Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1
Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1
BSEB 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1
प्रश्न 1. भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषताओं की विवेचना करें।
अथवा, भारतीय दर्शन की मूलभूत विशेषताएँ क्या हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर: भारतीय दर्शन वैविध्यपूर्ण है। इसके विभिन्न सम्प्रदाय विभिन्न विचारधाराओं के समर्थक हैं। इसमें कुछ आस्तिक हैं तो कुछ नास्तिक। फिर भी कुछ ऐसी सामान्य बातें अवश्य हैं जिन पर सभी भारतीय सम्प्रदाय एकमत हैं। इन्हीं सामान्य बातों को भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषताओं की संज्ञा दी जाती है। ये प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखत हैं-
(क) जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण- पाश्चात्य विचारकों के लिए दर्शन एक मानसिक व्यायाम (mental exercise) मात्र है। वहाँ दर्शन की उत्पत्ति मानव जिज्ञासा की शांति के लिए होती है। किन्तु भारतीय दर्शन को केवल मानसिक कसरत नहीं कहा जा सकता। इसका व्यावहारिक पक्ष इसके सैद्धांतिक पक्ष से अधिक सबल है। यह जीवन के अत्यन्त नजदीक है। बुद्धि को सन्तुष्ट करना ही इसका लक्ष्य नहीं है। बल्कि ज्ञान के प्रकाश में जीवन को सुव्यवस्थित बनाना इसका मुख्य उद्देश्य है। जीवन की समस्याओं का समाधान ढूँढना भारतीय विचारक अपना पवित्र उद्देश्य मानते हैं। इस प्रकार भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण व्यावहारिक है।
(ख) भारतीय दर्शन की उत्पत्ति आध्यात्मिक असन्तोष के चलते होती है- विश्व में दुःख एवं बुराई का साम्राज्य पाकर भारतीय विचारक एक प्रकार से आध्यात्मिक असन्तोष का अनुभूत करते हैं और फलस्वरूप इनका दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ होता है। भारतीय विचारकों का प्रधान लक्ष्य मानव को दुःखों से मुक्त करना है। महात्मा बुद्ध ने अपने दर्शन में दुःख का विशद वर्णन किया है। इनके चार आर्य-सत्य दुःख के विचार पर आधारित है।
(क) दुख है (ख) का कारण है (ग) दु:ख का निरोध सम्भव होता है, There is cessation of suffering और (घ) दुख निरोध का मार्ग है। इसी प्रकार अन्य भारतीय दर्शन भी दुख के भावों से ओत-प्रोत हैं।
(ग) विश्व को एक नैतिक रंग-मंच मानना- प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक विश्व को एक नैतिक रंग मंच मानते हैं। मनुष्य अपने विगत कर्म के अनुसार ईश्वर का प्रकृति की ओर से शरीर, इन्द्रिय एवं वातावरण प्राप्त करके विश्वरूपी रंग-मंच पर उपस्थित होता है। जिस प्रकार, किसी रंग-मंच पर, पात्र अपने विभिन्न वस्त्रों में सजधज कर, अपना पार्ट अदा करते हैं और इसके बाद रंग-मंच से अलग हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार, विश्वव्यापी रंग-मंच पर भी विभिन्न प्राणी अपने कर्मों का कमाल दिखाकर विदा हो जाते हैं। प्राणियों को अच्छे कर्मों द्वारा सफल अभिनेता बनने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार साधारण रंग-मंच पर पुराने पात्र स्थान रिक्त करते जाते हैं और नये पात्र इन रिक्त स्थानों पर आते-जाते रहते हैं। इसी प्रकार विश्व भी एक ऐसा मंच है जहाँ पुराने और नये चेहरे सदैव आते-जाते रहते हैं।
(घ) विश्व की शाश्वत नैतिक अवस्था में विश्वास- विश्व में एक शाश्वत नैतिक अवस्था का समर्थन प्रायः भारतीय विचारक करते हैं। विश्व में जो भी हम करते हैं, इसका हमें निश्चित रूप मिलता है। अच्छे कर्मों के लिए परस्कार और बुरे कर्मों के लिए दण्ड का भागी होना पड़ता है।
यही कर्म सिद्धान्त (The Law of Karma) है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारा वर्तमान जीवन हमारे विगत जीवन का फल है और भावी जीवन की आधारशिला हमारे वर्तमान जीवन के कर्मों पर आधारित है। जिस प्रकार भौतिक जगत की व्यवस्था की व्याख्या कार्य-करण नियम जिसमें (Law of causation) के आधार पर की जाती हैं, उसी प्रकार नैतिक जगत की व्यवस्था कर्म सिद्धान्त द्वारा ही सम्भव है। यहाँ भाग्यवाद या नियतिवाद (Fatalism) का खण्डन किया जाता है। व्यक्ति का भाग्य निर्माण स्वयं इसके साथ है।
(ङ) आत्मा के अस्तित्व में विश्वास- चार्वाक और बौद्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा की सत्ता में अटूट विश्वास करता है। यहाँ आत्मा को शरीर से भिन्न एक आध्यात्मिक सत्ता माना गया है। यह नित्य (eternal) एवं अविनाशी (Indestructible) है। शंकर ने तो आत्मज्ञान (self-realisation) को ही ब्रह्म ज्ञान (realization of Brahma) माना है। इस प्रकार प्रायः सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा को नित्य, अविनाशी, आध्यात्मिक सत्ता के रूप में स्वीकार करता है। उपनिषदों एवं वेदों में भी आत्मा के महत्त्व पर काफी बल दिया गया है।
आत्मा के स्वरूप को लेकर भारतीय दर्शन में कई विचारधाराओं का जन्म हुआ है। चार्वाक के अनुसार चेतन शरीर ही आत्मा है। बौद्धों के अनुसार चेतना का प्रवाह (Stream of Consciousness) है। William James के विचार से बौद्ध मत मिलता-जुलता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा या जीवन चैतन्य युक्त है। इसमें चार प्रकार की पूर्णता पायी जाती है-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द।
(च) अज्ञान दुख एवं बंधन को उत्पन्न करता है और ज्ञान से मोक्ष मिलता है- भारतीय दर्शन में अज्ञान को बंधन (Bondage) और दुख का कारण बतलाया गया है। जन्म-मरण एवं पूर्वजन्म के चक्कर में पड़कर दुख झेलना ही बंधन है। जन्म, पूर्वजन्म के जाल से मुक्त हो जाना ही मोक्ष (Liberation) कहलाता है। प्रायः सभी भारतीय विचारक अज्ञानता (Ignorance) को दुखों के कारण मानते हैं। बुद्ध ने अज्ञान को दुखों का मूल कारण बतलाया है। अज्ञान का नाश से ही सम्भव होता है। इसलिए सभी दर्शनों में मोक्ष को अपनाने के लिए ज्ञान को परमावश्यक माना गया है।
(छ) आत्म नियन्त्रण पर जोर- मोक्ष की प्राप्ति के लिए मस्तिष्क से बुरे विचारों को निष्कासित करके उत्तम विचारों को प्रतिष्ठित करना एवं आत्मसंयम रखना भी अनिवार्य माने गये हैं। मस्तिष्क से दूषित भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। आत्मसंयम का अर्थ राग, द्वेष, वासना आदि का निरोध और ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का नियन्त्रण माना जाता है। आत्मनियन्त्रण पर जोर देने के फलस्वरूप सभी दर्शनों में नैतिक अनुशासन और सदाचार-संबंधित जीवन को आवश्यक माना गया है। चार्वाक के सिवा अन्य सभी भारतीय विचारकों ने आत्मनियन्त्रण को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बतलाया है।
(ज) मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है- चार्वाक के सिवा सम्पूर्ण भारतीय दर्शन मोक्ष को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। दुख रहित अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं। कुछ अन्य विचारकों ने इसे आनंदमय अवस्था बतलाया है। इस प्रकार मोक्ष के सम्बन्ध में दो मत हैं-निषेधात्मक और भावात्मक। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुखरहित अवस्था है और भावात्मक रूप से यह आनन्दमय अवस्था है। मोक्ष दो प्रकार के होते हैं-जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति। शरीर धारण करते हुए भी इसी जीवन में मुक्त हो जाना ही जीवन मुक्ति है। मृत्यु के बाद शरीर छोड़कर मुक्ति पाना विदेह मुक्ति है। मोक्ष को निर्वाण, कैवल्य आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। मोक्ष सर्वोच्च साध्य है। यह किसी अन्य साधन का साध्य नहीं हो सकता।
प्रश्न 2. गीता के “निष्काम कर्म’ की व्याख्या करें।
अथवा, गीता के अनासक्त कर्म की विवेचना करें।
उत्तर: अनासक्त या निष्काम कर्म गीता का मौलिक तथा नैतिक उपदेश है। निष्काम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के निः काम से हुई है जिसका अर्थ है बिना फल के तथा कर्म का अर्थ क्रियाशील होना अतः शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से निष्काम कर्म का अर्थ है कि कर्ता को बिना फल या परिणाम की कामना के क्रियाशील होना। निष्काम शब्द का विपरीत सकाम है, जिसका अर्थ है फल प्राप्ति की कामना के साथ कर्म करना। निष्काम कर्म गीता का मुख्य विषय है।
गीता के अनुसार मनुष्य को स्वधर्म का पालन करना चाहिए, जिससे वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो सके। गीता संसार में मनुष्य को सक्रिय जीवन व्यतीत करने का उपदेश देती है, जिससे उसका आन्तरिक जीवन परमात्मा के साथ जुड़ा रहे। भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को कर्म की समस्या की अत्यधिक सूक्ष्मता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि-गहना कर्मणे गतिः। अर्थात् कर्म की गति गहन है। हमारे लिए कर्म से बचना संभव नहीं है। अर्जुन अज्ञानता के कारण युद्ध करना नहीं चाहता है। भगवान कृष्ण अर्जुन को स्वधर्म या निष्काम भाव से कर्म करने का उपदेश देते हैं और अर्जुन युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाता है। कृष्ण ने कहा है, कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं तुम कर्म-फल का हेतु भी मत बनो. अकर्मण्यता से तुम्हारी आसक्ति न हो। ‘गीता का निष्काम कर्म कर्मों के त्याग के स्थान पर कर्म-फल त्याग का उपदेश देती है। गीता कर्म कल त्यागने को अवश्य कहती है। परन्तु उसका उद्देश्य कर्म से संन्यास नहीं है। जो कर्म-फल को छोड़ देता है वही वास्तविक त्यागी है। गीता में कहा गया है-
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥”
इस प्रकार, गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच समन्वय करती है। मनुष्य को कर्म प्रवृत्ति तथा फल निवृत्ति होना चाहिए। अर्थात् मनुष्य को कर्म करना चाहिए, फल के बारे में नहीं सोचना चाहिए। प्रो० हरियाना के शब्दों में “The Gita teaching stands nor for renuciation of action but for renunciation in action.”
अगर हम कर्म के फल में अनासक्ति और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना विकसित कर लें तो हम कर्म करते हुए भी नित्य संन्यासी हैं। इस प्रकार, गीता हमें पूर्णतः सक्रिय जीवन व्यतीत करने का आदेश देती है।
गीता के निष्काम कर्मयोग की तुलना प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट के “Duty for the sake of Duty” के साथ की जा सकती है। कांट ने भी यह कहा है कि मनुष्य को कर्तव्य करते समय कर्त्तव्य के लिए तत्पर रहना चाहिए। कर्त्तव्य करते समय फल की आशा का भाव छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार गीता तथा कांट के बीच समता दीखता है। लेकिन दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि यहाँ कांट इन्द्रियों को दमन की बात करते हैं। वहाँ गीता इन्द्रियों के नियंत्रित करने की बात करती है। कामनाओं का दमन व्यक्तित्व के विकास के लिए घातक है।
अत: निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साधारण मनुष्य के कर्म निष्काम नहीं बल्कि सकाम होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि निष्काम कर्म असंभव है। एक असाधारण व्यक्ति का कर्म निष्काम होता है। क्योंकि वह लोकसंग्रह की भावना से प्रेरित होकर कर्म करता है। अतः निष्काम कर्मयोग या अनासक्त कर्म गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।
प्रश्न 3. बुद्ध के चार आर्य सत्य की व्याख्या करें।
उत्तर: बौद्ध दर्शन के प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु के राज-परिवार में हुआ था। परन्तु राजसी जीवन से वे संतुष्ट नहीं थे और जीवन की सच्चाई को समझने के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु अपने राजसी जीवन का परित्याग कर जंगलों एवं पहाड़ों में एक भिक्षु का जीवन व्यतीत करने लगे। कई वर्षों की साधना एवं ध्यान के बाद मध्यम मार्ग के माध्यम से बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। बुद्ध द्वारा. प्राप्त ज्ञान को चार आर्य सत्यों के रूप में संकलित किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-
- मानव जीवन में दुःख का होना नितांत अनिवार्य है।
- मानव-जीवन दुःख का कारण अवश्य है।
- इन दुखों को हटाया जा सकता है।
- इन दु:खों को हटाने का मार्ग विद्यमान है।
जब मनुष्य अपने जीवन से इन दुःखों को हमेशा के लिए हटाने में सफल होता है। तब उसके जीवन के उस स्थिति को निर्वाण की स्थिति कहीं जाती है। कोई भी मनुष्य बुद्ध द्वारा बतलाये गये आष्टांगिक मार्ग को अपनाते हुए निर्वाण की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। आष्टांगिक मार्ग एक दुःख निरोध मार्ग हैं जो चतुर्थ आर्यसत्य के अन्तर्गत आता है। यह एक नैतिक और आध्यात्मिक साधना का मार्ग है जहाँ पूजा, शील और समाधि पर संयुक्त रूप से बल दिया जाता है। इस मार्ग के आठ अंग हैं, जो निम्नलिखित हैं-
- सम्यक् दृष्टि- सम्यक् शब्द का अर्थ है उचित। अतः सम्यक् दृष्टि का तात्पर्य उचित ज्ञान है। यह बुद्ध के उपदेशों में श्रद्धा और आर्य सत्यों का ज्ञान है।
- सम्यक् संकल्प- यह आर्य मार्गों पर चलने का दृढ़ निश्चय है।
- सम्यक् वाक्- यह मार्ग साधक को अपने वाणी की पवित्रता और सत्यता बनाये रखने की प्रेरणा देता है।
- सम्यक् कर्मान्त- यहाँ साधक को हिंसा द्वेष और दुराचरण का त्याग तथा सत्य कर्मों का आचरण करने को बतलाया गया है।
- सम्यक् आजीव- यहाँ साधक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जीविकोपार्जन के लिए भी अनैतिक कर्मों का सहारा नहीं लेगा तथा न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन करता रहेगा।
- सम्यक् व्यायाम- यह वह मानसिक प्रयास हैं जहाँ मन में दबे हुए सभी नए एवं पुराने अशभ विचारों. विकारों एवं मान्यताओं को निरस्त कर नये, अच्छे एवं शुभ विचारों का समावेश किया जाता है।
- सम्यक् स्मृति- यह साधक के लिए उचित स्मरण की स्थिति है जहाँ वह अभी तक प्राप्त सभी ज्ञान को बार-बार यह करता है। साधक को हमेशा यह याद रखना है कि इस संसार में कुछ भी नित्य नहीं है। “जिसे वह नित्य समझता है। वास्तव में वह क्षणभंगुर है।”
- सम्यक् समाधि- यह चित्त की एकाग्रता की परम स्थिति हैं जहाँ साधक सुख-दुःख से परे की अवस्था को प्राप्त करता है। इसी अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है। या कह सकते हैं कि चित्त की एकाग्रता की यह प्रम स्थिति निर्वाण की अवस्था है। इसकी तुलना भगवत् गीता के ‘स्थित प्रज्ञ’ की अवस्था से की जा सकती है।
प्रश्न 4. काण्ट के अनुसार ‘समीक्षावाद’ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are . justified in what they affirm but wrong in what they deny”।
अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है। फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।
ज्ञान की परिभाषा- काण्ट (Kant) ज्ञान को संश्लेषणात्मक प्रागनुभविक निर्णयों के एकतंत्र (A system of Synthetica priorijudgements) के रूप में परिभाषित करते हैं। निर्णय दो प्रत्ययों (Ideas) उद्देश्य तथा विधेय के मेल को कहते हैं। जैसे-‘मेज गोल है’ एक निर्णय है जिसका निर्माण ‘मेज’ तथा ‘गोलापन’ प्रत्ययों के मिलाने से हुआ है। इसमें ‘मेज’ उद्देश्य है तथा ‘गोलापन’ विधेय है। संश्लेषणात्मक निर्णय वैसे निर्णय को कहते हैं जो अनुभव पर आधारित हो, यानी जिसके अनुभव विधेय में अनुभव के आधार पर उद्देश्य के सम्बन्ध में कोई नयी बात कही जाए सिर्फ उद्देश्य का विश्लेषण भर नहीं कर दिया जाए। संश्लेषणात्मक निर्णयों के विपरीत काण्ट विश्लेषणात्मक (Analaytic), निर्णयों को लेते हैं जिनके विधेय में उद्देश्य का सिर्फ विश्लेषण किया गया रहता है, उसके सम्बन्ध में कोई नयी बात नहीं कही जाती है।
‘त्रिभुज तीन भुजाओं से घिरा क्षेत्र है’ निर्णय विश्लेषणात्मक है चूँकि इसका विधेय इसके उद्देश्य ‘त्रिभुज’ का विश्लेषण मात्र है। परन्तु ‘गुलाब लाल है’ एक संश्लेषणात्मक निर्णय है चूँकि ‘लाली’ गुलाब के विश्लेषण से नहीं निकलती बल्कि अनुभव के आधार पर गुलाब के साथ जोड़ा जाता है जो गुलाब के सम्बन्ध में एक नवीन ज्ञान देता है। प्रागानुभविक निर्णय वैसे निर्णय हैं जिनकी सत्यता किसी विशिष्ट अनुभव तक ही सीमित नहीं है बल्कि विशिष्ट अनुभवों के परे सभी स्थान, सभी काल आदि के लिए अनिवार्यतः सत्य है। उदाहरणस्वरूप दो और दो का योग चार होता है। भौतिक पदार्थों में फैलाव (Extension) होता है आदि निर्णय प्रागानुभविक हैं। ऐसे ही निर्णयों के एक तंत्र (System) को जो संश्लेषणात्मक तथा प्रागानुभविक दोनों हो काण्ट ज्ञान की संज्ञा देते हैं।
ज्ञान का निर्णय-अब प्रश्न उठता है कि ऐसे ज्ञान का निर्माण कैसे होता है। इस प्रश्न का उत्तर काण्ट ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘Critique of pure Reason’ में दिया है। इसमें उन्होंने बताया है कि ज्ञान का निर्माण दो पक्षों के सम्मिलित प्रयास से होता है। एक को वे संवेदन-शक्ति (Sensibility) तथा दूसरे को बुद्धि (understanding) कहते हैं। संवेदन-शक्ति से ज्ञान की वस्तु प्राप्त होती है तथा बुद्धि से उसका आकार। संवेदनाएँ मन को दिक् तथा काल के आकारों से होकर ही प्राप्त होती हैं। संवेदनायें अपने आप में बिल्कुल असम्बद्ध तथा अव्यवस्थित होती हैं।
सिर्फ उन्हें प्राप्त कर लेने से ही ज्ञान का निर्णय नहीं हो जाता। उन्हें आकार देकर व्यवस्थित करना तथा. निर्णयों का निर्माण करने का काम मन करता है। संवेदनाओं को पूर्ण आकार में ढालकर निर्णय का निर्माण करना मन के उस पक्ष का काम है जिसे बुद्धि की संज्ञा दी गयी है। काण्ट के अनुसार मन के अन्दर सोचने के बारह आकार जन्मजात आकारों के रूप में मौजूद हैं जिसे, “Categories of Understanding” कहा जाता है। ये बारह आकार बारह साँचे के समान हैं जिनमें ढालकर संवेदनाएँ आकार पाती हैं। बुद्धि के ये बारह आकार निम्नलिखित हैं-
- अनेकता (Plurity)
- एकता (Unity)
- सम्पूर्णता (Totality)
- भाव (Affirmation)
- अभाव (Negation)
- सीमितभाव (Limitation)
- कारण कार्यभाव (Causality)
- गुणभाव (Substantiality)
- अन्योन्याश्रय भाव (Reciprocity)
- सम्भावना (Possibility)
- वास्तविकता (Actuality)
- अनिवार्यता (Necessity)।
कान्टीय सिद्धांत की समीक्षा-काण्ट अपने सिद्धान्त के द्वारा बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के एकांगी मतों के बीच एक समन्वय स्थापित करते हैं जो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। परन्तु जिस प्रकार के ज्ञान की क्रिया में अनुभव तथा बुद्धि दोनों के कार्यों का विश्लेषण करते हैं और जिस प्रकार बेमेल अवधारणाओं को ज्ञान की व्याख्या में वे एक साथ मिलाने की कोशिश करते हैं। उनके फलस्वरूप उनके सिद्धान्त में कई दोषों का समावेश हो जाता है जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-
सर्वप्रथम काण्ट द्वारा ज्ञान की वास्तविक प्रक्रिया का किया गया विश्लेषण एक मनगढन्त तथा कृत्रिम सिद्धान्त लगता है। काण्ट का यह कहना कि अमुक प्रकार से संवेदनाएँ आती हैं और तब फिर मन अपने बुद्धि के आकारों के द्वारा व्यवस्था प्रदान करता है और तब फिर प्रज्ञा अन्तिम * व्यवस्था प्रदान करती है, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से असत्य है। ज्ञान की क्रिया इस यांत्रिक रूप में सम्पन्न नहीं होती।
काण्ट का यह कहना है कि संवेदनाएँ अपने आप में बिल्कुल असम्बद्ध तथा अव्यवस्थित होती हैं यथार्थ प्रतीत नहीं होता। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक William James का कहना है कि संवेदनाएँ बिल्कुल असंबद्ध रूप में मन में नहीं आती। उन्हें ग्रहण करने तथा व्यवस्थित करने की क्रियाएँ कुछ इस प्रकार अभिन्न हैं कि यह कहा जा सकता है कि पहले वे एक असम्बद्ध रूप में मन में आती है तब मन अपने आकारों द्वारा उनमें व्यवस्था लाता है। एक व्यवस्थित रूप में ही मन संवेदनाओं को ग्रहण करता है।
प्रश्न 5. देकार्त के दर्शन में शरीर एवं मन के संबंध की व्याख्या करें।
उत्तर: मन और शरीर के आपसी सम्बन्ध की समस्या दर्शन के इतिहास में अत्यन्त ही पुरानी एवं विवादास्पद है। देकार्त ने मन और शरीर के बीच सम्बन्ध की व्याख्या अपने द्रव्य विचार के अन्तर्गत किया है। इन्होंने मन और शरीर को सापेक्ष द्रव्य स्वीकार करते हुए दोनों को विरोधात्मक कहा है। आत्मा का मौलिक गुण चेतना है तथा शरीर का मौलिक गुण विस्तार है।
देकार्त ने इन दोनों के बीच सम्बन्ध की व्याख्या क्रिया-प्रक्रिया के द्वारा करने का प्रयास किया है। हमारे अन्दर पिनियस ग्लैन्ड नामक एक विशेष प्रकार की ग्रन्थि है, जिसके सहारे मन और शरीर एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। मन शरीर के बीच आपसी सम्बन्ध के लिए देकार्त ने घोड़ा और घुड़सवार का भी उदाहरण दिया है। जिस प्रकार घुड़सवार घोड़ा को अपने ऐंड से मारता है तो घोड़ा तेज भागता है, उसी प्रकार मन के निर्देश देने के बाद शरीर सक्रिय हो जाता है। देकार्त के मन और शरीर के स्वतंत्र सत्ता मानने के कारण ही इन्हें द्वैतवादी कहा जाता है।
प्रश्न 6. अनुभववाद की व्याख्या करें।
उत्तर: अनुभववाद वह ज्ञानशास्त्रीय दार्शनिक सिद्धान्त है, जो समस्त ज्ञान का स्रोत बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव को मानता है। यह बुद्धिवाद का पूर्णतः विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का प्रत्येक ज्ञान अर्जित है, जन्म के समय मनुष्य के मस्तिष्क में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए अनुभववाद का कहना है कि जन्म के समय हमारा मस्तिष्क कोरे कागज के तरह रहता है तथा बाद में अनुभव के आधार पर ज्ञान अंकित होते हैं।
ज्ञान के मनुष्य तत्त्व प्रत्यय है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति अनुभव से होता है। बुद्धि प्रत्यय को मात्र ग्रहण करता है, उत्पन्न नहीं करता है। बुद्धि के प्रत्ययों को निष्क्रिय ढंग से ग्रहण करती है। इसलिए प्रत्यय का एक मात्र जननी अनुभव है। अनुभववाद के समर्थक प्रमुख तीन दार्शनिक हैं . लॉक, बर्कले और ह्यूम है। इन तीनों दार्शनिक ग्रेट ब्रिटेन के तीन प्रदेशों, लंदन, आयरलैण्ड और स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे।
(i) जॉन लॉक का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। लेकिन हमारे सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रत्यय क्या हैं ? इसके उत्तर में लॉक का कहना है कि प्रत्यय किसी बाह्य वस्तु के प्रतिनिधि होते हैं। जैसे-टेबुल, कुर्सी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थ है। जब इसे देखते हैं तो हमारे मन में एक प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु का बनता है। जब आँख बंद कर लेते हैं तो उस वस्तु का प्रतिमा बनी रहती है। यही प्रतिमा लॉक के अनुसार प्रत्यय है। अतः समस्त ज्ञान इन्हीं प्रत्ययों से बनता है जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है।
लॉक अनुभव का कहना है कि जन्म के समय हमारा मन एक स्वच्छ कोरे कागज के समान रहता है। इस मन में कुछ भी पूर्व से अंकित नहीं रहती है बल्कि समस्त ज्ञान प्रत्ययों से प्राप्त “Black tabula, table rase, white paper empty calamity”.
लॉक को दो भागों में विभक्त किया है-सरल प्रत्यय से मिश्र प्रत्यय का निर्माण होता है और हमारा समस्त ज्ञान बनता है। जितने भी बुद्धिवादी दार्शनिक है वे सहज प्रत्यय को जन्मजात मानते हैं। बुद्धिवादियों का कहना है कि ईश्वर, आत्मा, धार्मिक और नैतिक मूल्य आदि प्रत्यय हमारे मन में जन्म से ही बैठा दी जाती है। वे प्रत्यय पर और अनिवार्य होते हैं। इसके विरुद्ध में लॉक का कहना है कि सहज प्रत्यय नाम का कोई भी चित्र अनुभव से पूर्व मन में स्थित नहीं होती।
(ii) अनुभववाद के दूसरा प्रबल समर्थक बर्कले का कहना है कि ज्ञान केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये एक रोचक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक बार मुझे जिज्ञासा हुई कि फाँसी लगाते समय कैसा अनुभव होता है यह जाना जाए। इसलिए अनुभववादी बर्कले ने स्वयं फाँसी के फंदे गले में लगा लिया। जब उसके मित्र फाँसी के फंदै खोले तो बर्कले बेहोश थे। इतना कट्टर अनुभववादी होते हुए भी भौतिकवादी न होकर अध्यात्मवादी हैं।
बर्कले अपने अनुभववादी विचार को लॉक के विचारों से ताल मेल कराते हुए आगे बढ़ाई है। बर्कले लॉक के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को मानकर कहते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान संवेदनाओं और इन संवेदनाओं के द्वारा होता है। इन्द्रिय बौधी समस्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु ऐन्द्रिय बोध जो बर्कले प्रत्यय कहते हैं, वह मन में ही रहते हैं लॉक ने इसके श्रोत के रूप में स्थित पदार्थ की कल्पना की थी, पर बर्कले का मत है कि ऐसा किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। हम केवल मन्स के प्रत्यय का अनुभव करते हैं, जो प्रत्यय इन्द्रियों का देन है, भौतिक पदार्थों का नहीं।
जैसे हमें आँख से रंग या प्रकाश का ज्ञान होता है, जीभ से स्वाद, कान से शब्द इत्यादि का बोध होता है। ये प्रत्यय एकत्र होकर वस्तु की संज्ञा देते हैं और ये संवेदना के द्वारा मिलते हैं। इन प्रत्ययों का संहार रूप वस्तुओं से हमारे मन में सुख-दु:ख, प्रेम, घृणा, आशा-निराशा इत्यादि भावों का ज्ञान होता है। इनका ज्ञान एवं संवेदना से होता है जिसे बर्कले हमारे मन में कल्पना प्रस्तुत और स्मृति जन-प्रत्यय भी है। इसी को बर्कले में प्रत्ययवादी कहते हैं। इस प्रकार बर्कले के लिए अनुभव ज्ञान का साधन है किन्तु वह भौतिक पदार्थों का नहीं बल्कि ईश्वरीय प्रत्ययों का अनुभव है।
(iii) अनुभववाद के तीसरा प्रबल समर्थक ह्यूम ने लॉक और बर्कले के तरह यह मानते हैं कि सभी ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं। ह्यूम का कहना है कि अनुभव प्रत्ययों का होता है वस्तु का नहीं। ह्यूम का अनुभववादी विचार लॉक और बर्कले के अनुभववादी विचार के अस्वीकार करते हुए जड़, जगत, ईश्वर और आत्मा के सत्ता को इंकार करते हैं और कहते हैं कि अनुभव केवल प्रत्ययों का ही होता है, जो लगातार आते-जाते रहता है।
हम भ्रमवश एक स्थायी आत्मा की कल्पना कर बैठते हैं, जबकि आत्मा नाम की चीज मनुष्य के पास नहीं है। ह्यूम कार्य कारण नियम का खंडन करता है, जिसे उसके पूर्व लॉक और बर्कले स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि कार्य कारण नियम कोई वृद्धिजन्य और सार्वभौम नियम नहीं है। बल्कि हम अपने अनुभव के आधार पर कार्य कारण के संबंध का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम केवल संवेदना और स्व-संवेदना का अनुभव करते हैं। किसी जड़ पदार्थ का नहीं। इसी तरह आत्मा के बारे में ह्यूम का कहना है कि हमें कभी भी आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आत्मा कुछ नहीं है। केवल भिन्न-भिन्न संवेदनाओं का प्रवाह मात्र है। इसी प्रकार ईश्वर का भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। इसलिए इसकी पत्ता को भी ह्यूम इंकार करते हैं।
प्रश्न 7. अरस्तू के कारणता सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर: कारणता सिद्धांत को सामान्य मानव, दार्शनिक तथा वैज्ञानिक सभी स्वीकारते हैं। जिसका मूल सिद्धांत है कि प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। इस मत को पाश्चात दार्शनिक अरस्तू भी स्वीकारते हैं। अरस्तू के अनुसार किसी घटना के चार कारण होते हैं। वे हैं-
- उपादान कारण (Material cause)
- निर्मित कारण (Efficient cause)
- आकारिक कारण (Formal cause)
- प्रयोजन कारण (Final cause)
उपादान कारण- किसी वस्तु के निर्माण में जिस उपादान या सामग्री की आवश्यकता पड़ती है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे-मिट्टी घड़ा के लिए उपादन कारण है।
नामत कारण- किसी वस्तु का निर्मित कारण वह है, जो उपादान में शक्ति या गति प्रदान कर उसमें परिवर्तन लाता है। जैसे-कुम्हार घड़ा का निर्मित कारण माना जाता है।
आकारक कारण- किसी उपादान सामग्री को एक निश्चित दिशा में गति प्रदान करने का काम आकारिक कारण द्वारा सम्पन्न होता है। जैसे कुम्हार द्वारा घड़ा का बनाया जाना है। उनके मन में घड़ा का आकार विद्यमान रहता है तब वो घड़ा बनाता है।
प्रयोजन कारण – किसी वस्तु के निर्माण में प्रयोजन या लक्ष्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसी प्रयोजन या लक्ष्य की पूर्ति के लिए किसी वस्तु का निर्माण होता है। घड़ा का बनकर तैयार होना प्रयोग कारण कहलाता है।
अरस्तू का चारों कारणों को आगे चलकर दो कारणों में सीमित कर देते हैं। उपादान कारण और आकारिक कारण में। निमित कारण एवं प्रयोजन कारण को आकारिक कारण में मिला देते हैं।
अरस्तु के अनुसार किसी भी वस्त के निर्माण में दो तत्त्व रहते हैं- उपादान और आकार। उपादान एक संभावनामार्ग है, परन्तु आकार वास्तविकता संभावना को वास्तविकता में परिणत होना ही किसी वस्तु का उत्पन्न होता है। इस प्रकार किसी वस्तु के निर्माण में आकार मूल प्रेरक का कार्य करता है।
प्रश्न 8. वैशेषिक के अभाव पदार्थ की व्याख्या करें।
उत्तर:
वैशेषिक दर्शन में पदार्थों की संख्या दो बताई गई है-
- भाव पदार्थ जिसका संख्या छ; है। वो है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय।
- अभाव, अभाव पदार्थ के अंतर्गत अभाव को रखा गया है। वैसे वैशेषिक सूत्र में अभाव की चर्चा नहीं की गई है। बाद के भाष्करों ने अभाव का वर्णन किया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में दर्शन की संख्या सात हो जाते हैं।
अभाव किसी वस्तु का न होना कहा जाता है। अभाव का अर्थ किसी वस्तु का किसी विशेष काल में किसी विशेष स्थान में अनुपस्थित है। जैसे-रात्रि में बिस्तर में सर्प का अभाव। अभाव दो प्रकार के होते हैं-
- संसर्गाभाव
- अन्योन्यभाव।
संसर्गाभाव-दो वस्तुओं के सम्बन्ध के अभाव को कहा जाता है जब एक वस्तु का दूसरी वस्त में अभाव होता है तो उस अभाव को संसर्गाभाव कहा जाता है। जैसे जल में अग्नि का अभाव। संसर्गाभाव तीन प्रकार के होते हैं। प्रागभाव, ह्वसीभाव और अत्यन्ताभाव उत्पत्ति के पूर्व कार्य का भ्रांतिक कारण में अभाव प्रागाभाव है। जैसे-मिट्टी में घड़ा का अभाव। ध्वंस समावय का अर्थ है विनाश के बाद किसी चीज का अभाव। जैसे-घड़े के टूटे हुए टुकड़ों में घड़ा का अभाव। अन्यन्ताभाव दो वस्तुओं के सम्बन्ध का अभाव जो भूत, वर्तमान और भविष्य में रहता है।
अन्योन्यभाव-अन्योन्यभाव का मतलब दो वस्तुओं की भिन्नता। अर्थात् एक वस्तु में दूसरे का पूर्ण निषेध। जैसे-घोड़े गाय नहीं हो सकता। इसे एक रेखा चित्र द्वारा दर्शाया जा सकता है।
प्रश्न 9. जैन के स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या करें। अथवा, स्याद्वाद की व्याख्या करें।
उत्तर: जैन दर्शन के अनुसार वस्तुओं के अनन्त धर्म होते हैं- ‘अनन्त धर्मकर्म वस्तु’। हम किसी भी वस्तु के जितने गुणों या लक्षणों को जानते हैं, उतने ही गुण या लक्षण उस वस्तु में नहीं होते। वस्तु के ‘अनन्त धर्म’ को जीतना हमारे लिए संभव नहीं है। यह जैन का अनेकान्तवाद है। अब चूँकि हम वस्तु के अनन्त धर्म को नहीं जान सकते। अतः यह कहा जा सकता है कि वस्तु को हम सही-सही नहीं जानते हैं। अत: वस्तुओं के विषय में हमारा ज्ञान एकांगी है। यहाँ जैन दर्शन का स्याद्वाद हमारी सहायता करता है। स्याद्वाद बतलाता है कि हम निरपेक्ष रूप से नहीं कह सकते हैं कि कोई वस्तु है या नहीं है।
स्याद्वाद जैनदर्शन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसकी धारणा है कि सत् का स्वरूप अत्यधिक अनियत भिन्न-भिन्न (निष्कर्ष वाला) है। ‘स्यात्’ शब्द संस्कृत की अस धातु (होना) के विधिलिंग का एक रूप है। इसका अर्थ है-हो सकता है शायद, इसलिए स्याद्वाद शायद का सिद्धांत है। इस सिद्धांत का तात्पर्य है कि वस्तु को अनेक दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है और प्रत्येक दृष्टिकोण से एक भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होता है। किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में हमारा जो निर्णय होता है वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता। साधारण मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आंशिक होता है।
हमारे मतभेद का कारण यह है कि हम उपर्युक्त सिद्धान्त को भूल जाते हैं और अपने विचारों को सर्वथा सत्य मानते हैं। इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। छः अन्धे, हाथी के आकार के ज्ञान जानने के उद्देश्य से, हाथी के अंग का स्पर्श करते हैं। कोई उसका पेट, कोई पैर, कोई कान, कोई पूँछ तथा कोई उसका लँड पकड़ता है। प्रत्येक अंधा सोचता है कि उसी ज्ञान में सब कुछ है, शेष गलत है। किन्तु जैसे ही उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि प्रत्येक ने हाथी का एक-एक अंग स्पर्श किया है, उनका मतभेद दूर हो जाता है। इस आंशिक ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे ही ‘नय’ कहते हैं। ‘नय’ एक दृष्टिकोण है जिसके आधार पर तप किसी पदार्थ के विषय में कोई कथन कहते हैं। ‘नय’ को स्पष्ट करते हुए Dr. C. D. Sharma ने लिखा है-A mere statement of relative truth calling it either absolute relative is called Naya.
स्याद्वाद के सम्बन्ध में दो तरह के मत देखने को मिलते हैं। पहला मत उपनिषदों का था कि सत् ही तत्त्व है और दूसरा मत छान्दोग्य उपनिषद् का, किन्तु अस्वीकृत, कि असत ही तत्त्व है। जैनदर्शन के अनुसार ये दोनों ही मत अंशत: सही हैं। जैनों के विचार से तत्त्व का स्वरूप इतना जटिल है कि उसके बारे में इन मतों में से प्रत्येक अंशतः तो सही हैं, लेकिन पूर्णतः सही नहीं है। अतः जैन इस बात का आग्रह करते हैं कि प्रत्येक नया के प्रारम्भ में ‘स्यात’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। स्यात शब्द से यह संकेत होता है कि इसके साथ के प्रयुक्त वाक्य की सत्यता प्रसंग विशेष पर ही निर्भर करती है। अन्य प्रसंगों में वह मिथ्या भी हो सकता है। अतः स्याद्वाद वह सिद्धांत है जो मानता है कि मनुष्य का ज्ञान एकांगी तथा आशिक है।
जैनियों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से परामर्श (Judgement) के भेद किए हैं। जिस परामर्श में किसी वस्तु के साथ उसके अपने धर्म या लक्षण का संबंध जोड़ा जाता है उसको अस्तिवाचक परामर्श कहते हैं। जिस परामर्श में किसी वस्तु का किसी अन्य वस्तु के धर्म या लक्षण के साथ संबंध भाव दिखलाया जाता है, उसे नास्तिवाचक परामर्श कहते हैं। जैन दर्शन के सात प्रकार के. परामर्श के अंतर्गत ये दो परामर्श भी निहित हैं। जैन-दर्शन में इस वर्गीकरण को ‘सप्त-भंगी नय’ कहा जाता है।
प्रश्न 10. शिक्षा का उद्देश्य क्या है? स्पष्ट करें।
उत्तर: शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति समय के अनुसार बदलते रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा उद्देश्य चारित्रिक विकास करना होता था तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार रोजगार परक है। अर्थात् वही शिक्षा उचित है जो रोजगार दे सके। लेकिन शिक्षा का उद्देश्य न सिर्फ रोजगार परक होना चाहिए, बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसलिए इस संदर्भ में महात्मा गाँधी ने कहा है शिक्षा ऐसे होनी चाहिए जिससे व्यक्तित्व का विकास हो तथा उसे रोजगार मिल सके। इसीलिए उन्होंने मूल्य युक्त तकनीक शिक्षा की वकालत की है।
वर्तमान में विश्व के सामने अनेकों समस्याएँ, जैसे-भ्रष्टाचार की समस्या, धार्मिक उन्माद, सम्प्रदायवाद, नक्सलवाद आदि। इन सभी के मूल में देख पाते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था दोषपूर्ण हैं। तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ नैतिक मूल्यपरक शिक्षा आवश्यक है। आध्यात्मिक शिक्षा आवश्यक है। तकनीकी शिक्षा लोगों को रोजगार तो अवश्य दे देता है पर जीने की कला नहीं सिखाती मानव मशीनी जीवन जीते-जीते स्वयं मशीन बन जाता है।
इसलिए व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ मूल्यपरक शिक्षा दिया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को समझे। परिवार के प्रति, समाज के प्रति एवं राष्ट्र के प्रति क्या कर्त्तव्य होना चाहिए। साथ ही आज धर्म के नाम प्रतिदिन हजारों लोगों की जान जाती है क्यों? क्योंकि धर्म के वास्तविक अर्थ को हम नहीं समझ पाते हैं इसलिए इतिहास, भूगोल की तरह सभी धर्मों की भी शिक्षा प्राथमिक स्तर में दिशा जाना चाहिए।
प्रश्न 11. बुद्धिवाद की व्याख्या करें।
उत्तर: बुद्धिवाद वह ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जिसके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति मात्र बुद्धि से संभव है। इसके निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(a) इस सिद्धांत के अनुसार बुद्धि ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन है। अनुभव के द्वारा यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं मिल सकता।
(b) इस सिद्धांत के अनुसार यथार्थ ज्ञान वह है, जो सार्वभौम (Universal) और अनिवार्य (Necessary) हो। यह ज्ञान सार्वभौम है; क्योंकि यह सभी स्थानों (Place) और सभी कालों (Time) में सत्य होता है। यह ज्ञान अनिवार्य है; क्योंकि इसका अपवाद या विपरीत सत्य नहीं हो सकता। उदाहरण- 2 + 2 = 4। यह हमेशा और सभी स्थान में सत्य है और इसका अपवाद कभी सत्य नहीं हो सकता। बुद्धिवादियों का दावा है कि इस प्रकार के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति केवल बुद्धि द्वारा ही। हो सकती है। अनुभव सीमित है, इसलिए इसके द्वारा सार्वभौम और अनिवार्य ज्ञान मिलना असंभव है।
(c) इस सिद्धांत में जन्मजात या सहज प्रत्यायों (Innate Ideas) का समर्थन किया गया है। जन्मजात प्रत्यय मनुष्य के मस्तिष्क में जन्मकाल से ही विद्यमान रहते हैं। इन्हें अनुभव के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। ये स्वयं सिद्ध (Self-proved) है; क्योंकि इनको सिद्ध करने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती। संपूर्ण ज्ञान इन्हीं जन्मजात प्रत्ययों में अव्यक्त रूप से निहित हैं। इन्हीं प्रत्ययों को विकसित करके बुद्धि हमें यथार्थ ज्ञान देती है। इसलिए, बुद्धिवाद को सहज ज्ञानवाद (Innatism) या अनुभवनिरपेक्षवाद (Apriorism) भी कहा जाता है।
(d) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति निगमनात्मक पद्धति (Deductive Method) द्वारा होती है। गणितशास्त्र में निगमनात्मक या ज्यामितिक विधि (Geometrical Method) का सुंदर प्रयोग होता है। गणित में और विशेषकर ज्यामिति में कुछ स्वयंसिद्ध वाक्यों (Axioms) से आरंभ कर निगमनात्मक विधि द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता है। इसी प्रकार, बुद्धि स्वसिद्ध जन्मजात प्रत्ययों के आरंभ कर उनके विश्लेषण द्वारा हमें यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराती है। यह निगमनात्मक विधि है।
(e) बुद्धि के अनुसार मानव-मस्तिष्क हमेशा सक्रिय रहता है। (Human mind is always active)। यह विचार अनुभववादी विचारक लॉक के मत से सर्वथा भिन्न है। लॉक के अनुसार मस्तिष्क सदा निष्क्रिय (Passive) रहता है। बुद्धिवाद के अनुसार मस्तिष्क सक्रिय होकर ही सहज प्रत्ययों को सुव्यवस्थित करके हमें यथार्थ ज्ञान दिलाने में समर्थ होता है।
प्रश्न 12. बौद्ध दर्शन के द्वितीय आर्य सत्य की व्याख्या करें। अथवा, द्वितीय आर्य सत्य को द्वादश निदान क्यों कहा जाता है?
उत्तर: बुद्ध का दूसरा आर्य सत्य दु:ख समुदय है। समुदय का अर्थ है-कारण। दुःख समुदय अर्थात दु:ख का कारण। इस प्रकार द्वितीय आर्य सत्य में बुद्ध ने दुःख की उत्पत्ति या कारण पर विचार किया है। बुद्ध मानते हैं कि प्रत्येक घटना का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। दुःख भी एक घटना या कार्य है। इसलिए इसका भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। प्रायः सभी भारतीय विचारकों ने अज्ञान को ही दुःख का मूल कारण माना है। बुद्ध ने भी दुःख का कारण अज्ञान को ही माना है। बौद्ध दर्शन का यह दु:ख उत्पत्ति का सिद्धान्त बौद्धों के प्रतीत्य समुत्पाद अर्थात् कार्य कारण का सिद्धान्त भी कहलाता है।
प्रतीत्य समुत्पाद या द्वादश निदान का सिद्धान्त बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन के अन्य दार्शनिक सिद्धान्त जैसे-क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, संघातवाद, कर्म का सिद्धान्त तथा अर्थक्रिया करित्वा का सिद्धान्त इसी पर आधारित है। प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है–एक वस्तु के प्राप्त होने से दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा कारण के आधार पर कार्य की उत्पत्ति। प्रतीत्य समुत्पाद के एक सूत्र में कहा जाता है-“अस्मिन् सति इदम् भवति” यह होने पर यह होता है। इस प्रकार प्रतीत्य समुत्पाद सापेक्ष कारणतावाद का सिद्धान्त है। बुद्धि अविछिन्न कारण कार्य के प्रवाह को नहीं मानते। एक के होने से दूसरे की उत्पत्ति वे स्वीकार करते हैं।
प्रतीत्य समुदाय का नियम अमिट और अटल है। यह हेतु समूह को बताता है जो संस्कार आदि की उत्पत्ति के लिए एक-एक हेतु को निर्दिष्ट करता है। बुद्ध मानते हैं कि संसार के सभी ‘सत्व’ इस नियम के वशीभूत हैं। यह अनादि और अनन्त है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों में निर्बाध रूप से लागू होता है। बुद्ध प्रतीत्य समुत्पाद को महत्त्व देते हुए कहते हैं-जो देखता है वह धर्म देखता है। और जो धर्म देखता है वह प्रतीत्य समुत्पाद देखता है।
प्रतीत्य समुत्पाद सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों है। सापेक्ष दृष्टि से संसार और उसके हेतु निर्देश करता है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण का। कुछ मानते हैं कि यह बौद्ध धर्म है। इसको भूल जाना ही दुःख का कारण है और इसके ज्ञान से दुःख का अन्त होता है। नागार्जुन कहता है कि यह सिद्धान्त समस्त प्रपंच को समाप्त कर आनन्द देता है।
प्रतीत्य समुत्पाद में द्वादश अंग हैं। इन अंगों को निदान भी कहते हैं। इसमें एक अंग दूसरे के प्रत्यय से होता है। कारण कार्य की यह शृंखला स्वयं चलती रहती है। बुद्ध ने इसे भावचक्र भी कहा है।
गौतम ने रोग और जरामरण के दृश्यों को देखकर इनकी समस्या को सुलझाने के लिए घर-बार छोड़कर कठिन तपस्या और ध्यान किया। तब उन्हें समस्या के हल के रूप में कारण-कार्य श्रृंखला का यह सिद्धान्त प्राप्त हुआ जिसे वे सीधे और उल्टे दोनों ही क्रम से विवेचित करते हैं। दुःख निर्मिति के स्पष्टीकरण के रूप में उपर्युक्त द्वादश निदान हैं। प्रतीत्य समुत्पाद को कई नामों से पुकारा जाता है। द्वादश निदान, भावचक्र, जन्म-मरण चक्र और धर्मचक्र आदि। तिब्बत के बौद्ध भिक्षु चक्र घुमा-घुमाकर इन बारह कड़ियों का स्मरण करते रहते हैं।
1. अविद्या-अविद्या का अर्थ अज्ञान है। अविद्या के कारण ही संसार का दुःख रूप छिपा है। इसे अज्ञान, मोह, अदर्शन आदि भी कहते हैं। अनित्य में नित्यता, दुःख में सुख और अनात्म भूत जगत में आत्मा को खोजना यह अज्ञान ही अविद्या है। इससे ही संस्कार आदि समस्त भाव विरोधिनी है। अविद्या सभी बुराइयों का बीज है।
2. संस्कार-संस्कार या पूर्वजन्म की कर्मावस्था। अविद्या के कारण सत्य जो भी भला-बुरा कर्म करता है, वही संस्कार कहलाता है। जैसे संस्कार होते हैं वैसी ही उनका फल होता है। यह वह संकल्प शक्ति है जो नवीन अस्तित्व को उत्पन्न करती है। कर्म संस्कार, मनः संस्कार और वाक् संस्कार-ये संस्कार के तीन भेद किये जाते हैं।
3. विज्ञान-विज्ञान वे चित्त धाराएँ हैं जो पूर्ण जन्म में सत्व कर्म करता है उनके विपाक स्वरूप प्रकट होती है। शरीर, संवेदना, इन्द्रियाँ आदि नष्ट होने पर भी विज्ञान बचता है। यह प्राणी के माता के गर्भ में प्रवेश करता है और नवीन जन्म की ओर ले जाता है।
4. नाम रूप- विज्ञान से नामरूप का जन्म होता है। रूप में पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल ये चार महाभूत तथा नाम से संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध आते हैं। दोनों को मिलाकर ही पंच स्कन्ध नामरूप कहलाते हैं जब विज्ञान माता के गर्भ में प्रति सन्धि ग्रहण करता है। तभी से नाम रूप उत्पन्न होना शुरू हो जाते हैं।
5. षडायतन- पाँच इन्द्रियाँ और मन षडायतन कहलाते हैं। इनसे ज्ञान की प्राप्ति में सहायता मिलती है । आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा और मन ये छ: इन्द्रियाँ माता के उदर से बाहर आने पर सत्व प्रयुक्त करता है।
6. स्पर्श- षडायतन से बाह्य संसार का जो सम्पर्क होता है, उसे स्पर्श कहते हैं । ये पंचेन्द्रिय और मन इन भेदों से छः प्रकार का होता है।
7. वेदना- वेदना का अर्थ अनुभव करना है। बाह्य जगत की वस्तुओं के स्पर्श से जो प्रथम प्रभाव मन पर उत्पन्न होता है, वह वेदना है। यह तीन प्रकार की होती है-सुख वेदना, असुखा-दुखा, वेदना।
8. तृष्णा-वेदना से तृष्णा उत्पन्न होती है। यह सब दुखों का मूल है। तृष्णा तीन प्रकार की है
- काम तृष्णा-इन्द्रिय सुखों की इच्छा,
- भव तृष्णा-जीवन के लिए,
- विभव तृष्णा-वैभव के लिए।
ये तीनों तृष्णाएँ सत्व को भव चक्र में घुमाती रहती हैं। जबतक इच्छा या तृष्णा बाकी रहती है तब तक सत्व का जन्म होता रहता है और जब तृष्णा नहीं रह जाती तब के लिए कोई अवसर नहीं रहता।
9. उपादान-उपादान अर्थात् जगत को वस्तुओं के प्रति राग और मोह से सत्व का दृढ़तापूर्वक बन्धन उपादान की तृष्णा की आग को ईंधन प्रदान करते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं-
- शीलवतोपादान-व्यर्थ के शीलाचार में लगे रहना
- दृष्ट्युपादान-मिथ्या सिद्धान्तों में विश्वास करना
- आत्मवादोपादान-आत्मा के अस्तित्व में दृढ़ आग्रह करना
- कालोपादान-अर्थात् वासनाओं में चिपटे रहना ।
10. भव-पुनर्जन्म के कारण कराने वाले कर्म को भव कहा गया है। भव से जन्म होता है।
11. जाति-उत्पन्न होना जाति है। पूर्व भव के कारण सत्व उत्पन्न होता है और वह संसार चक्र में फंसता है।
12. जरा-मरण-बुढ़ापा तथा मृत्यु इन दो अवस्थाओं को जरामरण कहा गया है। बुद्ध इनके अन्दर समस्त दुःखों का समावेश कर लेते हैं। संसार में जन्म के कारण सत्व, दुःख, रोग, निराशा, कष्ट, बुढ़ापा और अन्त में मृत्यु को प्राप्त करता है।
बुद्ध द्वादश निदान को (कार्य कारण) को इस उल्टे क्रम में समझाते हुए कहते हैं कि सत्व के सभी दु:खों तथा जरामरण का कारण जाति है। जाति का कारण भव, भव का कारण उपादान, उपादान का कारण वेदना, वेदना का कारण स्पर्श, स्पर्श का कारण षडायतन, षडायतन का कारण नामरूप, नामरूप का कारण विज्ञान, विज्ञान का कारण संस्कार और संस्कार का कारण अविद्या है। बुद्ध का अभिप्राय है कि हेतु से उत्पन्न होने वाले धर्मों के हेतु को जानना और उनका विरोध करने से निर्वाण की प्राप्त होती है।
ये धम्मा हेतुप्पभवा हेतु तेसं तथा गतो आह।
तेसं चयो निरोधो एवं वादी महसभणो।।
प्रश्न 13. अन्तक्रियावाद और समानान्तरवाद में अन्तर करें।
उत्तर: अन्तक्रियावाद (Interactionism)- मन शरीर संबंध का विश्लेषण देकार्त, स्पिनोजा और लाइबनीज ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। देकार्त्त का विचार है अन्तक्रियावाद (Interactionism), स्पिनोजा का विचार समानान्तरवाद (Parallelism) और लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। देकार्त के अनुसार मन और शरीर एक-दूसरे से स्वतंत्र है। मन चेतन है। शरीर जड़ है।
अत: दोनों का स्वरूप भिन्न है। फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध है जिसे देकार्त ने अन्तक्रिया संबंध (relation of interaction) कहा है। जब भूख लगती है तो मन खिन्न रहता है। भोजन करने से भूख मिटती है और मन तृप्त होता है। मन में निराशा होती है, तो किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती है। हाथ-पैर हिलाने से काम होता है। इस प्रकार विरोधी स्वभाववाले ये दो सापेक्ष द्रव्य एक-दूसरे पर निर्भर है।
समानान्तारवाद (Parallelism)- पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन-शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं, जैसा की देकार्त ने स्वीकार किया है। चैतन और विस्तार क्रमश: मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं। ….
प्रश्न 14. परिवेशीय नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर: परिवेश अथवा पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है-परि + आवरण। परि का अर्थ है ‘चारों ओर’ और ‘आवरण’ का अर्थ है ‘घेरा’ अर्थात् हमारे चारों ओर जो भी प्राकृतिक और मानव निर्मित चीजें हैं जिसमें जैव एवं अजैव घटक जैसे-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, पेड़-पौधे, समस्त जीव एवं पशुजगत पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं। हरकोविट्ज ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा है-“किसी जीवित तत्त्व के विकास चक्र को प्रभावित करने वाले समस्त बाह्य दशाओं को पर्यावरण कहते हैं।
मानव सभ्यता का विकास पर्यावरण की गोद में हुआ है। मानव सदा से पर्यावरण पर निर्भर रहे हैं लेकिन वर्तमान में वैश्वीकरण, उदारीकरण, औद्योगिकीकरण, जनसंख्या वृद्धि के कारण जिस प्रकार से मानव पर्यावरण का दोहन किया है कि सम्पूर्ण पारिस्थितिकी में असंतुलन उत्पन्न हो गया है जो सम्पूर्ण प्राणी जगत के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। आज पर्यावरण के मुख्य घटक जल, वायु, पृथ्वी आदि प्रदूषित हो गई है। जल प्रदूषण का मूल कारण औद्योगिक करों को सीधे नदी में बहाया जाना शहर की नाली को सीधे नदी में बहाया जाना जिसमें जल प्रदूषण उत्पन्न हो गई है जिसका प्रमुख समस्त प्राणी जगत. पर पड़ रहा है।
वायु प्रदूषण का मूल कारण औद्योगिक चिमनी का वायु में छोड़ा जाना, नाभिकीय विस्फोट, परिवहन का विषैला गैस का वातावरण में छोड़ा जाना जिससे वायुमंडल गर्म हो गया जिसका प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग ध्रुवीय प्रदेश का बर्फ का पिघलना, ओजोन परत में छेद होना आदि जिसका समस्त प्राणी जगत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण की समस्या समस्त प्राणी जगत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है जिसका निदान आवश्यक है अन्यथा प्राणी जगत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।
प्रश्न 15. शिक्षा दर्शन की व्याख्या करें। अथवा, शिक्षा दर्शन की परिभाषा दें तथा इसके दार्शनिक आधारों की विवेचना करें।
उत्तर: शिक्षा दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जिसमें शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य, स्वरूप और विषय-वस्तु का अध्ययन दार्शनिक दृष्टि से किया जाता है। दार्शनिक दृष्टि का तात्पर्य है कि शिक्षा के विस्तृत आयाम का अध्ययन समग्र रूप में करना। समग्रता ही दर्शन है। दर्शन का मुख्य उद्देश्य सत्य की खोज है। शिक्षा का उद्देश्य सत्य ज्ञान (True knowledge) देना है। दर्शन में हम जिस सत्य की खोज करते हैं वह परमतत्त्व है जिस पर समस्त विश्व आधारित है। उस परमतत्त्व का ज्ञान उसे ही होता है जो शिक्षित है अर्थात् शिक्षा द्वारा सत्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। अतएव शिक्षा और दर्शन में अवियोज्य संबंध है। यदि दर्शन साध्य है तो उसका साधन शिक्षा है। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि सा विद्या या विमुक्त्ये।
अर्थात् विद्या या ज्ञान या शिक्षा वही है जो मानव को मुक्ति दिलाये। भारतीय दार्शनिकों ने मानव-जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति) को माना है। बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने मुक्ति को क्रमशः निर्वाण और कैवल्य की संज्ञा दी है। चार्वाक दर्शन में देहोच्छेद (मृत्यु) को मोक्ष कहा गया है। यदि मोक्ष की शास्त्रीय अवधारणा पर विचार किया जाय तो मोक्ष मृत्यु नहीं है वरन् मानव-जीवन में निहित विकारों और कुविचारों का अंत है। इनके अंत के साथ ही मानव-व्यक्तित्व अपनी पूर्णता में आ जाता है और सामाजिक समग्रता और समरसता स्थापित हो जाती है। शिक्षा हमें इसी समग्रता और समरसता की ओर ले जाती है।
शिक्षा ‘शिक्ष्’ धातु से व्युत्पन्न है। शिक्ष् का अर्थ सीखना और सिखाना दोनों है। अतएव शिक्षा, जैसा कि पाणिनी ने कहा है, संस्कृत शब्द जो ‘शिक्ष्’ विद्योपादाने धातु से ‘गुरोश्च हल’ सूत्र भावार्थ में ‘अ’ प्रत्यय करने पर निष्पन्न माना गया है। इस परिभाषा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिक्षा वह है जो गुरु द्वारा प्रस्तुत समाधान से प्राप्त होती है, अर्थात् शिक्षा गुरु के बिना प्राप्त नहीं होती। कहा भी गया है कि
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गरु की. जिन दीऊ बताय।।
तात्पर्य यह है कि शिक्षा के दो मुख्य तत्त्व हैं-गुरु और शिष्य। शिष्य गुरु द्वारा शिक्षा ग्रहण करता है। प्रश्न है गुरु किस तरह शिष्य को शिक्षा देता है ? दूसरे शब्दों में, शिक्षा का तरीका क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व पाश्चात्य दृष्टिकोणं से शिक्षा को परिभाषित करना आवश्यक है।
आश्रम व्यवस्था की शिक्षा प्रणाली और अकादमी शिक्षा प्रणाली दोनों में यह सम्मिश्रण देखने को मिलता है। ब्रह्मचर्य आश्रम की शिक्षा का आरंभ ईश्वर-भक्ति से होता है। आसन, प्राणायाम आदि शारीरिक क्रियाओं के पश्चात् वेद, वेदांग आदि शास्त्रों की शिक्षा मिलती है। अकादमीय शिक्षा प्रणाली के अनुसार आरम्भ में बच्चों को मात्र शारीरिक शिक्षा (Physical education) देना चाहिए। तत्पश्चात् विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करना चाहिए। शारीरिक शिक्षा शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है। अन्य विषयों के ज्ञान से बौद्धिक विकास होता है। शरीर और बुद्धि दोनों का विकास होने पर ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है। मानव व्यक्तित्व अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। आज की शिक्षा प्रणाली शारीरिक शिक्षा पर कम ध्यान देती है। मात्र बौद्धिक शिक्षा पर बल देती है। फलतः शिक्षा का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
प्रश्न 16. क्या शंकर के अनुसार जगत् असत्य है ? अथवा, शंकर के जगत विचार की व्याख्या करें।
उत्तर: शंकर एकतत्ववादी है। ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएँ जगत्, ईश्वर सत्य नहीं है। वह ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है। उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म के दो स्वरूप है-शब्द, स्पर्श आदि से रहित निर्विवेक, निर्गुण, निराकार, ब्रह्म और गुणों से युक्त सगुण, साकार ब्रह्म। निर्गुण ब्रह्म को परब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म को अपर ब्रह्म या ईश्वर कहा गया है। शंकर उपनिषद के समान ब्रह्म के निर्गुण और सगुण भेद को स्वीकार करते हैं। शंकर के अनुसार निर्गुण ब्रह्म को सत्, परमार्थ सत्य, परमार्थ-तत्व, भूमा, निरतिशय, कूटस्थ, नित्य, एक समस्त विशेषण रहित, दिग्देशक, लाद्यनपेक्ष, सर्वसंसार धर्म वर्जित निरस्त, सर्वोपाधिक सर्वगत, चैतन्य मात्र सत्ता, निराकृत सर्वनाम रूप, कर्म ज्ञान ज्ञेय ज्ञात भेद रहित आदि कहा गया है। शंकराचार्य केवल इसी निर्गुण ब्रह्म या आत्मा को एकमात्र तत्व मानते हैं, अतः अद्वैतवादी कहलाते हैं। परमार्थिक दृष्टि से यही परम तत्व है। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अपर ब्रह्म या ईश्वर भी सत्य है।
शंकर का ब्रह्म सत्य होने के नाते सभी प्रकार के विरोधों से मुक्त है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और संभावित विरोध से शून्य है। ब्रह्म त्रिकाल बाधित सत्ता है। ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। व्यक्तित्व (Personality) में आत्मा (self) और अनात्मा (Not Self) का भेद रहता है। ब्रह्म सब भेदों से शून्य है। इसलिए ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (Impersonal) कहा गया है। ब्रैडले ने भी ब्रह्म को व्यक्तित्व से शून्य माना है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त असीम कहा है। वह सर्वव्यापक है। उसका आदि और अंत नहीं है। वह सबका कारण होने के कारण सब का आधार है।
शंकर के ब्रह्म की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने ब्रह्म को अनिवर्चनीय माना है। ब्रह्म को शब्दों के द्वारा प्रकाशित करना असंभव है। ब्रह्म को भावात्मक रूप से जानना भी संभव नहीं है। हम यह नहीं जान सकते हैं कि “ब्रह्म” क्या है अपितु हम यह जान पाते हैं कि “ब्रह्म क्या नहीं है।” उपनिषद में ब्रह्म का “नेति-नेति’ कहकर वर्णन किया गया है। शंकर उपनिषद के इस विचार के आधार पर ही ब्रह्म की व्याख्या करता है। नेति-नेति का शंकर के दर्शन में इतना प्रभाव है कि वह ब्रह्म को एक कहने की बजाय अद्वैत (Non-dualism) कहते हैं।
शंकर के अनुसार जो सत है वही चित् है, जो चित् है वही सत् है। अतः शंकर ने परमार्थिक सत्य तथा ज्ञानात्मक सत्य में कोई भेद नहीं माना है। ज्ञान के क्षेत्र में भी ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय में कोई भेद नहीं है। शंकर का ब्रह्म सब प्रकार के गुणों से परे होकर भी निषेधात्मक नहीं है। निरपेक्ष सहज ज्ञान द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। ब्रह्म आनन्द स्वरूप है। ब्रह्मानन्द अनुभव का विषय है। ज्ञान ब्रह्म का गुण नहीं बल्कि स्वरूप है। गुणातीत होने के कारण वह निर्गुण है। शंकर के ब्रह्म का वर्णन नेति-नेति के आधार पर ही किया है। वह सत् है, चित् है तथा आनंद स्वरूप है।
प्रश्न 17. परार्थानुमान क्या है?
उत्तर: प्रयोजन के अनुसार अनुमान के दो प्रकार होते हैं-(क) स्वार्थानुमान और (ख) परार्थानुमान। अनुमान दो उद्देश्यों से किया जा सकता है-अपनी शंका के समाधान के लिए या दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए। जब अनुमान अपनी शंका के समाध न के लिए किया जाता है तब उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। ऐसे अनुमान में तीन वाक्य रहते हैं-निगमन हेतु और व्याप्ति वाक्य। उदाहरण-
राम मरणशील है-निगमन
क्योंकि वह मनुष्य है-हेतु
∴ सभी मनुष्य मरणशील है-व्याप्तिवाक्य
जब अनुमान दूसरों को समझाने के लिए किया जाता है तब इसे परार्थानुमान कहते हैं। इसमें पाँच वाक्य होते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, व्याप्तिवाक्य, उपनय और निगमन। इसे “पंचवयव-न्याय” कहते हैं। इसके द्वारा दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।
उदाहरण-
- राम मरणशील है-प्रतिज्ञा
- क्योंकि वह एक मनुष्य है-हेतु
- सभी मनुष्य मरणशील है, जैसे-मोहन, रहीम इत्यादि-उदाहरण
- राम भी एक मनुष्य है-उपनय
- इसलिए राम मरणशील है-निगमन।
प्रश्न 18. सांख्य की प्रकृति के तीन गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर: प्रकृति त्रिगुणात्मक है। सत्व, रजस् और तमस्-वे प्रकृति के तीन गुण हैं। ये तीनों गुण प्रकृति के विशेषण नहीं बल्कि प्रकृति के निर्णायक तत्त्व हैं और इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है।
सत्व- यह ज्ञान का प्रतीक एवं सुख का कारण है। यह प्रकाशक है। मन एवं बुद्धि में प्रकाश, दर्पण में प्रतिबिम्ब की शक्ति, पदार्थों के हल्के होने पर ऊपर उठने की प्रवृत्ति इसी तत्त्व के कारण हैं। यह सुख, प्रेम, आनन्द, उल्लास आदि का सिद्धांत है। इसका रंग सफेद होता है।
रजस- यह दुःख का कारण है। मन का भारीपन एवं हृदय पर बोझ इसी गुण के कारण होता है। यह स्वयं गतिशील और अन्य वस्तुओं को गति प्रदान करता है। इसका रंग लाल होता है।
तमस्- आलस्य, उदासीनता, जड़ता आदि तमस् के कारण होती है। यह अज्ञान एवं अंधकार का प्रतीक है। यह भारी होता है और इसलिए सत्व का विरोधी है और गति में बाधा पहुँचाकर कभी-कभी रजस् का भी विरोधी बन जाता है। इसका रंग काला होता है।
ये तीनों गुण यद्यपि स्वभाव में एक-दूसरे से एकदम ही भिन्न और विरोधी भी हैं, फिर भी तीनों गुणों में सहयोग भी होता है और तीनों साथ-साथ रहते हैं। एक ही वस्तु किसी को सुख, किसी को दुख पहुँचाता है और किसी अन्य में तटस्थता का भाव उत्पन्न करता है। एक सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख, ईर्ष्यालु को दुःख पहुँचाती है तो सज्जनों को तटस्थ या उदासीन बनाती है। इन तीनों गुणों में विरोध रहते हुए भी सहयोग होता है। इसे सांख्य ने एक उपमा द्वारा समझाने का प्रयास किया है। जिस प्रकार तेल, बत्ती और अग्नि परस्पर भिन्न होते हुए भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार ये तीनों गुण परस्पर भिन्न होते हुए भी सहयोग द्वारा सांसारिक वस्तुओं को उत्पन्न करते हैं।
इन गुणों में सतत् परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-सरूप परिणाम और विरूप परिणाम। सरूप परिणाम परिवर्तन तब होता है जब प्रत्येक गुण अन्य गुणों से अलग होकर अपने आप में सिमट जाता है, सत्व परिवर्तित होता है सत्व में, रजस् रजस् में, तमस् तमस् में। यह अवस्था प्रकृति की शान्तावस्था है। जब किसी कारणवश एक अन्य दो गुणों को दबाकर आगे बढ़ने का प्रयास करता है तो प्रकृति की साम्यावस्था भंग हो जाती है, प्रकृति में एक प्रकार की हलचल सी उत्पन्न हो जाती है। यहाँ सृष्टि का क्रम आरम्भ हो जाता है। इसे ही विरूप परिणाम परिवर्तन कहते हैं।
प्रश्न 19. प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या करें। अथवा, बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रतीत्य समुत्पाद का वर्णन करें।
उत्तर: महात्मा बुद्ध ने दुख के कारण का विश्लेषण दूसरे आर्य-सत्य में एक सिद्धान्त के द्वारा किया है, जिसे संस्कृत में प्रतीत्य समुत्पाद तथा पाली में परिच्चसमुत्पाद कहते हैं। ‘प्रतीप्य समुत्पाद’ दो शब्दों के मेल से बना है। वे हैं-‘प्रतीत्य’ और ‘समुत्पाद’। प्रतीत्य का अर्थ है किसी वस्तु के उपस्थित होने पर (depending), समुत्पाद का अर्थ है किसी अन्य-बस्तु की उत्पत्ति (Origination)। अतः प्रतीप्य समुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है एक वस्तु के उपस्थित होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति। कहने का अभिप्राय एक के आगमन से दूसरे की उत्पत्ति। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार, ‘अ’ के रहने पर ‘ब’ का आगमन होगा तथा ‘ब’ के रहने पर ‘स’ का आगमन होता है।
इस प्रकार प्रतीप्यसमुत्पाद के अनुसार विषय का कोई-न-कोई कारण होता है। कोई भी घटना अकारण उपस्थित नहीं हो सकती है। वस्तुतः प्रतीप्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कार्यकारण सिद्धान्त पर आधारित है। उदाहरण के लिए, दुख एक घटना है। बौद्ध-दर्शन में दुख को ‘जरामरण’ कहा गया है। ‘जरा’ का अर्थ वृद्धावस्था तथा मरण का अर्थ ‘मृत्यु’ होता है। हालांकि जरामरण का शाब्दिक अर्थ वृद्धावस्था और मृत्यु होता है, फिर भी जरामरण संसार के समस्त दुख-यथा रोग, निराशा, शोक, उदासी इत्यादि का प्रतीक है। ‘जरामरण’ का कारण बुद्ध जाति (rebirth) को मानते हैं।
प्रश्न 20. ईश्वर के अस्तित्व के लिए सत्तामीमांसीय युक्ति का वर्णन करें।
उत्तर: मध्यकालीन दार्शनिक संत असलेम ने सर्वप्रथम ईश्वर के विषय में तत्त्व विषयक प्रमाण प्रस्तुत किया जिसको बाद में देकार्त ने विकसित किया। इस तर्क के अनुसार हम ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मानते हैं तथा उसे पूर्ण भी मानते हैं। इस प्रकार जब हम ईश्वर को पूर्ण मानते हैं तब उसका अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि अस्तित्व के अभाव में उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व विषयक तर्क के अनुसार ईश्वर की पूर्णता ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। इसके साथ ही यह भी यथार्थ है कि अस्तित्व के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च भी नहीं माना जा सकता।
देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्त्व विषयक तर्क कुछ भिन्न प्रकार से दिया है। उनका कहना है कि हमारे मन में जो असीम सर्वज्ञ और शाश्वत सत्ता का प्रत्यय है वह असीम, सर्वज्ञ और शाश्वत शक्ति के अस्तित्व को सिद्ध करता है क्योंकि यदि यह विचार किया जाए कि ईश्वर का प्रत्यय का विचार कहाँ से उत्पन्न हुआ तब इस विषय में मनुष्य को स्वयं इस धारणा का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है इसलिए वह पूर्ण के प्रत्यय का कारण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह कहा जाय कि असीम प्रत्यय सकारात्मक न होकर नकारात्मक है तब देकार्त का यह कहना है कि असीम का बोध असीम से पूर्व और अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ होता है क्योंकि ससीमता असीमता से अपेक्षा रखती है तथा अपूर्ण पूर्ण की अपेक्षा से होता है।
इस प्रकार असीम के प्रत्यय का कारण न तो मनुष्य है और न ही यह नकारात्मक प्रत्यय है बल्कि इस प्रत्यय का स्वयं ईश्वर ही कारण है। इस विषय में यदि कहा जाए कि मनुष्य ससीम एवं अपूर्ण है तब उसके मन में असीम और पूर्ण का प्रत्यय कैसे बन सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए देकार्त ने कहा है कि यह तो मान्य है कि मनुष्य सीमित है इसलिए वह असीम की धारणा को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु इस विषय में यह भी स्पष्ट ही है कि मनुष्य यह तो जान सकता है कि उसके मन में जो असीम की धारणा है वह स्वयं से संबंधित नहीं वरन् उसका सम्बन्ध किसी पूर्ण ईश्वर से ही हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट ईश्वर का प्रत्यय या असीम का प्रत्यय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।
सत्तावादी सिद्धान्त की आलोचना-ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्व विषयक तर्क के विरोध में निम्नलिखित आपत्तियाँ उठाई जाती हैं-
1. ईश्वर का अस्तित्व उसकी धारणा से सिद्ध नहीं होता-प्रसिद्ध दार्शनिक काण्ट ने तत्त्व विषयक ईश्वर संबंधी तर्क के विषय में यह आपत्ति उपस्थित की है कि ईश्वर के अस्तित्व में उसकी धारणा के आधार पर सिद्ध करना अनुचित है क्योंकि धारण से तथ्य सिद्ध नहीं होता वरन् धारणा ही सिद्ध होती है, यथा यदि हमारे मन में वह धारणा है कि हमारी जेब में सौ रुपये हैं तो इस तरह से तो सौ रुपयों की धारणा ही सिद्ध होती है वास्तविक रुपये नहीं। ठीक इसी प्रकार पूर्ण के प्रत्यय में ईश्वर के अस्तित्व की धारणा तो सिद्ध होती है किन्तु इससे ईश्वर के अस्तित्व का तथ्य अथवा वास्तविक होना सिद्ध नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि इस तर्क में, पूर्ण धारणा में, अस्तित्व की धारणा सम्मिलित है किन्तु यह सिद्ध करने में कि पूर्ण की धारणा से, पूर्ण ईश्वर का अस्तित्व वास्तविक है, यह तर्क असमर्थ है।
2. आत्माश्रय दोष-आत्माश्रय दोष उसको कहा जाता है कि जिसमें जिसको सिद्ध करना होता है उसे पहले ही मान लिया जाता है। काण्ट ने ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में तत्त्व विषयक तर्क में आत्माश्रय दोष बताया है। इनका कहना है कि तर्क में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना है और उसको ही पूर्ण में पहले ही उपस्थित मान लिया गया है तब इसमें आत्माश्रय दोष हो जाने से इससे ईश्वर का अस्तित्व कहीं सिद्ध नहीं होता।
प्रश्न 21. शंकर के अनुसार ब्रह्म के स्वरूप की विवेचना करें।
उत्तर: शंकर का दर्शन भारतीय दर्शन का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है। वाद्रायण के ब्रह्म सूत्र का भाष्य शंकर ने कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया कि भारतीय दर्शन को एक अत्यन्त ही सुदृढ़ तार्किक आधार मिला। शंकर के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है। ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएँ जैसे-जगत्, ईश्वर आदि की सत्यता शंकर स्वीकार नहीं करते।
शंकर ने सत्ता को तीन कोटियों में विभाजित किया है-
- परमार्थिक सत्ता,
- व्यावहारिक सत्ता तथा
- प्रतिमासिक सत्ता।
ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से सत्य कहा जा सकता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय होने के कारण ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है।
ब्रह्म द्रव्य नहीं होने के बावजूद भी सब विषयों का आधार हैं यह दिक् और काल की सीमा से परे हैं तथा कार्य-कारण नियम से भी यह प्रभावित नहीं होता।
शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उपनिषदों में ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दो प्रकार माना गया है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं कहा जा सकता। उपनिषद् ने भी निर्गुण को गुणमुक्त माना है।
शंकर ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है तथा ब्रह्म के साक्षात्कार को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। ब्रह्म से सांसारिक ज्ञान का, जो कि मूलतः अज्ञान है अंत हो जाता है। जगत् ब्रह्म का विवृतभाव है परिणाम नहीं। इस विवृत से ब्रह्म प्रभावित नहीं होता है। ठीक, इसी प्रकार जिस प्रकार एक जादूगर अपने ही जादू से ठगा नहीं जाता है। अविद्या के कारण ब्रह्म-नाना रूपात्मक जगत् के रूप में दृष्टिगत होता है।
ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वेदान्ती तीन प्रकार के भेद मानते है-
- विजातीय भेद-जैसे-गाय और भैंस में।
- सजातीय भेद-जैसे-एक गाय और दूसरी गाय में।
- स्वगत भेद-जैसे-गाय के सींग और पुच्छ में।
ब्रह्म में न सजातीय भेद, न विजातीय भेद है और न स्वगत भेद है। यहाँ शंकर का ब्रह्म रामानुज के ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है। रामानज ने ब्रह्म को स्वागत भेद से युक्त माना है, क्योंकि इसमें चित्त तथा अचित्त दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं।
ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए शंकर कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं महसूस करते, क्योंकि वह (ब्रह्म) स्वयं-सिद्ध है।
सत्य होने के कारण शंकर का ब्रह्म सभी प्रकार के विरोधों से परे है। शंकर दो प्रकार के विरोध को मानते हैं-
(i) प्रत्यक्ष विरोध और
(ii) सम्भावित विरोध। जब वास्तविक प्रतीति दूसरी वास्तविक प्रतीति से खण्डित हो जाती है तब उसे प्रत्यक्ष विरोध कहा जाता है। साँप के रूप में जिसकी प्रतीति हो रही है उसी का रस्सी के रूप में होना इसका उदाहरण है। संभावित विरोध उसे कहा जाता है जो युक्ति के द्वारा बाधित होता है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और संभावित विरोध दोनों से शून्य है। ब्रह्म त्रिकाल-बाधित सत्ता है।
ब्रह्म व्यक्तिगत से शून्य है। व्यक्तिगत में आत्मा और अनात्मा का भेद रहता है। ब्रह्म सभी भेदों से शून्य है। यही कारण है कि ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (impersonal) कहा गया है। Bradley के अनुसार भी ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। शंकर के इस विचार के विपरीत रामानुज मानते हैं कि ब्रह्म व्यक्तिगत है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त, असीम और सर्वव्यापक माना है। वह सबका कारण होने के कारण सबका आधार है। पूर्ण और अनन्त होने के कारण आनन्द ब्रह्म का स्वरूप है।
शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिये हैं-
- शंकर का दर्शन मुख्य रूप से उपनिषद् गीता तथा ब्रह्म पर आधारित है। इन ग्रंथों में ब्रह्म का अस्तित्व वर्णित है इसलिए ब्रह्म है। इस प्रमाण का प्रमाण कहा गया है।
- शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा कहा है। प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है।
प्रश्न 22. काण्ट किस तरह बुद्धिवाद और अनुभववाद में समन्वय स्थापित करता है?
उत्तर: काण्ट का कहना है कि बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों एकांगी (One-sided), अपूर्ण (Incomplete) एवं हठधर्मी (Dogmatic) हैं। दोनों के कथनों में आंशिक दोष है और आंशिक सत्यता भी है। काण्ट ने इनके दोषों का बहिष्कार करके गुणों को ग्रहण किया है। उन्होंने दोनों परस्पर विरोधी सिद्धांतों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है।
काण्ट का कहना है कि ज्ञानप्राप्ति में बुद्धि और अनुभव दोनों की आवश्यकता है। दोनों में किसी का भी महत्त्व कम नहीं कहा जा सकता। बुद्धिवाद का यह कहना सत्य है कि ज्ञान में सार्वभौमता और अनिवार्यता का रहना आवश्यक है। अनुभववाद का यह कहना भी सही है कि ज्ञान में नवीनता का गुण रहना चाहिए। कांट दोनों में समन्वय स्थापित करते हुए कहते हैं कि यथार्थ ज्ञान में सार्वभौमता, अनिवार्यता एवं नवीनता तीनों गुण विद्यमान रहने चाहिए। बुद्धिवाद का यह कथन सत्य है कि बुद्धि जन्मजात प्रत्ययों के विश्लेषण से ज्ञान का निर्माण करती है, किंतु इसका दोष यह है कि यहाँ अनुभव द्वारा प्राप्त प्रत्ययों को महत्वहीन बताया गया है। यदि बुद्धि केवल जन्मजात प्रत्ययों के विश्लेषण से ज्ञान का निर्माण करती है, तो यह ज्ञान ब्राह्य जगत के न तो अनुरूप होगा और न इसमें नवीनता का गुण रहेगा। अनुभववाद का यह कहना सत्य है कि अनुभव द्वारा प्राप्त संवेदन (Sensations) ज्ञान की प्रारंभिक इकाइयाँ हैं।
किंतु, दोष तब होता है, जब यह बुद्धि और जन्मजात प्रत्ययों का महत्त्व स्वीकार नहीं करता। कांट का कहना है कि कुछ प्रत्यय जन्मजात हैं, तो कुछ अर्जित हैं। इसलिए ज्ञान का कुछ अंश जन्मजात है, तो कुछ अंश अनुभवजन्य भी हैं। ज्ञानप्राप्ति में जन्मजात प्रत्ययों का विश्लेषण जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है अनुभव द्वारा प्रत्ययों का संश्लेषण (Synthesis)। ज्ञान-प्रक्रिया में मन कुछ अंश तक निष्क्रिय रहता है, तो कुछ अंश तक सक्रिय भी। ज्ञान प्राप्ति में आगमनात्मक विधि और निगमनात्मक विधि दोनों का प्रयोग आवश्यक है। इनमें किसी एक विधि से काम नहीं चल सकता। धारणात्मक विज्ञान तथा वस्तुनिष्ठ विज्ञान दोनों ही ज्ञान के आदर्श कहे जा सकते हैं। ज्ञान के लिए सार्वभौम (Universal) होना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक इसे वस्तुसंवादी अर्थात् यथार्थ होना है।
इस प्रकार, कांट ने अपने समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद जैसे परस्पर विरोधी सिद्धांतों में समन्वय लाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। इस दिशा में उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है। फिर भी, ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अनुभव की अपेक्षा बुद्धि पर विशेष जोर देकर बुद्धिवाद का पक्ष लिया है। यह आक्षेप संबल नहीं है। कांट बुद्धिवादी विचारक होते हुए भी ज्ञान-निर्माण में अनुभव को यथोचित स्थान एवं महत्त्व देने में जरा भी संकोच नहीं करते। वह वस्तुतः एक सामान्यवादी विचारक कहे जा सकते हैं।
प्रश्न 23. एसे इस्ट परसीपी सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर: स्पिनोजा के दर्शन में ईश्वर को छोड़कर सभी मिथ्या हो जाता है। चूंकि स्पिनोजा के अनुसार, सभी वस्तुओं में केवल एक ईश्वर की ही सत्ता सत्य है, इसलिए उन्हें सर्वेश्वरवादी कहा गया है। सर्वेश्वरवादी को ‘दर्शन तथा ईश्वर’ मीमांसा के दो दृष्टिकोणों से देखा जाता हैं। जब यह कहा जाता है कि विश्व और मानव की सभी अनुभूतियों का एक मूल तत्त्व है, जिसे ईश्वर के नाम से पुकारा जाता है तो इस सर्वेश्वरवाद को अद्वैतवाद कहा जाता है और फिर जब ईश्वर को मानव-पूजा का एकमात्र लक्ष्य समझा जाता है तो यह धार्मिक सिद्धान्त हो जाता है। स्पिनोजा की आलोचना करते हुए हेगेल कहते हैं कि स्पिनीजीय ईश्वर सिंह की वह माँ है जिसमें सभी वस्तुएँ तिरोहित हो जाती हैं तथा उससे कोई भी वस्तु यथार्थरूप में होकर निकलती नजर नहीं आती है।
प्रश्न 24. क्या भारतीय दर्शन निराशावादी है? स्पष्ट करें।
उत्तर: दर्शन के इतिहास में निराशावादी (Possimism) और आशावादी (Optimism) दो परस्पर विरोधी सिद्धान्त है। निराशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के बुरे पहलू पर ही प्रकाश डालता है। इसके अनुसार जीवन दु:खमय है। इसमें सुख या आनंद के लिए कोई स्थान नहीं है। यह जीवन में कोई आकर्षण नहीं मानता। इसके अनसार जीवन द:खमय असह्य एवं अवांछनीय है। ठीक इसके विपरीत, आशावाद (Optimism) मन की वह प्रवृत्ति है, जो जीवन के शुभ पक्ष को ही देखती है। इसके अनुसार जीवन सुखमय है। विश्व में दुःखों एवं बुराइयों का साम्राज्य नहीं है।
यदि कही दु:ख एवं अशुभ (Evils) है तो ये शुभ (Good) की प्राप्ति में सहायक नहीं है। निराशावादी व्यक्ति जीवन में साधारण असफलता में भी तिलमिला जाता है और नैराश्य के सागर में गोता लगाने लगता है। ठीक इसके विपरीत आशावादी व्यक्ति असफलता से निराश नहीं होता और असफलताओं के मध्य सफलताओं की किरण पाने की सदैव आशा करता रहता है। इस प्रश्नोत्तर में हमें केवल निराशावादी पर विचार करना है।
निराशावाद के उदाहरण पश्चात् और भारतीय दोनों दर्शनों में उपलब्ध है। पश्चात् दर्शन में शॉपेनहावर, हार्टमैन आदि विचारक निराशवादी कहे जाते हैं। इनके अनुसार जीवन दु:खमय है और इसमें सुख की आशा रखना सरासर मूर्खता का काम है। शॉपेनहावर, (Schopenhauer) का पश्चात् जगत् में निराशावाद का जनक माना जाता है। अपने दर्शन में इन्होंने इसकी विशद व्याख्या की है। इनके ही शब्दों में, यह विश्व सभी संभव विश्वास में सबसे बुरा है। ये इतने कट्टर निराशावादी थे कि इन्होंने यहाँ तक कह डाला, “सबसे उत्तम वस्तु है जन्म न लेना और दूसरी उत्तम वस्तु है जन्म लेकर तुरंत मर जाना।”
भारतीय दर्शन में दु:खों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। प्रत्येक भारतीय विचारक (चार्वाक को छोड़कर) दु:खों की व्यापकता देखकर दूर करने के लिए ही दार्शनिक चिन्तन आरम्भ करता है। इसी आधार पर कुछ आलोचकों ने भारतीय दर्शन पर निराशावादी (Possimistic) होने का आक्षेप लगाया है किन्तु यह आक्षेप निराधार एवं अलौकिक है। इस आक्षेप की निस्सारता निम्नलिखित तर्कों से प्रमाणित हो जाती है-
यह सत्य है कि भारतीय दर्शन की उत्पत्ति मानसिक बेचैनी एवं आध्यात्मिक असंतोष के कारण होती है। भारतीय विचारक जीवन और जगत् में दुःखों की अधिकता देखकर एक प्रकार की मानसिक बेचैनी आध्यात्मिक असंतोष अनुभूत करते हैं और फलस्वरूप उनका दार्शनिक चिन्तन प्रस्फटित होता है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन द:खों के विवरण से भरा पड़ा है। यहाँ प्रत्येक विचारक दुःखों को दूर करना ही अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य मानता है। महात्मा बुद्ध ने तो दु:खों के आधार पर अपने चार आर्य सत्यों (The Four Noble Truths) की स्थापना की। जीवन में दुःख के अस्तित्व को कोई स्वीकार नहीं कर सकता । इसी आधार पर भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा जाता है।
भारतीय दर्शन का आरंभ निराशावाद से अवश्य होता है, किन्तु इसका अन्त आशावाद में होता है। वह दुःखों के दूर करने का मार्ग बताता है। भारतीय विचारक दुःखों के समक्ष नतमस्तक नहीं हो जाते वरन् उन्हें दूर करने का उपाय बताते हैं। बौद्ध-दर्शन में दुःखों के कारण को दूर करने का मार्ग बताया है। अन्य भारतीय संप्रदायों ने बौद्ध-दर्शन की तरह मोक्ष प्राप्त करने की विधियाँ बतायी है। भारतीय दर्शन दुःखों के अस्तित्व को स्वीकार करने के साथ-ही-साथ इनके विनाश की संभावना में भी विश्वास रखता है। मोक्ष दु:ख रहित अवस्था का नाम है। दु:ख एवं बन्ध क्षणिक एवं नश्वर हैं। इन्हें नश्वर बताकर भारतीय दर्शन आशा का संचार करता है अतः इसे निराशावादी नहीं कहा जा सकता।
कभी-कभी निराशावाद का अर्थ पलायनवाद भी होता है। कर्मों से भागना ही पलायनवाद है। इस अर्थ में भी भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा गया है। आलोचक यहाँ तक कहते हैं कि भारतीय दर्शन जीवन और जगत की वास्तविकता से आँखें मूंद कर एकान्तवास का पाठ पढ़ाता है इसलिए इसपर निराशावादी होने का आक्षेप किया जाता है।
भारतीय दर्शन में निराशावाद साधन के रूप में अपनाया जाता है न कि साध्य के रूप में। भारतीय दर्शन का लक्ष्य निराशावाद नहीं है। निराशावाद तो स्वयं एक उच्चतर साध्य का साधन मात्र है। आशावाद ही वह मंजिल है जहाँ पहुँचने के लिए निराशावाद से प्रस्थान करना पड़ता है। राधाकृष्णन के शब्दों में, “भारतीय दार्शनिक वहाँ तक निराशावादी हैं जहाँ तक वे विश्व व्यवस्था को अशुभ और मिथ्या मानते हैं। परन्तु जहाँ तक इन विषयों से छुटकारा पाने का सम्बन्ध है वह निराशावादी है।” इस प्रकार भारतीय दर्शन की उत्पत्ति दु:खों की उपस्थिति के कारण होती है; किन्तु दुःखों के विनाश में किसी व्यक्ति को संदेह नहीं है। निराशावाद भारतीय दर्शन का आधारवाक्य कहा जा सकता है निष्कर्ष नहीं।
हम कह सकते हैं कि निराशावाद स्वयं अपने-आप में निरर्थक नहीं कहा जा सकता। निराशावाद के अभाव में आशावाद का न तो उदय हो सकता है और न इसका मूल्यांकन किया जा सकता है। निराशावाद आशावाद का विरोधी नहीं बल्कि पूरक है। Bosanqet (वोसांक्वेट) के शब्दों में “मैं आशावाद में विश्वास करता हूँ किन्तु साथ ही मानता हूँ कि कोई भी आशावाद तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक उनमें आशावाद का पुट न हो।” निराशावाद आशावाद रूपी मंजिल तक पहुँचने का एक आवश्यक सोपान है। कुछ विचारक तो निराशावाद को आशावाद से अधिक श्रेष्ठ मानते हैं।
निराशावाद के बीच से ही आशा की किरणें निकलती है। अंधकार के अभाव में प्रकाश का कोई अर्थ नहीं। ऐसा विचार विलियम जेम्स ने भी प्रकट किया है। उनके शब्दों में, “आशावाद निराशावाद से हेय प्रतीत होता है, निराशावाद हमें विपत्तियों से सचेत कर देता है; किन्तु आशावाद झूठी निश्चितता को प्रश्रय देता है।” इस प्रकार यदि भारतीय दर्शन आशावाद की स्थापना के लिए निराशावाद को साधन के रूप में अपनाता है तो यह कोई अनुचित कार्य नहीं है। भारतीय दर्शन का आरंभ बिन्दु निराशावाद हैं किन्तु इसका लक्ष्य आशावाद है।
प्रश्न 25. व्यापार नीतिशास्त्र के मुख्य सिद्धान्तों की विवेचना करें।
उत्तर: नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता होती है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ, किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है।
व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहती है और समाज में वे अपने कार्यों को आम लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है। परन्तु एक व्यावसायिक का मुख्य उद्देश्य सिर्फ धन का अर्जन नहीं होना चाहिए बल्कि सेवा की भावना भी होनी चाहिए। व्यवसाय में, सेवा भाव का स्थान धन अर्जन के उद्देश्य से अधिक ऊँचा होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप-शिक्षक, अभियंता, बैंकर्स, कृषक, चिकित्सक, पेशागत व्यक्ति तथा विभिन्न प्रकार के ऐसे व्यवसाय हैं, जिसमें नैतिकता के अभाव में, उस व्यवसाय में सफलता की बात नहीं की जा सकती है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है।
अत: उसके अलग-अलग उद्देश्य एवं अलग-अलग कार्यशैली का होना भी आवश्यक है। चूंकि सभी व्यक्तियों का व्यवसाय अलग-अलग है, अतः उनकी नैतिकता भी पेशा के अनुकूल ही होनी चाहिए। वर्तमान संदर्भ में व्यावसायिक नैतिकता का होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है, अतः उनके अलग-अलग उद्देश्य और अलग-अलग कार्यशैली भी है। विभिन्न कार्यशैलियों तथा उद्देश्यों का निर्धारण व्यावसायिक नैतिकता के द्वारा ही संभव है। अतः प्रत्येक व्यवसाय की अपनी आचार-संहिता का होना न केवल आवश्यक है बल्कि सामाजिक व्यवस्था व प्रगति के लिए भी उपयोगी है।
हमारी भारतीय परम्परा में व्यावसायिक नैतिकता का स्पष्ट रूप वर्णाश्रम धर्म में देखने को मिलता है। हमारे भारतीय नीतिशास्त्र में समाज के समुचित विकास के लिए सभी व्यक्तियों को उसके गुण और कर्म के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। यहाँ चार प्रकार के वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र। इनका विभाजन का आधार श्रम एवं कार्य विशिष्टीकरण है। इन सभी वर्गों की अपनी व्यावसायिक नैतिकता थी।
प्रश्न 26. वस्तुवाद की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए। अथवा, वस्तुवाद की विवेचना करें। अथवा, वस्तुवाद के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर: वस्तुवाद (Realism)-वस्तुओं के अस्तित्व को ज्ञाता से स्वतंत्र मानता है। यह सिद्धान्त ज्ञानशास्त्रीय प्रत्ययवाद का विरोधी माना जाता है, क्योंकि ज्ञानशास्त्रीय प्रत्ययवाद मानता है कि ‘ज्ञाता (Knowledge of subject) और ज्ञेय (Object of knowledge) में ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञाता से स्वतंत्र होने पर ज्ञेय का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। वस्तुवाद की दूसरी मान्यता है कि ज्ञान से ज्ञात पदार्थों में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप में रहता है वैसा ही ज्ञात होता है। उदाहरणस्वरूप-जंगल का फूल किसी के द्वारा देखे जाने पर भी फूल ही रहता है और जब उसे कोई देखनेवाला न भी हो तो भी फूल ही है।
वस्तुवाद विचारधारा के ऊपर दृष्टिपात करने के फलस्वरूप कई रूप दृष्टिगत होते हैं। लेकिन उसके मूलतः दो व्यापक रूप उल्लेखनीय हैं-
(i) लोकप्रिय वस्तुवाद (Popular realism)
(ii) दार्शनिक वस्तुवाद (Philosophical realism)
(i) लोकप्रिय वस्तुवाद-लोकप्रिय वस्तुवाद का आधार दार्शनिक चिन्तन नहीं स्वाभाविक विश्वास है। साधारण मनुष्य स्वभावतः वस्तुवादी होता है। उसके अंदर यह विश्वास रहता है कि जिन वस्तुओं को वह जानता है वे उसके ज्ञान पर निर्भर नहीं हैं। साधारणतः लोगों में इस तरह का विश्वास देखा जाता है इसलिए इसे लोकप्रिय वस्तुवाद कहा जाता है। इसके लिए अंग्रेजी शब्द Native Realism या Common Sense Realism प्रचलित है। लोकप्रिय वस्तुवाद के अनुसार
- ज्ञेय पदार्थ ज्ञाता से स्वतंत्र है,
- ज्ञान होने से ज्ञात पदार्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता, अतः उसके वास्तविक रूप का ज्ञान ज्ञाता को होता है और
- ज्ञाता को वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में होता है। इसलिए निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान में मन या ज्ञाता से स्वतंत्र अस्तित्व वाली वस्तुओं के वास्तविक रूप का प्रत्यक्ष दर्शन (direct revelation) होता है।
आलोचना-दार्शनिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने के पश्चात् वस्तुवाद में बहुत सी त्रुटियाँ दृष्टिगत होती हैं। उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि स्वप्न (Dream), विपर्यय (Illusion), विभ्रम (Hallucination) आदि भ्रान्तिपूर्ण अनुभूतियों की व्याख्या नहीं कर सकता है। इसके फलस्वरूप वस्तुओं के वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं मिलता, स्वप्न में वस्तुतः कोई पदार्थ अनुभवकर्ता के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं होता, किन्तु तरह-तरह की घटनाओं और वस्तुओं का अनुभव होता है। उसी तरह विपर्यय में वस्तुओं के वास्तविक रूप के बदले कोई दूसरा ही रूप सत्य जान पड़ता है।
जैसे-रस्सी अंधेरे में सर्प के रूप में दीख पड़ती है तथा सर्प कभी-कभी रस्सी के रूप में प्रतीत होता है। विभ्रम में भी किसी वास्तविक वस्तु का ज्ञान नहीं होता, बल्कि मन की कोई प्रतिमा (Image) किसी बाह्य वस्तु के रूप में वास्तविक जान पड़ती है जैसे-शोकातुर माता को अपने मरे हुए पुत्र की आवाज सुनाई पड़ती है। अब चूँकि लोकप्रिय वस्तुवाद के अनुसार ज्ञान में वस्तुओं के यथार्थ रूप का दर्शन होता है। किन्तु उपर्युक्त उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि कभी-कभी अयथार्थ (Unreal) का भी अनुभव होता है, ऐसा क्यों होता है ? अयथार्थ की प्रतीति (Appearance) का क्या कारण है ? इन प्रश्नों का लोकप्रिय वस्तुवाद कोई उत्तर नहीं देता है।
(ii) दार्शनिक वस्तुवाद (Philosophical realism)-दार्शनिक वस्तुवाद के अनुसार भी वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर नहीं है। लेकिन इस निष्कर्ष को विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से प्रतिपादित किया है जिसके फलस्वरूप कई रूप हो जाते हैं। Western philosophy में दार्शनिक वस्तुवाद के तीन रूप पाये जाते हैं-
(a) प्रत्यय प्रतिनिधित्वाद (Representation Realism),
(b) नवीन वस्तुवाद (New Realism),
(c) समीक्षात्मक वस्तुवाद।
ये तीनों इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि ज्ञान का विषय ज्ञाता से स्वतंत्र है और ज्ञान होने से उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता बल्कि ज्ञान उसके यथार्थ के रूप का होता है। किन्तु अन्य विषयों पर उनमें मतान्तर है।
प्रश्न 27. अनेकान्तवाद की व्याख्या करें।
उत्तर: अनेकान्तवाद जैन दर्शन के तत्त्वशास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन अपने को अनेकान्तवाद का समर्थक मानते हैं जबकि वेदान्त और बौद्ध दर्शन को एकान्तवाद का पोषक मानते हैं। वस्तुतः जैन दर्शन का अनेकान्तवाद वास्तववादी, सापेक्षवादी अनेकान्तवाद है।
जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में अनेक वस्तुएँ हैं तथा इनमें से प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म हैं। जैन जीवों के संदर्भ में अनेकवादी मत को अपनाता है। उनके अनुसार जीव का निवास केवल मानव, पशुओं तथा पेड़-पौधों में ही नहीं है बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे पदार्थों में भी निहित है। जीव के अतिरिक्त जड़-तत्व को जैन दर्शन में पुग्दल की संज्ञा दी गयी है। जो द्रव्य पूरण तथा गलने के द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है, वह पुग्दल है। पुग्दल के दो भेद हैं।
वे हैं-अणु (atom) और ‘स्कन्ध’ (compound)। पुग्दल का वह अंतिम अंश जो विभाजन से परे हैं अणु हैं। अणुओं के संकलन को ‘स्कन्ध’ कहा जाता है। जैनों के मतानुसार पूरा संसार चेतन, जीव और अचेतन पुग्दल से भरा है जो नित्य, स्वतंत्र तथा अनेक हैं। इस प्रकार जैन दर्शन बहुतत्ववादी यथार्थवाद (Realistic Pluralism) का समर्थक है। इसे ही हम अनेकान्तवाद से जानते हैं।
प्रश्न 28. ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाणों को दें।
उत्तर: न्याय दर्शन में ईश्वर को जीवों के सुख-दुःख का विधायक एवं जगत का सृष्टिकर्ता माना गया है। ईश्वर जगत का निर्माता, पालक एवं संहारक है। ईश्वर अनन्त और नित्य है। ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं विभु है। ईश्वर के अस्तित्व के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिए गए हैं-
1. कारणाश्रित तर्क प्रत्येक घटना का एक कारण होता है। यह विश्व भी एक घटना या कार्य है, अत: विश्वरूपी कार्य का कोई कारण होगा। वह कारण ईश्वर है। दुनिया में दो प्रकार की वस्तुएँ दीख पड़ती हैं। कुछ वस्तुएँ निरवयव होती हैं, जैसे आत्मा, मन, दिक्, काल इत्यादि। इनके कर्ता का प्रश्न नहीं उठता है। कुछ वस्तुएँ सावयव होती हैं, जैसे-नक्षत्र, पहाड़, समुद्र, तारे इत्यादि। इनका कोई कारण होगा। यह कारण ईश्वर है, यहाँ पर विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है।
नैयायिकों की तरह यह युक्ति पॉल जानेट, लॉटजा, माटिन एकव डेकार्ट के कारणमूलक तर्क से मिलती है। इस तर्क में कमजोरी यह है कि ईश्वर को यह शरीरधारी बना देता है। पुनः यह तर्क इस बात पर आधारित है कि विश्व एक कार्य है। ईश्वर अगर कर्ता है तो इसका क्या लक्ष्य है ? ईश्वर तो पूर्ण है। उसकी किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सृष्टि की गई है ?
2. अदृष्ट का अधिष्ठाता ईश्वर है- संसार में कुछ लोग सुखी हैं तथा कुछ लोग दुःखी हैं। जीवन की इन घटनाओं का क्या कारण है ? लोगों के भाग्य में विषमता का कोई कारण होगा। न्याय के अनुसार इसका कारण कर्म है। मानव के सभी कर्मों का फल संचित रहता है। न्याय दर्शन अच्छे और बुरे कर्मों से उत्पन्न पाप या पुण्य के भण्डार को अदृष्ट कहता है।
3. श्रति ईश्वर को प्रमाणित करती है हमारे धार्मिक ग्रन्थ ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं। जैसे-गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि “मैं ही जगत का कर्ता, पालन और संहारक हूँ।” उपनिषद्, वेद, महाभारत और रामायण भी ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं।
इस प्रमाण में कमी यह है कि यह प्रमाण विश्वास पर आधृत है। जिन्हें धर्म-ग्रन्थों में विश्वास नहीं है, उनके लिए यह प्रमाण महत्त्व नहीं रखता है।
4. वेदों की प्रामाणिकता ईश्वर के अस्तित्व के लिए एक प्रमाण है सभी धर्म अपने-अपने धर्म-ग्रंथों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। वेदों की प्रामाणिकता उनके रचयिता पर निर्भर है। वेदों का रचयिता जीव नहीं हो सकता, क्योंकि जीव अलौकिक और अतीन्द्रिय विषयों को नहीं जानता है। वेदों का कर्ता एक ऐसा व्यक्ति है जो भूत, भविष्य, वर्तमान, विभु और अरूप, अतीन्द्रिय सभी विषयों का अपरोक्ष ज्ञान रखता है, वह पुरुष ईश्वर है वेद प्रमाणित करते हैं कि ईश्वर है।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व के लिए जो प्रमाण न्याय दर्शन में मिलते हैं, वे परम्परागत प्रमाण हैं। ये प्रमाण ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं।
प्रश्न 29. अद्वैत वेदान्त के आत्मा के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर: शंकर के दर्शन को अद्वैत वेदान्त कहा जाता है। उसने आत्मा को ही ब्रह्म कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मैं नहीं हूँ” तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है।
फिर भी ‘मैं’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग शरीर के लिए होता है जैसे-मैं मोटा हूँ। कभी-कभी “मैं” का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। शंकर के अनुसार जो अवस्थाओं में विद्यमान रहे वही आत्मा का तत्त्व हो सकता है। चैतन्य सभी अवस्थों में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-
- जाग्रत अवस्था (Walking experience)
- स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
- सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleeps experience)
जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया।” इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है। चैतन्य के साथ-साथ आत्मा में आनन्द भी है।
साधारण वस्तु में जो आनन्द रहता है वह क्षणिक है, पर आत्मा का आनन्द शुद्ध और स्थायी है। शंकर ने आत्मा को सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानन्द है। चूंकि आत्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। सांख्य में आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्मा सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।
शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थतः भोक्ता और कर्त्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्त्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों में स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगा। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे हैं। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य हो। आत्मा त्रिकाल-अवाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।
प्रश्न 30. सप्तभंगी नय से आप क्या समझते हैं? विवेचना करें।
उत्तर: जैन दर्शन के सात प्रकार के परामर्श के अन्तर्गत ये दो परामर्श भी निहित हैं। जैन-दर्शन के इस वर्गीकरण को सप्त-भगी नय कहा जाता है। सप्तभंगी नय की संख्या सात है, जिनका वर्णन निम्नलिखित हैं-
(i) स्यात् अस्ति (Some how Sis)-यह प्रथम परामर्श है। उदाहरणस्वरूप यदि कहा जाय कि “स्यात् दीवाल लाल है” तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी विशेष देश काल और प्रसंग में दीवाल लाल है। यह भावात्मक वाक्य है।
(ii) स्याति नास्ति (Some how S is not)-यह अभावात्मक परामर्श है। टेबुल के संबंध में अभावात्मक परामर्श इस प्रकार का होना चाहिए-स्यात् टेबुल इस कोठरी के अन्दर नहीं है।
(iii) स्याति अस्ति च नास्ति च (Some how S is and also is not)-वस्तु की सत्ता एक अन्य दृष्टिकोण से हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। घड़े के उदाहरण में घड़ा लाल भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में ‘स्यात है’ और ‘स्यात नहीं है’ का ही प्रयोग हो सकता है।
(iv) स्यात अव्यक्तव्यम् (Some how S is indescribable)-यदि किसी परामर्श में परस्पर विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो उसके विषय में स्यात् अव्यक्तव्यम का प्रयोग होता है। लाल टेबुल के सम्बन्ध में कभी ऐसा भी हो सकता है जब उसके बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि वह लाल है या काला। टेबुल के इस रंग की व्याख्या के लिए ‘स्यात अव्यक्तव्यम’ का प्रयोग वांछनीय है। यह चौथा परामर्श है।
(v) स्यात् अस्ति च अव्यवक्तव्यम् च (Some how S is and is indescribable)-वस्तु एक ही समय में हो सकती है और फिर अव्यक्तव्यम् रह सकती है। किसी विशेष दृष्टि से कलम को लाल कहा जा सकता है। परन्तु जब दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो कलम के रंग का वर्णन असम्भव हो जाता है। अतः कलम लाल और अव्यक्तव्यम है। यह परामर्श पहले और चौथे को जोड़ने से प्राप्त होता है।
(vi) स्यात् नास्ति च अव्यक्तव्यम् च (Some how S is not, and is Indescribable)-दूसरे और चौथे परामर्श को मिला देने से छठे परामर्श की प्राप्ति हो जाती है। किसी विशेष दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु के विषय में “नहीं है” कह सकते हैं। परन्तु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ स्पष्ट न होने पर कुछ नहीं कहा जा सकता। अतः कलम लाल है और अव्यक्तव्यम् भी है।
(vii) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तव्यम् च (Some how S is, and is not and is indescribable)-इसके अनुसार एक दृष्टि से कलम लाल है, दूसरी दृष्टि से कलम लाल नहीं है और जब दृष्टिकोण अस्पष्ट हो तो अव्यक्तव्यम् है। यह परामर्श तीसरे और चौथे को जोड़कर बनाया गया है।
प्रश्न 31. प्रत्ययवाद की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या करें।
उत्तर: ज्ञान शास्त्रीय प्रत्ययवाद मानता है कि ज्ञाता और ज्ञेय में ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञाता से स्वतंत्र या असम्बद्ध होने पर ज्ञेय का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। प्रत्ययवाद इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञाता से स्वतंत्र ज्ञेय की कल्पना संभव नहीं है। यह सिद्धान्त ज्ञान को परमार्थ (ultimate) मानता है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान की परिधि को कम करना संभव नहीं है, इसलिए हम जो भी कथन करेंगे वह उसकी सीमा के अन्दर ही। इस प्रकार ज्ञान हमारे चिन्तन की सीमा है। ज्ञान के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है। जब कभी किसी पदार्थ का अनुभव या ज्ञान होता है तो ज्ञाता से सम्बन्धित करते हैं।
ज्ञाता से असम्बन्ध पदार्थ का अनुभव या ज्ञान होता है तो ज्ञाता से सम्बन्धित करते हैं। ज्ञाता से असम्बन्ध पदार्थ से कभी हमारा संपर्क नहीं होता। जिसका ज्ञान संभव नहीं है उसे हम सत्य नहीं मान सकते, क्योंकि ज्ञान ही हमारी सीमा है। किसी पदार्थ को ज्ञाता से स्वतंत्र तभी कहा जा सकता है जबकि ज्ञाता से स्वतंत्र अर्थात् असम्बद्ध करके उसका ज्ञान मिल सके। किन्तु यह बिल्कुल असंभव है।
प्रत्ययवाद के निम्नलिखित विशेषता होती है-
(i) प्रत्ययवादियों का एक प्रसिद्ध तर्क परस्पर सम्बद्धता सिद्धान्त (Theory of inter relation) पर आधारित है। वे मानते हैं कि सभी सम्बद्ध अन्तरंग (Internal) है। आन्तरिक संबंध (Internal relation) उसे कहते हैं जिसके सम्बन्धित पदों में एक-दूसरे पर निर्भर करता है। जबकि सभी सम्बद्ध अन्तरंग (Internal) होगा ही। इसलिए यह निश्चित है कि ज्ञेय ज्ञाता पर अवलम्बित होगा।
(ii) अनुभव की सपेक्षता से भी प्रत्ययवाद प्रमाणित होता है। सापेक्षिता का मतलब है कि अनुभवकर्ताओं में भिन्नता होने पर पदार्थों का अनुभव भिन्न रूप में होता है। प्रत्ययवादी विचारक बतलाते हैं कि एक ही उजला रंग स्वस्थ्य आँख वाले को उजला और पीलिया के रोगी को पीला दीख पड़ता है। इस प्रकार अनुभवकर्ताओं में भेद होने से अनुभव पदार्थों में भेद होना प्रमाणित करता है कि वे अनुभवकर्ताओं पर अवलंबित हैं।
(iii) प्रत्ययवादी कहते हैं कि यदि हम मान भी लें कि ज्ञाता से बिल्कुल स्वतंत्र पदार्थ हैं तो उनके लिए कोई प्रमाण नहीं है। बिल्कुल स्वतंत्र होने का मतलब है कि बिल्कुल असम्बद्ध होना। किन्तु ‘स्वतंत्र पदार्थ है’ यह तभी प्रमाणित हो सकता है जबकि उक्त पदार्थों का ज्ञान हो। किन्तु उक्त ज्ञान के होने पर वे ज्ञाता से सम्बन्धित हो जायेंगे अत: उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। . इसलिए यदि वस्तु स्वतंत्र है भी तो यह असिद्ध है।
(iv) फिर यदि हम मानते हैं कि कोई पदार्थ ज्ञाता से बिल्कुल असम्बद्ध है तो प्रश्न उठता . है कि वह कभी उससे क्यों सम्बन्धित होता है। ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध होता है किन्तु जो पदार्थ ज्ञाता से असंबद्ध है उसका उससे सम्बन्धित होना अचिंत्य है। यह कठिनाई पदार्थों को ज्ञाता से स्वतंत्र मानने से होती है। यदि मान लिया कि सभी पदार्थ ज्ञाता पर निर्भर है तो ऐसी कठिनाई नहीं होगी।
प्रश्न 32. दर्शनशास्त्र के स्वरूप की व्याख्या करें तथा जीवन के साथ इसके संबंध को दर्शाइए।
उत्तर: दर्शन की कई परिभाषाएँ दी जाती हैं। वास्तव में, दर्शन को किसी परिभाषा विशेष के अंतर्गत सीमित करना उचित नहीं जान पड़ता। हाँ, इसकी व्याख्या की जा सकती है। हम ऐसा कह सकते हैं कि “अनवरत तथा प्रयत्नशील चिंतन के आधार पर विश्व की समस्त अनुभूतियों की बौद्धिक व्याख्या तथा उनके मूल्यांकन (Evaluation) के प्रयास को ही दर्शन की संज्ञा दी जा संकती है।” यदि इस व्याख्यात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाए, तो दार्शनिक चिंतन की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट दीख पड़ती हैं-
(a) दर्शन विश्व को उसकी समग्रता में समझने का प्रयास करता है-यहाँ दर्शन और विज्ञान से स्पष्ट अन्तर है। विज्ञान विश्व को विभिन्न अंशों में बाँटकर उसका अध्ययन करता है। भौतिकशास्त्र भौतिक पदार्थों का, रसायनशास्त्र रस, गैस आदि का और जीवविज्ञान जीव का अध्ययन करता है। अध्ययन की यह विधि विश्लेषणात्मक (Analytic) है। इसके विपरीत, दर्शन की विधि संश्लेषणात्मक (Synthetic) है। यह विश्व को एक इकाई के रूप में जानना चाहता हैं।
(b) दार्शनिक चिन्तन बौद्धिक (Intellectual) है-दार्शनिक व्याख्या सदैव बुद्धि (Intellect or Reason), ठोस प्रमाण और तार्किक युक्ति पर आधृत रहती है। बुद्धि की कसौटी है सामंजस्य (Consistency) अर्थात् व्याघातकता (Contradiction) का अभाव। भावनाओं, संवेगों या विश्वास (Faith) के आधार पर दार्शनिक चिन्तन नहीं हो सकता। यहाँ धर्म और दर्शन का अंतर स्पष्ट हो जाता है। धर्म भावनाओं एवं विश्वासों पर आधृत है, किंतु दर्शन का आधार बौद्धिक है।
(c) दार्शनिक चिन्तन निष्पक्ष होता है-विश्व का अध्ययन करने के समय दार्शनिक अपने स्वार्थभाव, राग-द्वेष एवं पक्षपातपूर्ण भावनाओं से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। विश्व को उसके यथार्थ रूप में जानना ही उसका लक्ष्य रहता है, इसलिए दार्शनिक चिंतन को निष्पक्ष (Impartial) कहा जाता है। यह आत्मनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ हो जाता है।
(d) दार्शनिक चिंतन का व्यावहारिक (Practical) उद्देश्य होता है-मानव-जिज्ञासा को शान्त करना ही दर्शन का लक्ष्य है। जबतक दार्शनिक जीवन और जगत का सही अर्थ नहीं जान लेता, तबतक उसका चिंतन अनवरत जारी रहता है। जीवन और जगत को नश्वर समझने पर व्यक्ति अपने जीवन को सुखी बना सकता है। इस प्रकार जीवन की मौलिक समस्याओं का समाधान प्राप्त करना दर्शन अपना कर्त्तव्य समझता है।
भारतीय दार्शनिकों के अनुसार ‘दर्शन’ का अर्थ वह विद्या है जिसके द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। सत्य का साक्षात्कार (Vision of Truth) हो जाने पर व्यक्ति वास्तविक और मिथ्या (Real and Unreal) का अन्तर समझ लेता है। दर्शन से हमें सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है। विषयों का वास्तविक ज्ञान हमें इसी शास्त्र के द्वारा होती है। व्यक्ति तभी तक बन्धन में रहता है, जबतक उसे सत्यज्ञान नहीं होता। सत्यज्ञान मिलते ही व्यक्ति सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष (Salvation) मिल जाता है। इस प्रकार, भारतीय विचारकों के अनुसार दर्शन का उद्देश्य बंधन काटकर व्यक्ति को मोक्ष दिलाना है। इसलिए, भारतीय दर्शन को ‘मोक्ष दर्शन’ कहा जाता है।
प्रश्न 33. पर्यावरणीय नीतिशास्त्र की परिभाषा दें। इसकी विषय-वस्तु का उल्लेख करें। अथवा, पर्यावरणीय नैतिकता की विवेचना करें।
उत्तर: पर्यावरण के अंतर्गत हमारे परिवेश या आस-पड़ोस की वस्तुएँ, जीव-जंतु इत्यादि सम्मिलित किए जाते हैं। इसमें वायु, जलमिट्टी, पेड़-पौधे, वनस्पति इत्यादि आ जाते हैं। मानवीय परिवेश की समस्त जीवित और निर्जीव वस्तुएँ मानव के अस्तित्व के लिए ही नहीं वरन् समस्त पृथ्वी के लिए अनिवार्य है। मानव समेत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे झाड़ी, घास-पात, मिट्टी आदि सभी प्रकृति के अंग है। इसके बीच एक आंतरिक संबन्ध है। इसी संबंध की दृष्टि से जब हम प्रकृति का अवलोकन करते हैं तो प्रकृति को ही पारिस्थिति की (Ecology) कहते हैं। मानव का इस प्रकृति की अन्य वस्तुओं से निर्भरता का संबंध है। ये परस्पर एक-दूसरे पर अपने अस्तित्व के लिए निर्भर हैं। इसी पारिस्थितिकी (Ecology) में आहार-चक्र जलचक्र एवं ऋतु परिवर्तन आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए प्रकृति पर निर्भर करता है।
पर्यावरण की नैतिकता का संबंध भी पारिस्थितिकी की स्वाभाविक प्रक्रिया को कायम रखने से है। यहाँ दो प्रकार के नैतिकता संबंधी विचार हमारे समक्ष उत्पन्न होते हैं-
(i) व्यक्तिवादी नैतिकता यहाँ व्यक्ति को केंद्र में रखकर अन्य सभी वस्तुओं एवं परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाता है। यहाँ व्यक्ति का हित सर्वोपरि होता है, परंतु व्यक्ति अधिकतम सुख चाहता हूँ और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण व्यक्ति के सुख के लिए प्रकृति के उपयोग का अधिकतम उपयोग को वैध (Valid) मानता है।
(ii) प्रकृतिवादी दृष्टिकोण (Non Anthroposontiric)-इस दृष्टिकोण से व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं वरन् प्रकृति स्वयं महत्वपूर्ण है। यह मातृ सत्तात्मक (Feminist) विचारधारा है जो आधुनिक एवं वर्तमान परिवेश में महत्वपूर्ण है।
प्रश्न 34. अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया का वर्णन करें।
उत्तर: अविद्या, अज्ञान, अध्यास, अध्यारोप, अनिर्वचनीय, विर्क्स, भ्रान्ति, भ्रम, नाम-रूप, अव्यक्त, बीज शक्ति, मूल-प्रकृति आदि शब्दों का प्रयोग माया के अर्थ में ही हुआ है। माया तथा अविद्या प्रायः पर्यायवाची रहे हैं। वेदांत में दो प्रकार के विचार मिलते हैं। कुछ लोग माया और अविद्या में कोई भेद नहीं मानते। शंकराचार्य का कहना है कि “आवरण” माया है “विक्षेप” अविद्या। पहला छिपाता है और दूसरा कुछ अन्य ही तथ्य दिखलाता है। ब्रह्म छिप जाता है और वह जगत के रूप में परिलक्षित होता है। दूसरे लोगों का कहना है कि माया और अविद्या में भेद है। माया भावात्मक है।
उसका ब्रह्म से अलग होना सम्भव नहीं है। वह ब्रह्म में रहता है। पर अविद्या जीव के अज्ञान अर्थ में प्रयुक्त होता है। चरम तत्व का अज्ञान ही अविद्या है। यह निषेध का निर्देश करता है। पुनः माया ब्रह्म को जगत रूप दिखानेवाली व्यापक शक्ति है। यह शक्ति ईश्वर को साकार बनाती है। अविद्या जीव की शक्ति है। यह ईश्वर को प्रभावित नहीं करती। ब्रह्म माया-वश ईश्वर है। ब्रह्म अविद्या-वश जीव की अविद्या ज्ञानोदय होने पर नष्ट हो सकती है। पर माया का नाश संभव नहीं है। पुनः, माया सत्वगुण-प्रधान है। अविद्या तीन गुणों से बनी है। इन भेदों के बावजूद भी दोनों स्वभावतः एक ही है। ब्रह्म की शक्ति का सामान्य रूप माया है, विशेष रूप अविद्या
शंकर के अनुसार माया या अविद्या की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(क) माया ब्रह्म के विपरीत अचेतन है। इसमें किसी प्रकार की चित्-शक्ति नहीं है।
(ख) यह ब्रह्म की आंतरिक शक्ति है। यह ब्रह्म पर आश्रित पर निर्भर है। माया और ब्रह्म का सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध है।
(ग) माया अनादि है। यह भ्रम कि जगत सत्य है, यह कब आरम्भ हुआ, नहीं कहा जा सकता।
(घ) माया भाव-रूप है। भाव-रूप होने पर भी यह वास्तविक नहीं। इसे भाव-रूप इस कारण कहा जाता है कि इसके दो पक्ष हैं-निषेध-पक्ष से यह ब्रह्म का आवरण और भाव-पक्ष से उसे जगत रूप में दिखाता है।
(ङ) माया अनिर्वचनीय है। इसे न सत् कहते बनता है, न असत्। यह सत्य इस कारण नहीं है कि यह जगत् का आभास है। फिर इस सत्यं इसलिए नहीं है कि इसका अपना निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। अविद्या असत्य है क्योंकि ज्ञानोदय होने पर इसका नाश होता है। पर यह सत्य है क्योंकि जबतक भ्रम रहता है तबतक उनका अस्तित्व कायम रहता है। यह सत्य-असत्य दोनों है। इस कारण ही इसे अनिर्वचनीय कहा गया है।
(च) माया में व्यावहारिक सत्ता, सापेक्ष सत्ता है। व्यवहार में इससे काम चलता है। जगतः सत्य दीखता है। पर मूलतः ब्रह्म ही सत्य है। वही मात्र निरपेक्ष सत्य है।
(छ) इसकी प्रकृति अभ्यास (Super imposition), भ्रान्ति की है।
(ज) माया का सम्यक ज्ञान से ही निरोध होता है।
(झ) माया का आश्रय तथा विषय ब्रह्म है। यह बात सही है कि ब्रह्म माया से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होता। जिस तरह जादूगर अपने जादू से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी माया-शक्ति से कभी परिचालित नहीं होता। माया के कारण ही अनेकता का विश्व दीखता है और अखंडित ब्रह्म छिप जाता है। अभ्यास और विक्षेप माया के दो कर्म हैं।
प्रश्न 35. चिकित्सा नीतिशास्त्र की समीक्षात्मक व्याख्या करें।
उत्तर: चिकित्सा नीतिशास्त्र (Medical Ethics)-आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी हैं। एक समय ऐसा था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे। ये सब अपने विषय के विद्वान व्यक्ति थे। इन्होंने चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय कार्य किया उसकी परम्परा आज तक भारत में आयुर्वेद के नाम से चली आ रही है। आयुर्वेद में अनेकों बातें इन्होंने सार रूप में कही हैं जिनका उपयोग आज तक मानव समाज कर रहा है। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया बल्कि उसमें चिकित्सा करने के नियम, वैद्य के गुण, चिकित्सा करने वाले को क्या करना चाहिए, क्या नहीं, चिकित्सक की वृत्ति किस प्रकार की होनी चाहिए ये सब बातें उन्होंने अपने ग्रंथ में बतायी।
एक बात मानी जा सकती है कि पुरातन समय के शिक्षाशास्त्रियों ने न केवल चिकित्सा क्षेत्र का ज्ञान बढ़ाया बल्कि चिकित्सा के सिद्धांत, चिकित्सा व चिकित्सा करने के नियम, चिकित्सा की आचार नीति भी बतायी। लगता है कि उन लोगों को पहले ही इस बात का ज्ञान हो गया था कि आने वाले समय में चिकित्सा जैसे पवित्रतम पेशे में भी भ्रष्टाचार व लालच की प्रवृत्ति पनप जायेगी। उन्होंने बहुत वर्ष पहले यह अनुमान लगा लिया कि कहीं न कहीं कुछ कमी इस वृत्ति में अवश्य मिलेगी। तभी उनके नीतिशास्त्रों में गलत उपायों से चिकित्सा वृत्ति को केवल धन वृत्ति बनाने वालों के बारे में यथोचित वर्णन मिलता है।
चिकित्सक को तो भगवान के रूप में माना जाता है परंतु आज यह हालत है कि चिकित्सक रूपी भगवान ही हैवान बने बैठे हैं। उनके मन में पैसा कमाने की इतनी वृत्तियाँ हैं कि वे साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों विधियों से धन कमाने में लगे हैं।
वास्तव में प्रत्येक चिकित्सक सामाजिक दायित्व से बँधा है। उस दायित्व को पूरा करना ही चिकित्सक का कर्तव्य है। अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए जिन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है वह हैं-ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी तो अपने-आप ही ठीक हो जाता है। चिकित्सक अपने रोगियों के साथ प्रेमपूर्वक बातें करें, उसका दर्द समझे, उसे अपनापन प्रदर्शित करें तो रोगी को अस्पताल-अस्पताल न लगकर घर लगने लगता है।
मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्चे तले ही आकर मर जाता है।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि चिकित्साशास्त्र में व्याप्त कटुताएँ व भ्रष्टाचार ने इस पेशे को कलंकित कर दिया है। इतने पवित्र पेशे को बर्बाद करने वालों से यह पूछा ‘जाना चाहिए कि किसी गरीब की हाथ पाकर, उनका सर्वस्व लूटकर चिकित्सक को कौन-सा ।
पुण्य लाभ प्राप्त हो जायेगा ? आज इस विषय पर समग्र चिंतन की महती आवश्यक है। क्या इतने प्रतिष्ठित व्यवसाय बल्कि सेवा क्षेत्र में व्याप्त अनैतिकता को दूर किये जाने का कोई प्रयास होगा?
प्रश्न 36. अष्टांगिक योग का वर्णन करें।
अंथवा, योग दर्शन के अष्टांग मार्ग की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर: योग दर्शन सांख्य के समान ही विवेकज्ञान को मुक्ति का साधन मानता है। विवेक ज्ञान का अर्थ है आत्म दृष्टि के द्वारा इस सत्य का दर्शन कि आत्मा नित्यमुक्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप और शरीर तथा मन से पृथक है। परन्तु यह दृष्टि तभी हो सकती है जब अन्त:करण सर्वथा निर्विकार, शुद्ध और शांत हो जाए। चित्त की शुद्धि और पवित्रता के लिए योग आठ प्रकार के साध न बतलाता है। इसलिए इसे “अष्टांग योग” या “अष्टांग साधन” कहते हैं। ये अष्टांग साधन इस प्रकार से हैं-
(i) यम-यम योग का प्रथम अंग है। इसका अर्थ होता है-मन, वचन और कर्म पर नियंत्रण। भारतीय दर्शन में वर्णित पाँच व्रतों या धर्मों का मन, वचन और कर्म से पालन करना ही यम है। ये पाँच व्रत इस प्रकार हैं-
(a) अहिंसा-किसी जीव को कोई कष्ट नहीं देना।
(b) सत्य-मिथ्या का पूर्ण त्याग।
(c) अस्तेय-दूसरों की वस्तु की चोरी नहीं करना।
(d) ब्रह्मचर्य-विषय वासना की ओर नहीं जाना।
(e) अपरिग्रह-लोभ वश अनावश्यक वस्तु ग्रहण नहीं करना।
(ii) नियम-नियम योग का दूसरा अंग है। इसके अन्तर्गत उन सभी बातों का उल्लेख किया गया है जिसको करना चाहिए जबकि नियम में उन बातों का उल्लेख किया गया है जिसे नहीं करना चाहिए। नियम के अन्तर्गत पाँच अनुशासन होते हैं-
(a) शौच,
(b) सन्तोष,
(c) तपस,
(d) स्वाध्याय,
(e) ईश्वर प्राणिधान।
(iii) आसन-आसन शरीर का साधन है। इसका अर्थ है शरीर को ऐसी स्थिति में रखना जिससे निश्चय होकर सुख के साथ देर तक रह सकते हैं। नाना प्रकार के आसन होते हैं। जैसे-
पद्मासन-पद्मासन, भद्रासन, सिद्धासन, वीरासन, शीर्षासन, गरूडासन, मयूरासन, शवासन इत्यादि। इनका ज्ञान किसी सिद्ध गुरु से ही प्राप्त करना चाहिए। आसन क्रिया के द्वारा व्यक्ति शरीर को विकारों एवं व्याधियों से बचा सकता है।
(iv) प्राणायाम-प्राणायाम का साधारण अर्थ जीवन वृद्धि है। किन्तु योग दर्शन में इसका अर्थ है-श्वास क्रिया पर नियंत्रण। सांस चलते रहने से मन चंचल एवं अशान्त बना रहता है। ऐसी स्थिति में योग का पालन नहीं हो सकता। श्वास क्रिया पर नियन्त्रण रखना योगी के लिए आवश्यक माना गया है। श्वास क्रिया को तीन प्रकार से नियंत्रित किया जा सकता है-
(क) सांस को भीतर खींचकर।
(ख) सांस को बाहर फेंककर रोकना और
(ग) एकाएक सांस को रोंक लेना और छोड़ना।
(v) प्रत्याहार-प्रत्याहार का अर्थ है खींचना। अपनी इन्द्रियों को बाह्य एवं आन्तरिक विषयों से खींचकर मन को वश में करना ही प्रत्याहार कहलाता है। दृढ़ संकल्प एवं कठिन अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।
(vi) धारणा- इन्द्रियों को बाह्य वस्तुओं से हटा लेने के बाद योग के आन्तरिक साधनों का प्रयोग किया जाता है-अभीष्ट विषय पर चित्त को केन्द्रित करना ही धारणा है। वह अभीष्ट वस्तु बाह्य भी हो सकती है और आन्तरिक या अपना शरीर भी जैसे सूर्य या देवता की प्रतिमा और शरीर में अपनी नाभि या भौहों का मध्य भाग। किसी विषय पर दृढ़तापूर्वक चित्त को एकाग्र करने की शक्ति ही योग की कुंजी है। इसी को सिद्ध करने वाला समाधि अवस्था तक पहुँच जाता है।
(vii) ध्यान-धारणा के पश्चात् मन की अगली सीढ़ी है ध्यान। ध्यान का अर्थ है ध्येय विषय का निरन्तर मनन। अर्थात् उसी विषय को लेकर विचार का अविच्छिन्न प्रवाह। इसके द्वारा विषय का सुस्पष्ट ज्ञान हो जाता है। पहले भिन्न-भिन्न अंशों या स्वरूपों का बोध होता है। तदन्तर अविराम ध्यान के द्वारा सम्पूर्ण चित्र आ जाता है और उस वस्तु के असली रूप का दर्शन हो जाता है। इस तरह योगी के मन में ध्यान के द्वारा ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जाता है।
(viii) समाधि- यह योगासन की अन्तिम सीढ़ी है। ध्यान की अवस्था में ज्ञाता को आत्मचेतना रहती है। उसे यह ज्ञान रहता है कि वह अमुक विषय पर अपना चित्र केन्द्रित रख रहा है। किन्तु समाधि की अवस्था में साधक आत्म चेतना भी खो देता है। वह अभीष्ट विषय में इतना लीन हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व की चेतना नहीं रहती। वह विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है।
समाधि की दो अवस्थाएँ हैं-
(a) सम्प्रज्ञात समाधि और
(b) असम्प्रज्ञात समाधि। इनमें से प्रथम आरंभिक अवस्था है और दूसरी अन्तिम अवस्था।