Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3
Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3
BSEB 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3
प्रश्न 1. जैनियों के द्रव्य-सम्बन्धी विचार का विवेचन प्रस्तुत करें।
उत्तर: जैनियों के स्याद्वाद के विवेचनोपरान्त हम पाते हैं कि वस्तुएँ अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं। इन गुणों में कुछ स्थायी (Permanent) हैं और कुछ अस्थायी (Temporary) हैं। वस्तुओं में निरन्तर विद्यमान रहने वाले गुणों को स्थायी गुण कहा जाता है। अस्थायी गुणों के अन्तर्गत वे गुण आते हैं जो निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। वस्तु के स्वरूप का निर्धारण स्थायी गुणों के द्वारा होता है इसलिए उन्हें आवश्यक गुण भी कहा जाता है।
इसके विपरीत अस्थायी गुण के अभाव में भी वस्तु की कल्पना की जा सकती है, इसलिए उन्हें अनावश्यक गुण भी कहा जाता है। चेतना मनुष्य का आवश्यक गुण है और सुख, दुख, कल्पना मनुष्य के अनावश्यक गुण हैं। इन गुणों का कुछ-न-कुछ आधार होता है और वह आधार ही ‘द्रव्य’ (Substance) कहलाता है, जैनों के अनुसार गुण ही ‘गुण’ है यथा अनावश्यक गुण को ‘पर्याय’ की संज्ञा दी गयी है। द्रव्य की परिभाषा यह कहकर दी गई है गुण पर्यायवाद द्रव्यम्। अर्थात् जिसमें गुण और पर्याय हो वही द्रव्य है।
जैनियों का द्रव्य सम्बन्धी विचार अनूठा है। साधारणतया द्रव्य को आवश्यक गुणों का आधार ही कहा जाता है। जैनों ने आवश्यक और अनावश्यक गुणों के आधार को ‘द्रव्य’ कहा है। जहाँ एक ओर वेदान्ती ब्रह्म की नित्यता पर जोर देते हैं और बौद्ध विश्व की नश्वरता एवं क्षण-भंगुरता पर जोर देते हैं, वहीं दूसरी ओर जैनों ने दोनों को एकांगी बतलाकर नित्यता और नश्वरता दोनों का समर्थन किया है।
जैनों के मतानुसार द्रव्य (Substance) के दो प्रकार हैं-
- अतिस्तकाय (Extended),
- अनास्तिकाय (Non-Extended)।
स्थान छोड़नेवाले सभी द्रव्यों को अस्तिकाय (Extended) कहा जाता है। अनास्तिकाय द्रव्य की श्रेणी में वही आते हैं जो जगह नहीं छोड़ते अर्थात् जिनमें विस्तार नहीं है। अनस्तिकाय द्रव्य एक ही है जिसे ‘काल’ कहा जाता है। काल के अतिरिक्त सभी द्रव्यों को अस्तिकाय (Extended) कहा जाता है। अस्तिकाय द्रव्यों का विभाजन दो वर्गों में होता है और वे दो वर्ग हैं-जीव और अजीव। जीव दो प्रकार के हैं बद्ध (Bond) और मुक्त (Liberted) जिन्होंने मोक्ष की प्राप्ति कर लिया है वे मुक्त जीव की श्रेणी में आ जाते हैं, बुद्धजीव दो प्रकार के होते हैं-गतिमान (Mobile) और गतिहीन (Immobile)। गतिहीन श्रेणी में एक इन्द्रियवाले जीव आते हैं। इसके उदाहरण वनस्पति के जीव हैं। गतिमान (Mobile) जीवों में दो से लेकर पाँच तक इन्द्रियाँ रहती हैं। उदाहरणस्वरूप-कीड़े, चींटी, भौरे और मनुष्य को क्रमशः दो, तीन, चार एवं पाँच इन्द्रियाँ रहती है।
‘अजीव तत्त्व’ चार प्रकार के होते हैं-धर्म, अधर्म, पुग्दल और आकाश।
1. धर्म-साधारणतः धर्म का अर्थ पुण्य होता है। परन्तु जैन दर्शन में धर्म का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। जैनों के अनुसार गति के लिए जिस सहायक वस्तु की आवश्यकता होती है उसे ‘धर्म’ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-मछली जल में तैरती है। मछली का तैरना जल के कारण ही सम्भव होता है। यदि जल नहीं रहे तब मछली के तैरने का प्रश्न ही नहीं उठता। उपर्युक्त उदाहरण में जल धर्म है, क्योंकि वह मछली की गति में सहायक है।
2. अधर्म-साधारणतः अधर्म का अर्थ ‘पाप'(Vice) होता है। लेकिन जैनियों के अनुसार, किसी वस्तु को स्थिर रखने में जो सहायक होता है उसे ‘अधर्म’ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-वृक्षों की छाया को ही अधर्म का उदाहरण कहा जा सकता है। यहाँ अधर्म धर्म का विरोधी है।
3. पुग्दल (Material Substance)-साधारणतः जिसे भूत (Matter) कहा जाता है, उसे ही जैन दर्शन में ‘पुग्दल’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। जैनों के मतानुसार जिसका संयोजन और . विभाजन हो सके, वही पुग्दल है। भौतिक द्रव्य ही जैनियों के अनुसार पुग्दल हैं। पुग्दल या तो अणु (Atom) के रूप में रहता है अथवा स्कन्धों (Compound) के रूप में। किसी वस्तु का विभाजन करते-करते जब हम ऐसे अंश पर पहुँचते हैं जिसका विभाजन नहीं किया जा सके तो उसे ही अणु (Atom) कहते हैं। स्कन्ध दो या दो से अधिक अणुओं के संयोजन से मिश्रित होता है पुग्दल, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप जैसे गुणों से परिपूर्ण है। जैनियों द्वारा ‘शब्द’ को पुग्दल का गुण नहीं माना जाता है।
4. आकाश-जैन दर्शन के अनुसार जो धर्म, अधर्म, जीव और पुग्दल से अस्तिकाय द्रव्यों को स्थान देता है, उसे ही आकाश कहा गया है। आकाश का ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है, क्योंकि आकाश अदृश्य है। आकाश ही विस्तारयुक्त द्रव्यों को रहने के लिए स्थान देता है। आकाश दो प्रकार का होता है-‘लोकाकाश’ और अलोकाकाश’। लोकाकाश जीव, पुग्दल, धर्म एवं अधर्म का निवास स्थान है। ‘अलोकाकाश’ जगत से परे माना गया है।
अनस्तिकाय (Non-extended) द्रव्य का उदाहरण काल (Time) को माना जाता है, क्योंकि यह स्थान नहीं घेरता। द्रव्यों के परिणाम (modification) और क्रियाशीलता (Movement) की व्याख्या ‘काल’ के द्वारा ही सम्भव होती है। वस्तुओं में जो परिणाम होता है उसकी व्याख्या के लिए काल को मानना पड़ता है। गति की व्याख्या के लिए भी काल को मानना अपेक्षित है। प्राचीन, नवीन, पूर्व, पाश्चात् इत्यादि भेदों की व्याख्या काल के आधार पर ही की जा सकती है। काल दो प्रकार का होता है-(i) व्यावहारिक काल (Empricial Time), (ii) परमार्थिक काल (Transcedental Time)। व्यावहारिक काल को साधारणतः समय कहा जाता है। क्षण, प्रहर, घण्टा, मिनट इत्यादि व्यावहारिक काल के उदाहरण हैं। इसका आरम्भ और अन्त दोनों होता है। परन्तु परमार्थिक काल नित्य और अमूर्त है। इसका विभाजन सम्भव नहीं है।
प्रश्न 2. सांख्य के विकासवाद की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर: भारतीय दर्शन के अन्तर्गत विश्व सम्बन्धी मुख्यतः दो विचार प्रचलित हैं-
- सृष्टिवाद
- विकासवाद।
जिन सम्प्रदायों ने ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है वे सृष्टिवाद के समर्थक हैं और मानते हैं कि विश्व की रचना किसी समय विशेष में ईश्वर के द्वारा की गई है जबकि जो निरीश्वरवादी हैं वे विकास के द्वारा विश्व की उत्पत्ति को मानते हैं। सांख्य चूंकि निरीश्वरवादी है इसलिए यह विश्व को क्रमिक विकास की देन मानता है। अतएव सांख्य का विश्व सम्बन्धी विचार विकासवाद का सिद्धान्त कहलाता है।
सांख्य के अनुसार विश्व का विकास प्रकृति और पुरुष के संयोग से हुआ है। जब प्रकृति पुरुष के सम्पर्क में आती है तो संसार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग उस तरह का साधारण संयोग नहीं होता जैसा कि दो भौतिक पदार्थों के मध्य होता है वरन् इसके बीच वैसा ही सम्बन्ध होता है जैसा कि विचार का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। विश्व की उत्पत्ति के लिए प्रकृति और पुरुष का संयोग अनिवार्य है क्योंकि अकेला पुरुष सृष्टि में असमर्थ है, क्योंकि वह निष्क्रिय है। उसी प्रकार अकेली प्रकृति भी असमर्थ है क्योंकि वह जड़ है।
प्रकृति की क्रिया पुरुष के चैतन्य से निरूपित होती है तभी सृष्टि का उद्गम होता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि पुरुष और प्रकृति एक-दूसरे से भिन्न और विरुद्ध धर्म है तो फिर उनका परस्पर सहयोग कैसे संभव है। इसके उत्तर में सांख्य एक रूपक प्रस्तुत करता है कि जिस प्रकार एक लंगड़ा और अंधा एक-दूसरे के सहयोग से जंगल पार कर सकता है उसी प्रकार जड़ प्रकृति और निष्क्रिय पुरुष ये दोनों परस्पर सहयोग से अपना कार्य सम्पादित करते हैं। प्रकृति दर्शनार्थ (ज्ञात होने के लिए) पुरुष की अपेक्षा रखती है और पुरुष कैवल्यार्थ (अपना स्वरूप पहचानने के लिये) प्रकृति की सहायता लेता है।
सृष्टि के पूर्व तीनों गुण साम्यावस्था में रहते हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग होने से गुणों की साम्यावस्था में विकार उत्पन्न हो जाता है जिसे गुण क्षोभ कहते हैं। पहले रजोगुण जो स्वभावतः क्रियात्मक है परिवर्तनशील होता है। तब उसके कारण और गुणों में भी स्पन्दन होने लगता है। परिणामस्वरूप प्रकृति में एक भीषण आन्दोलन उठ जाता है जिससे प्रत्येक गुण दूसरे गुणों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है। क्रमशः तीनों गुणों का पृथक्करण और संयोजन होता है जिससे न्यूनाधिक अनुपातों में उनके संयोगों के फलस्वरूप नाना प्रकार के सांसारिक विषय उत्पन्न होते हैं।
सांख्य के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम “महत” या बुद्धि का प्रादुर्भाव होता है। यह प्रकृति का प्रथम विकार है। बाह्य जगत की दृष्टि से यह विराट बीज स्वरूप है अतः यह तत्व कहलाता है। आभ्यंतरिक दृष्टि से यह बुद्धि है जो जीवों में विद्यमान रहती है। बुद्धि के विशेष कार्य हैं निश्चय और अवधारणा। बुद्धि के द्वारा ही ज्ञाता और ज्ञेय के अन्तर को जाना जा सकता है। बुद्धि का उदय सत्य गुण की अधिकता से होता है।
इसका स्वाभाविक धर्म है स्वतः अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करना। इसके मुख्य गुण-धर्म, ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य हैं। ये चारों सात्विक बुद्धि के लक्षण हैं। जब बुद्धि पर तमोगुण का प्रभाव रहता है तब इसके लक्षण हो जाते हैं अधर्म, आसक्ति और अनैश्वर्य। बुद्धि प्रकृति के अन्य सभी विकारों से अधिक सूक्ष्म है। इसी से विश्व का विकास प्रारम्भ होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सांख्य के अनुसार विकास क्रिया सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है।
विकास क्रम में बुद्धि के पश्चात् दूसरा अंहकार तत्व का उदय होता है। मैं और मेरा की भावना ही अहंकार है। इसी के कारण पुरुष अपने को कर्ता कामी (इच्छा करने वाला और स्वामी ‘अधिकारी’) मान लेता है। अहंकारवश ही पुरुष अपना स्वरूप भूलकर सांसारिक विषयों में आसक्त हो जाता है। अहंकार के तीन प्रकार होते हैं-
- सात्विक
- राजस और
- तामस। सात्विक अहंकार में सत्वगुण की प्रधानता रहती है, राजस में रजोगुण की और तामस में तमोगुण की प्रधानता रहती है।
सात्विक अहंकार से एकादश इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तामस अहंकार पंचतंत्रताओं को उत्पन्न करता है। राजस अहंकार गतिशील होने के कारण अन्य दोनों अहंकारों की मदद करता है और स्वयं कोई विकार उत्पन्न नहीं करता।
एकादश- इन्द्रियाँ अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं। इनका प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं होता है। अनुमान के आधार पर इनके विषय में जानकारी प्राप्त होती है। आँख, नाक, कान इत्यादि वस्तुत: इन्द्रिय न होकर इन्द्रियों के निवास स्थान हैं। एकादश इन्द्रियों के अन्तर्गत पंचकर्मेन्द्रियों, पंचज्ञानेन्द्रियाँ और मन को सम्मिलित किया गया है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पैर, मुख, मलद्वार तथा जननेन्द्रिय में स्थित हैं। ये क्रमशः पकड़ने, चलने-फिरने, बोलने, मलमूत्र त्याग करने तथा सन्तानोत्पत्ति का कार्य करती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ के अन्तर्गत चक्षु, श्रवणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। मन या मन से आन्तरिक इन्द्रिय है। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों से काम लेना इसी का काम है। इन्द्रियों द्वारा प्रस्तुत संवेदना में अर्थ जोड़ना “मन” का कार्य है।
बुद्धि, अहंकार और गुण, क्षोभ को अन्तःकरण कहते हैं। अन्त:करण मुख्यत: दो कार्य करता है-(क) प्राणदायक क्रियाओं (जैसे रक्तचाप, सांस आदि) का संचालन करता है और (ख) इन्द्रियों द्वारा प्राप्त संवेदनाओं का अर्थ लगाकर उनके अनुसार कार्यक्रम निर्धारित करता है। पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों को मिलाकर बाह्यकरण होता है। बाह्यकरण और अन्त:करण के संयुक्त रूप को त्रयोदशकरण कहा जाता है। त्रयोदशकरण का अर्थ तेरह साधन है।
पंचतन्मात्राएँ- तामसिक अहंकार से पंचतन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं। ये अत्यधिक सूक्ष्म होने के कारणं केवल योगियों द्वारा ही प्रत्यक्ष रूप से जाने जाते हैं। तन्यमात्राएँ पाँच प्रकार की होती हैं-
- रूपतन्मात्रा-यह रंग रूप का सार (essence) है।
- गन्धतन्मात्रा-यह गन्ध का सूक्ष्म रूप है।
- स्पर्शतन्मात्रा-यह स्पर्श का सार है।
- शब्दतन्मात्रा-यह शब्द एवं आवाज का सूक्ष्म रूप है।
- रसतन्मात्रा-यह रस या स्वाद का सार है।
पंचमहाभूत- पंचतन्मात्रा के द्वारा पंचमहाभूत का विकास होता है। जहाँ “तन्मात्रा” अत्यन्त सूक्ष्म होती है वहीं “महाभूत” स्थूल होते हैं। तन्मात्रा से महाभूत का आविर्भाव इस प्रकार से होता है-शब्दतन्मात्रा से आकाश नामक महाभूत उत्पन्न होता है। शब्द और स्पर्श तन्मात्रों के योग से “वायु” नामक महाभूत उत्पन्न होता है। शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से “अग्नि” तथा “तेज” उत्पन्न होता है। पुनः शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्राएँ जल को उत्पन्न करती हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तन्मात्राओं से पृथ्वी उत्पन्न होती है।
शब्द (तन्मात्रा) = आकाश (महाभूत)
शब्द + स्पर्श (तन्मात्रा) = वायु (महाभूत)
शब्द (तन्मात्रा) + स्पर्श (तन्मात्रा) + रूप (तन्मात्रा) = अग्नि (महाभूत)
शब्द (तन्मात्रा) + स्पर्श (तन्मात्रा) + रूप (तन्मात्रा) + रस (तन्मात्रा) = जल (महाभूत)
शब्द (तन्मात्रा) + स्पर्श (तन्मात्रा) + रूप (तन्मात्रा) + रस (तन्मात्रा) + गन्ध (तन्मात्रा) = पृथ्वी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि पञ्चतन्मात्राएँ-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इनसे पंचमहाभूत की उत्पत्ति होती है।
प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोऽशकात्यञ्चम्यः पञ्चभूतानि।। (सांख्यकारिका)
अतएव सांख्य दर्शन के विकासवाद की व्याख्या एक तालिका के द्वारा की जाए तो उसे निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि सांख्य का विकासवाद चौबीस तत्वों का खेल है। अगर इन तत्वों में पुरुष को भी जोड़ दिया जाए तो कुल मिलाकर पच्चीस तत्व हो जाते हैं। इसमें विकास का प्रारम्भ सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ता है और अन्त में पंचमहाभूतों पर आकर रुक जाता है। विश्व के विभिन्न पदार्थ पंचमहाभूत से विकसित नहीं होते बल्कि संयोग से निर्मित होते हैं। पंचमहाभूत से विश्व की वस्तुएँ बनती हैं और पुनः नष्ट होकर इन्हीं पंचमहाभूतों में विलीन हो जाती हैं।
इस सम्पूर्ण खेल में पुरुष केवल देखने वाला या दृष्टा है, वह न तो किसी का कार्य है और न कारण। प्रकृति केवल कारण है, कार्य नहीं। महत् (बुद्धि), अहंकार और तन्मात्राएँ कार्य और कारण दोनों हैं। पञ्चमहाभूत आदि केवल कार्य हैं कारण नहीं।
मूल प्रकृतिरवि कृतिर्मह्याधाः प्रकृतिविकृतयः।
षोऽशकस्तु विकारो न प्रकृतिनं विकृतिपुरुषः।। (सांख्यकारिका)
विकास का स्वरूप-सांख्य के अनुसार यह विकासवाद सोद्देश्य या सप्रयोजन है। इसमें दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं-(क) प्रकृति अपने विकसित रूप का दर्शन करने में समर्थ होती है। इसलिए विकास “प्रकृति के दर्शनार्थम्” कहा गया है। (ख) पुरुष विकास क्रम में मुक्ति पाना चाहता है। प्रकृति से निकले इस संसार में पुरुष महान नैतिक एवं धार्मिक कृत्यों का सम्पादन करके मोक्ष प्राप्त कर पाता है। मोक्ष पाने के लिए यह भी आवश्यक है कि पुरुष अपने को प्रकृति एवं इसके विकारों से भिन्न समझ ले। विकास प्रक्रिया उसे इस दिशा में मदद देती है। इस प्रकार विकासवाद प्रयोजनपूर्ण माना गया है।
पुनः सांख्य का विकासवाद ‘अचेतन प्रयोजनवाद’ का समर्थन करता है। विकास प्रकृति का होता है जो कि जड़ है। अतः इस विकास की प्रक्रिया को अचेतन प्रयोजनवाद कहा जाता है । यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि अगर प्रकृति अचेतन है तो किस प्रकार वह चेतन पुरुष के प्रयोजन को पूर्ण करती है ? इसके उत्तर में सांख्य एक रूपक प्रस्तुत करता है कि बछड़े के मुँह में गाय के स्तन का दूध स्वाभाविक एवं अचेतन रूप से प्रवाहित होने लगता है। इस अचेतन दुग्ध-प्रवाह का भी एक लक्ष्य है और वह है बछड़े का पालन-पोषण।
वत्स विवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य।
पुरुष विमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्ति; प्रधानस्य।।
इस प्रकार सांख्य के विकासवाद को अचेतन प्रयोजनवाद का सुन्दर उदाहरण मानना संगत होगा।
सांख्य विकासवाद की विशेषताएँ-
1. सर्वप्रथम सांख्य का विकासवाद सभी सांसारिक वस्तुओं की सृष्टि नहीं स्वीकार करता वरन् आविर्भाव स्वीकार करता है। इसके अनुसार मूल प्रकृति से ही सभी वस्तुओं का आविर्भाव हुआ है अर्थात् इस संसार की सभी वस्तुएँ अव्यक्त रूप में प्रकृति में विद्यमान रहती हैं। सृष्टि से आशय है इन अव्यक्त वस्तुओं का आविर्भाव होना।
2. सांख्य का विकासवाद प्रयोजन या सोद्देश्य है। सांख्य के अनुसार जगत के विकास का मूल कारण प्रकृति और पुरुष का स्वार्थ या प्रयोजन है। प्रकृति को पुरुष की आवश्यकता भोग के लिए है और पुरुष को प्रकृति की आवश्यकता मोक्ष के लिए है। अतः भोग और कैवल्य के लिए प्रकृति और पुरुष का संयोग होता है तथा इस संयोग से जगत का विकास होता है । अतः सांख्य प्रयोजन विकासवाद को स्वीकार करता है।
3. सांख्य का विकास चक्रक है सीधी रेखा में नहीं। सांख्य के अनुसार आविर्भाव और . तिरोभाव, सृष्टि और प्रलय का अनवरत चक्र चलता रहता है।
4. सांख्य के विकासवाद की चौथी विशेषता यह है कि इस विकास प्रक्रिया में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति है। बुद्धि या महत् सबसे सूक्ष्म है तथा पंचमहाभूत सबसे स्थूल।
आलोचना-1.
सांख्य दर्शन वस्तुवाद और व्यक्तिवाद-प्रकृति और पुरुष का प्रतिपादन करता है। यह प्रकृति और पुरुष इन दो तत्वों के सहारे जगत की उत्पत्ति सिद्ध करता है। समस्त जगत इन्हीं दो वस्तुओं का खेल है। प्रकृति भौतिक संसार का मूल कारण है अर्थात् संसार का उपादान और निमित्त कारण है। यद्यपि यह अचेतन है तथापि सक्रिय होकर शृंखलापूर्ण एवं नियंत्रित जगत का निर्माण करता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आखिर यह संभव कैसे है ? अपने निश्चित ध्येय तक कैसे पहुँचता है ? इसके उत्तर में सांख्य का कहना है कि प्रकृति की साम्यावस्था में पुरुष की उपस्थिति से क्षोभ उत्पन्न होता है। पुनः यहाँ प्रश्न उठता है कि अगर पुरुष चेतन निष्क्रिय एवं अपरिणामी है तो उसकी उपस्थिति में क्षोभ क्यों उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर दर्शनशास्त्र की मुख्य समस्या का संतोषप्रद समाधान नहीं माना जा सकता है।
2. विकृतियों के क्रम का युक्तिपूर्ण आधार नहीं- तत्व या तर्क की दृष्टि से सांख्य विकासवाद में प्रकृति के आविर्भाव का क्रम आवश्यक नहीं प्रतीत होता। “द्वैतपरक यथार्थवाद मिथ्या तत्व विज्ञान का परिणाम है।” सांख्य द्वारा प्रस्तुत विकास के विवरण की ठीक-ठीक सार्थकता को समझना कठिन है। और हमें कोई सन्तोषजनक व्याख्या इस विषय में नहीं दिखाई दी कि विकास में जो विभिन्न ढंग हैं वे ऐसे क्यों हैं। विज्ञान भिक्षु ने इस दोष को जानकर ही ‘अत्र प्रकृतेर्महान महतोऽहंकार इत्यादि सृष्टिक्रम शास्त्रमेव प्रमाणन्” कहकर हमें सांख्य के विकास विषयक विवरण को शास्त्र के प्रमाण के आधार पर ही स्वीकार करने की सम्मति दी है।
3. प्रकृति और दुरुष सम्बन्धी उपमा नितान्त असफल-सांख्य दार्शनिकों ने विकासवाद की व्याख्या करने के क्रम में सबसे पहले यह दर्शाया है कि प्रकृति और पुरुष एक-दूसरे से नितान्त विरुद्धधर्मी होते हुए भी एक साथ मिलकर विकास प्रक्रिया में भाग लेता है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए वे एक अंधा और लंगड़ा के रूपक का सहारा लेते हैं जबकि जहाँ पुरुष और प्रकृति . दोनों क्रमशः चेतन, निष्क्रिय और जड़ सक्रिय है वहीं अंधा और पंगु दोनों चेतन प्राणी है। ऐसे में पुरुष और प्रकृति की तुलना उनसे करना कहाँ तक सार्थक प्रतीत होगा।
पुनः सांख्य के अनुसार विकास प्रकृति का ही होता है जो कि सप्रयोजन, सोद्देश्य है। इसके दो उद्देश्य हैं-
1. प्रकृति को आत्म प्रदर्शन का अवसर मिलना और
2. पुरुष के लिए मोक्ष का मार्ग – प्रशस्त करना। यहाँ प्रश्न उठता है कि अचेतन प्रकृति कैसे इन लक्ष्यों के लिए क्रियाशील होती है।सांख्य यहाँ अचेतन प्रयोजनवाद का सिद्धान्त देता है। इसके लिए यहाँ बछड़े द्वारा गाय के स्तन से दूध ग्रहण करने का रूपक दिया गया है किन्तु इससे समस्या पर सन्तोषप्रद प्रकाश नहीं पड़ता।
प्रश्न 3. न्याय दर्शन के अनुसार सोलह पदार्थों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर: न्याय दर्शन में ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है। इसके लिए सम्पूर्ण जीवन, जगत एवं वातावरण सभी पदार्थों का सम्यक् ज्ञान अनिवार्य है। विश्व में यद्यपि अनगिनत पदार्थ हैं किन्तु मौलिक रूप से न्याय दर्शन में सोलह पदार्थों का वर्णन मिलता है। वे पदार्थ इस प्रकार से है-
- प्रमाण,
- प्रमेय,
- संशय,
- प्रयोजन,
- दृष्टान्त,
- सिद्धान्त,
- अवयव,
- तर्क, .
- निर्णय,
- वाद,
- जल्प,
- वितण्डा,
- हेत्वाभास,
- छल,
- जाति एवं
- निग्राह स्थान।
1. प्रमाण-किसी विषय के यर्थात् ज्ञान अर्थात् प्रमा की प्राप्ति के साधन को प्रमाण कहा जाता है। न्याय दर्शन में प्रमाण पर अत्यधिक बल दिया गया है। यही कारण है कि कभी-कभी न्याय शास्त्र को प्रमाण शास्त्र भी कहा जाता है। न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम ने चार प्रमाण को स्वीकार किया है-प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान। बाद के नैयायिकों ने अथोपति और अनुपलब्धि की भी प्रमाण के अन्तर्गत चर्चा की है।
2. प्रमेय-प्रमाण के द्वारा जिस विषय का ज्ञान होता है उसे प्रमेय कहते हैं अर्थात् यथार्थ ज्ञान के विषय को प्रमेय कहा है। न्याय दर्शन ने 12 प्रमेयों को स्वीकार किया है-
आत्माशरीरेन्द्रियथार्थ बुद्धि मनः प्रवृति दोष
प्रेत्यभाव फल दुःखपवर्गास्त प्रमेयय।
- आत्मा-इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुख एवं ज्ञान लक्षणों से युक्त पदार्थ को आत्मा कहा गया है।
- शरीर-जो इन्द्रिय और क्रियाओं का आश्रय तथा भौतिक होता है।
- इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जिह्वा एवं त्वचाएँ पाँच इन्द्रियाँ कहलाती हैं।
- अर्थ-पाँच इन्द्रियों के पाँच अर्थ हैं जैसे-आँख का रूप, नाक का गंध, कान का शब्द जिह्वा का स्वाद एवं त्वचा का स्पर्श।
- बुद्धि-न्याय दर्शन में बुद्धि, लब्धि एवं ज्ञान इन तीनों को एक ही अर्थ में स्वीकार किया गया है।
- मन-मन अणु होता है इसलिए एक शरीर में एक ही मन रहने से वह एक समय में एक ही ज्ञान ग्रहण करता है। यह मन का लक्षण है।
- प्रवृत्ति-मन, इन्द्रिय और शरीर को काम में लगाना प्रवृत्ति कहलाती है।
- दोष-प्रवृत्ति के कारण को दोष कहते हैं, जैसे राग द्वेष, भोर इत्यादि सभी प्रवृत्तियों के मूल हैं।
- प्रेत्यभाव-हमारे अच्छे-बुरे कर्मों के फलस्वरूप होने वाले पुनर्जन्म को प्रेत्यभाव कहते हैं।
- फल-प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न जो सुख और दुःख का ज्ञान है वही फल कहलाता है।
- दुख-स्वतंत्रता का न होना तथा विकल्प का होना दुःख कहलाता है।
- अपर्का-दुःखों से अत्यान्तिक निवृत्ति अपर्का कहलाता है।
3. संशय-“समानानेक: धर्मोपर्विप्रतिपत्ते रूपलब्ध्यनुलब्ध व्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः।” अर्थात् जहाँ सामान्य गुण तो उपलब्ध हो किन्तु विशेष के सम्बन्ध में एक ही साथ दो अलग-अलग विचार हों तो वह संशय कहलाता है। दूसरे अर्थ में मन की अनिश्चित अवस्था ही
संशय है, जैसे दूर किसी पक्षी को उड़ता देखकर अगर यह लगे कि चाहे तो यह कौआ है या कबूतर तो यह संशय की अवस्था है।
4. प्रयोजन प्रत्येक व्यक्ति कोई न कोई कार्य किसी खास उद्देश्य से करता है। जिस विषय के लिए कार्य में प्रवृत्ति होती है उसे प्रयोजन कहते हैं।
5. दृष्टान्त-जिसे देखकर किसी बात का निर्णय कर लिया जाए उसे दृष्टान्त कहते हैं। जब वादी और प्रतिवादी किसी वाद-विवाद में उलझ जाए तो फिर ऐसी अवस्था में निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए दृष्टान्त की सहायता ली जाती है।
6. सिद्धान्त-पूर्वस्थापित निर्णय को ही सिद्धान्त कहा जाता है। प्रमाण द्वारा अन्तिम रूप से सिद्ध या प्रमाणित विषय ही सिद्धान्त कहा जा सकता है। न्याय दर्शन में तीन प्रकार के सिद्धान्त को माना गया है।
- तंत्र सिद्धान्त
- अधिकरण सिद्धान्त तथा
- अभ्युपगम सिद्धान्त।
7. अवयव अवयव अनुमान के उन पाँच वाक्यों को कहते हैं जिनके द्वारा किसी मत या सिद्धान्त को सिद्ध किया जाता है। वे पाँच अवयव है-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन।
8. तर्क-‘व्याज्य के आधार पर व्यापक को प्रमाणित करना ही तर्क है। जैसे-किसी स्थान पर धुएँ को पाकर वहाँ अग्नि की उपस्थिति को सिद्ध करना तर्क है।
9. निर्णय-किसी विषय के सम्बन्ध में भ्रम या संशय उत्पन्न होने पर हम विषय के पक्ष और विपक्ष में दिए गए तर्कों पर विचार करने के बाद जिस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं इसे ही निर्णय कहते हैं। न्याय शास्त्र में निर्णय को अग्रांकित प्रकार से स्पष्ट किया गया है-
विमृश्य पक्षप्रतिपमक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः “अर्थात् किसी विषय के पक्ष और विपक्ष दोनों की युक्तियों पर विचार करके ही उसे धारण करना निर्णय है। जैसे-अंधकार होने पर जमीन पर पड़ी किसी वस्तु को देखकर यह संशय हो कि यह रस्सी है या साँप तो, जमीन पर पड़ी हुई वस्तु पर प्रकाश डालकर हम जब इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह रस्सी है तो यह निर्णय कहलाएगा।
10. वाद-“प्रमाण तर्क साधनोपालम्भः सिद्धान्ता विरुद्ध पंचावयवयोपषन्नः पक्ष प्रतिपक्ष . परिग्रही वादः” अर्थात् एक पदार्थ के विरोधी धर्मों को लेकर प्रमाण, तर्क, साधन और अशुद्धियों को दिखाने से तत्व के विरुद्ध न होकर पक्ष और प्रतिपक्ष को अनुमान के पंच अवयवों के साथ प्रश्नोत्तर करना वाद कहलाता है। इस प्रकार वाद एक प्रकार का विचार-विमर्श है, जिसका लक्ष्य सत्य की परीक्षा और प्राप्ति करना है।
11. जल्प-ऐसा वाद-विवाद जिसका उद्देश्य सत्य और असत्य का निर्धारण करना न होकर मात्र जय-पराजय होता है तो उसे जल्प कहते हैं। इसमें विजय प्राप्ति के लिए छल-छद्म आदि कुतर्कों का सहारा लिया जाता है।
12. वितण्डा-जिस वाद-विवाद में जल्प करनेवाला उसके पक्ष को प्रमाणित करना छोड़कर विपक्ष का खण्डन करना ही अपना मुख्य लक्ष्य बनाए रखता है तो ऐसे वाद-विवाद को वितण्डा कहते हैं। जहाँ “वाद” उच्च कोटि का शास्त्रार्थ है वही जल्प तथा वितण्डा निम्न कोटि के वाद-विवाद के रूप हैं। नैयायिक सत्यप्राप्ति के लिए बाद का सहारा लेते हैं जबकि नास्तिकों और मूल् का मुँह बन्द करने के लिए जल्प और वितण्डा का सहारा लेते हैं।
13. हेत्वाभास हेत्वाभास का शाब्दिक अर्थ होता है “हेतु का आभास” अर्थात् अवास्तविक हेतु का वास्तविक हेतु जैसा दीख पड़ना। इसके पाँच प्रकार है-सत्याभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम साध्यसम तथा कालातीत।
14. छल-प्रतिवादी के कथन का अर्थ बदलकर इसे परास्त करने का प्रयत्न करना ही छल है। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। वक्ता के शब्दों का अपने मन के अनुसार अर्थ लगा देने से वक्ता पराजित हो जाता है। यही छल है। छल तीन प्रकार के होते हैं-
- वाक्छल
- सामान्य छल और
- उपचार छल।
15. जाति-न्याय दर्शन में जाति को एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। असंगत उपमान के द्वारा अपनी बात को सिद्ध करना जाति है। यहाँ व्याप्ति सम्बन्ध के अभाव में केवल समानता और असमानता के आधार पर कोई दोष दिखलाया जाता है।
16. निग्रह स्थान-निग्रह स्थान का शाब्दिक अर्थ है पराजय या तिरस्कार का स्थान । साधारणतः अज्ञान या असंगत ज्ञान के कारण यह दोष होता है।
प्रश्न 4. न्याय के अनुसार अनुमान के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर: साधारणतः प्रत्यक्ष के पश्चात् आनेवाला ज्ञान अनुमान कहलाता है। इसलिए गौतम अनुमान को तत्पूर्वकम् कहते हैं। वात्स्यायन के अनुसार प्रत्यक्ष के साथ-साथ आगम् (शब्द) पर भी आधारित है। किसी पर्वत पर धुआँ को देखकर समझते हैं कि उस पर आग है। धुआँ को देखना प्रत्यक्ष है। आग का जानना अनुमान। अतः अनुमान प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर जाने की एक मानसिक प्रक्रिया है। आगम द्वारा आत्मा की अमरता का ज्ञान होता है, इसके बाद हम अनुमान करते हैं कि आत्मा का स्वरूप निरंवयव है। अतएव अनुमान का तात्पर्य है-एक वस्तु की किसी विशेषता को जानकर उसकी दूसरी विशेषता का जान लेना अथवा एक घटना से दूसरी घटना को देख लेना। इसलिए अनुमान का प्रयोगात्मक पद “अन्वीक्षा” है। अन्वीक्षा का अर्थ है-अनुत्वीक्षे + ईक्षा (देखना)।
अनुमान के मुख्यतः चार तत्व हैं-लिंग, लिंगी, पक्ष और पक्षधर्मता। जिस वस्तु का अनुमान किया जाता है उसे लिंगी या साध्य कहते हैं। लिंग का प्रत्यक्ष किसी स्थान विशेष में होता है। वह स्थान-विशेष पक्ष कहलाता है। पक्ष में लिंग की सत्ता को पक्ष-धर्मता कहते हैं। धुआँ लिंग है, आग लिंगी और पर्वत पक्ष है। पर्वत पर धुआँ है-यह पक्षधर्मता है।
पक्षधर्मता के साथ-साथ व्याप्ति का होना भी अनिवार्य है। वस्तुत: व्याप्ति अनुमान का प्राण है। व्याप्ति का शाब्दिक अर्थ है-वि + आप्ति, अर्थात् विशेष रूप से सम्बन्ध। जिन किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य व्याप्ति द्वारा सम्बन्ध स्थापित होता है इनमें से एक को व्यापक और दूसरा व्याप्य कहलाता है। व्यापक उस वस्तु को कहते हैं जिसकी व्याप्ति रहती है तथा व्याप्य उस वस्तु को कहते हैं जिसमें व्याप्ति रहती है। इस तथ्य को आग तथा धुएँ के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है। आग को व्यापक कहा जायेगा क्योंकि यह सदैव धुएँ के साथ रहती है। धुएँ को यहाँ व्याप्य कहा जायेगा क्योंकि धुएँ के साथ ही आग रहती है। हम कह सकते हैं कि व्याप्ति उस सम्बन्ध को कहते हैं जो हेतु और साध्य के बीच होता है। व्याप्ति ही अनुमान का आधार है। यह अनुमान प्रमाण के लिए सर्वाधिक अनिवार्य है।
व्याप्ति के अर्थ एवं महत्त्व को जानने के पश्चात् उसकी स्थापना की विधियों का उल्लेख करना भी अनिवार्य है। न्याय-प्रमाण-शास्त्र में निम्नलिखित छः विधियों द्वारा व्याप्ति की स्थापना की जाती है-
1. अन्वय-अन्वय से आशय है-एक वस्तु के भाव से दूसरी वस्तु का भाव होना। इसका मुख्य उदाहरण है-जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग है।
2. व्यतिरेक- व्यतिरेक से आशय है-किसी एक वस्तु के अभाव से किसी दूसरी वस्तु का अभाव होना। उदाहरण के लिए.-जहाँ-जहाँ आग नहीं है, वहाँ-वहाँ धुआँ भी नहीं है।
3. व्याभिचाराग्रह- व्याभिचाराग्रह का आशय है-दो वस्तुओं के मध्य व्यभिचार का अभाव। व्यभिचार के अभाव से भी व्याप्ति सम्बन्धैं निश्चित होता है। हम देखते हैं कि धुएँ के साथ सदैव आग रहती है तथा ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कहीं धुआँ हो परन्तु आग न हो। इस अत्याघातक अनुभव के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ आग होती है।
4. उपाधिनिरास-न्याय-प्रमाण-शास्त्र के अनुसार व्याप्ति सम्बन्ध के लिए अनोपाधिक सम्बन्ध का विद्यमान होना अनिवार्य है। यदि यह सम्बन्ध किसी उपाधि पर निर्भर हो तो व्याप्ति सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। “जैसे-जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग है” वास्तव में धुएँ तथा. आग में अनौपाधिक सम्बन्ध है जबकि आग और धुएँ में सौपाधिक सम्बन्ध है।
5. तर्क-व्याप्ति की स्थापना तर्क द्वारा भी की गयी है। सामान्य रूप से व्याप्ति का निर्धारण अनुभव के आधार पर किया जाता है परन्तु अनुभव केवल वर्तमान तक ही सीमित होता है। ऐसी अवस्था में कोई आक्षेप लग सकता है कि क्या मालूम भविष्य में धुएँ के साथ अनिवार्य रूप से आग हो ? इस समस्या के समाधान के लिए न्याय-प्रमाण-शास्त्र में तर्क द्वारा व्याप्ति स्थापित करने का विधान है। नैयायिकों का कहना है कि यदि इस बात को हम असत्य मान लें कि समस्त धूमयुक्त पदार्थ अग्नियुक्त है। तब इसका विरोधपूर्ण विरोध कथन सत्य होना चाहिए परन्तु ऐसा नहीं होता है। इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि सभी धूमयुक्त पदार्थ अग्नियुक्त है अर्थात् धुएँ तथा अग्नि में व्याप्ति है।
6. सामान्य लक्षण-प्रत्यक्ष-व्याप्ति सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए न्याय-प्रमाण-शास्त्र में सामान्य-लक्षण-प्रत्यय को भी आधार बनाया गया है। सामान्य-लक्षण-प्रत्यय के किसी एक वस्तु या व्यक्ति के प्रत्यक्ष के आधार पर सम्बन्धित जाति का प्रत्यक्ष कर लिया जाता है। एक मनुष्य के प्रत्यक्ष द्वारा सम्पूर्ण मनुष्य जाति का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है।
न्याय-प्रमाण-शास्त्र में अनुमान के विभिन्न प्रकार स्वीकार किये गये हैं तथा अनुमान के प्रकारों का वर्गीकरण भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया गया है। यह वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन दृष्टिकोणों से किया गया है-
- प्रयोजन के अनुसार,
- प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार और
- नव्य न्याय के अनुसार।
(i) प्रयोजन के अनुसार अनुमान के प्रकार-प्रयोजन के अनुसार अनुमान के दो प्रकार होते हैं-(क) स्वार्थानुमान और (ख) परार्थानुमान। अनुमान दो उद्देश्यों से किया जा सकता है-अपनी शंका के समाधान के लिए या दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए। जब अनुमान अपनी शंका के समाधान के लिए किया जाता है तब उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। ऐसे अनुमान में तीन वाक्य रहते हैं-निगमन हेतु और व्याप्ति वाक्य।
उदाहरण-राम मरणशील है-निगमन
क्योंकि वह मनुष्य है-हेतु
∴ सभी मनुष्य मरणशील है-व्याप्तिवाक्य
जब अनुमान दूसरों को समझाने के लिए किया जाता है तब इसे परार्थानुमान कहते हैं। इसमें पाँच वाक्य होते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, व्याप्तिवाक्य, उपनय और निगमन। इसे “पंचवयव-न्याय” कहते हैं। इसके द्वारा दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।
उदाहरण-
- राम मरणशील है-प्रतिज्ञा
- क्योंकि वह एक मनुष्य है-हेतु
- सभी मनुष्य मरणशील है, जैसे-मोहन, रहीम इत्यादि-उदाहरण
- राम भी एक मनुष्य है-उपनय
- इसलिए राम मरणशील है-निगमन
(ii) प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार-प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार अनुमान तीन प्रकार के हैं
(a) पूर्ववत अनुमान
(b) शेषवत अनुमान
(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान।
(a) पूर्ववत अनुमान-पूर्ववत अनुमान में पूर्ववर्ती के आधार पर अनुवर्ती का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञात कारण से अज्ञात कार्य का अनुमान करना ही पूर्ववत अनुमान कहलाता है। उदाहरण–विद्यार्थी को कड़ी मेहनत करते देखकर, उसके परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने का अनुमान।
(b) शेषवत अनुमान-यहाँ अनुवर्ती आधार पर पूर्ववर्ती का अनुमान किया जाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञात कार्य के अज्ञात कारण का अनुमान लगाया जाता है। उदाहरण-कहीं मलेरिया बुखार का प्रकोप देखकर वहाँ अनोफिल मच्छरों की भरमार का अनुमान।
पूर्ववत और शेषवत अनुमान कार्य-कारण सम्बन्ध पर निर्भर है। प्रथम अनुमान में कारण से कर्म का और द्वितीय अनुमान में कर्म से कारण का पता लगाया जाता है।
(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान-जब दो वस्तुओं में कार्य कारण सम्बन्ध न हो किन्तु दोनों में … साहचर्य सम्बन्ध पाया जाय तो एक की उपस्थिति से दूसरे की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है। यहाँ सहचर सम्बन्ध अपवाद रहित होता है, जैसे-जीभ से पानी पीनेवाले जानवर को हमने सदैव मांसाहारी पाया है। यह सामान्यतोदृष्ट अनुमान केवल सामान्यतः साधारणतः दृष्ट (देखी गई) घटनाओं पर आधृत है।
पूर्ववत्, शेषवत और सामान्यतोदृष्ट का प्रयोग एक-दूसरे अर्थ में भी किया जाता है।
(a) पूर्ववत् अनुमान-पूर्ववत् का शाब्दिक अर्थ है-पूर्व के समान। अर्थात् जिस प्रकार अनुभव में पहले प्रमाणित हो चुका है उसी प्रकार अनुभव करना पूर्ववत् अनुमान कहलाता है। उदाहरण-अनुभव के आधार पर यह पहले ही सिद्ध हो चुका है कि जहाँ अनोफिल मच्छर हो तो वहाँ मलेरिया बुखार होगा। इसलिए अनोफिल मच्छर की उपस्थिति मलेरिया बुखार का अनुमान किया जाता है।
(b) शेषवत अनुमान-यदि विकल्पों को छाँट-छाँट कर अंत में शेष बचनेवाले विकल्प के आधार पर कोई अनुमान निकाला जाय तो इसे शेषवत अनुमान कहते हैं। शेषवत का शाब्दिक अर्थ ही है-शेष के समान। उदाहरण-हम एक-एक कर देखते हैं कि शब्द में दृव्य, कर्म सामान्य विशेष समवाय और अभाव के लक्षण नहीं पाये जाते। सात पदार्थों में केवल “गुण” बच जाता है। इसलिए हम अनुमान करते हैं कि शब्द एक गुण है। यहाँ वस्तुओं की क्रमिक निराकरण विधि द्वारा शेष का अनुमान किया जाता है। शेषवत अनुमान को “परिशेष अनुमान” भी कहते हैं।
(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान-कई ऐसे पदार्थ हैं जिनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इस स्थिति में इनके लक्षणों या चिह्नों के आधार पर इनके अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। यहाँ सामान्य नियम के आधार पर लिंग और लिंगी के बीच सम्बन्ध दिखाकर लिंगी या साध्य की सत्ता का अनुमान किया जाता है। उदाहरण-आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। किन्तु इसके कई लक्षणों या गुणों (जैसे-सुख-दुख इच्छा आदि) का प्रत्यक्ष हमें होता है। यह सामान्य नियम है कि गुण या चिह्न किसी आश्रय में ही रह सकते हैं। इस प्रकार, हम अनुमान करते हैं कि इन गुणों के आधार या आश्रय में ही रह सकते हैं। इस प्रकार हम अनुमान करते हैं कि इन गुणों के आधार या आश्रय के रूप में कोई सत्ता अवश्य है। यह सत्ता निश्चय ही आत्मा है। सामान्यतोदृष्ट को समान्यतोऽदृष्ट भी कहते हैं क्योंकि यहाँ साध्य या लिंगी सामान्यतः अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) रहता है।
(iii) नतन्याद के अनुसार अनुमान के प्रकार-इस दृष्टिकोण से अनुमान के तीन प्रकार हैं-
(a) केवलान्वयी
(b) केवल व्यतिरेकी और
(c) अन्वय व्यतिरेकी। अनुमान के ये तीनों रूप व्याप्ति की विधि पर आधुत है।
(a) केवलान्वयी-जब केवल भावात्मक उदाहरणों के आधार पर स्थापित व्याप्ति को अनुमान का आधार बनाया जाता है तब उसे केवलान्वयी अनुमान कहते हैं। यहाँ निषेधात्मक उदाहरण नहीं लिए जाते।
उदाहरण-
- यह नौकर रखने योग्य है-प्रतिज्ञा
- क्योंकि यह नौकर ईमानदार है-हेतु
- और जो ईमानदार होता है उसे नौकर रखा जा सकता है। जैसे–मोहन, यदु इत्यादि।
- यह नौकर ईमानदार है-उपनय
- इसलिए यह नौकर रखने योग्य है-निगमन।
(b) केवल व्यतिरेकी-केवल व्यतिरेकी अनुमान पाश्चात्य तर्कशास्त्र की व्यतिरेक विधि से मिलता-जुलता है।
(c) अन्वय व्यतिरेकी-कभी-कभी व्याप्ति की स्थापना अन्वय और व्यतिरेक दोनों विधियों की मदद से होती है। अन्वय विधि में भावात्मक उदाहरणों के आधार पर व्याप्ति या सामान्य वाक्य की स्थापना की जाती है और व्यतिरेक विधि में निषेधात्मक उदाहरणों के आधार पर। इसलिए अन्वयव्यतिरेक अनुमान वह है जो भावात्मक और निषेधात्मक दोनों प्रकार के उदाहरणों द्वारा स्थापित व्याप्ति पर आधृत हो-
भावात्मक उदाहरण-
सभी धुआँयुक्त स्थान अग्नियुक्त है।
पर्वत धुआँयुक्त है।
इसलिए पर्वत अग्नियुक्त है।
निषेधात्मक उदाहरण-
सभी अग्नि रहित स्थान धुआँ रहित है।
पर्वत धुआँयुक्त है।
∴ पर्वत अग्नियुक्त है।
अन्वय व्यतिरेक अनुमान पाश्चात्य तर्कशास्त्र की संयुक्त विधि (Joint Method of Agreement and difference) से मिलता-जुलता है।
प्रश्न 5. वैशेषिक के अनुसार गुण की व्याख्या करें।
उत्तर: वैशेषिक दर्शन के अनुसार “गुण वह पदार्थ है जो द्रव्य में रहता है। परन्तु जिसमें गुण और कर्म नहीं रहते।” गुण के तीन लक्षण बताये गये हैं-द्रव्याश्रितत्व, निर्गुणत्व और निष्क्रियत्व अर्थात् गुण द्रव्य पर आश्रित होते हुए भी निर्गुण और निष्क्रिय होता है। गुण के तीनों लक्षण अलग-अलग से इस प्रकार स्पष्ट होता है-
1. द्रव्याश्रित-द्रव्य गुण का आधार है क्योंकि वह निराधार नहीं रह सकता है इसलिए गुण को द्रव्याश्रयी कहा गया है। हम निर्गुण द्रव्य की कल्पना नहीं कर सकते। गुण द्रव्य में आश्रित रहता है। इससे गण और द्रव्य के परस्पर तादात्म्य का निषेध रहता है।
2. निर्गुणत्व-गुण निर्गुण होता है। यदि गुण में गुण मान लिया जाए तो इनसे मुख्यतः समस्या सामने आएगी
(i) यदि एक गुण में दूसरा गुण है तो दूसरे में तीसरा, तीसरे में चौथा और इस प्रकार इस श्रृंखला का कभी अंत ही नहीं होगा फलतः अनवस्था दोष का प्रादुर्भाव होगा। अतः अनवस्था दोष से बचने के लिए गुण को निर्गुण मानना आवश्यक है।
(ii) दूसरी समस्या यह उत्पन्न होगी कि अगर एक गुण में दूसरे गुण को मान लिया जाए तो इन दोनों गुणों के दो प्रकार के स्वरूप हो जाएंगे। हम जानते हैं कि गुण द्रव्य में ही रहते हैं। यदि गुण, में गुण भी रहने लगे तो ये दोनों गुण दो प्रकार के हो जाएँगे जिससे समस्या उत्पन्न होगी। अतः समस्याओं से बचने के लिए गुण को निर्गुण मान लिया गया है।
3. निष्क्रियत्व-गुण कर्म से भिन्न होता है। कर्म का भी कुछ गुण है और वह द्रव्याश्रित भी है। अतः कर्म से भेद करने के लिए इसे निष्क्रिय कहा गया है।
प्रशस्तपाद (वैशेषिक सूत्र के प्रमुख भाष्यकार) गुणों के तीन वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं-
1. प्रथम दृष्टिकोण से गुण के दो प्रकार होते हैं-(क) वे गुण, जो एक द्रव्य में रहे जैसे-गन्ध, स्वाद, रंग इत्यादि। (ख) वे गुण, जो एक से अधिक द्रव्यों में रहे। जैसे संयोग और वियोग के लिए कम-से-कम दो वस्तुओं का रहना आवश्यक है।
2. दूसरे दृष्टिकोण से भी गुण के दो प्रकार होते हैं-(क) विशेष गुण-ये ऐसे गुण हैं जिसके आधार पर उनको धारण करने वाले द्रव्य में अन्तर लाया जाता है। (ख) सामान्य गुण-ये गुण किसी द्रव्य की विशेषता नहीं बतलाते हैं। जैसे संख्या इत्यादि।
3. तीसरे दृष्टिकोण से गुण के तीन प्रकार हैं-(क) एक ही इन्द्रिय से जानने योग्य गुण (ख) एक से अधिक इन्द्रिय से जानने योग्य गुण (ग) ऐसा गुण जिसका अनुभव से नहीं होता है जैसे धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य।
वैशेषिक के अनुसार गुणों की संख्या चौबीस है। वे इस प्रकार से है-
- रूप
- रस या स्वाद
- गन्ध
- स्पर्श
- शब्द
- संयोग
- वियोग
- पृथकत्व
- परिमाण
- परत्व
- अपरत्व
- गुरुत्व
- प्रयत्न
- सुख
- दुःख
- इच्छा
- द्रवत्व
- स्नेह
- द्वेष
- धर्म
- अधर्म
- संस्कार
- संख्या
- बुद्धि।
1. रूप-चक्षुमात्र से ग्राह्य विशेष गुण है। रूप के सात भेद होते हैं-शुक्ल, नील, हरित, रक्त, पीत, कपिश और चित्र।
2. रस-रसना (जिह्वा) से प्रत्यक्ष योग्य गुण को रस कहते हैं। रस के छः भेद हैं-मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कपाल और तिक्त।
3. गन्ध-घ्राण (या नाक) से ग्राह्य विशेष गुण का नाम है गन्ध। यह दो प्रकार का है-सुरभि और असुरभि।
4. स्पर्श-त्वचा से ग्राह्य गुण ही स्पर्श है। स्पर्श तीन प्रकार का है-शीत, उष्ण और अनुष्णशीत।
5. संख्या-एक, दो, तीन आदि के व्यवहार हेतु का नाम संख्या है। संख्या एक से लेकर परार्द्ध तक, दो से लेकर परार्द्ध तक की संख्याएँ अपेक्षा बुद्धिजन्य हैं।
6. परिमाण-कोई द्रव्य जिसके द्वारा नापा जाए वह परिमाण कहलाता है। इसके चार भेद हैं-अणु, महत्, दीर्घ और ह्रस्व।
7. पृथकत्व-यह द्रव्य से अलग है। इस प्रकार के आधार को पृथकत्व कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-पृथकत्व और द्विपृथकत्व।
8. संयोग-यह पदार्थ उस पदार्थ से संयुक्त है। इस व्यवहार के आधार को संयोग कहते हैं। संयोग तीन प्रकार का है (क) अन्यतर कर्मज-यह किसी एक ही पक्ष के कर्म से उत्पन्न होता है जैसे पक्षी उड़कर पेड़ पर बैठता है। (ख) उभयं कर्मज-यहाँ दोनों पक्षों की क्रिया से संयोग उत्पन्न होता है जैसे दो मुर्गी का लड़ना। (ग) संयोगज-जहाँ एक संयोग से दूसरा संयोग उत्पन्न होता है जैसे वृक्ष से मनुष्य के हाथ के संयोग से उत्पन्न मनुष्य तथा वृक्ष का संयोगा।
9. विभाग-संयोग के नाश करने वाले गुण का नाम विभाग है। संयोग के समान विभाग भी तीन प्रकार का होता है। (क) अन्तर कर्मज जैसे पेड़ से पक्षी का उड़ जाना। (ख) उभय कर्मज-एक साथ बैठे हुए दो पक्षियों का उड़ जाना (ग) विभागज-पत्ते शाखा से गिरते हैं परन्तु उनका वृक्ष से भी विभाग हो जाता है।
10. परत्व-उपरत्व-यह दूर है, यह समीप है इन व्यवहारों के आधार को परत्व-अपरत्व कहते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है-दैशिक तथा कालिक।
11. गुरुत्व-जिस गुण के कारण स्वभावतः पतन क्रिया सम्भव हो या दो वस्तु का भारीपन ही गुरुत्व है।
12. द्रवत्व-जिस गुण के कारण कोई वस्तु बहती है उसे द्रवत्व कहते हैं।
13. स्नेह-वस्तु में जो चिकनाहट होती है जिसके कारण चिकनी वस्तु के सम्पर्क से आँटे आदि चूर्ण रूप का पिंड बनता है वही स्नेह है।
14.शब्द-कान के द्वारा ग्राह्य का नाम शब्द है। शब्द दो प्रकार का होता है-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। यह आकाश का विशेष गुण है।
15. बुद्धि-आत्मा का विशेष गुण है। बुद्धि का कार्य है विषयों का प्रकाश करना। बुद्धि के दो भेद होते हैं-अनुभव और स्मृति।
16. सुख-प्रीति का काम सुख है। इसे लोग अनुकूल रूप में अनुभव करते हैं।
17. दुःख-पीड़ा का नाम है दुःख। यह सब प्राणियों के प्रतिकूल है।
18. इच्छा-राग ही इच्छा है। यह दो प्रकार की होती है-नित्य और अनित्य। ईश्वर की इच्छा नित्य है और जीव की अनित्य।
19. द्वेष-क्रोध का नाम ही द्वेष है। 20. प्रयल-उत्साह को प्रयत्न कहते हैं।
21. धर्म-अधर्म-सुख का असाधारण कारण धर्म है तथा दुःख का असाधारण कारण अधर्म है। ये दोनों जीवात्मा के विशेष गुण हैं।
22. संस्कार-यह तीन प्रकार का है वेग, भावना और स्थिति स्थापक। (क) वेग-इसके कारण किसी वस्तु में गति होती है। (ख) भावना-इसके कारण किसी विषय की स्मृति होती है। (ग) स्थिति स्थापक-इसके कारण किसी पदार्थ में विक्षोभ होने के बाद पुनः स्थिति में वह आ जाता है।
इस प्रकार से वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुणों की चर्चा की गई है। अक्सर यह प्रश्न उठता है कि वैशेषिक ने आखिर 24 गुणों को ही क्यों स्वीकार किया ? इसका कारण यह है कि इन सभी गुणों की गणना की जाए तो इनकी संख्या अत्यधिक बढ़ जाएगी। इसीलिए वैशेषिकों ने केवल मौलिक गुणों की गणना की है और इस प्रकार चौबीस गुण माने गए हैं।
प्रश्न 6. शब्द क्या है ? शब्द के मुख्य प्रकारों या भेदों की व्याख्या करें।
अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार शब्द के अर्थ को स्पष्ट करें। शब्द के मुख्य प्रकारों की व्याख्या करें।
उत्तर: बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। अनेक शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों से हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्द को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हो। भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से जो ज्ञान हमें मिलते हैं, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलते हैं, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा प्राप्त होते हैं।
‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हो। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाए तो उन्हें समझ में नहीं आएगी।
शब्द के प्रकार या भेद (Kinds of Forms of Types of Authority)-शब्द के वृहत् अर्थानुसार कान का जो विषय है वह शब्द कहलाता है। इस दृष्टिकोण से शब्द के दो प्रकार होते हैं-
(क) ध्वनि-बोधक शब्द (Inarticulate)-जिसमें केवल एक ध्वनि या आवाज ही कान को सुनाई पड़ती है, उससे कोई अक्षर प्रकट नहीं होता है। जैसे-मृदंग या सितार की आवाज या गधे का रेंकना आदि।
(ख) वर्ण-बोधक शब्द (Articulate)-जिसमें कंठ, तालु आदि के संयोग से स्वर-व्यंजनों का उच्चारण प्रकट होता है। जैसे-मानव की आवाज, पानी, हवा, आम, मछली आदि।
वर्ण-बोधक शब्द के भी दो रूप होते हैं-
- सार्थक शब्द (meaningful)-सार्थक शब्दों में कुछ-न-कुछ अर्थ छिपे रहते हैं। जैसे-धर्म, कॉलेज, पूजा, पुस्तक, भवन आदि।
- निरर्थक शब्द (unmeaningful)-निरर्थक शब्द के अर्थ प्रकट नहीं होते हैं जैसे-आह, ओह, उफ, खट, पट आदि।
तर्कशास्त्र में हमारा सम्बन्ध केवल सार्थक शब्दों द्वारा ही प्रकट किए जाते हैं।
न्यायिकों ने शब्द के दो प्रकार बताए हैं। वे निम्नलिखित हैं-
(क) दृष्टाथ शब्द (Perceptible)-दृष्टार्थ शब्द उसे कहेंगे जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष (Perception) द्वारा प्राप्त हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी शब्दों का प्रत्यक्ष हमें हमेशा ही हो। जैसे हिमालय पहाड़ा, आगरा का ताजमहल, नई दिल्ली का संसद भवन आदि की बात की जाए तो वे दृष्टार्थ शब्द होंगे क्योंकि उनका प्रत्यक्ष संभव है।
(ख) अदृष्टार्थ शब्द (Imperceptible)-अदृष्टार्थ शब्द वे हैं जो सत्य तो माने जाते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष की पहुँच से बिल्कुल बाहर रहते हैं। ऐसे शब्द आप्त वचन या विश्वसनीय लोगों के मुँह से सुनाई पड़ते हैं, यदि उन शब्दों का प्रत्यक्षीकरण करना चाहें तो संभव नहीं है। जैसे ईश्वर, मन, आत्मा, अमरता आदि ऐसे शब्द हैं जिन्हें हम सत्य तो मान लेते हैं लेकिन उसका प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। इसी तरह बड़े-बड़े महात्माओं एवं ऋषि-मुनियों की पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति आदि बातों का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है।
सूत्र के आधार पर नेयायिकों ने शब्द के दो भेद बताए हैं। वे हैं-वैदिक शब्द (World of Vedas) एवं लौकिक शब्द (Word of human being)।
वैदिक शब्द (World of Vedas of God)-भारतवर्ष में ‘वेद’ आदि ग्रन्थ है। वैदिक वचन ईश्वर के वचन माने जाते हैं। ऐसे शब्द की सत्यता पर संदेह की बातें नहीं की जा सकती हैं। इसे हम ब्रह्मवाक्य नाम से जानते हैं। वैदिक शब्द सदा निर्दोष, अभ्रान्त, विश्वास-पूर्ण तथा पवित्र माने जाते हैं। कहने का अभिप्राय वैदिक शब्दों को बहुत से भारतीय स्वतः एक प्रमाण मानते हैं। वैदिक शब्द या वाक्य तीन प्रकार के हैं-
(क) विधि वाक्य-विधि वाक्य में हम एक तरह की आज्ञा या आदेश पाते हैं जैसे-जो स्वर्ग जाने की इच्छा रखते हैं, वे अग्निहीन होम करें।
(ख) अर्थवाद- अर्थवाद वर्णनात्मक वाक्य के रूप में हम पाते हैं। इसके चार प्रकार माने जाते हैं-
(i) स्तुतिवाक्य- स्तुति-वाक्य में किसी काम का फल बतलाकर किसी की प्रशंसा की जाती है। जैसे-अमुक यज्ञ को पूरा कर अमुक व्यक्ति ने यश की प्राप्ति की।
(ii) निन्दा वाक्य- निन्दा वाक्य में बुरे काम के फल को बतलाकर उसकी निन्दा की जाती है। जैसे-पाप कर्म करने से मनुष्य नरक में जाता है।
(iii) प्रकृति वाक्य- प्रकृति वाक्य में मानव के द्वारा किए हुए कामों में विरोध दिखलाया जाता है। जैसे-कोई पूरब मुँह होकर आहुति करता है और कोई पश्चिम मुँह।
(iv) पुराकल्प वाक्य- पुराकल्प वाक्य ऐसी विधि को बतलाला है जो परम्परा से चली आती है। जैसे–’महान संतगण’ यही कहते आते हैं, अतः हम इसे ही करें।
(ग) अनुवाद- अनुवाद वैदिक वाक्य का तीसरा रूप कहा जा सकता है। इसमें पहले से कही हुई बातों को दुहरा (repeat) दिया गया है।
लौकिक शब्द (Word of human beings)-सामान्य रूप से मनुष्य के वचन को हम लौकिक शब्द कह सकते हैं। लौकिक शब्द वैदिक शब्द की तरह पूर्णतः सत्य होने का दावा नहीं कर सकता है। मनुष्य के वचन झूठे भी हो सकते हैं। यदि लौकिक शब्द किसी महान् या विश्वसनीय पुरुष के द्वारा कहे जाएँ तो वे शब्द भी वैदिक वचन की तरह सत्य माने जाते हैं।
मीमांसा- दर्शन में भी शब्द के दो भेद बताए गए हैं-‘पौरुषेय’ और ‘अपौरुषेय’। नैयायिकों ने जिस शब्द को लौकिक कहा है, उसी को मीमांसा-दर्शन में ‘पौरुषेय’ कहा जाता है। जैसे-मनुष्य के वचन या आप्तवचन ‘पौरुषेय’ शब्द कहलाते हैं। दूसरी ओर वैदिक शब्द को मीमांसा-दर्शन में ‘अपौरुषेय’ शब्द से पुकारा जाता है। मीमांसा-दर्शन वैदिक शब्द की सत्यता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करना ही अपना लक्ष्य मानता है। अतः वहाँ ‘शब्द-प्रमाण’ का सहारा आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न 7. पाश्चात्य न्याय वाक्य और पंचावयव में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर: पाश्चात्य न्याय वाक्य एवं पंचावयव में निम्नलिखित मुख्य अंतर हैं-
1. पाश्चात्य न्याय वाक्य (Syllogism) में केवल तीन वाक्य होते हैं, जबकि गौतम के. पंचायव में पाँच वाक्य होते हैं।
2. पाश्चात्य न्याय-वाक्य में निष्कर्ष तीसरे या अन्तिम वाक्य के रूप में होता है लेकिन गौतम के पंचावयव में निष्कर्ष यानि निगमन तीसरे वाक्य के रूप में नहीं रहता है। यह प्रतिज्ञा के रूप में एक जगह पहले वाक्य के रूप में रहता है तथा निगमन के रूप पाँचवें वाक्य की जगह होता है।
3.-पाश्चात्य न्याय वाक्य में जो वाक्य वृहत् वाक्य (Major prermise) के रूप में रहता है वह वाक्य ‘व्याप्ति’ के रूप में ‘पंचावयव’ में तीसरे स्थान के वाक्य में रहता है।
4. पाश्चात्य न्याय-वाक्य (Syllogism) में उदाहरण देने की कोई जरूरत नहीं होती है, के लिए उदाहरण दिया जाता है तथा उसके लिए ‘व्याप्ति-वाक्य’ के रूप में एक खास स्थान दिया जाता है।
5. पाश्चात्य न्याय वाक्य में परिभाषा तथा गुण की स्थापना पश्चिमी तरीके से की जाती है जो भारतीय तरीके से भिन्न है। इसलिए दोनों के न्याय-वाक्य का गुण भी आपस में एक-दूसरे से भिन्न श्रेणी का पाया जाता है।
6. भारतीय नैयायिकों का तर्क है कि पाँच वाक्य होने से हमारा अनुमान अधिक मजबूत होता है जबकि पाश्चात्य न्याय वाक्य में केवल तीन वाक्य ही होते हैं। अतः उनका अनुमान पंचवायव की तरह मजबूत नहीं कहा जा सकता है
7. पाश्चात्य न्याय वाक्य में एक ही वाक्य पूर्णव्यापी (Universal) होता है, जिसे हम वृहत् वाक्य (Major premise) के रूप में जानते हैं। उदाहरणार्थ-
सभी मनुष्य मरणशील हैं। – Major Premise
राम मनुष्य है। – Minor Premise
इसलिए राम मरणशील है। – Conclusion
8. पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्णव्यापी (Universal) वाक्य की स्थापना हेतु आगमन (Conduction) की जरूरत पड़ती है, जिसमें कुछ उदाहरणों का निरीक्षण कर हम पूर्णव्यापी वाक्य बनाते हैं। जैसे-मोहन, सोहन, करीम आदि को मरते देखकर हम पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील है।’
9. भारतीय न्याय दर्शन में ‘आगमन’ के रूप में कोई तर्कशास्त्र अलग नहीं है। जो काम आगमन के द्वारा होता है वह तो उदाहरण सहित ‘व्याप्ति-वाक्य’ में ही हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘पंचावयव’ में आगमन एवं निगमन दोनों सम्मिलित हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि पाश्चात्य न्याय-वाक्य एवं ‘पंचावयव’ में मौलिक अंतर है।
प्रश्न 8. वैशेषिक के अनुसार समवाय की व्याख्या करें और संयोग के साथ इसका अंतर बतलायें।
उत्तर: ‘समवाय’ वह सम्बन्ध है जिसके कारण दो पदार्थ एक-दूसरे में समवेत रहते हैं। यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है जो दो अविच्छेद (Inseparable) वस्तुओं को सम्बन्धित करता है। उदाहरणस्वरूप, द्रव्य और गुण या कर्म का सम्बन्ध ‘समवाय’ है। इस सम्बन्ध से जुटी वस्तुएँ एक-दूसरे से अलग नहीं की जा सकती। प्रभाकर मीमांसा में समवाय अनेक माने गये हैं। प्रभाकर के मतानुसार, नित्य वस्तुओं का समवाय नित्य और अनित्य वस्तु का समवाय अनित्य होते हैं। परन्तु न्याय वैशेषिक में एक ही नित्य समवाय माना गया है। समवाय अदृश्य होता है इसलिए इसका ज्ञान अनुमान द्वारा प्राप्त किया जाता है।
समवाय को अच्छी तरह समझने के लिए वैशेषिक द्वारा प्रमाणित दूसरे ‘सम्बन्ध संयोग’ (Conjunction) को समझ लेना आवश्यक है। संयोग और समवाय वैशेषिक के मतानुसार दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। संयोग एक अनित्य सम्बन्ध है। संयोग की परिभाषा देते हुए कहा गया है’पृथक-पृथक वस्तुओं का कुछ काल के लिए परस्पर मिलने से जो सम्बन्ध होता है, उसे संयोग (conjunction) कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-पक्षी वृक्ष की डाल पर आकर बैठता है। उसके बैठने से वृक्ष की डाल और पक्षी के बीच जो सम्बन्ध होता है उसे ‘संयोग’ कहा जाता है। यह सम्बन्ध अनायास हो जाता है। कुछ काल के बाद यह सम्बन्ध टूट भी सकता है। इसलिए इसे अनित्य सम्बन्ध कहा गया है। यद्यपि समवाय और संयोग दोनों सम्बद्ध हैं फिर भी दोनों के बीच अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती हैं।
1. संयोग एक बाह्य सम्बन्ध (External relation) है, किन्तु समवाय एक आन्तरिक सम्बन्ध (Internal relation) है।
2. संयोग द्वारा सम्बन्धित वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् की जा सकती हैं। परन्तु समवाय द्वारा सम्बन्धित वस्तुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप-पुस्तक और टेबुल को एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है, किन्तु द्रव्य और गुण को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। चीनी में मिठास समवेत है। मिठास को चीनी से पृथक् नहीं किया जा सकता।
3. संयोग अस्थायी (Temporary) है, किन्तु समवाय स्थायी (Permanent) होता है।
4. संयोग एक प्रकार का आकस्मिक सम्बन्ध (Accidental relation) है, किन्तु समवाय आवश्यक सम्बन्ध (Essential relation) है। संयोग द्वारा सम्बन्धित टेबुल और पुस्तक पहले अलग-अलग थे, किन्तु अकस्मात् इनमें संयोग स्थापित हो गया। किन्तु चीनी और मिठास तथा नमक और खरापन में समवाय है जो आवश्यक सम्बन्ध है।
5. ‘संयोग’ अपने सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित नहीं करता किन्तु ‘समवाय’ सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित करता है। उदाहरणस्वरूप, टेबुल और पुस्तक संयोग के पहले अलग-अलग थे और संयोग के नष्ट हो जाने पर पुनः अलग-अलग हो जाते हैं।
संयोग के अभाव या भाव से इनके अस्तित्व और स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, ‘समवाय’ से जुटे पदार्थ परस्पर अलग होकर अपना अस्तित्व एवं स्वरूप कायम नहीं रख सकते। उदाहरणस्वरूप शरीर और इसके अवयवों में समवाय सम्बन्ध रहता है। शरीर से पृथक् अवयवों का अस्तित्व नहीं रह सकता और इसका कार्य भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार शरीर भी अवयवों से पृथक् होकर नहीं रह सकता।
6. संयोग के लिए दो या कम-से-कम एक वस्तु में गति या कर्म का होना अनिवार्य है। किन्तु समावाय किसी कर्म या गति पर आश्रित नहीं है।
7. न्याय-वैशेषिक संयोग के स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते, किन्तु समवाय को स्वतंत्र पदार्थ मानते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या समवाय एक स्वतंत्र पदार्थ है ? वैशेषिकों ने निम्नलिखित कारणों से समवाय को एक स्वतंत्र रूप में प्रतिष्ठित किया है-
(i) वैशेषिकों का कहना है कि यदि द्रव्य वास्तविक है और गुण वास्तिक है तो दोनों का सम्बन्ध समवाय भी वास्तविक ही है। यदि व्यक्ति और सामान्य दोनों वास्तविक है तब व्यक्ति और . सामान्य का सम्बन्ध समवाय भी वास्तविक ही है। अतः समवाय को एक स्वतंत्र पदार्थ मानना युक्तिसंगत है।
(ii) समवाय को इसलिये भी स्वतंत्र पदार्थ माना गया है कि इसे अन्य पदार्थ के अन्दर नहीं . लाया जा सकता। सामान्य और व्यक्ति के बीच के सम्बन्ध को समवाय कहा जाता है। इसे द्रव्य, गुण, कर्म, विशेष या अभाव के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। अतः समवाय को एक स्वतंत्र पदार्थ मानना अनिवार्य हो सकता है।
प्रश्न 9. वैशेषिक के सामान्य नामक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए । सामान्य के विभिन्न प्रकार क्या है ?
उत्तर: ‘सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों के एक जाति के अन्दर रखा जाता है। उदाहरणस्वरूप-राम, श्याम, मोहन इत्यादि व्यक्तियों में भिन्नता होने के बावजूद उन सबों को मनुष्य कहा जाता है। ठीक यही बात गाय, घोड़े इत्यादि जातिवाचक शब्दों पर लागू होती है। संसार की समस्त गायों को गाय के वर्ग में रखा जाता है। अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि कौन-सी वस्तु है जिसके आधार पर संसार में विभिन्न वस्तुओं को एक नाम से पुकारा जाता है ? उसी सत्ता को सामान्य (Universality) कहा जाता है। व्यक्ति विशेष जन्म लेते हैं और मरते हैं, किन्तु सामान्य नित्य (eternal) है। सामान्य द्रव्यों, गुणों, कर्मों में विद्यमान रहता है।
1. नामवाद (Nominalism)-इस मत के अनुसार व्यक्ति से स्वतंत्र सामान्य की सत्ता नहीं है। सामान्य एक प्रकार का ‘नामकरण’ है। व्यावहारिक जीवन में सुविधा एवं सहूलियत के अनुसार अनेक व्यक्तियों को एक ही नाम से पुकारते हैं। सभी मनुष्यों को ‘मनुष्य’ एवं सभी गायों को ‘गाय’ नाम से पुकारते हैं। इस मत के अनुसार ‘नाम’ (जैसे हाथी, घोड़ा आदि) ही सत्य है और इसके अतिरिक्त सामान्य (जैसे हाथीत्व, घोड़त्व आदि) की कोई सत्ता नहीं है। ‘नाम’ से सिर्फ एक नामवाले व्यक्ति से दूसरे नामवाले व्यक्तियों की भिन्नता का पता चलता है। इस तरह इस मत में सामान्य की सत्ता का निषेध हुआ है। इस मत का समर्थक बौद्ध-दर्शन हैं।
2. प्रत्ययवाद (Conceptualism)-यह मत सामान्य को प्रत्ययमात्र (Concept) मानता है। प्रत्यय का निर्माण व्यक्तियों के सर्वनिष्ट आवश्यक धर्म के आधार पर होता है। इसीलिए इस मत के अनुसार व्यक्ति और सामान्य अभिन्न है। सामान्य व्यक्तियों का आंतरिक स्वरूप है जिसे बुद्धि ग्रहण करती है। इस मत के पोषक जैन मत और अद्वैत वेदान्त दर्शन है।
3. वस्तुवाद (Realism)-इस मत के अनुसार, सामान्य की स्वतंत्र सत्ता है। सामान्य व्यक्तियों का नाममात्र अथवा मानसिक प्रत्यय न होकर यथार्थवाद है। इसी कारण इस मत को वस्तुवादी मत (Realistic view) कहा जाता है। इस मत के समर्थक न्याय और वैशेषिक दर्शनों को. माना जाता है। व्यक्ति विशेष मरणशील है, किन्तु सामान्य नित्य एवं अमर है। मनुष्य विशेष जन्म लेते और मरते हैं, किन्तु मनुष्य का सामान्य (मनुष्यत्व) नित्य एवं अविनाशी बना रहता है।
वैशेषिक के अनुसार, सामान्यों (जैसे मुनष्यत्व, गौत्व, घटत्व इत्यादि) का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व (Objective existence) रहता है। यह अन्य द्रव्यों (जैसे पृथ्वी, जल आदि) की भाँति ही वस्तुनिष्ठ है। न्याय-वैशेषिक में सामान्य की यह परिभाषा दी गयी है-“नित्यमेकमनेकानुगत सामान्य” अर्थात् सामान्य नित्य, एक और अनेक वस्तुओं में समाविष्ट है। इसके विश्लेषणात्मक सामान्य की कई विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं।
सामान्य एक है-एक वर्ग या जाति के सभी सदस्यों का एक ही सामान्य होता है। उदाहरणस्वरूप सभी मनुष्यों का एक ही सामान्य है-‘मनुष्यत्व’। इसी प्रकार ‘गौत्व’ गाय का सामान्य है। यदि एक वर्ग के एक से अधिक सामान्य हो तो इसमें परस्पर विरोध की सम्भावना हो जाती है। इसीलिए न्याय वैशेषिक प्रत्येक वर्ग के लिए एक ही सामान्य मानते हैं।
सामान्य नित्य है-व्यक्तियों का जन्म होता है, नाश होता है परन्तु उनका सामान्य अविनाशी होता है। उदाहरणस्वरूप मनुष्यों का जन्म और उनकी मृत्य होती है. परन्त उनका सामान्य ‘मनुष्यत्व’ शाश्वत है। सामान्य अनादि और अनन्त है।-सामान्य अनेक वस्तुओं या व्यक्तियों में समवेत है-उदाहरणस्वरूप-‘मनुष्यत्व’ सामान्य संसार के सभी मनुष्यों में निहित है। ‘गौत्व’ सामान्य विश्व की समस्त गायों में समाविष्ट है।
सामान्य का सामान्य नहीं होता-यदि सामान्य का सामान्य माना जाए तो एक सामान्य और दूसरे सामान्य में तीसरा सामान्य मानना पड़ेगा। इस प्रकार अनावस्था (Fallacy Infinite regress) का सामना करना पड़ेगा। इस दोष से बचने के लिए सामान्य की सत्ता नहीं मानी जाती है। मनुष्य का सामान्य ‘मनुष्यत्व’ है, किन्तु ‘मनुष्यत्व’ का कोई सामान्य नहीं होता।
सामान्य द्रव्य (Substance), गुण (Quality) एवं कर्म (Action) में पाया जाता है-सभी द्रव्यों में समवेत सामान्य ‘द्रव्यत्व’ है। सभी गुणों में समवेत सामान्य ‘गुणत्व’ और सभी कर्मों में पाया जाने वाला सामान्य ‘कर्मत्व’ कहलाता है।
सामान्य अन्य सभी पदार्थों से भिन्न है। यद्यपि सामान्य वास्तविक है, फिर भी अन्य वस्तुओं की तरह काल और देश (Time and Space) में स्थित नहीं है। पाश्चात्य विचारकों के अनुसार सामान्य का ‘Existence’ नहीं होता, बल्कि Subsistence होता है।
न्याय-वैशेषिक के मतानुसार सामान्य का ज्ञान सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के द्वारा संभव होता है। उनके अनुसार जब हम राम, श्याम आदि किसी मनुष्य का प्रत्यक्षीकरण करते हैं तो ‘मनुष्यत्व’ का भी इसके साथ प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्यत्व का प्रत्यक्ष किये बिना कैसे जाना जा सकता है कि अमुक व्यक्ति मनुष्य है। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन में सामानय के प्रत्यक्ष द्वारा वर्ग का प्रत्यक्ष होता है। इसी असाधारण प्रत्यक्ष को हम सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के नाम से जानते हैं।
सामान्य के प्रकार (Kinds of Universility)-वैशेषिक दर्शन में व्यापकता विस्तार के दृष्टिकोण से सामान्य के तीन भेद किये गये हैं-
- पर सामान्य,
- अपर सामान्य और
- परापर सामान्य।
पर सामान्य- अत्यधिक व्यापक सामान्य को पर सामान्य कहा जा सकता है। पर सामान्य के अन्दर सभी सामान्य समाविष्ट है।
अपर सामान्य- सबसे छोटे सामान्य को ‘अपर सामान्य’ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूपगोत्व, मनुष्यत्व, घटत्व इत्यादि। ‘गोत्व’ केवल गौओं तक ‘मनुष्यत्व’ केवल मनुष्यों तक और ‘घटत्व’ केवल घड़ों तक ही सीमित रहते हैं।
परापर सामान्य- पर सामान्य और सामान्य के बीच आनेवाले सामान्य को परस्पर सामान्य कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-द्रव्यत्व (Substantiality) को लिया जा सकता है। ‘द्रव्यत्व’ सत्ता की अपेक्षा कम व्यापक है, किन्तु गोत्व, मनुष्यत्व, घटत्व आदि की अपेक्षा अधिक व्यापक है। सामान्य का यह भेद व्यापकता के दृष्टिकोण से किया गया है।
प्रश्न 10. वैशेषिक के अनुसार, “विशेष’ की व्याख्या करें।
उत्तर: विशेष वैशेषिक दर्शन का पाँचवाँ पदार्थ है। इसको वैशेषिक दर्शन में विशिष्ट अर्थ में लिया गया है। इसके अनुसार ‘नित्य तथा निरवयव द्रव्यों के विशिष्ट व्यक्तित्व जिसके कारण वे अपने पहचान बनाते हैं, को ‘विशेष’ की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार के नित्य एवं निरवयव द्रव्य है–दिक्, काल, आकाश, मन और चार भूतों (पृथ्वी, जल, वायु एवं अग्नि) के परमाणु। विशेष के आधार पर ही एक आत्मा दूसरी आत्मा से भिन्न दृष्टिगत होती है। इसी तरह अग्नि के परमाणुओं में परस्पर भेद विशेष के कारण ही होता है। इस प्रकार नित्य एवं निरवयव द्रव्यों के अपने-अपने व्यक्तिगत स्वरूप ही ‘विशेष’ है। इस प्रकार नित्य एवं निरवयव द्रव्यों के अपनेअपने व्यक्तिगत स्वरूप ही ‘विशेष’ कहे जा सकते हैं। संक्षेपतः हम कह सकते हैं कि ‘विशेष नित्य पदार्थों की विशेषता है।
कणाद ने ‘विशेष’ को विशिष्ट अर्थ में रखते हुए इसे केवल नित्य एवं निरवयव (Eternal and partless) द्रव्यों तक ही सीमित रखा है। इससे केवल इन्हीं द्रव्यों की पहचान एवं इनसे परस्पर भेद समझे जा सकते हैं। साधारण एवं सावयव पदार्थों (Substances having parts) के पारस्परिक अन्तर को उनके अवयवों एवं गुणों के आधार पर ही हम समझ लेते हैं। इनका विश्लेषण संभव है, इसलिए इनके पारस्परिक भेद को समझना आसान है। नित्य पदार्थ निरवयव होते हैं। इनका विश्लेषण अवयवों में नहीं हो सकता। इसलिए इनके पारस्परिक भेद को जानने के लिए कणाद ने ‘विशेष’ को अपनाया है।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार ‘विशेष’ सभी नित्य द्रव्यों में नहीं रहता। यह केवल उसी नित्य द्रव्य में रहता है जहाँ एक प्रकार के अनेक द्रव्य होते हैं। उदाहरणस्वरूप-अनेक आत्माओं में पारस्परिक भेद को स्पष्ट करने के लिए तथा परमाणुओं में परस्पर अन्तर दिखलाने के लिए विशेष का सहारा लिया जाता है। विशेष उस नित्य द्रव्य में नहीं हो सकता जो अपने प्रकार का अकेला है। उदाहरणस्वरूप-‘आकाश’ एक नित्य द्रव्य है किन्तु इसका गुण ‘शब्द’ केवल आकाश का ही गुण है, न कि किसी अन्य द्रव्य का। यहाँ ‘विशेष’ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए आकाश में विशेष नहीं पाया जाता।
विशेष नित्य है, क्योंकि जिन द्रव्यों में वह निवास करता है वे नित्य हैं। विशेष जिन द्रव्यों में निवास करता है वे असंख्य हैं। इसीलिए विशेष भी असंख्य हैं।
प्रश्न उठता है कि “विशेष” को एक स्वतंत्र पदार्थ मानने का क्या आधार है? नव नैयायिक विशेष के को स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानता। वेदान्त दर्शन में भी विशेष को पदार्थ के रूप में मान्यता नहीं मिली है। वैशेषिक दर्शन में ‘विशेष’ को स्वतंत्र पदार्थ के रूप में निम्नलिखित कारणों में मान्यता मिलती है-
1. विशेष एक वास्तविक पदार्थ है। यह उन नित्य द्रव्यों में पाया जाता है जो वास्तविक (Real) होते हैं। इसलिए विशेष भी वास्तविक है। वास्तविक होने के कारण इसे स्वतंत्र पदार्थ मानना आवश्यक है।
2. विशेष को स्वतंत्र मानने का दूसरा कारण यह है कि अन्य सभी पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। यह न तो द्रव्य है, न कर्म है, न सामान्य, न समवाय है। इसे अन्य किसी पदार्थ में अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता। अतः विशेष को स्वतंत्र पदार्थ मानना तर्कसंगत है।
प्रश्न 11. शंकर के बंधन और मोक्ष सम्बन्धी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: शंकर के मतानुसार आत्मा का शरीर के साथ आसक्त हो जाना ही बन्धन है। आत्मा स्वभावतः नित्य, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त और अविनाशी है। परन्तु अज्ञान से वशीभूत होकर वह बन्धनग्रस्त हो जाता है। आत्मा शरीर और पृथकत्व के ज्ञान के अभाव में शरीर के सुख-दुख को निजी सुख-दुख समझने लगती है। यही बन्धन (Bondage) है। अविद्या के नाश होने के साथ ही साथ जीव के पूर्व संचित कार्यों का अन्त हो जाता है और इस प्रकार वह दुखों से छुटकारा पा जाता है। अविद्या का अन्त ज्ञान से ही सम्भव है। मोक्ष को अपनाने के लिए ज्ञान परमावश्यक है।
Dr. C. D. Sharma के अनुसार-“Liberation, therefore means removal of ignorance knowledge” जैसा कि काल्पनिक साँप अविद्या के दूर हो जाने पर रस्सी के वास्तविक रूप में आ जाता है। मीमांसा, मोक्ष की प्राप्ति के द्वारा सम्भव मानता है। परन्तु शंकर के अनुसार कर्म और भक्ति ज्ञान की प्राप्ति में भले ही सहायक हो सकती है, वह मोक्ष की प्राप्ति में सहायक नहीं हो सकती। मोक्ष का अर्थ है अविद्या को दूर करना। अविद्या केवल विद्या के द्वारा ही दूर हो सकती है। शंकर ने सिर्फ ज्ञान को ही मोक्ष का उपाय माना है।
ज्ञान की प्राप्ति वेदान्त दर्शन के अध्ययन से ही सम्भव हो सकती है। परन्तु वेदान्त-दर्शन का अध्ययन करने के लिए साधक को साधना की आवश्यकता है। ये “साधन-चतुष्टय” इस प्रकार है-
(i) नित्यानित्य-वस्तु-विवेक- साधक को नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद करने का विवेक होना चाहिए।
(ii) इहामुत्तार्थ-भोग-विराग- साधक को लौकिक और पारलौकिक भोगों की कामना का विवेक होना चाहिए।
(iii) शमदमादि-साधन-सम्पत्- साधक को शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति और तितिक्षा इन छः साधनों को अपनाना चाहिए। “शम” का अर्थ है-मन का संयम। “दम” का तात्पर्य है-इन्द्रियों को वश में रखना। शास्त्रों के प्रति आदरभाव ही “श्रद्धा” है। समाधान, मन को ज्ञान के साधन में रमाने को कहा जाता है। ‘उपरति” का अर्थ विशेषकर कार्यों से उदासीन रहना है। सर्दी, गर्मी, बर्दाश्त करने के अभ्यास को तितिक्षा कहा जाता है।
(iv) मुमुक्षुत्व- साधक को मोक्ष प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पी होना चाहिए। जो साधन इन चार साधनों से युक्त होता है उसे वेदान्त की शिक्षा लेने के लिए एक ऐसे गुरु के चरणों में उपस्थित होना चाहिए जिसे ब्रह्म ज्ञान की अनुभूति हो गई हो। गुरु के साथ साधक को श्रवण कहा जाता है। सत्य पर निरन्तर ध्यान रखना निदिध्यासन कहलाता है। गुरु साधक को “तत्वमसि” की शिक्षा देते हैं। जब साधक इस तथ्य की अनुभूति करने लगता है, तब वह ब्रह्म को साक्षात्कार कर पाता और वह कह उठता है-“अहं ब्रह्मास्मि” (I am Brahman) और ब्रह्म का भेद हट जाता है।
बन्धन का अन्त हो जाता है तथा मोक्ष की अनुभूति हो जाती है। जिस प्रकार वर्षा की बूंद समुद्र में मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार मोक्ष की अवस्था में जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है। शंकर का मोक्ष सम्बन्धी यह विचार रामानुज के मोक्ष-सम्बन्धी विचार से भिन्न है। रामानुज का कहना है कि मोक्ष की अवस्था में जीव ब्रह्म के सादृश्य होता है, वह ब्रह्म नहीं हो जाता है।
शंकर ने दो प्रकार की मुक्ति को माना है-
(i) जीवन मुक्ति और (ii) विदेह मुक्ति। मोक्ष की प्राप्ति के बाद भी मानव का शरीर कायम रहता है, जैसा कि भगवान बुद्ध का। मोक्ष का अर्थ शरीर का अन्त नहीं है। शरीर तो प्रारब्ध कर्मों का फल है। जब तक इनका फल समाप्त नहीं हो जाता शरीर विद्यमान रहता है। जिस प्रकार कुम्हार का चाक कुम्हार के द्वारा घुमाना बन्द कर देने के बाद भी कुछ काल तक चलता है उसी प्रकार मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद भी पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार शरीर कुछ काल तक जीवित रहता है।
इसे जीवन मुक्ति कहा जाता है। जीवनमुक्ति में व्यक्ति अनासक्त भाव से काम करता है जिस कारण वह बन्धनग्रस्त नहीं होता। जो काम असक्त भाव से किये जाते हैं उसमें फल की प्राप्ति होती है। परन्तु निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म भूजे हुए बीज की तरह है जिनसे फल की प्राप्ति नहीं होती है। गीता के निष्काम कर्म को शंकर ने मान्यता दी है। जब जीवन-मुक्त व्यक्ति के सूक्ष्म औरम स्थूल शरीर का अन्त हो जाता है तब “विदेह-मुक्ति” की प्राप्ति होती है। विदेह मुक्ति मृत्योपरान्त या मरणोपरान्त प्राप्त होती है।
मोक्ष एक ऐसी सत्ता का साक्षात्कार का विषय है जो बन्धकाल से विद्यमान है, यद्यपि वह हमारे दृष्टि के क्षेत्र से परे है। जब प्रतिबन्ध दूर हो जाते हैं तो आत्मा मुक्त हो जाती है। शंकर के मतानुसार आत्मा स्वभावतः मुक्त है। उसे बंधन की प्रतीत होती है, इसलिए मोक्ष की अवस्था में आत्मा में नये गुणों का विकास नहीं होता है। जिस प्रकार भ्रम निवारण के बाद रस्सी साँप नहीं प्रतीत होती है उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति के बाद आत्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि वह कभी बन्धन ग्रस्त नहीं थी। आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान ही मोक्ष है। वह जो कुछ थी वही रहती है। मोक्ष प्राप्त वस्तु को ही फिर से प्राप्त करता है। जिस प्रकार कोई रमणी अपने गले में लटकते हुए हार को इधर-उधर ढूँढ़ती है उसी प्रकार मुक्त आत्मा मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहती है।
शंकर ने मोक्ष को निषेधात्मक नहीं माना है बल्कि भावात्मक भी माना है। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुःख रहित अवस्था का नाम है, किन्तु भावात्मक रूप से यह चिर-आनन्द एवं शान्ति की अवस्था है। यहाँ शंकर का मोक्ष सम्बन्धी मत अन्य कई भारतीय विचारकों के मतों से अधिक संतोषप्रद एवं उत्साहवर्धक दीख पड़ता है। बौद्धों के अनुसार मोक्ष केवल दु:खरहित अवस्था है। सांख्य मोक्ष को एक निषेधात्मक अवस्था माना है, जिसमें दु:खों का अन्त हो जाता है। इसमें आनन्दानुभूति नहीं होती। शंकर का मोक्ष सम्बन्धी मत न्याय-वैशेषिक के मोक्ष में भिन्न है।
इसमें आनन्दानुभूति नहीं होती। न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष की अवस्था में आतमा अपने स्वाभाविक रूप से अचेतन दीख पड़ती है, परन्तु शंकर के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप में रहती है। शंकर और रामानुज के मोक्ष सम्बन्धी मतों में स्पष्ट अन्तर दृष्टिगत होता है। रामानुज के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा स्वयं ब्रह्म नहीं हो जाती है, बल्कि उसके समान प्रतीत होने लगती है। रामानुज मोक्ष की प्राप्ति ईश्वर की कृपा मानते हैं, परन्तु शंकर का कहना कि मोक्ष की प्राप्ति मानव अपने प्रयासों से ही कर सकता है।
प्रश्न 12. शंकर के अनुसार आत्मा का स्वरूप क्या है ? आत्मा और ब्रह्म के बीच भिन्नता की व्याख्या करें।
उत्तर: शंकर ने आत्मा को ही ब्रह्म कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मैं नहीं हूँ” तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है। फिर भी ‘मैं’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग शरीर के लिए होता है जैसे-मैं मोटा हूँ।
कभी-कभी “मैं” का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। अब प्रश्न उठता है कि इसमें किसको आत्मा कहा जाए। शंकर के अनुसार जो अवस्थाओं में विद्यमान रहे वही आत्मा का तत्त्व हो सकता है। चैतन्य सभी अवस्थों में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-
- जाग्रत अवस्था (Walking experience)
- स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
- सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleeps experience)
जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया।” इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है।
चैतन्य के साथ-साथ आत्मा में आनन्द भी है। साधारण वस्तु में जो आनन्द रहता है वह क्षणिक है, पर आत्मा का आनन्द शुद्ध और स्थायी है। शंकर ने आत्मा को सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानन्द है। चूँकि आत्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिर्क ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। सांख्य में आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्मा सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।
शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थतः भोक्ता और कर्त्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्त्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों में स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगा। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे है। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य हो। आत्मा त्रिकाल-अवाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।
शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। आत्मा ही वस्तुतः ब्रह्म है। शंकर ने आत्मा-ब्रह्म कहकर दोनों की तादात्म्यता को प्रमाणित किया है। एक ही तत्व आत्मनिष्ठ दृष्टि से आत्मा है तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म है। शंकर आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य को तत्त्व मसि (that thou art) से पुष्टि करता है। उपनिषद के वाक्य “अहं ब्रह्मास्मि’ (I am Brahman) से भी ‘आत्मा” और ब्रह्म के भेद का ज्ञान होता है।
प्रश्न 13. शुभ एवं अशुभ नैतिक प्रत्यय की व्याख्या करें।
उत्तर: शुभ (Good) भी एक अत्यन्त ही मौलिक नैतिक प्रत्यय है और उसका प्रयोग भी हम नैतिक आचरण के मूल्यांकन के साथ-ही-साथ कभी सर्वोच्च शुभ के लिए भी कर बैठते हैं। Good शब्द जर्मन शब्द Gut से व्युत्पन्न माना जाता है। जिसका अर्थ है-किसी उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक। अतः शुभ वह है जो हमें किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता करता है। इस शुभ का विलोम शब्द अशुभ (Evil) है।
अतः अशुभ वह है-जो हमें लक्ष्य प्राप्ति में बाधा उपस्थित करता हो। एक ओर जहाँ शुभ का सामान्य स्वीकृति है तो वहीं अशुभ को सामान्य तिरस्कार प्राप्त है और उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई रोगग्रस्त हो तो दवा और उपचार उसके लिए शुभ है-किन्तु यदि वहीं शोरगुल होता तो वह उसके अशुभ है, क्योंकि उससे उसका रोग घटने के बजाय बढ़ने लगता है। इसी तरह करुणा, क्षमा, परोपकार आदि को भी शुभ माना जाता है। उसका कारण है कि इन्हें सामान्य स्वीकृति प्राप्त है। उसके विपरीत घृणा, स्वार्थ लोभ आदि को सामान्य तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है। अतः ये अशुभ है।
शुभ अनेक प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए शारीरिक शुभ, आर्थिक शुभ, सामाजिक शुभ, नैतिक लाभ आदि। उसमें शारीरिक शुभ वह है-जिससे शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति होती है और आर्थिक शुभ से अर्थ सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है। इसी तरह सामाजिक शुभ से सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है और नैतिक सुख जीवन का सर्वोच्च शुभ है। जिसकी कामना प्रत्येक मनुष्य करता है। अतः नैतिक शुभ की प्राप्ति में जिससे सहायता मिले उसे नैतिक दृष्टि से शुभ माना जाता है। जो उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा उपस्थित करे उसे अशुभ की कोटि में रखेंगे।
शुभ और अशुभ दोनों शब्दों का प्रयोग सामान्यत: दो अर्थों में किया जाता है। उसका संज्ञा रूप में प्रयोग और उसका विशेषण रूप में प्रयोग। जब शुभ का प्रयोग End या Highest good (सर्वोच्च) शुभ या निरपेक्ष शुभ के रूप में किया जाता है तो यह प्रयोग संज्ञा के रूप में माना जाएगा। विशेषण अर्थ में साधन का औचित्य बतलाने के लिए शुभ का प्रयोग किया जाता है। संज्ञा रूप में शुभ का जब प्रयोग किया जाता है, तो वहाँ हमारा तात्पर्य वैसे वस्तुओं से रहता है-जिसे प्राप्त करने की कामना हम करते हैं। ये वस्तुएँ स्वास्थ्य धन या आदर्श भी हो सकते हैं।
उसके विपरीत जिसे हम अग्राह्य समझकर तिरस्कृत कर देते हैं अथवा जो शुभ की प्राप्ति में बाधक होते हैं-उसे अशुभ कहते हैं। उदाहरण के लिए रोग, सजा, दरिद्रता आदि को रखा जा सकता है। ये सब अशुभ है, क्योंकि इसके द्वारा शुभ प्राप्ति में बाधा उपस्थित होता है। अशुभ का प्रयोग जब शंका रूप में किया जाता है तो उसका तात्पर्य होता है-लक्ष्य सिद्धि में बाधा उपस्थित करना। इस प्रकार संज्ञा रूप में प्रयुक्त ‘शुभ’ स्वतः में अशुभ है। किन्तु विशेषण रूप में यह लक्ष्य प्राप्ति का साधन है।
शुभ का विभाजन दो वर्गों में किया जाता है। शुभ का एक रूप दूसरे रूप में साधन के रूप ‘ में है। लक्ष्य के लिए हम ‘End’ का प्रयोग भी करते हैं जबकि ‘means’ का प्रयोग करते हैं। अतः शुभ को भी हम good as कर कामना ‘good as end’ के रूप में करता है। अतः यहाँ विद्या किन्तु बाद में उसे जीविकोपार्जन का साधन बनाया जाता है। अतः यह परिवर्तित होकर साधन रूप में शुभ हो जाता है। यहाँ आकर जीवन में सुख प्राप्ति साध्य हो जाता है और विद्या उसका साधन बन जाती है।
फिर शुभ के दो प्रकार माने जाते हैं-सापेक्ष (relative) शुभ और निरपेक्ष (Absolute) शुभ। निरपेक्ष शुभ को सर्वोच्च शुभ भी कहा जाता है। सापेक्ष शुभ से हमारा तात्पर्य वैसे शुभ से है-जो किसी लक्ष्य प्राप्ति में सहायक अथवा लक्ष्य प्राप्ति हेतु साधन है। यह शुभ साधन रूप में शुभ है। साध्य रूप में शभ का स्वतः कोई मल्य नहीं होता, बल्कि उसका मल्यांकन सबके द्वारा प्राप्त लक्ष्य के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए छात्र कठिन मेहनत करता है, परीक्षा में प्रथम आने के लिए। इसी डिग्री से उसे अच्छी नौकरी मिलती है।
नौकरी में वह जीवन को सुखमय बनाता है। इस क्रम में कठिन मेहनत करना-परीक्षा में प्रथम आना और नौकरी प्राप्त करना-ये सभी सापेक्ष शुभ हैं क्योंकि इन सबों का उद्देश्य सुखमय जीवन व्यतीत करना है। अत: ये शुभ अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसका मूल्यांकन इतना ही है कि ये किसी अन्य साध्य की प्राप्ति में साधन है। निरपेक्ष शुभ किसी अन्य शुभ की प्राप्ति के लिए साधन नहीं होता बल्कि वह अपने आप में साध्य है। निरपेक्ष शुभ सबसे ऊपर है, अतः यह किसी साध्य का नहीं बनता है। यहाँ सुख ही परम शुभ है-यह सुख किसी अन्य साध्य का साधन नहीं है। अतः सुख ही जीवन का सर्वोच्च शुभ है। सुखवादियों के अनुसार सुख की परम मंगल है।
इस प्रकार साधन और साध्य की एक लम्बी श्रृंखला होती है। ऐसे मुंखला में साधक साध्य और साध्य साधन बनते रहते हैं। मानव द्वारा सम्पादित ऐच्छिक कर्म हमेशा किसी न किसी लक्ष्य से निर्देशित होता रहता है। यह लक्ष्य और कुछ नहीं किसी आदर्श की प्राप्ति ही है। ऐच्छिक कर्म किसी-न-किसी लक्ष्य का साधन ही है। अन्य लक्ष्य अन्तिम नहीं होता है क्योंकि वह उच्चतर लक्ष्य प्राप्ति का साधन मात्र है। फिर वह लक्ष्य किसी अन्य लक्ष्य का साधन बन जाता है। इस प्रकार हम एक साधन और साध्य की एक लम्बी श्रृंखला हो पाते हैं।
परन्तु यदि उसी प्रकार साधन और साध्य की लम्बी श्रृंखल हो और उसका अन्त नहीं हो तो सभी ऐच्छिक कर्म निरपेक्ष हो जायेंगे। अतः हमें यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि इसके श्रृंखला का अन्त एक सर्वोच्च शुभ में हो जाता है। यही सर्वोच्च शुभ जीवन का चरम लक्ष्य है-जिसमें बड़ा कोई आदर्श नहीं है। अत: उसे स्वतः में साध्य भी कहा जाता है। किसी का साधन नहीं। अब प्रश्न उठता है कि यह सर्वोच्च शुभ क्या है ? इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं है। विद्वानों ने इस प्रश्न का भिन्न-भिन्न उत्तर दिया है। सुखवादियों के अनुसार सुख ही सर्वोच्च शुभ है तो आत्मप्रवर्णतावादियों के अनुसार आत्मा की पूर्णता ही सर्वोच्च शुभ है।
शुभ का दो प्रकार एक अन्य आधार पर भी किया जाता है। इस आधार पर आत्मगत और वस्तुगत दो प्रकार के शुभ माने जाते हैं। आत्मगत शुभ से तात्पर्य है वैसा शुभ जो व्यक्ति के स्वयं के हित में हो। इसके विपरीत वस्तुगत शुभ वैसा शुभ है जिसे अपने हित में नहीं, बल्कि दूसरे के हित में प्राप्त करना चाहता है। परन्तु ऐसा कहा जा सकता है कि इन शुभों में परस्पर विरोध है, क्योंकि व्यक्ति और सुख एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अतः जो व्यक्ति के लिए भी शुभ अवश्य ही होगा और जो समाज का सुख है वह अवश्य ही होगा। इस प्रकार आत्मगत और वस्तुगत सुख एक-दूसरे के शुभ में दोनों प्रकार के शुभों का समन्वय हो जाता है।
प्रश्न 14. मिल के कारणता के सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखो।
उत्तर: मिल का कारणता का सिद्धान्त (Mil’s Theory of Causation)-मिल ने कारणता के सिद्धांत (Theory of Causation) के विषय में मौलिक विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार कारणता का अर्थ किसी वस्तु के उस पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों के समूह से है जिसके या जिनके होने के बाद वस्तु सदैव अनिवार्य रूप से होती है। मिल ने लिखा है कि “भावात्मक और अभावात्मक उपाधियों को मिलकार जो समूह बनता है वह ‘कारण’ होता है।” इस प्रकार मिल के अनुसार कारण और कार्य में अनुक्रम होता है अर्थात् कारण कार्य का निश्चित रूप में पूर्ववर्ती होता है। उदाहरणार्थ-दही बनाने के लिये दही से पूर्व दूध का होना अनिवार्य होता है अत: दूध दही के बनने का कारण है। अतः मिल के कारणता के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताओं का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है।
1. कारण कार्य का नियम पूर्ववर्ती होता है- मिल के अनुसार किसी वस्तु का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों का समूह है जिसके या जिसके होने के बाद वह वस्तु सदैव अनिवार्य रूप से होती है।”उदाहरणार्थ- वर्षा जब भी होगी तब उससे पूर्व बादलों का होना अनिवार्य होगा, इसी प्रकार दही बनने के पूर्व दूध का होना सदैव अनिवार्य है अतः बादल वर्षा के कारण है तथा दूध दही का कारण है। हम अपने दैनिक जीवन में भी नित्य प्रति यह देखते हैं कि कुछ घटनायें सदैव काल-क्रम में पूर्ववर्ती उत्तरवर्ती होती हैं। इन घटनाओं के क्रम में पूर्ववर्ती घटना को उत्तरवर्ती घटना का कारण माना जाता है।
किन्तु इस विषय में यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि कालक्रम में घटित होनेवाली प्रत्येक पूर्ववर्ती घटना को कारण नहीं माना जा सकता यथा-यदि घर घर से निकलते ही बिल्ली ने रास्ता काट दिया और बाद में कोई दुर्घटना हो गयी तो उस दुर्घटना का कारण बिल्ली का रास्ता काटना नहीं माना जा सकता अपितु इस कारणता के सिद्धान्तानुसार वस्तु के उस पूर्ववर्ती को सदैव अनिवार्य रूप से होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कारण उसी को कहा जा सकता है जो कार्य से नियमित रूप से सदैव पहले होता है। इस विषय में मिल का स्पष्ट कथन है कि “यदि किसी घटना को दो या दो से अधिक उदाहरणों में केवल एक अवस्था उभयनिष्ठ हो, तो केवल वही अवस्था जो सब उदाहरणों में अन्वित हो, दी हुई घटना का कारण (या कार्य) होगी।
2. कारण निरुपाधिक (Unconditional) पूर्ववर्ती होता है- निरुपाधिक पूर्ववर्ती का अर्थ स्पष्ट करते हुए मिल ने उन उपाधियों की ओर संकेत किया है जिनके उपस्थित होने के पश्चात् किसी अन्य उपाधि की कार्य के लिये आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे स्पष्ट है कि कोई भी ऐसी दो घटनायें जो सदैव आगे पीछे होती हैं कारण कार्य नहीं मानी जा सकती अथवा उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं माना जा सकता यथा-रात के बाद सदैव दिन और दिन के बाद सदैव रात होती है किन्तु इन दोनों में किसी भी प्रकार का कार्य कारण सम्बन्ध नहीं होता इसलिये कारण कार्य का केवल नियम पूर्ववर्ती नहीं होता अपितु निरुपाधि पूर्ववर्ती भी होता है अर्थात् कारण पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों का ऐसा समूह होता है जिनके होने पर बिना किसी उपाधि की आवश्यकता के कार्य हो जाये।
3. कारण अव्यवहित (Immediate) पूर्ववर्ती है-किसी पूर्ववर्ती को कारण होने के लिये निरुपाधिक होने के साथ-साथ अव्यवहित होना भी आवश्यक है अर्थात् कारण का निरुपाधिक पूर्ववर्ती होने के साथ-साथ अव्यवहित पूर्ववर्ती होना भी आवश्यक होता है। यथा-साधारण व्यक्ति किसी कार्य का दूरस्थ पूर्ववर्ती को ही कारण मान लेते हैं किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से केवल अव्यवहित पूर्ववती को ही कारण माना जा सकता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है। कि अव्यवहित का अर्थ किसी कारण के तुरन्त बाद कार्य का होना नहीं है क्योंकि कार्य कारण-कार्य में भिन्न-भिन्न समयों में न्यूनाधिक अन्तर पाया जाता है।
4. कारण भावात्मक और अभावात्मक उपाधियों का सहयोग है-भावात्मक उपाधि उनको कहा जाता है जिनको छोड़ देने से कार्य का होना रुक जाता है तथा अभावात्मक उपाधियों से तात्पर्य उनसे होता है जिनको सम्मिलित कर देने पर कार्य रूक जाता है उदाहरणार्थ मनुष्य पानी . का गिलास हाथ में लेकर पानी पीता है और उसकी प्यास बुझ जाती है और यदि पानी नहीं पीता तब प्यास नहीं बुझती यहाँ पानी भावात्मक उपाधि है। मिल ने अभावात्मक उपाधि की परिभाषा करते हुये लिखा है कि यह कार्य को रोकने वाले कारण की अनुपस्थिति है।
5. कारणों में अनेकता का सिद्धान्त-सर्वप्रथम मिल ने कारणों की अनेकता पद का प्रयोग किया। मिल ने अपने कारणों की अनेकता के विषय में कहा है कि यह कहना सही नहीं है कि एक कार्य का केवल एक ही कारण से सम्बन्ध होना चाहिये कि एक ही घटना केवल एक ही तरीके से उत्पन्न की जा सकती है। प्रायः एक घटना को उत्पन्न करने के कई स्वतन्त्र उपाय है अनेक कारण यान्त्रिक गति उत्पन्न कर सकते हैं, कई कारण उसी तरह की संवेदना उत्पन्न कर सकते हैं कई कारणों से मृत्यु हो सकती है।” इस प्रकार मिल के अनुसार एक ही कार्य अलग-अलग सन्दर्भो में अलग-अलग कारणों से उत्पन्न हो सकता है अर्थात् किसी कार्य के लिये अनेक कारण हो सकते हैं।
प्रश्न 15. कारण और कार्य दोनों बराबर है। इसकी व्याख्या करें।
अथवा, “कार्य कारण से संबंधित है और कारण कार्य में अभिव्यक्त है।” इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर: कारण और कार्य दोनों परिणाम के अनुसार बिल्कुल बराबर होते हैं (A cause is equal to effect quantity.) इसका अर्थ यही हुआ कि कारण और कार्य, द्रव्य और शक्ति (Matter and Energy) अविनाशिता के नियम (Law of conservation of matter and energy) पर निर्भर करते हैं।
द्रव्य की अविनाशिता के नियमानुसार हम यह जानते हैं कि संसार में द्रव्य की मात्रा हमेशा ही एक समान रहती है। वह कभी घटती-बढ़ती नहीं है बल्कि उसका रूप परिवर्तन होते रहता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दो गैस है जिनके मिलाने से पानी बनता है। यहाँ पर भी पानी दोनों गैसों की मात्रा के बराबर रहता है।
इसी तरह शक्ति की अविनाशिता का नियम (Law of conservation fo Energy) यह कहता है कि दुनियाँ में शक्ति का विनाश नहीं होता है। वह हमेशा एक ही समान रहती है। केवल उसके रूप में परिवर्तन होता रहता है। शक्ति दो तरह की होती है-(क) गति संबंधी शक्ति (Kinetic Energy) तथा (ख) संभावित शक्ति (Potential Energy)। एक में गति रहती है दूसरे में नहीं। एक किसी वस्तु को गतिशील बनाता है दूसरी स्थिर। इन्हीं दोनों में शक्ति का रूप परिवर्तन होता रहता है। उसका नाश कभी नहीं होता है। दोनों मात्रा में भी बराबर रहते हैं। विज्ञान के इसी आधार पर हम कारण और कार्य को परिमाण के अनुसार बराबर पा सकते हैं।
थोड़ी देर के लिए यदि हम मान लें कि कारण और कार्य बराबर नहीं है तो इसके बाद तीन संभावनाएँ हो सकती हैं।
(क) कारण-कार्य से मात्रा में बड़ा होता है।
(ख) कारण-कार्य से मात्रा में छोटा होता है।
(ग) कभी कारण बड़ा होता है और कभी छोटा।
इसमें यदि हम पहले को सही मान लें तो बहुत-सी असंभव घटनाएँ हमारे सामने आ जाएँगी। इसी तरह दूसरी संभावना भी गलत है कि जिसमें कारण-कार्य से छोटा कहा गया है। इसी तरह तीसरी संभावना भी नहीं मानी जा सकती है। क्योंकि उसे मान लेने से प्राकृतिक समरूपता नियम का उल्लंघन होता है। प्रकृति की घटनाओं में एकरूपता हो। अतः, इन तीनों को देखने के बाद सही मानना पड़ता है कि कारण और कार्य परिणाम के अनुसार बराबर होते हैं।
इसे मान लेने के बाद यह भी कहने का अवसर मिलता है कि कारण कार्य छिपा रहता है और कार्य में कारण का छिपा हुआ रूप रहता है (Cause is nothing but effect can cealed and effect is nothing but cause evealed)। कारण और कार्य परिणामों के अनुसार बराबर होते हैं। कार्य कारण में पहले से ही निवास करता है, जैसे-बीज में वृक्ष, सरसों में तेल। वृक्ष बीज का खुला हुआ रूप है और तेल सरसों का। वृक्ष और तेल कोई नया चीज नहीं है। अंतः, परिणाम के अनुसार कारण और कार्य बिल्कुल बराबर होते हैं केवल उनके रूप में परिवर्तन होता है। अतः, दोनों बराबर हैं।
प्रश्न 16. ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी नैतिक युक्ति की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिये।
उत्तर: नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है कि यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत् में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत् में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना ही पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत् की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता और जगत् में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुगत नहीं माना जा सकता किन्तु नैतिक मूल्यों को वस्तुगत न मान कर कोई भी दार्शनिक मानव को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों का वस्तुगत मानना ईश्वर को अस्तित्व सिद्ध करना है।
ईश्वर के अस्तित्व के विषय में यह तर्क बहुत प्राचीन समय से उपस्थित किया जाता रहा है। काण्ट ने भी नैतिक तर्क द्वारा ही ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इनके अतिरिक्त प्रो० सोरले ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए नैतिक तर्क इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि, “नैतिक मूल्यों के विषय में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वे केवल वस्तुओं में ही नहीं बल्कि व्यक्तियों में प्राप्त किये जाते हैं और फिर वे व्यक्तियों में उसी प्रकार से सच्चे वस्तुगत अर्थ में सम्बन्धित हैं जिस प्रकार से अन्य कोई भी विशेषताएँ उनसे सम्बन्धित हैं परन्तु इससे अधिक कुछ अन्य भी सत्य है।
किसी के चेतन जीवन में यथार्थ रूप से प्राप्त किये गये मूल्य मात्र को वस्तुगत सत्ता से सम्बन्धित मानना पर्याप्त नहीं है। मूल्य को प्राप्त करने में व्यक्ति एक मापदण्ड या आदर्श के प्रति चेतन होता है जो कि उसके व्यक्तिगत प्रयत्नों के निर्देश के रूप में अथवा उस पर आधारित एक बाध्यता के रूप में प्रमाणितकता रखता है। मूल्य के प्राप्त करने को मूल्य माना जाता है क्योंकि वह मूल्य के इस मापदण्ड या नियम के अनुरूप है अथवा यह मूल्य के इस आदर्श को प्राप्त करता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्तिगत जीवन में मूल्य अथवा शुभ की प्राप्ति शुभ के इस मापदण्ड अथवा आदर्श के आधार पर निहित है। इसलिए हम एक आदर्श शुभ अथवा नैतिक व्यवस्था की धारणा बनाने के लिए बाध्य हो जाते हैं जो कि यथार्थ शुभ के आधार के रूप में किसी-किसी अर्थ में वस्तुगत सत्ता रखने वाली मानी जानी चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि नैतिक तर्क नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानता है।
काण्ट का इस विषय में यह तर्क है कि नैतिक मूल्यों के सत्य होने का सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि उसके शुभ कर्मों का फल सुख और अशुभ कर्मों का फल दुख अवश्य मिलना चाहिए। किन्तु संसार में इसके विपरीत अच्छे कर्मों का फल दुख और बुरे कर्म करने वाले सुखी देखे जाते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है अर्थात् अब नहीं तो आगे आने वाले जन्मों में इन शुभ कर्मों का फल सुख अवश्य मिलेगा और अगले जन्मों में कर्मों के फलों का मिलना ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करता है। अतः ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किये बिना नैतिक मूल्यों को यथार्थ नहीं माना जा सकता, इसलिए ईश्वर को मानना एक नैतिक बाध्यता है।
समीक्षा-ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी नैतिक तर्क के विषय में निम्नलिखित प्रश्न उपस्थित होते हैं-
1. यह आवश्यक नहीं है कि शुभ कर्मों का फल भी शुभ हो काण्ट ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में नैतिक मूल्य को यथार्थ सिद्ध करते समय यह पूर्व ही मान लिया है कि शुभ कर्म का फल सुख होता है, अतः नैतिक व्यक्ति को सुखी होना चाहिए किन्तु यदि इस कथन को आधार मानकर प्रकृति और नैतिक व्यक्ति दोनों के व्यवहारों का विश्लेषण करें तो न तो प्रकृति से ही सिद्ध होता है कि नैतिक कर्मों का फल शुभ होना चाहिए और न ही नैतिक मनुष्य ही कोई कर्म करते समय उसको मिलने वाले फल को ध्यान में रखता है। इस प्रकार नैतिक व्यक्ति के सुखी होने की धारणा विवादास्पद हो जाने से इसके आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता।
2. विश्व की नैतिक व्यवस्था परिकल्पना मात्र है-इस तर्क में ईश्वर के अस्तित्व को विश्व की नैतिक व्यवस्था के आधार पर सिद्ध किया गया है किन्तु यह परिकल्पना को करने के पश्चात् सर्वप्रथम तो ‘विश्व में नैतिक व्यवस्था है इस परिकल्पना को ही सत्य सिद्ध करना चाहिए था जो कि नहीं की गई। इस परिकल्पना के पक्ष और विपक्ष दोनों में ही अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनके आधार पर इस धारणा को परिकल्पना मात्र ही माना जा सकता है। अतः इस आधार पर भी ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।
ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी नैतिक तर्क के विरुद्ध लगाये गये उपर्युक्त दोनों ही आक्षेप इस कारण महत्त्वपूर्ण नहीं माने जा सकते क्योंकि मानव जीवन में मूल्यों के सर्वोच्च स्थान से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसलिये जो दर्शन सत्य, शिव और सुन्दर जैसे सर्वोच्च मूल्यों को असत्य सिद्ध करता है, वह उपयुक्त दर्शन नहीं माना जा सकता। इसलिए मूल्यों को सत्य और वस्तुगत मानना दार्शनिकों के लिए विवशता है और मूल्यों को सत्य मान लेने पर विश्व को नैतिक व्यवस्था मानना स्वाभाविक है तथा विश्व को नैतिक व्यवस्था मानने पर इसको एक चेतन संचालक मानना भी आवश्यक हो जाता है।
इस प्रकार यह तो यथार्थ है कि मूल्यों के अस्तित्व को इस प्रकार से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता है जिस प्रकार से अन्य वस्तुओं को सिद्ध किया जा सकता है किन्तु इस विषय में जब मौलिक रूप से विचार किया जाता है तब पता चलता है कि यह आत्मगत और वस्तुगत का जो अन्तर है यह भी तो मनुष्य का ही बनाया हुआ है, इसलिये मनुष्य स्वयं भी तो अन्य वस्तुगत से कम वस्तुगत नहीं है। इस आधार पर यह स्पष्ट है कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए नैतिक तर्क ही ठोस तर्क है।
प्रश्न 17. नवीन वस्तुवाद की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर: नवीन वस्तुवाद (New realism)-प्रत्यय प्रतिनिधित्ववाद की त्रुटियों के फलस्वरूप कुछ आधुनिक विचारकों ने एक नये सिद्धान्त की स्थापना की है जिसे नवीन वस्तुवाद के नाम से पुकारा जाता है । नवीन वस्तुवाद को लोकप्रिय वस्तुवाद (Naive realism) का विकसित रूप माना जा सकता है, क्योंकि इसमें लोकप्रिय वस्तुवाद की त्रुटियों के निराकरण की चेष्टा की गयी है।
नवीन वस्तुवाद का सर्वाधिक प्रचार ग्रेट ब्रिटेन एवं अमेरिका में हुआ। किन्तु इसका आरम्भ जर्मन दार्शनिक ब्रेनटानो (F.. Brentano) के दर्शन में होता है। Brentano ज्ञान की प्रक्रिया में दो तत्वों को मानते हैं-
(i) मानसिक क्रिया (Object act)-जिससे ज्ञान सम्पन्न होता है।
(ii) ज्ञान का विषय (Object of knowledge)।
ज्ञात वस्तुएँ ज्ञाता से स्वतंत्र हैं और प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। Brentano के इसी two factor theory of knowledge के आधार पर आधुनिक वस्तुवादी नवीन वस्तुवाद का मंडन करते हैं। Great Britain के विचारकों में Moore, Russell इत्यादि इसके प्रतिनिधि समझे जाते हैं। अमेरिका में New-Realism के प्रतिपादक Holit, Marbin, Montague, Perry, Pitkin इत्यादि माने जाते हैं।
नवीन वस्तुवाद के अनुसार,
(i) ज्ञान का विषय ज्ञाता से स्वतंत्र है तथा
(ii) ज्ञात और ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय के बीच बाह्य सम्बन्ध (external relation) है। बाह्य सम्बन्ध उसे कहा जाता है जिससे सम्बन्धित पदों में एक-दूसरे पर निर्भर नहीं करता और उसे सम्बन्ध के कारण पदों में कोई अन्तर या परिवर्तन नहीं होता। Moore कुछ सम्बन्धों को बाह्य मानते हैं जैसे विद्यार्थी और कॉलेज का सम्बन्ध है। विद्यार्थी का अस्तित्व कॉलेज पर निर्भर नहीं करता है। लेकिन शरीर और उसके अंगों के बीच अंतरंग सम्बन्ध वे स्वीकार करते हैं क्योंकि ये एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।
किन्तु Pitkin जैसे वस्तुवादी सभी सम्बन्धों को बाह्य मानते हैं। उनके अनुसार शरीर और उसके अंगों का सम्बन्ध भी बाह्य है। उदाहरणस्वरूप मछली की पूँछ काट ली जाती है और पूँछ काल-क्रम में पैदा हो जाती है। फिर, एक मेढ़क के शरीर का शूक भाग काट कर दूसरे के शरीर में लगा दिया जाता है और वह भाग जीवित रहता है। इससे प्रमाणित होता है कि शरीर का अंग शरीर पर निर्भर नहीं है।
नव वस्तुवाद (New Realism) की तीसरी विशेषता है कि उसके अनुसार ज्ञाता को यथार्थ वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, प्रत्यय या किसी और के माध्यम में नहीं। G F. Moore कहते हैं कि जब हम बाघ को देखते हैं तो स्पष्टतः महसूस करते हैं कि बाघ है, बाघ के प्रत्यय को नहीं। इस प्रकार नवीन वस्तुवाद के अनुसार यथार्थ वस्तु ही ज्ञात होती है। चूँकि यहाँ यथार्थ वस्तु और ज्ञात वस्तु को एक माना जाता है, इसलिए नवीन वस्तुवाद को ज्ञानशास्त्रीय एकवाद (Epistemological Monism) कहते हैं।
लोकप्रिय वस्तुवाद की असफलता का कारण भ्रांति की व्याख्या में उसकी अक्षमता है। नवीन वस्तुवाद के समर्थक Holt भ्रांति की व्याख्या करते हुए बताते हैं कि भ्रांति में एक ही पदार्थ में विरोधी, गुण (Contradictory qualities) दीख पड़ते हैं जैसे एक ही छड़ी जमीन पर सीधी और पानी में टेढ़ी जान पड़ती है। इसका कारण है कि प्रकृति में ही विरोधी नियम है जिसके चलते पदार्थों में विरोधी गुणों की प्रतीति होती है। इसलिए होल्ट (Holt) मानते हैं कि भ्रांति का कारण आत्मनिष्ठ अर्थात् हमारे मन के अन्दर नहीं है बल्कि वस्तुनिष्ठ है वस्तु जगत् के अन्दर है। यही कारण है कि वे भ्रांतियों में अनुभूत वस्तुओं को मन गठित नहीं बल्कि वस्तुनिष्ठ (Objective) अर्थात् वस्तु-जगत का अंग मानते हैं।
नवीन वस्तवाद की समीक्षा (Criticism of New Realism)-समीक्षात्मक वस्तुवादियों ने अपनी आलोचना से नवीन वस्तुवाद को दोषपूर्ण साबित किया है-
(i) नवीन वस्तुवाद भ्रांति की समुचित व्याख्या नहीं कर पाता है। Holt ने कहा है कि प्रकृति के विरोधी नियमों के चलते भ्रांति होती है किन्तु अब किसी पदार्थ पर विरोधी नियम एक साथ काम करते हैं तो वे विरोधी गुण नहीं पैदा करते बल्कि एक-दूसरे के असर को खत्म कर देते हैं।
(ii) भ्रांति में अनुभूत पदार्थों को होल्ट (Holt) वस्तुनिष्ठ मानते हैं किन्तु वस्तुनिष्ठ नहीं माना जा सकता क्योंकि उनका आचरण वस्तुनिष्ठ पदार्थों जैसा नहीं होता है।
(iii) भ्रांति की वस्तुओं को वस्तुनिष्ठ मानने पर हमारी दुनिया बड़ी विचित्र हो जायेगी क्योंकि उसमें वास्तविक पदार्थों के साथ-साथ स्वप्न, विपर्यय, विभ्रम, आदि सबको वस्तु-जगत् का अंग मानना पड़ेगा।
(iv) नवीन वस्तुवाद ज्ञात वस्तु और यथार्थ वस्तु को एक मानता है, किन्तु यह मत विज्ञान के विरुद्ध है। कुछ नक्षत्र इतनी दूर पर है कि उससे पृथ्वी पर प्रकाश पहुँचने में कई वर्ष लग जाते हैं। मान लीजिए कि किसी नक्षत्र के प्रकाश को हमारे यहाँ पहुँचने में दस वर्ष लगते हैं। अत: यदि हम नक्षत्र को आज देखते हैं तो वह आज का नहीं बल्कि दस वर्ष पहले का है, क्योंकि जो प्रकाश दस वर्ष पहले चला था वही आज हमारी आँखों तक पहुँच सका है। हो सकता है कि इन वर्षों में वह परिवर्तित हो गया हो या बिल्कुल नष्ट ही हो गया हो। हम उसके परिवर्तित रूप को ही देख रहे हों ऐसी हालत यथार्थ वस्तु और ज्ञात वस्तु को यह कहना उचित नहीं है। इसलिए नवीन वस्तुवाद का ज्ञानशास्त्रीय एकवाद (Epistemological monism) सत्य नहीं है।
प्रश्न 18. नैतिक प्रत्यय की व्याख्या करें।
उत्तर: सद्गुण से हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति के नैतिक विकास से रहता है। सद्गुण के अन्तर्गत तीन बातें पायी जाती हैं-
(i) कर्तव्य बोध,
(ii) कर्तव्य का पालन इच्छा से हो और
(iii) सद्गुण का अर्जन। सद्गुण को परिभाषित करते हुए हम कह सकते हैं कि निरन्तर अभ्यास के द्वारा कर्तव्य पालन करने से जो स्थिर प्रवृत्ति में श्रेष्ठता आती है-वही सद्गुण है। हम जानते हैं कि उचित कर्मों का पालन करना ही हमारा कर्तव्य है और अनुचित कर्मों का त्याग भी कर्तव्य ही है। जब कोई मनुष्य अभ्यासपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसमें एक प्रकार का नैतिक गुण स्वतः विकसित होने लगता है और यही विकसित गुण सद् गुण है। उसी तरह यदि कोई मनुष्य अभ्यासपूर्वक अनुचित कर्म का सम्पादन करता है तो उसमें अनैतिक गुणों का विकास होता है जिसे हम दुर्गण कहते हैं। सद्गणी होने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। अच्छे चरित्र का लक्षण की सद्गुण है। कर्तव्य हमारे बाहरी कर्म का द्योतक है-जबकि सद्गुण हमारे अन्त चरित्र का द्योतक है।
सद्गुण के ऊपर अनेक विचारकों ने अपना विचार प्रकट किया है। अरस्तू ने सद् गुण के बारे में कहा है-सद्गुण को हम एक मानसिक अवस्था कहेंगे जो संकल्प के आधार पर निर्मित होता है और वह विवेक द्वारा नियंत्रित जीवन के सच्चे आदर्श पर आधारित है। म्यूरहेड (Murehead) ने सद्गुण को परिभाषित करते हुए कहा है-“Virtue is the quality of character that fiuts us for the discharge of duty.” अर्थात् सद्गुण चरित्र का एक गुण है जो मानव को कर्तव्य पालन के योग्य बनाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि अच्छे जीवन के लिए सद्गुण एक मुकुट है।
महान् संत सुकरात (Socrates) ने तो ज्ञान को ही सद्गुण माना है (Knowledge is Virtue) यहाँ ज्ञान का अर्थ सामान्य ढंग का नहीं है बल्कि ज्ञान का आशय है-कर्तव्य बोध। लेकिन दैनिक जीवन में हमें ऐसा भी उदाहरण भी मिला है कि ज्ञानी व्यक्ति भी कुकर्म करते हैं। अतः सुकरात का तात्पर्य यहाँ अभ्यास से है। इसलिए अभ्यास को ही ज्ञान या सद्गुण कहना उचित होगा। मैकेन्जी (Macknzie) ने सद्गुण, के बारे में कहा है-‘The essence of Virtue lise in the will अर्थात् सद्गुण का सार संकल्प में निहित है। अतः कहा जा सकता है कि कोई अच्छा संकल्प मात्र इसलिए अच्छा नहीं है कि वह चरितार्थ योग्य है अथवा हमें प्रभावित कर लेता है या किसी उद्देश्य की पूर्ति करता है, बल्कि वह इसलिए अच्छा है, क्योंकि हम उसकी आकांक्षा करते हैं।
जिस प्रकार कर्तव्य और दायित्व में घनिष्ठता का सम्बन्ध है, इसी प्रकार कर्तव्य और सद्गुण में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि कोई व्यक्ति कर्तव्य का पालन करता है तो निःसन्देह वह व्यक्ति सद्गुणी है। सद्गुण के अभाव में कर्तव्य का पालन कठिन है। जैसा कि मैकेन्जी ने लिखा भी है-“A man does his duty, but he possesses a virtue so he is virtuous.” कर्तव्य हमें किसी विशेष कर्म की ओर संकेत करता है लेकिन सद्गुण हमें स्थायी रूप से अर्जित प्रवृत्ति और अभ्यास की ओर संकेत करता है।
फिर सद्गुण किसी व्यक्ति को उचित कर्म करने और अनुचित कर्म से बचने की प्रेरणा देता है। सद्गुण आकाश से नहीं टपकता बल्कि अभ्यासपूर्वक कर्तव्य पालन से यह उत्पन्न होता है। जब कोई अभ्यासपूर्वक कर्तव्य का पालन करता है तो उसका चारित्रिक उत्थान भी होता है। जब किसी का चारित्रिक उत्थान हो जाता है तो वह गलत कर्म नहीं कर सकता है। वह हमेशा प्रयास करता है कि अच्छा कर्म ही करें।
सद्गुण को सहजात या जन्मजात प्रवृत्ति के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। कारण कि यह अर्जित गुण है। निरन्तर अभ्यासपूर्वक कर्म करने से ही सद्गुण का उद्भव होता है। अतः उसे हम प्राप्त की हुई वस्तु कह सकते हैं। उसके विपरीत प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ चंचल और परिवर्तनशील हुआ करती है। सद्गुण हमेशा स्थिर हुआ करती है।
जब व्यक्ति सद्गुणी हो जाती है तो उसे एक प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है। किसी उचित कर्म को करने पर व्यक्ति में एक प्रकार के संतोष का उदय होता है और यह संयोग उनके इन्द्रियों को भी तुष्ट करता है। अच्छे कर्म को करने से मानव में एक अदम्य आनन्द उत्पन्न होता है। यह आनन्द क्षणिक नहीं बल्कि अपेक्षाकृत अधिक स्थाई भी होता है। सद्गुण प्राप्त करने से पहले शर्त का पालन करना पड़ता है। वह शर्त है उचित और अनुचित का भेद करना। उसके उपरान्त अनुचित से बचना और उचित का पालन निरन्तर करना अनिवार्य है। तभी मानव को सद्गुण की प्राप्ति होती है।
सद्गुण एक नहीं है-जैसा कि अरस्तू का विचार भी है। सद्गुण की एक लम्बी श्रृंखला होती है। ये सद्गुण एक-दूसरे से गूंथे हुए रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि सद्गुण अलग-अलग होते हैं। इन सद्गुणों में परस्पर विरोध नहीं सामन्जस्य पाया जाता है। इन श्रृंखला के अन्तिम शिखर पर . सर्वोच्च सद्गुण रहता है। यही सर्वोच्च शुभ भी है। इस सद्गुण के अन्तर्गत सारे सद्गुण समाहित हो जाते हैं। यह सद्गुण दिक्-काल और परिस्थिति से बाधित नहीं होता-जबकि अन्य सद्गुण दिक्-काल पर आश्रित होते हैं।
प्रश्न 19. नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताओं की व्याख्या करें।
उत्तर: प्रत्येक शास्त्र के अन्तर्गत हम बहुत-सी ऐसी बात पाते हैं, जिसके बिना कोई नियम सम्भव नहीं होता। उन्हें ही उस शास्त्र की आवश्यक मान्यताएँ कहा जाता है। नीतिशास्त्र की भी कुछ आवश्यक मान्यताएँ हैं। इससे तात्पर्य यह है कि यदि इन मान्यताओं को सत्य न माना जाए तो नैतिकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता। हर नैतिक निर्णय के साथ उसके आधार के रूप में ये मान्यताएँ ही रहती हैं। यदि उन मान्यताओं को हम असत्य मानते हैं तो किसी नैतिक निर्णय का कोई मूल्य नहीं रहेगा। इसलिए, इन मान्यताओं को नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ कहा जाता है। नैतिक की मान्यताएँ विज्ञान की मान्यताओं से भिन्न होती है। विज्ञान की मान्यता केवल उनके प्रतिपाद्य विषय की व्याख्या के लिए है, उसका जीवन तथा व्यवहार से कोई मतलब नहीं है।
किन्तु नैतिकता की मान्यताएँ वस्तुतः वे सत्य हैं जिनसे मनुष्य जीते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए Urban ने लिखा है-“These (postulates of morality) are, in very truth, the truths men live by, and for these truths to turn into crror and illusion in our hands, is in a very real sense for us to cease to live.”
नैतिकता की आवश्यक मान्यताओं के दो रूप हैं-
1. प्राथमिक आवश्यक मान्यताएँ (Primary postulates) और
2. गौण आवश्यक मान्यताएँ (Secondary postulates)। प्राथमिक आवश्यक मान्यताओं के अन्तर्गत (क) व्यक्तित्व (Personality) (ख) विवेक (reason) और (ग) आत्म नियंत्रण या इच्छा स्वातन्त्रय (Freedom of will) आते हैं। इसी तरह गौण आवश्यक मान्यताएँ भी तीन हैं। (क) आत्मा का अमरत्व (Immorality of soul) (ख) ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास (belief in God’s existence) और (ग) इच्छा स्वातन्त्र्य (Freedom of will)।
1. व्यक्तित्व (Personality)-ऐच्छिक कर्मों को ही नैतिकता की परिधि में माना जाता है। वैसा कर्म, जो कि कर्ता द्वारा अपनी इच्छा से शुभाशुभ, उचित-अनुचित का विचार का या हेतु साधन आदि का संकल्प करके हो, उसे ही ऐच्छिक कर्म कहा जाता है। क्रियाएँ अनेक प्रकार की और अनेक प्राणियों की होती हैं, पर उनमें अन्तर है। पेड़-पौधों की क्रियाओं में चेतना का अभाव है। पशुओं की क्रियाएँ चेतना होती हैं, पर उनमें शुभाशुभ का ज्ञान नहीं रहता है।
यह ज्ञान तभी सम्भव है जब किसी नैतिक सिद्धान्त की चेतना हो और उसके अनुकूल आचरण करने की शक्ति हो। ऐच्छिक कर्म इसीलिए उसी का होगा, जिसमें इस प्रकार ज्ञान हो। इस दृष्टिकोण से विवेक और चेतना से सम्पन्न मनुष्य ही ऐच्छिक कर्म (voluntary action) का कर्ता हो सकता है। इसलिए P. B. Chatterji का कहना है-“The central fact of marality is called personality.” इसी तरह कालडरवुड ने कहा है कि व्यक्ति ही नैतिकता का आधार है। नैतिक निर्णय का विषय किये गये. कर्म नहीं अपितु कर्ता है-ऐसा कर्ता जिस पर किये गये कर्मों का उत्तरदायित्व हो। इसलिए व्यक्तित्व के बिना नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है।
अनुभववादी (Empiricists) और संवितावादी (Sensationists) व्यक्तित्व को केवल चेतना प्रतिक्रयाओं और स्थितियों को योग मानते हैं। किन्तु यह दोषपूर्ण है। यदि अनुभूतियाँ सतत् परिवर्तनशील हों और उनका अनुभव कर्ता अर्थात् व्यक्तित्व भी स्थायी तत्व न होकर परिवर्तनशील हो तो फिर अनुभव किसमें और कहाँ होगा ? यदि अनुभव की भाँति अनुभवकर्ता भी परिवर्तनशील हो तो फिर व्यक्ति में ‘एकता’ अर्थात् उसे ‘वही व्यक्ति’ मानने का कोई आधार नहीं जान पड़ता। वस्तुतः शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं में सतत् परिवर्तन होते रहने पर भी किसी व्यक्ति को ‘दूसरा व्यक्ति’ नहीं कहा जा सकता।
व्यक्तित्व का विचार वास्तव में आत्मचेतना और आत्मनियन्त्रण का संकेत करता है। किसी भी व्यक्ति को उन्हीं गुणों के कारण व्यक्तित्व प्रदान किया जाता है। वैसे प्राणी को व्यक्ति कहा जाता है, जिसकी क्रिया अपनी हो अर्थात् आत्मनियंत्रित हो और वह उसके लिए उत्तरदायी हो। अतः व्यक्तित्व केवल बुद्धि नहीं बल्कि शक्ति है। आत्म-नियंत्रित बुद्धि और आत्मनियन्त्रित क्रिया जिसकी हो, वही व्यक्ति है। व्यक्तित्व से आत्मज्ञान, आत्मचेतना एवं आत्म नियंत्रण का बोध होता है। इस सम्बन्ध में हम कह सकते हैं कि ‘व्यक्तित्व ही हमारा मानसिक और नैतिक जीवन का आधार है।’ इसलिए व्यक्तित्व को नैतिक ‘निर्णय की एक आवश्यक मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है।
2. विवेक (Reason)-मनुष्य में दो प्रकार के गुण सामान्य रूप से पाये जाते हैं-
(क) पाशविक प्रवृत्ति या कामुकता (Sensibility) और विवेक शक्ति (Reason)। मनुष्य के जीवन में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान है। पर विवेक शक्ति के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है। पाशविक प्रवृत्ति तो पशुओं में भी होती है। मनुष्य विवेक शक्ति द्वारा ही अपनी संवेदनाओं को अर्थपूर्ण करता है और ज्ञानोपार्जन करता है। यदि व्यक्ति को विवेक न हो तो फिर उसके आचरण पर नैतिक निर्णय नहीं दिया जा सकता। विवेक के आधार पर ही व्यक्ति नैतिक नियमों को जानता है। यदि मनुष्य में नैतिकता का ज्ञान ही न हो तो उसके कार्यों को उचित या अनुचित, शुभ या अशुभ नहीं कहा जा सकता।
मनुष्य की ऐच्छिक क्रियाओं (Voluntay actions) पर ही नैतिक निर्णय दिया जाता है। यदि ऐच्छिक कर्म ही न हो तो फिर नैतिकता कहाँ ? अविवेकी, पागल एवं बच्चों के कार्य नैतिक .. निर्णय के विषय नहीं, क्योंकि ये कार्य ऐच्छक कर्म नहीं है। अत: नैतिक निर्णय का विषय ऐच्छिक कर्म, विवेक शक्ति रहने पर ही सम्भव है और साथ-साथ नैतिक निर्णय के कर्ता को भी विवेक-युक्त होना आवश्यक है। अतः नैतिक निर्णय के लिए विवेक (Reason) एक अनिवार्य नैतिक मान्यता है।
3. संकल्प स्वातन्त्रय (Freedom of will)-संकल्प-स्वातंत्रय भी नैतिकता का एक आवश्यक आधार है। ऐच्छिक कर्म संकल्प स्वातन्त्र्य के बिना सम्भव नहीं है। उसी कर्म पर नैतिक निर्णय दिया जा सकता है जिसे करने में व्यक्ति किसी बाह्य सत्ता द्वारा विवश न हो। मनुष्य में इच्छा संघर्ष होता है और वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा से किसी एक को चुन लेता है और उसी के पूर्ति के लिए ऐच्छिक कर्म करता है। लेकिन जब व्यक्ति दूसरों के प्रभाव में या दबाव में आकर कोई कर्म करता हैं तो उसके लिए उसे उत्तरदायी बतलाना अनुचित है। तब कर्म करने में व्यक्ति की अपनी इच्छा स्वातन्त्र्य नहीं है तो फिर उसके कर्म का उचित या अनुचित नहीं कहा जा सकता। इसलिए नैतिक निर्णय के लिए संकल्प स्वातन्त्र्य का रहना नितांत आवश्यक है।
नियतिवाद (Determinism)-संकल्प स्वातन्त्र्य का निषेध करते हैं। इसके अनुसार मनुष्य अपने संकल्पों में बाह्य परिस्थितियों से ही बाह्य हैं और जैसा वह संकल्प करता है, उसके विरुद्ध संकल्प करने की स्वतंत्रता उसमें नहीं है।
यदि मनुष्य बाह्य परिस्थितियों एवं दबाव के चलते कोई कर्म करता है तो फिर उसके कर्म और एक मशीन के कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। दबाव में आकर कर्म करने से उसके उत्तरदायित्व का भाव समाप्त हो जाता है। वेदान्ती और हीगेल (Hegel) भी इसे मानते हैं कि यन्त्रवत् विश्व में नैतिकता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। जब स्वतन्त्रता ही नहीं है तो फिर ‘चाहिए’ का प्रश्न ही नहीं उठता।
यदि मनुष्य कर्मों में स्वतंत्र नहीं है, तो किसी आचरण का सुधार या विधिपूर्वक नियन्त्रण की बात करना निरर्थक हैं। जब हम किसी मनुष्य के आचरण में सुधार लाने की बात सोचते हैं तो मानना पड़ता है कि यह तभी सम्भव था जब वह चाहता तो वैसा कर्म नहीं कर सकता था, अर्थात् जो उसने किया, उसमें वह स्वतंत्र था। ऐसा यदि न माना जाय तो फिर आचरण में सुधार आदि का विचार ही गलत है।
कभी-कभी इच्छा स्वातन्त्र्य रहने पर भी कोई कर्म करने के बाद हमें पश्चाताप होता है। यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं, अर्थात् उसका कर्म नियम है तो पश्चाताप की भावना भी निरर्थक है। पश्चाताप तो इसलिए होता है कि हमारे वश की बात थी कि जैसा किया वैसा नहीं भी किया जा सकता था, अर्थात् हम स्वमंत्र थे।
काण्ट (Kant) का कहना है कि चाहिए के साथ योग्यता का भाव भी छिपा हुआ है। जब हम ‘चाहिए’ कहते हैं तब यह स्पष्ट है कि वैसा किया भी जा सकता है या नहीं भी। दोनों की स्वतंत्रता हमें है। यदि यह निश्चित और अटल हो कि यहीं करना है तो फिर ऐसा चाहिए, दोनों निरर्थक है। वैसा होना चाहिए या नहीं चाहिए। इसलिए (Martineau) मार्टिन्यू ने ठीक ही कहा है कि या तो संकल्प स्वातन्त्र्य सत्य है या नैतिक निर्णय एक भ्रम है।’ इसका तात्पर्य यह है कि या तो संकल्प-स्वातंत्र्य को सत्य माना जाय या यदि ऐसा नहीं विचार किया जाता तो कर्मों की अच्छाई-बुराई, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य आदि का विचार करना बिल्कुल फिजुल है।
प्रश्न 20. दण्ड की अवधारणा को स्पष्ट करें।
उत्तर: मनुष्य इस संसार में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन करता है। हम उसके। द्वारा सम्पादित कुछ क्रियाओं के लिए नैतिक दृष्टिकोण से उत्तरदायी ठहराते हैं तथा उसके आचरण को अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ, उचित या अनुचित करार देते हैं। इतना ही नहीं प्रत्येक नैतिक आचरण के साथ कुछ-न-कुछ दंड और पुरस्कार की भावना निहित है। हम अनैतिक आचरण के लिए दण्ड देते हैं तथा नैतिक आचरण के लिए उसे पुरस्कार प्रदान करते हैं। यहाँ नैतिक और अनैतिक शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में किया जा रहा है, क्योंकि नैतिक से हमारा तात्पर्य कम-से-कम वैसी क्रियाओं से है, जिसके साथ हम भावात्मक नैतिक मूल्य (Positive ethical values) पाते हैं और जिसमें इसका अभाव पाया जाता है, उसे संकुचित अर्थ में अनैतिक माना जाता है।
नैतिक तथा अनैतिक क्रियाओं के लिए दण्ड की भावना अत्यन्त ही प्रचलित भावना है। प्रायः प्रत्येक सुसंस्कृत समाज में हम अनैतिक आचरण के लिए कुछ-न-कुछ दण्ड की व्यवस्था पाते हैं, भले ही मनुष्य की आदिम अवस्था में दण्ड व्यवस्था का अभाव रहा हो, किन्तु संस्कृति के उदय के साथ ज्योंहि हम नैतिक दृष्टिकोण से क्रियाओं के बीच भेद करते हैं, वहाँ इसे दण्ड और पुरस्कार की भावना से भी सम्बन्धित करते हैं, किन्तु सैद्धांतिक दृष्टिकोण से हमारे लिए कुछ समस्याएँ अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हीं के आधार पर हम दण्ड के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न सिद्धांत देते हैं। दण्ड के सम्बन्ध में प्रमुख समस्याएँ हैं, क्या दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जाता है ? दण्ड का स्वरूप क्या हो ? क्या हम किसी अपराध कर्म के लिए दण्ड के निर्धारण में केवल अपराध के आधार पर ही दण्ड की व्यवस्था करें या वातावरण या परिस्थिति के अनुसार ही दण्ड की तीव्रता का निर्धारण करें।
इन्हीं समस्याओं के प्रसंग में दण्ड के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न सिद्धांत दिये गये हैं। इसके पूर्व ही हम दण्ड सम्बन्धी भिन्न-भिन्न सिद्धांतों की चर्चा करें, इन समस्याओं के ऊपर भी विचार करना अपेक्षित है। क्या दण्ड देने के पीछे किसी भी प्रकार का नैतिक औचित्य है ? (Is Punishment ethically justified ?)
क्या दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जा सकता है या नहीं, यह एक अत्यन्त ही जटिल समस्या है। जहाँ एक ओर दण्ड देने के पक्ष में मत देनेवाले विद्वान का यह मानना है कि दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित है, क्योंकि उसी के आधार पर हम सामाजिक व्यवस्था कायम रखते हैं, वहीं दूसरी ओर दण्ड के सम्बन्ध में सुधारवादी विचार रखनेवाला का कहना है कि मनुष्य किसी अपराध कर्म का सम्पादन शारीरिक कारण से या मानसिक कारण से या सामाजिक कारण से करता है। अतः अपराध करने वाले के लिए दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है, बल्कि उसके लिए सर्वोत्तम स्थान जेल नहीं होकर सुधारगृह या अस्पताल माना जाता है।
क्या दण्ड नैतिक दृष्टिकोण से उचित है या नहीं, इस सम्बन्ध में ऊपर चर्चित दोनों ही सिद्धांत एकांगी माने जा सकते हैं। जहाँ एक ओर extreme के समर्थक प्रत्येक स्थिति में दण्ड देना उचित मानते हैं वहीं दूसरी सुधारवादी विचारक किसी भी प्रकार के अपराध कर्म के लिए दण्ड देना उचित नहीं मानते हैं। यहाँ मध्यम मार्ग का अनुसरण किया जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि कम-से-कम उन क्रियाओं के लिए दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जा सकता है, जिसके लिए किसी अपराधकर्मी को सुधारने के लिए समुचित अवसर दिया जाता है फिर भी वह अपने आचरण में सुधार नहीं लाता है। साथ ही साथ जिस अपराध कर्म से सामाजिक व्यवस्था समाप्त होने का भय हो उसके लिए भी दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित मालूम होता है।