12th Philosophy

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2

BSEB 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1. जल प्रदूषण क्या है?
उत्तर: जल की भौतिक, रासायनिक तथा जैवीय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जलीय जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को जल प्रदूषण कहते हैं।

जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है परंतु जब मानव जनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में इतना अधिक जमाव हो जाता है कि जल की सहन शक्ति तथा स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता से अधिक हो जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है।

प्रश्न 2. चिकित्सा नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी है। एक समय था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे जिन्हें समाज में भगवान के रूप में माना जाता था। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया, बल्कि वैद्य का गुण भी बताया।

लेकिन आज चिकित्सा ने पेशा का रूप ग्रहण कर लिया है और ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि को बाहर कर दिया है। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके. मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी का कुछ रोग तो अपने-आप ही ठीक हो जाता था।

मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्च तले ही आकर मर जाता है।

प्रश्न 3. मानसिक पर्यावरण क्या है?
उत्तर: मानसिक पर्यावरण ज्ञान संपादन पर्यावरण अथवा क्रिया को कहते हैं। ज्ञान में मन के अंदर एक तरह का पदार्थ विद्यमान रहता है जिसके माध्यम से यथार्थ वस्तु का ज्ञान होता है। इसी को ज्ञान का विषय कहते हैं। हर एक ज्ञान का संकेत अपने से भिन्न किसी वस्तु की ओर होता है। इसी वस्तु को ज्ञान की वस्तु कहते हैं, क्योंकि ज्ञान इसी का होता है।

प्रश्न 4. मोक्ष कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर: भारतीय नैतिक दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति की व्यावहारिक स्तर पर भी सम्भव माना गया है। अगर हम कुछ निश्चित मार्ग को अपनायें तो हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। वैसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों की चर्चा की गयी है, किन्तु हम सुविधा के दृष्टिकोण से इन्हें तीन मार्गों के रूप में उल्लेख कर सकते हैं-

  • ज्ञान मार्ग-जिसके अनुसार ज्ञान के आधार पर मोक्ष संभव माना जाता है।
  • कर्म मार्ग-जिसके अनुसार निष्काम कर्मों के सम्पादन करने से हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
  • भक्ति मार्ग-जिसमें यह माना जाता है कि निष्कपट भक्ति या ईश्वर के ऊपर पूर्ण . आस्था रखकर उनके ऊपर सभी चीजों को छोड़कर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। “

प्रश्न 5. बुद्ध के अनुसार निर्वाण प्राप्ति का मार्ग क्या है?
उत्तर: बुद्ध के अनुसार दुःख की समाप्ति एवं निर्वाण की प्राप्ति के मार्ग में आठ सीढ़ियाँ हैं। इसलिए इसे अष्टांग मार्ग या आष्टांगिक मार्ग कहते हैं। इसके आठ सोपान हैं जिन पर आरूढ़ होकर सत्व जीवन के चरम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। वे इस प्रकार से हैं

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीव,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6. ध्वनि प्रदूषण क्या है?
उत्तर: ध्वनि की भौतिक, रासायनिक तथा जीविय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तन को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।

ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर सरकार द्वारा बनायी कानून भी सख्त होती है। इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण से शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्तियों में असंतोष उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7. नैराश्यवाद क्या है? व्याख्या करें।
उत्तर: कतिपय विचारकों ने भारतीय दर्शन को निराशावादी दर्शन कहकर आलोचना का विषय बनाया है। लॉर्ड रोनाल्डशॉ का विचार है कि “निराशावाद समस्त भारतीय भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में व्याप्त है।” चेले ने अपनी पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेटिव प्राब्लम्स’ में लिखा है कि “भारतीय दर्शन आलस्य और शाश्वत विश्राम की कामना से उत्पन्न हुआ है।”

निराशा का अभिप्राय-निराशा से अभिप्राय सांसारिक जीवन को दु:खमय समझना है। निराशा मन की एक प्रवृत्ति है जो जीवन को दुःखमय समझती है। भारतीय दर्शन को इस अर्थ में निराशावादी कहा जा सकता है कि उसकी उत्पत्ति भौतिक संसार की वर्तमान परिस्थितियों के प्रति असंतोष के कारण हुई है, भारतीय दर्शनों ने संसार को दुःखमय कहकर मनुष्य के जीवन को दुःख से परिपूर्ण प्रतिपादित किया है। संसार दु:खमय है। भारतीय दार्शनिक संसार की इस दु:खमय अवस्था का विश्लेषण करता है न केवल अपने जीवन के दु:खमय होने से ही वरन् कहीं-कहीं साक्षात् आशा को भी धिक्कारा गया है। निराशावाद की प्रशंसा की गयी है। एक स्थान पर कहा गया है कि
तेनपधीतं श्रुतं तै सर्वत्रमनुष्ठिन्।
ये नाशय पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यमबलम्बित्तम।।
अर्थात् पढ़ना, लिखना तथा अनुष्ठान उसी का सफल है जो आशाओं से पिंड छुड़ाकर निराशा का सहारा पकड़ता है।

आशा को आशीविषी भी कहा है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है कि “यदि निराशावाद से तात्पर्य जो कुछ है और जिसकी सत्ता हमारे सामने है उसके प्रति असंतोष से है तो भले ही इसे केवल इन अर्थों में निराशावादी कहा जाये। इन अर्थों में तो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र निराशावादी. कहला सकता है।”

प्रश्न 8. जैन दर्शन के जीव विचार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: जैन-दर्शन के अनुसार चेतन द्रव्य को जीव या आत्मा कहते हैं। संसार की दशा से आत्मा जीव कहलाता है। उसमें प्राण और शारीरिक, मानसिक तथा इन्द्रिय शक्ति है। शुद्ध अवस्था में जीव में विशुद्ध ज्ञान और दर्शन अर्थात् सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान रहता है। किन्तु कर्म के प्रभाव से जीव, औपशमिक, क्षायिकक्षायों, पशमिक औदायिक तथा परिमाणिक इन पाँच भावप्राणों से युक्त रहता है। द्रव्य रूप में परिणत होकर ही भाक्दशापन्न प्राण पुदगल कहलाता है। अतः भाव द्रव्य में और द्रव्य भाव में परिवर्तित होते रहते हैं।

जीव स्वयं प्रकाश है और अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। वह नित्य है। वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शुद्ध दृष्टि से जीव में ज्ञान तथा दर्शन है। जीव अमूर्त, कर्ता, स्थूल शरीर के समान लम्बा-चौड़ा कर्मफलों का भोक्ता सिद्ध तथा ऊर्ध्वगामी है। अनादि अविद्या के कारण उसमें कर्म प्रवेश करता है और बन्धन में बंध जाता है। बुद्ध जीव, चेतन और नित्य परिणामी है। संकोच और विकास के गुणों के कारण वह जिस शरीर में प्रवेश करता है उसी का रूप धारण कर लेता है। जीव का विस्तार जड़ के विस्तार से भिन्न है। वह शरीर को घेरता नहीं परन्तु उसका प्रत्येक भाग में अनुभव होता है। एक जड़ द्रव्य में दूसरा जड़ द्रव्य प्रविष्ट नहीं हो सकता। परन्तु जड़ में आत्मा और जीव में जीव प्रविष्ट हो सकता है।

प्रश्न 9. जैन दर्शन के विरल की व्याख्या करें।
उत्तर: जैन दर्शन में त्रिरत्न सिद्धांत का बड़ा ही महत्व है। इसके अंतर्गत तीन प्रकार के सम्प्रत्ययों को सम्मिलित किया जाता है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र। सम्यक् ज्ञान जैन आगमों का ज्ञान है, सम्यक् दर्शन आगमों (जैनी ग्रंथों) एवं तीर्थकरों में आस्था है और सम्यक चरित्र अनुशासन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह शामिल है।

प्रश्न 10. देकार्त के दर्शन में ईश्वर क्या है?
उत्तर: देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए दो प्रकार के प्रस्तावों को प्रस्तुत किया हैं-कारर्ण कार्य पर आधारित प्रमाण तथा सत्तामूलक प्रमाण। कारण कार्य प्रमाण के अनुसार मानव कार्य है। उसका कार्य भी होगा। मानव में पूर्ण, नित्य, शाश्वत, ईश्वर की भावना है, अत: मानव के अंदर पूर्ण ईश्वर की भावना को अंकित करने वाला भी पूर्ण, नित्य एवं शाश्वत पूर्ण ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी ओर सत्तामूलक प्रमाण में देकार्त का मानना है कि ईश्वर प्रत्यय में ही ईश्वर का अस्तित्व निहित है।

ईश्वर की भावना है कि वह सब प्रकार से पूर्ण हैं। ‘पूर्णता’ से ध्वनित होता है कि उसकी वास्तविकता भी अवश्य होगी। कारण-कार्य प्रमाण के संबंध में वह आपत्ति है कि ईश्वर मानव विचारों और जगत् से परे स्वतंत्र सत्यता है जिसमें कारण-कार्य की कोटि लागू नहीं होती है। इसी तरह सत्तामूलक प्रमाण के संबंध में कहा जाता है कि भावना से वास्तविकता सिद्ध नहीं होती है।

प्रश्न 11. लोक संग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: सुख सुविधा हेतु द्रव्यों का संग्रहण लोक संग्रह कहलाता है।

प्रश्न 12. चित्रवृत्तियाँ क्या हैं?
उत्तर: दो वस्तुओं के बीच प्राप्ति का एक आवश्यक संबंध जो व्यापक माना जाता है, चित्तवृत्तियाँ कहलाती हैं।

प्रश्न 13. विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर: विश्व का निर्माण प्रकृति या सृष्टि ने किया है। प्रकृति जड़ है अकेली है किन्तु सक्षम है विश्व का निर्माण करने के लिए। यह विश्वमूलक प्रमाण है।

प्रश्न 14. वैशेषिक के अनुसार पदार्थ क्या है?
उत्तर: वैशेषिक दर्शन में पदार्थ (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। पदार्थ वह है, जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही पदार्थ कहलाता है। गुण और कर्म पदार्थ में रहते हुए भी पदार्थ से भिन्न है। पदार्थ गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

प्रश्न 15. काण्ट के ज्ञान-विचार को समीक्षावाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर: जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are justified in what they affirm but wrong in what they deny”| अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है।

फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।

प्रश्न 16. कारण और हेतु में क्या अन्तर है?
उत्तर: आगमन में कारण का एक हिस्सा हेतु बताया गया है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग है और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं, उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और हेतु में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और हेतु कई हैं।
(ख) कारण अंश रूप में रहता है और हेतु सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं।
इस तरह कारण और हेतु में अंतर है।

प्रश्न 17. लोकप्रिय वस्तुवाद की परिभाषा दें।
उत्तर: प्रिय वस्तु सभी को प्रिय लगती है। भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में वे भौतिक साधन जिसके आधार पर हम जीवन यापन करते हैं। इनका असीम रूप से अर्जन लोकप्रिय वस्तुवाद कहलाता है।

प्रश्न 18. पीनीयल ग्रंथि किसे कहते हैं?
उत्तर: हाइपोथेलेमस स्थित ग्रंथि की पीनीयल ग्रंथि कहा जाता है। इससे बुद्धि हार्मोन स्रावित होता है।

प्रश्न 19. नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ की व्याख्या करें।
उत्तर: शुभ से तात्पर्य मनुष्य के उन लक्ष्यों से है जिसके द्वारा वह अपना जीवन निर्विघ्नता से जी सके। वह जो भी कार्य करे शुभ हो। शुभ समाप्त हो। शुभ शुरूआत हो आदि। इस शुभ की इच्छा ही नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ बन जाती है।

प्रश्न 20. व्यावहारिक दर्शन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: व्यावहारिक दर्शन का अर्थ है ज्ञान, प्रेम या अनुराग। वह दर्शन जिसमें व्यावहारिक रूप से पदार्थ सम्पूर्णता में हमारे पास हो।

प्रश्न 21. यम क्या है?
उत्तर: यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य अभ्यांतर इंद्रिय के संयम की क्रिया को यम कहा जाता है। यम पाँच प्रकार के होते हैं-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. आस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. अपरिग्रह।

प्रश्न 22. अनासक्त कर्म पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर: गीता का कर्मयोग हमें त्याग की शिक्षा नहीं देता बल्कि फल त्याग की शिक्षा देती है गीता का यह उपदेश व्यवहारिक दृष्टिकोण से भी सही है यदि हम किसी फल की इच्छा से कर्म करना प्रारम्भ करते हैं तो फल की चाह इतनी अधिक हो जाती है कि कर्म में भी हम सही से काम नहीं कर पाते हैं किन्तु कर्म फल त्याग की भावना से अगर हम कर्म करते हैं तो उससे उसका फल और अधिक निश्चित हो जाता है।

प्रश्न 23. स्याद्वाद का अर्थ बतावें।
उत्तर: स्याद्वाद जैन दर्शन के प्रमाण शास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अन्नत गुण होते हैं मानव वस्तु के एक ही गुण का ध्यान एक समय पा सकता है वस्तुओं के अन्नत गुणों का ज्ञान मुक्त व्यक्ति द्वारा सम्भव है समान मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आशिक होता है। वस्तु के आशिक ज्ञान को (नय) किसी वस्तु के समझने के विविध दृष्टिकोण है इनसे सापेक्ष सत्य की प्राप्ति होती है न कि निरपेक्ष सत्य की।

प्रश्न 24. न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या कितनी है?
उत्तर: न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या चार है जो निम्नलिखित है

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाप (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Authority)।

प्रश्न 25. प्रकृति के तीन गुणों के नाम बतावें।
उत्तर: प्रकृति के तीन गुणों के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. सत्त्व
  2. रजस्
  3. तमस्।

प्रश्न 26. पदार्थ की परिभाषा दें।
उत्तर: पदार्थ शब्द “पद” और “अर्थ” शब्दों के मेल से बना है पदार्थों का मतलब है जिसका नामकरण हो सके जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है पदार्थ के अधीन वैशेशिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

प्रश्न 27. क्या जगत् पूर्णतः असत्य है? व्याख्या करें।
उत्तर: शंकर ने जगत को पुर्णतः सत्य नहीं माना है शंकर की दृष्टि में ब्राह्म ही एक मात्र सत्य है शेष सभी वस्तुएँ ईश्वर, जीव, जगत प्रपंच है शंकर ने जगत को रस्सी में दिखाई देने वाले ताप को तरह माना है।

प्रश्न 28. माया के दो कार्यों को बतावें।
उत्तर: माया के दो कार्य है-आरोण और विछेपण जैसे माया रस्सी के असली रूप को ढक देती है आरोण हुआ फिर उसका दूसरा रूप विछेपण सांप के रूप दिखाती है ठीक उसी प्रकार माया ब्राह्म के वास्तविक स्वरूप पर आग्रण डाल देती है और उसका विश्लेषण जगत के रूप में प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 29. बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर: बुद्धिवाद के अनुसार वास्तविक ज्ञान का स्रोत तर्क चिंतन है ज्ञान का विषय संसार के अस्थाई और परिवर्तनशील तथ नहीं है यर्थात ज्ञान का उत्पत्ति बुद्धि से होती है और बुद्धि के अलावा इसका अन्य कोई साधन नहीं है।

प्रश्न 30. काण्ट के आलोचनात्मक दर्शन को रेखांकित करें।
उत्तर: काण्ट क आलोचनात्मक दर्शन में ज्ञानशक्तियों का समीक्षा प्रस्तुत की गई है साथ ही 17वीं और 18वीं शताब्दी के इन्द्रीयवाद एवं बुद्धिवाद की समिक्षा हैं विचार सामग्री के अरजन में इन्द्रीयों की माध्यमिकता को स्वीकृती में काण्ट इन्द्रीवासियों से सहमत था।

प्रश्न 31. अरस्तू के उपादान कारण की चर्चा करें।
उत्तर: अरस्तु के अनुसार किसी वस्तु के बनाने में द्रव्य की आवश्यकता होती है बिना द्रव्य के वह चीज नहीं बन सकती है अतः द्रव्य किसी वस्तु के बनाने में कारण होता है जैसे टेबूल के बनाने में जिस वस्तु की सहायता ली जाती है वह उपादान कारण है।

प्रश्न 32. क्या ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है?
उत्तर: ईश्वर ब्राह्म का सर्वोच्च आभास है ईश्वर का व्यक्तित्वपूर्ण है। वे सर्वपूर्ण सम्पन्न है उनका स्वरूप सच्चीदानन्द है सत् चित् और आनन्द तीन गुण नहीं है अपीतू एक और ईश्वर स्वरूप है ईश्वर माया पति है माया के स्वामी है। वे सृष्टि के कर्ता हर्ता है। इसलिए ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण नहीं है।

प्रश्न 33. पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त क्या है?
उत्तर: पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त के अन्तर्गत कहा गया है कि बिना खिड़कियों वाले अनेक कमरे होते हैं जिनमें परस्पर कोई समवाद नहीं होता परन्तु पूर्व-स्थापित सामंजस्य के कारण आपस में बिना किसी टकराव अथवा द्वन्द्व के वे एक साथ रहते हैं।

प्रश्न 34. क्या पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है?
उत्तर: नीतिशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान होने के नाते इस बात की भी अध्ययन करता है की मनुष्य या समाज के बीच एक पूर्ण संबन्ध हो तथा व्यक्ति के अधिकार एवं कर्तव्य उचित कार्यों के लिए पुरष्कार और अनुचित डंड का निर्धारण भी करता है नीतिशास्त्र में पर्यावरण सम्बन्ध 7 बातों का भी अध्ययन किया जाता है इसलिएए पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है।

प्रश्न 35. शिक्षा दर्शन की एक विशेषता पर प्रकाश डालें।
उत्तर: शिक्षा दर्शन की एक विशेषता के अन्तर्गत शिक्षा लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साध न है यदि दर्शन जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है तो शिक्षा उस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है। दर्शन तथा शिक्षा का घनिष्ट सम्बन्ध है।

प्रश्न 36. भारतीय दर्शन में कितने प्रमाण स्वीकृत हैं?
उत्तर: भारतीय दर्शन में निम्नलिखित चार प्रमाण स्वीकृत है-

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाण (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Autority)।

प्रश्न 37. योगज प्रत्यक्ष क्या है?
उत्तर: योगज प्रत्यक्ष एक ऐसा प्रत्यक्ष है जो भूत, वर्तमान और भविष्य के गुण तथा सूक्ष्म, निकट तथा दुरस्त सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात अनुभूती कराता है। यह एक ऐसी शक्ति है जिसे हम घटा बढ़ा सकते हैं जब यह शक्ति बढ़ जाती है तो हम दूर की चीजे तथा सूक्ष्म चीजों को भी प्रत्यक्ष कर पाते हैं। यहि स्थिति योगज प्रत्यक्ष कहलाता है।

प्रश्न 38. भारतीय दर्शन के आस्तिक सम्प्रदाय के बारे में आप क्या जानते हैं ?) अथवा, भारतीय दर्शन में आस्तिक सम्प्रदाय किसे कहते हैं 
उत्तर: भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को दो भागों में बाँटा गया है। वे हैं-आस्तिक एवं. नास्तिक।
व्यावहारिक जीवन में आस्तिक का अर्थ है–ईश्वरवादी तथा नास्तिक का अर्थ है-अनीश्वरवादी। ईश्वरवादी का मतलब ईश्वर में आस्था रखनेवालों से है। लेकिन दार्शनिक विचारधारा में आस्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है, जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करता हो। इस प्रकार, आस्तिक का अर्थ है वे का अनुयायी। इस प्रकार, भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक माना जाता है। वे हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन किसी-न-किसी रूप में वेद पर आधारित हैं।

प्रश्न 39. नास्तिक सम्प्रदाय के बारे आप क्या जानते हैं ?
उत्तर: व्यावहारिक जीवन में नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा में नास्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। यहाँ नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद को प्रमाण नहीं मानता है। नास्तिक दर्शन के अन्दर चर्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है। इस प्रकार नास्तिक दर्शन की संख्या तीन है।

प्रश्न 40. भगवद्गीता में कर्मयोग के अर्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर: गीता का मुख्य विषय कर्म-योग है। गीता में श्रीकृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को निरन्तर कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। गीता में सत्य की प्राप्ति के निमित्त कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिए किया जाता है, सफल कर्म की श्रेणी में नहीं आते हैं। गीता में कर्म से विमुख होने को महान मूर्खता की संज्ञा दी गयी है। व्यक्ति को कर्म के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की बात की गयी है साथ ही कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करने की बात भी कही गयी है। गीता में कर्मयोग को ‘निष्काम कर्म’ की भी संज्ञा दी गयी है। इसका अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। डॉ. राधाकृष्णन ने कर्मयोग को गीता का मौलिक उपदेश कहा है।

प्रश्न 41. अष्टांगिक-मार्ग में सम्यक् दृष्टि का क्या अर्थ है ?
उत्तर: गौतम बुद्ध ने दुख का मुख्य कारण अविद्या को माना है। अविद्या से मिथ्या-दृष्टि . :(Wrong views) का आगमन होता है। मिथ्या-दृष्टि का अन्त सम्यक् दृष्टि (Right views) से ही
संभव है। अत: बुद्ध ने सम्यक् दृष्टि को अष्टांगिक मार्ग की पहली सीढ़ी माना है। वस्तुओं के यथार्थ .स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि का मतलब बुद्ध के चार आर्य सत्यों
का यथार्थ ज्ञान भी है। आत्मा और विश्व सम्बन्धी दार्शनिक विचार मानव को निर्वाण प्राप्ति में बाधक का काम करते हैं। अत: दार्शनिक विषयों के चिन्तन के बदले निर्वाण के लिए बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों के अनरूप विचार ढालने को आवश्यक माना।

प्रश्न 42. जैन-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर: जैन-दर्शन, बौद्ध-दर्शन की तरह छठी शताब्दी के विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जा सकते हैं। जैन मत के प्रवर्तक चौबीसवें तीर्थंकर थे। ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। जैनमत के विकास और प्रचार का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर को जाता है। बौद्ध की तरह जैन दर्शन भी वेद-विरोधी हैं। इसलिए बौद्ध-दर्शन की तरह जैन दर्शन को भी नास्तिक कहा जाता है। इसी तरह जैन-दर्शन भी ईश्वर में अविश्वास करता है। दोनों दर्शनों में अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। जैन-दर्शन में भी मुख्य दो सम्प्रदाय हैं। वे हैं-श्वेताम्बर तथा दिगम्बर। जैन-दर्शन का योगदान प्रमाण-शास्त्र तथा तर्क-शास्त्र के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं।

प्रश्न 43. बौद्ध-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर: बौद्ध-दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं। बोधि (Cenlightment) यानि तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद वे बुद्ध कहलाए। उन्हें तथागत और अहर्ता की संज्ञा भी दी गयी। बुद्ध के उपदेशों के फलस्वरूप बौद्ध-धर्म एवं बौद्ध-दर्शन का विकास हुआ। बौद्ध-दर्शन के अनेक अनुयायी थे। उन अनुयायियों में मतभेद रहने के कारण बौद्ध-दर्शन की अनेक शाखाएँ निर्मित हो गयी जिसके फलस्वरूप उत्तरकालीन बौद्ध-दर्शन में दार्शनिक विचारों की प्रधानता बढ़ी। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने उपदेशों का संग्रह त्रिपिटक में किया। त्रिपिटक की रचना पाली . साहित्य में की गई है।

सुत्तपिटक, अभिधम्म पिटक और विनय पिटक तीन पिटकों के नाम हैं। सुत्त पिटक में धर्म सम्बन्धी बातों की चर्चा है। बौद्धों की गीता ‘धम्मपद’ सुत्तपिटक का ही एक अंग है। अभिधम्म पिटक में बुद्ध के दार्शनिक विचारों का संकलन है। इसमें बुद्ध के मनोविज्ञान सम्बन्धी विचार संग्रहीत है। विनयपिटक में नीति-सम्बन्धी बातों की व्याख्या हुई है।

प्रश्न 44. न्याय-दर्शन के आधार पर ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
अथवा, (भारतीय दर्शन में ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर: जिस किसी शब्द में अर्थ या संकेत की स्थापना हो जाती है, उसे ‘पद’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में शक्तिमान शब्द को हम पद कहते हैं। किसी पद या शब्द में निम्नलिखित अर्थ या संकेत को बतलाने की शक्ति होती है-
(अ) व्यक्ति-विशेष (Individual)-यहाँ ‘व्यक्ति’ का अर्थ है वह वस्तु जो अपने गुणों के साथ प्रत्यक्ष हो सके। जैसे–’गाय’ शब्द को लें। वह द्रव्य या वस्तु जो गाय के सभी गुणों की उपस्थिति दिखावे गाय के नाम से पुकारी जाएगी। न्याय-सूत्र के अनुसार गुणों का आधार-स्वरूप जो मूर्तिमान द्रव्य है, वह व्यक्ति है।

(ब) जाति-विशेष (Universal)-अलग-अलग व्यक्तियों में रहते हुए भी जो एक समान गुण पाये जाए, उसे जाति कहते हैं। पद में जाति बताने की भी शक्ति होती है। जैसे-संसार में ‘गाय’ हजारों या लाखों की संख्या में होंगे लेकिन उन सबों की ‘जाति’ एक ही कही जाएगी।

(स) आकृति-विशेष (Form)-पद में आकृति (Form) को बतलाने की शक्ति होती है। आकृति का अर्थ है, अंगों की सजावट। जैसे–सींग, पूँछ, खूर, सर आदि हिस्से को देखकर हमें ‘जानवर’ का बोध होता है। उसी तरह, दो पैर, दो हाथ, दो आँखें, शरीर, सर आदि को देखकर आदमी (मानव) का बोध होता है।

प्रश्न 45. पदार्थ-प्रत्यक्ष का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर: किसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सामने कोई पदार्थ वस्तु या द्रव्य हो। जब हमारे सामने ‘गाय’ रहेगी तभी हमें उसके सम्बन्ध में किसी तरह का प्रत्यक्ष भी हो सकता है। अगर हमारे सामने कोई पदार्थ या वस्तु नहीं रहे तो केवल ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रत्यक्ष का निर्माण कर सकती है। इसलिए प्रत्यक्ष के लिए बाह्य पदार्थ या वस्तु का होना आवश्यक है। न्याय दर्शन में सात तरह के पदार्थ बताए गए हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव। इनमें ‘द्रव्य’ को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसके बाद अन्य सभी द्रव्य पर आश्रित हैं।

प्रश्न 46. उपमान एवं अनुमान के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करें।
अथवा, (उपमान एवं अनुमान के बीच क्या सम्बन्ध है ?)
उत्तर: अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है, लेकिन अनुमान प्रत्यक्ष से बिल्कुल ही भिन्न क्रिया है। अनुमान का रूप व्यापक है। उसमें उसका आधार व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal rclation) रहता है, जिसमें निगमन यानि निष्कर्ष में एक बहुत बड़ा बल रहता है तथा वह सत्य होने का अधिक दावा कर सकता है। दूसरी ओर, उपमान भी प्रत्यक्ष पर आधारित है लेकिन अनुमान की तरह व्याप्ति-सम्बन्ध से सहायता लेने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता है। उपमान से जो कुछ ज्ञान हमें प्राप्त होता है, उसमें कोई भी व्याप्ति-सम्बनध नहीं बतलाया जा सकता है। अतः उपमान से जो निष्कर्ष निकलता है वह मजबूत है और हमेशा सही होने का दाबा कभी नहीं कर सकता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुमान को उपमान पर उस तरह निर्भर नहीं करना पड़ता है जिस तरह उपमान अनुमान पर निर्भर करता है। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों में ‘उपमान’ को ही बताकर अनुमान का ही एक रूप बताया गया है। अगर हम आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि उपमान भले ही ‘अनुमान’ से अलग रखा जाए लेकिन अनुमान का काम ‘उपमान’ में हमेशा पड़ता रहता है।

प्रश्न 47. प्रथम पदार्थ के रूप में द्रव्य की चर्चा करें।
उत्तर: द्रव्य कणाद का प्रथम पदार्थ है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार है। द्रव्य के बिना गुण एवं कर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार हाने के अतिरिक्त अपने कार्यों का समवायिकरण (material cause) है। उदाहरण के लिए-सूत से कपड़ा का निर्माण होता है। अतः सूत को कपड़े का समवायि कारण कहा जाता है। द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं। वे हैं-पृथ्वी अग्नि, वायु, जल, आकाश, दिक् काल, आत्मा एवं मन। इन द्रव्यों में पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश को पंचभूत कहा जाता है। पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के परमाणु नित्य हैं तथा उनसे बने कार्य-द्रव्य अनित्य हैं। परमाणु दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।

परमाणुओं का अस्तित्व, अनुमान से प्रमाणित होता है। परमाणु का निर्माण एवं नाश असंभव है। पाँचवाँ भौतिक द्रव्य ‘आकाश’ परमाणुओं से रहित है। ‘शब्द’ आकाश का गुण है। सभी भौतिक द्रव्यों का अस्तित्व ‘दिक्’ और ‘काल’ में होता है। दिक् और काल के बिना भौतिक द्रव्यों की व्याख्या असंभव है।

प्रश्न 48. सांख्य-दर्शन में सांख्य के अर्थ की व्याख्या करें।
उत्तर: सांख्य-दर्शन में ‘सांख्य’ नामकरण के सम्बन्ध में दार्शनिकों के बीच, अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ शब्द ‘सं’ और ख्या’ के संयोग से बना है। ‘स’ का अर्थ सम्यक् तथा ‘ख्या’ का अर्थ ज्ञान होता है। अत: सांख्य का वास्तविक अर्थ ‘सम्यक् ज्ञान’ हुआ। सम्यक् ज्ञान का अभिप्राय पुरुष और प्रकृति के बीच भिन्नता का ज्ञान होता है। दूसरी ओर कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ नाम ‘संख्या’ शब्द से प्राप्त हुआ है। सांख्य-दर्शन का सम्बन्ध संख्या से होने के कारण ही इसे सांख्य कहा जाता है।

सांख्य दर्शन में तत्त्वों की संख्या बतायी गयी है। तत्वों की संख्या पचीस बतायी गयी है। एक तीसरे विचार के अनुसार ‘सांख्य’ को सांख्य कहे जाने का कारण सांख्य के प्रवर्तक का नाम ‘संख’ होना बतलाया जाता है। लेकिन यह विचार प्रमाणित नहीं है। महर्षि कपिल को छोड़कर अन्य को सांख्य का प्रवर्तक मानना अनुचित है। सांख्य-दर्शन वस्तुतः कार्य-कारण पर आधारित है।

प्रश्न 49. सांख्य-दर्शन में ‘सत्व’ के अर्थ बतावें।
उत्तर: सांख्य दर्शन में गुण तीन प्रकार के होते हैं। वे हैं-सत्व, रजस् और तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह खुद प्रकाशमय है तथा दूसरों को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण ही मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत (उजला) है। यह सुख का कारण होता है। सत्व के कारण ही सूर्य पृथ्वी को प्रकाशित करता है तथा ऐनक में प्रतिबिम्ब की शक्ति होती है। इसका स्वरूप हल्का तथा छोटा (लघु) होता है। सभी हल्की वस्तुओं तथा धुएँ का ऊपर की दिशा में गमन ‘सत्व’ के कारण ही संभव होता है। सभी सुखात्मक अनुभूति यथा हर्ष, तृप्ति, संतोष, उल्लास आदि सत्य के ही कार्य माने जाते हैं।

प्रश्न 50. ब्रह्म के सम्बन्ध में शंकर के भावात्मक विचार को स्पष्ट करें।

अथवा, (‘सच्चिदानन्द’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर: शंकर ने ‘ब्रह्म’ की निषेधात्मक व्याख्या के अतिरिक्त भावात्मक विचार भी दिए हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म सत् (real) है जिसका अर्थ हुआ कि वह असत् (Un-real) नहीं है। वह चित् (Conscisouness) है जिसका अर्थ कि वह अचेत् नहीं है। वह आनन्द (bliss) है जिसका अर्थ है कि वह दुःख स्वरूप नहीं है। अतः ब्रह्म सत्, चित् और आनन्द है यानि सच्चिदानन्द है। सत्, चित् और आनन्द में अवियोज्य सम्बन्ध है। इसीलिए ये तीनों मिलकर एक ही सत्ता का निर्माण करते हैं। शंकर ने यह भी बतलाया कि ‘सच्चिदानन्द’ के रूप में जो ब्रह्म की व्याख्या की जाती है वह अपूर्ण है। हालाँकि भावात्मक रूप से सत्य की व्याख्या इससे और अच्छे ढंग से संभव नहीं है।

प्रश्न 51. शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व के क्या प्रमाण दिये?
उत्तर: शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कुछ प्रमाण दिए हैं। उन्हें हम . श्रुति प्रमाण, मनोवैज्ञानिक प्रमाण, प्रयोजनात्मक प्रमाण, तात्विक प्रमाण तथा अपरोक्ष अनुभूतिप्रमाण कहा जाता है। श्रुति प्रमाण के अन्तर्गत शंकर के दर्शन का आधार उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र है। उनके अनुसार इन ग्रन्थों के सूत्र में ब्रह्म के अस्तित्व का वर्णन है अतः ब्रह्म है। इसी मनोवैज्ञानिक प्रमाण के अन्तर्गत शंकर ने कहा है कि ब्रह्मा सबकी आत्मा है। हर व्यक्ति अपनी आत्मा के अस्तित्व को अनुभव करता है। अतः इससे भी प्रमाणित होता है कि ब्रह्म का अस्तित्व है।

प्रयोजनात्मक प्रमाण के अन्तर्गत कहा गया है कि जगत् पूर्णतः व्यवस्थित है। इस व्यवस्था का कारण जड नहीं कहा जा सकता। अतः व्यवस्था का एक चेतन कारण है. उसे ही हम ब्रह्म कहते हैं। इसी तरह तात्त्विक प्रमाण के अन्तर्गत बताया गया है कि ब्रह्म वृह धातु से बना है जिसका अर्थ है वृद्धि। ब्रह्म की सत्ता प्रमाणित होती है। अन्ततः ब्रह्म के अस्तित्व का सबसे सबल प्रमाण अनुभूति है। वे अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा जाने जाते हैं। अपरोक्ष अनुभूति के फलस्वरूप सभी प्रकार के द्वैत समाप्त हो जाते हैं तथा अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

प्रश्न 52. शंकर के ‘आत्मा’ की अवधारणा को स्पष्ट करें।
अथवा, (आत्मा और ब्रह्म के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करें।)
उत्तर: शंकर आत्मा को ब्रह्म की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार दोनों एक ही वस्तु के दो भिन्न-भिन्न नाम है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। आत्मा स्वयं सिद्ध (Axioms) अतः उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा देश, काल और कारण-नियम की सीमा से परे हैं। वह त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है। शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। शंकर ने एक ही तत्त्व को आत्मनिष्ठ दृष्टि से ‘आत्मा’ तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म कहा है। शंकर आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य को ‘तत्तवमसि’ (that thou art) से पुष्टि करता है।

प्रश्न 53. कारण के परिमाणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर: परिमाण के अनुसार कारण और कार्य के बीच मुख्यतः तीन प्रकार के विचार बताए गए हैं-
(क) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में अधिक हो सकता है,
(ख) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कम हो सकता है,
(ग) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कभी अधिक और कभी कम हो सकता है।

अतः, इन तीनों को असत्य साबित किया गया है। यदि कारण अपने कार्य से कभी अधिक और कभी कम होता है तो इसका यही अर्थ है कि प्रकृति में कोई बात स्थिर नहीं है। किन्तु, प्रकृति में स्थिरता में समरूपता है, अत: यह संभावना भी समाप्त हो जाता है।

इसी तरह पहली और दूसरी संभावना भी समाप्त हो जाती है। ये तीनों संभावनाएँ निराधार हैं। अतः, निष्कर्ष यही निकलता है कि कारण-कार्य मात्रा में बराबर होते हैं और यही सत्य भी है।

प्रश्न 54. कारणों का संयोग की व्याख्या करें।
उत्तर: जब बहुत से कारणं मिलकर संयुक्त रूप से कार्य पैदा करते हैं तो वहाँ पर कारणों के मेल को कारण-संयोग कहा जाता है। यह भी कारण-कार्य नियम के अंतगर्त पाया जाता है। जैसे-भात-दाल, सब्जी, दूध, दही, घी, फल आदि खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए खून यहाँ बहुत से कारणों के मेल से बनने के कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ तथा दाल, भात आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहा जाता है। अतः, कारणों के संयोग और कार्यों के सम्मिश्रण में अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 55. कारण और उपाधि की तुलना करें।
उत्तर: आगमन में कारण का एक हिस्सा स्थित बतायी गई है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग हैं और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और उपाधि में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और उपाधि कई हैं।
(ख)कारण अंश रूप में रहता है और उपाधि सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं। इस तरह कारण और उपाधि में अंतर है।

प्रश्न 56. भावात्मक कारणांश या उपाधि क्या है?
उत्तर: भावात्मक कारणांश उपाधि का एक भेद है। उपाधि प्रायः दो तरह के हैं-भावात्मक तथा अभावात्मक। ये दोनों मिलकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। यह कारण का वह भाग या हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जाता है। इसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-नाव का डूबना एक घटना है, इसमें भावात्मक उपाधि इस प्रकार है-एकाएक आँधी का आना, पानी का अधिक होना, नाव का पुराना होना तथा छेद रहना, वजन अधिक हो जाना आदि ये सभी भावात्मक उपाधि के रूप में जिसके कारण नाव पानी में डूब गई।

प्रश्न 57. सत्ता या तत्त्व सम्बन्धी प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर: अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईबनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की धारणा है. अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है।

संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की. जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 58. विश्व सम्बन्धी प्रमाण की आलोचना काण्ट ने कैसे की?
उत्तर: काण्ट के अनुसार वैश्विक प्रमाण को आनुभविक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आपातकाल वस्तुओं को कोई इन्द्रियानुभविक लक्षण नहीं है। यह अनुभव वस्तुओं का अतिसामान्य अमूर्त लक्षण है जिसे अनुभवाश्रित मुश्किल से कहा जा सकता है। वैश्विक प्रमाण का मुख्य उद्देश्य यही है कि यह अनिवार्य सत्ता के प्रत्यय (Idea) को स्थापित करे तथा इस अनिवार्य सत्ता से ईश्वर की वास्तविकता सिद्ध करे। ऐसा करने पर यह सत्तामूलक प्रमाण का रूप धारण कर लेता है।

जिस प्रकार पूर्ण (perfect) ईश्वर की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार वैश्विक प्रमाण वस्तुतः सत्तामूलक प्रमाण का ही छुपा रूपं है, अतः यह सिद्धान्त भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं सिद्ध कर पाता है।

प्रश्न 59. उद्देश्य मूलक प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर: उद्देश्य मूलक प्रमाण के अनुसार जहाँ तक मानव का अनुभव प्राप्त होता है, वहाँ तक सम्पूर्ण विश्व में क्रम व्यवस्था, साधन-साध्य की सम्बद्धता दिखाई देती है। अतः प्राकृतिक समरूपता व्यवस्था, सौन्दर्य आदि से स्पष्ट होता है कि कोई परम सत्ता है, जिसने इस विश्व की रचना अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए की है। काण्ट ने इस प्रमाण को भी उपयुक्त नहीं माना। उनके अनुसार उद्देश्य मूलक प्रमाण से इतना ही सिद्ध हो पाता है कि विश्व का कोई शिल्पकार (architect) है, न कि इस विश्व का कोई सृष्टिकर्ता। सृष्टिकर्ता वह है जो विश्व के उपादान और उसके रूप दोनों का रचयिता हो। वस्तुतः उद्देश्य मूलक प्रमाण से अपरिमित, निरपेक्ष, परम सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। काण्ट की दृष्टि में सभी प्रमाण अन्त में सत्तामूलक प्रमाण के ही विभिन्न चरण हैं।

प्रश्न 60. मन-शरीर समस्या के सम्बन्ध में आधुनिक विचार क्या है?
उत्तर: मन-शरीर के सम्बन्ध की विवेचना एक जटिल दार्शनिक समस्या है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार शारीरिक प्रक्रियाओं के अतिरिक्त मन की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं : किया जा सकता है। इस दृष्टि से मन और शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। शारीरिक या मानसिक प्रक्रियाओं के तंत्र को ही ‘मन’ की संज्ञा दी जाती है। लेकिन मन को स्वतंत्र मानने को मशीन में भूत (ghost in the machine) के बराबर काल्पनिक सिद्धान्त कहा • जाता है। व्यवहारतः यन्त्र अपने-आप चलता है, न कि कोई भूत इसे चलाता है।

प्रश्न 61. सद्गुण क्या है ?
उत्तर: सद्गुण से हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति के नैतिक विकास से रहता है। सद्गुण के अन्तर्गत तीन बातें आती हैं। वे हैं-कर्तव्य का पालन इच्छा से हो तथा सद्गुण का अर्जन। निरन्तर अभ्यास द्वारा कर्तव्य पालन करने से जो स्थिर प्रवृत्ति में श्रेष्ठता आती है-वही सद्गुण है। उचित कर्मों का पालन करना ही हमारा कर्त्तव्य है और अनुचित कर्मों का त्याग भी कर्तव्य ही है। जब कोई मानव अभ्यास पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसमें एक प्रकार का नैतिक गुण स्वतः विकसित होने लगता है। यही विकसित गुण सद्गुण है। वस्तुत: अच्छे चरित्र का लक्षण ही सद्गुण है। कर्त्तव्य हमारे बाहरी कर्म का द्योतक है जबकि सद्गुण हमारे अन्तः चरित्र का द्योतक है। सुकरात ने तो सद्गुण ज्ञान को ही माना है।

प्रश्न 62. दण्ड के निवर्तन सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: निवर्तन सिद्धान्त की मूल धारणा है कि दण्ड देने के पीछे हमारा एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि भविष्य में व्यक्ति वैसे अपराध की पुनरावृत्ति न करें। दण्ड एक तरह से व्यक्ति के ऊपर अंकुश डालता है। यदि किसी व्यक्ति को कठिन-से-कठिन दण्ड देते हैं तो उसका उद्देश्य दो माने जाते हैं। पहला, वह व्यक्ति भविष्य में अपराध करने के लिए हिम्मत नहीं कर पाता है। साथ ही जब दूसरा व्यक्ति अपराधकर्मी को दण्ड भोगते देखता है तो वह व्यक्ति भी भय से अपराध नहीं करता है। जैसे किसी को गाय चुराने के लिए दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि वह गाय चुरा चुका है बल्कि इसलिए दिया जाता है कि वह भविष्य में गाय चुराने की हिम्मत न करे। इस प्रकार निवर्तनवादी सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी कार्य पर नियंत्रण लगाना माना जाता है। “.

प्रश्न 63. समाजदर्शन एवं नीतिशास्त्र के बीच सम्बन्धों की विवेचना करें।
उत्तर: नीतिशास्त्र का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के उन लक्ष्यों (ends) से है जिन्हें प्राप्त करना मानव-जीवन का उद्देश्य होता है। अतः समाज दर्शन का जितना गहरा सम्बन्ध नीतिशास्त्र से है उतना किसी अन्य शास्त्र से नहीं। समाजदर्शन वास्तव में नीतिशास्त्र का एक अंग कहा जा सकता है। इसी तरह नीतिशास्त्र को भी समाज-दर्शन का अंग कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसके बावजूद सुविधा की दृष्टि से हम दोनों में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। नीतिशास्त्र मुख्य रूप से व्यक्तियों के आचरण (conduct) से सम्बन्धित है, दूसरी ओर समाज का निर्माण व्यक्तियों से ही होता है तथा वे लक्ष्य जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति तथा समाज प्रयत्न करते हैं लगभग समान होते हैं। .

प्रश्न 64. नैतिकता का ईश्वर से क्या संबंध है?
उत्तर: नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

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