Bihar board civics notes class 11th
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Bihar board civics notes class 11th
संविधान- एक जीवंन्त दस्तावेज
• संविधान एवं उसका लचीलापन।
• संविधान में संशोधन की आवश्यकता।
• संविधान-जनता की इच्छाओं की अभिव्यक्ति।
• भारत की शासन प्रणाली में संविधान की भूमिका।
• संविधान का मूल स्वरूपा
• संविधान की रक्षा और न्यायपालिका की भूमिका।
• संविधान संशोधन की प्रक्रिया।
• साधारण बहुमत से संशोधन।
• विशिष्ट बहुमत से संशोधन।
• संसद के विशेष बहुमत से तथा आधे राज्यों के द्वारा अनुमोदन से संविधान संशोधन।
• संविधान संशोधन प्रक्रिय-कठोर एवं लचीले का समन्वय।
• संशोधन की विषय-वस्तु।
• संशोधनः राजनीतिक आम सहमति के जरिये।
• संविधान की समीक्षा।
• संविधान एक जीवन्त दस्तावेज।
• भारतीय संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया। इस संविधान को 26
जनवरी, 1950 को लागू किया गया। दिसम्बर, 2005 तक भारत के संविधान में 104
संशोधन हो चुके थे।
• अमरीका का संविधान लगभग 217 वर्ष पहले लागू हुआ था। तब से लेकर आज तक
उसमें 27 संशोधन ही हुए हैं।
• संसद अपनी संवैधानिक शक्ति के द्वारा और अनुच्छेद 368 में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार
• संविधान में नये उपबन्ध कर सकती है तथा पहले से विद्यमान उपबन्धों को बदल या हटा
सकती है।
• विश्व के आधुनिकतम संविधानों में संशोधन की विभिन्न प्रक्रिया में दो सिद्धान्त महत्त्वपूर्ण
भूमिका अदा करते हैं। एक सिद्धान्त विशेष बहुमत का जैसे अमरीका, दक्षिण अफ्रीका
तथा रूस जैसे देशों में। अमरीका में दो तिहाई तथा दक्षिण अफ्रीका व रूस में तीन चौथाई
बहुमत की आवश्यकता होती है। दूसरा सिद्धान्त है संशोधन में जनता की भागीदारी का,
जैसे स्विटजरलैंड में जहाँ जनता को संशोधन की प्रक्रिया शुरू करने तक का अधिकार
है। रूस और इटली में भी जनता को संशोधन करने या संशोधन के अनुमोदन का अधिकार
दिया गया है।
• संसद तथा न्यायपालिका के बीच संविधान संशोधन को लेकर कई बार विवाद उठे हैं।
• हमारे संविधान में बुनियादी संरचना के सिद्धान्त को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है
• केशवानन्द भारती विवाद के बाद यह तय हो चुका है कि संसद संविधान के मूल दार्च
को परिवर्तित नहीं कर सकती।
• भारत के संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज माना गया है।
पाठ्यपुस्तक के एवं परीक्षोपयोगी अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्ता
1. भारतीय संविधान-
(क) लचीला है
(ख) लचीला और कठोर का सांमजस्य है
(ग) अचल है
(घ) इनमें से कोई नहीं
2. भारत के मूल संविधान में कितने अनुच्छेद हैं ? [B.M.2009 A]
(क) 400
(ख) 395
(ग) 390
(घ) 385
3. निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएंँ।
(i) राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज
सकता।
(ii) संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के
पास ही होता है।
(iii) न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परंतु उसे संविधान की
व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
(iv) संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।
उत्तर- (i) सत्य, (ii) असत्य, (iii) सत्य, (iv) असत्य।
प्रश्न 1. किसी देश के संविधान का क्या महत्त्व है?
उत्तर-किसी भी देश के लिए संविधान का होना बहुत आवश्यक है। संविधान के कारण
ही सरकार अपने दायित्वों की पूर्ति उचित रूप से करती है। संविधान में ही बताया जाता है कि
सरकार के विभिन्न अंगों की क्या-क्या शक्तियांँ और उनके क्या-क्या दायित्व होते हैं।
प्रश्न 2. क्या संविधान अपरिवर्तनीय होते हैं?
उत्तर-वास्तव में संविधान अपरिवर्तनीय नहीं होते। उनमें समय और परिस्थितिवश परस्थितिगत
बदलाव होते रहते हैं। परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और कई बार राजनीतिक
उठापटक के चलते विभिन्न रष्ट्रों ने अपने संविधान को दुबारा तैयार किया है।सोवियत संघ में
74 वर्षों में संविधान को चार बार बदला गया। सोवियत विघटन के बाद रूस में 1993
में एक नया संविधान अंगीकार किया गया।
प्रश्न 3. इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42वाँ संशोधन अब तक का
सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?
(i) यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा
अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
(ii) यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
(iii) इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
(iv) संशोधन के कुछ उपबंध विवादास्पद थे।
उत्तर-42वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादास्पद संशोधनों में से एक था। उपरिलिखित
कारणों में से इसके विवादास्पद होने के निम्नलिखित कारण थे- (NCERT T.B.Q.4)
(i) यह संशोधन राष्ट्रीय आपात स्थिति के दौरान किया गया जबकि आपातस्थिति की
घोषणा ही अपने आप में विवादास्पद थी।
(ii) इस संशोधन में कई प्रावधान विवादास्पद थे। यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम
न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती विवाद में दिए गए निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था।
यहाँ तक कि लोकसभा की अवधि को भी पाँच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया था।
42वें संशोधन में न्यायपालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया
गया था। इस संशोधन के द्वारा प्रस्तावना, 7वीं सूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तन
कर दिए गए। बहुत से सांसदों को, जो विपक्षी दलों से संबंधित थे, जेल में डाल दिया गया।
प्रश्न 4. निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है-
(i) संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि
(ii) परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है
(iii) किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो
जाता है।
(iv) हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद को संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए।
(v) संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए।
उत्तर-किसी भी संविधान का समय-समय पर संशोधित किए जाने की आवश्यकता होती
है और उसमें उचित परिवर्तन करना जरूरी हो जाता है।
प्रश्न 5. निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में
विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता-
(i) संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
(ii) खंडन-मडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
(iii) कुछ नियमों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है।
कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्याख्या की गई है।
(iv) नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
(v) न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिकता के बारे में फैसला दे सकती है।
वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।
उत्तर-उपरोक्त पांँचों कथनों में से भाग (v) ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव
को उचित व्याख्या नहीं है।
न्यायपालिका ही किसी निश्चित कानून की संवैधानिकता तय कर सकती है परंतु यह उसकी
आवश्यकता के लिए राजनीतिक वाद-विवाद प्रतियोगिता निर्धारित नहीं कर सकती।
प्रश्न 6. ‘राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखिये जैसा कि
भारतीय संविधान में दिया गया है।
उत्तर-राष्ट्र की एकता और अखण्डता-संविधान निर्माता ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो
और शासन करो’ की नीति से भलि-भांति परिचित थे। अत: उन्होंने संविधान का निर्माण करते
समय यह जोर दिया कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखा जाय। इस लक्ष्य की
प्राप्ति के लिए भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया तथा इकहरी नागरिकता को अपनाया
गया। पूरे देश का एक ही संविधान बनाया गया। राष्ट्र की एकता के साथ 42वें संविधान के द्वारा
अखण्डता शब्द को भी जोड़ा गया।
प्रश्न 7. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समानता’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर-समानता-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता दी गई
है। समानता शब्द का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान
अवसर प्राप्त होते हैं। किसी भी व्यक्ति को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति
के विकास के मार्ग में बाधा नहीं आने दी जाती।
प्रश्न 8. भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएंँ लिखिए।
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशषताएँ निम्नलिखित है-
(i) प्रस्तावना संविधान की कुंजी हैं क्योंकि इसमें पूरे संविधान का निष्कर्ष होता है।
(ii) प्रस्तावना संविधान के सभी उद्देश्यों और लक्ष्यों को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करती है।
इसे संविधान का दर्पण कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
(iii) प्रस्तावना में सरकार के रूप, कार्यपालिका ओर न्यायपालिका से संबंध आदि सभी
पक्षों का संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत किया जाता है।
(iv) संविधान की प्रस्तावना से आधारभूत दर्शन का ज्ञान होता है। वास्तव में प्रस्तावना
संविधान की आधारशिला है।
प्रश्न 9. संविधान सभा की क्या भूमिका थी? इसके अध्यक्ष कौन थे? (NCERT T.B.Q.1)
उत्तर-संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर को डॉ. सच्चिदानन्द सिंहा के अध्यक्षता
में हुई। 11 दिसम्बर 1946 को डॉ, राजेन्द्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। इस
संविधान सभा ने संविधान निर्माण का कार्य शुरू किया। 2 वर्ष 11 मास 18 दिन के पश्चात्
26 नवम्बर, 1949 को भारत के नये संविधान का निर्माण हुआ। ऐतिहासिक महत्त्व के कारण
यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही लागू किया गया। संविधान सभा की महत्त्वपूर्ण भूमिका
भारत के नए संविधान का निर्माण करना था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस सभा के स्थायी अध्यक्ष थे।
प्रश्न 10. बन्धुता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-बंधुता का अर्थ सभी लोगों के लिए भाई-चारे और नागरिकों की समानता से है। इस
शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी अधिकारों के घोषणा पत्र में और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के
मानव अधिकारों की घोषणा में किया गया। भारत के इतिहास में बन्धुता की भावना के विकास
का विशेष महत्त्व है। संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘बन्धुत्व’ की कल्पना की गई है उसे अनुच्छेद
7 व 18 में वर्णित छुआछूत को समाप्त कर पाया करना पर प्रतिबन्ध लगाकर और
अनेक सामाजिक बुराईयों को दूर करके भारतीय समाज में स्थापित किया गया है।
प्रश्न 11. भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिए ‘गणराज्य’ शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-भारत के संविधान की प्रस्तावना में “गणराज्य” शब्द का प्रयोग बहुत महत्त्व रखता
है। गणराज्य से अभिप्राय है कि भारत का राज्याध्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचित होगा।
प्रश्न 12. प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-प्रस्तावना का शाब्दिक अर्थ होता है भूमिका अथवा प्रारंभिक परिचय। संविधान की
प्रस्तावना का संबंध उसके उद्देश्यों, लक्ष्यों, आदर्शों तथा उसके आधारभूत सिद्धान्तों से है। भारतीय
संविधान की प्रस्तावना का सीधा संबंध उस उद्देश्य प्रस्ताव से है जिसे सविधान सभा ने 22
जनवरी, 1947 को पारित किया था।
प्रश्न 13. भारतीय संविधान को प्रस्तावना में दिए गए “लोकतान्त्रिक” शब्द का क्या
अर्थ है?
उत्तर-भारत के संविधान की प्रस्तावना में “लोकतन्त्रात्मक” शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका
यह अर्थ है कि भारत में जनता का शासन होगा। जनता के प्रतिनिधि चुने जाएंगे और वे जनहित
में शासन करेंगे। राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना होगी।
इस प्रकार एक कल्याणकरी राज्य की स्थापना होगी।
प्रश्न 14. भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर-‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को भी भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42वें संशोधन 1976
द्वारा जोड़ा गया। इसका तात्पर्य यह है कि भारत किसी धर्म या पंथ को राज्य-धर्म के रूप में
स्वीकार नहीं करता तथा न ही किसी धर्म का विरोध करता है। प्रस्तावना के अनुसार भारतवासियों
को धार्मिक विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता होगी। धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला
है। अत: राज्य उस विषय में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।
प्रश्न 15. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समाजवादी’ शब्द की व्याख्या
कीजिए।
उत्तर-‘समाजवादी’ शब्द को भी 1976 में 42वें संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की
प्रस्तावना में जोड़ा गया। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि भारत में किस प्रकार की शासन व्यवस्था
हो जिसके अनुसार समाज के सभी वर्गों का विकास व उन्नति के लिए उचित अवसर प्राप्त हों
तथा आर्थिक असमानता को कम किया जाए। इस नीति के अनुसार भारत सरकार यह प्रयास करेगी
कि उत्पादन और वितरण के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाय।
प्रश्न 16. राजनीतिक और आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राजनीतिक और आर्थिक न्याय का वर्णन
निम्नलिखित सन्दर्भ में किया गया है-
(i) राजनैतिक न्याय-राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग
आदि भेदभाव के बिना समान राजनैतिक अधिकार प्राप्त हों। सभी नागरिकों को समान मौलिक
अधिकार प्राप्त हों।
(ii) आर्थिक न्याय-आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका
कमाने के समान अवसर प्राप्त हो तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो।
प्रश्न 17. भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार राज्य की प्रकृति क्या है?
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारतीय राज्य की प्रकृति निम्न प्रकार से है-
(i) भारत एक संप्रभु राज्य है
(ii) भारत एक गणराज्य है।
(iii) भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है।
(iv) भारत एक समाजवादी राज्य है।
(v) भारत एक लोकतंत्रात्मक राज्य है।
प्रश्न 18. प्रस्तावना में दिए गए भारतीय संविधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर– संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित हमारे संविधान के उद्देश्य निम्नलिखित है-
(i) न्याय-सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक।
(ii) स्वतंत्रता-विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की।
(iii) समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की।
(iv) बंधुता-व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली।
प्रश्न 1. भारतीय संविधान के संशोधन करने में निम्नलिखित से कौन-कौन लिप्त हैं?
वे किस प्रकार इसमें योगदान करते हैं?
(i) मतदाता, (ii) भारत का राष्ट्रपति, (iii) राज्य विधान सभाएं, (iv) संसद,
(v) राज्यपाल, (vi) न्यायपालिका।
उत्तर-(i) मतदाता-भारत के संविधान में मतदाता भाग नहीं लेते।
(ii) भारत का राष्ट्रपति- भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद
के दोनों सदनों से पारित होने के बाद संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता
है। राष्ट्रपति उस पर अपने हस्ताक्षर कर देता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को
वापस भेजने का अधिकार नहीं है।
(iii) राज्य विधान सभाएंँ-संविधान की कुछ प्रमुख धाराओं (अनुच्छेदों) में परिवर्तन या
संशोधन करने में जहाँ संसद के दो तिहाई (विशिष्ट) बहुमत की आवश्यकता है। उसके
साथ-साथ कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के विधान सभाएं से भी अनुमति लेनी पड़ती है।
(iv) संसद-भारतीय संविधान के संशोधन में संसद का सबसे अधिक लिप्त होना अनिवार्य
है क्योंकि भारत के संविधान में कुछ धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण
बहुमत की आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संशोधनों में संसद के दोनों सदनों में उपस्थित
सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से तथा कुल सदस्यों के आधे से अधिक के बहुमत से संशोधन किया
जाता है। तीसरे प्रकार से संविधान की कुछ अहम धाराओं में संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन
विधेयक को पारित होने के बाद पचास प्रतिशत राज्यों से भी अनुमति ली जाती है। इस प्रकार
के संशोधन में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।
(v) राज्यपाल-संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधनों हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के
विधानमंडलों से अनुमति लेनी होती है केवल वहाँ राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि
राज्य विधानमंडल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्ताक्षर करने होते हैं।
(vi) न्यायपालिका-सविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच
मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखें
जा सकते हैं।
प्रश्न 2. बुनियादी ढांँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिन्हित करें। गलत वाक्य
को सही करें।
(i) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
(ii) बुनियादी ढांँचे को छोड़कर विधायिकी सविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर
सकती है।
(iii) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढांँचे
के अन्तगर्त या उसके बाहर रखा जा सकता है।
(iv) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
(v) इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक
दलों में भी बुनियादी ढांँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।
उत्तर-(i) “सविधान मूल संरचना को निर्धारित करता है।” यह बात सत्य नहीं है क्योंकि
संविधान में कहीं भी मल ढांँचे का वर्णन अलग से नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायलय ने
केशवानंद भारती विवाद में तथा फिर 1980 में मिनर्वा मिल विवाद में निर्णय दिया कि संविधान
के मूल ढांँचे से सम्बन्धित भागों में संशोधन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों, राजनेताओं,
सरकार तथा संसद के मूल संरचना के सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया। मूल संरचना के सिद्धान्त
ने संविधान के विकास में योगदान दिया। संसद सविधान के मूल ढांचे में संशोधन नहीं कर सकती।
(ii) विधायिका संविधान के मूल ढाँचे के अतिरिक्त अन्य सभी खण्डों में संशोधन कर
सकती है। यह एक सही कथन है।
(iii) न्यायपालिका ने संविधान के मूल ढांँचे को परिभाषित किया है कि संविधान के कौन
से खण्ड मूल ढांँचे के अन्तगर्त हैं और कौन से नहीं। मूल ढांचे का सिद्धान्त न्यायपालिका की
ही खोज है। संविधान के शब्दों की अपेक्षा संविधान की भावना अधिक महत्त्वपूर्ण है।
(iv) यह सिद्धान्त (मूल संरचना का सिद्धान्त) सर्वप्रथम केशवानन्द भारती विवाद के समय
अस्तित्व में आया और उसके वाद के विवादों में इसी के आधार पर निर्णय दिए गए। यह सही
कथन है।
(v) इस सिद्धान्त के अस्तित्व में आने से न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है और
राजनीतिक दलों, राजनेताओं और सरकार ने इसको मान्यता दी है। केशवानन्द भारती विवाद के
बाद से इस सिद्धान्त ने संविधान की व्याख्या में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। राजनीतिक नेताओं
तथा सरकार और संसद ने मूल संरचना के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। यह कथन सत्य है।
प्रश्न 3. सन् 2000-2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस
जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे-
(i) इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप
नहीं किया।
(ii) इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
(iii) कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
(iv) इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह
गया था।
(v) ये संशोधन विवादस्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न
राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।
उत्तर-प्रश्न में दिए गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं-(iii) तथा (iv) ।
अर्थात् एक तो जनता की ओर से इस प्रकार के संशोधन करने के लिए दबाव था और दूसरे
ये संशोधनों अविवादास्पद प्रकृति के थे तथा राजनीतिक दलों में संशोधनों के विषय में आम
सहमति थी। एक समझौता था।
प्रश्न 4. भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन कर दिया
जाता है?
उत्तर-भारत का संविधान लचीला भी है, कठोर भी है और लीचले और कठोर का समन्वय
भी है। कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की प्रक्रिया साधारण पारित करने की प्रक्रिया के समान
ही है। जैसे-
(i) नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य
का नाम बदलना।
(ii) राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना। (अनुच्छेद 169)
(iii) संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन।
(iv) संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के सम्बन्ध में संशोधन।
(v) भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में ।
(vi) देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में।
(vii) केन्द्र-शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में। (अनुच्छेद 240)
(viii) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।
प्रश्न 5. भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखो।
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना का विवेचना निम्नलिखित शब्दों में किया गया है-
संविधान की प्रस्तावना-“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न
लोकतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणराज्य बनाने तथा उसके सब नागरिकों को-
न्याय-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक।
स्वतंत्रता-विचार, अभिव्यक्ति, पूजा, विश्वास एवं धर्म की
समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की, और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता
सुनिश्चित करने वाली बन्धुत्व की भावना बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान
सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को हम भारत के लोग अंगीकृत, अधिनियमित और
आत्मसमर्पित करते हैं।
प्रश्न 1. भारतीय संविधान के किन्हीं दो स्रोतों की पहचान कीजिए। संक्षेप में उन
प्रावधानों का वर्णन कीजिए जो इन स्रोतों के लिए गए हैं।
उत्तर-भारत के संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया। यह संविधान सभा
1946 में चुनी गयी। संभा के सभी सदस्य भारतीय थे। ये सभी दलों का प्रतिनिधित्व करते थे
परंतु कांग्रेस पार्टी के सबसे अधिक सदस्य थे। इस सभा की शक्तियों पर किसी प्रकार का नियंत्रण
नहीं था। संविधान का निर्माण बड़े वाद-विवाद और गहन विचार के बाद किया गया। संविधान
बनाते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया कि भविष्य में इस दस्तावेज में संशोधन को
आवश्यकता भी पड़ सकती है। संविधान में उन आदशा, आकांक्षाओं, मूल्यों, प्रेरणाओं और
आवश्यकताओं को स्थान देने का प्रयास किया जो भारत की जनता के लिए अधिक से अधिक
हितकर हों।
भारतीय संविधान के दो प्रमुख स्रोत-
1. 1935 का भारतीय शासन अधिनियम– भारतीय संविधान का सबसे अधिक
प्रभावशाली स्रोत, भारतीय शासन अधिनियम 1935 ही है। भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों
में से लगभग 250 अनुच्छेद ऐसे हैं.जो 1935 के भारतीय शासन अधिनियम से या तो शब्दशः
लिये गए हैं या फिर उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन किया गया है। भारतीय शासन अधिनियम 1935
से प्रमुखतया इन प्रावधानों को लिया गया हैः
(i) शक्ति विभाजन की तीन सूचियों।
(ii) केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल पद की व्यवस्था।
(iii) वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम की भांति ही प्रशासनिक व्यवस्था के उल्लेख
सहित एक विस्तृत वैधानिक प्रलेख है।
(iv) नवीन संविधान और 1935 के शासन अधिनियम में केवल सैद्धान्तिक और सारपूर्ण
समानताएंँ ही नहीं वरन् भाषा और रचना सम्बन्धी समानताएँ भी हैं।
2. ब्रिटेन का संविधान-ब्रिटेन के संविधान से संसदात्मक शासन, कानून निर्माण प्रक्रिया,
विधायिका के अध्यक्ष का पद, इकहरी नागरिकता, इकहरी न्यायपालिका के ढांँचे का प्रावधान आदि
भारतीय संविधान में लिए गऐ हैं।
सर्वोच्चता, मौलिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था, न्यायिक पुनरावलोकन, निर्वाचित राज्याध्यक्ष,
राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की व्यवस्था, संविधान के संशोधन में इकाइयों की विधायिकाओं
द्वारा अनुमोदन आदि प्रावधान मुख्य हैं।
4. कनाडा का संविधान-कनाडा के संविधान में केन्द्र को राज्यों से अधिक शक्तिशाली
बनाया गया। अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को सौंपी गयी।
5. आयरलैण्ड का संविधान-राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त आयरलैंड के संविधान से
लिये गए हैं।
6. जर्मन संविधान-आपातकालीन व्यवस्था के जर्मनी संविधान से लिया गया है।
प्रश्न 2. भारतीय संविधान में संशोधन किस प्रकार किए जाते हैं?
अथवा, भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइए। उनमें से किसी
एक की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन विधि दी गयी है।
भारतीय संविधान की विभिन्न धाराओं के संशोधन के लिए निम्नलिखित तीन प्रणालियाँ
प्रयोग में लाई जाती है। इन प्रणालियों का उल्लेख भारतीय संविधान की धारा 368 में किया गया है।
1. साधारण विधि-संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद साधारण बहुमत से संशोधन कर
सकती है। संशोधन का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में रखा जा सकता है। जब दोनों सदन
उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति
के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पास हो जाता है।
इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ मुख्य अनुच्छेद
निम्न प्रकार से हैं-
(i) नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी
राज्य की सीमा में परिर्वतन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)।
(ii) राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद्) को बनाना या समाप्त करना (अनुच्छेद
169)।
(iii) संसद के कोरम के संबंध में संशोधन (अनुच्छेद 100 (3))।
(iv) संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के संबंध में संशोधन।
(v) भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 5)
(vi) देश में आप चुनाव के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 327)।
(vii) केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनुच्छेद 240)।
(viii) अनुसूचित जाति के क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।
भारतीय सविधान में संशोधन करने की उपरोक्त प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया तथा साधारण
विधि-निर्माण में कोई अन्तर नहीं किया गया है। इस प्रकार के आधार पर ही बहुत से विद्वान
भारत के संविधान को लचीला संविधान मानते हैं।
(ii) विशेष विधि-हमारे संविधान की कुछ अन्य भाराओं का संशोधन एक विशेष विधि
से होता है। इसके अनुसार संशोधन संबंधी बिल संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता
है और यदि सदन की कुल संख्या के साधारण बहुमत द्वारा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों
के 2/3 बहुमत द्वारा संशोधन बिल एक सदन से पास हो जाय तो दूसरे सदन में भेज दिया जाता
है। दूसरे सदन के लिए भी यही ढंग अपनाया जाता है।उसके पश्चात् बिल राष्ट्रपति के हस्ताक्षर
के लिए जाता है और उनके हस्ताक्षर करने के बाद संविधान संशोधन बिल पास समझा जाता
है। हमारे संविधान के जिन विषयों का उल्लेख पहले और तीसरे वर्ग में किया गया है उनको
छोड़कर संविधान की अन्य सभी धाराएं इसी क्रिया से बदली जाती हैं।
मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में इसी प्रणाली से संशोधन किया जा
सकता है।
3. राज्यों का समर्थन प्राप्त करके संसद द्वारा संशोधन विधि-इस प्रणाली में भी संशोधन
का विधेयक दोनों सदनों द्वारा उपस्थित सदस्यों के 2/3 बहुमत तथा कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत
द्वारा पारित किया जाता है। इस प्रकार के संशोधनों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजने से
पूर्व कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों से स्वीकृत कराना पड़ता है। इस वर्ग में संविधान
के निम्न उपबन्ध आते हैं-
(i) अनुच्छेद 54 अर्थात् राष्ट्रपति का निर्वाचन।
(ii) अनुच्छेद 55 अर्थात् राष्ट्रपति के निर्वाचन पद्धति।
(iii) अनुच्छेद 73 अर्थात् संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार।
(iv) अनुच्छेद 162 अर्थात् राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार।
(v) अनुच्छेद 241 अर्थात् केन्द्र प्रशासित क्षेत्रों के लिए उच्च न्यायालय।
(vi) संघीय न्यायपालिका।
(vii) राज्यों में उच्च न्यायालय।
(viii) संघ एवं राज्यों के परस्पर विधायी सम्बन्ध।
(ix) सातवीं अनुसूची में से कोई भी विषय।
(x) संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व।
(xi) संविधान संशोधन से सम्बन्धित, जिनका उल्लेख अनुच्छेद 368 में किया गया है।
तीसरी प्रणाली संविधान की जटिलता की द्योतक है। इसके अन्तगर्त वे उपबन्ध आते हैं जिनका
सम्बन्ध मुख्यतः संविधान के संघीय स्वरूप से है। इस जटिल प्रक्रिया के कारण राजनीति विज्ञान
के बहुत से विद्वान भारतीय संविधान को एक कठोर संविधान मानते हैं।
प्रश्न 3. संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती
है? व्याख्या करें।
उत्तर-भारत के संविधान में तीन प्रकार से संशोधन होता है। एक साधारण बहुमत की प्रक्रिया
के बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन प्राप्त करके किया जाता है। यह विशिष्ट
बहुमत दो प्रकार से गिना जाता है। पहले तो संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग संशोधन
विधेयक पारित करने के लिए प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल संख्या के आधे से अधिक का
बहुमत हो तथा साथ ही उस सदन में उपस्थित सदस्यों की संख्या का दो-तिहाई बहुमत भी होना
चाहिए। उदाहरण के तौर पर लोकसभा की कुल सदस्य संख्या यदि 545 है और उस दिन
लोकसभा में कुल 330 सदस्य उपस्थित हैं तो 330 का 2/3 अर्थात् 220 सदस्यों द्वारा पारित होने
पर वह पारित नहीं समझा जाएगा क्योंकि 545 का 1/2 अर्थात् 273 की संख्या विधेयक के समर्थन
में होना भी अनिवार्य है। यह विशिष्ट बहुमत इसलिए आवश्यक है ताकि संविधान में संशोधन
के लिए विपक्षी पार्टियों का भी उसमें कुछ समर्थन होना चाहिए ताकि संशोधन के पीछे अप्रत्यक्ष
जन समर्थन की भावन छिपी हुई हो। केन्द्र और राज्य के बीच शक्ति विभाजन से सम्बन्धित धाराओं
में परिवर्तन के लिए राज्यों का भी अनुमोदन उसमें होना चाहिए। इसलिए संसद के दो-तिहाइ
उपस्थित तथा कुल संख्या के आधे से अधिक सदस्यों द्वारा (विशिष्ट बहुमत से) पारित विधेयक
को आधे राज्यों का समर्थन भी आवश्यक बनाया गया है। राज्यों की शक्ति को केन्द्र की दया
पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी कारण संविधान में आधे राज्यों के विधानमण्डल द्वारा अनुमोदन
कराया जाना आवश्यक बनाया गया है। संघीय ढांचे से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन इसी प्रकार
किया जाता है। मौलिक अधिकारों में भी इसी विधि से संशोधन किया जा सकता है। संविधान
निर्माता इस विषय में बहुत सतर्क थे। केवल आधे राज्यों से उन्होंने अनुमोदन कराना आवश्यक
माना तथा इस कठोर प्रणाली में भी थोड़ा लचीलापन लाने के लिए राज्यों के विधानमण्डलों से
केवल साधारण बहुमत से पारित कराना पर्याप्त माना गया।
प्रश्न 4. भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग
व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित व्याख्या करें। (NCERT T.B.Q.9)
उत्तर-संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच कई मतभेद पैदा
होते रहते हैं। संविधान में कई बार इन्हीं मतभेदों के कारण संशोधन कर दिए जाते हैं। संविधान
का पहला संशोधन 1951 में किया गया। इस संविधान में कई परिवर्तन हुए। इसका कारण यह
था कि संविधान की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा रही थी और संविधान की प्रक्रिया
को अपनी-अपनी सोच के अनुसार समझा जा रहा था। प्रथम संशोधन द्वारा अनुच्छेद 15, 19,
31, 85, 87, 144, 176, 372 तथा 376 संशोधन किया गया और संविधान में 9वीं अनुसूची
और बढ़ा दी गई।
न्यायपालिका और संसद में टकराव की स्थिति होने पर संसद संशोधन का सहारा लेती है।
1970 से 1975 तक ऐसी अनेक परिस्थितियां उत्पन्न हुई।
केशवानन्द भारती विवाद में संसद की संशोधन शक्ति को नियन्त्रित किया गया। उच्चतम
न्यायालय द्वारा कहा गया कि संसद को संविधान के मूल ढांचे में संशोधन या परिवर्तन करने का
अधिकार नहीं है। न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या से संसद जब सन्तुष्ट नहीं होती तो वह संविधान
संशोधन कर देती है। 42वाँ संविधान संशोधन सबसे अधिक विवादास्पद रहा। इस संशोधन द्वारा
न्यापालिका की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। यह 42वां संशोधन तथा 38वें,
39वें संशोधन भी आपातस्थिति के दौरान किए गए थे। 43वां और 44 वाँ संशोधन 42वें संविधान
संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तनों को निरस्त करने के लिए किए गए। न्यायपालिका ने भी कुछ
संशोधन, जो संशोधन न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय हैं, परन्तु वे आगे के लिए उदाहरण
बन गए और जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आरक्षण की व्यवस्था 50 प्रतिशत
से अधिक नहीं दी जा सकती।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक सिद्धान्तों को लेकर संसद
और न्यायपालिका में टकराव के कारण तथा निजी सम्पत्ति के दायरे और संविधान में संशोधन
के अधिकार की सीमा को लेकर दोनों में विवाद उठते रहे हैं। 1970 से 1975 तक संसद ने
न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार-बार संशोधन किए थे। 38, 39 और
42वें संशोधन आपातस्थिति की पृष्टभूमि से निकले थे। 1973 में कैश्वानन्द भारती विवाद में
उच्चतम न्यायालय का निर्णय, 1973 के पश्चात् न्यायालयों में कई मामलों में बुनियादी संरचना
के सिद्धान्त को निर्धारित करने का आधार बन गया।
प्रश्न 5. अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है
तो न्यायपालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना
चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।(NCERT T.B.Q. 10)
उत्तर-संशोधन प्रक्रिया बहुत विवादास्पद रही है। संविधान में संशोधन पर मतभेद रहे हैं। यह
कहा जाता है कि जब संविधान संशोधन निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में है तो न्यायपालिका को
चाहिए कि उसमें हस्तक्षेप न करे। वह संशोधन की विश्वसनीयता निर्धारित करने की अधिकारी
न रहे परन्तु यह उचित नहीं है। वास्तव में 1970 से 1980 तक के काल में होने वाले संशोधन
बहुत विवादास्पद रहे हैं। विपक्षी दलों ने सत्तापक्ष द्वार किए गए संशोधनों का विरोध किया। 38,
39 और 42 वें संशोधन द्वारा संविधान की अनेक धाराओं को परिवर्तित कर दिया गया। यदि
न्यायपालिका चुप रहती तो वे संशोधन ज्यों के त्यों बने रहते और व्यक्ति के अधिकारों पर ये
कुठाराघात होते ओर निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी तानाशाही बनाए रखते। यद्यपि संसद में जनता के
प्रतिनिधि होते हैं और जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है, परन्तु निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की
आकांक्षाओं के बदले अपने स्वार्थों की पूर्ति करने लगते हैं और इस समस्या से बचने के लिए
संविधान का नियन्त्रण सांसदों पर होता है अर्थात् सांसद यदि संविधान की सीमा का उल्लंघन
करते हैं तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही चाहिए। अत: न्यायपालिका को संविधान संशोधन
की विश्वसनीयता को परखने की शक्ति होनी ही चाहिए। इससे संसद और सरकार को निरंकुश
बनने से रोका जा सकता है।
प्रश्न 6. आप किस प्रकार कह सकते हैं कि हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।
उत्तर-हमारे संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज माना गया है। यह दस्तावेज एक जीवन्त प्राणी
की तरह समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। भारत का
संविधान 26 नवम्बर, 1949 को पंजीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया।
56 वर्षों के बाद भी यह संविधान कार्य कर रहा है परन्तु समय-समय पर परिस्थितियों और
आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें अब तक 92 संशोधन किए जा चुके हैं। संविधान निर्माताओं
को यह आभास था कि भविष्य में इस संविधान में परिवर्तन की आवश्यकता होती रहेगी, अतः
उन्होंने इसके संशोधन की विधि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया। कुछ अनुच्छेदों में साधारण
विधि प्रक्रिया की भाँति संशोधन किया जा सकता है। कुछ अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत
द्वारा संशोधन हो सकता है तथा कुछ महत्त्वपूर्ण अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत के साथ
आधे राज्यों से भी अनुमति लेनी पड़ती है। अत: समय के साथ-साथ इसमें संशोधन भी हो रहे
हैं तथा इसका मूल ढांचा आज तक अपरिवर्तनीय बना हुआ है। यह संविधान लचीले और कठोर
का समन्वय है। हमारा संविधान गतिमान बना हुआ जीवन्त प्राणी की ही तरह यह अनुमान
से सीखता है। समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बावजूद भी हमारा संविधान अपनी गतिशीलता,
व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीला की विशेषताओं के
कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। यह प्रजातान्त्रिक संविधान का असली मापदण्ड है।
प्रश्न 7. आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों
अधिक होता है?
उत्तर-हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक
राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है-
(i) एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार को
कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश का शक्तियाँ निहित होती
हैं इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया गया है।
(ii) हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका होती
है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्र, कर्तव्यों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने
में समाए होता है। लिखित रूप होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों
और कार्यक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।
(iii) संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्तव्य देता है। सरकारें
बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं
कर सकती। अगर गलती से वह करना ही चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था
और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।
(iv) संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार, नागरिकों का इच्छानुसार, राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुजाइश होती है उसके लिए
निर्धारित प्रक्रिया होती है।
(v) कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अंतगर्त दो सरकारें-संघ
सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों
के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता
कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में
विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं। दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर
आरोप-प्रत्यारोप के लगाने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी न उत्पन्न न हों ऐसी व्यवस्थाएँ
केवल संविधान में ही संभव है।
संक्षेप में, लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और
आवश्यक है।
प्रश्न 8. “संविधान सभा के द्वारा अपना कार्य बड़े उत्साह से सम्पन्न किया गया”
कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-संविधान सभा की पहल बैठक 9 दिसंबर, 1946 को दिल्ली में हुई। मुस्लिम लीग के
सदस्यों ने इसमें भाग नहीं लिया।
कार्य को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया जिनमें से
प्रारूप समिति, केन्द्रीय संविधान समिति, मौलिक अधिकारों से संबंधित समिति इत्यादि प्रमुख थी।
13 दिसम्बर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्यों संबंधी प्रस्ताव रखा,
जिसमें उन्होंने संविधान सभा की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया।
नेहरू जी द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के अनुसार सभा में भारत को एक स्वाधीन प्रभुता-संपन्न
गणराज्य बनाने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की गई। इस गणतंत्र में ब्रिटिश भारत और भारतीय देशों
राज्यों के अलावा उन सभी क्षेत्रों को मिलाना था जो स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में शामिल होने
के इच्छा व्यक्त करें। संविधान सभा ने यह घोषणा भी की कि स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में
सभी व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, पद और न्याय, अवसर की तथा
विश्वास, मत, पूजा, व्यवसाय, संगठन और कार्य की स्वतंत्रता दी जायगी।
यही संविधान सभा स्वतंत्र भारत की संसद भी थी। 14 अगस्त, 1947 को उसे संबोधित
करते हुए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये स्मरणीय शब्द कहे थे-“बहुत वर्ष पहले हमने
अपने भाग्य के विषय में निश्चय किया था और अब समय आ गया है कि पूर्णतया नहीं तो बहुत
अंश में हम अपना वचन पूरा करें। आधी रात का घंटा बजने के साथ, जबकि पूरा विश्व सो
रहा होगा, भारत जीवन और स्वाधीनता के लिए जागृत होगा। इतिहास में बहुत कम ऐसे क्षण
होते हैं जब पुराने से नए की ओर संक्रमण होता है, जब एक युग का अंत होता है और लंबे समय
से किसी राष्ट्र की दबी हुई आत्मा मुखर हो उठती है-उचित यही होगा कि हम इस पवित्र क्षण
में भारत और उसकी जनता की सेवा के लिए तथा मानवता, उससे भी व्यापकतर मानवता की
सेवा के लक्ष्यों के प्रति समर्पित होने का संकल्प करें-”
संविधान सभा की ओर से उन्होंने भारत की जनता से अपील की कि “वह इस महान
अभियान में हममें आस्था और विश्वास रखकर हमारा साथ दें-यह तुच्छ और विनाशकारी
आलोचना का समय नहीं है, दुर्भावना पालने और दूसरों को दोष देने का समय नहीं है-हमें स्वतंत्र
भारत का ऐसा श्रेष्ठ महल बनाना है, जहाँ उसके सारे बच्चे सुख से रह सकें।”
प्रश्न 9. आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों
अधिक होता है?
उत्तर-हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक
राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है-
(i) एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार की
कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश की शक्तियांँ निहित होती
है, इन शक्तियों का उल्लेख सविधान में दिया होता है।
(ii) हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका होती
है। सविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्रों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए
होता है लिखित रूप में होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और
कार्यक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।
(iii) संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्त्तव्य देता है। सरकारें
बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं
कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था
और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।
(iv) संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार, नागरिकों की इच्छानुसार, राष्ट्रीय
और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुंजाइश होती है उसके लिए
निर्धारित प्रक्रिया होती है।
(v) कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अन्तगर्त दो सरकारें-संघ
सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों
के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से न होते हैं। कई बार ऐसा होता
है कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों
में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं। दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर
आरोप-प्रत्यारोप के लगने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी न उत्पन्न न हों ऐसी व्यवस्थाएंँ
केवल संविधान में ही संभव है।
संक्षेप में लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और
आवश्यक है।
प्रश्न 10. संविधान सभा का गठन कैसे हुआ एवं इसके कार्य प्रणाली की समीक्षा करें।
उत्तर-भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा हुआ। संविधान सभा के निर्माण
का निर्णय कैबिनेट मिशन योजना में लिया गया। इस’ संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें
292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 5 चीफ कमिश्नर, क्षेत्रों के प्रतिनिधि और 93 देशी रियासत के
प्रतिनिधि थे। योजना में कहा गया कि प्रांतों से भेजे जाने वाले प्रतिनिधि प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या
पर एक हो। प्रत्येक प्रांत का स्थान तीन प्रमुख समुदायों सामान्य, सिख और मुसलमानों के बीच
जनसंख्या के अनुपात में हो।
संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय एसेम्बली द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व एवं
एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा किया गया। देशी रिसायतों के सदस्य का निर्वाचन उनके परामर्श
से किया गया। 3 जून, 1997 में भारत विभाजन के बाद संविधान में सदस्यों की संख्या 296
रह गयी।
संविधान सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया
गया। इन समितियों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर खुलकर विचार विमर्श हुए। यह समिति
दो तरह के थे प्रथम, संविधान निर्माण प्रक्रिया में प्रश्नों को हल करने वाली समिति और दूसा
संविधान निर्माण की समिति। इन्हीं समितियों के प्रयासों परांत 2 वर्ष 11 महीना 18 दिन के बाद
26 नवंबर, 1949 को संविधान बनकर तैयार हुआ और 26 जनवरी, 1950 से लागू हुआ।
10.
• संविधान के दर्शन का आशय।
• भारतीय संविधान की मूलभूत विशेषताएँ।
• संविधान की आलोचना, भारतीय संविधान और व्यक्ति की स्वतन्त्रता।
• सामाजिक न्याय।
• अनेक सांस्कृतिक समुदाय।
• धर्म निरपेक्षता।
• सार्वभौमिक मताधिकार।
• समस्त भारतीय जनता की एक राष्ट्रीय पहचान।
• संघवाद, पश्चिमी अवधारणा से अन्तर।
• कानून और नैतिक मूल्यों के बीच गहरा सम्बन्ध है। अतः संविधान के प्रति राजनीतिक
दर्शन का नजरिया अपनाने की आवश्यकता है।
• संविधान को अंगीकार करने का एक बड़ा कारण है सत्ता की निरंकुशता पर अंकुश
लगाना।
• संविधान का होना सत्तासीन लोगों की शक्ति पर अंकुश लगाने के साथ-साथ जो लोग
सत्ता से दूर रहे हैं, उनका सशक्तिकरण करना भी निश्चित करता है।
• हमारा संविधान उदारवादी, लोकतान्त्रिक, धर्मनिरपेक्ष, संघवादी, सामुदायिक जीवन-मूल्यों
से युक्त, धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से अधिकार
वंचित वर्गों की जरूरतों के प्रति संवेदनशील है तथा एक सर्वसामान्य राष्ट्रीय पहचान बनाने
को प्रतिबद्ध संविधान है।
• मूल्यों, आदर्शों और अवधारणाओं के लिहाज से हमारे संविधान का इतिहास अब भी
वर्तमान का इतिहास है।
• भारतीय संविधान समुदायों के बीच समानता के रिश्ते को बढ़ावा देता है।
• सार्वभौमिक मताधिकार भारतीय संविधान की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। भारतीय
राष्ट्रवाद की धारणा मैं हमेशा एक ऐसी राजव्यवस्था की बात मौजूद रही जो समाज के
प्रत्येक सदस्य की इच्छा पर आधारित हो।
• भारतीय संघवाद में एक मजबूत केन्द्रीय सरकार की बात मानी गई है परन्तु जम्मू-कश्मीर,
पूर्वांचल के कुछ प्रदेशों तथा पहाड़ी प्रदेशों में अप्रवास पर रोक लगाकर स्थानीय पहचान
की रक्षा की गई है।
• संविधान सभा का निर्माण सार्वभौमिक मताधिकार द्वारा नहीं हुआ था । सविधान सभा
के सदस्य परोक्ष रूप से निर्वाचन द्वारा चुने गए। इस संविधान सभा में कुल 389 सदस्य
थे जिनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों से तथा 93 देशी रियासतों से और 4 चीफ कमिश्नरों के
क्षेत्र के थे।
● 3 जून, 1947 की योजना के अनुसार देश का बंटवारा हो जाने के कारण बाद में संविधान
सभा की संख्या 324 रह गई जिसमें 235 स्थान प्रांतों के लिए और 89 देश रियासतों
के लिए थे।
●13 दिसम्बर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत किया। 13 से 19
दिसम्बर, कुल आठ दिन तक उद्देश्य प्रस्ताव पर विचार किया गया।
●9 दिसम्बर, 1946 का संविधान सभा का विधिवित् उद्घाटन हुआ। सभा के वरिष्ठ सदस्य
(बुजुर्ग) डॉ. सच्चिदानन्द सिंहा सभा के अस्थायी अध्यक्ष बने और 11 दिसम्बर, 1946
को डा. राजेन्द्र प्रसाद स्थायी अध्यक्ष निर्वाचित हुए।
● उद्देश्य प्रस्ताव की स्वीकृति के बाद सविधान सभा ने संविधान निर्माण हेतु अनेक समितियाँ
नियुक्त की।
● 29 अगस्त, 1947 की संविधान सभा ने प्रारूप समिति की नियुक्ति की । डॉ. भीमराव
अम्बेडकर प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे।
● संविधान का पहला प्रारूप सविधानिक परामर्शदाता बी.एन. राव की देख-रेख में संविधान
सभा के सचिवालय की परामर्श शाखा ने अक्टूबर 1947 में तैयार किया।
● प्रारूप समिति ने भारत का जो प्रारूप सविधान तैयार किया वह फरवरी 1948 में संविधान
सभा के अध्यक्ष की सेवा में प्रस्तुत किया।
● संविधान का तीसरा वाचन 26 नवम्बर, 1949 तक चला।
● संविधान सभा के अन्तिम दिन 24 जनवरी, 1950 को संविधान की तीन प्रतियांँ पटल पर
रखी गई। सदस्यों ने सविधान की प्रतियों पर हस्ताक्षर किए और ‘सभा’ का विधान सभा
के रूप में समापन हो गया। 26 जनवरी, 1950 को उसका भारतीय गणराज्य की
(अन्तरिम) संसद के रूप में आविर्भाव हुआ।
● संविधान निर्माण में 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन लगे। इस कार्य पर लगभग 64 लाख रुपये
खर्च हुए। अपने अन्तिम रूप में संविधान में 395 अनुच्छेद और आठ अनुसूचियाँ थीं।
संविधान के कुछ अनुच्छेद 26 नवम्बर, 1949 के दिन से ही लागू कर दिए गए। शेष
संविधान ऐतिहासिक महत्त्व के कारण 26 जनवरी, 1950 ई. लागू किया गया।
पाठ्यपुस्तक के एवं परीक्षोपयोगी अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
1. राज्यपाल को वर्तमान में वेतन दिया जाता है- [B.M.2009A]
(क) 80,000 रुपये प्रतिमाह
(ख) 90,000 रुपये प्रतिमाह
(ग) 1,10,000 रुपये प्रतिमाह
(घ) 85,000 रुपये प्रतिमाह
2. संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिकता’ घोषणा को कब स्वीकार
किया गया?
(क) 10 दिसम्बर, 1950 को
(ख) 10 दिसम्बर, 1948 को
(ग) 10 दिसम्बर, 1947 को
(घ) 10 दिसम्बर, 1951 को उत्तर-(ख)
3. संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना कब हुई ? [B.M.2009A]
(क) 24 अक्टूबर, 1946 में
(ख) 24 अक्टूबर, 1945 में
(ग) 30 अक्टूबर, 1945 में
(घ) 30 अक्टूबर, 1948 में
3.निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें-
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी।
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार
पर लिया जाना।
(ग) व्यक्ति के जीवन मे समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना।
(घ) अनुच्छेद 370 और 371
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान अधिकार।
(i) आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि-
(ii) प्रक्रियागत उपलब्धि
(iii) लैंगिक-न्याय की उपेक्षा
(iv) उदारवादी व्यक्तिवाद
(v) धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना।
उत्तर– (क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना मी आजादी।
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तंर्क बुद्धि के आधार
पर लिया जाना
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना
(घ) अनुच्छेद 370 और 371
(ङ) महिलाओं और बच्चों के परिवार कि संपत्ति में असमान अधिकार
(i) प्रक्रियागत उपलब्धि
(ii) आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
(iii) उदारवादी व्यक्तिवाद
(iv) धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना
(v) लैंगिक न्याय की उपेक्षा
(i) नीति
4. नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएंँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित
कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता?
लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत ……
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी के लक्ष्यों
से कहीं विचलित न हो जाएंँ।
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर-इस वाक्य को पूरा करने में तीसरा विकल्प (ग) का प्रयोग नहीं किया जा सकता
अर्थात् औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है, का प्रयोग नहीं किया
जा सकता।
प्रश्न 1. संविधान की आवश्यकता और महत्त्व के क्या कारण हैं?
उत्तर-ब्रिटिश शासन से आजादी प्राप्त करने के बाद राष्ट्रीय आन्दोलन के नेताओं ने संविधान
को अंगीकार करने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने स्वयं को और आने वाली पीढ़ियों को
संविधान से अनुशासित करने का फैसला किया। इनके निम्न कारण थे-
(i) संविधान एक ऐसा प्रारूप पैदा करता है, एक ऐसा दांचा खड़ा करता है जिसके अनुसार
सरकार को कार्य करना होता है।
(ii) यह सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाता है।
(iii) यह सरकार के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय स्थापित करता है।
(iv) यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है।
प्रश्न 2. भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए किन्हीं चार प्रमुख आदर्शों को
बताइए।
उत्तर-भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए प्रमुख आदर्श निम्नलिखित हैं-
(i) न्याय-प्रत्येक भारतीय नागरिक को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय प्राप्त
होगा।
(ii) स्वतन्त्रता-प्रत्येक भारतीय नागरिक को स्वतंत्रता प्राप्त होगी-सोचने की अभिव्यक्ति
की, विश्वास की, उपासना की।
(iii) समानता- भारत के प्रत्येक नागरिक को अवसर एव प्रतिष्ठा को समानता प्रदान की
जायगी।
(iv) बंधुत्व-समस्त भारतीय नागरिकों को उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का आश्वासन तथा
राष्ट्र की एकता व अखंडता को बढ़ावा देने की भावना पैदा की जायगी।
प्रश्न 3. भारतीय संविधान की चार प्रमुख विशेषताएंँ बताइए।
उत्तर-भारतीय संविधान की अनेक विशेषताएं हैं, जिनमें चार प्रमुख विशेषताएंँ
निम्नलिखित हैं-
(i) भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक संप्रभु समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य है।
(ii) भारतीय संविधान के द्वारा भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य घोषित किया गया है।
(iii) भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
(iv) भारत के संविधान में संसदात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है।
प्रश्न 4. ‘धर्म निरपेक्षता’ का क्या अभिप्राय है? क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है?
उत्तर– भारतीय संविधान में भारत को एक ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ घोषित किया गया है। राज्य
का अपना कोई धर्म नहीं है और न ही राज्य नागरिकों को कोई धर्म विशेष अपनाने की प्रेरणा
देता है। राज्य न धर्मी है, न अधर्मी और न धर्म-विरोधी। नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान
की गई है और सब व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट-देव की पूजा करने का अधिकार है।
प्रश्न 5. ‘संविधान के दर्शन’ का क्या आशय है?
उत्तर-‘संविधान के दर्शन’ से अभिप्राय है कि संविधान के अंतगर्त दिए गए कानूनों में यद्यपि
नैतिक तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है किन्तु बहुत से कानून हमारे भीतर गहराई से बैठे मूल्यों
से जुड़े रहते हैं। इन मूल्यों के आधार पर ही संविधान का निर्माण किया जाता है। संविधान के
प्रति राजनीतिक-दर्शन का दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। हमारी राष्ट्रीय विचारधारा ही
हमारे संविधान में प्रतीत होती है। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व की भावना, राष्ट्रीय एकता और
अखण्डता, समाजवाद और धर्म निरपेक्षता आदि आदर्शों का हमारे संविधान में समावेश है।
यही हमारा राजनीतिक दर्शन है। हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों का प्रतीक हमारा संविधान
होता है।
प्रश्न 6. भारत के संविधान की आलोचना के चार विन्दु लिखिए।
उत्तर-भारत के संविधान की आलोचना के चार बिन्दु निम्नलिखित है-
(i) संविधान निर्मात्री सभा प्रभुत्व सम्पन्न संस्था नहीं थी।
(ii) संविधान सभा के अधिकांश सदस्य समाज के उच्च वर्ग से थे।
(iii) भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज है। एक उधार का थैला है। अनेक दूसरे देशों
से संविधान की अनेक बातों को लिया गया है।
(iv) सविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को लोकप्रिय अनुज्ञप्ति प्राप्त नहीं थी।
प्रश्न 1. राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की मांँग पर विचार कीजिए।
उत्तर-1. राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की मांग-भारत में संघीय व्यवस्था है और संघ
तथा राज्यों की शक्तियांँ व अधिकार क्षेत्र बंटे हुए हैं। 1967 तक इन सम्बन्धों के बारे में कोई
विवाद खड़ा नहीं हुआ क्योंकि राज्यों की कांग्रेसी सरकारें केन्द्र की कांग्रेस सरकार के नियंत्रण
में रहती थी और चुपचाप केन्द्र के आदेशों का पालन करती थी।
2. राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग का आरम्भ-1967 के चुनाव में बहुत से
राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और गैर-कांग्रेसी सरकारें भी अधिक दिन तक नहीं चल
सकी। यह महसूस किया गया कि जब तक केन्द्र सरकार अधिक शक्तिशाली है वह किसी अन्य
दल की सरकार को राज्य में सहन नहीं कर सकेगी। इसलिए केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर पुनर्विचार
और राज्यों की अधिक स्वायत्तता की मांग शुरू हुई। इसी संदर्भ में कुछ ऐसी मांँगें उभर कर
आई जो राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरा बन सकती है।
1976 में तमिलनाडु में द्रमुक पार्टी सत्ता में आई तो उसने संघीय व्यवस्था के पुनरावलोकन
के लिए उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश पी.वी. राजमन्नार की अध्यक्षता में एक
समिति का गठन किया। 1973 में पंजाब में अकाली दल ने इस संबंध में आनन्दपुर साहब प्रस्ताव
पास किया। 1977 में भारत के साम्यवादी दल ने पश्चिम बंगाल की सरकार से केन्द्र-राज्य
सम्बन्धों पर एक मांगपत्र पेश किया। 1983 में कर्नाटक सरकार ने इस विषय पर एक श्वेतपत्र
जारी किया और आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और पांडिचेरी के मुख्यमंत्रियों ने बंगलौर
सम्मेलन में उस पर विचार किया। इसी वर्ष श्रीनगर में 16 गैर कांग्रेसी दलों की बैठक हुई जिसमें
इस विषय का 31 सूत्री प्रस्ताव पास किया गया। इन सभी बातों को देखते हुए 1985 में सरकारिया
आयोग की नियुक्ति की गई। 1988 में इसकी रिपोर्ट आई। यह बात सत्य है कि केन्द्र को
शक्तिशाली होना चाहिए परन्तु राज्यों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
प्रश्न 2. भारतीय संविधान की अद्वितीय विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-भारत के संविधान की अद्वितीय विशेषताएंँ-
(i) भारत का संविधान एकात्मक और संघात्मक दोनों का मिश्रण है।
(ii) भारत के संविधान में यद्यपि संसदात्मक शासन को अपनाया गया है, परन्तु इसमें
अध्यक्षात्मक शासन के भी कुछ तत्त्व पाये जाते हैं।
(iii) भारत एक संघात्मक राज्य है परन्तु यहाँ इकहरी नागरिकता है।
(iv) भारत के संविधान में नागरिकों को मौलिक अधिकार एवं मूल स्वतन्त्रताएँ प्रदान की
गई हैं परन्तु राष्ट्रीय हित में उन पर प्रतिबन्ध लगाए जा सकते हैं। आपातस्थिति में उन्हें राष्ट्रपति
द्वारा निलम्बित किया जा सकता है।
(v) भारत का संविधान भारतीय जनता द्वारा निर्मित है। एक संविधान सभा का निर्माण किया
गया जो प्रान्तीय विधान सभाओं द्वारा परोक्ष रूप से निर्वाचित की गयी।
(vi) देश की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित है।
(vii) भारत को एक गणराज्य घोषित किया गया है।
(viii) संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व दिए गए।
(ix) संघीय तथा राज्य विधानमण्डलों के अधिनियमों और कार्यपालिका के क्रियाकलापों की
न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था है।
10. संविधान कठोर तथा लचीला दोनों का मिश्रण है।
प्रश्न 3. संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन
दिए गए हैं-
(i) इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज
भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक
नहीं हैं?
(i) इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटारे में
व्यस्त होती हैं। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियांँ और चुनौतियां सविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों
से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नये जमाने में इस्तेमाल करना
दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझाने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है।
संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार
क्यों महत्त्वपूर्ण हैं एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों
को न जानना संवैधानिक-व्यवहारों का नष्ट कर सकता है।
उत्तर-1. (क) जब आम जनता अपने जीविकोपार्जन में व्यस्त रहती है तो यह कथन यह
तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ख) आज की स्थितियांँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों
से अलग हैं। यह तर्क भी प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ग) यह कथन प्रस्तुत करता है कि बहसें प्रासंगिक हैं क्योंकि संसार और वर्तमान चुनौतियाँ
पूर्णतया नहीं बदली हैं।
2 (क) मैं इस बात से सहमत हूँ कि आम जनता अपनी जीविका कमाने में व्यस्त है।
(ख) मैं इस बात से सहमत हूँ क्योंकि आज की स्थितियां उस समय से अलग हैं। पिछले
लगभग 56 वर्षों में 93 के लगभग संशोधन हो चुके हैं।
(ग) क्योंकि समस्त चुनौतियाँ और यह संसार पूर्णतया नहीं बदले अतः मैं इस बात से सहमत
हूँ कि बहसें प्रासंगिक हैं।
प्रश्न 4. नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ,
तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएंँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायगी।
(घ)’बेगार’ अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर-(क) परिवार की नियुक्ति में पुत्री एवं पुत्र दोनों का बराबर हिस्सा होना सामाजिक
मूल्य से सम्बन्धित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान में स्त्री और पुरुष दोनों को समान
अधिकार प्रदान किया गया है। यह एक लिंग-न्याय कहा जाएगा। सामाजिक न्याय का अर्थ है
कि लिंग, जाति, नस्ल, धर्म अथवा क्षेत्र आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। अतः पुत्री और
पुत्र दोनों को समान हिस्सा दिया जाना सामाजिक न्याय के अन्तर्गत या लिंग न्याय की श्रेणी में
रखा जायगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं पर बिक्रीकर का सीमांकन अलग-अलग करना
आर्थिक न्याय का उदाहरण है।
(ग) सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दिया जाना, धर्म निरपेक्षता के मूल्य पर
आधारित है।
(घ) किसी से बेगार न लेना और बन्धुआ मजदूरी का निषेध करना यह भी सामाजिक न्याय
के मूल्य पर आधारित है। समाज में किसी भी वर्ग का शोषण नहीं किया जाना चाहिए।
प्रश्न 5. निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा
में अंतर स्पष्ट करें-
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार
उत्तर-(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ-धर्म निरपेक्षता के मामले में भारतीय संविधान
पश्चिमी अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। पश्चिमी अवधारणा में धर्म व्यक्ति की अपनी निजी
धारणा है। राज्य उसमें किसी प्रकार का योगदान या हस्तक्षेप नहीं करता, परन्तु भारतीय संविधान
में सभी धर्मों को समान आदर दिया गया है।
(ख) अनुच्छेद 370 और 371-अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में
अस्थायी या संक्रमणकालील व्यवस्था ही करता है। अनुच्छेद 371 उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए
है। भारतीय संविधान और पाश्चात्य अवधारणा में यह अन्तर है कि पाश्चात्व देशों में राज्यों के
अपने अलग संविधान होते हैं परन्तु भारतीय सविधान में राज्यों के अलग संविधान नहीं हैं, परन्तु
जम्मू और कश्मीर का 26 जनवरी, 1957 से अपना अलग संविधान भी है जिसमें जम्मू-कश्मीर
राज्य के विशेष उपबंध हैं। 371 (a) नागालैण्ड राज्य के सम्बन्ध में विशेष उपबंध हैं, 371
(b) असम के, 371 (c) मणिपुर, 371 (d) आन्ध्र प्रदेश, 371 (e) आन्ध्र प्रदेश में केन्द्रीय
विश्वविद्यालय की स्थापना के, 371 (1) सिक्किम राज्य के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध हैं 371
(g) मिजोरम, 371 (h) अरुणाचल प्रदेश, (i) गोवा के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध हैं। इन
राज्यों को छोड़कर पाश्चात्य धारणा और भारतीय संविधान में अन्तर है परन्तु 370 और 371
अनुच्छेदों वाले राज्यों पर केन्द्र का सीधा-नियन्त्रण अर्थात् उन राज्यों की सहमति के आधार पर
संसद के नियमों को लागू कराया जा सकता है। एक सीमा तक ये प्रदेश स्वायत्तता का उपयोग
कर सकते हैं जैसा कि पाश्चात्य धारणा में तो राज्यों की स्वायत्तता होती ही है।
(ग) सकारात्मक कार्ययोजना-भारतीय संविधान और पाश्चातय धारणा में सकारात्मक
कार्ययोजना के सम्बन्ध में बड़ा अन्तर है जैसा कि अमेरिका के संविधान में जहाँ संविधान 18वीं
शताब्दी में लिखा गया था उस समय के मूल्ा और प्रतिमान आज इक्कीसवीं सदी में लागू करना
भद्दा होगा परन्तु भारतीय संविधान में निर्माताओं ने सकारात्मक कार्ययोजना हमारे मूल्यों,आदर्शों
तथा विचारधारा के साथ संविधान का निर्माण किया। भारतीय राजनीतिक दर्शन उदारवाद,
लोकतंत्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और संघात्मकता तथा अन्य सभी धारणाओं जो भारतीय
संस्कृति को प्रकट करती है, वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात् सबको एक समान मानते हुए अल्पसंख्यकों
का आदर करते हुए एक राष्ट्रीय पहचान बनाए रखते हुए भारतीय संविधान में रखा गया है परन्तु
पाश्चात्य विचारधारा में ऐसा नहीं होता।
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार- पाश्चात्य अवधारणा में स्त्रियों को मताधिकार अभी
हाल में दिया गया है जबकि संविधान निर्माण के समय नहीं दिया गया था परन्तु भारतीय संविधान
में सार्वभौम वयस्क मताधिकार (सभी स्त्री, पुरुष व नपुंसक को) दिया गया है।
प्रश्न 6. निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में
अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होगी।
उत्तर-भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धान्त अपनाए गए हैं-
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
प्रश्न 1. यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएंँ कि
आप इनमें किस से सहमत हैं और क्यों? (NCERT T.B.Q.7)
जएश-मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।
सबा-क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या
मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं
और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा
है भी तो क्या हम इसे सहज पश्चिमी होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश-मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड्ने के बाद क्या
हेमने उनकी संसदीय-शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा-तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के
खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई
लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर–
इस चर्चा में जएश का विचार, कि ‘हमारा संविधान केवल उधार का थैला है। यहाँ
पर आलोचना का विषय है कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है, बहुत से अनुच्छेद तो भारतीय
शासन अधिनियम, 1935 से शब्दशः लिए गए हैं। बहुत से अनुच्छेद विदेशों के संविधानों से लिए
गए हैं। इसमें अपना देशी कुछ भी नहीं है। इसमें हिन्दूकाल की सभा या समिति का कुछ भी वर्णन
नहीं है। इसमें मध्यकालीन भारत का भी कुछ नहीं है परन्तु सब का कहना है कि कोई मूल्य या
आदर्श भारतीय या पाश्चात्य नहीं हआ करते, मूल्य तो मूल्य हैं, आदर्श तो आदर्श होते हैं। जब
हम कहते हैं कि स्त्री और परुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए तो यह बात पाश्चात्य
और भारतीय दोनों दृष्टिकोण से ही ठीक है। हमें कोई बात इस कारण से नकारनी नहीं चाहिए।
कि वह पाश्चात्य अवधारणा से ली गई है परन्तु नेहा का कथन है कि हम ब्रिटिश के खिलाफ
अपनी आजादी के लिए लड़े थे तो हम ब्रिटीश के विरुद्ध नहीं बल्कि औपनिवेशिक नीतियों के
खिलाफ लड़े थे। हमें कोई भी बात जो हमारे लिए उपयोगी है उसमें यह नहीं देखना कि यह
कहाँ से ली गई है। इस प्रकार दूसरे देशों से ली गयी बातें गलत हो, यह कहना सही नहीं हो
सकता वरन् मानव की अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जो बात जिस देश के संविधान से ली
जाए उसमें कुछ भी गलत नहीं है। इसके विपरीत यदि हम पुरातन भारतीय, राजनीतिक संस्थाओं
को लेना चाहें तो आधुनिक युग में यह जरूरी नहीं कि वे फिट बैठ सकें।
आलोचक भारतीय संविधान की आलोचना करते हुए जिन विशेषणों का प्रयोग करते हैं, उनमें
प्रमुख हैं ‘मौलिकता का अभाव’ ‘उधार का थैला’ और ‘भानुमति का पिटारा’ आदि। आलोचकों
का कहना है कि संविधान में भारतीयता का पुट’ नहीं है परन्तु उपर्युक्त आलोचना न्यायसंगत
नहीं है। विशेष बात यह है कि विदेशी संविधानों से सोच-विचारकर ही ग्रहण किया गया है और
जो कुछ ग्रहण किया गया है उसे भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया गया है। ग्रेनविल
आस्टिन के अनुसार भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को अपनाया
गया है। भारतीय संविधान का गुण कहा जा सकता है।
वास्तव में संविधान के मौलिक विचारों पर किसी का स्वत्त्वाधिकार नहीं होता। संविधान
निर्माताओं ने अन्य देशों के संविधानों और उनके व्यावहारिक अनुभवों से लाभ उठाकर कोई गलती
नहीं की वरन् दूरदर्शिता का ही कार्य किया है।
प्रश्न 2. ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया
प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता?
अपने उत्तर के कारण बताएंँ।
उत्तर-भारत के संविधान की एक आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक
नहीं है। भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था जिसका गठन
नवम्बर 1946 में किया गया था। इसके सदस्य प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने
गए थे। संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें से 292 ब्रिटिश प्रान्तों से तथा 93 देशी रियासतों
से थे। चार सदस्य चीफ कमिश्नर वाले क्षेत्रों से थे। 3 जून, 1947 के माउन्टबेटन योजना के तहत
भारत का विभाजन हुआ और संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या घटकर 299 रह गई जिसमें
284 सदस्यों ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पर हस्ताक्षर किए यद्यपि कुछ संविधान विशेषज्ञ
संविधान सभा को संप्रभु नहीं मानते थे क्योंकि यह ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित की गई थी। अगस्त,
1947 में भारत के आजाद होने के बाद इस संविधान सभा ने पूर्ण संप्रभु होकर कार्य किया। इस
सभा के सदस्यों का चुनाव क्योंकि सार्वभौम वयस्क मताधिकार द्वारा नहीं हुआ था अतः कुछ
विद्वान इसे प्रतिनिधि मूलक नहीं मानते परन्तु यदि हम संविधान सभा के डिवेट (वाद-विवाद)
का अध्ययन करें तो पता चलता है कि विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान के बाद ही इसके प्रावधान
बनाए गए।
कुछ लोगों का यह कथन भी ठीक नहीं प्रतीत होता कि संविधान सभा वास्तव में प्रतिनिधि
संस्था नहीं थी इस कारण वह भारतीयों के लिए संविधान बनाने की अधिकारिणी.नहीं थी। इसके
अनुसार न तो सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से हुआ और न ही जनमत संग्रह द्वारा ही
संविधान को जनता द्वारा अनुसमर्थित कराया गया, इसलिए यह कहा जा सकता है कि संविधान
को लोकप्रिय स्वीकृति प्राप्त नहीं थी परन्तु इस आलोचना में भी कोई सार नहीं है। 1946 में जिन
परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण हुआ, उनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर इस प्रकार
की सभा का निर्माण सम्भव नहीं था। यदि संविधान सभा का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार
पर होता अथवा यदि इस संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के प्रारूप पर जनमत संग्रह करवाया
जाता, तब भी संविधान का स्वरूप कम या अधिक रूप में ऐसा ही होता। इस विचार को बल
देने वाला तथ्य यह है कि 1952 के प्रथम आम चुनाव जो नई सरकार के गठन के साथ-साथ .
संविधान के स्वरूप के आधार पर लड़े गए थे, में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव
लड़ा और काफी अच्छे बहुमत से विजय प्राप्त की। इन सबके अतिरक्ति यह भी तथ्य है कि
तत्कालीन भारत के सबसे प्रमुख संगठन ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने संविधान सभा को
अधिकाधिक प्रतिनिधि स्वरूप प्रदान करने की प्रत्येक सम्भव और अधिकांश अंशों में सफल चेष्टा
की थी।
प्रश्न 3. मूल कर्तव्यों से क्या अभिप्राय है? भारतीय नागकिों के मूल कर्त्तव्यों का वर्णन
कीजिए।
उत्तर– 1950 में लागू किए गए भारतीय संविधान में नागरिकों के केवल अधिकारों का ही
उल्लेख किया गया था परन्तु 42 वें संविधान संशोधन 1976 में संविधान के भाग 4 के बाद
भाग 4 (क) जोड़ा गया जिसमें दस मूल कर्तव्यों की व्यवस्था की गई। सन् 2002 में अभिभावकों
के लिए 6 से 14 वर्ष अपने बच्चों को शिक्षा का अवसर प्रदान करने का कर्तव्य जोड़ा गया
तो अब नागरिकों के निम्नलिखित 11 कर्तव्य हैं-
(i) संविधान का पालन तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं और राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान
अर्थात् प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों,
संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे।
(ii) राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का हृदय में संजोए रखे और
उनका पालन करे।
(iii) वह भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण बनाए
रखे।
(iv) देश की रक्षा करे और आह्वान पर राष्ट्र की सेवा करे।
(v) भारत के सभी भागों में समरसता और समान भाईचारे की भावना का विकास करे।
ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हों।
(vi) हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे और संरक्षण करे।
(vii) प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे व हिंसा से
दूर रहे।
(viii) व्यक्तिगत व सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत्
प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरन्तर बढ़ते हुए प्रगति और उपलब्धि की नवीन ऊंचाइयों को छू सके।
(ix) प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अन्तगर्त वन, झील, नदी और वन्य जीव भी हैं, की रक्षा
करे और उनका संवर्धन करे तथा प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखे।
(x) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
(xi) 86वें संशोधन (2002) द्वारा अनुच्छेद 51 (क) में संशोधन करके खण्ड (न) के
बाद खण्ड (ट) जोड़ा गया जिसके अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के उद्देश्य से
अभिभावकों के लिए भी यह कर्तव्य निर्धारित किया गया कि 6 से 14 वर्ष के अपने बच्चों को
शिक्षा का अवसर प्रदान करे।
प्रश्न 4. भातीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक न्याय पर पर्याप्त ध्यान
नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि आज आप
संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों
की सिफारिश करते?
उत्तर-भारतीय संविधान की कुछ सीमाएंँ भी हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह एक सम्पूर्ण
तथा दोष रहित प्रलेख है। इनमें से एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लैंगिक न्याय विशेषतया परिवार की
संपत्ति के अन्तर्गत ऐसा है। परिवार की संपत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार नहीं
दिए गए। बेटे और बेटी में अन्तर किया जाता है। मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार राज्य के नीति
निर्देशक तत्त्वों में शामिल किए गए हैं जबकि उन्हें मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना
चाहिए था। राज्य नीति निर्देशक तत्त्वों का न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। समान कार्य
के लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान वेतन राज्य के द्वारा संरक्षित किया गया है। यह नीति
निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है। यह भी मौलिक अधिकार का भाग होना चाहिए था
क्योंकि राज्य पूरी तरह से तभी समान कार्य के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को समान वेतन दिला सकता
है। नीति निर्देशक तत्त्वों के लिए राज्य केवल प्रयास करेगा। हमारी संविधान की सीमाओं में से
एक यह भी है कि आज तक स्त्रियों को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण संसद व राज्य विधानमंडल में
नहीं दिलवाया जा सका।
हमारे संविधान की सीमाएंँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं-
(i) भारत का संविधान राष्ट्रीय एकता का केन्द्रीयकृत विचार रखता है।
(ii) यह कुछ प्रमुख लैंगिक न्याय के विषयों विशेष तौर पर परिवार के अन्दर व्याख्या किए
हुए है।
(iii) यह स्पष्ट नहीं हो सका कि क्योंकि एक निर्धन विकासशील देश में कुछ निश्चित मूल
सामाजिक-आर्थिक अधिकार मूल अधिकारों की श्रेणी में न रखकर राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों
में शामिल किया गया है।
प्रश्न 5. क्या आप इस कथन से सहमत हैं- कि ‘एक गरीब और विकासशील देश
में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता
के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए
गए-यह स्पष्ट नहीं है। आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक
तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे? (NCERT T.B.Q. 10)
उत्तर-हमारे संविधान की एक विशेषता नीति निर्देशक तत्त्व हैं। विश्व के अन्य संविधानों
में केवल आयरलैंड के संविधान को छोड़कर अन्य किसी देश के संविधान में राज्य के नीति
निर्देशक तत्त्व नहीं हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संविधान में केवल राज्य के संगठन की
व्यवस्था एवं अधिकार पत्र का वर्णन नहीं किया है वरन् वह दिशा भी निश्चित किया है जिसकी
ओर बढ़ने का प्रयत्न भविष्य में भारत राज्य को करना है। संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारत
में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना था और इसलिए उन्होंने नीति निर्देशक तत्त्वों में से ऐसी
बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किए जाने पर एक लोक कल्याणकारी राज्य
की स्थापना सम्भव हो सकती है। निर्देशक तत्त्व हमारे राज्य के सम्मुख कुछ आदर्श उपस्थित करते
हैं जिनके द्वारा देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक उत्थान हो सकता है। इन
तत्त्वों की प्रकृति के सम्बन्ध में संविधान की 37वीं धारा में कहा गया है कि “इस भाग में दिए
गए उपबन्धों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी, किन्तु फिर भी इसमें दिए
हुए तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि निर्माण में इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का
कर्तव्य होगा।”
इस अनुच्छेद (37) से यह बात स्पष्ट है कि निर्देशक तत्त्व को मौलिक अधिकारों के समान
वैधानिक शक्ति प्रदान नहीं की गयी है। इसका अर्थ है कि निर्देशक तत्त्वों की क्रियान्विनी के लिए
न्यायालय के द्वारा किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किए जा सकते हैं। वैधानिक महत्त्व प्राप्त
न होने पर भी ये तत्त्व राज्य शासन के संचालन के आधारभूत सिद्धांत हैं और राज्य का यह नैतिक
कर्तव्य है कि व्यवहार में सदैव ही इन तत्त्वों का पालन करे। यहां यह बात उल्लेखनीय है कि
इतने महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक अधिकारों से किसी भी प्रकार कम महत्त्व न रखते हुए भी इन निर्देशक
तत्त्वों को राज्य सरकारों की कृपा पर क्यों छोड़ा गया। इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है
कि भारत उस समय पराधीनता के चंगुल से छुटा था। उसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी
कि इनका (निर्देशक तत्त्वों का) पालन करने की बाध्यता होने से आर्थिक संकट उभर सकता
था और उसके कारण समय-समय पर अनेक समस्यायें उठ सकती थीं। अतः राज्य को निर्देश
दिया गया तथा नागरिकों को यह अधिकार भी नहीं दिया गया कि वे इन निर्देशक तत्त्वों को
पूरा कराने के लिए राज्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकें। इसी कारण राज्य को इन नीति निर्देशक
तत्त्वों को पूरा करने का प्रयास भर करने के लिए कहा गया ताकि अपनी सामर्थ्य के अनुकुल
शासन इनकी पूरा कराने में रुचि ले सके।
प्रश्न 6. भारतीय संविधान में दिए गए राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की समालोचना
कीजिए। संवैधानिक दृष्टिकोण से उनका महत्त्व बताइए।
उत्तर-भारत के संविधान में अनुच्छेद 38 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व दिए गए
हैं। इनमें आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व, सामाजिक हित सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व, न्याय
शिक्षा और प्रजातंत्र सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व, सामाजिक स्मारकों की सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व तथा
अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व दिए गए हैं।
अनुच्छेद 38- राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।
अनुच्छेद 39- समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता।
अनुच्छेद 40- ग्राम पंचायतों का गठन।
अनुच्छेद 41- कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार।
अनुच्छेद 42- काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता का
उपलब्ध।
अनुच्छेद 43- कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी।
अनुच्छेद 44- नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता।
अनुच्छेद 45- बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध।
अनुच्छेद 46- अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा
और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि।
अनुच्छेद 47- पोषाहार स्तर और जीवनस्तर को ऊंँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार।
अनुच्छेद 48- कृषि और पशुपालन का संगठन।
अनुच्छेद 48 (क) पर्यावरण का संरक्षण।
अनुच्छेद 49- राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों का संरक्षण।
अनुच्छेद 50- कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण।
अनुच्छेद 51- अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि।
जिस समय संविधान का निर्माण हो रहा था तो निर्देशक तत्त्वों की बड़ी आलोचना हुई। अनेक
विद्वानों ने इनकी आलोचना इस प्रकार से की-
(i) संविधान ने एक ओर तो राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को देश के शासन में मूलभूत
माना है, किन्तु साथ ही वे वैधानिक शक्ति प्राप्त या न्याय योग्य नहीं हैं अर्थात् न्यायालय इनको
लागू नहीं करा सकते।
(ii) निर्देशक तत्त्व काल्पनिक आदर्श हैं। इन्हें क्रियान्वित कराना बहुत दूर की बात है।
(iii) एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्य नहीं
(iv) संवैधानिक विधिवेत्ताओं ने आशंका व्यक्त की है कि ये तत्त्व संवैधानिक द्वन्द्व और
गतिरोध के कारण भी बन सकते हैं।
(v) नीति निर्देशक तत्त्व किसी निर्धारित या संगतिपूर्ण दर्शन पर आधारित नहीं हैं।
नीति निर्देशक तत्त्वों का महत्त्व-यद्यपि नीति निर्देशक तत्त्वों की आलोचना की गयी है परन्तु
इसका तात्पर्य यह नहीं कि ये महत्त्वहीन हैं। वास्तव में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का बड़ा
महत्त्व है-
(i) नीति निर्देशक तत्त्वों के पीछे जनमत की शक्ति होती है। जनता के प्रति उत्तरदायी
सरकार इन तत्त्वों की उपेक्षा नहीं कर सकती।
(ii) यदि निर्देशक तत्त्वों को केवल नैतिक धारणाएं ही मान लिया जाए तो इस रूप में भी
इनका अपार महत्त्व है जैसे कि ब्रिटेन में मैगनाकार्य, फ्रांस में मानवीय तथा मानसिक अधिकारों
की घोषणा तथा अमरीकी संविधान की प्रस्तावना को कोई वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं है, फिर
भी इन देशों के इतिहास पर इनका प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार उचित रूप में यह आशा की जा
सकती है कि ये निर्देशक तत्त्व भारतीय शासन की नीति की निर्देशित और प्रभावित करेंगे।
(iii) नीति निर्देशक तत्त्वों द्वारा जनता को शासन की सफलता और असफलता की जांच
काटने का मापदण्ड भी प्रदान किया जाता है।
(iv) नीति निर्देशक तत्त्व देश की सामाजिक व आर्थिक क्रांति के साधन भी हैं।
(v) एम. सी. सीतलबाड़ के शब्दों में “राज्य नीति के इन मूलभूत सिद्धान्तों का वैधानिक
जाता है।”
दर्जा प्राप्त न होते हुए भी उनके द्वारा न्यायालयों के लिए उपयोगी प्रकाश स्तम्भ का कार्य किया
(vi) निर्देशक तत्त्व इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं कि इनमें गाँधीवाद के आदर्शों को स्थान
दिया गया है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैधानिक शक्ति न होते हुए भी राज्य के नीति निर्देशक
तत्त्वों का अपना महत्त्व और उपयोगिता है।