Bihar Board 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type
Bihar Board 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type
BSEB 12th Sanskrit Important Questions Long Answer Type
Important Long Answer Type Questions Part – 1
प्रश्न 1. ब्रहाचारी और पार्वती संवादस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर: महाकवि कालिदास विश्व के एक महान कलाकार हैं। उनकी प्रतिभा विलक्षण है। उनके प्रतिभा पराग के कणों से परिपूर्ण उनके काव्यकुसमों में रसिक पाठक के हृदय को आनंदोन्मत कर देने की अपूर्व क्षमता है। उनकी कला रसवादी कला है। कालिदास कोमल रसों के सरस चित्रकार है। महाकवि कालिदास की विशेषता उनकी भाषा की सरलता, तथा बोधगम्यता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रसादं गुण उन्हीं के बँटवारे में पड़ा है। कालिदास अपनी उपमा के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। कुमारसम्भवम् महाकाव्य के पंचम सर्ग में पार्वती की तपस्या से मुग्ध होकर ब्रह्मचारि वेषधारी शिव अपने वास्तविक रूप में प्रकट होकर जब पार्वती का हाथ पकड़ लेते है और कहते हैं।
“अद्यप्रभृत्यवनताकि तवास्मि दासः क्रीतस्तपोभिः”
अर्थात् उस समय अपने प्रियतम को प्रत्यक्ष देखकर तथा साथ ही उनके दुर्लभ करस्पर्श को पाकर उनका हृदय आनन्दातिरेक से विह्वल हो उठता है। पार्वती की इस विह्वलता तथा विमूढता का कितना मार्मिक चित्र कालिदास ने प्रस्तुत किया है।
“तं वीक्ष्य वेपयुमती सरसाङ्गयष्टि
निक्षेपणाय पदमुदधृतमुदवहन्ती।
मार्गाचलव्यतिकराकुलितेव सिन्धुः
शैलाधिराजतुनयो न यर्या न तस्थौ।।”
इस प्रकार कालिदास ने कुमारसंभवम् महाकाव्य के पंचम सर्ग में पार्वती की तपस्या का वर्णन बड़ा ही मनमोहक ढंग से किया है।
पार्वती शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय करती है। परंतु वे अपनी सौन्दर्य से उनको आकृष्ट नहीं कर पाती है तो तपस्या करने लगती है। उनकी कठिन तपस्या को देखकर । शिव ब्रह्मचारी भेष धारण कर उनकी परीक्षा लेने उनके पास आते है। पंचम सर्ग में कालिदास ने इस पार्वती और ब्रह्मचारी भेष शिव के संवाद का बड़ा ही सुंदर और रोचक वर्णन प्रस्तुत किया है।
एक दिन तपस्वी ब्रह्मचारी उनके आश्रम में आया। पार्वती के द्वारा किए गए आतिथ्य को ग्रहण कर उसने उनकी कुशलता पूछी। इसके बाद पार्वती की तपस्या की प्रशंसा करते हुए उसने पूछी। इसके बाद पार्वती की तपस्या की प्रशंसा करते हुए उसने पार्वती की एक अंतरंग सखी ने शिव के प्रति पार्वती के अविचल अनुराग तथा शिव को पति के रूप में प्राप्त करने के लिए उनके दृढ निश्चय का ब्रह्मचारी से निवेदन किया। ब्रह्मचारी ने पार्वती के प्रेम की सत्यता की परीक्षा करने तथा उनको उनके निश्चय से विचलित करने के लिए शंकर के अनेक दोषों का उद्घाटन किया। उसने बताया कि शिव तो अशुभ वस्तुओं से प्रेम करते हैं, श्मशान में निवास करते हैं, चिता की भस्म शरीर में लगाये रहते हैं, सर्पो का कंकाल तथा हाथी की खाल धारण करते हैं, बैलकी सवारी करते हैं तथा अशुभ रूप बनाए रहते हैं।
दरिद्रता की तो वह साक्षात् मूर्ति ही है। शिव की इन अनेकानेक बुराइयों को सुनकर पार्वती तनिक भी विचलित नहीं हुई। वह पूर्ववत् अपने निश्चय पर अडिग रही। ब्रह्मचारी के द्वारा बताए गए दोषों का प्रतिवाद करते हुए उन्होंने वास्तविकता को नहीं जानते हैं। इस पर ब्रह्मचारी ने फिर कुछ कहना चाहा, किन्तु पार्वती ने वहाँ से हट जाना ही ठीक समझा। जैसे ही वह चलने को उद्यत हुई वैसे हो शिव ने, जो ब्रह्मचारी के वेश में पार्वती की परीक्षा लेने के लिए आये थे, अपना वास्तविक वेश धारण करके पार्वती को पकड़ लिया और कहा कि मैं तुम्हारी तपस्या से खरीदा हुआ तुम्हारा दास हूँ। यह सुनकर पार्वती का सारा क्लेश दूर हो गया।
प्रश्न 2. ‘पर्यावरणसंरक्षणम्’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर: पृथ्वी का आवरण वायु, जल और वनस्पति जो संसार का आधार है, पर्यावरण कहलाता है।
सभी प्राणियों के आधाररूपा जो पृथ्वी दृश्यमान है उसको चारों ओर से घेरकर स्थित जो पदार्थ हैं उसे सम्प्रति पर्यावरण कहा जाता है। प्राचीनकाल में सभी विश्व सभ्यताओं में भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश को पंचभूत मानकर पूजे जाते थे। उन्हें सभी प्राणियों के जीवन साधन के रूप में पुराने लोग मानो या तीफन म समय के सोए प्रसिद्ध पदोग के भुक्तभोगी भी होते थे। धीरे-धीरे वैज्ञानिकों ने सुखमय जीवन के सौविध्य का विकास किया।
‘वैज्ञानिक विकास की गति को प्रकृति बहुत समय तक सहन करती हुई मनुष्य की सहायता ही चाहती रही। तबतक सम्पूर्ण पर्यावरण शोभायुक्त रमणीय और प्राणियों के हितकारक रही। किन्तु अति सर्वत्र वर्जयेत इस न्याय से स्थायी मानव समुदाय ने वृक्ष और वनस्पति को पुनः पुनः नष्ट किया जो आज मानव हित के विपरीत है। वे ही हवा शुद्ध करने में स्वयं लगे थे, आकाश से बरसने वाले वर्षा के वेग को अपने ऊपर धारणकर भूक्षरण को रोकते हैं। किन्तु आज स्वयं में असमर्थ वनस्पति विनाश के मार्ग पर जा रहे हैं। इसका फल है कि पर्यावरण सर्वत्र दूषित हो गया है।
किन्तु मानव निर्मित वैज्ञानिक उपकरण, विविध मशीनें, वस्त्र, अस्त्र-शस्त्र, विद्युत उत्पादक कारखानों के समूह सम्पूर्ण वायुमंडल तथा जलमंडल को प्रदूषित कर रहे हैं जिसका निराकरण आज असंभव सा प्रतीत होता है। विकास रथ की परम्परा तो विकसित देशों में अधिक है। न केवल अमृत बहनेवाली नदियाँ प्रत्युत समुद्र भी प्रदूषण को प्राप्त होकर उसके किनारे रहने वालों के जीवन को विनाश की ओर ले जा रहा है। आज कहाँ स्वच्छ जल, कहाँ निर्मल हवा, कहाँ शुद्ध अन्न, कहाँ प्राणवायु प्रदान करने वाले वृक्ष, कहाँ पेयजल, कहाँ हृदयहारिणी उपवन-इन के बारे में सोचते हुए महानगरों में जीविका के लिए रहने वाले जब कभी पर्वतीय स्थानों में घूमने जाते हैं तो वहाँ भी घूमने की इच्छा से महानगरीय प्रदूषण फैलाते हैं। यह एक अन्यायपूर्ण परम्परा है।
यह समस्या एक दिन में उत्पन्न नहीं हुई और न एक दिन में इसका समाधान ही संभव है। पर्यावरण के प्रति जबतक संतुलन की भावना उत्पन्न नहीं होगी तबतक प्रदूषण की समस्या का समाधान कोई भी मानव नहीं कर सकता है। विज्ञान प्रदत्त साधनों के उपभोग की प्रतिस्पर्धा, घर-घर में, समाज-समाज में और देश-देश में विद्यमान है। इनके संतुलित प्रयोग के विषय में राजनीतिज्ञों को सोचना चाहिए। जनसंख्या नियंत्रण करना सर्वाधिक आवश्यक है जिससे हमारी पृथ्वी अत्यधिक भाराक्रांत नहीं हो। प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग संयमपूर्वक करके उनका संरक्षण करना होगा। वनों का सदा ही संरक्षण करना चाहिए।
इस कार्य में युवाओं को भी अवकाश के समय में प्रयास करना चाहिए। जिस तरह धार्मिक स्थानों की स्वच्छता वांछनीय है उसी तरह नदियों के तटों का, तालाबों का, शिक्षण संस्थानों का और सड़कों को साफ करना चाहिए क्योंकि थोड़ा भर प्रयास कल्याणकारी होता है। सड़कों के दोनों ओर वर्षाकाल के आरंभ में समारोहपूर्वक वृक्षारोपण करना चाहिए। इससे जीवन संरक्षित होगा।
प्रश्न 3. ‘वर्षावर्णनम्’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर: वर्षा ऋतु में धूलि शान्त हो गयी है, हवा में शीतलता आ गयी है, गर्मी का फैलाव शान्त हो गया है, राजाओं की युद्धयात्रा स्थगित हो गई है और प्रवासी लोग अपने घर को जा रहे हैं।
कहीं प्रकाश है तो कहीं अंधकार है, आकाश छितराये मेघों से भरा हुआ है। कहीं-कहीं पर्वत मेघों से घिरा हुआ प्रशान्त महासागर के सदृश प्रतीत हो रहा है।
साल और कदम्ब पुष्पों से मिला हुआ, पर्वतीय धातुओं से मिश्रित ताम्ररंग का पानी मयूर की बोली का अनुकरण करती हुई नदियाँ शीघ्रता से बह रही हैं।
रस से भरे हुए भौंरे के रंग के जामुन के फल पर्याप्त मात्रा में खाए जाते हैं। हवा से हिलता हुआ अनेक रंग के पके हुए आम जमीन पर गिरते रहते हैं।
विद्युतरूपी पताका वाले बगुलों की पंक्ति मालाओं वाले मेघ युद्धभूमि के मदमत्त हाथियों के समान गरज रहे हैं।
वर्षा के जलों से भरे हुए धानों के खेत, नृत्य में प्रवृत्त मोर, वर्षा के बाद खाली हुए बादल दोपहर के पश्चात् देखने में अधिक सुंदर लगते हैं।
जलों के अत्यधिक भार को अच्छी तरह से वहन करते हुए, बगुलों से युक्त होकर, गरजते हुए, जल को धारण करने वाले बादल पर्वतों की बड़ी-बड़ी चोटियों पर बार-बार आराम करके फिर से आगे चले जा रहे हैं।
नदियाँ बह रही हैं, बादल बरस रहे हैं, मस्त हाथी गरज रहे हैं, वन के भाग सुशोभित हो रहे हैं, प्रियाओं से रहित जन प्रियजनों का चिंतन कर रहे हैं तथा मेढक साँस ले रहे हैं।
केतकी फूलों के सुगन्ध का पान कर वन के झरनों में मतवाले हाथी प्रसन्न होकर प्रपात के शब्दों को आकुलित करते हुए हाथी मयूरों के समान बोलते हैं।
वर्षा की धारा से आहत, कदम्ब के पेड़ पर टिके हुए सद्यः प्राप्त किए हुए पुष्प के रस में डूबे हुए भौरे मद को छोड़ रहे हैं।
भौंरों के मधुर गुंजन, बन्दरों के कंठ से निकलने वाली बोली, मृदंग की तरह बादलों की गड़गड़ाहट से जंगल संगीतमय-सा प्रतीत हो रहा है।
वर्षा के नए जल की धारा से आहत कमल के फूल पराग त्याग रहे हैं। सपराग कदम्ब . के फूलों का रस चूसकर भौरें प्रसन्न हो रहे हैं।
प्रश्न 4. ‘न्यायालयदृश्यम्’ इति पाठम् अनुसृत्य न्यायालयस्य स्थितिः वर्णनीया।
उत्तर: न्यायालयदृश्यम् नामक पाठ शूद्रकरचित मृच्छकटिक नामक प्रकारण के नवम अंक से उद्धृत है।
इस प्रकरण का नायक चारुदत्त और गणिका वसन्तसेना परसपर अनुरक्त है। उधर राजा का साला शकार भी बलात्कार द्वारा सूने उद्यान में वसन्त सेना को मार डालने का प्रयास करता है। बाद में शकार ही न्यायालय में चारुदत्त के विरुद्ध अभियोग लगाता है कि उसने धन के लोभ में वसन्तसेना को मार डाला है। न्यायालय में चारुदत्त की बुलाहट होती है और अधिकरणिक (न्यायाधीश) उससे पूछता है कि क्या गणिका उसकी मित्र रहीं है ? चारुदत्त स्वीकार कर लेता है उसी समय शकार जो न्यायालय में उपस्थित है, न्यायालय के काम में दखल देकर चारुदत्त को सजा दिलाना चाहता है। न्यायालय के न्यायाधीश तथा उसके सहायक को विश्वास है कि चारुदत्त निर्दोष है।
परन्तु शकार उसे वसन्तसेना को हत्यारा बताता है और कहता है कि गहने के लोभ में उसने उसे मार डाला है। चारुदत्त इसका विरोध करता है। न्यायाधीश के पूछने पर चारुदत्त बताता है कि वसन्तसेना अपने घर गयी है। शकार पुनः कहता है कि तुम झूठ बोलते हो तुमने पुष्पकरण्डक नामक मेरे पुराने बगीचे में गला घोंट कर उसे मार डाला है। चारुदत्त इसका भी विरोध करता है। वह शकार से कहता है कि मैं ऐसा गलत काम नहीं कर सकता। इस पर शकार न्यायाध रोश को पक्षपाती बताता है। अधिकरणिक (न्यायाधीश) शकार से पूछता है कि जिसने अपनी सम्पत्ति गरीबों में बाँट दी हो वह चारुदत्त ऐसा नीच कार्य कैसे कर सकता है।
वसन्तसेना की माँ जो न्यायालय में उपस्थित है वह भी चारुदत्त को निर्दोष बताती है। न्यायाधीश चारुदत्त से पूछता है कि वसन्तसेना पैदल गयी थी या किसी सवारी से। चारुदत्त कहता है कि उसे इसकी जानकारी नहीं है। न्यायाधीश वीरक नामक कर्मचारी से पूछता है कि पुष्पकरण्डक उद्यान में कोई मरी हुई स्त्री है या नहीं ? कर्मचारी बताता है कि उसने उस उद्यान में पशुओं द्वारा अधखाये स्त्री शरीर को देखा है। न्यायाधीश कर्मचारी की बात सुनकर दुःखी हो जाता है; क्योंकि अभियुक्त चारुदत्त के विरुद्ध सबूत मिल रहा है।
न्यायाधीश चारुदत्त से सच्ची बात बताने को कहता है। चारुदत्त शकार की बातें मानने के लिए अनुरोध करता है। शकार न्यायाधीश पर लांछन लगाता है कि वह पक्षपात कर रहा है; क्योंकि अभियुक्त होने पर भी चारुदत्त को बैठने के लिए आसन दिया गया है। इसी समय विदूषक न्यायालय में आ जाता है और उसकी काँख के नीचे से गहनों की पिटारी गिर पड़ती है। न्यायाधीश देखता है कि शकार का अभियोग प्रमाणित हो रहा है। वह अफसोस करते हुए कहता है कि धूमकेतु की तरह विदूषक आ गया है जो चारुदत्त के लिए हानिकर है।
प्रश्न 5. चारु दत्तस्य चरितम् वर्यताम्।
उत्तर: चारुदत्त शूद्रकरचित मृच्छकटिक प्रकरण का नायक है। वह ब्राह्मण होकर भी व्यापार करता है। धनी होने पर भी वह अत्यन्त उदार है और वह किसी याचक को निराश नहीं करता। परिणाम स्वरूप वह निर्धन हो जाता है।
वसन्तसेना नाम की गणिका-पुत्री उससे प्रेम करती है और वह भी उसे चाहने लगता है। समाज के सभी लोग उसे चाहते हैं।
राजा का साला शकार जब उसपर वसन्तसेना के गहने लूटकर मारने का अभियोग लगाता है, तो न्यायाधीश को विश्वास नहीं होता। वह मन ही मन सोचता है कि यह कैसे सम्भव है ? जिस प्रकार हिमालय को तौलना, समुद्र को तैर कर पार करना, आग को पकड़ना असम्भव सा है वैसे ही चारुदत्त के चरित्र में दोष निकालना है-
तुलनं चाद्रिराजस्य समुद्रस्य च तारणम्।
ग्रहणं चानिलस्येव चारुदत्तस्य दूषणम्॥
शकार द्वारा प्रतिवाद किये जाने पर न्यायाधीश कहता है कि जिस व्यक्ति के बिना कहे अपने धन को लुटा दिया है वह ऐसा नीच कर्म कैसे करेगा। न्यायाधीश ने चारुदत्त के लिए महात्मा शब्द का प्रयोग किया है। दुर्योग से सबूत चारुदत्त को अभियुक्त बना दे रहा है। न्यायाधीश को अभी भी विश्वास नहीं होता। उसे लग रहा है कि चटकीली चाँदनी फैलाने वाला चन्द्रमा राहु के द्वारा. आक्रान्त हो रहा है, नदी का शुद्ध जल किनारे की मिट्टी गिरने से गन्दा हो रहा है।
निर्मलज्योरत्रनो राहुणा ग्रस्यते शशी।
जलं कूलावपातेन प्रसन्नं कलुषायते।।
चारुदत्त दृढ़ विचार वाला है। वह स्वीकार कर लेता है कि वसन्तसेना से उसे प्रेम है तो वह उसके यहाँ आयी हुई थी। अन्त में चारुदत्त इतना ही कहता है कि शकार ऐसे दुष्ट जो दूसरों के गुणों से ईर्ष्या करते हैं दूसरों का अपकार करते हैं तथा झूठ बोलते हैं, उनकी बातों पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए।
प्रश्न 6. “सोमदत्त प्राप्ति कथा” पाठस्य सारांश: हिन्दीभाषायां लिखत।
उत्तर: प्रस्तुत पाठ महाकवि दण्डी द्वारा रचित दशकुमार ‘चरित की पूर्वपीठिका के प्रथम उच्छ्वास से संकलित है। इस कथा ग्रंथ में दण्डी ने दस कुमारों के रोचक वृतान्तों का वर्णन किया है। कुछ कुमार राजपुत्र हैं जबकि कुछ अमात्य पुत्र हैं। दशकुमारचरित तीन भागों में विभक्त हैं-पूर्वपीठिका (पाँच उच्छ्वास) मध्य दशकुमार चरित (आठ उच्छ्वास) तथा उत्तरपीठिका। इस पाठ में सोमदत्त नामक आमात्य पुत्र की प्राप्ति की कथा दी गई है. जो अत्यन्त रोमांचक स्थितियों में मगधराज राजहंस के समक्ष आया है। इसमें वाक्यों का लालित्य पूर्ण विन्यास अत्यन्त आकर्षक है।
कथा का आरंभ दूसरे दिन से होता है जिस समय आश्रम में रहने वाले बामदेव के शिष्य देवार्चन के बाद जो कामदेव से भी अधिक सुन्दर फूलों के समान सुकुमार कुमार राजा के समीप जाकर बोला-देव ! तीर्थयात्रा की अभिलाषा से कावेरी के तट पर में गया। वहाँ हिलते हुए केश वाले एक बालक को अपनी गोद में रखकर रोती हुई एक वृद्धा स्त्री को देखकर मैंने कहा-‘वृद्ध तुम कौन हो ? यह बालक किसकी आँखों में आनन्द देने वाला है। किस प्रयोजनवश जंगल में आयी हो; तुम्हारे दुःख का कारण क्या है आदि।
प्रश्न 7. बिहारस्य प्रमुख संस्कृत मनीषिणः के ? तेषां विषये लिख्यताम्।
उत्तर: बिहार प्रदेश में संस्कृतं के विद्वानों की प्राचीन परम्परा रही है। दरभंगा तो दर्शन के लिए भारत वर्ष में प्राचीन काल से विख्यात रहा है। न्याय दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित वाचस्पति मिश्र तथा उदयनाचार्य मिथिला क्षेत्र के ही थे।
आधुनिक युग में छपरा निवासी पण्डित रामावतार शर्मा पटना कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक थे। मौलिक दार्शनिक चिन्तन ‘वं विलक्षण स्मरण-शक्ति से सम्पन्न उन्होंने परमार्थदर्शन नामक मौलिक ग्रन्थ लिखा था। बिहार के बहार का विद्वद्वर्ग भी उनकी मेघा का प्रशंसक था। पण्डित मदनमोहन मालवीय उनको बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का स्थायी पद देना चाहते थे; लेकिन वे इसके लिए तैयार नहीं हुए।
छपरा जिले के ही श्रीरामकरण शर्मा, भारत प्रसिद्ध विद्वान् हैं। वे दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय और सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति तथा भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के संस्कृत अनुभाग में संयुक्त शिक्षा परामर्शी रहे। संस्कृत में उन्होंने अनेक काव्य ग्रन्थ तथा उपन्यास लिखे हैं। उन्हें भारत सरकार की भारतीय साहित्य परिषद् ने भी सम्मानित किया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत में अपने अवदान के लिए वे राष्ट्रपति के द्वारा भी सम्मान-प्रशस्ति प्राप्त कर चुके हैं।
प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य एवं ऋषिका गार्गी, जिनका उल्लेख वृहदारयक उपनिषद् में है, बिहार के ही थे। बिहार के ही मीमांसक मण्डनमिश्र के साथ शंकराचार्य में शास्त्रार्थ की चर्चा प्रसिद्ध रही है। बिहार के बाणभंट्ट गद्यकवियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं और उनके हर्षचरित तथा ‘कादम्बरी’ संस्कृत गद्यकाव्य के निकष के रूप में समादृत हैं।
इस प्रकार बिहार की संस्कृत-परंपरा स्पृहणीय है।
प्रश्न 8. परोपकारस्य महत्त्वं विषये हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर: भर्तृहरि ने नीतिशतक में परोपकार के महत्त्व का विवेचना किया है। उन्होंने अनेक उदाहरणों के द्वारा बताया है कि व्यक्ति को परोपकार करने के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए।
फल आने पर वृक्ष उसके भार से झुक जाते हैं। मेघ वर्षा ऋतु के आने पर जलसमृद्ध होने के कारण आकाश के नीचे तैरते रहते हैं। इसी प्रकार परोपकार करने वाले व्यक्ति ऐश्वर्य के होने पर भी गर्वोन्नत नहीं होते। जिस प्रकार हाथ कंगन के बदले दान देने से अधिक सुन्दर लगता है वैसे ही परोपकारियों का शरीर चन्दन के बिना भी सुन्दर लगता है।
परोपकारी व्यक्ति स्वयं दूसरों का कल्याण करने में लगा रहता है, जैसे सूर्य बिना कहे कमल को खिलाता है, चन्द्रमा कुमुदिनी को। मेघ बिना माँगे जल बरसाता है। दूध के साथ जब जल का सम्पर्क होता है तो दूध जल जो अपना रूप दे देता है, वह जल दूध की तरह दीखने लगता है। बदले में जब दूध आग पर उबलने लगता है, तो जल ही पहले अपने को जला देता है। इसी प्रकार परोपकारी व्यक्ति कष्ट सह कर भी याचक का, परिचितों की सहायता करता है।
प्रश्न 9. नृत्य शिक्षकयोर्विवादस्य कारणं लिखत।
उत्तर: प्रस्तुत पाठ कालिदास रचित ‘मालविकाग्निमित्र’ के प्रथम अंक से लिया गया है। राजा अग्निमित्र और मालिविका की प्रेम-कथा इसमें वर्णित है। रानी धारिणी को दासी के रूप में मालविका अन्तःपुर में रहती है और अन्त में राजा की प्रेमिका बन जाती है। आचार्य गणदास मालविका की नृत्य की शिक्षा देते हैं, उधर हरदत्त रानी धारिणी को। एक बार दोनों आचार्यों में विवाद छिड़ जाता है कि दोनों में अच्छा नृत्य शिक्षक कौन है।
गणदास राजा से शिकायत करता है कि हरदत्त ने उससे कहा है कि वह उसके पैरों की धूलि के बराबर भी नहीं है। राजा के पूछने पर हरदत्त कहता है कि गणदास ने ही पहले मुझे अपमानित किया है। अतः प्रार्थना है कि आप दोनों की शास्त्र-विषय की परीक्षा ले लें। अन्त में । तय होता है कि तापसी कौशिकी के समक्ष दोनों शिष्यों में प्रतियोगिता होगी। कौशिकी का कहना है कि उनके शिष्यों की विशेषता की व्यावहारिक परीक्षा लेकर ही इसका निर्णय करना उचित होगा। ऐसा देखा गया है कि कोई शिक्षक पण्डित होते हुए भी छात्र को शिक्षित करने में पटु नहीं होता। रानी धारिणी इस प्रतियोगिता के पक्ष में नहीं है। क्योंकि उसे शंका है कि मालविका के नृत्य को देखकर राजा का आकर्षण उसके प्रति और गहरा जाएगा। वह इस विवाद में गणदास का हाथ होने की शंका करती है।
इस प्रकार दोनों शिक्षकों के विवाद का कोई ठोस कारण नहीं दीखता।
Important Long Answer Type Questions Part – 2
प्रश्न 1. ‘सर्वधर्म सम्मेलने विवेकानन्दः’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखता –
उत्तर: 11 सितम्बर, 1893, सोमवार के दिन सम्मेलन का प्रथम सत्र प्रारंभ हुआ। बीच में कार्डिनल गिबन्स बैठे हुए थे। उनके समीप पश्चिमी देश के प्रतिनिधि, ब्रह्म समाज के प्रमुख प्रतापचन्द, ईश्वरवादी नागरकर, श्रीलंका के बौद्ध प्रतिनिधि धर्मपाल, जैन गाँधी महाभाग, थियोसोफिकल समाज के सदस्य बैठे, थे। उनके बीच में कोई युवक बैठा हुआ था। वह सबों का था किसी सम्प्रदाय विशेष का नहीं। उसने हजारों से अधिक दर्शकों को आकृष्ट किया। उनका सुन्दर मुखमंडल, कुलीन आचरण और भव्य वेशभूषा रहस्यपूर्ण संसार में अवतीर्ण दिव्य व्यक्तित्व का प्रभाव अच्छी तरह लोगों को प्रभावित किया। सभी प्रतिनिधियों ने अपना परिचय देते हुए संक्षेप में अपने धर्म की विशेषता का व्याख्यान किया।
बहुत देर के पश्चात् युवक की बारी आयी। लेकिन जब उसने बोलना प्रारंभ किया। उनकी वाणी प्रदीप्त दिव्य शिखा की तरह प्रज्वलित हो उठी। सभी श्रोता समुदाय को उसने प्रभावित किया। जब वह अपना व्याख्यान अमेरिका देश के भाइयों एवं बहनों के सम्बोधन से प्रारम्भ किया तब सैकड़ों लोग ताली बजाकर उन्हें प्रोत्साहित किया। सम्मेलन की औपचारिकता को असामान्य लोग उनके हृदयगत भाषा को बोलने लगे। पुरातन वैदिक धर्म युवा संन्यासी अमेरिका देश का अभिनन्दन करने लगा। उनके धर्मोपदेश को जिसने समझा स्वीकार कर लिया।
अन्य सभी वक्ताओं ने ईश्वर की चर्चा की लेकिन उसने सर्वव्यापी ईश्वर की चर्चा की। इसके पहले किसी का भी भाषण उदारपूर्ण नहीं था। युवक विवेकानन्द ने दस बार से अधिक भाषण दिया। उनके भाषण में सभी धर्मों का न केवल सार तत्त्व निहित था अपितु विज्ञान का सर्वजनमुखी विवरण भी था जहाँ सम्पूर्ण मानव स्वरूप का आत्मा का आशादीप हुआ।
विवेकानन्द के समन्वयात्मक व्याख्यान का प्रभाव अमेरिका देश में सर्वत्र अनुभव किया गया। मनुष्य में अन्तर्निहित दिव्यता उसके विकास की अनुपम क्षमता है यही उनका एकमात्र सिद्धांत था। इस तरह के मानवधर्म का सभी देश अनुसरण करेंगे। प्राचीन काल में उदार धर्म का जो कोई भी प्रयास किया गया, वह आंशिक था। जैसे अशोक के बौद्ध धर्माश्रित परिषद्, अकबर का दीन-ए-इलाही ये उद्देश्यपूर्ण होते हुए भी कुलीन आश्रित थे। यह सौभाग्य अमेरिका देश का ही है जो सभी धर्मों में ईश्वर के एकत्व का संदेश संसार को दिया।
यह सर्वधर्म सम्मेलन यह स्पष्ट करता है कि धार्मिकता और पवित्रता किसी धर्मविशेष .. का अधिकार नहीं है। धर्मध्वजों में यहाँ लिखा जाना चाहिए कि सहायता करो, युद्ध नहीं करो, विनाश नहीं प्रत्युत समन्वय करो, युद्ध नहीं प्रत्युत मैत्री और शान्ति स्थापित करो। इन ओजस्वी शब्दों का प्रभाव सर्वत्र आश्चर्यजनक रूप से पड़ा। अमेरिका देश के समाचार पत्रों में भारत देश की अतीव प्रशंसा हुई। वस्तुत: स्वामी विवेकानन्द विदेशियों के प्रतिक्रिया स्वरूप युग पुरुष बन गए।
प्रश्न 2. “उद्भिज्जपरिषद्’ इति पाठस्य सारांशः लिख्यताम्।
उत्तर: उद्भिज्जपरिषद् नामक पाठ्यांश 19वीं शताब्दी के ऋषिकेश भट्टाचार्य रचित ‘प्रबन्ध ‘मंजरी’ से उद्धृत है। इस पाठ में विभिन्न वनस्पतियों के प्रतीकों के माध्यम से मनुष्यों के विषय में कटूक्ति की गयी है।
कोलकाता के सुन्दर वन में अनेक प्रकार वनस्पति-लतागुल्म आदि पादपों की परिषद् बैठी है जिसमें अश्वत्थ को व्याख्यान देने के लिए मनोनीत किया गया है। अश्वत्थ विभिन्न देशों-प्रदेशों से आए हुए विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों का स्वागत करते हुए कहता है कि आज मानवों के विषय में चर्चा की जाएगी। वह कहता है कि मनुष्य इस सृष्टि में निकृष्टतम प्राणी है। सविता ने विविध पशु-पक्षियों वनस्पतियों की सृष्टि कर अपनी विलक्षण बुद्धि का परिचय दिया है; परन्तु मानवों का निर्माण कर बुद्धिहीनता भी दिखलायी है। मानव सम्पूर्ण सृष्टि के लिए हानिकर है; क्योंकि पानी, वायु, प्राकृतिक अवदानों भूमि आदि का दुरूपयोग कर रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसके हाथों सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश होकर रहेगा।
प्रश्न 3. ‘व्यायामः’ इत्यस्य पाठस्य सारांश हिन्दी भाषायां लिखत।
उत्तर: शरीर में थकावट उत्पन्न करने वाला कर्म व्यायाम कहलाता है। व्यायाम करने के अनन्तर सम्पूर्ण शरीर को धीरे-धीरे मलना चाहिए।
व्यायाम करने से शरीर को सम्यक् पुष्टि, काति, अंगों का सुंदर गठन पाचकाग्नि में वृद्धि आलस्य को न होना, स्थिरता, लघुता और शारीरिक शुद्धि होता है।
व्यायाम से श्रम-क्लम (थकान) पिपासा, उष्णता और शीत आदि को सहन करने की शक्ति तथा उत्तम आरोग्य की प्राप्ति होती है। स्थूलता को न्यून करने के लिए व्यायाम के समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है। व्यायाम करने वाले व्यक्ति को शत्रु भी भय के कारण पीड़ा नहीं पहुँचाते।
व्यायामशील मनुष्य के ऊपर वृद्धावस्था सहसा आक्रमण नहीं करती। व्यायाम करने वाले की मांसपेशियाँ सुदृढ़ होती है।
व्यायामजन्य श्रम से निकले हुए स्वेद कणों से स्वेदित तथा पैरों की भलीभाँति मालिश करने वाले व्यक्ति के समीप व्याधियाँ उसी प्रकार नहीं पहुँचती जिस प्रकार गरुड़ के सामने साँप नहीं पहुँचते। वायुरूप गुणरहितों को भी सुदर्शन बनाता है।
नित्य व्यायाम करने वाले व्यक्ति का विरुद्ध अम्लपाकयुक्त अथवा अपक्व और अम्ल भोजन भी दोष रहित सम्पूर्ण रूप से पचता है।
बलवान तथा स्निग्ध आहार करने वाले व्यक्ति के लिए व्यायाम सदा हितकर है और उसके लिए शीत एवं वसंत ऋतु में इसका सेवन अत्यन्त लाभदायक बताया गया है।
अथवा हित चाहने वाले मनुष्यों को सभी ऋतुओं में प्रतिदिन आधी शक्ति के अनुकूल व्यायाम करना चाहिए। अन्यथा इसका घातक प्रभाव पड़ता है।
व्यायाम करते हुए मनुष्य को हृदय में स्थित वायु जब मुँह में आने लगे तो बलार्द्ध समझना चाहिए।
वायु, बल, शरीर, देश, काल और आहार का विचार करते हुए व्यायाम करना चाहिए. अन्यथा रोगोत्पत्ति की संभावना रहती है।
प्रश्न 4. व्यायामस्य महत्त्वम् वर्णनीम्।
उत्तर: सुस्वास्थ्य की कामना सभी को होती है। सभी की इच्छा होती है कि वे सुन्दर दिखें, रोगग्रस्त न हों तथा उनकी स्फूर्ति बनी रहे। सुश्रुत संहिता में आचार्य सुश्रुत ने व्यायाम के लाभों का वर्णन किया है। व्यायाम करने से शरीर की शान्ति की कान्ति बनी रहती है, आलस्य नहीं होता। मन्दाग्नि व्यक्ति को पीड़ित नहीं करती। भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी को सहने की शक्ति प्राप्त होती है। व्यायाम करने वाले को मोटापा से होने वाले रोग नहीं सताते। उनसे रोग वैसे ही भागते हैं जैसे गरुड़ से साँप।
व्यायाम करने वाला व्यक्ति अगर कहीं कुभोजन कर भी ले तो उसे वह पचा लेता है। व्यायामशील व्यक्ति का सौन्दर्य सदा बना रहता है। व्यक्ति को अवस्था, देश और काल को देखकर उसी के अनुरूप व्यायाम करना चाहिए। बालक, युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष सब के लिए अलग-अलग व्यायाम का प्रावधान है। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए।
प्रश्न 5. ‘ज्ञान सागरः’ पाठ्यमाश्रित्य पुस्तकालयस्य महत्त्वं लेख्यम्।
उत्तर: ज्ञान मनुष्यों की बहुत बड़ी शक्ति है। ज्ञानहीन व्यक्ति अन्धे के समान होता है। ज्ञान प्राप्ति का प्रमुख साधन पुस्तकालय है। पुस्तकालय में विविध प्रकार की पुस्तकें रहती हैं। सामान्यतया धनी व्यक्तियों को छोड़कर दूसरों के लिए विविध प्रकार की पुस्तकें खरीदना सम्भव नहीं होता है; क्योंकि अनेक पुस्तकों का मूल्य बहुत अधिक होता है। भारतवर्ष में नालन्दा, तक्षशिला ऐसे प्रसिद्ध पुस्तकालय थे। परन्तु विदेशी आक्रान्ताओं ने इन्हें नष्ट कर डाला। अगर ये पुस्तकालय नष्ट नहीं हुए होते, तो प्राचीन भारतीय साहित्य एवं शास्त्रों के विषय में तिथि आदि बिन्दुओं को लेकर जो समस्याएँ उत्पन्न हो जा रही हैं, नहीं होती।
पुस्तकालय. छात्रों एवं धनहीन जिज्ञासुओं के लिए वरदान ही होते हैं। उन्हें विविध देशों के .. समाचार पत्र भी पढ़ने को मिल जाते हैं। इस प्रकार ज्ञानवर्धन में पुस्तकालयों की महती भूमिका होती है।
इसी कारण कम्प्यूटर के युग में भी पुस्तकालयों का महत्त्व घटा नहीं है। सरकार को चाहिए कि सुदूर देहातों में भी पुस्तकालयों की व्यवस्था करें। ताकि ग्रामीण भी इनके माध्यम से लाभ उठा सकें।
प्रश्न 6. चाणक्य चन्दनदासयोः संवादः वर्णनीयः।
उत्तर: ‘चाणक्यचन्दनदास संवादः’ विशाखदत्त रचित मुद्राराक्षस से लिया गया है। चाणक्य ने नन्द वंश को नष्ट कर चन्द्रगुप्त को पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा दिया है। अब वह चाहता है कि नन्द वंश का योग्य मंत्री राक्षस चन्द्रगुप्त का भी मंत्री पद स्वीकार कर ले। परन्तु राक्षस स्वामिभक्त होने के कारण मंत्रिपद स्वीकार नहीं करता है। चाणक्य कूटनीति से काम लेते हुए राक्षस के अनन्य मित्र चन्दनदास को बुलाकर उसे राक्षस के विषय में जानना चाहता है। पहले वह चन्दनद्रास से उसके व्यापार की सफलता के बारे में पूछता है। फिर उससे चन्द्रगुप्त के शासन के बारें में प्रजा की प्रतिक्रिया जानना चाहता है। चन्दनदास चाणक्य की व्यवहार-कुशलता से सशंक हो जाता है।
चाणक्य उससे कहता है कि तुमने चन्द्रगुप्त के विरोधी अमात्य राक्षस के परिवार को क्यों – शरण दी है। चन्दनदास पहले तो इसे स्वीकार नहीं करता, पर चाणक्य उसे धमकाता है कि संभव है कि राक्षस ने अपना परिवार तुम्हारे यहाँ रख दिया हो। चन्दनदास कहता है कि पहले राक्षस का परिवार मेरे यहाँ था, लेकिन पता नहीं अब कहाँ चला गया है। इसपर चाणक्य क्रोध के साथ कहता है कि तुम राक्षस के परिवार को समर्पित कर दो तभी तुम्हारा परिवार सुरक्षित रहेगा। चन्दनदास चाणक्य की कूटनीति को समझ जाता है और चाणक्य उत्तर देता है कि राक्षस का परिवार उसके यहाँ रहता तो भी वह चाणक्य को उसे समर्पित नहीं करता। चाणक्य की कूटनीति को समझ पाता है और चाणक्य उत्तर देता है कि राक्षस का परिवार उसके यहाँ रहता तो भी वह चाणक्य को उसे समर्पित नहीं करता। चाणक्य चन्दनदास की बातें सुनकर मन ही मन चन्दनदास. की प्रशंसा करता है। उसे राजा शिवि के समान त्यागी मानता है।
प्रश्न 7. दिलीप: कतः प्रजानां पिता ? हिन्दीभाषायां स्पष्टी करु।
अथवा, राज्ञो दिलीपस्य प्रशासनिक गुणानां वर्णने दशवाक्यानि लिखता।
उत्तर: रघुवंश संस्कृत साहित्य का सर्वाधिक लोकप्रिय महाकाव्य है। भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विदेशों में भी इसका विशेष सम्मान है। यह एक अंतरख्याति प्राप्त महाकाव्य है। इसमें महाकाव्य के सभी लक्षण विद्यमान है। इस महाकाव्य के संबंध में एक दंतकथा है कि कुमारसंभव में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन अतिशय शृंगारपूर्ण हो जाने के कारण महाकवि कालिदास को शिव और पार्वती के कोप फलस्वरूप कोढ़ी हो गए। उन्हें खिन्न देखकर सरस्वती ने स्वप्न में कहा कवि ! तुम राम-चरित का वर्णन करो। इस पुण्य से तुम रोगमुक्त हो जाओगे।” सरस्वती के आदेश से ही कालिदास ने रघुवंशम् में राम के पावन वंश तथा उनके पुनीत चरित का वर्णन किया और इस पुण्य के फल से वे रोगमुक्त हो गए। रघुवंश 17 सर्गों का महाकाव्य है जिसमें रघु के कुल का वर्णन किया गया है।
इसके प्रथम सर्ग में कालिदास ने राजा दिलीप के गुणों का बखान किया। इसकी सबसे बड़ी विशेषता उपमालंकार के कारण है। जिस प्रकार वेदों में सर्वप्रथम ॐकार है वैसे ही राजाओं में सबसे पहले सूर्यपुत्र वैवस्वत मनु हुए, जिनका सम्मान बड़े-बड़े विद्वान किया करते थे। उसी प्रकार “सूर्य पुत्र मनु के उज्ज्वल वंश में अत्यंत पावन चरित्र वाले राजाओं में अनुकरणीय राजा दिलीप का जन्म भी उसी प्रकार हुआ, जिस प्रकार झीरसावर में चन्द्रमा उत्पन्न हुआ। जिस प्रकार सुमेरू पर्वत ने अपनी सुदृढ़ती, चमक और ऊँचाई से संसार की समस्त वस्तुओं के गुणों को फीका कर दिया है और अपने विस्तृत रूप से सारी धरती को ढंक दिया है।
उसी प्रकार राजा दिलीप ने अपनी वीरता, तेज और दिव्य रूपी शरीर से सभी को पराजित कर सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने वश में कर लिया था। राजा दिलीप अपने दिव्य रूप एवं तीक्ष्ण बुद्धि से समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। वे अपने सारे काम शास्त्रों के अनुसार ही किया करते थे जिसके कारण उन्हें सफलता प्राप्त होती गई। वे न्यायप्रिय एवं दानी प्रवृत्ति के थे जिसके कारण सारी प्रजा . उनसे डरती थी और उनका सम्मान भी करती थी। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मगरमच्छादि के … भय से लोग समुद्र से दूर भागते. है, परंतु रत्नों आदि को लाने के लिए उसके निकट भी आते हैं। योग्य सारथी द्वारा चलाए गये रथ के पहिये के समान ही राजा दिलीप की प्रजा मनु के द्वारा चलाए नियमों पर ही अपना सारी काम-काज करती थी।”
जिस प्रकार सूर्य की किरणें पृथ्वी के जल को खींचकर पुनः उन्हें हजार गुनों वर्षा के रूप में प्रदान कर समस्त धरा को हरा-भरा बना देता है, उसी प्रकार राजा दिलीप भी प्रजा के लिये गये ‘कर’ को प्रजा के ही हित में इन्द्रादि देवताओं को प्रसन्न करने में लगा देते थे। उनकी सैन्य शक्ति केवल शोभा के लिए नहीं थी वरन् उनके सैनिकों को शास्त्रों का भी उचित ज्ञान प्राप्त था। यही कारण है कि धनर्विधा में वे धनुष की चढी हुई डोरी के साथ-साथ अपनी तीक्ष्ण बुद्धि का भी इस्तेमाल करते थे। वे अपने आचार-विचार तथा हृदय की बातों को किसी के समक्ष कार्य पूरा होने के बाद स्पष्ट करते थे।
वे अपनी एवं अपने प्रजा की रक्षा के लिए साहस का परिचय देते थे वहीं धर्म की रक्षा के लिए धैर्य का। दूसरी ओर लोभरहित धन का संचय करते थे और आसक्ति रहित होकर सांसारिक सुखों का उपभोग भी ज्ञान होने पर भी वे मौन धारण कर शत्रुओं को जीतने की क्षमता रहने पर भी उन्हें क्षमा कर देते। दूसरे का उपकार करने पर भी अपनी प्रशंसा सुनने की इच्छा नहीं रखते थे। सभी गुण उनमें जन्म से ही विद्यमान थे।
प्रश्न 8. भार्गवी वारूणी विद्या पाठभाधृत्य पच्च सरलवाक्येषु अनुच्छेदं लिखत।
उत्तर: प्रस्तुत पाठ तैत्तिरीयोपनिषद् की तृतीय वल्ली से लिया गया है। यह कृष्ण यजुर्वेद की तैतिरीय शाखा को प्रसिद्ध उपनिषद है। इसमें तीन वल्ली है। शिक्षा वल्ली, ब्रह्मानन्द बल्ली, भृगुवल्ली। यह पांठ भृगुवल्ली से लिया गया है। इस वल्ली में वरूण अपने पुत्र भृगु को ब्रह्मविद्या का उपदेश देते है। यही उपदेश इस पाठ में बताया गया है।
भृगु ऋषि पति वरूण के पास जाकर ब्रह्मविद्या का ज्ञान देने के लिए कहते है। अन्न; प्राण चक्षु, श्रोत्र, मन और वचन (ही ब्रह्म है) जैसे-ये पदार्थ जन्म लेते हैं और जिसमें जन्म लेने वाले जीवित रहते हैं। जिसके ज्ञान से प्राप्त होते ही उसे जानने की जिज्ञासा करो वही ब्रह्म है। तप का आचरण करो। वह तप से ही प्राप्त होगा।
अन्न को ही ब्रह्म जानो। प्राण को ही ब्रह्म जानो। प्राण और अन्न से ही जीव पैदा लेते हैं इसे, जानकर पुनः वरूण पिता के पास जाता है और कहता है भगवन् मुझे ब्रह्म की शिक्षा दे। वह तप से ही प्राप्त होगा। इसी प्रकार मन और ज्ञान प्राण, अन्न इन चारों से ही जीव की उत्पत्ति होती है और तप से ब्रह्म की प्राप्ति। इस प्रकार भृगु की जानी हुई विद्या वरूण के द्वारा बतायी गई जो विस्तृत आकाश में प्रतिष्ठित है। जो इसे जानता है वहीं जीवित है। अन्न का उपभोक्ता आनन्द होता है अपने ब्रह्मचर्य से प्रजा और पशुओं द्वारा उसकी कृति भी महान हो जाती है।
प्रश्न 9. भोजराजस्य दानशीलता वर्णनीया।
उत्तर: संस्कृत काव्य संसार में अनेक रस भावज्ञ देखे जाते है जो राजकुल में जन्म लेकर निपुणता के साथ राज्य शासन करते हुए भी विद्यानुरागी और कवित्व प्रिय थे। उनके गुण गौरव विस्तार में अनेक कवियों में काव्यों की रचना की। ऐसे ही महापुरुष 11वीं शताब्दी में धारा नरेश भोजराज थे। उनके विद्यानुराग और कवित्व प्रियता को आधार बनाकर 16वीं शताब्दी में, कवि बल्लालदेव ने भोज प्रबंध नाम काव्य की रचना की। भोजराज बड़े ही प्रतापी दानशील राजा थे। उनके दरवार में बहुत बड़े-बड़े कवि कविता करने आते थे। और राजा भोज उनकी कविता से प्रसन्न होकर उन्हें सहस्रों सिक्के दान में दे देते थे।
एक बार कुछ विद्वान श्रुति-स्मृति में पारंगत राजा भोजराज के कवित्वप्रियता को सुनकर उनके नगर के बाहर कहीं बैठकर कविता करने लगे। उनमें से एक ने कविता का एक चरण पढ़कर कहा “भोजनं देहि राजेन्द्र”। दूसरे ने ‘धृतसूपसमन्वितम्’ ऐसा कहकर बैठे रहे परन्तु इसका उत्तरार्द्ध नहीं पढ़ पाए। इसके उत्तरार्द्ध की खोज करते हुए वे कालिदास के पास आए। और कालिदास को देखकर कहने लगे हम सभी वेदों के ज्ञाता है पर भोजराज हमें कुछ नहीं देते। अतः हमें इसका उत्तरार्द्ध बताए। उनकी बातों को सुनकर कालिदास ने कहा ‘माहिषं च शरच्चंद्र चन्द्रिकाधवलं दधि’ यह सुनकर वे पुनः राजदरबार गये और सभी ने मिलकर कविता पढ़ी। राजा भोज ने सुनकर कहा कि उत्तरार्द्ध कालिदास की रचना है और इस उत्तरार्द्ध के लिए ही एक-एक शब्द के लिए एक-एक लाख रुपए दिये।
इसी प्रकार एक बार राजा भोजराज के नगर में निवास करने की इच्छा से द्रविड़ देश के विद्वानों के लिए राजा ने मंत्री से उनके लिए आवास की व्यवस्था करने को कहा। मंत्री पूरे नगर में घूम आए। पर उन्हें कोई ऐसा मूर्ख व्यक्ति नहीं दिखा जो धन लेकर अपना घर उन पंण्डित को देने के लिए तैयार होता। घूमते-घूमते एक जुलाहे के घर जाकर उसे मूर्ख कहा और घर से निकाल दिया। जुलाहा राजदरबार में जाकर राजा से कहा आपके मंत्री ने मुझे मुर्ख कहकर घर से निकाल दिया। आप ही बताइए कि मैं मूर्ख हूँ या पण्डित। मैं कविता करता हूँ। लेकिन सुन्दर नहीं। परंतु यत्नपूर्वक करता हूँ तो सुंदर करता हूँ। हे महाराज धागों से कपड़े को बुनना ही मेरा व्यवसाय है। मैं रात-दिन परिश्रम कर कमाता हूँ काव्य रचना में महाकवि के समान मेरा अभ्यास नहीं है फिर भी निवेदन करता हूँ। हे राजाओं के मुकटों की मणियों से मुशोभित पैरों की चौकी वाले, हे साहस के चिह्न वाले, मैं कविता करता हूँ, बुनता , हूँ और जीवन निर्वाह करता हूँ।
इस प्रकार राजा भोजराज ने कविता सुन कर जुलाहे की प्रशंसा करते हुए कहा-कैसी सुन्दरतापूर्ण योजना है। कविता करता हूँ, बुनता हूँ और जीवन निर्वाह करता हूँ, तुम धन्य हो, और मैं भी अपने को धन्य मानता हूँ, जिसके राज्य में जुलाहे, कुम्हार, लोहार, शिल्पी और श्रमिक सभी सुंदर काव्य रचना करते हैं।
उसके बाद उसकी प्रशंसा करते हुए राजा ने कहा कविता में माधुर्य सुंदर है। लेकिन कवित्व को विचार कर बोलना चाहिए। यह सुन कर जुलाहा क्रोधित होकर कहा – महाराज उत्तर तो अच्छा है। पर बोलूँगा नहीं। विद्वत धर्म से राजधर्म भिन्न होता है। आप तो कालिदास के सिवा किसी को कवि मानते ही नहीं। कौन है आपकी सभा में कालिदास के अतिरिक्त कविता के तत्व को जानने वाला विद्वान। बचपन में बच्चे, काम क्रीड़ा में स्त्री, स्तुति में कवि, युद्धभूमि में योद्धाओं के अहंकार युक्त वचन प्रशंसनीय होता है। लेकिन हे महाराज बहुत मोह से युक्त आपका कौन है, स्मरण करें।
इसके बाद राजा ने जुलाहे को बहुत सारा धन देकर कहा अपने घर जाओ, पण्डितों को रहने की व्यवस्था मंत्री कहीं और कर लेंगे।
इस प्रकार भोजराज ने अपनी दानशीलता और विद्वता का परिचय दिया।
प्रश्न 10. संस्कृतस्य महत्त्वं वर्णितम्।
उत्तर: संस्कृत भारतवर्ष की आत्मा मानी जाती रही है। न केवल प्राचीन काल में अपितु आधुनिक युग में भी संस्कृत के विशाल वैभव उसके साहित्य में सन्निहित आध्यात्मिक-सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, धार्मिक, भाषिक, वैज्ञानिक तत्वों की आलोचना करते हुए समालोचक गण मुक्त कंठ से संस्कृत के महान् गौरव का गान करते हैं। विश्व के प्राचीन भाषा-साहित्य में संस्कृत अन्यतम है। यह साहित्य हिमालय से हिन्द महासाग़र पर्यन्त भारत के सभी भागों को एक सूत्र में बाँधता है। सम्प्रति विज्ञान के महान् प्रभाव सभी क्षेत्रों में देखे जाते हैं। वे वैज्ञानिक भी उन विषयों के मूल स्रोत संस्कृत साहित्य में ही पाते हैं। आयुर्वेद, ज्योतिष, शुल्बसूत्रादि वैज्ञानिक विषयों का अध्ययन कर वैज्ञानिक चमत्कृत होते हैं।
संसार में भाषा विज्ञान की परम्परा का प्रारम्भ पाश्चात्य साहित्य शास्त्रियों ने संस्कृत साहित्य के अध्ययन से किया। इस साहित्य में न केवल भारतीयों का अपितु विश्व कल्याण की भावना निहित है। संस्कृत भाषा ने वेद-वेदाङ्गों की रचना की गई उसे प्रकाशमय बना गया। रामायण महाभारत जैसे महाकाव्य लिखे गये। उनके यश का गुणगान किया गया। राजनीति के ज्ञाता उसे बड़े रूचिकर ढंग से पढ़ते हैं। जो भारतवर्ष को प्रकाशमान किए हुए हैं। जहाँ नदी, गीता, गाय और दुर्गा भगवती की पूजा आस्तिकों की भक्ति और मुक्ति देने वाली है। यहाँ राम, कृष्ण और बुद्ध का अवतार हुआ। उस पृथ्वी पर भारत की महिमा और संस्कृत की वृद्धि हो।