12th Philosophy

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

BSEB 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

प्रश्न 1. भारतीय दर्शन एवं पश्चिमी दर्शन में मुख्य अंतर क्या हैं?
उत्तर: प्रायः दर्शन एवं फिलॉसफी को एक ही अर्थ में लिया जाता है, लेकिन इन दोनों शब्दों का प्रयोग दो भिन्न अर्थ में किया गया है। भारत में ‘दर्शन’ शब्द द्वश धातु से बना है, जिसका अर्थ है, ‘जिसके द्वारा देखा जाए’। यहाँ ‘दर्शन’ का अर्थ वह विद्या है जिसके द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। इसलिए इसे तत्त्व दर्शन कहा जाता है। भारतीय दृष्टिकोण से दर्शन की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि-“हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्ति संगत व्याख्या कर वास्तविकता का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।”

पाश्चात्य में दर्शन को ‘फिलॉसफी’ कहा जाता है। ‘फिलॉसफी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान प्रेम या विद्यानुराग। वेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि “दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयत्न है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 2. भारतीय दर्शन में ‘कर्म सिद्धांत’ के अर्थ को स्पष्ट करें। अथवा, कर्म की व्याख्या करें। अथवा, कर्म क्या है?
उत्तर: ‘कर्म सिद्धान्त’ में विश्वास भारतीय दर्शन की एक मुख्य विशेषता है। चर्वाक को छोड़कर भारत के सभी दर्शनं चाहे वे वेद विरोधी हो या वेद के अनुकूल, कर्म के नियम को स्वीकारते हैं। अतः कर्म-सिद्धान्त को छः आस्तिक दर्शन एवं दो नास्तिक दर्शन भी स्वीकार करते हैं। कर्म सिद्धान्त (Law of Karma) का अर्थ है कि जैसा हम बोते हैं वैसा ही हम काटते हैं।

कहने का अभिप्राय शुभ कर्मों का फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ होता है। किए हुए कर्मों का फलन नष्ट नहीं होता है तथा बिना किये हुए कर्मों के फल भी प्राप्त नहीं होते हैं। हमें सदा कर्मों के फल प्राप्त होते रहते हैं। वस्तुतः सुख और दुःख क्रमशः शुभ एवं अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल माने गए हैं। अतः कर्म सिद्धान्त ‘कारण-नियम’ है जो नैतिकता के क्षेत्र में काम करता है। दर्शनिकों के अनुसार हमारा वर्तमान जीवन अतीत जीवन के कर्मों का फल है। इस तरह कर्म-सिद्धान्त में अतीत, वर्तमान और भविष्य जीवनों को कारण-कार्य की कड़ी में बाँधा गया है।

प्रश्न 3. स्वधर्म की व्याख्या करें। अथवा, स्वधर्म के तात्पर्य को स्पष्ट करें। अथवा, स्वधर्म की परिभाषा दें।
उत्तर: गीता के अनुसार जिस वर्ण का जो स्वाभाविक कर्म है, वही उसका स्वधर्म है। स्वभाव के अनुसार जो विशेष कर्म निश्चित है, वही स्वधर्म है। स्वधर्म के पालन से मानव परम सिद्धि का भागी होता है। स्वधर्म का अनुष्ठान मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। चारों वर्ण का कर्म प्रत्येक वर्ण के स्वभावजन्य गुणों के अनुसार पृथक्-पृथक् विभाजित किया गया है। इन्द्रियों का दमन, निग्रह, पवित्रता, तप, शान्ति, क्षमा-भाव, सरलता आध्यात्मिक ज्ञान आदि ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं।

शूर वीरता, तेजस्विता, धैर्य, चातुर्य, युद्ध से न भागना, दान देना, स्वामिभाव आदि क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। कृषि, गोपालन, वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। अन्ततः सब वर्गों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। गीता के अनुसार जो कर्म स्वधर्म के अनुसार स्थिर कर दिए गए हैं, उनका त्याग करना तथा परधर्म का अनुष्ठान करना उचित नहीं है। गीता के अनुसार अच्छी तरह से न किया गया द्विगुण-स्वधर्म, अच्छी तरह से किए हुए पर धर्म से श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता है।

प्रश्न 4. शंकर के दर्शन अद्वैतवाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर: वेदान्त दर्शन के अनेक सम्प्रदाय विकसित हुए, जिसमें शंकर के अद्वैतवाद का प्रमुख स्थान है। शंकर के दर्शन को एकत्ववाद (Monism) नहीं कहकर अद्वैतवाद (Non-dualism) कहा जाता है। इनके अनुसार जीव और ब्रह्म दो नहीं हैं। वे वस्तुतः अद्वैत हैं। इन्होंने ब्रह्म को परम सत्य माना है। यहाँ ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक ढंग से की गई है। ब्रह्म की व्याख्या के लिए नेति-नेति को आधार माना गया है, ब्रह्म क्या है के बदले ब्रह्म क्या नहीं है, पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक दृष्टि से सत्य है; ईश्वर, जीव, जगत, माया आदि की व्यावहारिक सत्ता है। आत्मा तथा ब्रह्म अभेद है। ब्रह्म और जीव का द्वैत अज्ञानता के कारण है। इसलिए यहाँ ज्ञान योग के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है, ज्ञान के बाद द्वैत अद्वैत में बदल जाता है।

प्रश्न 5. बौद्ध दर्शन के अष्टांग मार्ग की व्याख्या करें।
उत्तर: महात्मा बुद्ध का (चतुर्थ आर्य सत्य) यह वह मार्ग है जिसपर चलकर स्वयं महात्मा बुद्ध ने निर्वाण को प्राप्त किया था। दूसरे लोग भी इस मार्ग का अनुसरण और अनुकरण कर निर्वाण या मोक्ष की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। यह मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुला है। गृहस्थ, संन्यासी या कोई भी उद्यमी इसे अपना सकता है। बुद्ध द्वारा स्थापित यह मार्ग उनके धर्म और नीतिशास्त्र का आधार स्वरूप है। इसीलिए इस मार्ग की महत्ता बढ़ जाती है। इस मार्ग को आष्टांगिक मार्ग कहा गया है क्योंकि इस मार्ग के आठ अंग स्वीकार किए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीविका,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6. कारण-कार्य नियम की व्याख्या करें। अथवा, ‘कारण हमेशा ही कार्य का पूर्ववर्ती होता है।’ सिद्ध करें।
उत्तर: कारण कार्य नियम आगमन का एक प्रबल स्तम्भ के रूप में आधार है। इसकी भी परिभाषा तार्किकों ने न देकर इसकी व्याख्या किए हैं। कारण-कार्य नियम के अनुसार इस विश्व में कोई घटना या कार्य बिना कारण के नहीं हो सकती है। सभी घटनाओं के पीछे कुछ-न-कुछ कारण अवश्य छिपा रहता है। कारण संबंधी विचार अरस्तु के विचारणीय हैं। अरस्तु के अनुसार चार तरह के कारण हैं-

  1. द्रव्य कारण,
  2. आकारिक कारण,
  3. निमित्त कारण,
  4. अंतिम कारण।

यही चार कारण मिलकर किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे-मकान के लिए ईंट, बालू, सीमेन्ट, द्रव्य कारण हैं। मकान का एक नक्शा बनाना आकारिक कारण है। राजमिस्त्री और मजदूर, ईंट, बालू, सीमेन्ट को तैयार कर उसे एक पर एक खड़ा कर तैयार करते हैं। इसमें एक शक्ति आती है जिसे Efficient cause या निमित कारण करते हैं।

प्रश्न 7. बुद्धिवाद एवं अनुभववाद में क्या अंतर है?
उत्तर: तर्कवाद या बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही ज्ञानमीमांसीय सिद्धांतों का सम्बन्ध ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत अर्थात् साधन से है। दोनों दो भिन्न साधनों को ज्ञान के स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं दोनों एक-दूसरे के द्वारा बतलाए गये ज्ञान के स्रोत को अस्वीकार भी कर देते हैं। अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति का साधन अनुभव है, बुद्धि नहीं। बुद्धिवाद ज्ञान की उत्पत्ति का साधन बुद्धि या तर्क को मानता है, अनुभव को नहीं।

अनुभववाद के अनुसार सभी ज्ञान अर्जित हैं, इसलिए कोई भी ज्ञान जन्मजात नहीं है। बुद्धि के अनुसार आधारभूत प्रत्यय जन्मजात होते हैं। उन्हें जन्मजात प्रत्ययों से अन्य ज्ञानों को बुद्धि तर्क के द्वारा निगमित करती है।

अनुभववाद के अनुसार बुद्धि अपने आप में निष्क्रिय है। क्योंकि पहले वह अनुभव से प्राप्त प्रत्ययों को ग्रहण करती है और उसके उपरान्त ही वह सक्रिय हो सकती है। बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि स्वभावतः क्रियाशील है क्योंकि अपने अन्दर से वह ज्ञान उत्पन्न करती है।

अनुभववाद के अनुसार विशेष वस्तुओं के ज्ञान के आधार पर आगमन विधि द्वारा सामान्य ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अतः अनुभववाद तथ्यात्मक विज्ञान को आदर्श ज्ञान का स्रोत मानता है। बुद्धिवाद के अनुसार जन्मजात सहज प्रत्ययों से निगमन-विधि द्वारा सारा ज्ञान प्राप्त होता है। अतः ‘बुद्धिवाद गणित विज्ञान को आदर्श ज्ञान का स्रोत मानता है।

प्रश्न 8. अरस्तू के कार्य-कारण सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर: कार्य और कारण का सम्बन्ध जन-जीवन तथा वैज्ञानिक-तकनीकी अन्वेषणों से सम्बन्धित है। अन्य कई दार्शनिकों के साथ-साथ अरस्तू ने भी अपना कारणता सिद्धान्त दिया है लेकिन यह सिद्धान्त अत्यंत प्राचीन है तथा आज की तिथि में अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है। अरस्तू ने किसी कार्य के लिए चार तरह के कारणों की आवश्यकता बतायी है-1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण, 3. आकारिक कारण और 4. प्रयोजन कारण। उदाहरणस्वरूप घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण है, कुम्भकार निमित्त कारण है, कुम्भकार के दिमाग में घड़े की शक्ल का होना आकारिक कारण है तो घड़े में जल का संचयन प्रयोजन कारण है, अरस्तू के बाद जे. एम. मल, ह्यूम आदि कई दार्शनिकों के कारणता संबंधी सिद्धान्त सामने आये।

प्रश्न 9. भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ का क्या अर्थ है? अथवा, पुरुषार्थ क्या है?
उत्तर: ‘पुरुषार्थ’ शब्द दो शब्दों ‘पुरुष’ तथा ‘अर्थ’ के संयोग से बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का अर्थात् पुरुष के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुषार्थ की परिभाषा में कहा गया है कि, “A Purasharth is an end which is consciously sought to be accomplished either for this own sake or for the sake of utiliting it as a means to the accomplishment of further end.”

मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरुषार्थ के माध्यम से ही होता है। भारतीय विचार के अनुसार पुरुषार्थ का निर्धारण दो दृष्टिकोण से हुआ है। व्यावहारिक तथा पारलौकिक। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काम तथा अर्थ सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है, लेकिन पारलैकिक दृष्टि से धर्म तथा मोक्ष परम पुरुषार्थ है। इस प्रकार, काम, अर्थ, धर्म तथा मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं, जिसे हिन्दू नीतिशास्त्र में चतुःवर्ग भी कहा गया है।

प्रश्न 10. ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाण कौन-कौन हैं?
उत्तर: दर्शनशास्त्र की एक शाखा है-ईश्वर विज्ञान (Theology) जिसमें ईश्वर के सम्बन्ध में विशद् अध्ययन किया जाता है। ईश्वरवाद के समर्थकों ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कई युक्तियों का सहारा लिया है। ये युक्तियाँ हैं-

  1. कारण मूलक युक्ति,
  2. विश्वमूलक युक्ति,
  3. प्रयोजनात्मक युक्ति,
  4. सत्तामूलक युक्ति और
  5. नैतिक युक्ति।

इन युक्तियों या तर्कों के सहारे ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है लेकिन महात्मा बुद्ध ने यह कहकर ईश्वरवादियों के इस विचार पर पानी फेर दिया था कि-“ईश्वर की खोज करना अंधेरे कमरे में उस बिल्ली की खोज करना है, जो बिल्ली उस कमरे में है ही नहीं।”

प्रश्न 11. दर्शन के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर: भारत में फिलॉसफी को ‘दर्शन’ कहा जाता हैं। ‘दर्शन’ शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ है-‘जिसके द्वारा देखा जाए।’ भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है। जिसके द्वारा तत्त्व का साक्षात्कार हो सके। इसलिए इसे तत्त्व दर्शन कहा जाता है। यहाँ दर्शन की परिभाषा यह कह कर दिया गया है कि “हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्तिसंगत व्याख्या कर वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।”

पाश्चात्य में दर्शन को फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी का अर्थ ‘विद्यानुराग’ होता है। फिलॉस प्रेम, सौफिया अनुराग। वेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि, “दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयत्न है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 12. वस्तुवाद और प्रत्ययवाद में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर: वस्तुवाद तथा प्रत्ययवाद वह ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जो अस्तित्व ज्ञाता और ज्ञेय के आपसी संबंध की व्याख्या करता है। वस्तुवाद की मान्यता है कि ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र है, जबकि प्रत्ययवाद की मान्यता है कि ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर करता है। वस्तुवाद की मान्यता है कि ज्ञाता और ज्ञेय के बीच बाह्य सम्बन्ध है, जबकि प्रत्ययवाद की मान्यता है कि ज्ञाता और ज्ञेय में आन्तरिक संबंध है।

वस्तुवाद का मानना है कि ज्ञान होने पर वस्तु के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि प्रत्ययवाद का मानना है कि बाह्य पदार्थ प्रत्यात्मक होते हैं। ज्ञान होने पर वस्तु के नये स्वरूप का ज्ञान होता है।

वस्तुवाद के मुख्य समर्थक मूर, थेरी हॉल्ट आदि हैं। प्रत्ययवाद के मुख्य समर्थक बर्कले, हीगल तथा ग्रीन आदि हैं। साधारणत: सामान्य व्यक्तियों का विचार वस्तुवादी होता है।

प्रश्न 13. क्या राम संदेहवादी है?
उत्तर: ह्यूम के दर्शन का अंत संदेहवाद में होता है, क्योंकि संदेहवाद अनुभववाद की तार्किक परिणाम है। ह्यूम एक संगत अनुभववादी होने के कारण इन्होंने उन सभी चीजों पर संदेह किया है जो अनुभव के विषय नहीं हैं। यही कारण है कि इन्होंने आत्मा, ईश्वर, कारणता आदि प्रत्ययों पर संदेह किया।

प्रश्न 14. सत्व गुण क्या है?
उत्तर: सांख्य दर्शन प्रकृति को त्रिगुणमयी कहा है वह सत्त्व, रजस एवं तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह स्वयं प्रकाशपूर्ण है तथा अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत है। सभी प्रकार की सुखात्मक – अनुभूति, जैसे-उल्लास, हर्ष, संतोष, तृप्ति आदि सत्व के कार्य हैं।

प्रश्न 15. स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान को स्पष्ट करें।
उत्तर: नैययिकों ने प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किये हैं। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब व्यक्ति स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुमान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग किया जाता है लेकिन जब व्यक्ति दूसरों की शंका को दूर करने के लिए अनुमान का सहारा लेते हैं तो उस अनुमान को परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान के लिए पाँच वाक्यों की आवश्यकता होती है। परार्थानुमान का आधार स्वार्थानुमान का होता है।

प्रश्न 16. निष्काम कर्म की व्याख्या करें।
उत्तर: फल की आशा रखे बिना कर्म करना निष्काम कहलाता है। निष्काम कर्म गीता का मौलिक उपदेश है, सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति बंधन ग्रस्त होता है, किन्तु निष्काम कर्म से व्यक्ति बंधन में नहीं फँसता, बल्कि मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं-दु:ख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्यसत्य के अनुसार संसार दुःख भरा है। लौकिक सुख की वस्तुतः दुःख से घिरा है। सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर यह नष्ट न हो जाए यह विचार दु:ख देता है और नष्ट हो जाने पर दुःख तो हैं ही। पाश्चात्य विचारक काण्ट ने भी कर्त्तव्य-कर्त्तव्य के लिए बात की है, जो गीता के निष्काम कर्म से मेल खाता है।

प्रश्न 17. भारतीय दर्शन में आस्तिक एवं नास्तिक के विभाजन का आधार क्या है? अथवा, आस्तिक और नास्तिक में भेद करें। अथवा, आस्तिक और नास्तिक का अर्थ निर्धारित करें।
उत्तर: भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय को दो वर्गों में रखा गया है आस्तिक और नास्तिक। वर्ग विभाजन की तीन आधार है-वेद, ईश्वर और पुनर्जन्म, भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहते हैं जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास रखता है, और नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद को प्रमाणिकता में विश्वास नहीं रखता है। इस दृष्टिकोण से भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक कहा जाता है-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन वेद पर आधारित हैं। नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत की चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है, क्योंकि तीनों वेद को नहीं मानते हैं तथा वेद की निन्दा करते हैं। आस्तिक और नास्तिक का दूसरा आधार ‘ईश्वर’ है जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उसे आस्तिक और जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं उसे नास्तिक कहते हैं।

प्रश्न 18. क्या भारतीय दर्शन निराशावादी है?
उत्तर: भारतीय दर्शन में दो प्रकार की विचारधारा सामने आती है एक आशावाद और दूसरा निराशावाद। निराशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के बुरे पहलू पर ही प्रकाश डालती है। इसके अनुसार जीवन दुःखमरा है। इसमें सुख या आनन्द के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके अनुसार जीवन दुःखमय-असहय एवं अवांछनीय है। ठीक इसके विपरीत आशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के सुखमय एवं शुभ की प्राप्ति में सहायक है। यह सत्य है कि भारतीय दर्शन का आरंभ निराशावाद से होता है, अन्त नहीं। इसका अन्त आशा में होता है। भारतीय दर्शन को निराशावादी तब कहा जाता, जब प्रारंभ से अन्त तक दुःख की बात करते। प्रायः दार्शनिकों ने दुःख की अवस्था की चर्चा के बाद उससे छुटकारा के लिए मार्ग बतलाकर आशावादी दर्शन को स्थापित किया है। इसलिए भारतीय दर्शन को निराशावादी कहना भ्रांतिमूलक है।

प्रश्न 19. अनुमान की परिभाषा दें।
उत्तर: अनुमान न्याय दर्शन का दूसरा प्रमाण है। अनुमान ‘अनु’ तथा मान के संयोग से बना है। अनु का अर्थ पश्चात् तथा मान का अर्थ ज्ञान से होता है अर्थात् प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अनुमान को प्रत्यक्षमूलक ज्ञान कहा गया है। प्रत्यक्ष ज्ञान संदेहरहित तथा निश्चित होता है। परंतु अनुमानजन्य ज्ञान संशयपूर्ण एवं अनिश्चित होता है। अनुमानजन्य ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। अनुमान का आधार व्यक्ति होता है। अनुमान के तीन अवयव हैं-पक्ष साध्य तथा हेतु।

प्रश्न 20. व्यावसायिक नीतिशास्त्र की परिभाषा दें। अथवा, व्यावसायिक नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर: नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है। व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहता है और समाज में वे अपने कार्यों को आम-लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है।

प्रश्न 21. प्रत्ययवाद क्या है?
उत्तर: वस्तुवाद के अनुसार मूलतत्त्व का स्वरूप जड़ द्रव्य है। ठीक इसके विपरीत प्रत्ययवाद मानता है कि मूलसत्ता चेतन स्वरूप है। मूलसत्ता को चेतन स्वरूप मानने के कारण आध्यात्मवाद का दृष्टिकोण अप्रकृतिवादी, प्रयोजनवादी, ईश्वरवादी, अतिइन्द्रियवादी तथा आदर्शवादी है। विश्व के प्रकट कार्यकलापों के पीछे एक गहरी आध्यात्मिक सार्थकता है जो किसी निश्चित आदर्श की ओर अग्रसर हो रही है। जो कुछ जिस रूप में वास्तविक नजर आता है वह वास्तविक नहीं है। वास्तविकता का साक्षात्कार करने के लिए केवल बुद्धि पर्याप्त नहीं। जिस प्रकार भौतिकवादियों के बीच जड़द्रव्य के स्वरूप को लेकर कोई निश्चितता नहीं है, उसी प्रकार प्रत्ययवादियों के बीच भी चेतना के स्वरूप को लेकर कोई निश्चितता नहीं है। प्रत्ययवाद चेतन प्रत्यय, आत्मा या मन को विश्व की आधारभूत सत्ता मानते हुए समस्त विश्व को अभौतिक मानता है।

प्रश्न 22. कारण के स्वरूप की व्याख्या करें। अथवा, कारण की प्रकृति की विवेचना करें।
उत्तर: प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) मिल साहब तथा ब्रेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपता नियम का एक रूप है। ब्रेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की हैं। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession), इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

(ii) जोसेफ एवं मेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम उसमें अतभूर्त (implied) है।

(ii) वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, दोनों मौलिक हैं, दोनों का अर्थ भिन्न है, दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और प्रकृति में समानता है।

अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे-कुछ मनुष्यों को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। कुछ से सबकी ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम की मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चिंतता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्य होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के सहयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

प्रश्न 23. भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ कितने हैं?
उत्तर: दो शब्दों ‘पुरुष’ तथा ‘अर्थ के संयोग से पुरुषार्थ शब्द बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का अर्थात् पुरुष के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं। मनुष्य के चार पुरुषार्थ काम, अर्थ, धर्म तथा मोक्ष हैं, जिसे हिन्दू नीतिशास्त्र में चतु:वर्ग भी कहा गया है।

प्रश्न 24. सत्तामूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर: अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईवनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की . धारणा है, अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 25. प्रत्यक्ष की परिभाषा दें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का वर्णन करें।
उत्तर: न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष को एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि “इन्द्रियार्थस-निष्कर्ष जन्य ज्ञानं प्रत्यक्षम्” अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न हो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष के द्वारा प्राप्त ज्ञान निश्चित स्पष्ट तथा संदेशरहित होता है।

प्रश्न 26. वस्तुवाद क्या है? अथवा, वस्तुवाद की एक परिभाषा दें।
उत्तर: वस्तुवाद ज्ञानशास्त्रीय है जिसकी मूल मान्यता है कि ज्ञेय ज्ञाता से स्वतंत्र होता है तथा ज्ञेय का ज्ञान होने से जग में कोई परिवर्तन नहीं होता है। जो वस्तु जिस रूप में रहती है ठीक उसी रूप में उसका ज्ञान होता है। वस्तुवाद के दो रूप होते हैं-

  1. लोकप्रिय वस्तुवाद और
  2. दार्शनिक वस्तुवाद।

दार्शनिक वस्तुवाद के तीन रूप होते हैं-

  1. प्रत्यय प्रतिनिधित्ववाद
  2. नवीन वस्तुवाद और
  3. समीक्षात्मक वस्तुवाद।

प्रश्न 27. अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर: अनुप्रयुक्त अथवा जैव नीतिशास्त्र को सही ढंग से परिभाषित करना थोड़ा कठिन है, क्योंकि अभी यह एक नयी विधा है। जैव नीतिशास्त्र के लिए अंग्रेजी में Bio ethics शब्द का प्रयोग होता है। Bio ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ Life अथवा ‘जीवन’ है और ‘Ethics’ का अर्थ आचारशास्त्र है। इस दृष्टि से यह जीवन का आधार है। अतः हम कह सकते हैं कि “स्वास्थ्य की देख-रेख और जीवन-विज्ञान के क्षेत्र में मानव आचरण का एक व्यवस्थित अध्ययन अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र कहलाता है।”

प्रश्न 28. पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर: पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष-परम पुरुषार्थ है चारों में तीन साधन मात्र है तथा मोक्ष : साध्य है। मोक्ष को भारतीय दर्शन में परम लक्ष्य माना गया है। जन्म मरण के चक्र में मुक्ति का नाम मोक्ष है। इसकी प्राप्ति विवेक ज्ञान में माप है। इस प्रकार भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ को स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 29. अन्तक्रियावाद की व्याख्या करें।
उत्तर: अन्तक्रियावाद (Interactionism)-मन शरीर संबंध का विश्लेषण देकार्ड, स्पिनोजा और लाइबनीज ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। देकार्त्त का विचार है अन्तक्रियावाद (Interactionism), स्पिनोजा का विचार समानान्तरवाद (Parallelism) और लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। देकार्त के अनुसार मन और शरीर एक-दूसरे से स्वतंत्र है। मन चेतन है। शरीर जड़ है।

अत: दोनों का स्वरूप भिन्न है। फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध है जिसे देकार्त ने अन्तक्रिया संबंध (relation of interaction) कहा है। जब भूख लगती है तो मन खिन्न रहता है। भोजन करने से भूख मिटती है और मन तृप्त हाता है। मन में निराशा होती है, तो किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती है। हाथ-पैर हिलाने से काम होता है। इस प्रकार विरोधी स्वभाव वाले ये दो सापेक्ष द्रव्य एक-दूसरे पर निर्भर है।

प्रश्न 30. पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद की व्याख्या करें।
उत्तर: लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। लाइबनिज के चिदणु गवाक्षहीन एवं पूर्ण स्वतंत्र हैं। ये एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर पाते। फिर भी इनमें आन्तरिक सम्बन्ध रहता है। ये सभी अपने-अपने ढंग से विश्व को प्रतिबिम्बित करते रहते हैं। ये विश्व के विभिन्न दर्पण हैं। इनसे बने विश्व में एक अद्भुत सामंजस्य एवं व्यवस्था का दर्शन होता है। इसलिए तो लाइबनिज इस विश्व को सभी संभव संसारों में सर्वश्रेष्ठ बतलाते हैं। यदि चिदणु परस्पर स्वतंत्र हैं तो फिर विश्व में अद्भुत व्यवस्था. एव सामंजस्य किस प्रकार संभव है। पुनः आत्मा एवं शरीर में सम्बन्ध कैसे स्थापित हो पाता है? लाइबनिज ने इस समस्या का समाधान ईश्वरकृत ‘पूर्व-स्थापित सामंजस्यवाद’ (Theory of Preesta-blished Harmony) के आधार पर करना चाहा है।

ईश्वर ही चिदणुओं के निर्माता या रचयिता हैं। उन्होंने सृष्टि के समय ही इनमें कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है ये स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करते हुए भी एक-दूसरे के कार्यों में बाधा नहीं डाल सकते। इनके क्रियाकलापों में संगति बनी रहती है। यदि आत्मा में कोई परिवर्तन होता है तो तद्नुकूल शरीर में भी वही परिवर्तन होता है। इसलिए हम कहते हैं कि आत्मा के आदेशानुकूल शरीर कार्य करता है। सभी चिदणु स्वतंत्र रूप से क्रिया करते हुए विश्व की व्यवस्था बनाये रखते हैं। ईश्वर ने सृष्टि के समय ही कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है कि एक चिदणु दूसरे चिदणु के अनुकूल आंतरिक क्रियाशीलता में संलग्न रहता है। सभी चिदणु चेतना को पूर्ण विकसित करने में प्रयत्नशील रहते हैं।

प्रश्न 31. ऋत की व्याख्या करें। – अथवा, ऋत से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: वैदिक संस्कृति के नैतिक कर्तव्य की धारणा को ऋत कहा जाता है। ऋत की संख्या तीन हैं–देव ऋत से मुक्ति शास्त्र के अनुसार यज्ञ करने से दैव ऋत से मुक्ति मिलती है। ब्रह्मचर्य का पालन, विद्या अध्ययन एवं ऋषि की सेवा करने से ऋषि ऋत से मुक्ति मिलती है और पुत्र की प्राप्ति से पितृ ऋत से मुक्ति मिलती है। शास्त्रार्थ पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु इन तीनों प्रकार का ऋत से मुक्ति अनिवार्य है।

प्रश्न 32. नीतिशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर: साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि नीतिशास्त्र चरित्र का अध्ययन करने वाला विषय माना जाता है। भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के द्वारा नौतिशास्त्रों को परिभाषा की कड़ी से बाँधने का प्रयास भी किया गया है। Mackenzie के अनुसार, “शुभ और उचित आचरण का अध्ययन माना जाता है।” विलियम लिली (William Lillie) के अनुसार, “नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्धारक विज्ञान है। यह उन व्यक्तियों के आचरण का निर्धारण करता है जो समाज में रहते हैं।”

प्रश्न 33. बौद्ध दर्शन के तृतीय आर्य सत्य की व्याख्या करें।
उत्तर: बौद्ध दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं और उन्होंने नैतिक जीवन के सर्वोच्च आदर्श के रूप में निर्वाण की प्राप्ति को स्वीकार किया है। निर्वाण के स्वरूप की चर्चा उन्होंने अपने तृतीय आर्य-सत्य के अंतर्गत किया है। इसे ही दुःख निरोध कहा जाता है। वह अवस्था जिसमें सभी प्रकार के दु:खों का अंत हो जाता है, निर्वाण कहा जाता है। भारतीय दर्शन के अन्य सम्प्रदायों में जिसे मोक्ष या मुक्ति की संज्ञा दी गयी है, उसे ही बौद्ध दर्शन में निर्वाण कहा जाता है। बुद्ध के अनुसार, निर्वाण की प्राप्ति जीवन काल में भी संभव है। जब मनुष्य अपने जीवन काल में राग, द्वेष, मोह, अहंकार इत्यादि पर विजय प्राप्त कर लेता है तो वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति निष्क्रिय नहीं होता बल्कि लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर वह कर्म सम्पादित करता है।

निर्वाण को लेकर बौद्ध दर्शन में दो प्रकार के विचार हैं। निर्वाण का एक अर्थ है ‘बुझा हुआ’। इस आधार पर कुछ लोग यह समझते हैं “जीवन का अंत।” परन्तु यह उचित नहीं, क्योंकि स्वयं बुद्ध ने ही जीवन में निर्वाण की प्राप्ति की थी।

निर्वाण के स्वरूप की व्याख्या नहीं की जा सकती। निर्वाण का स्वरूप अनिर्वचनीय है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण की प्राप्ति को नैतिक जीवन के सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 34. प्रत्ययवाद एवं भौतिकवाद में अंतर करें।
उत्तर: प्रत्ययवाद ज्ञान का एक सिद्धान्त है। प्रत्ययवाद के अनुसार ज्ञाता से स्वतंत्र ज्ञेय की कल्पना संभव नहीं है। यह सिद्धान्त ज्ञान को परमार्थ मानता है।
वस्तुवाद वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र मानता है। यह सिद्धान्त प्रत्ययवाद (idealism) का विरोधी माना जाता है।

प्रश्न 35. काण्ट के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर: काण्ट के अनुसार बुद्धि के बारह आकार हैं। वे हैं-अनेकता, एकता, सम्पूर्णता, भाव, अभाव, सीमित भाव, कारण-कार्यभाव, गुणभाव, अन्योन्याश्रय भाव, संभावना, वास्तविकता एवं अनिवार्यता है।

प्रश्न 36. अनुभववाद की परिभाषा दें। अथवा, अनुभववाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: अनुभववाद ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन इन्द्रियानुभूति को मानता है। अनुभववादियों के अनुसार सम्पूर्ण अनुभव की ही उपज है तथा बिना अनुभव से प्राप्त कोई भी ज्ञान मन में नहीं होता है। वस्तुतः अनुभववाद, बुद्धिवाद का विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववादियों के अनुसार जन्म के समय मन साफ पट्टी के समान है और जो कुछ ज्ञान होता है उसके सभी अंग अनुभव से ही प्राप्त होते हैं। इसमें मन को निष्क्रिय माना जाता है। अनुभववाद के अनुसार आनुभविक अंग पृथक्-पृथक् संवेदनाओं के रूप में पाए जाते हैं। यदि इनके बीच कोई सम्बन्ध स्थापित किया जाय तो सहचार के नियमों पर आधारित यह सम्बन्ध बाहरी ही हो सकता है। अंततः अनुभववाद में पूरी गवेषणा न करने के कारण इसमें सदा यह दृढ़ विचार बना रहता है कि ज्ञान के सभी अंग आनुभविक हैं जब यह बात सिद्ध नहीं हो पाती, तब संदेहवाद इसका अंतिम परिणाम होता है।

प्रश्न 37. प्रमाण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर: ‘प्रमा’ को प्राप्त करने के जितने साधन हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहा गया है। गौतम के अनुसार प्रमाण के चार साधन हैं।

प्रश्न 38. पुरुषार्थ के रूप में धर्म की व्याख्या करें।
उत्तर: धर्म शब्द का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता है। सामान्यतः धर्म से हमारा तात्पर्य यह होता है जिसे हम धारण कर सकें। जीवन में सामाजिक व्यवस्था कायम रखने के लिए यह अनिवार्य माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं का सम्पादन करें। इसी उद्देश्य से वर्णाश्रम धर्म की चर्चा भी की गयी है। भारतीय जीवन व्यवस्था में चार वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। प्रत्येक वर्ण के लिए कुछ सामान्य धर्म माने गये हैं। किन्तु कुछ ऐसे धर्म भी हैं जिनका पालन किया जाना किसी वर्ग (वर्ण) विशेष के सदस्यों के लिए भी वांछनीय माना जाता है। इसी प्रकार आश्रम की संख्या चार है। यहाँ आदर्श जीवन 100 वर्षों का माना जाता है और इसे चार आश्रम में बाँटा गया है। इन्हें हम क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास के नाम से पुकारते हैं।

प्रश्न 39. प्रमेय क्या है?
उत्तर: न्याय दर्शन में प्रमेय को प्रमाण का रूप बताया गया है। उपमान का होना, सादृश्यता या समानता के साथ संज्ञा-संज्ञि संबंध का ज्ञान प्रमेय कहलाता है।

प्रश्न 40. निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर: कभी-कभी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान तो होता है, लेकिन उसका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। उसका सिर्फ आभास मात्र होता है। उदाहरण के लिए, गंभीर चिंतन या अध्ययन में मग्न होने पर सामने की वस्तुओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। हमें सिर्फ यह ज्ञान होता है कि कुछ है, लेकिन क्या है, इसको नहीं जानते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मनोविज्ञान में संवेदना के नाम से भी जानते हैं।

प्रश्न 41. पुरुष एवं प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर: सांख्य दर्शन की मान्यता है कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि होती है। जब प्रकृति पुरुष के संसर्ग में आती है तभी संसार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग इस तरह का साधारण संयोग नहीं है जो दो भौतिक द्रव्यों जैसे रथ और घोड़े, नदी और नाव में होता है। यह एक विलक्षण प्रकार का संबंध है। प्रकृति पर पुरुष का प्रभाव वैसा ही पड़ता है जैसा किसी विचार का प्रभाव हमारे शरीर पर। न तो प्रकृति ही सृष्टि का निर्माण कर सकती है क्योंकि वह जड़ है और न अकेला पुरुष ही इस कार्य को सम्पन्न कर सकता है; क्योंकि यह निष्क्रिय है।

अतः सृष्टि निर्माण के लिए प्रकृति और पुरुष का संसर्ग नितांत आवश्यक है। पर प्रश्न उठता . है कि विरोधी धर्मों को रखने वाले ये तत्त्व एक-दूसरे से मिलते ही क्यों हैं.? उसके उत्तर में सांख्य का कहना है जिस प्रकार एक अंधा और एक लंगड़ा आग से बचने के लिए दोनों आपस में मिलकर एक-दूसरे की सहायता से जंगल पार कर सकते हैं, उसी प्रकार जड़ प्रकृति और निष्क्रिय पुरुष, परस्पर मिलकर एक-दूसरे की सहायता से अपना कार्य सम्पादित कर सकते हैं। प्रकृति कैवल्यार्थ या अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में पुरुष की सहायता लेती है।

प्रश्न 42. व्याप्ति क्या है?
उत्तर: दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध जो व्यापक माना जाता है, इसे व्याप्ति सम्बन्ध (Universal relation) से जानते हैं। जैसे-धुआँ और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है।

प्रश्न 43. शब्द की परिभाषा दें।
उत्तर: बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। उनके शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों में हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्दों को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हों। भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से हमें जो ज्ञान मिलता है, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलता है, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा होता है।

‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हों। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाय तो उन्हें समझ में नहीं आयेगा।

प्रश्न 44. आत्मनिष्ठ प्रत्ययवाद की व्याख्या करें।
उत्तर: प्रत्ययवाद आम जनता का सिद्धान्त नहीं है। साधारण मनुष्य वस्तुवादी (Realistic) होता है। वह मानता है कि जिन वस्तुओं का ज्ञान उसे होता है वे उसके मन पर निर्भर नहीं हैं। उदाहरणस्वरूप यदि किसी हलवाहे से कोई कहे कि उसके हल बैल उसके मन पर निर्भर हैं तो वह कहनेवाले को पागल ही समझेगा। किन्तु जब मनुष्य अपने ज्ञान के स्वरूप पर चिंतन करने लगता है तो उसे ज्ञेय पदार्थों की स्वतंत्रता पर शंका होने लगती है। एक ही छड़ी जमीन पर सीधी और पानी में टेढ़ी लगती है।

एक ही वृक्ष निकट से बड़ा लगता है और दूर से छोटा। जब उक्त वस्तुएँ ज्ञाता से स्वतंत्र हैं तो उसकी प्रतीतियों में भिन्नता क्यों आती है ? इस कठिनाई के सामने मनुष्य का स्वाभाविक वस्तुवाद डगमगाने लगता है। लेकिन प्रत्ययवाद को स्वीकार करने से ऐसी कठिनाइयाँ नहीं पैदा होती। प्रत्ययवाद के अनुसार जब वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर है तो एक ही वस्तु का भिन्न-भिन्न ज्ञाताओं का या भिन्न-भिन्न दशाओं में एक ही ज्ञाता को भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीत होना आश्चर्यजनक नहीं है। जब ज्ञाता भिन्न है तो ज्ञेय का जो उन पर निर्भर है, भिन्न होना स्वाभाविक है।

प्रश्न 45. भारतीय दर्शन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर: भारत में फिलॉसफी को ‘दर्शन’ कहा जाता है। दर्शन शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ है–जिसके द्वारा देखा जाए। भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। इसलिए इसे तत्व दर्शन कहा जाता है। यहाँ दर्शन की परिभाषा यह कहकर दिया गया है-“हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्तिसंगत व्याख्या कर वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।

पाश्चात्य में दर्शन को फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी का अर्थ ‘विधानुराग’ होता है। फिलॉस प्रेम, सौफिया अनुराग। बेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयल है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करती है।

प्रश्न 46. योग का क्या अर्थ है?
उत्तर: योगदर्शन भारतीय दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है। योग युज् धातु से बना है, जिसका अर्थ है मिलना। अतः योग का अर्थ ‘मिलन’ से है। जिन क्रियाओं द्वारा मनुष्य ईश्वर से मिल पाता है, उसे योग कहते हैं। लेकिन योग दर्शन में योग का एक विशेष अर्थ है। इस दर्शन के अनुसार चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा जाता है।

प्रश्न 47. ‘कर्म में त्याग’ की व्याख्या करें।
उत्तर: कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसलिए वह दुःख के चंगुल में नहीं पड़ता। वह जानता है कि दुःख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।

गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो, तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करने वाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है।

उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएंगे। इससे लोक स्थिति के लिए किए जाने वाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनष्य को भी जो प्रकति के बंधन से मक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फल प्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।

प्रश्न 48. सविकल्पक प्रत्यक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर: जब किसी वस्तु के अस्तित्व का केवल आभास मिले और उसके विषय में पूर्ण ज्ञान न हो, तब इसे ‘निर्विकल्पक प्रत्यक्ष’ (Indeterminate Perception) कहते हैं। उदाहरण-सोए रहने । पर किसी की आवाज सुनाई पड़ती है, किन्तु इस आवाज का कोई अर्थ नहीं जान पड़ता। यह ज्ञान मूक (Dumb) या अभिव्यक्तिरहित रहता है। ज्ञान का यह आरंभबिन्दु है। यह ज्ञान विकसित होकर सविकल्पक प्रत्यक्ष बन जाता है।

प्रश्न 49. पुग्दल क्या है?अथवा, जैन के पुद्गल का वर्णन करें।
उत्तर: साधारणतः जिसे भूत कहा जाता है, उसे ही जैन दर्शन में ‘पुग्दल’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। जैनों के मतानुसार जिसका संयोजन और विभाजन हो सके, वही पुग्दल है। भौतिक द्रव्य ही जैनियों के अनुसार पुग्दल है। पुग्दल या तो अणु (Atom) के रूप में रहता है अथवा स्कन्धों (Compound) के रूप में। किसी वस्तु का विभाजन करते-करते जब हम ऐसे अंश पर पहुँचते हैं जिसका विभाजन नहीं किया जा सके तो उसे ही अणु (Atom). कहते हैं। स्कन्ध दो या दो से अधिक अणुओं के संयोजन से मिश्रित होता है पुग्दल, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप जैसे गुणों से परिपूर्ण है। जैनियों द्वारा ‘शब्द’ को पुग्दल का गुण नहीं माना जाता है!

प्रश्न 50. स्थितप्रज्ञा का अर्थ लिखें।
उत्तर: लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञा की आवश्यकता होती है। स्थितप्रज्ञा का अर्थ है कि : बुद्धि की स्थिरता। जिसकी बुद्धि में स्थिरता होती है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। अतः स्थितप्रज्ञ ही लोक कल्याण कर सकता है। कहा गया है-कुर्यात् विद्वान् असक्तः चिकीर्षु लोकसंग्रहः। (विद्वान को अनासक्त होकर लोकसंग्रह के लिए कार्य करना चाहिए।) विद्वान वही होता है जिसकी बुद्धि सुख-दुःख, हर्ष-विषाद सभी परिस्थितियों में समान रूप से स्थिर रहती है। जो हर परिस्थिति को. उदासीन (तटस्थ) भाव से, निर्विकार रूप में, ग्रहण करता है, उसकी बुद्धि ही समान होती है। ऐसे ही समान या समबुद्धिवाले को विद्वान या स्थितप्रज्ञ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, स्थितप्रज्ञता वह स्थिति है जहाँ सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि विकारों का पूर्णतः अन्त हो जाता है।

इन विकारों के अंत होने पर बुद्धि स्थिर हो पाती है अर्थात् मनुष्य हर परिस्थिति में अप्रभावित रहता है, उसमें किसी प्रकार की उद्विग्नता नहीं रहती है। अद्विग्नताविहीन बुद्धि, विकारहीन बुद्धि ही ‘समबुद्धि’ कहलाती है। गीता में कहा गया है कि जो मनुष्य सहदयों, मित्रों, शत्रुओं, तटस्थ व्यक्तियों, ईर्ष्यालुओं, पापियों आदि में समबुद्धिवाला होता है, वही विशिष्ट होता है। यह विशिष्ट व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

प्रश्न 51. बुद्धिवाद का वर्णन करें।
अथवा, बुद्धिवाद की परिभाषा दें।
उत्तर: बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि या विवेक की ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन है। ज्ञान की कोई अंश बुद्धि से परे नहीं हैं। बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के होते हैं-साधारण ज्ञान और दार्शनिक ज्ञान। सांसारिक विषयों के संबंध में इन्द्रियों तथा किसी व्यक्ति से जो ज्ञान प्राप्ति होता है उसे साधारण ज्ञान कहते हैं। दूसरी ओर दार्शनिक ज्ञान हम उसे कहते हैं जो वस्तुओं को यथार्थ के रूप से व्यक्त करता है। अतः तार्किक ज्ञान सदा यथार्थ होता है। बुद्धिवाद का संबंध वस्तुतः तार्किक ज्ञान से होता है। बुद्धिवाद अनुभववाद का खण्डन करते हुए कहता है कि अनुभवजन्य ज्ञान में सार्वभौमिकता तथा अनिवार्यता का सदा अभाव रहता है, क्योंकि किसी वर्ग के भूत, भविष्य और वर्तमान सभी काल और देशों के पदार्थ का अनुभव करना संभव नहीं है। अतः ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन बुद्धि है।

प्रश्न 52. भौतिकवाद क्या है?
उत्तर: भौतिकवाद (Materialism) वह दार्शनिक सिद्धांत है, जिसके अनुसार विश्व का मूल आधार या परमतत्व (Ultimate Reality) जड़ या भौतिक तत्त्व है। अनुभव में हम चार प्रकार के गुणात्मक अंतर (Qualitative Difference) नहीं है। इस सिद्धांत के अनुसार जीव, मनस् तथा चेतना (Life, Mind and Consciousness), जो देखने में अभौतिक लगते हैं, भूत (Matter) से ही उत्पन्न या विकसित हुए हैं।

प्रश्न 53. शिक्षा का उद्देश्य क्या है?
उत्तर: शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति समय के अनुसार बदलते रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा उद्देश्य चारित्रिक विकास करना होता था तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार रोजगार परक है। अर्थात् वही शिक्षा उचित है जो रोजगार दे सके। लेकिन शिक्षा का उद्देश्य न सिर्फ रोजगार परक होना चाहिए बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसलिए इस संदर्भ में महात्मा गाँधी ने कहा है शिक्षा ऐसे होनी चाहिए जिससे व्यक्तित्व का विकास हो तथा उसे रोजगार मिल सके। इसीलिए उन्होंने मूल्य युक्त तकनीक शिक्षा की वकालत की है।

प्रश्न 54. भारतीय दर्शन सम्प्रदायों के नाम लिखें। अथवा, भारतीय दर्शन के कितने सम्प्रदाय स्वीकृत हैं ?
उत्तर: भारतीय दर्शन को मूलतः दो सम्प्रदायों में विभाजित किया गया है-आस्तिक (Orthodox) और नास्तिक (Heterodox)। आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन की कोटि में आते हैं। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्हें आस्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। नास्तिक दर्शन की कोटि में चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा गया है। इनके नास्तिक कहलाने का मूल कारण यह है कि ये वेद की निन्दा करते हैं, जैसा कि कहा भी गया है-नास्तिको वेद निन्दकः। अर्थात् भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद में विश्वास नहीं करता है।

प्रश्न 55. आस्तिक दर्शन के नाम उनके प्रवर्तक के साथ लिखें।
उत्तर: आस्तिक दर्शन (Theist Schools of Philosophy)-इस वर्ग में प्रमुख रूप से छः दार्शनिक विचारधाराएँ हैं। उन्हें ‘षड्दर्शन’ भी कहा जाता है। ये दर्शन मीमांसा, सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय और वैशेषिक हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के संस्थापक क्रमशः गौतम, कणाद, कपील, पतंजलि, जैमिनी और बादरायण हैं। मीमांसा ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता परंतु इसे आस्तिक वर्ग में इसलिए रखा गया है क्योंकि यह वेदों का प्रमाण स्वीकार करते हैं।
आस्तिक वर्ग में दो प्रकार के दार्शनिक सम्प्रदाय सम्मिलित हैं-

  1. वैदिक ग्रंथों पर आधारित (Based on Vedic Scriptures)।
  2. स्वतंत्र आधार वाले (With Independent Basis)1

प्रश्न 56. अर्थ पुरुषार्थ की व्याख्या करें।
उत्तर: “जिन साधनों से मानव जीवन के सभी प्रयोजनों की सिद्धि होती है, उन्हें ही अर्थ कहते हैं।” मानव जीवन की तीनों आवश्यकताएँ सभी प्रयोजन के अंतर्गत आती हैं। ये सभी प्रयोजन या चल सम्पत्ति (रुपये-पैसे) या अचल सम्पत्ति (जमीन-जायदाद) द्वारा सिद्ध होते हैं। इसलिए अर्थ का तात्पर्य धन है (चल या अचल)। धन के बिना मनुष्य का जीवन सुरक्षित व संरक्षित नहीं रह पाता। इसलिए चाणक्य ने कहा है कि “अर्थार्थ प्रवर्तते लोकः” अर्थात् अर्थ के लिए ही यह संसार है। जिसके पास धन है, उसी के सब मित्र हैं।

भारतीय दर्शन के अंतर्गत पुरुषार्थ के रूप में अर्थ के महत्त्व को बताया गया है। अर्थोपार्जन के साथ-साथ व्यय का भी तरीका बताया गया है जिससे मनुष्य अपने अर्थ का दुरुपयोग न करके सदुपयोग करें।

प्रश्न 57. कर्म के प्रकारों को लिखें।
उत्तर: वैशेषिक द्वारा कर्म पाँच प्रकार के माने गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1. उत्क्षेपण (Throwing upward)-उत्क्षेपण कर्म द्वारा द्रव्य ऊपर उठते हैं। उदाहरणार्थ-गेंद, बैलून, राकेट आदि का ऊपर उठना।

2. अवक्षेपण (Downward movement)-अवक्षेपण कर्म द्वारा द्रव्य ऊपर से नीचे आते हैं। उदाहरणस्वरूप-गेंद फल आदि का ऊपर से नीचे आना। – वैशेषिक दर्शन में उत्क्षेपण को ऊखल तथा मूसल के उदाहरण द्वारा बतलाया गया है। हाथ की गति से मूसल ऊपर उठता है। यह उत्क्षेपण है। हाथ की गति से मूसल ऊपर लाया जाता है, जिसके फलस्वरूप इसका संयोग ऊखल से होता है। मूसल का ऊपर उठना ‘उत्क्षेपण’ है और इसका नीचे गिना ‘अवक्षेपण’ है।

3. आकुंचन (Contraction)-आकुंचन का अर्थ है सिकुड़ना। नये वस्त्र को भिगोने पर वह सिकुड़ जाता है और इसमें धागे परस्पर निकट हो जाते हैं। यही आकुंचन कहलाता है।

4. प्रसारण (Expasion)-प्रसारण का अर्थ है फैलना। जब किसी द्रव्य के कण एक-दूसरे से दूर होने लगे तो यह ‘प्रसारण’ कहा जाता है। मुड़े हुए कागज को पहले जैसा कर देना इस कर्म का उदाहरण है। मोड़े हुए हाथ, पैर, वस्त्र आदि को फैलाना ‘प्रसारण’ का उदाहरण है।

5. गमन-गमन’ को सामान्यतः जाने के अर्थ में रखा जाता है। किन्तु वैशेषिक ने उपर्युक्त चारों कर्मों के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म ‘गमन’ के अन्तर्गत. रखे जाते हैं। चलना, दौड़ना आदि ‘गमन’ के ही उदाहरण हैं।

प्रश्न 58. प्रथम आर्य सत्य का वर्णन करें। अथवा, बौद्ध दर्शन का प्रथम आर्य सत्य क्या है?
उत्तर: बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं-दुःख, दुःख समुदाय, दु:ख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्य सत्य के अनुसार संसार दुःखमय है। यह व्यावहारिक अनुभव से सिद्ध है। संसार के सर्वपदार्थ अनित्य और नश्वर होने के कारण दु:ख रूप है। लौकिक सुख भी वस्तुतः दुःख से घिरा है। इस सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर, यह नष्ट न हो जाय यह विचार दुःख देता है और नष्ट हो जाने पर दु:ख तो हैं ही। काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, रोग, जन्म, जरा और मरण सब दुःख है।

प्रश्न 59. उपमान को स्पष्ट करें। अथवा, उपमान क्या है?
उत्तर: उपमान का न्यायशास्त्र में तीसरा प्रमाण माना गया है। ‘न्यायसूत्र’ में जो इसकी परिभाषा दी गई है, उसके अनुसार ज्ञान वस्तु की समानता के आधार पर अज्ञान वस्तु की वस्तुवाचकता का ज्ञान जिस प्रमाण के द्वारा हो, उसे ही उपमान कहते हैं। इस प्रमाण द्वारा प्राप्त ज्ञान ‘उपमिति’ या उपमानजन्य ज्ञान हैं ‘तर्कसंग्रह’ के अनुसार संज्ञा-सज्ञि-संबंध का ज्ञान ही उपमिति हैं। उपमान वह है, जिसके द्वारा किसी नाम (संज्ञा) और उससे सूचित पदार्थ (संज्ञी) के संबंध का ज्ञान होता है। उपमान ज्ञानप्राप्ति का वह साधन है, जिसके द्वारा किसी पद की वस्तुवाचकता (denotation) का ज्ञान हो।

प्रश्न 60. स्वार्थानुमान क्या है?
उत्तर: नैययिकों ने प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किये हैं। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब व्यक्ति स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुमान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 61. समानान्तरवाद क्या है?
उत्तर: पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन-शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं, जैसा की देकार्त्त ने स्वीकार किया है। चेतन और विस्तार क्रमशः मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों ‘ विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं।

प्रश्न 62. धर्म का अर्थ क्या है?
उत्तर: साधारणतः धर्म का अर्थ पुण्य होता है। परंतु जैन दर्शन में धर्म का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। जैनों के अनुसार गति के लिए जिस सहायक वस्तु की आवश्यकता होती है उसे धर्म कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप मछली जल में तैरती है। मछली का तैरना जल के कारण ही ‘संभव होता है। यदि जल नहीं रहे तब मछली के तैरने का प्रश्न उठता ही नहीं है। उपयुक्त उदाहरण में जल धर्म है, क्योंकि वह मछली की गति में सहायक है।

प्रश्न 63. ब्रह्म क्या है?
उत्तर: ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से सत्य कहा जा सकता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय होने के कारण ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है।

ब्रह्म द्रव्य नहीं होने के बावजूद भी सब विषयों का आधार हैं यह दिक् और काल की सीमा से परे हैं तथा कार्य-कारण नियम से भी यह प्रभावित नहीं होता। शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उपनिषदों में ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दो प्रकार माना गया है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं कहा जा सकता। उपनिषद् ने भी निर्गुण को गुणमुक्त माना है।

प्रश्न 64. नैतिकता का ईश्वर से क्या सम्बंध है?
उत्तर: नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

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