क्षेत्र में सबसे पुराना सिद्धान्त कौन है ?
Ans. चिंतन के क्षेत्र में सबसे पुराना सिद्धान्त केन्द्रीय सिद्धान्त है
Q.15. चिंतन के केन्द्रीय सिद्धान्त के विरोध में किस सिद्धान्त का विकास हुआ है।
Ans. चिंतन के केन्द्रीय सिद्धान्त के विरोध में परिधीय सिद्धान्त का विकास हुआ है।
Q. 16. चिंतन को किसने संवेदनाजन्य माना ?
Ans. विलहेल्म बुण्ट ने चिंतन को संवेदनाजन्य माना है।
Q.17. चिंतन की प्रक्रिया में किसने प्रतिमा को आवश्यक माना है ?
Ans. बुण्ट, टिचनर, बर्कले आदि मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन की प्रक्रिया में प्रतिमा को
आवश्यक माना है।
Q. 18. किसने कहा कि चिंतन में प्रयास एवं भूल की प्रक्रिया होती है ?
Ans. थॉर्नडाइक ने कहा है कि चिंतन में प्रयास एवं भूल की प्रक्रिया होती है।
Q.19. किसने चिंतन को विचारात्मक स्वरूप की प्रतीकात्मक प्रक्रिया कहा है ?
Ans. बारेन ने चिंतन को विचारात्मक स्वरूप की प्रतिकात्मक प्रक्रिया कहा है।
Q.20. चिंतन में भाषा के महत्त्व को किसने स्वीकार किया है ?
Ans. जे. बी. वाटसन ने चिंतन में भाषा के महत्त्व को स्वीकार किया है
Q.21. किस मनोवैज्ञानिक ने चिंतन के लिए भाषा को आवश्यक नहीं माना है ?
Ans. ब्राउन ने चिंतन के लिए भाषा को आवश्यक नहीं माना है।
Q.22. व्यक्ति के चिंतन में कौन-कौन तत्व शामिल होते हैं ?
Ans. व्यक्ति के चिंतन में प्रयत्न एवं भूल, पूर्व दृष्टि, अन्तर्दृष्टि, पश्चात् आदि तत्व होते
हैं।
Q.23. बच्चों में चिंतन की क्रिया किस काल में प्रारम्भ होती है ?
Ans. बच्चों में चिंतन की प्रक्रिया बाल्यकाल में प्रारम्भ होती है।
Q.24. मनोवैज्ञानिकों ने किस प्रकार के चिंतन को प्रतिमाहीन चिंतन कहा है ?
Ans. मनोवैज्ञानिकों ने अमूर्त चिंतन को प्रतिमाहीन चिंतन कहा है।
Q.25. रचनात्मक चिंतन की सबसे पहली अवस्था क्या है ?
Ans. रचनात्मक चिंतन की सबसे पहली अवस्था तथ्यों का संग्रह है।
Q.26. रचनात्मक चिंतन की सबसे अन्तिम अवस्था क्या है ?
Ans. रचनात्मक चिंतन की सबसे अन्तिम अवस्था गर्भीकरण की जांँच है।
Q.27. चिंतन को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण योगदान कौन करता है ?
Ans. चिंतन को दिशा देने का काम तत्परता करता है।
Q.28. तार्किक चिंतन की क्या धारणा है ?
Ans. तार्किक चिंतन को चिन्तन का तीसरा रूप माना जाता है। तार्किक चिन्तन की कल्पना
उस चिन्तन से है जो तर्कशास्त्र के नियमों पर आधारित है । चिन्तन यदि निगमन होता है तो वह
तार्किक चिन्तन कहलाता है ।
Q.29. रचनात्मक चिन्तन की समुचित परिभाषा दें।
Ans. रचनात्मक चिन्तन की समुचित परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-रचनात्मक
चिन्तन एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें किसी समस्या को नये ढंग से हल करने के लिये व्यक्ति
में नये विचार और नयी अनुक्रिया की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार के चिन्तन के माध्यम से व्यक्ति
रचनात्मक कार्यों को करता है।
Q.30. चिंतन का स्वरूप क्या है?
Ans. चिन्तन प्रायः संगठित और लक्ष्य निर्धारित होता है।
Q.31. चिंतन के आधारभूत तत्व किसे कहते हैं ?
Ans. चिन्तन मानसिक प्रतिमा या शब्द और लक्ष्य प्राप्ति के क्रम में पूर्वज्ञान पर आधारित
होता है।
Q.32. मानसिक प्रतिमा किसे कहते हैं ?
Ans. मानसिक प्रतिमा वैदी अनुभवों का एक मानस चित्रण है ।
Q. 33. मानचित्र में स्थानों का निर्धारण किस आधार पर किया जाता है ?
Ans. मस्तिष्क में बने सम्पूर्ण स्थिति की प्रतिमा के आधार पर मानचित्र में स्थानों को चिह्नित
करना संभव होता है।
Q.34. संप्रत्यय किस कारण सहायक माना जाता है ?
Ans. संप्रत्यय अर्जित ज्ञान को व्यवस्थित या संगठित करने में सहायता करता है।
Q.35. संप्रत्यय की व्यावहारिक प्रकृति कैसी होती है ?
Ans. अधिकांश संप्रत्यय जिनका उपयोग चिंतन में किया जाता है वे न तो स्पष्ट होते हैं
और न ही असंदिग्ध ।
Q.36. संप्रत्यय निर्माण की आवश्यकता हमें क्यों पड़ती है ?
Ans. संप्रत्यय निर्माण हमें व्यवस्थित विचारक के द्वारा ऐच्छिक तौर पर ज्ञान का प्रयोग
करने का अवसर जुटाता है।
Q.37. चिंतन के तरीके को प्रभावित करनेवाले कारक क्या हैं ?
Ans. चिंतन करने के तरीके को विश्वास, मूल्य एवं सामाजिक प्रचलन प्रभावित करते हैं।
Q.38. समग्र चिंतन किसे कहते हैं ?
Ans. एशियाई लोग वस्तु एवं पृष्ठभूमि के संबंध के बारे में अधिक सोचते हैं जिसे समग्र
चिंतन कहा जाता है।
Q.39. चिंतन के आधार के रूप में किसका उपयोग किया जाता है ?
Ans. मानसिक प्रतिमाओं एवं संप्रत्ययों का उपयोग चिंतन के आधार के रूप में होता है।
Q.40. समस्या समाधान से क्या तात्पर्य है ?                                 [B.M.2009A]
Ans. समस्या समाधान ऐसा चिंतन है जो लक्ष्य निर्दिष्ट होता है।
Q.41. समस्या का लक्षण क्या होता है ?
Ans. समस्या हमेशा व्यक्ति द्वारा सामना किए जाने वाले अवरोध या बाधा के रूप में नहीं
आती है । यह एक निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए संपादित कोई सरल कार्य भी हो
सकता है।
Q.42. समस्या समाधान में अवरोध क्या है ?
Ans. समस्या समाधान में मानसिक विन्यास तथा अभिप्रेरणा का अभाव दो प्रमुख अवरोध
है।
Q.43. प्रकार्यात्मक स्थिरता कब उत्पन्न होती है ?
Ans. समस्या समाधान में क्रियाशील व्यक्ति जब समाधान पाने में स्वयं को अयोग्य तथा
असहाय मान लेता है तो वह काम समाप्त होने के पहले ही काम करना बन्द कर देता है । काम
होने की क्रिया में आने वाली स्थिरता को प्रकार्यात्मक स्थिरता कहते हैं।
Q.44. तर्कना के दो रूप क्या-क्या हैं ?
Ans. (i) निगमनात्मक तर्कना तथा (ii) आगमनात्मक तर्कना ।
Q.45. तर्कना के किस रूप पर ज्यादा भरोसा किया जाता है ?
Ans. वैज्ञानिक तर्कना की अधिकांश स्थितियाँ आगमनात्मक होती हैं। विचारों में उत्पन्न
सम या द्वन्द्व को हटाकर व्यक्ति को सक्रिय बनाने का काम भी आगमनात्मक तर्कना से ही संभव
होता है।
Q.46. समस्या समाधान से आप क्या समझते हैं ?                     [B.M.2009A]
Ans. समस्या समाधान वह प्रक्रिया है जिसमें प्राथमिक ज्ञानात्मक परिस्थितियों से प्रारम्भ
होकर इच्छित लक्ष्य तक पहुँचना अपेक्षित रहता है । समस्या समाधान चिन्तन का एक विशिष्ट
रूप है । इसमें मनुष्य चिन्तन करके प्रस्तुत समस्या का समाधान करता है।
Q.47. सम्प्रत्यय क्या है ?
Ans. सम्प्रत्यय व्यक्ति के मानसिक संगठन में एक प्रकार का चयनात्मक तंत्र है जो पूर्व
अनुभूतियों तथा वर्तमान उत्तेजना में एक संबंध स्थापित करता है ।
Q.48. किस मनोवैज्ञानिक ने भाषा को आन्तरिक रूप में चिंतन कहा है ?
Ans. वाटसन ने भाषा को आन्तरिक रूप में चिंतन माना है
Q.49. निर्णय और निर्णयन में अन्तर बतायें ।
Ans. निर्णय तमाम संभव परिणामों के मूल्यांकन पर आधारित होती है जबकि निर्णयन में
पूर्व ज्ञात विकल्पों में से सही विकल्प का चयन करना होता है ।
Q.50. वनस्पतिशास्त्री ए. डी. कार्ब को क्यों और कहाँ ऊर्जा पुरस्कार मिला था।
Ans. डॉ. कार्ब को धुआँ रहित चूल्हा बनाने के लिए यू. के. का सर्वोच्च ऊर्जा पुरस्कार
दिया गया था।
Q.51. आशिष पवार का नाम क्यों प्रसिद्ध हुआ?
Ans. आशिष पवार ने ग्लासगो में आयोजित प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय रोबोटिक ओलम्पियाड में
एक पाँच फुट ऊँचा यंत्र मानव (रोबोट) को प्रस्तुत किया था ।
Q.52. अभिसारी और अपसारी नामक दो रूप किसके हैं ?
Ans. जे. पी. गिलफर्ड ने चिंतन को दो रूपों में प्रास्तावित किया था-
(i) अभिसारी और (ii) अपसारी चिंतन ।
Q.53. अपसारी चिन्तन में सन्निहित प्रमुख तत्व क्या हैं ?
Ans. अपसारी चिंतन योग्यताओं के अन्तर्गत सामान्य तथा चिंतन प्रवाह, लचीलापन,
मौलिकता एवं विस्तरण आते हैं।
Q.54. अपसारी चिंतन से संबंद्ध पाँच विषयों का चुनाव करें जो वैविध्यपूर्ण चिंतन
करने योग्य हों।
Ans. (i) यातायात व्यवस्था (ii) भ्रष्टाचार (iii) अशिक्षा (iv) गरीबी तथा (v) भ्रूण-हत्या ।
Q.55. भाषा से क्या तात्पर्य है?
Ans. भाषा एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी इच्छाओं, विचारों आदि को
एक सामाजिक रूप से स्वीकृत मानकों के रूप में अभिव्यक्त करता है।
Q.56. भाषा का क्या महत्त्व है?
Ans. भाषा मानव संस्कृति की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । भाषा के बिना किसी
संस्कृति का अस्तित्व और कार्य नहीं हो सकता है । भाषा के द्वारा मनुष्य अपने संचित ज्ञान को
इसरे मनुष्य तक पहुंँचाता है।
Q.57. भाषा विकास की कौन-कौन अवस्थाएँ हैं ?
Ans. भाषा विकास की अवस्थाओं में दूसरों की भाषा को समझना, शब्दावली का निर्माण,
शब्दों द्वारा वाक्यों का गठन, उच्चारण आदि प्रमुख हैं।
Q.58. भाषा पर किस तत्व का प्रभाव पड़ता है?
Ans. मानव के भाषा विकास पर स्वास्थ्य, बुद्धि, सामाजिक, आर्थिक स्थिति, जन्म-क्रम
योन, उम्र आदि कारकों का प्रभाव पड़ता है।
Q.59. नवजात शिशुओं का पहला उच्चारण क्या होता है?
Ans. नवजात शिशुओं द्वारा पहला उच्चारण जन्म-क्रंदन होता है।
Q.60. सार्थक भाषा व्यवहार से पूर्व शिशुओं में भाषा अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम
क्या है?
Ans. सार्थक भाषा व्यवहार से पूर्व शिशु हाव-भाव, संकेत एवं रुदन के माध्यम से अपनी
अभिव्यक्ति करते हैं?
Q.61. गुप्त भाषा का विकास कितनी उम्र में होता है ?
Ans. गुप्त भाषा का विकास आठ साल से पंद्रह साल की उम्र में होता है । गुप्त भाषा
का प्रयोग बच्चों से ज्यादा बच्चियाँ करती हैं।
Q.62. बच्चों के भाषा विकास का सबसे पहला स्तर क्या है ?
Ans. बच्चों के भाषा विकास का सबसे पहला स्तर भाषा बोध की अवस्था है।
Q.63. बच्चों में प्रथम शब्द का उच्चारण किस उम्र में होता है ?
Ans. बच्चों में प्रथम शब्द का उच्चारण लगभग एक वर्ष की उम्र में होता है।
                       लघु उत्तरीय प्रश्न
(SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. चिन्तन की परिभाषा दें।
Ans. चिंतन एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जो उच्च स्तर के प्राणियों में देखा जाता है।
यह विचारात्मक स्वरूप की मानसिक क्रिया जिसकी उत्पत्ति किसी समस्याजन्य परिस्थिति में
होती है। व्यक्ति उस समस्या का समाधान प्रतीकों के माध्यम से करता है। उस क्रिया में वह
भाषा, प्रयत्न एवं भूल की सहायता लेता है । चिंतन की क्रिया तबतक चलती है जबतक समस्या
का समाधान नहीं हो जाता है।
चिंतन की परिभाषा देते हुए कैगन एवं हैवमैन (Kagan and Haverman) ने कहा
है-“प्रतिमाओं, प्रतीकों, संप्रत्ययों, नियमों एवं अन्य मध्यस्थ इकाइयों के मानसिक व्यवस्थापन को
चिंतन कहा जाता है।”
सिलवरमैन (Silverman) के अनुसार, “चिंतन एक ऐसी प्रक्रिया है जो उद्दीपक तथा
घटनाओं के प्रतीकात्मक निरूपण के द्वारा किसी समस्या का समाधान करने में हमारी सहायक
होती है।”
Q.2. सृजनात्मक या रचनात्मक चिंतन के संदर्भ में अभिसारी और वैविध्यतापूर्ण
चिंतन के बीच क्या अन्तर है ?
Ans. मनोवैज्ञानिकों ने चिंतन को दो भागों में बाँटा है, जिन्हें अभिसारी और वैविध्यतापूर्ण
चिंतन कहते हैं । अभिसारी चिंतन का अर्थ परम्परावादी चिंतन है। इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति
पुराने ढंग से अपनी समस्या का समाधान करता है । समस्या का समाधान करते समय उसके
विचार रूढिबद्ध होते हैं । मानसिक स्तर पर वह लकीर का फकीर होता है । दूसरी ओर
वैविध्यतापूर्ण चिंतन का अर्थ अपरम्परावादी होता है । इस प्रकार के चिंतन में व्यक्ति किसी समस्या
का समाधान नए ढंग से करता है। इस तरह के चिंतन का उल्लेख गिलफोर्ड (1967) ने किया
है और कहा है कि वैविध्यतापूर्ण चिंतन की मुख्य दो विशेषताएँ होती हैं। एक विशेषता यह है
कि इसके माध्यम से किसी नई चीज का आविष्कार किया जाता है। न्यूटन का चिंतन वास्तव
में वैविध्यतापूर्ण चिंतन था, जिसके माध्यम से उसने अपनी समस्या का समाधान करते हुए
गुरुत्वाकर्षण के नियम का आविष्कार किया। यह विशेषता अभिसारी चिंतन में नहीं होती है।
वैविध्यतापूर्ण चिंतन की दूसरी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से व्यक्ति किसी पुरानी समस्या
का समाधान नए ढंग से करता है। रात-दिन क्यों होते हैं, इस समस्या का समाधान किसी ने
इस आधार पर किया कि इसका कारण पृथ्वी के चारों और सूर्य का गतिशील रहना है। लेकिन
बाद में इस पुरानी समस्या का समाधान किसी दूसरे व्यक्ति ने नए ढंग से किया और कहा कि
रात-दिन होने का मुख्य आधार सूर्य के चारों ओर पृथ्वी का चक्कर काटना है। यह विशेषता
भी अभिसारी चिंतन में नहीं पायी जाती है।
गिलफोर्ड के अनुसार बुद्धि तथा सृजनात्मकता के लिए अभिसारी चिंतन की तुलना में
वैविध्यतापूर्ण चिंतन अधिक आवश्यक है। उनके अनुसार बुद्धि तथा वैविध्यतापूर्ण चिंतन के बीच
एवं सृजनात्मक तथा वैविध्यतापूर्ण चिंतन के बीच उच्च धनात्मक सह-सम्बन्ध पाया जाता है।
Q.3. चिंतन में समस्या समाधान की प्रक्रिया का उल्लेख करें।
Ans. चिंतन का प्रारंभ किसी समस्या के साथ ही होता है जो समाधान तक जारी रहता
है। अतः समस्या समाधान चिंतन का केन्द्र-बिन्दु है। व्यक्ति के सामने जब कोई समस्या आती
है तो वह समाधान खोजने के लिए तत्पर हो जाता है। यदि समस्या आसान है तो समाधान जल्द
मिलता है, परन्तु यदि समस्या जटिल होती है तो उसका समाधान अत्यन्त जटिल होता है। समस्या
के समाधान के लिए व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दोनों स्तर पर प्रयास एवं भूल को आधार
बनाता है। जब समस्या का समाधान हो जाता है तो चिंतन की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है।
थॉर्नडाइक ने समस्या समाधान के लिए प्रयास एवं भूल को आवश्यक माना है। लेकिन
गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिक बर्दाइमर ने समस्या समाधान के लिए अन्तर्दृष्टि को महत्त्वपूर्ण माना
है। उन्होंने समस्या समाधान का आधार सूझ को माना है। उनका मानना है कि व्यक्ति के सामने
जब समस्या उपस्थित होती है तो वह पहले उसका पूरी तरह से निरीक्षण करता है। यदि समस्या
समाधान में सफलता नहीं मिलती है तो उसमें तनाव उत्पन्न होता है। वह तरह-तरह से समस्या
को समझने का प्रयास करता है, जिससे समस्या और समाधान के बीच सम्पर्क स्थापित होने लगता
है और अचानक समस्या का समाधान मिल जाता है। स्पष्ट है कि इसमें प्रयास एवं भूल नहीं
बल्कि अन्तर्दृष्टि का हाथ होता है। कोहलर एवं कोफ्का ने इस बात की पुष्टि के लिए वनमानुष
पर प्रयोग किया जिसमें वनमानुष ने छड़ियों को जोड़कर केला प्राप्त कर लिया। इनके प्रयोगों
से इस बात की पुष्टि होती है कि समस्या का समाधान प्रयास एवं भूल के माध्यम से नहीं बल्कि
सूझ के माध्यम से होता है।
गेस्टाल्टवादियों के विरोध में व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने अलग विचार व्यक्त किया है।
व्यवहारवादियों ने बताया कि समस्या समाधान में व्यक्ति गतअनुभूतियों का सहारा लेता है तथा
प्रयत्न एवं भूल की क्रिया भी देखी जाती है। सबसे पहले उसकी क्रिया लक्ष्य की और निर्देशित
होती है और सफलता नहीं मिलने पर दूसरे तरह से प्रयास करता है। इस प्रकार समस्या का
समाधान एकाएक नहीं बल्कि क्रमिक रूप से होती है।
Q.4. तार्किक चिंतन से क्या तात्पर्य है ?
Ans. तार्किक चिंतन की संकल्पना उस चिंतन से है जो तर्कशास्त्र के नियमों पर आधारित
होता है। वह चिंतन का तीसरा रूप है। इन नियमों पर आधारित चिंतन को ही तार्किक चिंतन
के नाम से जाना जाता है। इसमें तर्कशास्त्र के नियमों के आधार पर चिंतन करके महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष
निकाला जाता है। चिंतन यदि निगमन का होता है तो वह तार्किक चिंतन है। तर्कशास्त्र सही निष्कर्ष
निकालने के नियमों या तरीकों को निर्धारित करता है। तर्कशास्त्र में यदि न्याय वाक्य है तो उसके
दो आधार वाक्य होते हैं, उन्हीं दोनों आधार वाक्यों के अनुरूप निष्कर्ष निकाले जाते हैं। तर्कशास्त्र
में यदि न्याय वाक्य के लिए कुछ निश्चित नियम पहले से बने होते हैं तो उसके आधार पर सही
और विश्वसनीय निष्कर्ष निकाला जा सकता है। परन्तु यदि उन नियमों का उल्लंघन कर देते हैं।
तो निष्कर्ष गलत हो जाता है। उदहरण के लिए, दो आधार वाक्य को देखें-सभी मनुष्य
मरणशील है, रमेश एक मनुष्य है। इन दोनों आधार वाक्यों के आधार पर निष्कर्ष निकालना हो
तो कहा जा सकता है कि रमेश मरणशील है। परन्तु यदि आधार वाक्य ही गलत होगा तो निष्कर्ष
का गलत होना स्वाभाविक है।
पहले के दार्शनिकों का ऐसा विचार था कि कि सभी प्रकार के चिंतन तार्किक नियमों पर
ही आधारित होते हैं। लेकिन उनके विचार सही नहीं हैं। चिंतन के स्वरूप से स्पष्ट पता चलता
है कि दार्शनिकों का विचार गलत था। इस बात को माना जा सकता है कि सही निष्कर्ष प्राप्त
करने में तार्किक नियमों से मदद मिलती परन्तु सभी प्रकार की चिंतन प्रक्रिया तार्किक नियमों
के आधार पर नहीं होती है कि चिंतन के लिए तार्किक नियमों को जानना आवश्यक नहीं है।
परन्तु सही निष्कर्ष निकालने के लिए तार्किक नियम का सहारा लेना उचित होता है।
Q.5. बिक्रीकर्ता की नौकरी के सबसे उपयुक्त व्यक्ति का चुनाव किस आधार पर
किया जायगा?
Ans. बिक्रीकर्ता के प्रति चयनकर्ता निम्नलिखित धारणा बना लेता है-
(i) अमुक व्यक्ति बहुत वाचाल है।
(ii) चयनित व्यक्ति लोगों से मिलना पसंद करता है तथा
(iii) अभीष्ट व्यक्ति दूसरों की सरलता से सहमत कर लेता है।
Q.6. चिंतन से सम्बंधित सांस्कृतिक अवरोधों का परिचय दें।
Ans. चिंतन के अवरोधकों में सांस्कृतिक अवरोध: चर्चित है। सांस्कृतिक अवरोधों का
सम्बन्ध परम्परा का अत्यधिक अनुपालन, अपेक्षाएँ, अनुरूपता, दबाव तथा रूढ़ियों से है
परम्परागत संस्कार के कारण व्यक्ति जो सोचना चाहता है वह निम्न स्तरीय अधार्मिक होने के
कारण विचार से बाहर कर दिये जाते हैं। दूसरों की सहायता अथवा परामर्श पर आधारित चिन्तक
स्वतंत्र होकर कुछ सोच नहीं पाता है। कुछ विचारों पर सामाजिक दबाव बढ़ने से भी सांस्कृतिक
अवरोध उत्पन्न हो जाते हैं। चिन्तक को स्वयं की रूढ़िवादिता उसे नये विचार की ओर जाने
से रोक लेते हैं।
Q.7. सर्जनात्मक चिंतन के विकास के लिए एक स्थिति ऐसी प्रस्तुत करें जिसमें उसे
प्रोत्साहन दिया जाए तथा दूसरा जिसमें रोक लगाया जाए।
Ans. अपने दिनचर्या को नियमित रखते हुए शौक, रुचि एवं व्यस्तता का पक्षधर बनकर
चिंतन करना चाहिए। घर को सजाना, रद्दी वस्तुओं से सजावट का सामान तैयार करना, अधूरे
कार्यों को पूरा करना, कहानियों तथा पत्र-पत्रिकाओं के स्वरूप का अध्ययन करना जैसी प्रक्रियाओं
पर अवश्य ध्यान देना चाहिए।
प्रथम विचार या समाधान को प्रामाणिक मानने की भूल मत करें। मूर्खतापूर्ण परामर्श पर
ध्यान न दें।
Q.8. भाषा एवं चिंतन से आप क्या समझते हैं ?
Ans. चिंतन और भाषा-भाषा चिंतन सामग्री को जुटाने में सहायता करती है, क्योंकि
प्रत्यास्मरण में इससे आसानी होती है। जिन तथ्यों और सिद्धान्तों का शब्दों के रूप में वर्णन किया
जाता है उनको याद करना आसान हो जाता है। एक समस्या को सुलझाने के सिलसिले में जो
सिद्धान्त दिया जाता है तो उसी तरह की समस्या के पुनः सामने आने पर आप इस सिद्धान्त का
प्रत्यास्मरण बड़ी आसानी से कर सकते हैं। इसका कारण कुछ तो यह है कि सुन्दर शब्द रचना
वाले वाक्यों को रटना और याद करना सरल होता है। और, कुछ कारण यह है कि यदि किसी
सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्ति करना है तो पहले उसे स्पष्ट रूप से समझना चाहिए ।
एक विद्यार्थी व्याख्यान रटकर सभा-मंच पर बोलने के लिए चला जाता है। वह यह अनुभव
नहीं करता कि वह क्या बोल रहा है और रटी हुई सामग्री को शब्दशः उगल देता है। जो मूक
वाणी (Silent speech) विचार के साथ रहती है वह सार्थक वाणी होती है। विचार अर्थ के
साथ संबंधित होता है, शब्दों के साथ नहीं जबकि सतर्क चिंतन के लिए शब्दों का भी बहुत महत्त्व
हो सकता है।
चिंतन के सपय में पेशियों में गतियाँ होने लगती हैं जिनको देखा या सुना नहीं जा सकता।
ये गतियाँ केवल जवान की पेशियों में नहीं होतीं अपितु अन्य पेशियों में भी होती हैं। मान लिया
एक प्रयोगकर्ता आपकी स्वीकृति से आपके बाहु पर विद्युत वर्ग लगा देता है जिससे आपकी
पेशियों से विद्युत की अनुक्रिया की माप की जा सके। आपकी बाहु पर विद्युत वर्ग लगा देता
है। जिससे आपकी पेशियों से विद्युत की अनुक्रिया की माप की जा सके। आपकी बाहु विश्राम
की स्थिति में होती है, तब वह आप से कहता है कि आप अपने दाएँ हाथ से दो वार हथौड़ा
चलाने का विचार करें। यह कल्पना करने पर उपकरण (Instrument) में आपके दाएँ हाथ की
पेशियों से विद्युत् आवेगों के दो विचलन दिखलाई देते हैं। बहरे, गूंगे जो चिह्न-भाषा का उपयोग
करते समय अपनी बाहु पेशियों को काम में लाते हैं, सामान्य विषयों की अपेक्षा स्वप्नावस्था में
पेशियों में अधिकतर क्रिया दिखाते हैं।
Q.9. भाषा विकास से आप क्या समझते हैं ?
Ans. भाषा विकास से तात्पर्य एक ऐसी क्षमता से होता है जिसके द्वारा बच्चे अपने भावों,
विचारों तथा इच्छाओं को दूसरों तक पहुंचाते हैं तथा दूसरों के भावों एवं इच्छाओं को ग्रहण करते
हैं । बच्चे भाषा विकास के लिए कई तरह के शब्दावली (Vocabulary) विकसित करते हैं। उसके
लिए उन्हें माता-पिता से पर्याप्त प्रशिक्षण भी मिलता है। भाषा विकास के लिए अन्य बातों के
अलावा यह आवश्यक है कि बालक में श्रवण-शक्ति अर्थात् सुनकर भाषा समझने की शक्ति
विकसित हो तथा उसमें सार्थक ढंग से ध्वनि उत्पन्न कर भाषा बोलने की पर्याप्त शक्ति हो।
Q. 10. प्राक्-भाषा अवस्था में बच्चे द्वारा दिखलाये जाने वाले हाव-भाव का महत्त्व
सोदाहरण बतलाएँ।
Ans. प्राक-भाषा अवस्था जो जन्म से प्रथम 15 महीनों का होता है, में बच्चे हाव-भाव
द्वारा अपनी आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति करते पाये जाते हैं। हाव-भाव से तात्पर्य शरीर के अंगों
द्वारा की गयी उन क्रियाओं से होता है जिससे कुछ अर्थ निकलता है। इस अवस्था में बच्चे द्वारा
किये गये कई तरह के हाव-भाव दिखलाये जाते हैं जिनका कुछ स्पष्ट अर्थ होता है। जैसे-मुँह
से दूध को बाहर आने देना का अर्थ भूखा न होना या भूख की संतुष्टि होना होता है। किसी
चीज की ओर हाथ फैलाना का अर्थ उसे चाहना होता है। जीभ निकालना या होंठ के सहारे
चटकारा भरने का अर्थ भूख व्यक्त करना होता है। नहाने या कपड़ा पहनाने के दौरान फड़फड़ाना
या काफी हिलना-डुलना, चिल्लाना का अर्थ शारीरिक क्रियाओं पर प्रतिबंध के प्रति नाराजगी व्यक्त
करना आदि होता है।
Q.11. एक से अधिक भाषा के उपयोग (Bilingualism) पर प्रकाश डालें।
Ans. जिस परिवार में दो प्रकार की भाषा बोली जाती है, वहाँ के बच्चों का भाषा-विकास
समुचित ढंग का नहीं होता । इस संबंध में अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किए गए हैं। स्मिथ
(Smith) ने पाया कि दो प्रकार की भाषा बोलने वाले परिवार के बच्चों का भाषा-विकास उस
परिवार के बच्चों की अपेक्षा कम होता है, जहाँ एक ही भाषा बोली जाती है। थॉम्पसन ने भी
स्मिथ के विचार का समर्थन किया है।
Q.12. बलबलाना किसे कहा जाता है ? उदाहरण सहित वर्णन करें।
Ans. जब बच्चे की आयु तीन-चार महीने की हो जाती है तो उनका स्वतंत्र इतना अधिक
परिपक्व हो जाता है कि वह पहले से अधिक ध्वनियाँ उत्पन्न करने लगता है। इस अवस्था में
वह स्वर तथा व्यंजन ध्वनि को एक साथ मिलाकर बोलता है । जैसे-दा, ना, बा, पा, माँ आदि ।
सात-आठ महीने की आयु में वह इन ध्वनियों को तुरत-तुरत दोहराता है जो सुनने में अर्थपूर्ण
लगते हैं, परंतु फिर भी उन्हें भाषा की श्रेणी में नहीं रखा जाता है, क्योंकि शिशु स्वयं इसका
अर्थ नहीं समझता है। जैसे-बा-बा, ना-ना, मा-मा, दा-दा आदि। इसे ही बलबलाना
(babbling) कहा जाता है। 10-12 महीने के बच्चे के लिए इस तरह का बलबलाना एक खेल
होता है, क्योंकि वे जितना ही बलबलाते हैं उतना ही खुश होते हैं।
Q.13.बच्चों के साधारण शब्दावली का अर्थ उदाहरण सहित बतलायें।
Ans. सामान्य शबदावली में वेसे शब्दों को बच्चे सीखते हैं जिनका प्रयोग बालक
भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में सामान्य रूप से करता है। जैसे-कुसी, आदमी, हँसना आदि । इस
तरह के शब्दावली में बच्चे पहले संज्ञा शब्दों को, फिर क्रिया, विशेषण, क्रिया-विशेषण, संबंध
बोधक तथा अन्त में सर्वनाम (pronoun) शब्दों को सीखता है। चूंकि सामानय शब्दावली के शब्दों
का प्रयोग बच्चे अधिक करते हैं, अतः बालक इन शब्दों को पहले सीखते हैं तथा प्रत्येक उम्र
पर सामान्य शब्दावली विशिष्ट शब्दावली से बड़ा होता है।
Q. 14. बच्चों के विशिष्ट शब्दावली का अर्थ उदाहरण सहित बतलाएँ।
Ans. विशिष्ट शब्दावली में वैसे शब्द आते हैं जिन्हें बच्चे विभिन्न परिस्थितियों में
खास-खास वस्तुओं या क्रियाओं के लिए प्रयोग करते हैं। विशिष्ट शब्दावली में बच्चे कई तरह
के शब्दावली विकसित करते हैं, जिसमें प्रमुख हैं-रंग-संबंधी शब्दावली (लाल, हरा, पीला आदि),
संख्या-संबंधी शब्दावली (दस, बीस, पचास आदि), समय-समय शब्दावली (सुबह, दोपहर, रात,
जनवरी आदि), ट्रिक शब्दावली (रोटी, पानी आदि), शिष्टाचार-संबंधी शब्दावली (महाशय,
धन्यवाद, नमस्ते आदि), मुद्रा-संबंधी शब्दावली (दस नया पैसा, 25 नया पैसा, पचास पैसा
आदि), गँवारुबोली-संबंधी मुद्रा-संबंधी शब्दावली (चोट्टा, साला, खचड़ा, हरामी आदि) गुप्त
शब्दावली आदि। इन विभिन्न तरह के शब्दावली के माध्यम से बच्चे अपनी इच्छाओं एवं
आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति करते हैं।
Q.15. भाषा का उपयोग किस प्रकार लाभप्रद माना जाता है ?
Ans. भाषा के उपयोग में संप्रेषण के सामाजिक रूप से उपयुक्त तरीकों की जानकारी
रखना सम्मिलित है। किसी भाषा के शब्दकोश तथा वाक्य विन्यास का ज्ञान उसे आकर्षक,
उपयोगी और कर्णप्रिय बनाता है। अनुरोध, पूछना, परामर्श देना, धन्यवाद ज्ञापन आदि से
सम्बन्धित भाषान्तरण और प्रयोग शैली में अन्तर लाकर कुशल वक्ता कहला सकता है।
                    दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
(LONG ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. चिन्तन से आप क्या समझते हैं ? इसके प्रकारों का वर्णन कीजिए।
Ans. चिन्तन का अर्थ एवं परिभाषा (Meaning and Definition of Thinking)-मनुष्य
विवेकशील प्राणी है। विचारशीलता के गुण के कारण ही मनुष्य विश्व के समस्त प्राणियों में
प्रगतिशील और विचारवान माना जाता है। विचार एक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें संवेदना
(Sensation), प्रत्यक्षीकरण (Perception), ध्यान (Attention), स्मरण (Memory) एवं कल्पना
(Imagination) का समावेश होता है।
विचार की क्रिया का प्रारम्भ व्यक्ति के सम्मुख किसी समस्या के उपस्थित होने के साथ
होता है। किन्हीं समस्याओं के उपस्थिति होने पर व्यक्ति उसके समाधान के लिए विचार करना
प्रारम्भ कर देता है। कभी-कभी विशेष परिस्थितियाँ ऐसी समस्या उपस्थित करती हैं, जिनके
विपरीत व्यक्ति अपने पूर्व अनुभवों के आधार पर सफलतापूर्वक अभियोजन करने में असमर्थ होता
है।जब व्यक्ति इन्हीं समस्याओं का समाधान करने का विचार करता है तो समाधान करने की
क्रिया चिन्तन कहलाती है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि विचार अथवा चिन्तन व्यक्ति की
समस्याओं का समाधान करने की मानसिक प्रक्रिया है। इसमें व्यक्ति वस्तुओं के स्थान पर उनके
प्रतीकों (Symbols) का मानसिक प्रहस्तन करता है। चिन्तन का सार तत्व का हल निकालता है,
इसमें समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्न एवं भूल की विधि का उपयोग किया जाता है। इसमें
समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्न एवं भूल की विधि का उपयोग किया जाता है। आविष्कार
में चिन्तन की प्रक्रिया में विश्लेषण एवं संश्लेषण दोनों प्रकार के तत्वों का समावेश किया जा
सकता है।
अतः यह स्पष्ट है कि चिन्तन की प्रक्रिया है जो किसी समस्या के उपस्थित होने पर उसके
समाधान के लिए प्रयुक्त की जाती है। चिन्तन के अर्थ को समझने के पश्चात् इसके लिए प्रस्तुत
की गई विभिन्न परिभाषाओं का अवलोकन करना भी आवश्यक है। ‘चिन्तन’ की मुख्य परिभाषाएँ
निम्नलिखित हैं-
1. वारेन की परिभाषा-वारेन के अनुसार, “विचार किसी व्यक्ति के सम्मुख उपस्थित
समस्या के समाधान के लिए निर्णायक प्रवृत्ति है जो कुछ अंशों में प्रयत्न एवं भूल से असंयुक्त
प्रतीकात्मक स्वरूप की प्रत्ययात्मक प्रक्रिया है।”
2. कौलिन्स एवं ड्रेवर (Collins and Drever) की परिभाषा-“विचार को जीव के
वातावरण के प्रति चैतन्य समायोजन कहा जाता है।” इस प्रकार विचार समस्त मानसिक स्तर
पर हो सकता है, जैसे प्रत्यक्षानुभव एवं प्रत्ययानुभव ।
3. डीवी (Dewey) के अनुसार-“विचार या चिन्तन क्रियाशील, यलशील और सावधानीपूर्वक
की गई समस्या की विवेचना है जिसके द्वारा उपस्थित समस्या का समाधान है।”
4. बी० एन० झा (B.N.Jha) की परिभाषा-“विचार सक्रिय प्रक्रिया है, जिसमें मस्तिष्क
विचार की गति का नियंत्रण एवं नियमन एक सप्रयोजित ढंग से करता है।”
5. रॉस के अनुसार-“चिन्तन ज्ञानात्मक रूप में एक मानसिक प्रक्रिया है।”
6. वुडवर्थ (Woodworth) के अनुसार-“चिन्तन एक ढंग है जिसके द्वारा किसी बाधा
पर विजय पाई जाती है।”
7. एल. मन (L. Munn) के शब्दों में-“चिन्तन प्रत्यात्मक अनुक्रमिक जागृति है।”
चिन्तन के तत्व (Factors of Thinking)-चिन्तन की उपरोक्त परिभाषाओं के अनुसार
चिन्तन की प्रक्रिया में निम्नलिखित तत्व होते हैं-
1. समस्या का उपस्थित होना-विचार की प्रक्रिया का प्रारम्भ किसी भी समस्या की
उपस्थिति से होता है। अतः चिन्तन का प्रथम तत्व ‘समस्या’ है अर्थात् चिन्तन की प्रक्रिया तभी
आरम्भ होती है जब व्यक्ति के सम्मुख वातावरण से अभियोजन संबंधी कोई समस्या उपस्थित
होती है।
2. समस्या समाधान हेतु अनेक विकल्प-समस्या के उपस्थित होने पर व्यक्ति की चिन्तन
प्रक्रिया प्रारम्भ होती है तथा उस समस्या के समाधान के अनेक तरीके उसके सामने आ जाते हैं
जिनमें से उसे विचारपूर्वक एक का चुनाव करना होता है।
3. विकल्पों का एक लक्ष्य की ओर निर्देशन-जब समस्या के समाधान के अनेक तरीके
सम्मुख होते हैं तब व्यक्ति उन सभी तरीकों को एक लक्ष्य की ओर निर्देशित करता है। ताकि
उन सबको एक ही लक्ष्य की ओर मोड़ देने से समस्या का समाधान हो सके।
4. प्रयत्न एवं भूल विधि का प्रयोग-चिन्तन की प्रक्रिया में प्रयल एवं भूल विधि का
प्रयोग एक महत्वपूर्ण तत्व है। समस्या समाधान करने के लिए व्यक्ति अनेक विकल्पों में से सही
हल प्राप्त करने के लिए ‘प्रयत्न एवं भूल’ के कारण प्रक्रिया के परिणामस्वरूप ही वह अपनी
समस्या को सुलझाने के लिए अनेक प्रकार के सम्भावित साधन खोज निकालता है।
5. सम्भावित निर्णय प्राप्त करना-चिन्तन प्रक्रिया समस्या की उपस्थिति से प्रारम्भ होती
है। उसके समाधान हल निर्णय के साथ इसका समापन होता है। व्यक्ति प्रयत्न
एवं भूल विधि का प्रयोग करके उसमें की गई भूलों पर मन ही मन कुछ बातचीत करता है तथा
समस्या के समाधान का सम्भावित निर्णय ले लेता है।
वुडवर्थ द्वारा प्रतिपादित चिन्तन के तत्व-उपरोक्त चिन्तन के तत्वों के अतिरिक्त प्रसिद्ध
मनोवैज्ञानिक ने निम्नलिखित चिन्तन के तत्वों का उल्लेख किया है-
1.किसी उद्देश्य की ओर उन्मुख होना (Orientation towards agoal) |
2.उद्देश्य प्राप्ति के लिए इधर-उधर मार्ग खोजना (Seeking this way or that for
realising the goal) |
3. पूर्व निरीक्षित किये हुए तत्वों का पुनः स्मरण करना (Recall of previously
observed facts)।
4. स्मृति तथ्यों को नवीन नमूने में बाँधनी (Grouping these recalled facts in new
pattern)।
5. मन ही मन बातचीत करना तथा हरकत करना (Inner speech movements and
gestures)।
अतः संक्षेप में हम कह सकते हैं कि विचार एक मानसिक प्रक्रिया है, जिसमें किसी समस्या
का समाधान किया जाता है। इसके मुख्य तत्व हैं समस्या की उपस्थिति, समस्या के समाधान
के मार्ग खोजना, पूर्व निरीक्षित तत्वों का पुनः स्मरण, प्रयत्न एवं भूल विधि का प्रयोग तथा
सम्भावित निर्णय लेना।
चिन्तन के प्रकार (Kinds of Thinking)-साधारणतः मानव-प्रयत्नों द्वारा चलने वाली
मानसिक क्रिया को चिन्तन कहा जाता है। किन्तु मनोवैज्ञानिकों ने चेतना के स्तर पर होनेवाली
क्रिया से भिन्न भी चितन की सम्भावना को माना है। उन्होंने ‘चिन्तन’ के चार प्रकार बताये,
जिनका संक्षिप्त वर्णन निम्न प्रकार है-
1. प्रत्यक्षात्मक विचार (Perceptual Thinking)-प्रत्यक्षात्मक चिन्तन एक निम्न कोटि
का चिन्तन होता है। इसमें व्यक्ति की संवेदना और प्रत्यक्षीकरण ज्ञान के काम में आते हैं।
मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इसमें भी पूर्व अनुभवों का उपयोग किया जाता है, क्योंकि उन्हीं के
आधार पर व्यक्ति कुछ निश्चय करता है। पशुओं का चिन्तन केवल प्रत्यक्षात्मक चिन्तन तक ही
सीमित होता है। उदाहरणार्थ-एक कुत्ता रोटी पाने के लिए घर में घुसता है, किन्तु घर के स्वामी
को हाथ में डण्डा लेकर आता देखकर भाग खड़ा होता है। कुत्ते के भागने का कारण उसका
प्रत्यक्षात्मक चिन्तन ही है जिसमें उसका पूर्व अनुभव भी सम्मिलित होता है। उसी के आधार पर
कुत्ता यह निश्चय करता है कि घर के स्वामी ने इसी प्रकार से उसके घर में घुसने पर पूर्व समय
में भी डण्डा मारा था, इसलिए आज भी मारेगा और वह भाग खड़ा होता है। पशुओं के अतिरिक्त
बच्चों का चिन्तन भी प्रत्यक्षात्मक होता है।
2. कल्पनात्मक विचार (Imaginative Thinking)-कल्पनात्मक विचार अनुभवों के
द्वारा मस्तिष्क में अंकित प्रतिमाओं के आधार पर किये जाते हैं। इस प्रकार के चिन्तन में प्रत्यक्ष
अनुभव का अभाव रहता है। यह चिन्तन बालकों द्वारा भी किया जाता है। इस प्रकार के चिन्तन
में प्रत्यक्षीकरण एवं प्रत्ययों का अभाव रहता है। इसमें केवल स्मृति का ही सहयोग रहता है।
3. प्रत्ययात्म विचार (Conceptual Thinking)-यह विचार प्रत्ययों के सहारे चलता है।
इस प्रकार के विचार में कल्पनाओं का स्थान प्रत्यय ग्रहण कर लेते हैं। पदार्थों की साक्षात् अनुभूति,
विश्लेषण, वर्गीकरण तथा नामकरण द्वारा प्रत्यय का ज्ञान सम्भव होता है। इस प्रकार पुराने
अनुभवों के आधार पर भविष्य पर ध्यान रखते हुए किसी निश्चय पर पहुँचना प्रत्ययात्मक चिन्तन
कहलाता है।
4. तार्किक विचार (Logical thinking)-किसी जटिल समस्या के उपस्थित होने पर
अपने अनुभवों के आधार पर तर्क-वितर्क द्वारा समस्या का समाधान करना तार्किक चिन्तन होता
है।
Q.2. मैस्लो के आत्म-सिद्धि सिद्धांत की व्याख्या करें ।                                    [B.M.2009 A]
Ans. मैस्लों ने मानव व्यवहार को चित्रित करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम
में व्यवस्थित किया है जिसे उन्होंने ‘आत्म-सिद्धि’ का सिद्धांत कहा है मैस्लो का मॉडल एक
पिरामिड के रूप में संप्रत्यायित किया जा सकता है जिसमें पदानुक्रम के तल में समूह में जैविक
आवश्यकताएँ है जो कि जीवन-निर्वाह के लिए आवश्यक है-जैसे भूख जब इन आवश्यकताओं
की पूर्ति हो जाती हैं तभी व्यक्ति में खतरे से सुरक्षा की आवश्यकता उत्पन्न होती है इसके पश्चात
दूसरों का उनसे प्रेम करना तथा उनका प्रेम प्राप्त करना आता है जब व्यक्ति इस आवश्यकता
को पूरा करने में सफल हो जाता है तब हम स्वयं आत्म-सम्मान तथा दूसरे से सम्मान प्राप्त करने
की ओर बढ़ते हैं।
इसके ऊपर आत्म-सिद्धि की आवश्यकता है जो एक व्यक्ति की अपनी सम्भाव्यताओं को
पूर्ण रूप से विकसित करने के अभिप्रेरण में लक्षित होती है। आत्म-सिद्ध व्यक्ति आत्म-जागरूक
नवीनता एवं चुनौती के प्रति मुनत होता हैं ऐसे व्यक्ति में हास्य-भावना होती हैं तथा गहरे
अंतवैयक्ति संबंध बनाने की क्षमता होती है ।
पदानुक्रम में निम्न स्तर की आवश्यकताएं जब तक संतुष्ट नहीं हो जाती तब तक प्रभावी
रहती हैं एकबार जब वे पर्याप्त रूप से संतुष्ट हो जाती है तब उच्च स्तर की आवश्यकताएँ व्यक्ति
के ध्ययन एवं प्रयास में केद्रित हो जाती हैं । किंतु यह उल्लेखनीय है कि अधिकांश व्यक्ति
निम्न स्तर की आवश्यकताओं के लिए अत्यधिक सरोकार होने के कारण सर्वोच्च स्तर तक पहुँच
ही नहीं पाते ।
Q.3. संप्रत्यय की परिभाषा दें। संप्रत्यय का निर्माण किस तरह से होता है ?
Ans. संप्रत्यय चिन्तन का एक प्रमुख साधन (tool) है। जब वस्तुओं के एक समूह जिनमें
समान विशेषताएँ होती हैं, के प्रति व्यक्ति एक ही तरह की अनुक्रिया करता है, तो इसे ही संप्रत्यय
कहा जाता है। जैसे, यदि कोई बच्चा अपने घर के कुत्ते, दोस्त के कुत्ते तथा सड़क पर के कुत्ते
को देखकर ‘कुत्ता’ शब्द का प्रयोग करता है तो यह समझना जरूरी हो जाता है कि बच्चे में कुत्ता
का संप्रत्यय (concept) विकसित हो गया है। कुछ मनोविज्ञानियों द्वारा संप्रत्यय की दी गई
परिभाषा इस प्रकार है-
हुल्स, डीज एवं इगेथ (Hulse, Deese and Egeth) के अनुसार-“कुछ नियमों द्वारा कई
गुणों का आपस में मिलना ही संप्रत्यय कहलाता है।” (A concept is a set of features
connected by some rules.)
भूटानी तथा उनके सहयोगियों (Bhutaini etal) के अनुसार-“वस्तुओं या घटनाओं का
वर्ग या श्रेणी जिसे एक नियम द्वारा संयोजित किया जाता है जिससे संगत विशेषताओं का उल्लेख
होता है, संप्रत्यय कहलाता है।” (A concept is a category or class of objects or events
grouped or combined on the basis of a rule which specifies the relevant features.)
यदि हम इन परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि संप्रत्यय में निम्नांकित दो
महत्त्वपूर्ण तथ्य सम्मिलित होते हैं-
(i) वस्तुओं या घटनाओं के गुण या विशेषताओं का समूह (Set of features of
objects or events)-संप्रत्यय के निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि वस्तुओं में कुछ
विशेषताएँ या गुण हों। इस तरह के गुण या विशेषता के दो लक्ष्य होते हैं-पहला गुण ऐसा होना
चाहिए जो समान प्रकार की वस्तुओं की समता दिखा सके तथा दूसरा गुण ऐसा होना चाहिए
जो असमान वस्तुओं की विषमता (constrast) दिखलाएँ। जैसे, यदि यह कहा जा सकता है कि
घास हरी है तो यहाँ हरापन (greenish) जो विशेषता है, उसमें उक्त दोनों गुण सम्मिलित है।
हरापन के गुण को निश्चित रूप से हम अन्य रंगों से पृथक कर पा रहे हैं तथा यह हरापन अन्य
दूसरी वस्तुओं के हरापन से भिन्न भी है।
(ii) नियम (Rule)-संप्रत्यय के निर्माण के लिए यह भी आवश्यक है कि वस्तु या वस्तुओं
की उपलब्ध विशेषताएँ या गुण आपस में कुछ विशेष नियम द्वारा संबंधित हों। ऐसे नियम के
दो सामान्य प्रकार हैं-गणितीय नियम (Algorithmicrule) तथा स्वतः शोध नियम (Heuristic
rule) | गणितीय नियम वैसे नियम को कहा जाता है जिसका उपयोग करने से (feedback)
के आलोक में प्रयोज्य अपने मन में जो प्राक्कल्पना विकसित करता है, उसकी संपुष्टि करता है
या उसे अस्वीकृत (reject) करता है।
उपर्युक्त दोनों विधियों में चयन विधि द्वारा संप्रत्यय का निर्माण तुलनात्मक रूप से अधिक
आसान होता है। विधि चाहे जो भी हो, मनोवैज्ञानिकों का सामान्य निष्कर्ष यह रहा है कि सही
उदाहरण (correct examples) से प्रयोज्यों को गलत उदाहरणों (incorrect examples) की
तुलना में अधिक संगत सूचनाएँ प्राप्त होती है और संप्रत्यय सीखने में उनसे तीव्रता आती है।
निष्कर्ष यह है कि संप्रत्यय-निर्माण एक जटिल प्रक्रिया है जो कुछ नियमों द्वारा निर्धारित
होती है। प्रयोगात्मक अध्ययनों से यह पता चलता है कि संप्रत्यय-निर्माण में गुणों या विशेषताओं
की खोज तथा उपर्युक्त नियमों की खोज के अलावा यदि चयन विधि का उपयोग होता है तो
उससे संप्रत्यय निर्माण में काफी सहूलियत होती है।
Q.4. समस्या समाधान की विधियाँ या उपायों का वर्णन करें।
Ans. किसी समस्या का समाधान करने के लिए व्यक्ति कई तरह की विधियों या उपायों
को अपनाता है। इनमें से कुछ विधि ऐसी है जिसमें समय तो अधिक लगता है, परन्तु इससे
समाधान निश्चित रूप से होता है। कुछ विधि ऐसी है जिसमें समय तो कम लगता है, परन्तु उनसे
समस्या का समाधान होना निश्चित नहीं है । इस क्षेत्र में किये गए अध्ययनों के आलोक में यह
कहा जा सकता है कि समस्या समाधान की निम्नांकित दो विधियाँ हैं जो काफी महत्त्वपूर्ण हैं-
1. यदृच्छिक अन्वेषण विधि (radom search method or strategies)
2. स्वतः शोध अन्वेषण विधि (beuristic search method or strategies)
स्वतः शोध अन्वेषण विधि के तहत निम्नाति तीना प्रविधियों पर सर्वाधिक महत्त्व दिया गया
है-1. साधन-साध्य विश्लेषण (means-ends analysis)
2. पश्चगामी अन्वेषण (backward search)
3. योजना विधि (planning stragege or methods) |
इन सबों का वर्णन निम्नांकित है-
1. यदृच्छिक अन्वेषण विधि (Radom search method or strategies)-इस विधि में
व्यक्ति समस्या के समाधान के लिए प्रयत्न एवं त्रुटि (trial and error) उपायों का सहारा लेता
है। दूसरे शब्दों में, समस्या के समाधान के लिए वह एक तरह का यादृच्छिक अन्वेषण (random
search) करता है जो दो प्रकार का होता है-अक्रमबद्ध यादृच्छिक अन्वेषण (unsystematic
tandom search) तथा क्रमबद्ध यादृच्छिक अन्वेषण (syatematic random search) अक्रमबद्ध
यादृच्छिक अन्वेषण में व्यक्ति समस्या के समाधान के लिए सभी तरह की संभावित अनुक्रियाओं
को करता है, परंतु ऐसा करने में वह कोई निश्चित क्रम (sequence) को नहीं अपनाता है और
न ही पहले किये गए प्रयासों का रेकार्ड ही रखता है । क्रमबद्ध यादृच्छिक अन्वेषण में व्यक्ति
समस्या के समाधान के लिए संभावित अनुक्रियाओं को एक क्रम में करता है तथा पहले की गई
अनुक्रियाओं को रेकार्ड भी रखता है ताकि वह पहले की गलत अनुक्रियाओं को पुन: दोहरा न
सके। क्रमबद्ध यादृच्छिक अन्वेषण द्वारा समस्या के समाधान में तुलनात्मक रूप से समय अधिक
लगता है, परन्तु यह विधि अक्रमबद्ध यादृच्छिक अन्वेषण से अधिक प्रभावी (efficient) है । जैसे,
मान लिया जाय कि व्यक्ति को NSO वर्णविपयर्य (anagram) देकर उसके क्रम को ठीक करके
सार्थक शब्द बनाने के लिए कहा जाय, तो क्रमबद्ध अन्वेषण विधि के अनुसार वह ‘SNO’, फिर
‘ONS’और अन्त में ‘SON’ बना लेगा और इस तरह से समस्या का समाधान कर लेगा।इससे
इस बात का अंदाज लग ही जाता है कि यदि कोई लम्बा वर्णविपयर्य (anagram) जैसे सात या
उससे भी अधिक अक्षरों का हो, तो क्रमबद्ध यादृच्छिक अन्वेषण द्वारा उसका समाधान करने में
काफी समय लगेगा।
यादृच्छिक अन्वेषण चाहे क्रमबद्ध हो या अक्रमबद्ध हो, यह एल्गोरिथ्म (algorithm) का
उदाहरण है। एल्गोरिथ्म एक ऐसी विधि है जो तुरंत या थोड़े समय के बाद किसी समस्या का
समाधान पाने की गारंटी दिलाता है। एल्गोरिथ्म में समय तो थोड़ा अवश्य लगता है, परन्तु समस्या
का समाधान निश्चित रूप से होता है। गुणा के नियम या कोई गणितीय सूत्र एल्गोरिथ्म के ही
उदाहरण हैं जिनसे समस्या का समाधान या तो तुरंत या कुछ समय के बाद ही होता है, परन्तु
होता है अवश्य ।
2. स्वतः शोध अन्वेषण विधि (Heuristic search strategies or method)-इस
विधि में व्यक्ति समस्या का समाधान करने के लिए सभी विकल्पों को नहीं ढूँढता है बल्कि सिर्फ
उन्हीं विकल्पों का चयन करके समस्या समाधान करने की कोशिश करता है जो उन्हें संगत
(relevant) प्रतीत होते हैं। रिटमैन (Reitman) के अनुसार ऐसी अन्वेषण विधि एक लघु नियम
(short cut rule) के समान होती है जिससे किसी समस्या का समाधान जल्द हो जाता है।
एल्गोरिथ्म की तुलना में इसमें कम समय लगता है। परन्तु जहाँ एल्गोरिथ्म में समस्या समाधान
की गारंटी होती है, वहाँ स्वतः शोध विधि में समाधान की गारंटी तो नहीं होती है, परन्तु समाधान
निकल आने की संभावना अधिक बनी होती है।
इसके तहत आनेवाली तीन प्रविधियों का वर्णन निम्नांकित है-
(i) साधन-साध्य विश्लेषण (Means-ends analysis)-साधन-साध्य विश्लेषण एक
लोकप्रिय उपाय है जिसका उपयोग व्यक्ति किसी समस्या के समाधान में प्रायः करता है। इस
तरह की विधि में व्यक्ति समस्या को कई छोटी-छोटी उपसमस्याओं (subproblems) में बाँट
देता है। इनमें से प्रत्येक उपसमस्या का समाधान करके समस्या की मौलिक अवस्था (original
state) तथा लक्ष्य अवस्था (goal state) के बीच दो अंतर को कम कर दिया जाता है अर्थात
समस्या एवं समाधान की दूरी को कम कर दिया जाता है। इस विधि की उपयोगिता कई क्षेत्रों
जैसे शतरंज की समस्या समाधान में, गणितीय समस्याओं के समाधान में एवं कम्प्यूटर द्वारा किसी
समस्या का समाधान करने के लिए कार्यक्रम तैयार करने में सिद्ध हो चुकी है। नीवेल एवं साईमन
(Newell & Simon) द्वारा साधन-साध्य विश्लेषण का उपयोग कम्प्यूटर अनुरूपण (computer
stimulation) उपागम में काफी किया गया है।
(ii) पश्चगामी अन्वेषण (Backward search)-वह एक ऐसा स्वतः शोध अन्वेषण
(heuristic search) है जिसमें समस्या समाधान करने के ख्याल से व्यक्ति लक्ष्य अवस्था (goal
state) से अपना प्रयास प्रारंभ करता है और पश्चगामी दिशा में कार्य करते हुए प्रारंभिक मौलिक
अवस्था तक आता है। इस तरह का अन्वेषण निम्नांकित दो परिस्थितियों में अधिक लाभप्रद साबित
हुआ है-
(a) जब समस्या का स्वरूप कुछ ऐसा होता है जहाँ उसके लक्ष्य अवस्था में मौलिक अवस्था
की तुलना में अधिक सूचनाएँ सम्मिलित होती हैं।
(b) जब समस्या का स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसके समाधान के लिए प्रयास अग्रगामी
(forward) तथा पश्चगामी (backward) दोनों ही दिशा में संभव है।
पश्चयगामी अन्वेषण शैक्षिक समस्याओं एवं मनोरंजन समस्याओं के समाधानों में अक्सर
किया जाता है । जैसे, मान लिया जाय कि कोई व्यक्ति मानव भूल-भुलैया (human maze) में
सही पथ की खोज कर रहा है। ऐसी परिस्थिति में वह लक्ष्य बिन्दु से सही पथ की और आगे
बढ़ते हुए कुछ दूर तक आने पर वहाँ उसे छोड़कर वह फिर प्रारंभ बिन्दु से सही पथ की ओर
आगे बढ़ते हुए उस बिन्दु पर आकर रुक सकता है जहाँ वह लक्ष्य बिन्दु से आगे चलते हुए आकर
रुका था। इस तरह से भूल-भुलैया में सही पथ की खोज निकाल सकने में समर्थ हो पायेगा ।
3. योजना विधि (Planning strategy or method)-इस विधि द्वारा समस्या के
समाधान में व्यक्ति समस्या को मुख्य रूप से दो भागों में बाँट देता है-साधारण पहलू (simple
aspect) तथा जटिल पहलू (complex aspect) | पहले व्यक्ति साधारण पहलू का समाधान
करता है तथा जटिल पहलू को छोड़ देता है। उसके बाद वह जटिल पहलू की ओर अग्रसर होता
है और फिर उसका समाधान करता है। योजना विधि का एक सामान्य प्रकार सादृश्यता
(analogy) है। सादृश्यता में पहले की समस्या के समाधान को ही वर्तमान समस्या के समाधन
में एक मदद के रूप में उपयोग किया जाता है। जैसे, मान लिया जाय कि एक शिशु ने अंग्रेजी
के शब्द ‘समर्थ’ का उच्चारण करना सीखा है। यदि वह बाद में असमर्थ’ शब्द को कहीं देखता
है तो उसे भी वह ‘समर्थ’ ही कहता है। स्पष्टतः यहाँ शिशु दूसरी समस्या के समाधान में
सादृश्यता (analogy) का उपयोग कर रहा है जो एक तरह की योजना विधि है। का
मनोवैज्ञानिकों ने सादृश्यता की उपयोगिता का प्रयोगात्मक अध्ययन किया है और कहा है कि
सादृश्यता की योजना कुछ विशेष अवस्था में ही सफल हो पाती है
स्पष्ट है कि समस्या समाधान की कई विधियाँ हैं जिनका उपयोग करके व्यक्ति समस्या
का समाधान करता है तथा समस्या की मौलिक अवस्था तथा लक्ष्य अवस्था के बीच की दूरी
को कम करता है।
Q.5. तर्कणा के अर्थ एवं स्वरूप का वर्णन करें।
Ans. तर्कणा एक प्रकार का वास्तविक चिन्तन (realistic thinking) है। व्यक्ति तर्कणा
के माध्यम से अपने चिन्तन को क्रमबद्ध (systematic) बनाता है तथा तर्क-वितर्क के आधार
पर एक निश्चित निष्कर्ष पर है पहुँचता है । रेबर (Reber) ने तर्कणा के दो अर्थ बताए हैं-सामान्य
अर्थ में, तर्कणा एक प्रकार का चिन्तन है जिसकी प्रक्रिया तार्किक (logical) तथा संगत
(coherent) होती है। दि ८ अर्थ में (specifically) तर्कणा समस्या समाधान व्यवहार है जहाँ
अच्छी तरह से निर्मित प्राक्कल्पनाओं की क्रमबद्ध रूप से जाँच की जाती है तथा समाधान तार्किक
ढंग से निगमित (deduce) किया जाता है। रेबर के इस विचार से यह स्पष्ट हो जाता है कि
तर्कणा में व्यक्ति किसी घटना या विषय के पक्ष तथा विपक्ष में तर्क करते हुए एक परिणाम पर
पहुँचता है। उदाहरणार्थ, मान लिया जाए कि कोई छात्र कमरे में टेबुल लैम्प की रोशनी में पढ़
रहा है। अचानक रोशनी बुझ जाती है। अब छात्र के सामने वह समस्या उठ खड़ी होती है कि
रोशनी कहाँ से आए कि पढ़ाई जारी रखा जा सके। छात्र अपने मन में कई तरह के तर्क करते
हुए चिन्तन कर सकता है। यह सोच सकता है कि संभवतः बिजली मीटर के बगल का फ्यूज
तार (Fuse wire) जल गया हो। फिर यह सोच सकता है कि चूँकि बगल के कमरे का बल्ब
जल रहा है, अतः जरूर ही लैम्प का बल्ब फ्यूज कर गया है। अतः छात्र बल्ब की जाँच करेगा
और उसके बाद यदि वह यह पाता है कि बल्ब भी ठीक है तो स्पष्टत: वह इस निष्कर्ष पर पहुँचेगा
कि टेबुल लैम्प का स्विच (switch) खराब हो गया है। परन्तु जब वह यह पाता है कि स्विच
भी ठीक है तो इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि टेबुल लैम्प का होल्डर (holder) जिसमें बल्ब लगा
है, वहीं कुछ खराबी होगी। इस उदाहरण में तर्कणा की प्रक्रिया स्पष्ट रूप से झलकती है। छात्र
क्रमबद्ध रूप से तर्क करते हुए एक खास परिणाम परिणाम पर पहुँचता है। इससे तर्कणा के स्वरूप
(nature) के बारे में हमें निम्नांकित तथ्य प्राप्त होते हैं-
(i) तर्कणा चिन्तन एक प्रक्रिया है।
(ii) तर्कणा में क्रमबद्धता (systematization) पाई जाती है।
(ii) तर्कणा में व्यक्ति पक्ष-विपक्ष में तर्क करते हुए एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है।
तर्कणा के प्रकार (Kinds ofreasoning)-मनोवैज्ञानिकों ने तर्कणा के निम्नांकित चार
प्रकार बताए हैं-
(त) निगमनात्मक तर्कणा (Deductive reasoning)-निगमनात्मक तर्फणा वैसी तर्कणा
को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति पहले से ज्ञात नियमों एवं तथ्यों के आधार पर एक निश्चित निष्कर्ष
पर पहुंँचने की कोशिश करता है। इस ढंग की तर्कणा मानव एवं पशु दोनों ही द्वारा की जाती
है। निगमनात्मक तर्कणा इस तरह के न्यायवाक्यों (syllogism) के आधार पर निकाले गए
परिणाम में स्पष्ट रूप से झलकता है-
जहाँ जहाँ धुआँ होता है, आग होती है।
पहाड़ पर धुआँ है।
.:. पहाड़ पर आग है।
सभी मनुष्य मरणशील है।
मोहन एक मनुष्य है।
.:. मोहन मरणशील है।
(ii) आगमनात्मक तर्कणा (Inductive reasoning)-आगमनात्मक तर्कणा वैसी तर्कणा
को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति दिए तथ्यों में अपनी ओर से नये तथ्य जोड़कर एक निश्चित
निष्कर्ष पर पहुँचता है। जबतक व्यक्ति इन नए तथ्यों को अपनी ओर से उसमें नहीं जोड़ता, अर्थात
इन तथ्यों का सर्जन (create) नहीं करता, समस्या का समाधान नहीं हो पाता है। रूक (Ruch)
ने आगमनात्मक चिन्तन को परिभाषित करते हुए कहा है, “आगमनात्मक प्रस्तुत आँकड़ों से सीधे
ज्ञात नहीं कर लिया जा सकते थे।” इस तरह की तर्कणा सर्जनात्मक चिन्तक (creative
thinkder) द्वारा अधिक प्रयोग में लाई जाती है।
(iii) आलोचनात्मक तर्कणा (Inductive reasoning)-इस प्रकार की तर्कणा में व्यक्ति
किसी वस्तु, घटना के बारे सोचते समय या किसी समस्या का समाधान करते समय प्रत्येक उपाय
के गुण एवं दोष की परख कर लेता है। यह प्रत्येक विचार. (idea) की प्रभावशीलता
(effectiveness) को ठीक ढंग से जाँच करके ही एक अन्तिम निर्णय लेता है। दूसरों द्वारा किसी
तथ्य या विचार को दिए जाने पर भी उसे वह हू-८-हू स्वीकार नहीं करता । उसके गुण-दोष
की परख के बाद ही वह किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचता है।
(iv) सादृश्यवाची तर्कणा (Analogical reasoning)-इस तरह की तर्कणा में उपमा के
आधार पर तर्क-वितर्क करते हुए चिन्तक किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है। जैसे, मान लिया जाय
कि शिक्षक छात्र से यह प्रश्न पूछते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई राणा प्रताप के समान एक वीरांगना
कैसे थी? इस समस्या के समाधान के लिए छात्र यह सोच सकता है कि रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों
से हार नहीं मानी थी और ठीक उसी तरह राणा प्रताप ने भी सम्राट अकबर से हार स्वीकार करना
अपने मान के खिलाफ समझा था । सचमुच राणा प्रताप जैसे वीर पुरुष के समान ही रानी लक्ष्मीबाई
भी एक मशहूर वीरांगना थी। इस तरह के चिन्तन को सादृश्यवाची तर्कणा कहा जाता है।
इस तरह हम देखते हैं कि तर्कणा (reasoning) के कई प्रकार हैं। शिक्षकों को चाहिए
कि वे बालकों में इस ढंग से शिक्षा दें कि उनमें उपर्युक्त तरह की तर्कणा (reasoning) का स्वस्थ
विकास (health development) बाल्यावस्था में ही हो जाए।
तर्कणा में महत्त्वपूर्ण कदम या सोपान (Important Steps in Reasoning)-तर्कणा
(reasoning) की एक प्रमुख विशेषता यह बताई गई कि इनमें क्रमबद्धता (systematization)
होती है । चिन्तक कुछ खास-खास सोपानों या चरणों से होते हुए क्रमबद्ध ढंग से किसी समस्या
के समाधान के लिए चिन्तन करता है। अध्ययनों से यह पता चलता है कि तर्कणा में निम्नांकित
प्रमुख सोपान (steps) होते हैं-
(i) समस्या की पहचान (recognition of problem),
(ii) आँकड़ों के संग्रहण (Collection of data),
(iii) अनुमान पर पहुँचम (Drawing inference),
(iv) अनुमान के अनुसार प्रयोग करना (To do experiment according to interference),
(v) निर्णय करना (decision making).
Q.6. समस्या समाधान की सैद्धान्तिक व्याख्या करें।
Ans. समस्या समाधान की सैद्धान्तिक व्याख्या तीन दृष्टिकोणों के आधार पर की जा
सकती है, जो निम्न प्रकार से है-
1. व्यवहारवादी व्याख्या (Behaviouristic Interpretation)-वाचिक अधिगम और
अनुबन्धन संबंधी विवरण में पहले बताया जा चुका है कि अधिगम उद्दीपक और अनुक्रिया के
बीच साहचर्य स्थापित होता है। व्यवहारवादियों ने इसी दृष्टिकोण को अपनाकर समस्या समाधान
की व्याख्या निम्न चरणों के माध्यम से की है-
(i) अनुक्रिया-पदानुक्रम (Response Hierarchy)-समस्या समाधान की मेकेनिज्म का
भाव यह है कि प्रयोज्य की अनेक अनुक्रियाएँ एक उद्दीपक-स्थिति से अनुबंधित होती हैं। इन
अनुक्रियाओं में कोई अनुक्रिया एक ही उद्दीपक स्थिति से अधिक मात्रा में और कोई कम मात्रा
में अनुबन्धित होती है। दूसरे शब्दों में, प्रयोज्य की अनेक अनुक्रियाएँ एक ही उद्दीपक स्थिति के
साथ भिन्न-भिन्न साहचर्य प्रबलता स्तर पर संबंधित हो सकती हैं। अतः ऐसा माना जा सकता
है कि ये अनुक्रियाएँ पदानुक्रम (Hierarchy) में व्यवस्थित होती हैं। इन अनुक्रियाओं को Habi
Family Hierarchy भी कहा जाता है। उद्दीपक से सबंधित ये अनुक्रियाएँ समस्या समाधान के
समय शीघ्र उत्पन्न होती हैं जिनका उद्दीपक स्थिति के साथ प्रबल साहचर्य रहा है।
(ii) अप्रकट प्रयल और भूल (Impact Trial and Error)-समस्या समाधान संबंधी
प्रयोगों में मानव प्रयोज्य भी अप्रकट और भूल अनुक्रियाएँ करते हैं, परन्तु इनकी अनुक्रियाएँ
बहुधा प्रतीकात्मक (Symbolic) स्तर पर होती हैं। उदाहरण के लिए, यदि प्रयोजन के सामने यह
समस्या है कि डिब्बे और टेप की सहायता से किस प्रकार दीवार पर मोमबत्ती लगा कर जलाये
कि दीवार और फर्श पर जलती हुई मोमबत्ती का मोम न गिरे। सर्वप्रथम प्रयोज्य कल्पना और
चिन्तन के माध्यम से उपाय सोचेगा और प्रत्येक उपाय की उपयोगिता की जाँच करेगा। उसे जो
उपाय त्रुटिपूर्ण लगेगा उसे वह छोड़ देगा फिर चिन्तन स्तर पर प्रयत्न करके अगला उपाय सोचेगा।
इस तरह अन्त में प्रकट प्रयत्न और भूल के आधार पर चिन्तन करते-करते समस्या समाधान के
अन्तिम उपाय पर पहुंच सकता है।
(iii) मध्यस्थताकारी सामान्यीकरण (Mediated Generalization)-व्यवहारवादियों ने
समस्या समाधान की व्याख्या के लिए इस प्रक्रिया का भी उपयोग किया है। यह एक प्रकार का
प्रत्यक्षपरक प्रक्रिया (Perceptual process) है। यह देखा गया है कि भौतिक उद्दीपक यद्यपि
एक-दूसरे से भिन्न होते हैं, परन्तु इनमें कुछ-न-कुछ मात्रा में अथवा किसी प्रकार की सामान्यता
पायी जा सकती है। उदाहरण के लिए, गोभी, टमाटर और बैगन यद्यपि स्वाद, आकृति और रंग
में एक-दूसरे से भिन्न हैं फिर भी हम इनका प्रत्यक्षीकरण सब्जी के रूप में करते हैं। यदि इन
सब्जियों में से ऐसी सब्जी व्यक्ति के सामने उपस्थित होती है तो उस सब्जी से संबंधित अप्रकट
अनुक्रिया दूसरी सब्जी के लिए उद्दीपन संकेत प्रस्तुत कर सकती है और दूसरी सब्जी के प्रति
अनुक्रिया उद्दीपन हो सकती है।
(iv) व्यवहार खण्डों का समन्वय (Integration of Behaviour Segments)-समस्या
समाधान की इस मेकेनिज्म में यह बताया गया है कि प्रयोज्य समस्या का समाधान विभिन्न
अनुक्रियाओं को समन्वित करके भी करता है। प्रश्न यह उठता है कि जो प्रयोज्य इस मेकेनिज्म
के आधार पर समस्या समाधान करते हैं तो उनके लिए समस्या क्यों उत्पन्न होती है। समस्या
उत्पन्न होने के कारण यही प्रतीत होता है कि जिन व्यवहार खण्डों के समन्वय की सहायता से
प्रयोज्य समस्या का समाधान कर रहा है, ऐसे व्यवहार खण्डों का समन्वय पहले कभी नहीं हुआ
है। उपरोक्त समस्या समाधान की सैद्धांतिक व्याख्या जो व्यवहारवादियों ने प्रस्तुत की है, उनके
अध्ययन से स्पष्ट होता है कि समस्या समाधान अधिगम का सरल रूपन होकर जटिल रूप है।
2. गेस्टाल्टवादी व्याख्या (Insight Mechanism) स्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों में कोहलर
ने अधिगम के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण अध्ययन किए हैं जिनका संबंध समस्या समाधान से है।
गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्यक्षपरक पुनर्गठन (Perceptual Re-Organization)
का परिणाम ही समस्या समाधान है। जब प्राणी स्थिति का प्रत्यक्षीकरण सही ढंग से नहीं करता
है तभी उसके सामने समस्या उत्पन्न होती है। गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्राणी
समस्यात्मक स्थिति का प्रत्यक्षीकरण अन्त दृष्टि के आधार पर करता है। समस्या समाधान की
व्याख्या गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार निम्न प्रकार से है। जब प्राणी किसी लक्ष्य तक पहुंँचने
में बाधा अनुभव करता है तब समस्या उत्पन्न होती है। समस्या के कारण व्यक्ति तनाव का
अनुभव करता है । व्यक्ति तनाव को दूर करने के लिए सक्रिय होकर लक्ष्य तक पहुँचने के लिए
प्रयास करता है। व्यक्ति लक्ष्य तक पहुँचने के लिए कितना सक्रिय होगा अथवा तनाव दूर करने
के लिए कितना सक्रिय होगा, इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें तनाव की मात्रा कितनी है
और लक्ष्य उसके लिए कितना सार्थक, आवश्यक तथा कितना स्पष्ट है । प्राणी समस्यात्मक स्थिति
का संगठन और पुनर्गठन तबतक करता रहता है जबतक प्राप्त कराने वाले समाधान का
प्रत्यक्षीकरण की सूझ या अन्तर्दृष्टि (Insight) है। किसी समस्यात्मक स्थिति में प्राणी कितनी
और किस प्रकार अन्तर्दृष्टि से समस्या का समाधान करेगा, वह मुख्यतः इस बात पर निर्भर करता
है कि वह प्राणी किस जाति का है। क्योंकि भिन्न-भिन्न प्राणियों में तथा भिन्न-भिन्न जाति के
प्राणियों में अन्तर्दृष्टि की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है।
3. सूचना-संसाधन सिद्धांत (Information Processing Theory)-सूचना-संसाधन
सिद्धांत आधुनिक सिद्धांत है। यह व्याख्या व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों और गेस्टाल्टवादी
मनोवैज्ञानिकों की समस्या समाधान की व्याख्या से पूर्णतः भिन्न है। इस सिद्धांत के समर्थकों का
विचार है कि जिन नियमों के आधार पर इलेक्ट्रोनिक कम्प्यूटर्स कार्य करते हैं ठीक उन्हीं नियमों
के आधार पर प्राणी का नाड़ी संस्थान कार्य करता है। विचार यह है कि व्यक्ति में समस्यात्मक
स्थिति से सूचना ग्रहण कर सूचना के आधार पर कार्य (Operation) करने की क्षमता होती है।
Q.7. चिन्तन के स्वरूप का वर्णन करें। चिन्तन और स्मरण में भेद बताएँ।
Ans. सामान्य रूप से चिन्तन का अभिप्राय है-सोचना या विचार करना, परन्तु मनोविज्ञानवेत्ता
चिन्तन को केवल इतना ही नहीं समझते । उनका कथन है कि चिन्तन का सम्बन्ध किसी न किसी
समस्या से रहना चाहिए। इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया जायेगा। हरिश की लड़की
सुषमा ने इस वर्ष बी.ए. परीक्षा पास की है। वह विवाह करना चाहता है, परन्तु वर मिल नहीं
रहा। ऐसी स्थिति में उसके सामने एक समस्या उपस्थित होती है कि-वह लड़की को एम.ए,
में प्रवेश दिलाए या बी. एड. कराए ? एम. ए. में में दो वर्ष लगेंगे, व्यय भी बहुत होगा और
एक समस्या पैदा हो जाएगी-वह यह कि लड़की से अधिक योग्यता का वर खोजना होगा । अतः
यही अच्छा है कि लड़की को बी. एड. कराया जाय । यदि एक वर्ष में वर नहीं मिला तो, वर
न मिलने तक नौकरी करती रहेगी। इससे वह अपने दहेज के लिए भी कुछ धन जुटा लेगी। यह
सोचकर वह अपनी बेटी सुषमा को बी. एड. में प्रवेश दिला देता है। समस्या समाधान हेतु सोचने
की यह प्रक्रिया ‘चिन्तन’ कहलायेगी।
भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिकों ने चिन्तन की परिभाषा इन शब्दों में दी है-
वारेन-“चिन्तन एक ऐसी प्रत्ययात्मक क्रिया है, जो किसी समस्या से प्रारम्भ होती है और
अन्त में समस्या के एक निष्कर्ष के रूप में समाप्त होती है।”
(“Thinking is an ideational activity, inittiated by a problem and ultimately
leading to a conclusion or solution of the problem.” Warren.)
कॉलिन्स तथा ड्रेवर-“किसी प्राणी या जीव का वातावरण के प्रति जो अनेतन समायोजन
होता है, वही चिन्तन है। चिन्तन मानसिक प्रत्ययात्मक तथा प्रत्यक्षात्मक आदि कई स्तरों पर हो
सकता है।”
(“Thinking may be described as the conscious adjustment of an organism
to a situation. Thinking may obviously take place at all levels of mental, i.e.
preceptual and conceptual level.”-Collins and Drever.)
डिवी-“चिन्तन को हम एक विश्वास या अनुमानित ज्ञात कह सकते हैं।”
(“Thinking is an active persistent and \careful consideration of any belief
or supposed form of knowledge.”-Dewey.)
वुडवर्थ-“चिन्तन करना एक कठिनाई को दूर करने का ढंग है।”
(”Thinking is one way of overcoming an abstacle.”-Woodworth)
चिंतन वह जटिल मानसिक प्रक्रिया है जो किसी समस्या के उपस्थित होने पर प्रारम्भ होती
है और उसके समाधान होने पर समाप्त हो जाती है। अब प्रश्न यह उठता है कि चिन्तन का स्वरूप
क्या है ? दूसरे शब्दों में चिन्तन में क्या व्यक्ति ‘प्रयत्न और भूल’ विधि का व्यवहार करता है
या अन्तर्दृष्टि विधि का। इस सम्बन्ध में मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। थॉर्नडाइक,
पिल्सबरी, मार्गन आदि विद्वानों के अनुसार चिन्तन की क्रिया में व्यक्ति समस्या के समाधान के
लिए प्रयत्न और भूल विधि का व्यवहार करता है और कोहलर, डंकन, यर्कस आदि विद्वानों का
कहना है कि चिन्तन-क्रिया में व्यक्ति समस्या समाधान के लिए अन्त:दृष्टि विधि का व्यवहार
करता है।
थॉर्नडाइक का कहना है कि चिन्तन की प्रक्रिया में समस्या समाधान करने के लिए व्यक्ति
के मस्तिष्क में अनेक प्रकार के विचार आते रहते हैं। व्यक्ति उन विचारों पर क्रमशः सोचता है।
जो समाधान गलत प्रतीत होता है उसे व्यक्ति एक-एक कर छोड़ता जाता है और जो
समस्या समाधान से सम्बन्धित होता है उसे अपने चेतना-केन्द्र में ग्रहण करता जाता है। इस तरह
के सम्भव समाधानों के सहारे समस्या को सुलझाने का क्रम तबतक जारी रहता है जबतक उसे
समस्या के सही-सही समाधान करने का तरीका नहीं मिल जाता । उदाहरणार्थ, जब किसी विद्यार्थी
के सामने गणित-सम्बन्धी कोई समस्या उपस्थित होती है तब उसके मस्तिष्क में अनेक प्रकार के
विचार उठते हैं। वह एक सूत्र के असफल होने पर दूसरे और दूसरे के बाद तीसरे का तबतक
उपयोग करता है जबतक कि वह उसे हल करने में ठीक-ठीक समर्थ नहीं हो जाता । इस प्रकार
स्पष्ट है कि चिन्तन में समस्या समाधान के लिए “प्रयत्न और भूल” को अपनाया जाता है।
परन्तु अन्तर्दृष्टि सिद्धांत के प्रतिपादन में मूलर महोदय का कहना है कि व्यक्ति समस्या
समाधान में प्रयत्न और भूल विधि का नहीं, अपितु अन्तर्दृष्टि-विधि का व्यवहार करता है । व्यक्ति
चिन्तन क्रिया में समस्या से सम्बन्धित विभिन्न पहलुओं पर क्रमशः विचार नहीं करता, वरन उन
पर सामूहिक रूप से विचार करता है। ऐसा करने में अचानक व्यक्ति में उस परिस्थिति की
अन्तर्दृष्टि उत्पन्न होती है और वह तुरन्त सही प्रक्रिया कर डालता है।
उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि व्यक्ति समस्या के समाधान में न
सिर्फ प्रयत्न और भूल विधि का उपयोग करता है और न सिर्फ अन्तर्दृष्टि-विधि का, अपितु दोनों
का उपयोग करता है। प्रायः व्यक्ति कठिन समस्याओं के उपस्थिति होने पर प्रयल और भूल का
सहारा लेता है, लेकिन सरल समस्याओं के समाधान में विशेषकर अन्तर्दृष्टि विधि का ही उपयोग
करता है।
चिन्तन और स्मरण में अन्तर-चिन्तन और स्मरण दोनों ही जटिल ज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ हैं,
क्योंकि प्रत्येक का विश्लेषण करने पर अनेक उपक्रियाएँ उपलब्ध होती है। फिर भी, दोनों में
पर्याप्त भिन्नताएँ हैं जिनका अध्ययन इस प्रकार किया जा सकता है-
1. चिन्तन की क्रिया के लिए किसी समस्या का होना नितान्त आवश्यक है, परन्तु स्मरण
में ऐसी बात नहीं है। स्मृति की क्रिया समस्याओं के अभाव में उत्पन्न हो जाती है। उदाहरणार्थ,
किसी प्रश्न का उत्तर समझ में आने पर एक समस्या उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण प्रश्नोत्तर
के लिए चिन्तन क्रिया प्रारम्भ हो जाती है। दूसरी ओर, बिना ऐसी समस्या के किसी दुर्घटना को
देखकर हमें उसी प्रकार की अन्य दुर्घटनाओं का स्मरण हो जाता है।
2. चिन्तन की क्रिया में प्रतीकों के सहारे समस्या को सुलझाया जाता है। लेकिन स्मरण
की क्रिया में हम अपनी पूर्वानुभूतियों को वर्तमान चेतना का विषय बनाते हैं। यही कारण है कि
चिन्तन की क्रिया में समस्या समाधान के लिए अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक प्रयत्न
और भूल की क्रियाएँ होती हैं। परन्तु स्मरण में कोई विशेष प्रयत्न और भूल करने की आवश्यकता
नहीं महसूस होती । उदाहरणार्थ, गणित सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर समझ में न आना एक समस्या
है, जिसके समाधान के लिए हम विभिन्न सूत्रों को व्यवहत करते हुए प्रयत्न और भूल करते हैं।
दूसरी ओर किसी पठित पाठ्य-विषय का प्रत्याहान करने में कोई विशेष प्रयल और भूल करने
की आवश्यकता नहीं पड़ती।
3. चिन्तन एक मूल उद्देश्य को लेकर होता है। चिन्तन के क्षेत्र में जो भी हम मानसिक
क्रिया करते हैं, वह उद्देश्य को सामने रखकर ही । लेकिन स्मृति के अन्तर्गत कोई उद्देश्य नहीं होता।
दूसरी बात यह है कि चिन्तन का अन्तिम लक्ष्य किसी समस्या का समाधान करना है जबकि स्मरण
का लक्ष्य सीखे गये विषय को सफलतापूर्वक चेतना में लाना है। अत: इन दोनों के लक्ष्य में भी
भिन्नता है। उदाहरणार्थ, हिसाब नहीं बनने की समस्या उत्पन्न होने पर जैसे ही हमें उसका उचित
हल सूझ जाता है, चिन्तन समाप्त हो जाता है। दूसरी ओर, कविता का स्मरण करते समय हमारा
यही लक्ष्य रहता है कि जहाँ तक हो सके पूरी कविता वर्तमान चेतना में चली आये।
4. चिन्तन की क्रिया नियंत्रित ढंग से होती है, परन्तु स्मरण की क्रिया में नियंत्रण का अभाव
पाया जाता है। उदाहरणार्थ, जब एक इन्जीनियर पुल निर्माण करने के सम्बन्ध में चिन्तन करता
है तो उसका सम्पूर्ण चिन्तन पुल-निर्माण सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतियों से ही सम्बन्धित रहता है
दूसरी और स्मरण की क्रिया में हम एक विषय का स्मरण करते समय उससे सम्बन्धित
दूसरी-दूसरी घटनाओं और विषयों का भी स्मरण कर लेते हैं।
5. चिन्तन की क्रिया स्मरण की क्रिया पर आश्रित है पर स्मृति की क्रिया चिन्तन की क्रिया
पर आश्रित नहीं है। दूसरे शब्दों में, चिन्तन की क्रिया में स्मरण की क्रिया पायी जाती है, परन्तु
स्मरण की क्रिया में चिन्तन की क्रिया नहीं पायी जाती। अत: चिन्तन की क्रिया स्मरण की अपेक्षा
अधिक जटिल है।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि चिन्तन और स्मृति दो मानसिक प्रक्रियाएँ हैं
जिनमें घनिष्ठता होते हुए भी पर्याप्त भिन्नता है।
Q.8. चिंतन के स्वरूप का विवेचन करें तथा चिंतन में विन्यास की भूमिका की
व्याख्या करें।
Ans. चिंतन का स्वरूप-चिंतन का अर्थ होता है सोचना । जब हमारे सामने कोई समस्या
उत्पन्न होती है तो हम उसको हल करने के लिए सोच-विचार करने लगते हैं। किसी समस्या
के बारे में सोच-विचार करने की क्रिया को ही चिंतन कहते हैं। एक चालक (Driver) की गाड़ी
एकाएक रुक जाती है और गाड़ी स्टार्ट नहीं होती है तो यह घटना उसके लिए एक समस्या बन
जाती है। समस्या का अर्थ है उस घटना से या परिस्थिति से जिसका कोई तात्कालिक हल उपलब्ध
न हो। (“Generally speaking a problem exists when there is no available answer
to some equation.”) अब वह गाड़ी के बन्द होने के संभव कारणों तथा इस स्टार्ट करने के
उपायों के संबंध में सोचने लगता है। सोचने की यह क्रिया तबतक चलती है जबतक कि समस्या
का समाधान नहीं हो जाता है। जैसे ही गाड़ी स्टार्ट हो जाती है इस संबंध में चालक में सोचने
की क्रिया समाप्त हो जाती है और समस्या समाधान के मिल जाने के साथ ही इसका अन्त हो
जाता है। इसलिए चिंतन को समस्या समाधान प्रक्रिया (problem solving) भी कहा जाता है।
चिंतन या समस्या समाधान में मानसिक तत्परता का बहुत बड़ा हाथ होता है। किसी समस्या
के समाधान के पहले व्यक्ति एक मानसिक तैयारी करता है कि वह अपनी समस्या के समाधान
के लिए किस प्रकार का व्यवहार करे । उसको इसी मानसिक प्रक्रिया को तत्परता कहते हैं
चैपलिन (Chaplin, 1975) के अनुसार तत्परता (se.) प्राणी की वह अवस्था अस्थायी है जो
उसे एक विशेष ढंग से प्रतिक्रिया करने के लिए तत्पर कर देती है । इसी प्रकार, हिल्गार्ड आदि
के अनुसार तत्परता का अर्थ किसी कार्य-विशेष या अनुभव के प्रति एक प्रारंभिक आयोजन की
तैयारी है। तत्परता का व्यवहार दिशा (Direction) के अर्थ में भी किया जाता है । मायर
(Maier) ने तत्परता का व्यवहार इसी अर्थ में किया है। उनके अनुसार समस्या का समाधान करते
समय सम्भवतः प्राणी अनुमान करता है कि इस समस्या का समाधान अमुक दिशा में व्यवहार
करने से हो सकता है । दूसरे शब्दों में, वह अनुमान करता है कि लक्ष्य अमुक दिशा में उपलव्य
हो सकता है । तत्परता की उत्पत्ति कभी तो अभ्यास करने से और कभी प्रयोगकर्ता द्वारा दिये
गए चिन्तन से होती है। अधिक समय तक अभ्यास करने से प्राणी में एक विशाल तत्परता उत्पन्न
हो जाता है। इसी तरह अध्ययन के समय प्रयोगकर्ता कुछ विशेष निर्देश देता है, जिससे प्रयोज्य
में एक खास तरह की तत्परता उत्पन्न हो जाती है।
चिंतन या समस्या समाधान में तत्परता का महत्त्वपूर्ण स्थान देखा जाता है । जब तत्परता
सही होती है तो समस्या का समाधान सरल बन जाता है । लेकिन गलत तत्परता (wrong set)
के कारण समस्या का समाधान कठिन तथा विलम्बित हो जाता है । अतः तत्परता से एक ओर
समस्या समाधान में सहायता मिलती है तो दूसरी ओर इससे हानि भी होती है। हम यहाँ तत्परता
के दोनों पक्षों की अलग-अलग व्याख्या प्रस्तुत कर रहे हैं, जो इस प्रकार है-
(A) तत्परता के लाभ (Advantage of set) तत्परता का धनात्मक मूल्य सरलीकरण
के रूप में देखा जाता है । समस्या का समाधान करते समय जब प्राणी में सही तत्परता का निर्माण
होता है तो प्राणी को सही प्रतिक्रिया करने तथा गलत प्रतिक्रिया से बचने का लाभ होता है । तत्परता
के धनात्मक मूल्य को प्रमाणित करने के लिए एक प्रारंभिक अध्ययन वाट ने किया। उन्होंने अपने
अध्ययन में देखा कि नित्रित समूह की अपेक्षा प्रयोगात्मक समूह के प्रयोज्यों को अपनी समस्या
के समाधान में अधिक सुविधा का अनुभव हुआ । इसकी व्याख्या करते हुए वाट ने कहा कि
प्रयोगकर्ता समूह के प्रयोज्यों में अभ्यास के कारण सही तत्परता उत्पन्न हुई जिससे समस्या के
समाधान में आसानी हुई । मेयर ने भी वाट के प्रयोग को थोड़े परिमार्जन के साथ दोहराया और
यह निष्कर्ष निकाला कि समस्या समाधान में सही तत्परता से काफी सुविधा होती है । इन प्रयोगों
में अन्त:निरीक्षण का व्यवहार किया गया ।
मोसर (Moier) ने अपने अध्ययन में देखा कि सही दिशा का ज्ञान हो जाने पर समस्या
का समाधान बहुत आसान हो जाता है । लेकिन, यदि प्राणी गलत दिशा का अनुमान लगा लेता
है और उसे अपनी दिशा में परिवर्तन लाना पड़ता है और तभी समस्या हल हो जाता है । उन्होंने
कई समस्याओं पर अध्ययन करके अपनी इस परिकल्पना को प्रमाणित करने का प्रयास किया ।
हम यहाँ सिर्फ एक समस्या से संबंधित प्रयोग का उल्लेख करना चाहेंगे। इसे दोलक
समस्या कहते हैं। प्रयोज्यों को लड़की की सट्टी (Strips), शिकन्जे, तार, चित्रांकन, एक भारी
टेबुल आदि सामग्रियाँ दी गई। प्रयोज्यों से इन सामग्रियों द्वारा दो दोलक बनाने तथा इस प्रकार
झुलाने के लिए कहा गया कि वे निश्चित स्थानों पर चिन्ह बना सकें । एक समूह के प्रयोज्यों
को सही दिशा का संकेत दे दिया गया । प्रयोगकर्ता ने उनसे कहा कि छत में दो कीलों के सहारे
दोलक को लटका सके तो समस्या आसान बन जाएगी । दूसरे समूह के प्रयोज्यों को किसी तरह
की दिशा का संकेत नहीं दिया गया । देखा गया कि पहले समूह के लगभग 35% और दूसरे
समूह के केवल लगभग 2% प्रयोज्यों ने अपनी समस्या का समाधान किया, हालाँकि दोनों समूहों
के प्रयोज्यों को समस्या समाधान के लिए आवश्यक पूर्वअनुभव समान था । इससे स्पष्ट हुआ
कि सही तत्परता मिल जाने पर समस्या का समाधान आसान बन जाता है।
वीवर एवं मैडेन (Weaver and Madden, 1949) ने मोयर के प्रयोग को दोहराया और
देखा कि कुछ प्रयोज्यों में प्रयोगकर्ता से बिना किसी संकेत मिले भी सही दिशा या तत्परता उत्पन्न
हो गई । देखा गया कि किसी खास दिशा में प्रयास करने पर प्रयोज्यों को सफलता की कोई आशा
नजर नहीं आई तो वे अपने पहले प्रयास को छोड़कर दूसरी दिशा में प्रयत्नशील हो गये और अंत
में सफलता मिल गई । चाहे जो भी हो, इस अध्ययन से भी इतना अवश्य ही स्पष्ट हो जाता है
कि सही तत्परता मिल जाने पर समस्या को हल करने में आसानी होती है।
(B) तत्परता की हानि (Disadvantages of set)-गलत तत्परता अथवा गलत दिशा
से समस्या समाधान में बड़ी हानि होती है। इसे तत्परता का अवरोधक प्रभाव अथवा नकारात्मक
मूल्य कहते हैं । इस प्रकार की तत्परता उत्पन्न होने पर प्राणी गलत दिशा में प्रयास करने लगता
है, जिससे समस्या का समाधान कठिन हो जाता है और समस्या तबतक समाप्त नहीं हो पाता है
जबतक कि वह उस तत्परता को छोड़कर सही दिशा में सक्रिय नहीं होता है । डंकर ने तत्परता
के इस अवरोधक प्रभाव को कार्यात्मक स्थिरता की संज्ञा दी है। कारण यह है कि गलत तत्परता
के उत्पन्न हो जाने पर प्राणी. एक ही दिशा में स्थिर होकर व्यवहार करने लगेंगे । वह दूसरी दिशा
के प्रति उदासीन बन जाता है । वह समस्या के समाधान के दूसरे उपायों के प्रति मानो अंधा बन
जाता है । रेबर (Rebber, 1987) ने भी कहा कि कार्यात्मक स्थिरता के कारण व्यक्ति को समस्या
का विकल्पी समाधान सुझायी नहीं देता है । इस तरह गलत तत्परता वास्तव में समस्या के समाधान
में बाधा उत्पन्न करने लगती है।
गलत तत्परता के बाधक प्रभाव को स्पष्ट करने के लिए एडमसन ने एक प्रयोग का उल्लेख
इस प्रकार किया है जिसमें प्रयोज्यों को मोमबत्ती, छोटे-छोटे दफ्ती बक्से, पाँच दियासलाई आदि
सामग्रियाँ दी गयीं । उन्हें आदेश दिया गया कि वे मोमबत्तियों को उदग्र दीवार की सतह पर जलती
हुई अवस्था में लगा दें। समस्या अधिक जटिल नहीं थी । करना था कि मोम के सहारे बक्से
पर मोमबत्तियों को मोड़कर टाँगों की मदद से दीवार पर लगा दिया जाए । प्रयोगकर्ता समूह के
प्रयोज्यों में कार्यात्मक स्थिरता उत्पन्न की गई। इसके लिए तीनों बक्सों में मोमबत्तियाँ, दियासलाई
तथा टाँगों को भरकर प्रयोज्यों को दिया गया । इससे उनमें यह विचार विकसित किया गया कि
बसे प्रायः पात्र का काम करते हैं, चबूतरा का नहीं । नियंत्रित समूह के प्रयोज्यों में इस तरह
की कार्यात्मक स्थिरता उत्पन्न नहीं की गई । उन्हें तीन खाली बक्स आदि दिये गये बाकी सभी
सामग्रियों को टेबल पर रख दिया गया । देखा गया कि प्रयोगात्मक समूह के 29 प्रयोज्यों में से
केवल 12 (42%) प्रयोज्यों ने और नियत्रित समूह के 28 प्रयोज्यों में से 24 (86%) प्रयोज्यों ने सीमित
समय (20 मिनट) के भीतर अपनी समस्या का समाधान किया। इस अध्ययन से प्रमाणित होता
है कि कार्यात्मक स्थिरता समस्या समाधान में बाधक है ।
तत्परता के अंधकार प्रभाव को और भी स्पष्ट करने के लिए लूचिन्स (Luchins) के प्रयोग
का उल्लेख आवश्यक है । उन्होंने छात्रों पर प्रयोग किया। प्रयोज्यों को तीन प्रकार के बर्तन दिये
गये और उनकी सहायता से एक निश्चित मात्रा में पानी नापने के लिए कहा गया । इस प्रकार
111 समस्याएँ दी गई जो अग्रांकित हैं-
समस्या की संख्या                             दिये गये बर्तन                       पानी की अपेक्षित मात्रा
           A                   B                   C
1                              29                  3                    0                     20 क्वार्ट
2                              21              127                   3                            100”
3                              14              163                 25                              99″
4                              18                 43                10                                 5″
5                                 9                 42                  6                               21″
6                               20                 59                  4                               31″
7                               23                 49                  3                               20″
8                              15                  39                 3                               18″
9                              28                  76                3                               25″
10                              18                  48                4                               22″
11                             14                   36               8                                  6″

दो बर्तन वाली पहली समस्या की जानकारी प्रयोज्यों को दे दी गयी । इन्हें आदेश दे दिया
गया कि वे 29 क्वार्ट बर्तन को पानी से भर लें और 3 क्वार्ट बर्तन से तीन बार पानी निकाल
लें । इस तरह 29 क्वार्ट पानी मिल जाएगा । फिर दूसरी समस्या दी गयी कि तीन मिनट के बाद
उसे भी समझा दिया गया । दूसरी समस्या से लेकर अंतिम समस्या तक (समस्या 9 को छोड़कर)
का समाधान B, A,2-C से सूत्र के आधार पर संभव था । परन्तु छठी समस्या के बाद सभी
समस्याओं का समाधान सबसे बड़े बर्तन के बिना भी संभव था । देखना यह था कि तीन बर्तन
कार्य-प्रणाली से उत्पन्न तत्परता के कारण प्रयोज्यों में दो वर्तन कार्य-प्रणाली के प्रति अंधकार
प्रभाव विकसित होता है या नहीं । देखा गया कि प्रयोगात्मक समूह के अधिकांश प्रयोज्य इस
प्रभाव से प्रभावित हुए । दूसरी ओर नियंत्रित समूह को केवल प्रथम दो बर्तन समस्या की जानकारी
दी गयी। फिर उन्हें 7 से 11 तक की समस्याओं को हल करने के लिए कहा गया । देखा गया
कि उन्होंने केवल दो बर्तनों की सहायता से समस्याओं का समाधान किया । इस तरह स्पष्ट हुआ
कि प्रयोगात्मक समूह के प्रयोज्यों में एक ही तत्परता पूरे प्रयोग में दृढ़ता के साथ जारी रही, जिस
कारण समस्याओं का समाधान सुझायी नहीं पड़ा । लूचिन्स तथा लूचिन्स के अध्ययन में भी
लगभग इसी तरह के निष्कर्ष मिले । इस प्रकार के कई दूसरे प्रयोग भी हुए हैं जिनमें यूज किलर,
ग्रीनवर्ग तथा रिचमैन आदि के अध्ययन महत्त्वपूर्ण । इन अध्ययनों से भी गलत तत्परता का
अंधकार प्रभाव सिद्ध होता है।

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