Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 2
Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 2
BSEB 12th History Important Questions Long Answer Type Part 2
प्रश्न 1. अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा, अल्लाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक एवं सैनिक सुधारों का वर्णन करें।
उत्तर: अलाउद्दीन एक सुयोग्य शासक और कुशल राजनीतिज्ञ था। उसमें उच्चकोटि की मौलिकता थी और नये प्रयोगों को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने की क्षमता। उसमें रचनात्मक प्रतिभा थी और वह नये-नये प्रयोगों को करने के लिए सदैव उत्सुक रहता था। पुरानी परिपाटियों और संस्थाओं से उसे संतोष नहीं था।
उसने अपने शासनकाल में सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी सुधार किये थे जिनकी उसके पूर्वाधिकारियों ने कल्पना भी नहीं की थी। प्रत्येक क्षेत्रों में अलाउद्दीन ने ऐसी नवीन नीति का अनुसरण किया जो उसकी प्रतिभा का परिचय देती है। नीचे प्रत्येक क्षेत्र में अलाउद्दीन के सुधारों का वर्णन दिया जाता है-
प्रशासनिक सुधार – अलाउद्दीन उच्च कोटि का प्रबन्धक और शासनकर्त्ता था। उसमें एक जन्मजात सेनानायक और प्रशासक के गुण विद्यमान थे। अतएव एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने के साथ-साथ उसने उस साम्राज्य को सरक्षित ससंगठित तथा सव्यवस्थित रखने के किया। उसका शासन पूर्ण रूप से स्वेच्छाचारी, निरंकश और विशद्ध सैनिक शासन था। राज्य की सारी शक्तियाँ सुल्तान के हाथ में थी और वह सभी अधिकारों का स्रोत था। राज्य के सभी कार्य उसकी आज्ञा और आदेश से होता था। शासन के प्रत्येक भाग पर उसका नियंत्रण रहता था। उसका गुप्तचर-विभाग इतना सुसंगठित और सक्षम था कि राज्य की सारी घटनाओं की सूचना उसे मिलती रहती थी। वह अपने कर्मचारियों पर कड़ा नियंत्रण रखता था। इस प्रकार अलाउद्दीन का शासन एक केन्द्रीभूत सैनिक शासन था।
अलाउद्दीन ने भी बलवन के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। वह राजा के प्रताप में विश्वास करता था और उसे पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। उसका दृढ़ विश्वास था कि सुल्तान अन्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान होता है, इसलिए उसकी इच्छा ही कानन होनी चाहिए। वह इस सिद्धान्त में विश्वास करता था कि राजा . का कोई सम्बन्धी नहीं होता है और राज्य के सभी निवासी उसके सेवक होते हैं। इसलिए वह राज्य के मामले में उलेमा के हस्तक्षेप का विरोधी था। वह यह मानता था कि धर्म और प्रशासन दो भिन्न विषय हैं। उसने किसी भी अधिकारी को यह अनुमति न दी कि वह उसे किसी बात में सलाह दे या धर्म का दबाव डालकर उसे कोई काम करने के लिए मजबूर करे। केवल दिल्ली का कोतवाल काजी अलाउल मुल्क ही ऐसा व्यक्ति था जिसकी सलाह का सुल्तान सम्मान करता था।
वह राज्य प्रबन्ध के सम्बन्ध में स्पष्ट कहता था कि, “मुझे जो बात पसन्द आयेगी, वही मैं करूँगा। जो बात मैं देश के हित के लिए समशृंगा, चाहे वह धर्म के विपरीत हो या अनुकूल, वही कार्य मैं करूँगा। जो बात मैं देश के हित के लिए समझूगा, चाहे वह धर्म के विपरीत हो या अनुकूल, वही कार्य मैं करूँगा। मैं नहीं जानता कि मेरा आचरण धार्मिक-कानून की दृष्टि में उचित है अथवा विपरीत। मैं तो राज्य की भलाई के लिए जो कुछ ठीक समझता हूँ अथवा अवसर के अनुकूल मुझे जो कुछ ठीक अँचता है, वह मैं कर डालता हूँ। मैं नहीं जानता कि कयामत के दिन ईश्वर के दरबार में मेरा क्या होगा।” इस प्रकार अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने धर्म पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया।
अलाउद्दीन के शासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उसने राजनीति को धर्म से अलग कर दिया था। वह राजनीति में उलेमा के हस्तक्षेप का विरोधी था। शासन में मुल्लाओं का कोई प्रभाव नहीं था। वह वही करता था, जिसे वह राज्य के हित में ठीक समझता था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, “उसे जो सामग्री उपलब्ध थी, उसी की सहायता से वह दृढ़तापूर्वक अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता जाता था और उसकी मैकियावेलियन राजनीति में नैतिकता और धार्मिक निर्णय के लिए कोई स्थान न था।” इस प्रकार बलवन की भाँति अलाउद्दीन ने भी लौकिक शासन की स्थापना की, जिसका अनुसरण आगे चलकर अकबर और शेरशाह ने किया।
अलाउद्दीन ने अपनी न्याय व्यवस्था को भी लौकिक रूप दिया था। उसने इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया कि परिस्थिति और लोक-कल्याण के विचार से जो नियम उपयुक्त हो, वही राज्य का नियम होना चाहिए। इस प्रकार उसने राज्य के नियम को धर्म के चंगुल से मुक्त किया। न्यायाध श के पद पर चरित्रवान और नीति-निपुण व्यक्तियों को नियुक्त किया गया। न्यायाधीशों की सहायता के लिए पुलिस और गुप्तचर की नियुक्ति की गयी। प्रत्येक नगर में कोतवाल का कार्य अपराधी का पता लगाना था। गुप्तचर भी अपराधियों का पता लगाने में सहायता करते थे। दण्ड-विधान अत्यन्त ही कठोर था। बिना किसी भेदभाव के अपराधियों को दण्ड दिया जाता था।
सैनिक व्यवस्था – अलाउद्दीन का शासनतंत्र पूर्णतया सैन्य शक्ति पर आधारित था। उसका विश्वास था कि बाह्य आक्रमण से साम्राज्य की सुरक्षा और आन्तरिक शांति के लिए एक सुसज्जित एवं सुसंगठित सेना का होना आवश्यक है। अतः उसने सैन्य-सुधार की ओर ध्यान दिया और निम्नलिखित सुधार किए-
(i) स्थायी सेना की व्यवस्था – दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना रखने की व्यवस्था की थी। उसने 4,75,000 (चार लाख पचहत्तर हजार) स्थायी सेना का संगठन किया और सेना के प्रधान के पद पर ‘अरोज-ए-मुमालिक’ (सेना-मंत्री) की नियुक्ति की। स्थायी सेना की मदद से ही अलाउद्दीन ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी।
(ii) सेना में भर्ती करने की व्यवस्था – यद्यपि सेना में सैनिकों की भर्ती सेना-मंत्री द्वारा की जाती थी, लेकिन इसे साथ-ही-साथ सुल्तान स्वयं सेना की भर्ती करता था। सेना में भर्ती योग्यता के आधार पर होती थी। प्रत्येक सैनिक सम्बन्धी जानकारी एक राजकीय रजिस्टर में अंकित रहती थी, ताकि सैनिक के स्थान पर कोई न आ सके।
(iii) नकद वेतन की व्यवस्था – अलाउद्दीन ने सैनिकों को जागीरें देने के स्थान पर नकद वेतन देने की व्यवस्था चलायी। प्रत्येक सैनिक को 234 टंका वेतन दिया जाता था तथा एक घोड़ा रखने वाले को 78 टंका अधिक मिलता था। सैनिक को वेतन राजकीय कोष से मिलता था तथा उन्हें घोड़े, हथियार तथा युद्ध की अन्य सामग्री भी राज्य की ओर से दी जाती थी।
(iv) घोड़ों पर दाग लगाने की व्यवस्था – अलाउद्दीन के पहले सैनिक लोग अच्छी नस्ल के घोड़ों के स्थान पर रद्दी नस्ल के घोड़े रखकर राज्य को धोखा दिया करते थे। अत: अलाउद्दीन ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए घोड़ों पर दाग लगवाने की प्रथा चलायी। फरिश्ता के अनुसार उसकी सेना में 47,500 अश्वारोही सैनिक थे। अच्छी नस्ल के घोड़े बाहर से मँगवाये गये थे
(v) ये दुर्गों का निर्माण तथा पुराने दुर्गों की मरम्मत करने की व्यवस्था – अलाउद्दीन ने मंगोलों के आक्रमण को रोकने के लिए सीमान्त प्रदेश में कुछ नये दुर्गों का निर्माण करवाया था । तथा पुराने किलों की मरम्मत करवायी, क्योंकि उसके शासन काल में मंगोलों के आक्रमणों के कारण अत्यधिक अशांति रही थी। इन दुर्गों में शक्तिशाली सेनाएँ रखी गईं जो किसी भी बाह्य आक्रमण का सामना करने के लिए सदैव तत्पर रहती थीं।
इन सुधारों के परिणामस्वरूप अलाउद्दीन की सेना का संगठन बहुत सुदृढ़ हो गया और वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सफल रहा। उसका सेना पर पूर्ण नियंत्रण था। उसके इस सैन्य-संगठन ने ही उसकी निरंकुशता को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था।
राजस्व-व्यवस्था – अलाउद्दीन की आर्थिक व्यवस्था उसकी सैन्य व्यवस्था का परिणाम थी, क्योंकि एक विशाल स्थायी सेना का प्रबन्ध और उसका व्यय आसानी से चलाना असम्भव था। इसलिए उसने आर्थिक व्यवस्था में सुधार करने का संकल्प किया और अत्यधिक धन प्राप्त करने के लिए अनेक उपायों को अपनाया था। वह राज्य के आर्थिक साधनों को भी बढ़ाना चाहता था। इसलिए उसने राजस्व-विभाग में सुधार की ओर ध्यान दिया। पहले के शासकों में वैज्ञानिक राजस्व-नीति निर्धारित करने का प्रयास नहीं किया था। उन्होंने हिन्दू-काल की पुरातन-व्यवस्था को कायम रखा। किन्तु अलाउद्दीन एक साहसी शासन-सुधारक था। वह राजस्व में वृद्धि करने के लिए मौलिक परिवर्तन का इच्छुक था। इस उद्देश्य से उसने एक नियमावली प्रचलित की जिससे राजस्व-व्यवस्था में परिवर्तन आया। उसने मुसलमान माफीदारों तथा धार्मिक व्यक्तियों की राज्य द्वारा दी गयी सम्पत्ति, पेंशन और वक्फ आदि के रूप में मिली हुई भूमि जब्त कर ली। मुकद्दम, खुत तथा चौधरी आदि अधिकारियों को विशेषाधिकार से वंचित कर दिया गया। उन्हें भी भूमि, मकान तथा चारागाह पर कर देना पड़ता था।
इस प्रकार भूमि-कर के सम्बन्ध में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई अन्तर नहीं था। खेती योग्य भूमि का पता लगाने के लिए भूमि की नाप करवायी गयी। भूमि का नाप कराना हिन्दूकालीन राजस्व-व्यवस्था की एक विशेषता थी। भूमि का बन्दोबस्त करने से पहले उसने यह पता लगाया कि राज्य के प्रत्येक गाँव में कितनी खेती के योग्य जमीन है और उससे कितना लगान आता है। भूमि-सम्बन्धी नियमों को लागू करने के लिए योग्य तथा ईमानदार राजस्व पदाधिकारी नियुक्त किये गये। इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई और उसका बोझ किसानों, भूमिहरों तथा समाज के अन्य वर्गों पर पड़ा। किन्तु इस व्यवस्था का अधिक भार हिन्दुओं पर पड़ा क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू भूमि से सम्बन्धित थे।
इन सुधारों का कृषकों और प्रजा पर बहुत भयंकर प्रभाव पड़ा। उनको किसी-न-किसी प्रकार से कर देना ही पड़ता था। दिल्ली तथा दोआब के आस-पास के किसानों को उनकी उपज का पचास प्रतिशत कर के रूप में देना पड़ता था। गैर-मुस्लिम प्रजा को जजिया देना पड़ता था। अधिकांश जनता को अपनी उपज का अर्ध भाग और चरागाहों पर भारी कर देना पड़ता था। सुल्तान उनको ऐसा परिस्थिति में कर देना चाहता था कि न वे अस्त्र उठा सकें, न अश्वों पर आरूढ़ हो सकें, न सुन्दर वस्त्र धारण कर सकें और न जीवन के अन्य ऐश्वर्य साधनों का उपयोग कर सकें। वास्तव में उनकी दशा अति दयनीय थी।
प्राचीन जागीरदार तथा हिन्दू जो अपनी खोई स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह कर रहे थे, उसकी स्थिति अब ऐसी दयनीय हो गई थी कि उनकी जबान पर अब विद्रोह शब्द नहीं आता। जनता से किसी-न-किसी प्रकार का बहाना करके धन लिया जाता था। अनेक हिन्दू धनहीन हो गये और अन्त में ऐसा हो गया कि बड़े अमीरों, उच्च पदाधिकारियों तथा चोटी के व्यापारियों को छोड़कर अन्य लोगों के घरों में सोना देखने को न मिलता था। सम्पूर्ण राज्य में हिन्दू दुख और दरिद्रता में डूब गये। यदि कोई ऐसा वर्ग था जिसकी दशा दूसरों से अधिक दयनीय थी तो वह वंशानुगत कर निर्धारित तथा वसूल करने वाले पदाधिकारियों का था जिसका पहले समाज में सबसे अधिक सम्मान था। समकालीन इतिहासकार बनी इस नियमों के परिणामों का सारांश इस प्रकार लिखता है-“चौधरी, और मुकद्दम इस योग्य न रह गये थे कि घोड़े पर चढ़ सकते, हथियार बाँध सकते, अच्छे वस्त्र पहन सकते अथवा पान का शौक कर सकते। कोई भी हिन्दू सर ऊँचा नहीं कर सकता था। उनके घरों में सोने, चाँदी, पीतल या टंका के कोई अलंकार का चिन्ह नहीं दिखाई पड़ता था। निर्धनता की मार से त्रस्त होकर हिन्दु मुखियों और जमीन्दारों के घरों की स्त्रियाँ मुसलमान के घरों में जाकर मजदूरी करती थीं।”
मुनाफाखोरों के साथ-साथ निरीह जनता को भी पिसना पड़ा। उसने भी नाना प्रकार के कर लिए जाते थे। अधिक दरिद्र तथा दुखी हो जाने से खेती-बाड़ी से उनका विश्वास हट गया था। इस विश्वास को फिर से स्थापित करने के लिए तथा खेती को प्रोत्साहन देने के लिए गयासुद्दीन तुगलक को भूमि-कर में कमी करनी पड़ी।
कुछ विद्वानों का कथन है कि अलाउद्दीन ने ये नियम हिन्दुओं को दबाने के लिए नहीं बनाये थे। हिन्दुओं को इसलिए पिसना पड़ा कि अधिकांश हिन्दू किसी-न-किसी रूप से जमीन पर आश्रित थे।
प्रश्न 2. अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें।
उत्तर: अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में आर्थिक जीवन के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सुधार लागू किये। वे थे कृषि और व्यापार कृषि-क्षेत्र में सुधारों का सम्बन्ध लगान व्यवस्था से था। लगान अथवा भू-राजस्व राज्य की आमदनी का प्रमुख साधन था और अलाउद्दीन राज्य की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि करने का इच्छुक था। इसके अतिरिक्त वह मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन भी करना चाहता था जो राज्य में विद्रोह का एक प्रमुख कारण था। इस प्रकार अलाउद्दीन के राजस्व-सुधार दो उद्देश्यों से प्रेरित थे, राज्य की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि जिससे कि साम्राज्य-विस्तार के लिए विशाल सेना का निर्माण किया जा सके, मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन और उसका धन छीनना ताकि इस वर्ग द्वारा विद्रोह एवं उपद्रव की समस्या का समाधान हो सके।
प्रथम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलाउद्दीन ने तीन महत्वपूर्ण उपाय किए-उसने दोआब – (गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र) में लगान की दर में वृद्धि के आदेश दिये। किसानों को उपज के 1/3 अथवा 33% के स्थान पर 1/2 अथवा 50% लगान के रूप में देने के आदेश दिये गये। इससे राज्य की आमदनी में वृद्धि हुई। दूसरी ओर अलाउद्दीन ने दोआब क्षेत्र में कर-मुक्त भूमि पर केन्द्रीय नियंत्रण स्थापित कर दिया और भूमि अनुदान वापस ले लिए। इक्ता, मिल्क, वक्फ आदि के रूप में सीमान्तों, अधिकारियों और उलेमा के पास जो भूमि थी उसे खालसा (सुल्तान के प्रत्यक्ष शासन के अधीन) भूमि में परिवर्तित करने के आदेश दिये गये। इस प्रकार राज्य की आमदनी में और वृद्धि संभव हुई। अलाउद्दीन ने संभवतः लगान निर्धारण की पद्धति में सुधार लाया। बरनी के अनुसार, उसने भूमि की माप के आधार पर लगान के निर्धारण के आदेश दिये। इस पद्धति के लिए ‘मसाहत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। परन्तु बरनी ने इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी नहीं दी है। उसने मात्र इतना ही लिखा है कि अलाउद्दीन ने प्रति ‘बिस्वा’ में उपज के आधार पर लगान निर्धारण करने के आदेश दिये। लगान, वसूली के कार्य में व्याप्त दोषों को दूर करने के लिये अलाउद्दीन ने एक नये विभाग ‘दीवान मुस्तखरज’ की स्थापना की। इस विभाग द्वारा लगान वसूलने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा बकाया राशि की वसूली के लिए कठोर उपाय किये गये।
मध्यस्थ भूमिपति वर्ग के दमन के लिए भी अलाउद्दीन ने कई उपाय किये। इस वर्ग के लिए बरनी ने ‘खूत मुकद्दम एवं चौधरी’ शब्द का प्रयोग किया है। ये विभिन्न श्रेणियों के भूमिपति थे जो लगान वसूली के काम में राज्य का सहयोग देते थे। इनके द्वारा किसान से लगान वसूल कर राज्य को पहुँचाया जाता था। इस सेवा के बदले में राज्य द्वारा कुछ सुविधाएँ इन्हें दी जाती थीं। जैसे ये लोग अपनी भूमि का रियायती दर पर लगान देते थे और किसानों से ये राज्य के लगान के अतिरिक्त अपने लिए भौकर आदि वसूल सकते थे। राज्य को दिया जानेवाला लगान सामान्य रूप से ‘खिराज’ कहलाता था, जबकि भूमिपतियों द्वारा लिया जानेवाला कर ‘हुक्क’ कहलाता था। ऐसा देखा गया था कि इस वर्ग के लोग अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते थे। किसानों से अधिक लगान और अपने कर वसूल कर ये धन अर्जित कर रहे थे, जबकि राज्य को लगान की राशि का पूर्ण भुगतान न करके ये लोग धनी हो गये थे। धनी होने के कारण इनके लिए अपनी निजी सेना भरती करना आसान था और इन सैनिकों के माध्यम से ये विद्रोह और उपद्रव खड़े करते थे।
अलाउद्दीन ने इस वर्ग को कमजोर बनाने के लिए इसका धन छीनना आवश्यक समझा। उसने सर्वप्रथम इन भूमिपतियों को लगान देने की सुविधा से वंचित कर दिया। द्वितीय उसने इन्हें रियायती दर पर लगान वसूली के काम से मुक्त कर दिया। तृतीय उसने इनके सभी ‘हुक्क’ अवैध घोषित कर दिये। इन उपायों से इस वर्ग की आर्थिक स्थिति पर आघात पहुँचा। बरनी के अनुसार अब इस वर्ग के लिए घुड़सवारी करना, हथियार रखना, उत्तम वस्त्र पहनना और पान खाना संभव नहीं रहा। इनके घरों की औरतें अब दूसरों के घरों में काम करने पर बाध्य हुई। वरनी के ये विचार अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। परन्तु मध्य भूमिपतियों की स्थिति निश्चित रूप से कमजोर पड़ी और उनकी उद्दण्डता समाप्त हो गयी।
अलाउद्दीन ने कर-प्रणाली में भी सुधार किया। खिराज (भूमिकर) की दर में उसने वृद्धि की। खम्स (युद्ध में लूटे गये धन में राज्य का 1/5 अंश) की दर उसने बदलकर 4/5 कर दी। उसने कई नये कर लगाये जिनमें घरों (मकान पर लगने वाला कर) और चराई (चरागाह पर लगनेवाला कर) प्रमुख हैं। पूर्वकाल से प्रचलित ‘जजिया’ और ‘जकात’ कर भी उसके समय में लिये जाते रहे।
इन सभी उपायों से अलाउद्दीन अपने दोनों लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहा। धन अर्जित करने और राज्य में सुव्यवस्था बनाये रखने में अलाउद्दीन की सफलता पूर्णतः स्पष्ट है।
अलाउद्दीन के सुधारों में सबसे अधिक महत्व उसकी मूल्य-निर्धारण योजना अथवा बाजार नियंत्रण की नीति का है। इतिहासकारों में इस योजना के उद्देश्य, क्षेत्र एवं प्रभाव के सम्बन्ध में मतभेद है। इसके उद्देश्यों के सम्बन्ध में के. एस. लाल ने बरनी के विचार से सहमति व्यक्त की और कहा कि यह योजना कम खर्च पर विशाल सेना को बनाए रखने के लिए लागू की गयी थी। उनके अनुसार अलाउद्दीन ने साम्राज्य विस्तार एवं मंगोल आक्रमण का सामना करने के लिए विशाल सेना का निर्माण किया। इस कार्य में राज्य को अत्यधिक धन खर्च करना पड़ता था। अतः अलाउद्दीन ने सैनिकों का वेतन निर्धारित कर दिया। 234 टंका प्रतिवर्ष वेतन और 78 टंका भत्ते के रूप में सैनिकों को दिया जाता था। अब यह अनिवार्य हो गया कि उस निर्धारित वेतन में ही सैनिकों को सभी आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराई जाएँ अन्यथा इनमें असंतोष फैलता। बाजार नियंत्रण की योजना इसलिए लागू की गई।
योजना कार्यान्वित करने के लिए अलाउद्दीन ने एक नये विभाग का गठन किया जिसे ‘दीवाने रियासत’ नाम दिया। यह वाणिज्य विभाग था तथा इसका प्रधान सरे-रियासत कहा जाता था। इस विभाग के अधीन प्रत्येक बाजार के लिए निरीक्षक नियुक्त किया गया। इन्हें शहना कहते थे जो योजना लागू करने के लिए उत्तरदायी थे। गुप्तचर अथवा बरीद एवं मुन्हीयाँ नियुक्त किये गये ताकि बाजार की गतिविधियों और शहना पर निगरानी रखें। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन स्वयं भी अपने दासों और अन्य व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर बाजार से सामान मँगा कर अपनी सन्तुष्टि करता था। आदेशों का उल्लंघन करने वाले व्यापारियों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था, अधिक मूल्य लेने पर कोड़े मारने की सजा थी तथा कम तौलने पर अनुपात में मांस व्यापारी के शरीर से काट लिया जाता था। इस कठोर दण्ड एवं कुशल गुप्तचर व्यवस्था के माध्यम से अलाउद्दीन ने योजना को पूरी कड़ाई से लागू किया।
समकालीन इतिहासकारों के अनुसार अलाउद्दीन ने निम्नलिखित बाजार स्थापित किये-
- मण्डी-जहाँ अनाज का व्यापार होता था।
- सराय अदल-जहाँ वस्त्र का व्यापार होता था।
- दास, घोड़ों और मवेशियों एवं अन्य वस्तुओं के लिए सामान्य बाजार।
उसने विभिन्न वस्तुओं के लिए मूल्य निर्धारित कर दिये। गेहूँ 7 1/2 जीतल प्रति मन, चावल 5 जीतल प्रति मन, जौ 4 जीतल प्रति मन, चना 5 जीतल प्रति मन आदि मूल्य निर्धारित किये। कपड़े में रेशमी वस्त्र सोलह टंका से लेकर दो टंका के बीच बिकता था, जबकि सूती कपड़ा 36 जीतल से 6 जीतल के बीच बिकता था। उत्तम श्रेणी के घोड़े 100 से 120 टंका एवं मामूली टटू 10 से 25 टंका में बिकते थे। दासों का मूल्य 5 टंका से 40 टंका के बीच था।
मण्डी में अनाज की आपर्ति के लिए अलाउद्दीन ने लगान की वसली अनाज के रूप में करने का आदेश दिया। इसके अतिक्ति उसने किसान से निजी आवश्यकता से अधिक अनाज निर्धारित मूल्य पर खरीदने का आदेश दिया। इन उपायों से राज्य को अनाज का विस्तृत भण्डार उपलब्ध हो गया जिसे बाजारों के माध्यम से मण्डी तक पहुँचाया गया। मण्डी में यह अनाज लाइसेंस प्राप्त व्यापारियों द्वारा बेचने का आदेश दिया गया। व्यापारियों को निर्धारित मात्रा में ही अनाज प्रतिदिन बेचने का आदेश था। यह अनाज राज्य के अतिरिक्त भण्डार से उपलब्ध कराया जाता था। इन उपायों से अलाउद्दीन ने सभी परिस्थितियों में अनाज का व्यापार नियंत्रित मूल्य पर ही होने की व्यवस्था की जो कि निश्चित रूप से एक असाधारण सफलता थी।
वस्त्र बाजार में विदेशों से आयात किये गये रेशमी कपड़ों का मूल्य-निर्धारित करना कठिन था। अतः अलाउद्दीन ने मुल्तानी व्यापारियों को राज्य ऋण प्रदान किया ताकि वे व्यापारियों से उपलब्ध मूल्य पर कपड़ा खरीदें और उसे बाजार लाकर निर्धारित मूल्य पर बेच दें। इस व्यापार में जो हानि होती थी वह राज्य द्वारा पूरी की जाती थी तथा व्यापारियों को उनकी सेवा के बदले में कमीशन प्रदान किया जाता था। महँगे वस्त्र केवल विशेष परमिट के आधार पर ही खरीदे जा सकते थे।
दासों, घोड़ों एवं मवेशियों के बाजार में मूल्य वृद्धि की समस्या दलालों द्वारा उत्पन्न की जाती थी जो व्यापारी एवं ग्राहक दोनों से कमीशन वसूलते थे। अत: अलाउद्दीन ने इन दलालों को बाजार से निष्कासित कर दिया एवं राज्य द्वारा व्यापारियों के लिए कुछ नियम निर्धारित कर दिये। हर व्यापारी को अपने सामान सरकारी अधिकारियों द्वारा निरीक्षित कराना पड़ता था। इस आधार पर इनकी श्रेणियाँ निर्धारित कर दी जाती थीं। प्रत्येक श्रेणी के लिए निर्धारित मूल्य के अनुसार ही उन्हें अपना सामान बेचना पड़ता था।
अलाउद्दीन ने इन उपायों से सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित कर दिया और अपने शासन काल की पूरी अवधि में इनमें किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होने दी। यह एक प्रशंसनीय सफलता थी, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि ये उपाय क्या सभी वर्गों के लिए लाभदायक एवं हितकारी सिद्ध हुए ? के० एस० लाल के अनुसार अलाउद्दीन का उद्देश्य केवल सैनिक और सामान्त वर्ग को ही सन्तुष्ट रखना था ताकि इनके समर्थन से वह अपनी निरंकुश सत्ता को मजबूत बना सके। उसने अन्य सभी वर्गों के शोषण पर इस व्यवस्था को विकसित किया और किसान, शिल्पकार एवं व्यापारी इससे असंतुष्ट रहे। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि अलाउद्दीन के इन उपायों का उद्देश्य केवल दिल्ली की प्रजा को सन्तुष्ट रखना था ताकि वे उसके निरंकुश शासन के विरुद्ध आवाज न उठाएँ।
इसके लिए उसने सीमावर्ती क्षेत्रों की प्रजा का शोषण किया । सक्सेना आदि ने इन विचारों को गलत बताते हुए स्पष्ट किया है कि स्वयं बरनी के अनुसार अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने के पूर्व उत्पादन पर हुई लागत को ध्यान में रखा अर्थात् मूल्य-निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ। बरनी के ही शब्दों में अलाउद्दीन ने मुनाफाखोरी को समाप्त करने का प्रयास किया, साधारण व्यापार को अस्त-व्यस्त करने का नहीं। यह भी स्मरणीय है कि अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित किया । यदि किसान को निर्धारित मूल्य पर अनाज बेचना था तो उन्हें निर्धारित मूल्य पर ही वस्त्र एवं अन्य वस्तुएँ उपलब्ध कराई जा रही थीं। इसलिए किसानों और शिल्पकारों पर योजना का बुस प्रभाव पड़ना तर्कसंगत नहीं लगता। व्यापारी वर्ग निश्चित रूप से योजना से अप्रसन्न था परन्तु इरफान हबीब ने बरनी के वर्णन के आधार पर स्पष्ट किया है कि योजना का लाभ वास्तव में केवल सामन्त और सैनिक वर्ग को ही प्राप्त हुआ। सामान्य जनता को इसका लाभ इसलिए नहीं हुआ कि मूल्य में कमी के साथ-साथ मजदूरी की दर भी घटी।
अतः केवल उसी वर्ग को वास्तविक लाभ हुआ और उसकी क्रयशक्ति में वृद्धि हुई जो वेतन पाता था, जैसे सैनिक या सामन्त जिनके पास संचित धन था। अलाउद्दीन के जीवन काल में तो व्यापारी ने योजना का विरोध करने का साहस नहीं कर सके। किन्तु उसकी मृत्यु के बाद व्यापारियों ने योजना का विरोध करना आरम्भ किया और मुबारक खिलजी जैसे अयोग्य शासक के लिए योजना को जारी रखना असम्भव हो गया। अतः योजना स्थगित हो गयी। किन्तु के. एस. लाल के अनुसार मुबारक खिलजी ने योजना इसलिए स्थगित कर दी थी कि अब पहले की तरह सैनिक खर्च की आवश्यकता नहीं रह गयी थी।
इरफान हबीब के अनुसार योजना स्थगित करने का कारण यह था कि उसकी उपयोगिता सीमित समय के लिए ही थी। मूल्यों में कमी से आगे चलकर राज्य का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता था, क्योंकि मूल्यों में कमी से राज्य की आय का वास्तविक मूल्य भी कम हो रहा था। अतः अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी ने इसे स्थगित कर दिया।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूल्य-निर्धारण की योजना अलाउद्दीन खिलजी की एक विशिष्ट उपलब्धि थी जो उसकी असाधारण प्रतिभा का व्यापक प्रमाण प्रस्तुत करती है। इस योजना के लिए उसकी प्रशंसा समकालीन, मुगलकालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने भी की है। दुर्भाग्यवश यह सारी उपलब्धि एक व्यक्ति की प्रतिभा पर आधारित थी और उस व्यक्ति अर्थात् अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् इस योजना का कार्यान्वयन कारगर रूप से सम्भव नहीं रहा।
प्रश्न 3. कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर: कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन से ही वह कुशाग्र बुद्धि का था। बचपन में ही उसे गुलाम बनाकर फारस के एक व्यापारी काजी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कूफी के हाथ बेच दिया गया था। वहाँ उसने काजी के पुत्रों के साथ पढ़ने-लिखने के अलावे सैनिक घुड़सवारी का प्रशिक्षण लिया। काजी फखरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने उसे बेच दिया। अंत में मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदा। यह उसकी प्रतिभा एवं योग्यता से काफी प्रभावित हुआ और उसे अपनी सेना की एक टुकड़ी का नायक बना दिया। बाद में उसका साहस, कर्तव्यनिष्ठा तथा स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसने ‘अमीर-ए-आखूर’ (अस्तबल का अध्यक्ष) के सम्मानित पद पर प्रतिष्ठित किया।
अब से वह गोरी के साथ सैनिक अभियानों में भाग लेने लगा। गोरी के भारत आक्रमण के समय उसने अपनी योग्यता प्रदर्शित की तथा उसे पूर्ण सहयोग दिया। उसकी योग्यता एवं सक्रिय सहायता से गोरी को भारतीय शासकों के विरुद्ध सफलता मिली। उसकी योग्यता एवं स्वामिभक्ति देखकर गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई०) में अजमेर तथा दिल्ली के शासक पृथ्वीराज ने शासन-व्यवस्था को अपनी राजधानी दिल्ली बनाई और गोरी की अनुपस्थिति में ही विजय अभियान चलाकर गोरी के राज्य तथा यश की काफी वृद्धि की। 1192 ई० से 1205 ई० के बीच उसने गोरी के विरुद्ध राजपूतों के विद्रोहों का दमन किया तथा कई नए प्रदेशों को भी जीता।
मुहम्मद गोरी का गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक गोरी की मृत्यु के बाद 1206 ई० में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसकी उपलब्धियों को हम दो भागों में विभक्त कर दर्शा सकते हैं। पहले गोरी के सूबेदार के रूप में तथा दूसरे शासक के रूप में।
सूबेदार के रूप में ऐबक की उपलब्धियाँ – 1192 ई० में जब गोरी ने उसे भारतीय प्रांतों का सूबेदार बनाकर गजनी लौट गया तो पृथ्वीराज का भाई हरि राय ने विद्रोह कर दिया तथा रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। ऐबक ने उस विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। पुनः अजमेर के पास राजपूतों ने जटवन नामक सरदार के नेतृत्व ने विद्रोह किया और हौसी को घेर लिया। लेकिन ऐबक ने उसे भी दबा दिया। बुलंदशहर पर भी उसने अधिकार कर लिया। 1192 ई० में ही उसने मेरठ पर विजय की। 1193 ई० में दिल्ली के तोमर राजा को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई। उसके बाद वह गजनी चला गया।
1194 ई० में वह पुनः गजनी से लौटकर आया। उसने अलीगढ़ पर विजय प्राप्त की। उसी वर्ष गोरी में राजपूतों की शक्ति के प्रमुख केन्द्र कनौज (जहाँ का राजा जयचन्द था) पर आक्रमण कर उसे परास्त किया। उसमें ऐबक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विजय के बाद गोरी जब लौटकर चला गया तो ऐबक ने स्वामी के विजय अभियान को जारी रखा। 1195 ई० में पृथ्वीराज के भाई हरि राय ने पुनः विद्रोह कर दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया। लेकिन ऐबक ने उसे विफल कर दिया। 1195 ई० में उसने अलीगढ़ (कोइल) को जीता।
1196 ई० में उसने रणथम्भौर का दुर्ग जीतकर अजमेर पहुँचा जहाँ विद्रोह हो गये थे। 1197 ई० में उसने विद्रोह को दबाकर वहाँ अपनी स्थिति मजबूत बनाई। 1197 ई० में ही उसने गुजरात की राजधानी अन्हिलबाड़ा पर आक्रमण किया। उसे हराकर काफी सम्पत्ति लूटी क्योंकि वहाँ का चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय का हाथ अजमेर के विद्रोह में था। 1197 से 1203 ई० के बीच उसने कोटा बदायूँ, चन्दवर, सिरोह, उज्जैन तथा काशी को जीता। 1202-03 ई० कालिंजर (बुंदेलखंड), महोबा, खजुराहो तथा कालपी पर विजय प्राप्त की। इस तरह उस समय तक लगभग सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर भारत ऐबक के अधीन हो गया। यही कारण था कि गोरी की हत्या (15 मार्च, 1206 ई०) के बाद उसे यहाँ का शासक बनने में काफी आसानी हुई।
शासक के रूप में उसकी उपलब्धियाँ – गोरी की मृत्यु के लगभग 3 महीने बाद ऐबक ने 24 जून 1206 ई० को राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली और गुलामवंश की स्थापना की, क्योंकि गोरी का भतीजा तथा उत्तराधिकारी ग्यासुद्दीन मोहम्मद गोर इतना योग्य नहीं था कि गजनी के साथ-साथ वह भारतीय राज्य को भी सम्हाल सके। अतः लाहौर की जनता के आमंत्रण पर उसने अपना राज्याभिषेक किया। लेकिन उस समय उसने सुल्तान की उपाधि नहीं धारण की क्योंकि उस समय उसकी स्थिति बहुत नाजुक थी। गोरी का उत्तराधिकारी गयासुद्दीन रजनी और अफगानिस्तान का शासक एल्दौज, कुबाचा (सिन्ध का शासक) अली मर्दान तथा कई तुर्क अमीर ऐबक के विरोधी थे। इनके अलावे भारत में भी राजपूत शासक पुनः अपने को स्वतंत्र कर रहे थे। सभी जगह विद्रोह हो रहे थे। इस तरह वह आंतरिक तथा बाह्य कठिनाइयों से घिरा हुआ था।
ऐसी विषम स्थिति में भी उसने हिम्मत नहीं हारी और धैर्य, वीरता, कुशलता एवं दूरदर्शिता से उनका सामना किया। उसने लगभग 4 वर्षों तक शासन किया। उस समय वह कोई नयी विजय नहीं कर सका बल्कि अपनी स्थिति सुरक्षित एवं सुदृढ़ करने में लगा रहा।
अपनी स्थिति को सुरक्षित एवं सुदृढ़ करने के उद्देश्य से उसने वैवाहिक संबंधों का सहारा लिया और इल्तुतमिश, कुबाचा तथा एल्दौज के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। गजनी और अफगानिस्तान का शासक ताजुद्दीन एल्दोज से ऐबक को सर्वाधिक खतरा महसूस होता था। उसने गयासुद्दीन से मुक्ति पत्र पा लिया था लेकिन एल्दौज गजनी का शासक होने के का अपने आपको भारतीय राज्य का भी संप्रभु मानता था। जब ख्वारिज्म के शाह ने (जो मध्य एशिया में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था।) गजनी पर चढ़ाई कर एल्दौज को वहाँ से निकाल दिया तो वह 1208 में भारत आकर पंजाब पर आक्रमण किया लेकिन ऐबक ने उसे पीछे धकेल दिया और पीछा करते-करते गजनी पहुँच गया और वहाँ अधिकार कर लिया। लेकिन मात्र 80 दिन ही वह वहाँ रह सका। जब वहाँ के नागरिकों में असंतोष फैला तो वह लौटकर यहाँ चला आया। एल्दौज पुनः वहाँ अधिकार कर लिया। इसके बाद एल्दौज पुनः भारतीय राज्य की ओर नजर नहीं घुमाई तथा अपनी लड़की की शादी ऐबक से कर अच्छे संबंध बना लिए।
सिन्ध तथा उच्च का शासक नासिरउद्दीन कुबाचा भी काफी महत्वाकांक्षी था। गोरी की मृत्यु के बाद वह स्वतंत्र शासक बन गया था। उसकी शक्ति का भी विस्तार हो चुका था। वह भी भारतीय राज्य पर अधिकार करना चाहता था। ऐबक ने उसे अपने पक्ष में करने हेतु अपनी बहन की शादी कुबाचा से कर दी। इसके कारण दोनों के संबंध मधुर हो गए।
अपनी स्थिति सुरक्षित करने के बाद उसने आंतरिक स्थिति को ठीक करने हेतु कदम उठाये। बख्तियार खिलजी के मरने के बाद अली मर्दान खाँ बंगाल तथा बिहार का स्वतंत्र शासक बन बैठा था। लेकिन स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे पदच्युत कर जेल में बंद कर दिया था। वह किसी तरह से जेल से निकलकर ऐबक से मिला। ऐबक ने खिलजी सरदारों से समझौता करवाकर उसे पुनः बंगाल का नवाब बना दिया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली।
गोरी की मृत्यु के बाद कई राजपूत शासकों ने बुन्देलखंड, ग्वालियर, बदायूं आदि कई स्थानों पर अधिकार कर लिया था। ऐबक को उन प्रदेशों को जीतने की फुर्सत नहीं मिली। फिर भी राजाओं पर दबाव डालकर बदायूँ पर पुनः अधिकार कर लिया और अपने योग्य गुलाम इल्तुतमिश को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। 4 नवंबर, 1210 ई० को लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय अचानक घोड़े पर से गिर गया। पोलो की छड़ी का नुकीला. भाग छाती तथा पेट में गड़ गया। साथ ही घोड़ा भी उसपर चढ़ गया। इस कारण उसकी मृत्यु हो गई।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक काफी योग्य, प्रतिभावान, दूरदर्शी एवं साहसी था। उसमें स्वामीभक्ति की भावना भी कूट-कूटकर भरी हुई थी। जैसा कि हम देखते हैं कि अपने मालिक गोरी का वह सबसे प्रिय एवं विश्वासी व्यक्ति था। उसने मात्र दूरदर्शिता से विजय पायी वह उसकी कुशलता का परिचायक था।
भारतीय इतिहास में उसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने गोरी द्वारा स्थापित भारतीय राज्य में शत्रुओं का दमन कर अपना शासन (गुलाम वंश) की स्थापना की। यद्यपि समय की कमी के कारण वह अपने राज्य को बढ़ा नहीं सका लेकिन उसकी स्थिति सुरक्षित, सुदृढ़ अवश्य कर दी। समयाभाव के कारण वह शासन संबंधी सुधार नहीं ला सका फिर भी वह अपने राज्य में शांति स्थापित करने में बहुत हद तक सफल रहा। इस तरह हम कह सकते हैं कि ऐबक जो एक गुलाम था ने अपनी प्रतिभा, शौर्य, वीरता तथा साहस के बदौलत भारत में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित कर सका। इसलिए यदि उसे भारत प्रथम मुस्लिम बादशाह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
प्रश्न 4. विजयनगर राज्य का ‘चरमोत्कर्ष और पतन’ नामक विषय पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर: विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष – राजनीति में सत्ता के दावेदारों में शासकीय वंश के सदस्य तथा सैनिक कमांडर शामिल थे। पहला राजवंश, जो संगम वंश कहलाता था, ने 1485 ई० तक नियंत्रण रखा। उन्हें सुलुवों ने उखाड़ फेंका, जो सैनिक कमांडर थे और वे 1503 ई० तक सत्ता में रहे। इसके बाद तुलुवों ने उनका स्थान लिया। कृष्णदेव राय तुलुव वंश से ही संबद्ध था।
कृष्णदेव राय के काल में विजयनगर – कृष्णदेव राय के शासन की चारित्रिक विशेषता विस्तार और दृढीकरण था। इसी काल में तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच का क्षेत्र (रायचूर दोआब) हासिल किया गया (1512), उड़ीसा के शासकों का दमन किया गया (1514) तथा बीजापुर के सुल्तान को बुरी तरह पराजित किया गया था (1520)। हालाँकि राज्य हमेशा सामरिक रूप से तैयार रहता था, लेकिन फिर भी यह अतुलनीय शांति और समृद्धि की स्थितियों में फला-फूला। कुछ बेहतरीन मंदिरों के निर्माण तथा कई महत्त्वपूर्ण दक्षिण भारतीय मंदिरों में भव्य गोपुरमों को जोड़ने का श्रेय कृष्णदेव को ही जाता है। उसने अपनी माँ के नाम पर विजयनगर के समीप ही नगलपुरम् नामक उपनगर की स्थापना भी की थी। विजयनगर के संदर्भ में सबसे विस्तृत विवरण कृष्णदेव राय के या उसके तुरंत बाद के कालों से प्राप्त होते हैं।
विजयनगर कष्णदेव राय की मत्य के उपरान्त – कृष्णदेव की मत्य के पश्चात 1529 ई० में राजकीय ढाँचे में तनाव उत्पन्न होने लगा। उसके उत्तराधिकारियों को विद्रोही नायकों या सेनापतियों से चुनौती का सामना करना पड़ा। 1542 ई० तक केन्द्र पर नियंत्रण एक अन्य राजकीय वंश, अराविदु के हाथों में चला गया, जो सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक सत्ता पर काबिज रहे। पहले की ही तरह इस काल में भी विजयनगर शासकों और साथ ही दक्कन सल्तनतों के शासकों की सामरिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते समीकरण बदलते रहे। अंततः यह स्थिति विजयनगर के विरुद्ध दक्कन सल्तनतों के बीच मैत्री-समझौते के रूप में परिणत हुई।
विजयनगर का पतन – 1565 ई० में विजयनगर की प्रधानमंत्री रामराय के नेतृत्व में राक्षसी-तांगड़ी (जिसे तालीकोटा के नाम से भी जाना जाता है) के युद्ध में उतरी जहाँ उसे बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा करारी शिकस्त मिली। विजयी सेनाओं ने विजयनगर शहर पर धावा बोलकर उसे लूटा। कुछ ही वर्षों के भीतर यह शहर पूरी तरह से उजड़ गया। अब साम्राज्य का केंद्र पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गया जहाँ अराविदु राजवंश ने पेनुकोण्डा से और बाद में चन्द्रगिरि (तिरुपति के समीप) से शासन किया।
प्रश्न 5. विजयनगर साम्राज्य के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कलात्मक स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर: दक्षिण भारत के इतिहास में विजयनगर का महत्त्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसके राजाओं ने एक सुदृढ़ और विशाल साम्राज्य की स्थापना की, बल्कि इसका महत्त्व इस कारण भी है कि इस समय यह राज्य ‘हिन्दु-पुनरुत्थान’ का केन्द्र था। तत्कालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों एवं यूरोपीय, मध्य एशियाई एवं पुर्तगाली यात्रियों के विवरणों से इस राज्य की आंतरिक व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
प्रशासनिक व्यवस्था – विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत साम्राज्य की आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक सर्वथा नई राज्य व्यवस्था का विकास हुआ। राजा शासन का प्रधान होता था। प्रत्येक राजा शासन में गहरी रुचि लेता था। वह राय कहलाता था। राजा राज्य में न्याय, समता, धर्मनिरपेक्षता, शांति और सुरक्षा की व्यवस्था करता था। वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में भी अभिरुचि रखता था। वह प्राचीन राजधर्म को ध्यान में रखते हुए शासन करता था। सिद्धांततः उसकी भक्ति असीम थी, परंतु व्यवहारतः उसे धर्मानुकूल शासन करना पड़ता था। युवराज को भी प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। कभी-कभी दो राजा साथ-साथ शासन करते थे, जैसे हरिहर एवं बुक्का, विजयराय और देवराय। नाबालिग राजाओं के लिए संरक्षक नियुक्त किए जाते थे, जो कभी-कभी सारी शक्ति स्वयं अपने ही हाथों में केन्द्रित कर लेते थे। राजपरिषद् राजा की सलाहकार समिति थी। इसमें प्रांतीय शासकों, सामंतों, व्यापारिक निगमों इत्यादि को स्थान दिया गया था। राज्य के नीति-निर्धारण का कार्य इसी के जिम्मे था।
मंत्रिपरिषद् का प्रधान महाप्रधानी या प्रधानमंत्री होता था। इसमें राज्य के मंत्रियों, उप-मंत्रियों और विभागीय अध्यक्षों के अतिरिक्त राजा के निकट संबंधी भी होते थे। परिषद् के सदस्यों की संख्या करीब 20 थी। राजा की सहायता के लिए दंडनायक (अधिकारियों की एक विशिष्ट श्रेणी) एवं कार्यकर्ता (अधिकारियों का एक अन्य वर्ग) थे। राजा और युवराज के पश्चात् महाप्रधानी ही शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी था। केन्द्र में एक सचिवालय होता था, जो पूरे प्रशासन पर नियंत्रण रखता था। इसमें विभिन्न विभागों के प्रधान एवं उनके प्रमुख सहकर्मी रहते थे, जैसे, मानेय प्रधान (गृहमंत्री), रायसम् (सचिव), कर्णिकम् (हिसाब-किताब रखनेवाले), मुद्राकर्ता (राजकीय मुद्रा रखने वाला) इत्यादि। विजयनगर के राजा न्याय के संपादन में भी दिलचस्पी लेते थे। राजा स्वयं सर्वोच्च न्यायाधीश था, यद्यपि केन्द्रीय एवं स्थानीय स्तर पर अनेक न्यायालय थे। विजयनगर की सेना विशाल, स्थायी एवं सुदृढ़ थी। सेना में पैदल, घुड़सवार, हाथी तथा तोपखाने की टुकड़ियाँ थीं। इस सेना में मुसलमानों और तुर्की अश्वारोहियों एवं धनुर्धरों की भी भर्ती की गई। यद्यपि सैन्य व्यवस्था सामंती सिद्धांतों पर आधृत थी, तथापि इस पर कठोर निगरानी रखी जाती थी। राज्य में शांति व्यवस्था की स्थापना के लिए पुलिस का प्रबंध भी था। राज्य की आमदनी के साधन विभिन्न कर थे, जैसे भूमि कर, व्यापार, उद्योग इत्यादि से प्राप्त होनेवाली आय, व्यावसायिक कर, विवाह-कर इत्यादि।
प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण साम्राज्य विभिन्न प्रांतों (राज्य) में विभक्त था। इनकी संख्या बदलती रहती थी। प्रांत मंडल, कोट्टम् या वलनाडु में विभाजित थे। कोट्टम से छोटी इकाई नाडु थी। नाडु मेलाग्राम (पचास गाँवों का समूह) में विभक्त था। सबसे छोटी इकाई उर या ग्राम था। प्रांतों का शासन प्रांतपतियों के जिम्मे सुपुर्द किया गया था। यह पद राजपरिवार से सम्बद्ध व्यक्तियों एवं महत्त्वपूर्ण सैनिक-पदाधिकारियों को सौंपा जाता था। इन्हें पर्याप्त प्रशासनिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। केन्द्र सामान्यतया प्रांतीय मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। प्रांतीय गवर्नरों का मुख्य कार्य राजस्व की वसूली एवं कानून-व्यवस्था को बनाए रखना था। प्रांतीय व्यवस्था के साथ-साथ नायंकर व्यवस्था भी प्रचलित थी। नायंकर भी प्रांतीय गवर्नरों के ही समान क्षेत्र-विशेष में राज्य करते थे एवं उन्हें भी प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त थी। नायंकर एक प्रकार से सैनिक सामंत थे, जो राजस्व वसूली के अतिरिक्त अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाए रखते थे, न्याय करते थे, राजा के लिए सेना एकत्र करते थे तथा आर्थिक विकास के कार्य करते थे। इन्हें प्रांतीय गवर्नरों से भी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, जिसका दुरुपयोग भी इन लोगों ने किया। स्थानीय शासन में प्राचीन संस्थाएँ सभा, नाडु अब भी वर्तमान रही, किन्तु आयगार-व्यवस्था (बारह व्यक्तियों का समूह) की स्थापना ने स्थानीय शासन की स्वायत्तता समाप्त कर दी।
सामाजिक जीवन – विजयनगर राज्य का सामाजिक जीवन वर्ण व्यवस्था पर आधृत था। राज्य समस्त वर्गों के हितों की रक्षा करता था। समाज में प्रथम स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। वे मृत्युदण्ड से परे थे। उन्हें सेना एवं शासन में उच्च पद प्राप्त थे। क्षत्रियों के विषय में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। तीसरा वर्ग शेट्टी या चेट्टी का था। इसी वर्ग के अंतर्गत बड़े एवं छोटे व्यापारी, दस्तकार (वीर-पांचाल) रेड्डी,लोहार, स्वर्णकार, बढ़ई, जुलाहे, मूर्तिकार इत्यादि आते हैं।डोंबर (बाजीगर), जोगी, मछुआरों इत्यादि की स्थिति निम्न थी। समाज में दास-प्रथा भी प्रचलित थी। पुरुष एवं स्त्री दोनों ही दास बनते थे। उत्तरी भारत से दक्षिण आकर बसनेवाली जातियाँ वडवा कहलाती थी। इनका भी सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था।
राज्य सामाजिक मामलों में यदा-कदा हस्तक्षेप कर सामाजिक करीतियों एवं तनाव को समाप्त करने की कोशिश करता था। उदाहरणस्वरूप 1424-25 ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि राज्य ने दहेज-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था। सामाजिक नियमों को तोड़नेवालों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई थी। स्त्रियों की स्थिति बहुत उच्च नहीं थी। सामान्यतः, उन्हें भोग्या ही माना जाता था। आभिजात्य वर्ग की महिलाओं की स्थिति कुछ अच्छी थी। उन्हें नृत्य, संगीत एवं साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। निम्न वर्गों की स्त्रियाँ विभिन्न व्यवसायों और दस्तकारियों में प्रवीण होती थीं। सामान्य वर्गों में एकात्मक विवाह ही होते थे, परंतु राजपरिवार एवं सामंत वर्गों में बहुपत्नीत्व की प्रथा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त राजपरिवार में असंख्य दासियाँ एवं रखैलें भी रहती थीं। समाज में देवदासियों एवं गणिकाओं की भी भरमार थी। इनका सामाजिक जीवन उपेक्षित न होकर सम्मानित था। परदा प्रथा का प्रचलन नहीं था, परंतु सती प्रथा विद्यमान थी। सामान्यतया यह प्रथा राजपरिवारों और सैनिक पदाधिकारियों के परिवारों तक ही सीमित थी। सती स्त्रियों के सम्मान में पाषाण स्मारक स्थापित किए जाते थे।
यद्यपि राज्य विधवा विवाह को प्रोत्साहन देता था, (विधवा विवाह करनेवाले दम्पत्ति विवाह कर से मुक्त थे) तथापि विधवाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। इस समय के लोग वस्त्र आभूषण एवं श्रृंगार के प्रसाधनों के शौकीन थे। कुलीन वर्ग के वस्त्र आभूषण विशिष्ट प्रकार के होते थे। लोग मांस मदिरा का सेवन भी करते थे। मनोरंजन के साधनों में नाटक, नृत्य, संगीत, शतरंज एवं पासा का खेल तथा जुआ खेलना प्रचलित था। संक्षेप में विजयनगर राज्य का सामाजिक जीवन, अंतर्विरोधों और तनावों के बावजूद शांत, सुखी एवं समृद्ध था।
आर्थिक स्थिति – विजयनगर एक समद्ध एवं वैभवपूर्ण राज्य था। तत्कालीन इतालवी और पोर्तुगीज यात्रियों ने इस नगर के वैभव का वर्णन किया है। कोण्टी, अब्दुर रज्जाक, पेईज, बारबोसा, सभी विजयनगर को समृद्धि का वर्णन करते हैं। इनके वर्णनों से राज्य की आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। राज्य की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। राज्य की तरफ से कृषि के विकास के लिए अनेक कदम उठाए गए। बंजर और जंगली भूमि को भी कृषि योग्य बनाकर कृषि का विस्तार किया गया। सिंचाई की सुविधा के लिए राज्य, मंदिर, व्यक्तियों और अनेक संस्थाओं ने प्रयास किया। अनेक नहरें एवं तालाब खुदवाए गए। जो व्यक्ति सिंचाई की सुविधा के लिए प्रयास करते थे एवं सिंचाई के साधनों की देखभाल करते थे, उन्हें राज्य की तरफ से करमुक्त भूमि अनुदान में दी जाती थी।
भू-व्यवस्था में भी इस समय महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। भू-स्वामित्व के अनेक रूप इस समय देखने को मिलते हैं। इनमें प्रमुख हैं भंडारवाद ग्राम (राज्य के सीधे नियंत्रणवाली भूमि), ब्रह्मदेय, देवदेथ, मठापुर भूमि (ब्राह्मणों, मठों मंदिरों को दान में दी गई भूमि), अमरम् भूमि (सैनिक एवं असैनिक कार्यों के बदले दी जाने वाली जमीन), उबलि (ग्राम में विशिष्ट सेवा के बदले दी गई जमीन) कट्टगि (पट्टे पर दी जाने वाली भूमि) इत्यादि। इस भूमि व्यवस्था का एक दुष्परिणाम यह निकला कि राज्य में बड़े भू-स्वामियों की संख्या बढ़ गई एवं छोटे किसानों की स्थिति बिगड़ गई। उनमें अनेक कुदि या कृषक मजदूर बन गए।
इस समय उपजाई जाने वाली फसलों में प्रमुख थी चावल, जौ, दलहन, तिलहन, नील, कपास, काली मिर्च, अदरक, इलायची, नारियल इत्यादि। विभिन्न प्रकार के उद्योगों एवं व्यवसायों का भी विकास हुआ। धातुकर्म का व्यवसाय सबसे अधिक उन्नत अवस्था में था। इस समय देशी और विदेशी व्यापार की भी प्रगति हुई। पुर्तगाल, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापारिक संबंध उन्नत था। विजयनगर से इस्पात एवं इस्पात से बने सामान, शक्कर, वस्त्र एवं शोरा विदेशों को भेजे जाते थे तथा बाहर से घोड़े, सिल्क, जवाहरात इत्यादि मँगवाए जाते थे। बारबोसा के अनुसार, विजयनगर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र था। उसका कहना है कि ‘नगर विस्तृत और घना बसा हुआ है तथा चालू व्यापार का केन्द्र है; हीरे, पीगू के लाल, चीन और सिकंदरिया का रेशम, कपूर, सिन्दूर, कस्तूरी तथा मालावार की काली मिर्च और चन्दन इन वस्तुओं का अधिक क्रय-विक्रय होता है।” आर्थिक समृद्धि के कारण जनता का जीवन खुशहाल था। करों की संख्या अधिक रहने पर भी करों का बोझ हल्का था।
धार्मिक व्यवस्था-विजयनगर के राजाओं का शासनकाल हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। दक्षिण में इस्लामी राजाओं के उत्थान और प्रसार के बावजूद विजयनगर के.शासक हिन्दूधर्म की दृढ़तापूर्वक रक्षा कर सके। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। विजयनगर साम्राज्य में वैष्णव और शैवधर्म प्रधान थे। यज्ञ, आहुति और बलि की प्रथा प्रचलित थी। देवताओं के मंदिर बने। उनकी मूर्तियाँ भी बनाई गई। समाज में ब्राह्मणों (पुरोहितों) का यथेष्ट सम्मान था। विजयनगर के राजाओं ने हिन्दूधर्म को प्रश्रय देते हुए भी उदार धार्मिक नीति अपनाई। सभी धर्मानुयायियों के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार किया गया। फलतः, हिन्दू धर्म के साथ-साथ इस्लाम, जैन एवं ईसाई धर्म के माननेवाले भी राज्य में शांति और सम्मान के साथ रहते थे।
शैक्षणिक एवं साहित्यिक प्रगति – यद्यपि विजयनगर के राजाओं ने राज्य की तरफ से शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की तथा चोलों और पल्लवों की तरह राजकीय विद्यालयों की भी स्थापना नहीं की, तथापि स्वतंत्र शैक्षणिक संस्थाओं को दान एवं संरक्षण देकर शिक्षा के विकास में सहायता पहुँचाई। मठ, मंदिर एवं अग्रहार शिक्षा के प्रचार का कार्य करते थे। राज्य विद्वानों को संरक्षण देता था। उन्हें करमुक्त भूमि दान में दी जाती थी। इस युग में संस्कृत, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ भाषाओं का पर्याप्त विकास हुआ। कृष्णदेवराय के समय में साहित्यिक प्रगति पराकाष्ठा पर पहुंच गई। उसने तेलुगु और संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की। उसके द्वारा रचित ग्रंथों में आमुक्त माल्यद (तेलुगु) सबसे प्रसिद्ध है। इस युग के प्रसिद्ध विद्वानों में विद्यारण्य, सायणाचार्य एवं माधवाचार्य के नाम प्रमुख हैं। अलसनी तेलुगु का महान कवि था।
कलात्मक विकास – विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न कलाओं का भी विकास हुआ। स्थापत्य के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। इस युग के राजाओं ने सुंदर और भव्य महलों, झीलों, नहरों, पुलों, तालाबों का निर्माण करवाया। विजयनगर की प्रशंसा विदेशी यात्रियों ने की है। इतालवी यात्री निकोलो कोण्टी लिखता है कि “नगर की परिधि 60 मील है; उसकी दीवारें पर्वत-शिखरों तक पहुँचती हैं और उनके चरणों को घाटियाँ घेरे हुई हैं; इससे उसका विस्तार और भी अधिक बढ़ जाता है……”। बारबोसा के अनुसार नगर विस्तृत और धनी आबादीवाला था। अब्दुर रजाक तो नगर की सुंदरता देखकर विमुग्ध हो गया था। वह कहता है कि “विजयनगर ऐसा है, जिसकी समता का दूसरा नगर पृथ्वी पर आँख से न देखा और न कान से सुना।” इस काल में सुंदर एवं भव्य मंदिरों का भी निर्माण हुआ। विजयनगर के मंदिरों में सबसे अधिक विख्यात कृष्णदेव राय द्वारा निर्मित हजार खम्भों वाला मंदिर तथा विट्ठलस्वामी का भव्य मंदिर है। विभिन्न ललित कलाओं-नृत्य, संगीत, अभिनय के साथ-साथ चित्रकला एवं मूर्तिकला की भी प्रगति हुई। वस्तुतः विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के मध्यकालीन राज्यों में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों में, सबसे प्रमुख बन गया।
प्रश्न 6. भक्ति आंदोलन के परिणामों का वर्णन करें।
उत्तर: भक्ति आंदोलन का प्रभाव (Effect of Bhakti Movement) – संतों तथा सुधारकों के प्रयासों से जो भक्ति आंदोलन का आरम्भ हुआ उनसे मध्य भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। प्रो० रानाडे के अनुसार भक्ति आंदोलन के परिणामों में साहित्य-रचना का आरम्भ, इस्लाम के साथ सहयोग के परिणामस्वरूप सहिष्णुता की भावना का विकास जिसकी वजह से जाति व्यवस्था के बंधनों में शिथिलता आई और विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर समाज का उन्नयन हुआ।
(i) सामाजिक प्रभाव (Social Impact) – भक्ति आंदोलन के कारण जाति प्रथा, अस्पृश्यता तथा सामाजिक ऊँच-नीच की भावना को गहरी चोट लगी। अधिकतर भक्त संतों ने विभिन्न जातियों के लोगों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने जाति प्रथा का तीव्र विरोध किया एवं ब्राह्मण तथा शूद्र को समान बताया। इस तरह समाज में जाति बंधनों पर गहरा प्रहार हुआ लेकिन यह मानना पड़ेगा कि भक्ति आंदोलन भारतीय समाज से जाति प्रथा के दोषों को पूर्णतया समाप्त नहीं कर सका। भक्त-संतों ने नारी को समाज में उच्च तथा सम्मानीय स्थान दिये जाने का समर्थन किया। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के साथ मिलकर सांसारिक बोझ उठाने का परामर्श दिया। कबीर तथा नानक ने पुरुषों की तरह नारियों को अपनी शिक्षाएँ दीं। उन्होंने सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई का भी विरोध किया। इस आंदोलन में समाज सेवा की भावना को प्रोत्साहन मिला क्योंकि भक्त संतों ने लोगों को निर्धन. अनाथों. बेसहारा आदि की सेवा करने का उपदेश दिया।
(ii) धार्मिक प्रभाव (Religious Impact) – भक्ति आंदोलन का सर्वाधिक प्रभाव धर्म पर पड़ा। इस आंदोलन के कारण ही इस्लाम तथा हिन्दू धर्म के अनुयायियों में कर्मकांडों और अंधविश्वासों के विरुद्ध वातावरण तैयार हुआ। हिन्दुओं में मूर्तिपूजा की लोकप्रियता में कमी हुई। हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में समन्वय तथा एकता की भावना को प्रोत्साहन मिला। भक्ति आंदोलन के कारण ही सिख धर्म के रूप में नये धर्म का जन्म हुआ। गुरु नानक देव सिखों के प्रथम गुरु तथा गुरु ग्रंथ साहिब सिखों के लिए बाइबल है। गुरु ग्रंथ साहिब में अधिकांश भक्ति-संतों की वाणी ही संकलित है। इससे धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिला। हिन्दु तथा मुसलमानों में जो कटुता व्याप्त थी धीरे-धीरे इस आंदोलन से उसको गहरा आघात पहुँचा। धार्मिक कट्टरता कम हुई तथा धार्मिक सहनशीलता का प्रसार हुआ।
(iii) सांस्कृतिक प्रभाव (Cultural Effects) – भक्ति आंदोलन के कारण सर्वसाधारण की भाषा एवं बोलियाँ अधिक लोकप्रिय हुईं। अनेक प्रांतीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं में अनेक भक्त संतों ने रचनाएँ की। कबीर की भाषा अनेक भाषाओं के सुन्दर समन्वय का अच्छा उदाहरण है जो खिचड़ी भाषा कहलाती है। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसीदास आदि ने अवधी में अपनी रचनाएँ कीं। सूरदास ने ब्रज तथा नानक ने पंजाबी व हिन्दी को अपनाया। चैतन्य ने बंगला में और अनेक भक्त संतों ने उर्दू में भी रचनाएँ की। यह रचनाएँ समय पाकर भारतीय भाषाओं के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गईं।
प्रश्न 7. भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इस आन्दोलन का क्षेत्र एवं इससे जुड़े प्रमुख सन्तों के नाम बताइए।
उत्तर:
(i) भक्ति आन्दोलन का अर्थ (Meaning of Bhakti Movement) – भक्ति आन्दोलन से हमारा अभिप्राय उस आन्दोलन से है जो तुर्कों के आगमन (बारहवीं सदी से पूर्व ही) से काफी पहले ही यहाँ चल रहा था और जो अकबर के काल (इसका अन्त 1605 ई. को हुआ।) तक चलता रहा। इस आन्दोलन ने मानव और ईश्वर के मध्य रहस्यवादी संबंधों को स्थापित करने पर बल दिया। कुछ विद्वानों की राय है कि भक्ति भावना का प्रारम्भ उतना ही पुराना है जितना कि आर्यों के वेद। परन्तु इस आन्दोलन की जड़ें सातवीं शताब्दी से जमीं। शैव नयनार और वैष्णव अलवार ने जैन और बौद्ध धर्म के अपरिग्रह सिद्धान्त को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया। उन्होंने वर्ण और जाति भेद को अस्वीकार किया और प्रेम तथा व्यक्तिगत ईश्वर भक्ति का संदेश दिया। उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का प्रसार दक्षिण भारत से आया यद्यपि इस प्रसार में बहुत कम समय लगा। उत्तर में संत और विचारक दोनों भक्ति दर्शन लाए।
भक्ति आन्दोलन की परिभाषा देते हुए प्रसिद्ध विद्वान तथा इतिहासकार डॉ० युसूफ हुसैन के अनुसार, “भक्ति आंदोलन रूढ़िवादी, सामाजिक तथा धार्मिक विचारों के विरुद्ध हृदय की प्रतिक्रिया तथा भावों का उद्गार है। भारतीय परिवेश में भक्ति आन्दोलन का विकास इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम है।”
(ii) क्षेत्र तथा संत (Area and Saints) – भक्ति आन्दोलन व्यापक था और सारे देश में इसका प्रसार हुआ। यह आन्दोलन तेरहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक इस्लाम के सम्पर्क में आया और इसकी चुनौतियों को अंगीकार करता हुआ इससे प्रभावित, उत्तेजित और आन्दोलन हुए। इस आन्दोलन ने शंकराचार्य जैसे महान दार्शनिक के अद्वैतवाद और ज्ञान-मार्ग के विरोध में भक्ति मार्ग पर अधिक जोर दिया। इस आन्दोलन के चार विभिन्न संस्थापकों ने चार मतों को जन्म दिया। वे थे-
(a) बारहवीं शताब्दी के रामानुजाचार्य (विशिष्टद्वैतवाद),
(b) तेरहवीं सदी के मध्वाचार्य (द्वैतवाद),
(c) तेरहवीं शताब्दी के विष्णु स्वामी (शुद्धसद्वैतवाद) और
(d) तेरहवीं शताब्दी के निम्बार्काचार्य (द्वैताद्वैतवाद)। थोड़े बहुत अन्तर होते हुए भी इन चारों मतों की मूल प्रवृत्ति सगुण भक्ति की ओर झुकी हुई थी। इन्होंने ब्रह्म और जीव की पूर्ण एकता को स्वीकार नहीं किया। मध्यकाल में यह आन्दोलन विराट आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ और इसका प्रसार सोलहवीं सदी तक होता रहा।
प्रश्न 8. सूफीवाद पर संक्षिप्त लेख लिखें।
उत्तर: सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है तसत्वुफ। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ ऊन है। यह उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे सूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द ‘सफा’ से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहाँ निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी।
सूफी सन्त के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या :
- एकेश्वरवाद (Mono God) – सूफी लोग इस्लाम धर्म को मानने के साथ एकेश्वरवाद पर जोर देते थे। पीरों और पैगम्बरों के उपदेशों को वे मानते थे।
- रहस्यवाद (Mistensue) – इनकी विचारधारा रहस्यवादी है। इनके अनुसार कुरान के छिपे रहस्य को महत्त्व दिया जाता है। सफी सारे विश्व के कण-कण में अल्लाह को देखते हैं।
- प्रेम समाधना पर जोर (Stress on Love and Meditation) – सच्चे प्रेम से मनुष्य अल्लाह के समीप पहुँच सकता है। प्रेम के आगे नमाज, रोजे आदि का कोई महत्त्व नहीं।
- भक्ति संगीत (Bhakti Music) – वे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गायन को विशेष महत्त्व देते थे। मूर्ति-पूजा के वे विरोधी थे।
- गुरु या पीर का महत्व (Importance of Pir or Teacher) – गुरु या पीर को सूफी लोग अधिक महत्त्व देते थे। उनके उपदेशों का वे पालन करते थे।
- इस्लाम विरोधी कछ सिद्धान्त (SomePrinciples Against Islam) – वे इस्लाम विरोधी कुछ बातें-संगीत, नृत्य आदि को मानते थे। वे रोजे रखने और नमाज पढ़ने में विश्वास नहीं रखते थे।
प्रश्न 9. अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना करें।
उत्तर:
- आरम्भ में अकबर एक कट्टरपंथी मुसलमान था परंतु बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, बीरबल जैसे उदार विचारों वाले लोगों के सम्पर्क से उसका दृष्टिकोण बदल गया। हिंदू रानियों का भी उस पर प्रभाव पड़ा। अब वह अन्य धर्मों के प्रति उदार हो गया था।
- 1575 ई० में उसने इबादतखाना बनवाया, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। अक्सर बहस करते समय मौलवी गाली-गलौच पर उतर जाते थे। अतः अकबर को इस्लाम धर्म में रुचि कम हो गई।
- वह स्वयं तिलक लगाने लगा और गौ की पूजा करने लगा। अतः कट्टरपंथी मुसलमान उसे काफिर कहने लगे थे।
- 1579 ई० में उसने अपने नाम का खुतवा पढ़वा कर अपने आप को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया। इससे उलेमाओं का प्रभाव कम हो गया।
- अंत में उसने सभी धर्मों का सार लेकर नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है। अपने धर्म को उसने किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।
- उसने रामायण, महाभारत आदि कई हिन्दु ग्रंथों का भी फारसी में अनुवाद करवाया। वह धर्म को राजनीतिक से दूर रखता था।
- फतेहपुर सीकरी में एक महल, जोधाबाई का महल में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक देखते हैं।
प्रश्न 10. दीन-ए-इलाही से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर: अकबर इतिहास में महान् की उपाधि से विभूषित है और इसकी महानता का मुख्य कारण है इसका विराट व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढता, साम्राज्य में शांति स्थापना पापना तथा मानवीय से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर-मसलमानों को राहत दिया. राजपतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया। बल्कि एक कशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशंसनीय है।
दीन-ए-इलाही द्वारा अकबर ने सर्व-धर्म-समभाव की भावना को उत्प्रेरित किया है।
प्रश्न 11. मुगल शासक अकबर की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर: अकबर को भारतीय इतिहास का एक महान और प्रतापी शासक एवं सम्राट माना जाता है। कुछ इतिहासकार उसे राष्ट्रीय भी कहते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी रचना ‘Discovery of India’ में अकबर को भारतीय राष्ट्रीयता का पिता कहा है। यहाँ पर स्मरणीय है कि राष्ट्रीयता का सिद्धांत आधुनिक युग की देन है और मध्यकालीन भारत में राष्ट्रीय चेतना का वह आधुनिक युग विकसित नहीं हुआ था फिर भी अकबर को एक राष्ट्रीय सम्राट कहा जाता है क्योंकि इसने अपनी नीतियों से ऐसे तथ्यों को प्रोत्साहित किया और ऐसी परिस्थितियों को विकसित किया जिससे राष्ट्रीय चेतना प्रबल हो सकें। एक राष्ट्र निर्माता उस व्यक्ति को कहा जा सकता है जो किसी जनसमूह में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भान जाए और उन्हें प्रशासनिक एकता के रूप में बाध्य है। 15वीं एवं 16वीं शताब्दी में यूरोप में ऐसे शासकों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें राष्ट्रीय सम्राट (National Monarch) कहा जाता है।
इनमें इंगलैंड के हेनरी सप्तम फ्रांस का लुई चौदह, प्रशा के फ्रेडरिक महान जैसे शासक अग्रगण्य है। इनके मुख्य उपलिब्ध रह रही है कि उन्होंने अपने देशों में सामंतवादी एवं विघटनकारी शक्तियों का अंत किया और भौगोलिक एवं प्रशासनिक एकता स्थापित की। भारत में भी अकबर ने एक विशाल एवं संगठित राज्य का निर्माण किया जो विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता एवं सहिष्णुता की भावना पर आधारित था और जिसमें विभिन्न संस्कृति तथा परंपराओं का संतुलित एवं सुंदर समन्वय था। विविधता में एकता का जो लक्ष्य अकबर ने सफलता से प्राप्त किया वह अद्भुत है और इसलिए अकबर को एक महान शासक और राष्ट्र निर्माता के रूप में जाना जाता है।
अकबर ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। मौर्य साम्राज्य के पतनोपरांत लगभग 1000 वर्षों के अंतराल पर एक भारत व्यापी साम्राज्य अकबर ने संगठित किया जिसमें एक रूपी शासन प्रणाली थी। अकबर ने अपने शासन के प्रथम दो दशकों में उत्तरी भारत में साम्राज्य विस्तार किया। मालवा, गांण्डवाना, राजपूताना के अनेक राज्य गुजरात, बिहार और बंगाल की विजय इस काल में सम्पन्न हुई। दूसरे चरण में अकबर ने पश्मिोत्तर सीमांत में साम्राज्य विस्तार किया जिसके फलस्वरूप कश्मीर एवं लद्दाख, काबुल, कंधार, सिंध और मकरान के क्षेत्र मुगल साम्राज्य में सम्मिलित हुए। अंतिम चरण में अकबर ने दक्षिण भारत में साम्राज्य विस्तार किया, जिसके फलस्वरूप खान देश बराट और हमद नगर का एक बड़ा क्षेत्र उसने अपने अधिकार में ले लिया। इस तरह उत्तर में कश्मीर, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में सिंध और पूरब में बंगाल तक फैले हुए क्षेत्र पर अकबर ने राजनीति एकता की स्थापना की। पश्चिमोत्तर क्षेत्र में हिन्दुकुश पर्वतमाला को पारकर अकबर ने काबुल तक साम्राज्य का विस्तार किया।
अकबर द्वारा स्थापित इस विशाल साम्राज्य की विशिष्टता यह थी कि इसमें प्रशासनिक एकरूपता स्थापित की गई। इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था का विकास हुआ, जिसमें स्थानीय और क्षेत्रीय भावनाओं और परम्पराओं के स्थान पर केन्द्रीय नियंत्रण एवं एकरूपता की सिद्धांत को अपनाया गया। अकबर ने मंसवादारी प्रथा का निर्माण किया। मंसवदार लोग प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारी थे, जिनकी वेतनमान एवं सेवा के नियम सारे राज्य में एक थे। इसकी तुलना भारतीय प्रशासनिक सेवा से भी की गई है। इस प्रकार अकबर ने प्रशासकों और सेवकों का एक मिला-जुला वर्ग विकसित किया, जो शासन के प्रति निष्ठा रखता था।
प्रशासनिक एकरूपता लाने के लिए अकबर ने सभी प्रांतों में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था लागू की। हर प्रांत में एक सूवेदार की नियुक्ति की गई जो प्रांतीय प्रशासन का प्रधान था। उसके सहायता के लिए हर प्रांत में दीवान, वित्त-अधिकारी, बख्सी (सैनिकों का वेतन दाता) वाकियाँ नवीश (गुप्तचर), सदर (धार्मिक एवं न्याय संबंधी मामलों का प्रधान), काजी (न्यायधीश) आदि की नियुक्ति हुई। प्रांत को सरकार एवं हर सरकार को परगना में विभक्त किया गया और सभी स्तरों पर प्रशासनिक एकरूपता लाई गई। प्रत्येक सरकार में 3 प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किये गये। इनमें फौजदार साम्राज्य प्रशासन के लिए, अमल गुजार-लगान वसूली के लिए एवं काजी-न्याय के लिए उत्तरदायी थे। इसी प्रकार हर परगना में तीन अधिकारी बहाल किये गये, जिसमें सिकंदर-साम्राज्य प्रशासन के लिए, अमल गजारा लगान वसूली के लिए एवं काजी न्याय के लिए उत्तरदायी थे।
अकबर ने आर्थिक एकीकरण के लिए भी उपाय किये। उसने अपने राज्य में लगान व्यवस्था में भी एकरूपता लाई और प्रबल व्यवस्था को लागू किया। मुद्रा प्रणाली, माप तौल के उपकरण आदि में एकरूपता लाई गई जिससे कि उत्तरी भारत में एकरूपता स्थापित हई। यू तो शेरशाह के समय में ही अर्थ व्यवस्था में एरूपता लाने के उपाय किये गये थे परंतु अकबर ने इस व्यवस्था को और सदढ एवं स्थायी आधार प्रदान किया। आर्थिक एकीकरण ने राष्ट्रीय एकीकरण के कार्य में सहायता पहचायी।
अकबर ने अपने शासनकाल में सांस्कृतिक एकीकरण के भी उपाय किये। उसने उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं को जजिया कर और तीर्थ भाग कर देने से मुक्त करदिया एवं बलपूर्वक धर्म परिवर्तन को अवैध घोषित कर दिया। अकबर ने हिन्दुओं के अतिरिक्त, ईसाइयों, पारसियों, सिक्खों एवं बौद्धों के साथ भी धार्मिक सहिष्णुता बरती। इन सभी धर्मों के आचारियों को उसने अपनी राजधानी फतेहपुर सिकरी में स्थित इबास्तखाना में निमंत्रित किया। उसने विभिन्न धर्मों के उपदेशों का संकलन करके ‘दीन-ए-इलाही के रूपमें एक ऐसी आचारसंहिता (Code of Corduct) प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी धर्मों के अनुयायी पूरी निष्ठा रखते हुए भी कार्य कर सकते थे। अशोक के धर्म (धम्म) की तरह दीन-ए-इलाही भी विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच एकता और सद्भावना लाने का एक सराहनीय प्रयास था।
अकबर ने हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच अलगाव एवं भांतियों को दूर करने के लिए दोनों ही धर्मों से संबंधित रचनाओं का अनुवाद करवाया ताकि उसके सिद्धांत को अच्छे ढंग से समझ सकें। उसने मुगल दरबार में हिन्दू उत्सवों और प्रभावों को अपनाया ताकि एक संभावित परम्परा का विकास हो सके। इसी तरह अकबर ने संगीत, चित्रकला और स्थापत्य-कला के क्षेत्रों में एकता लाने का प्रयास किया जिससे भारत में एक समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास संभव हो सका।
अकबर ने अपने शासन काल में स्थापत्य कला में एक समन्वित शैली का विकास किया जिसमें ईरानी शैली और राजपूत शैली के साथ-साथ भारत के विभिन्न शैलियों का समावेश था। इस समन्वित शैली का उदाहरण फतेहपुर सिकरी के अनेक भवनों में देखें जा सकते हैं। अकबर ने जो समन्वित शैली विकसित की उसे उसके उत्तराधिकारियों ने बनायें रखा और जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब एवं प्रवर्ती शासकों के काल में भी भवन निर्माण कला का यह समन्वित रूप बना रहा।
अकबर ने संगीत और चित्रकला में भी समन्वित शैली का विकास किया। मुगल दरबार में ईरानी शैली समन्वित रूप को चित्रकला में विकसित हुआ कहा जाता है कि मुगल दरबार में जो शैली विकसित हुई उसका रूप भारतीय था जबकि उसकी आत्मा ईरानी थी। इसमें यूरोपीय शैली की विशेषताएँ सम्मिलित थी। इसलिए मुगल शैली अत्यधिक उन्नत और परिपक्व बनी रही। इसका विकास जहाँगीर के समय में चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। संगीत में भी ईरानी और भारतीय गायन शैलियों के समन्वय से एक नयी मिश्रित परम्परा विकसित हुई इसका सबसे उत्कृष्ट प्रदर्शन तानसेन की गायन शैली में हुआ। यही समन्वित शैली हिन्दुस्तानी शैली कहलायी। अकबर ने दरबार में ऐसी प्रथाएँ और रीति-रिवाज विकसित किये जिससे कि दरबार में समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास हुआ। उसने नौ रोज का व्यवहार मुगुले का राष्ट्रीय व्यवहार बना दिया। उसने राजपूतों से झरोखा दर्शन और कलादान की पद्धति मुगल दरबार में लागू की।
अकबर ने हिन्दू और मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को दूर किया। उसने अपने आप को हिन्दुओं और मुसलमानों का शुभ चिंतक माना। अकबर की नीति की खास विशेषता यह थी कि उसने किसी एक धर्म का सम्प्रदाय से ही अपना संबंध नहीं रखा बल्कि उसने सभी वर्गों, सम्प्रदाय और क्षेत्रों को अपनी प्रजा के रूप में एक जैसा अधिकार और सुविधा प्रदान की जो कि भारतीय इतिहास में एक महत्वपर्ण घटना थी।
इस प्रकार अकबर की उपलब्धियों और उसके प्रयास ही दिशा में एकीकरण के उद्देश्य से प्रेरित थी। उसने राजनैतिक और भौगोलिक एकता स्थापित की प्रशासनिक एवं आर्थिक एकरूपता लाई और सांस्कृतिक क्षेत्र में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के बीच एकता स्थापित करके विविधता में एकता (Unity in diversity) का उद्देश्य प्राप्त करना चाहा।
प्रश्न 12. अकबर की मनसबदारी व्यवस्था की विवेचना कीजिए।
उत्तर: 1573 ई० में भारत में मुगल सम्राट अकबर ने मंगोलों से प्रेरणा लेकर दशमलव पद्धति के आधार पर मनसबदारी प्रथा को चलाया।
प्रत्येक मनसबदारी को दो पद ‘जात’ और ‘सवार’ दिये जाते थे। एक मनसबदार के पास जितने सैनिक रखने होते थे, वह ‘जात’ का सूचक था। ‘सवार’ से तात्पर्य मनसबदारों को रखने वाले घुड़सवारों की संख्या से था। जहाँगीर ने खुर्रम (शाहजहाँ) को 1000 और 5000 का मनसब दिया। अर्थात् शाहजहाँ के पास 10000 सैनिक और पाँच हजार घुड़सवार थे। सबसे छोटा मनसब 10 का और बड़ा 60000 तक का था। बड़े मनसब राजकुमारों तथा राज परिवार के सदस्यों को ही दिये जाते थे। जहाँगीर के काल में मनसबदारी व्यवस्था में दु-अश्वा (सवार पद के दुगने घोड़े) सि-अश्वा (सवार पद के तिगुने घोड़े) प्रणाली लागू हुई। हिन्दु, मुस्लिम दोनों मनसबदार हो सकते थे और इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, पदच्युति सम्राट द्वारा की जाती थी।
प्रश्न 13. बर्नियर भारतीय नगरों को किस रूप में देखता है ?
उत्तर: बर्नियर के अनुसार मुगल काल में अनेक बड़े और समृद्ध नगर थे। आबादी का 15 प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यूरोपीय शहरों की तुलना में मुगलकालीन नगरों की आबादी अधिक घनी थी। दिल्ली और आगरा नगर राजधानी नगर के रूप में विख्यात थे। नगरों में भव्य रिहायसी इमारतें, अमीरों के मकान और बड़े बाजार थे। नगर दस्तकारी उत्पादों के केन्द्र थे। नगर में राजकीय कारखाना थे, जहाँ विभिन्न प्रकार के सामान बनाए जाते थे। नगर में कलाकार, चिकित्सक, अध्यापक, वकील, वास्तुकार, संगीतकार, सुलेखक रहते थे। जिन्हें राजकीय और अमीरों का संरक्षण प्राप्त था। नगरों का एक प्रभावशाली वर्ग व्यापारी वर्ग था। पश्चिमी भारत में बड़े व्यापारी महाजन कहलाते थे। इनका प्रधान सेठ कहलाता था। वर्नियर नगरों की उत्पादन एवं व्यापार में भूमिका को स्वीकार करते हुए भी इनके वास्तविक स्वरूप को स्वीकार नहीं करता है। वह मुगलकालीन नगरों को ‘शिविन नगर’ कहता है जो सत्य से परे है।
प्रश्न 14. शाहजहाँ के काल को स्वर्णयुग कहा जाता है। वर्णन करें।
उत्तर: मध्यकालीन भारतीय इतिहास में शाहजहाँ के काल को (1627-1658) ‘स्वर्णयुग’ कहा जाता है। जैसाकि शाहजहाँ के समकालीन लेखक राय भारमल तथा खफी खाँ ने भी उसके शासनकाल को स्वर्णयुग कहा है क्योंकि वह व्यक्ति और शासक के रूप में महान था। उसका शासन अत्यंत सफल था। उस समय पूरे राज्य में शांति और व्यवस्था कायम थी, निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था थी। उसके समय में कला, शिक्षा एवं साहित्य का भी काफी उत्थान हुआ। आर्थिक क्षेत्र में भी काफी तरक्की हुई। इन्हीं आधारों पर हम कहते हैं कि शाहजहाँ का काल स्वर्णयुग था। इसका विस्तृत वर्णन हम निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं-
(i) उत्तम शासक-शाहजहाँ एक उदार एवं प्रगतिशील व्यक्ति था। वह सुशील, दयालु तथा सज्जन प्रकृति का था। वह विद्वान तथा सुरुचि सम्पन्न सम्राट था। उनका स्वभाव मृदुल एवं नम्र था। साहित्य तथा ललित कलाओं में वह विशेषरूप से रुचि लेता था। यद्यपि डा. स्मिथ ने उसे अच्छा व्यक्ति नहीं माना है क्योंकि उसने अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध विद्रोह किया था लेकिन मुगल शाहजादों के लिए यह कोई नई बात नहीं थी। जहाँगीर ने भी अकबर के विरुद्ध विद्रोह किया था। इसके अलावे शाहजहाँ ने जो भी काम किया वह नूरजहाँ के विरोधी कार्यों के चलते ही किया। डॉ० स्मिथ उसे आदर्श पति भी नहीं मानते हैं क्योंकि मुमताज महल की मृत्यु के बाद भी उसका सम्बन्ध अन्य पत्नियों से रहा। लेकिन यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि मुगल सम्राट बहुपत्नीवादी होते थे। साथ ही शाहजहाँ ने तो कई वर्षों तक मुमताज के प्रति प्रेम को पवित्रतापूर्वक निभाने की हर संभव कोशिश की थी। इस प्रकार एक व्यक्ति के रूप में वह अच्छा था।
(ii) उत्तम सैनिक-व्यवस्था – शाहजहाँ एक कुशल सेना एवं सेनानायक था। वह वृद्धावस्था में भी स्वयं युद्ध की योजनाएँ बनाता था तथा युद्ध का संचालन करता था। उसने मुगल सेना को पुनर्संगठित कर उसे सशक्त एवं क्रियाशील बनाया। कुशल सेनानायक होने के कारण ही उसने अपने प्रारंभिक वर्षों में हुए विद्रोहों को सफलतापूर्वक दबा सका। उसने पुर्तगालियों को बढ़ती हुई शक्ति को नष्ट किया तथा दक्षिण में अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुंडा आदि राज्यों पर मुगल सत्ता को सुदृढ़ किया।
(iii) उत्तम शांति-व्यवस्था – शाहजहाँ एक कुशल शासक, कुशल प्रबन्धक तथा उच्च कोटि का राजनीतिज्ञ था। उसके शासनकाल में राज्य में पूरी शांति व्यवस्था बनी रही। उसके विशाल साम्राज्य को देखते हुए, जो पश्चिम में सिंध से लेकर पूरब में आसाम तक तथा उत्तर में काश्मीर से लेकर सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था, इस तरह की शासन-व्यवस्था कोई मामूली बात न थी। इतने बड़े साम्राज्य को सुसंगठित और सुव्यवस्थित रखना ही उसके कुशल शासक होने का द्योतक है। यद्यपि मध्ययुग में अशांति रहती थी तथा चोरी, डकैती, हत्या आदि होते रहते थे लेकिन शाहजहाँ ने सामान्य जीवन को सुरक्षित बनाने के उद्देश्य से उचित कदम उठाये। फलस्वरूप इस तरह की बारदातों में काफी कमी आई।
(iv) आर्थिक सम्पन्नता – उसके समय में राज्य की आर्थिक स्थिति भी काफी अच्छी थी। साम्राज्य का राजस्व मंत्री मुर्शीद कुली खाँ बड़ा ही योग्य व्यक्ति था और उसने विभिन्न प्रयत्नों से राज्य की आमदनी को काफी बढ़ाया। उसके पहले राज्य कर के रूप में उपज का 2/3 भाग भूमिकर के रूप में लगता था लेकिन उसने अब उसे बढ़ाकर 9/2 भाग कर दिया जिससे राज्य की आमदनी में काफी वृद्धि हुई और राज्य सम्पन्न हो गया। इसके अलावे उसके समय में शांति-व्यवस्था कायम थी इसलिए देश अधिक समृद्ध एवं सम्पन्न बन गया। प्रजा भी काफी खुशहाल थी।
(v) उत्तम न्याय-व्यवस्था – शाहजहाँ के काल में न्याय की भी उत्तम व्यवस्था थी। वह एक न्यायप्रिय शासक था तथा निष्पक्ष न्याय के लिए प्रसिद्ध था। वह सर्वोच्च न्यायाधीश के रूप में रहता था तथा अपराधियों को कठोर दंड दिया करता था। वह प्रत्येक बुधवार को महल के न्यायालय में बैठकर सभी की शिकायतों को सुनता था तथा अपराधियों को कड़ा दंड देता था। फलस्वरूप अपराध कम होते थे और लोग शांतिमय जीवन बसर करते थे।
(vi) लोकहितकारी कार्य – शाहजहाँ निरंकुश शासक होते हुए भी बहुत ही लोकप्रिय था। वह बहत ही परिश्रमी, कर्तव्यनिष्ठ तथा सहनशील था और प्रत्येक काम जनता की भलाई को देखकर करता था। उसने जनता की भलाई के लिए कई काम किए, जैसे-कई स्कूल, मस्जिदें, सराय, बगीचे आदि का निर्माण किया तथा सिंचाई के उद्देश्य से यमुना नहर का निर्माण करवाई। 1650 ई०में जब दक्षिण में अकाल पडा तो वहाँ लगान माफ कर तथा अन्य उपायों द्वारा अकाल पीड़ितों की सहायता की थी। 1696 ई० में जब पंजाब में भी अकाल पड़ा तो उस समय भी इसी तरह की व्यवस्था कर लोगों के प्राणों की रक्षा की।
(vii) शिक्षा एवं साहित्य का उत्थान – शाहजहाँ के काल में शिक्षा एवं साहित्य का उत्थान हुआ। खासकर संस्कृत, हिन्दी तथा फारसी साहित्य की काफी उन्नति हुई। उसके दरबार में विभिन्न भाषाओं के कई विद्वान रहा करते थे। ‘गंगाधर’ तथा गंगालहरी के प्रसिद्ध लेखक जगन्नाथ पंडित के अलावे हिन्दी और संस्कृत के कई विद्वान (कवीन्द्र आचार्य सरस्वती) उसके दरबार में रहा करते थे। वह इन लोगों को संरक्षण प्रदान करता था। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सुन्दर दास और चिंतामणि भी इसी के दरबार में रहते थे। फारसी साहित्य की भी काफी उन्नति हुई। अब्दुल हमीद लाहौरी ने कई ग्रंथों की रचना की।
साहित्य के अलावे ज्योतिष विज्ञान की भी काफी उन्नति हुई। शाहजहाँ ज्योतिष में विश्वास करता था अतः उसने जन्मकुण्डलीयाँ बनाने, विवाह हेतु शुभ लग्न निकालने, तथा सैनिक अभियानों के लिए शुभ मुहुर्त बतलाने हेतु कई ज्योतिषियों को भी दरबार में रखता था। इसके अलावे ज्ञान-विज्ञान के दूसरे क्षेत्रों में भी काफी उन्नति हुई।
(viii) कलाओं का विकास – शाहजहाँ के शासन काल में ललित कला, संगीत, चित्रकला, स्थापत्य कला आदि का काफी विकास हुआ। खासकर स्थापत्य कला के क्षेत्र में तो यह मुगल काल में सर्वश्रेष्ठ थी। उसके द्वारा निर्मित भव्य एवं सुरम्य महल तथा अन्य इमारतें, दिल्ली का लाल किला, जामा मस्जिद, आगरा का ताजमहल आदि मुगल वास्तुकला की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती हैं। ताजमहल तो विश्व के आश्चर्यजनक चीजों में गिना जाता है। उसने मयूर सिंहासन का भी निर्माण करवाया था। उसके समय में संगीत कला का भी काफी विकास हआ।
(ix) उद्योग-धंधों तथा व्यापार में प्रगति – शाहजहाँ के शासन-काल में उद्योग-धंधों तथा व्यापार में काफी प्रगति हुई क्योंकि उस समय देश में शांति एवं व्यवस्था कायम थी। भारत से सिल्क तथा सती कपडे नमक, लोहा, मोम, अफीम, मसाले, विभिन्न औषधियाँ भंगार प्रसाधन आदि पश्चिमी एशिया भेजे जाते थे। इन उद्योगों तथा विदेशी व्यापार से राज्य को काफी आमदनी होती थी।
इस प्रकार शाहजहाँ के शासनकाल में देश की राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, कला खासकर स्थापत्य कला आदि की प्रगति को देखकर हम कह सकते हैं कि उसका शासन काल मध्यकालीन भारत का स्वर्णयुग था।
प्रश्न 15. मुगल काल में जमींदारों की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर: मुगल काल में जमींदारों की स्थिति निम्नलिखित प्रकार से थी-
(i) कृषि उत्पादन में सीधे हिस्सेदारी नहीं करते थे। ये जमींदार थे जो अपनी जमीन के मालिक होते थे और जिन्हें ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत की वजह से कुछ खास सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थीं। जमींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति था; दूसरा कारण यह था कि वे लोग राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ (नजराना) देते थे।
(ii) जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत व्यक्तिगत जमीन। इन्हें मिल्कियत कहते थे, यानि संपत्ति मिल्कियत जमीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती होती थी। अक्सर इन जमीनों पर दिहाड़ी के मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार अपनी मर्जी के मुताबिक इन जमीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे।
(iii) जमींदारों की ताकत इस बात में थी कि वे अक्सर राज्य की ओर से कर वसूल कर सकते थे। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा मिलता था। सैनिक संसाधन उनकी ताकत का एक 139 और जरिया था। ज्यादातर जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिनमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।
(iv) इस तरह, अगर हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें, तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे।
(v) समसामयिक दस्तावेजों से पता लगता है कि जंग में जीत जमींदार की उत्पत्ति का संभावित स्रोत रहा होगा। अक्सर, जमींदारी फैलाने का एक तरीका था ताकतवर सैनिक सरदारों द्वारा कमजोर लोगों को बेदखल करना। मगर इसकी संभावना कम ही है कि किसी जमींदार को इतने आक्रामक रुख की इजाजत राज्य देता हो जब तक कि एक राज्यादेश (सनद) के जरिये इसकी पुष्टि नहीं कर दी गई हो।
(vi) इससे भी महत्त्वपूर्ण थी जमींदारी को पुख्ता करने की धीमी प्रक्रिया। स्रोतों में दस्तावे वेज भी शामिल हैं। यह कई तरीकों से किया जा सकता था: नयी जमीनों को बसाकर (जंगल-बारी), अधिकारों के हस्तांतरण के जरिये, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर।
(vii) यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके जरिये अपेक्षाकृत “निचली” जातियों के लोग भी जमींदारों के दर्जे में दाखिल हो सकते थे। क्योंकि इस काल में जमींदारी धडल्ले से खरीदी और बेची जाती थी।
(viii) जमींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में अगआई की और खेतिहरों को खेती के साजो-समान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की। जमींदारी की खरीद-फरोख्त से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। इसके अलावा, जमींदार अपनी मिल्कियत की जमीनों की फसल भी बेचते थे। ऐसे सबूत हैं जो दिखाते हैं कि जमींदार अक्सर बाजार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फसलें बेचने आते थे।
(ix) यद्यपि इसमें कोई शक नहीं कि जमींदार शोषण करने वाला तबका था, लेकिन किसानों से उनके रिश्तों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण का पुट था। जो पहलू इस बात की पुष्टि करते हैं। एक तो यह कि भक्त संतों ने जहाँ बड़ी बेबाकी से जातिगत और दूसरी किस्मों के अत्याचारों की निंदा की। वहीं उन्होंने जमींदारों को (या फिर, दिलचस्प बात है, साहूकारों को) किसानों के शोषक या उन पर अत्याचार करने वाले के रूप में नहीं दिखाया। आमतौर पर राज्य का राजस्व अधिकारी ही उनके गुस्से का निशाना बना। दूसरे, सत्रहवीं सदी में भारी संख्या में कृषि विद्रोह हुए और उनमें राज्य के खिलाफ जमींदारों को अक्सर किसानों का समर्थन मिला।
प्रश्न 16. अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण किस तरह हुआ ?
उत्तर: अठारहवीं सदी में शहरी केंद्रों का रूपांतरण बड़ी तेजी के साथ हुआ। यूरोपीय मूलतः अपने-अपने देशों के शहरों से आए थे। उन्होंने औपनिवेशिक सरकार के काल में शहरों का विकास किया। पुर्तगालियों ने 1510 में पणजी, डचों ने 1605 में मछलीपटनम, अंग्रेजों ने 1639 में मद्रास (चेन्नई), 1661 में मुम्बई और 1690 में कलकत्ता (कोलकाता) बसाए तो फ्रांसीसियों ने 1673 में पांडिचेरी नामक शहर बसाए। इनमें से अनेक शहर समुद्र के किनारे थे। व्यापारिक गतिविधियों के केंद्र होने के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यकलापों के भी केंद्र थे। अनेक व्यापारिक गतिविधियों के साथ इन शहरों का विस्तार हुआ। आसपास के गाँवों में अनेक सस्ते मजदूर, कारीगर, छोटे-बड़े व्यापारी, सौदागर, नौकरी-पेशा, बुनकर, रंगरेज, धातु कर्म करने वाले लोग रहने लगे। इन शहरों में ईसाई मिशनरियों ने सक्रिय रूप से भाग लिया। अनेक स्थानों पर पश्चिमी-शैली की इमारतें, चर्च और सार्वजनिक महत्त्व की इमारतें बनाई गईं। स्थापत्य में पत्थरों के साथ ईंट, लकड़ी, प्लास्टर आदि का प्रयोग किया गया। छोटे गाँव कस्बे और कस्बे छोटे-बड़े शहर बन गए।
आस-पास के किसान तीर्थ करने के लिए कई शहरों में आते थे। अकाल के दिनों में प्रभावित लोग कस्बों और शहरों में इकट्ठे हो जाते थे। लेकिन जब कस्बों पर हमले होते थे तो कस्बों के लोग ग्रामीण क्षेत्रों में शरण लेने के लिए चले जाते थे। व्यापारी और फेरी वाले लोग कस्बों से गाँव में जाकर कृषि उत्पाद और कुछ कुटीर व छोटे पैमाने के उद्योग-धंधों में तैयार माल बिक्री के लिए शहरों और कस्बों में आते थे। इससे बाजार का विस्तार हुआ। भोजन और पहनावे की नई शैलियाँ विकसित हुई। अनेक शहरों की चारदीवारियों को 1857 के विद्रोह के बाद तोड़ दिया गया जैसे दिल्ली का शाहजहाँनाबाद। दक्षिण भारत में मदुरई, कांचीपुरम मुख्य धार्मिक केन्द्र भी बन गए। 18वीं शताब्दी में शहरी जीवन में अनेक बदलाव आए।
राजनीतिक तथा व्यापारिक पुनर्गठन के साथ पुराने नगर जैसे आगरा, लाहौर, दिल्ली पतनोन्मुख हुए तो नए शहर मद्रास (चेन्नई), मुम्बई, कलकत्ता (कोलकाता) शिक्षा, व्यापार, प्रशासन, वाणिज्य आदि के महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गए। विभिन्न समुदायों, जातियों, वर्गों, व्यवसायों के लोग यहाँ रहने लगे।
नई क्षेत्रीय ताकतों के विकास से क्षेत्रीय राजधानी जैसे अवध की राजधानी लखनऊ, दक्षिण के अनेक राज्यों की राजधानियाँ जैसे तंजौर, पूना, श्रीरंगपट्टनम, नागपुर, बड़ौदा के बढ़ते महत्त्व दिखाई दिए।
व्यापारी, प्रशासक, शिल्पकार तथा अन्य लोग पुराने मुगल केंद्रों से नई राजधानियों की ओर काम तथा रोजगार की तलाश में आने लगे।
नए राज्यों और उदित होने वाली नई राजनीतिक शक्तियों में प्रायः निरंतर लड़ाइयाँ होती रहती थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि भाड़े के सिपाहियों को भी तैयार रोजगार मिल जाता था।
कुछ स्थानीय विशिष्ट लोगों तथा उत्तर भारत में मुगल साम्राज्य से संबंधित अधिकारियों ने भी इस मौके का उपयोग करके पुरम और गंज जैसी शहरी बस्तियों में अपना विस्तार किया।
लेकिन राजनैतिक विकेन्द्रीकरण का प्रभाव सर्वत्र एक जैसे नहीं थे। कई स्थानों पर नए सिरे से आर्थिक गतिविधियाँ बढ़ीं, कुछ अन्य स्थानों पर लूटपाट तथा राजनीतिक अनिश्चितता, आर्थिक पतन में बदल गई। जो शहर व्यापार तंत्रों से जुड़े हुए थे। उनमें परिवर्तन दिखाई देने लगे। यूरोपीय कम्पनियों ने अनेक स्थानों पर अपने आर्थिक आधार या फैक्ट्रियाँ स्थापित कर ली। 18वीं शताब्दी के अंत तक एकल आधारित साम्राज्य का स्थान, शक्तिशाली यूरोपीय साम्राज्यों ने लिया। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार, वाणिज्यवाद और पूँजीवाद की शक्तियाँ अब समाज के स्वरूप को परिभाषित करने लगी थीं।
मध्य अठारहवीं शताब्दी से परिवर्तन का नया चरण शुरू हुआ। अब व्यापारिक गतिविधियाँ अन्य स्थानों पर केंद्रित होने लगी। मुगल काल में जो तीन शहर बहुत प्रगति पर थे-सूरत, मछलीपटनम और ढाका उनका निरंतर पतन होता चला गया।
1757 में प्लासी, 1767 में बक्सर और 1765 में इलाहाबाद की संधि के बाद अंग्रेजों ने बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित कर ली। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपना व्यापार फैलाया। मद्रास (चेन्नई), मुम्बई और कलकत्ता (कोलकाता) तीनों औपनिवेशिक शहर न केवल बंदरगाह शहर बने बल्कि नई आर्थिक राजधानियों के रूप में भी उभरे। ये तीनों औपनिवेशिक शहर औपनिवेशिक सत्ता और प्रशासन के मुख्य केंद्र बन गए।
नए शहरों में नए भवन, संस्थाएँ विकसित हुईं और शहरी स्थानों को नए ढंग से व्यवस्थित किया गया। अनेक जगहों पर (पश्चिमी शिक्षा केंद्र, अस्पताल. रेलवे दफ्तर. व्यापारिक गोदाम. सरकारी कार्यालय आदि) नए-नए रोजगार विकसित हुए। दूर-दूर के प्रदेशों और गाँवों से पुरुष, महिलाएँ औपनिवेशिक शहरों की ओर उमड़ने लगे। देखते-ही-देखते 1800 तक जनसंख्या की दृष्टि से औपनिवेशिक शहर देश के सबसे बड़े शहर बन गए।
प्रश्न 17. प्लासी युद्ध के कारणों एवं परिणामों का वर्णन करें।
उत्तर: प्लासी युद्ध का भारतीय इतिहास में विशेषतः राजनैतिक महत्व है। इस युद्ध ने देश की राजनीति में महान परिवर्तन ला दिया। इस युद्ध के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
(i) भारत में अंग्रेजों का राज्य स्थापित करने का विचार-अंग्रेज यद्यपि भारत में व्यापार करने के लिए आये थे, परंतु यहाँ की राजनीतिक स्थिति को देखकर उनके विचारों में परिवर्तन हो गया। उन्होंने यहाँ अपने साम्राज्य की स्थापना का विचार कर लिया। फ्रांसीसियों को पराजित करने के पश्चात् उन्होंने भारतीय शासकों को पराजित करने का कार्यक्रम बनाया और बंगाल से ही अपने कार्यक्रम को लागू करना आरंभ किया।
(ii) सिराजुद्दौला से अंग्रेज आतंकित-प्लासी के युद्ध के समय बंगाल का शासक सिराजुद्दौला था। वह देश के लिए अंग्रेजों को खतरनाक समझता था। अंग्रेज भी उससे घबराये हुए थे। मरने से पूर्व उसके नाना अलीवर्दी खाँ ने कहा था-“मुल्क के अंदर यूरोपियन कौमों की ताकत पर नजर रखना। यदि खुदा मेरी उम्र बढ़ा देता तो मैं तुम्हें इस डर से भी आजाद कर देता-अब मेरे बेटे यह काम तुम्हें करना होगा …..।”
अलीवर्दी खाँ ने भी एक बार अंग्रेजों से कहा था-“तुम लोग सौदागर हो, तुम्हें किलों की क्या जरूरत ? तब तुम मेरी हिफाजत में हो तो तुम्हें किसी दुश्मन का डर नहीं हो सकता।”
परंतु अब अंग्रेज न तो केवल सौदागर ही रहना चाहते थे और न दूसरे के शासन में रहना चाहते थे, वे भारत में अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे, इसीलिए उन्होंने प्लासी का युद्ध लड़ा।
(iii) बंगाल को प्राप्त करना – अंग्रेज हर परिस्थिति में राजनैतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान बंगाल को प्राप्त कर लेना चाहते थे। अतः उन्हें इस प्रदेश को प्राप्त करने हेतु किसी न किसी बहाने की आवश्यकता थी जो उन्हें प्लासी का युद्ध करने के लिए शीघ्र मिल गया।
(iv) किलेबंदी – सिराजुद्दौला के नाना अलीवर्दी खाँ ने अंग्रेज और फ्रांसीसियों को किलेबंदी न करने की स्पष्ट चेतावनी दी थी परंतु उसके मरते ही फिर किलेबंदी होनी प्रारंभ हो गई। सिराजुद्दौला ने भी किलेबंदी करनी की मनाही की इससे फ्रेंच कंपनी ने किलेबंदी समाप्त कर दी, . परंतु अंग्रेजों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। इस कारण सिराजुद्दौला और अंग्रेजों के संबंध कटु हो गये। और उनमें युद्ध होना आवश्यक हो गया। .
(v) अंग्रेजों द्वारा विरोधियों को सहायता देना – अंग्रेज व्यापारी सिराजुद्दौला के विरोधियों की सहायता कर रहे थे। असंतुष्ट दरबारियों तथा अन्य शत्रुओं को अंग्रेज शरण दिया करते थे, इससे सिराजुद्दौला अंग्रेजों से चिढ़ गया था। अंग्रेजों ने नवाब की इच्छा के विरुद्ध ढाका के दीवान राजबल व कृष्ण बल्लभ को भी अपने यहाँ शरण दी जिससे उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। ऐसी स्थिति में युद्ध को टाला नहीं जा सकता था।
(vi) सुविधाओं का अनुचित उपयोग – मुगल शासकों द्वारा जो सुविधायें अंग्रेजों को दी गई थीं, उसका वे दुरूपयोग कर रहे थे। अपने माल के साथ भारतीय व्यापारियों के माल को भी वह अपना माल बताकर चुंगी को बचा लेते थे और उनसे स्वयं चुंगी लेते थे। इससे आपसी संबंध कटु होते गये और युद्ध की स्थिति स्पष्ट नजर आने लगी।
(vii) उत्तराधिकार के मामलों में हस्तक्षेप – अंग्रेज़ सिराजुद्दौला के विरोधी उत्तराधिकारियों के पक्ष में झुक रहे थे। ढाका के शासक की विधवा बेगम तथा उसकी मौसी के पुत्र शौकत जंग का अंग्रेज समर्थन किया करते थे। ऐसी परिस्थिति में सिराजुद्दौला उनसे रुष्ट हो गया और उनसे युद्ध करने की ठान ली।
सिराजुद्दौला ने रुष्ट होकर अंग्रेजों को बंगाल से निष्कासित करने का दृढ़ निश्चय कर लिया। उसने जनवरी 1756 में कासिम बाजार में स्थित अंग्रेजी कारखाने पर अधिकार कर लिया। तत्पश्चात् वह कलकत्ता की ओर चला। 18 जून, 1756 को नवाब ने कलकत्ते पर आक्रमण किया तथा उस पर सिराजुद्दौला का अधिकार हो गया। इसी समय काल कोठरी की घटना घटी। जैसे कि इतिहासकारों ने बताया है कि 146 अंग्रेजों को एक कोठरी में बंद करके मार डाला गया। यह घटना ‘ब्लैक हॉल’ के नाम से प्रसिद्ध है। 2 जनवरी, 1757 को कलकत्ता पर मानिक चन्द के विश्वासघात करने के कारण अंग्रेजों का फिर से अधिकार हो गया। अब अंग्रेजों ने सेनापति मीरजाफर तथा सेठ अमीचन्द को अपनी ओर मिलाकर सिराजुद्दौला को परास्त करने की योजना बनाई।
इस बीच क्लाइव ने सिराजुद्दौला पर अलीनगर की संधि भंग करने का आरोप लगाया और 22 जून, 1757 को 3200 सैनिकों को लेकर राजधानी के समीप प्लासी स्थान पर पहुँच गया। सिराजुद्दौला अपनी 50 हजार सेना को लेकर मैदान में आया। 23 जून, 1757 को युद्ध प्रारंभ हुआ। मीरजाफर और राय दुर्लभ अपनी सेनाओं के साथ चुपचाप खड़े रहे। केवल मोहनलाल और मीरमदान ने पूर्ण साहस से शत्रुओं का सामना किया, परंतु अपने प्रमुख सहयोगियों द्वारा विश्वासघात करने पर सिराजुद्दौला का दिल टूट गया। प्लासी के मैदान में उसकी पराजय हुई। 24 जून, 1757 को वह अपनी पत्नी के साथ महल की एक खिड़की से कूदकर भाग गया परंतु वह पकड़ा गया और मीरजाफर के पुत्र मीर द्वारा उसकी हत्या कर दी गई।
प्लासी के युद्ध के परिणाम-
- बंगाल की नवाबी मीरजाफर को मिली।
- 24 परगनों की जमींदारी कंपनी को प्राप्त हुई।
- अमीचन्द को इस युद्ध में निराश रहना पड़ा।
- बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व स्थापित हो गया।
- अंग्रेज अब केवल व्यापारी न होकर शासक हो गया।
- कंपनी का व्यापार पूरे बंगाल में फैल गया।
- अलीवर्दी खाँ के वंश का अंत हो गया।
प्रश्न 18. 1857 के विद्रोह के कारणों को लिखें।
उत्तर: 1857 के सिपाही विद्रोह के महत्त्वपूर्ण प्रमुख कारण निम्नांकित थे-
(i) सामाजिक कारण (Social causes) – अंग्रेजों ने अनेक भारतीय सामाजिक कुरीतियों कोने के लिए कानन बनाया। उन्होंने सती प्रथा को काननी अपराध घोषित कर दिया। उन्होंने विधावा पुनर्विवाह करने की कानूनी अनुमति दे दी। स्त्रियों को शिक्षित किया जाने लगा। रेलवे तथा यातायात के अन्य साधनों को बढ़ावा दिया गया। रूढ़िवादी लोग इन सब कामों को संदेह से देखते थे। उन्हें भय हुआ कि अंग्रेज हमारे समाज को तोड़-मरोड़ कर हमारी सारी सामाजिक मान्यताओं को समाप्त कर देना चाहते हैं। संयुक्त परिवार, जाति, व्यवस्था तथा सामाजिक रीति-रिवाज को वे नष्ट करके अपनी संस्कृति हम पर थोपना चाहते हैं। अतः उनके मन में विद्रोह की चिंगारी सुलग रही थी। अंग्रेज भारतीयों को उच्च पद देने के लिए तैयार न थे। अपने जातीय अहंकार के कारण वे लोग समझते थे कि उनके क्लबों में काले लोग नहीं जा सकते। एक साथ वे एक ही रेल के डिब्बे में यात्रा नहीं कर सकते हैं। वे भारतीयों को निम्न कोटि का समझते थे।
(ii) धार्मिक कारण (Religious causes) – ईसाई धर्म प्रचारक धर्म परिवर्तन करा देते थे। जेलों में ईसाई धर्म की शिक्षा का प्रबन्ध था। 1850 ई० में एक कानून बनाकर ईसाई बनने वाले व्यक्ति को अपनी पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा मिलना निश्चित किया गया। अंग्रेजों ने मंदिरों और मस्जिदों की भूमि पर कर लगा दिया। अतः पंडितों और मौलवियों ने रुष्ट होकर जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध जागृति फैला दी।
(iii) सैनिक कारण (Military causes) – भारतीय एवं यूरोपियन सैनिकों में पद, वेतन पदोन्नति आदि को लेकर भेदभाव किया जाता था। भारतीय सैनिकों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था और उन्हें कम महत्त्व दिया जाता था। उन पर कई प्रकार के प्रतिबंध थे, जैसे वे तिलक, चोटी, पगड़ी या दाढ़ी आदि नहीं रख सकते थे। सामूहिक रसोई होने के कारण भी उच्च वर्ग के (ब्राह्मण और ठाकुर) लोग निम्न वर्ग के लोगों के साथ खाने से प्रसन्न न थे।
(iv) तात्कालिक कारण (Immediate causes) – तात्कालिक कारण कारतूसों में लगी सूअर और गाय की चर्बी थी। नयी स्वफील्ड बंदूकों में गोली भरने से पूर्व कारतूस को दाँत से छीलना पड़ता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही गाय और सूअर की चर्बी को अपने-अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे। अतः उनका भड़कना स्वाभाविक था।
26 फरवरी, 1857 ई. को बहरामपुर में 19वीं नेटिव एनफैण्ट्री ने नये कारतूस प्रयोग करने से मना कर दिया। 19 मार्च, 1857 ई० को चौंतीसवीं नेटिव एनफैण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डेय ने दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला। बाद में उसे पकड़कर फाँसी दे दी गई। सिपाहियों का निर्णायक विद्रोह 10 मई, 1857 को मेरठ में शुरू हुआ।
प्रश्न 19. 1857 के विद्रोह की प्रमुख उपलब्धियों का वर्णन कोजिए।
उत्तर: विद्रोह की उपलब्धियाँ (Achievements of the Revolt) – 1857 का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम चाहे असफल रहा, परन्तु इसकी अनेक उपलब्धियाँ एवं परिणाम बहुत ही महत्त्वपूर्ण थे। यह विद्रोह व्यर्थ नहीं गया। यह अपनी उपलब्धियों के कारण ही हमारे इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं की श्रेणियों में आ सका। इसकी उपलब्धियाँ निम्न थीं-
1. हिन्दू-मुस्लिम एकता (Hindu-Muslim Unity) – इस आन्दोलन एवं संघर्ष के दौरान हिन्दू एवं मुस्लिम न केवल साम्प्रदायिकता की संकीर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर अपने देश में एक सामान्य मंच पर आए, बल्कि देश के लिए लड़े और एक साथ ही यातनायें भी सहीं। अंग्रेजों को यह एकता तनिक भी नहीं भायी। इसलिए उन्होंने शीघ्र ही अपनी ‘फूट डालो एवं शासन करो’ की नीति को और तेज कर दिया।
2. राष्ट्रीय आंदोलन की पृष्ठभूमि (The Background of National Movement) – राष्ट्रीय आन्दोलन एवं स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष की पृष्ठभूमि इस विद्रोह ने तैयार की। इस संग्राम ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता के जो बीज बोए उसी का फल 15 अगस्त, 1947 को प्राप्त हुआ।
3. देशभक्ति की भावना का प्रसार (Spread ofPatriotic Feelings) – इस संग्राम ने भारतीय जनता के मस्तिष्क पर वीरता, त्याग एवं देशभक्तिपूर्ण संघर्ष की एक ऐसी छाप छोड़ी कि वे अब प्रान्तीय एवं क्षेत्रीयता की संकर्ण भावनाओं से ऊपर उठकर धीरे-धीरे राष्ट्र के बारे में एक सच्चे नागरिक की तरह सोचने लगे। विद्रोह के नायक सारे देश के लिए प्रेरणा के स्रोत एवं घर-घर में चर्चित होने वाले नायक बन गए। यह इस आन्दोलन की एक महान उपलब्धि थी।
4. देषी राज्यों को मारत (Relifeofthe Princelv States) – देशी राजाओं को अंग्रेजी सरकार ने यह आश्वासन दिया कि भविष्य में उनके राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य का अंग नहीं बनाया जाएगा। उनका अस्तित्व स्वतन्त्र रूप से बना रहेगा। इसलिए अधिकांश देशी राजाओं ने ब्रिटिश शासन का समर्थन करना शुरू कर दिया। भारतीय शासकों को दत्तक पुत्र लेने का अधिकार दे दिया गया। इससे अनेक शासकों ने राहत की साँस ली।
5. भारतीयों को सरकारी नौकरियों की घोषणा (Govt. Service to the Indians) – सैद्धान्तिक रूप में भारतीय सर्वोच्च पदों पर धीरे-धीरे प्रगति करके जा सकते थे। सरकारी घोषणा की गई थी कि भारतीयों के साथ जाति एवं रंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा; लेकिन अंग्रेजों ने अपना वायदा पूरा नहीं किया, जिससे राष्ट्रीय आन्दोलन बराबर बढ़ता गया।
6. धार्मिक हस्तक्षेप समाप्त कर दिया गया (The Religious Interference Ended) – सैद्धान्तिक रूप से भारतीय प्रजा को पूर्ण धार्मिक स्वतन्त्रता का विश्वास दिलाया गया, लेकिन व्यावहारिक रूप में हिन्दू और मुसलमानों में धार्मिक घृणा एवं साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया गया।
प्रश्न 20. “ईस्ट इंडिया कम्पनी काल में जोतदारों का उदय” विषय पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: जोतदारों का उदय (The rise of the Jotedars)-
(i) वे धनी किसान थे जिन्होंने अठारहवीं शताब्दी में कुछ गाँवों, समूहों, में अपनी स्थिति मजबूत कर ली थी।
(ii) 19वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों तक आते-आते जोतदारों के जमीन के बड़े-बड़े रकबे (भूखंड), जो कभी-कभी कई हजार एकड़ में फैले थे, प्राप्त कर लिए थे।
(ii) जोतदारों का स्थानीय ग्रामीण व्यापार और साहूकारों के कारोबार पर नियंत्रण था। वे अपने क्षेत्र के गरीब काश्तकारों पर व्यापक शक्ति का प्रयोग करते थे।
(iv) जोतदारों की जमीन का बड़ा भाग बटाईदारों के माध्यम से जोता जाता था जो खुद अपना हल लाते थे, जोतदारों के खेतों में काम करते थे और फसल की उपज का 50 प्रतिशत जोतदारों को दे देते थे।
(v) गाँव में जोतदारों की शक्ति, जमींदारों की शक्ति से ज्यादा प्रभावशाली थी। जमींदार तो शहरों में रहते थे जबकि जोतदार गाँव में ही रहा करते थे। गाँव में रहने वाले गरीब लोगों के काफी बड़े तबके पर उनका सीधा नियंत्रण होता था।
(vi) जोतदारों का जमींदारों से टकराव होता था इसके कई कारण थे। प्रथम, जब जमींदार गाँव की जमा (लगान) बढ़ाने की कोशिश करते थे तो जोतदार उसका विरोध करते थे। दूसरे जमींदारों की अधिकारियों को अपने कर्तव्य का पालन करने से रोकते थे। तीसरा, जो रैयत उन पर निर्भर रहते थे उन्हें वे अपने पक्ष में एकजुट रखते थे और जमींदारों से खुन्दक निकालने के लिए वे रैयतों को राजस्व के भुगतान में जानबूझकर देरी करने के लिए उकसाते रहते थे। चौथा, जब जमींदारी की भू-सम्पदाएँ नीलाम होती थीं तो जोतदार उनकी जमीनों को खरीदकर कटे पर नमक छिड़कने का काम करते थे।
(vii) संक्षेप में कहा जा सकता है उत्तरी बंगाल में जोतदार सर्वशक्तिशाली थे। उनके उदय होने से जमींदारों के अधिकारों का कमजोर पड़ना स्वाभाविक था। कई स्थानों पर जोतदारों को हवलदार या मंडल या गाँटीदार भी कहते थे। प्रायः जमींदार जोतदारों को पसंद नहीं करते थे क्योंकि जोतदार बड़ी-बड़ी जमीनें जोतने और अपनी उभरी हुई स्थिति के कारण कठोर और जिद्दी भी थे।
प्रश्न 21. ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा की गई भू-राजस्व व्यवस्थाओं और सर्वेक्षण पर लेख लिखिए।
उत्तर: भू-राजस्व व्यवस्था तथा सर्वेक्षण (Land Revenue Systems and Surveys)
(a) स्थायी बंदोबस्त (Permanent Settlement)-
- बंगाल में स्थायी बंदोबस्त 1793 में लागू किया गया था। इस व्यवस्था में भूमि जमींदारों को स्थायी रूप से दी दी जाती थी और उन्हें एक निश्चित धनराशि सरकारी कोष में जमा करनी पड़ती थी।
- इससे जमींदारों को कानूनी तौर पर मालिकाना अधिकार मिल गये। अब वे किसानों से मनमाना लगान लेते थे।
- इस व्यवस्था से सरकार को लगान के रूप में बँधी-बँधाई धनराशि मिल जाती थी।
- इस व्यवस्था से नये जमींदारों का जन्म हुआ, जो शहरों में बड़े-बड़े बंगलों में और तरह-तरह की सुख-सुविधाओं के साथ रहते थे। गाँव में उनके कारिन्दे किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार करके भूमि कर ले जाते थे। जमींदार को किसानों को दुःख-सुख से कोई लगाव न था।
- किसानों को बदले में सिंचाई या ऋण सुविधा नाममात्र को भी नहीं मिलती थी।
(b) रैयतवाड़ी व्यवस्था (Raiyatwari System) – दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम भारत में रैयतवाड़ी बंदोबस्त लागू किया गया जिसके अंतर्गत किसान भूमि का मालिक था यदि वह भू-राजस्व का भुगतान करता रहा। इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना है कि यह वही व्यवस्था है, जो भारत में पहले से थी। बाद में यह व्यवस्था मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों में भी लागू कर दी गई। इस व्यवस्था में 20-30 वर्ष बाद संशोधन कर दिया जाता था तथा राजस्व की राशि बढ़ा दी जाती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में निम्नलिखित त्रुटियाँ थीं-
- भू-राजस्व 45 से 55 प्रतिशत था, जो बहुत अधिक था।
- भू-राजस्व बढ़ाने का अधिकार सरकार ने अपने पास रखा था।
- सूखे अथवा बाढ़ की स्थिति में भी पूरा राजस्व देना पड़ता था। इससे भूमि पर किसान का प्रभुत्व कमजोर पड़ गया।
प्रभाव –
- इससे समाज में असंतोष और आर्थिक विषमता का वातावरण छा गया।
- सरकारी कर्मचारी किसानों पर अत्याचार करते रहे तथा किसानों का शोषण पहले जैसा .. ही होता रहा।
(c) महालवाडी प्रथा (Mahalwari Systemi) –
- इस व्यवस्था के अंतर्गत मालगजारी का बंदोबस्त अलग-अलग गाँवों या जागीरों (महलों) के आधार पर उन जमींदारों या उन परिवारों के मुखिया के साथ किया गया जो भूमि कर के स्वामी होने का दावा करते थे।
- अब अपनी भूमि बेचकर भी किसान भू-राजस्व दे सकता था। अगर वह भू-राजस्व समय पर नहीं देता था तो सरकार उनकी भूमि नीलाम करवा सकती थी।
प्रश्न 22. स्थायी बंदोबस्त से आप क्या समझते हैं ? इसके लाभ एवं हानियों का वर्णन करें।
उत्तर: बंगाल का स्थायी बन्दोबस्त (Permanent Settlement of Bengal) – बंगाल की राजस्व व्यवस्था में सुधार करके लॉर्ड कॉर्नवालिस ने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उसके द्वारा प्रतिपादित व्यवस्था ही बाद में “स्थायी बन्दोबस्त” के नाम से प्रसिद्ध हुई।
स्थायी बन्दोबस्त के लिये उत्तरदायी परिस्थितियाँ : वारेन हेस्टिंग्स ने कम्पनी की आय में वृद्धि करने के विचार से भूमि को पाँच वर्ष के लिये और बाद में केवल एक वर्ष के लिये ठेके पर देना आरम्भ किया था। ठेके पर भूमि देने की यह प्रणाली अत्यन्त असन्तोषजनक और दोषपूर्ण सिद्ध हुई। उसमें अनेक दोष थे-
- उत्साह तथा जिद्द में आकर जमींदार अधिक से अधिक बोली लगाते थे, परन्तु वे भूमि की आय से इतनी राशि नहीं प्राप्त कर पाते थे, इस कारण सरकार का बहुत-सा धन बिना वसूल किये ही रह जाता था।
- जमींदारों को यह भी विश्वास नहीं होता था कि अगले वर्ष भूमि उनको मिलेगी अथवा नहीं, इस कारण वह भूमि की दशा को सुधारने का कोई प्रयास नहीं करते थे, परिणामस्वरूप भूमि ऊसर होने लगी।
- एक वर्ष के ठेके में अपनी धनराशि को पूरा करने के लिये जमींदार कृषकों पर बहुत अत्याचार करते थे।
बंगाल का स्थायी भूमि प्रबन्ध : इंगलैंड की सरकार को लॉर्ड कॉर्नवालिस के भारत आने के पूर्व ही भूमि ठेके पर देने के दोषों का पता चल चुका था। इसी कारण सन् 1784 के पिट्स इण्डिया ऐक्ट (Pit’s India Act) में कम्पनी के संचालकों को स्पष्ट आदेश दिया गया था कि वे भारत में वहाँ की न्याय व्यवस्था तथा संविधान के अनुसार उचित भूमि व्यवस्था लागू करें। अप्रैल 1784 ई० में जब कॉर्नवालिस भारत आ रहा था तो कम्पनी के संचालकों ने उसे स्पष्ट निर्देश दिए थे कि वह पिट्स इण्डिया ऐक्ट की धाराओं के अनुसार भारत में भूमि कर निश्चित कर दें।
लॉर्ड कॉर्नवालिस शीघ्रता से कोई कार्य नहीं करना चाहता था। उसने भूमि कर की जाँच-पड़ताल का कार्य बंगाल प्रशासन के एक अनुभवी सदस्य सर जान शोर को दिया। उसने सम्पूर्ण लगान व्यवस्था का लगभग तीन वर्ष तक अध्ययन किया। उसकी रिपोर्ट के आधार पर कॉर्नवालिस ने दस वर्ष के लिए भूमि जमींदारों को सौंप दी। जब यह परीक्षण सफल रहा तो कॉर्नवालिस ने उसे एक स्थायी रूप दे दिया और भूमि सदा के लिए जमींदारों को सौंप दी गई। इस व्यवस्था की प्रमुख विशेषतायें इस प्रकार थीं-
(i) अभी तक जमींदारों की कानूनी स्थिति यह थी कि वे भूमिकर एकत्रित करने के अधिकारी तो थे, परन्तु भूमि के स्वामी नहीं थे, परन्तु अब उनको भूमि का स्थायी रूप से स्वामी मान लिया गया।
(ii) अब उन्हें नित्यप्रति दिये जाने वाले उत्तराधिकार के शुल्क से भी मुक्ति मिल गई।
(iii) इसके अतिरिक्त जमींदारों से लिया जाने वाला कर भी निश्चित कर दिया गया, परन्तु उसकी रकम में वृद्धि की जा सकती थी। यह निश्चित किया गया कि सन् 1793 ई० में किसी जमींदार को लगान से जो कुछ भी प्राप्त होता था, सरकार भविष्य में उसका 10/11 भाग लिया करेगी, शेष धन का अधिकारी जमींदार रहेगा।
स्थायी बन्दोबस्त से लाभ : मार्शमैन तथा आर० सी० दत्त जैसे विद्वानों ने स्थायी बन्दोबस्त की अत्यन्त प्रशंसा की है। मार्शमैन ने इसे एक अत्यन्त बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य बताया है। इसी प्रकार इतिहासकार आर० सी० दत्त का कथन है, लॉर्ड कार्नवालिस द्वारा प्रतिपादित स्थायी भूमि व्यवस्था, अंग्रेजों द्वारा किए गए कार्यों से सर्वाधिक बुद्धिमत्तापूर्ण तथा सफल कार्य था।”
स्थायी भूमि व्यवस्था के अनेक लाभ इस प्रकार हैं-
(i) जमींदारों के लिए लाभदायक- भूमि के इस स्थायी बन्दोवस्त का लाभ जमींदार वर्ग को ही रहा। उन्हें भूमि का स्वामित्व प्राप्त हो गया। समय के साथ-साथ भूमि से अधिक उत्पादन होने लगा जिससे जमींदार समृद्धशाली हो गये।
(ii) बार-बार भूमि कर निश्चित करने के झंझट से मुक्ति- इस व्यवस्था से सरकार और जमींदार दोनों को ही प्रतिवर्ष भूमि कर निश्चत करने वाली कठिनाइयों से मुक्ति मिल गई।
(iii) सरकार की आय का निश्चित होना-स्थायी प्रबन्ध से भूमि-कर की रकम निश्चित कर दी गई, परिणामस्वरूप सरकार की आय भी निश्चित हो गई तथा अब सरकार सरलता से बजट बना सकती थी।
(iv) प्रशासन की कार्यकुशलता में वृद्धि-स्थायी को अपना अधिकांश समय भूराजस्व एकत्रित करने तथा उससे संबंधित समस्याओं की ओर लगाना पड़ता था। परन्तु स्थायी व्यवस्था के परिणामस्वरूप सरकार को राजस्व संबंधी समस्याओं से मुक्ति मिल गई। अब सरकार अन्य प्रशासनिक कार्यों की ओर ध्यान दे सकती थी।
(v) उत्पादन तथा समृद्धि में वृद्धि-स्थायी व्यवस्था के फलस्वरूप भूमि की दशा में सुधार होने लगा और अधिक से अधिक अन्न का उत्पादन होने लगा।
(vi) ब्रिटिश सरकार को स्थिरता प्राप्त होना- स्थायी बन्दोवस्त के कारण बंगाल में अंग्रेजी सरकार का आधार सुदृढ़ हो गया। अंग्रेजों ने जमींदारों को भूमि का स्वामी बना दिया था। इसी कारण वे सरकार के प्रबल समर्थक बन गये और सन् 1857 की क्रांति के समय अंग्रेजों के भक्त बने रहे। डॉ. ईश्वरी प्रसाद के अनुसार “राजनैतिक दृष्टि से भी यह कार्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण था। जमींदार ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा तथा उसके बने रहने में रूचि लेने लगे। विद्रोह के समय भी उनकी वफादारी दृढ़ रही। इस दृष्टिकोण से यह व्यवस्था अत्यन्त सफल रही।”
स्थायी बन्दोबस्त से हानि : मिल, थार्नटन और होम्ज आदि कुछ इतिहासकारों ने स्थायी व्यवस्था की कड़ी आलोचना की है। उनके अनुसार इस व्यवस्था में अनेक दोष थे-
(i) आरम्भ में जमींदारों पर उल्टा प्रभाव-प्रारम्भ में अनेक जमींदार परिवार नष्ट हो गये, क्योंकि उन्होंने अपना समस्त धन भूमि को सुधारने पर व्यय कर दिया, परन्तु उत्पादन में उस अनुपात में वृद्धि नहीं हुई, इस कारण वह अपनी रकम को जो उस समय के अनुसार बहुत अधिक थी समय पर जमा न कर सके, फलतः बिक्री के नियम जो कि विनाशकारी नियम के नाम से भी प्रसिद्ध था, के अनुसार उनकी बिक्री कर दी गई।
(ii) कृषकों के हितों की उपेक्षा-स्थायी बन्दोबस्त में कृषकों के अधिकारों तथा हितों का तनिक भी ध्यान नहीं रखा गया तथा उन्हें पूर्ण रूप से जमींदारों की दया पर ही छोड़ दिया गया। जमींदार उन पर अनेक प्रकार के अमानवीय अत्याचार करते थे। उन्होंने किसानों से अधिकाधिक धनं बटोरना प्रारम्भ कर दिया।
(iii) राज्य के भावी हितों की अवहेलना-स्थायी व्यवस्था के द्वारा राज्य के भावी हितों की भी उपेक्षा की गई। समय के साथ-साथ भूमि से प्राप्त होने वाली आय में वृद्धि होने लगी, परन्तु राजकीय भाग निश्चित था, इस कारण बढ़ी हुई आय से सरकार को एक पैसा भी नहीं सका।
(iv) खेती करने वालों पर करों का भारी बोझ-समय के साथ-साथ सरकार के व्यय में वृद्धि हो रही थी, परन्तु वह जमींदारों से एक पाई भी अधिक लेने में असमर्थ थी। इस कारण जमींदारी से होने वाले घाटे को सरकार अन्य व्यक्तियों पर भारी कर लगाकर पूरा करती थी। इस प्रकार जमींदारों के लाभ के लिए अन्य लोग करों के भार से दब गए जो पूर्णतया अन्याय था।
(v) अन्य प्रान्तों पर भार- समय व्यतीत होने पर सरकार के लिए बंगाल एक घाटे का प्रान्त बन गया। बंगाल के अकृषक वर्ग पर भी कर लगाने से जब यह घाटा पूरा न हुआ तब सरकार ने बाध्य होकर अन्य प्रान्तों पर भारी कर लगाये।
प्रश्न 23. असहयोग आन्दोलन के क्या-क्या कारण थे ? यह स्थगित क्यों हुआ ?
उत्तर: असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि में अनेक कारण थे जिनका वर्णन निम्नलिखित तथ्य बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-
1. युद्ध के बाद भारतीयों में असंतोष – प्रथम विश्वयुद्ध के समय में भारत ने ब्रिटिश सरकार को पूर्ण सहयोग दिया था। ब्रिटेन ने यह युद्ध स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर लड़ा था। ब्रिटिश विजय में भारतीयों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसे स्वयं अंग्रेजों ने स्वीकार किया था। भारतवासियों को यह विश्वास था कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन संसार को दिये गए अपने वचनों का पालन करेगा। भारत के अधिकाशं जागरूक व्यक्ति यह आशा करने लगे कि उन्हें “स्व-शासन” अब मिलने ही वाला है परन्तु स्वायत्त शासन के नाम पर भारत को माण्टफोर्ड सुधार दिये गए जिससे कि भारतीयों में असंतोष फैला जो कि असहयोग आन्दोलन का एक कारण बना।
2. भारतीय अर्थव्यवस्था पर युद्ध का प्रभाव – प्रथम विश्वयुद्ध का आर्थिक परिणाम भी बड़ा बुरा हुआ। सभी आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया। इस अभाव के कारण वस्तुओं का मूल्य बढ़ गया था।, चोर बाजारी बढ़ गयी थी। विभिन्न उपायों द्वारा सरकार ने जनता से युद्ध के लिए धन एकत्र किया था। करों में भी वृद्धि कर दी गयी थी। इन कारणों से जनता को भयंकर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। युद्ध के बाद देश में प्लेग, इन्फ्लुएंजा आदि महामारियों का प्रकोप हुआ। इसी समय देश को भयंकर अकाल का भी सामना करना पड़ा। फलतः जनता की आर्थिक स्थिति बहुत ही सोचनीय हो गई। इस आर्थिक असंतोष के कारण कई जगहों पर बलवे हुए, हड़तालें हुई और भूखी जनता ने लूट-पाट भी की। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक असंतोष ने लोगों में अंग्रेजों के प्रति घृणा पैदा कर दी। फलतः सभी लोग असहयोग के लिए तैयार हो गए।
3. सेना संबंधी नीति – युद्ध के दौरान लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए बाध्य कर दिया गया। लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद बहुत से सैनिकों को नौकरी से अलग कर दिया गया। फलतः लोगों में असंतोष फैला जो कि असहयोग आन्दोलन का एक कारण बना।
4. सरकार की दमनकारी नीति – असहयोग आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण कारण सरकार की दमनकारी नीति भी थी। शासन के द्वारा एक ओर तो युद्ध में सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा था, दूसरी ओर वह निर्ममता पूर्वक दमन चक्र का प्रयोग कर रही थी। राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के लिए शासन द्वारा प्रेस अधिनियम और द्रोहात्मक अधिनियम का सहारा लिया गया। बंगाल और पंजाब में इस दमन चक्र का खुलकर प्रयोग किया जा रहा था और सरकार के इन दमन कार्यों ने क्रांतिकारियों के दृढ़ संगठन को जन्म दिया।
5. रॉलेट ऐक्ट – युद्ध के दौरान भारत में क्रांतिकारी सक्रिय रहे। उन्हें दबाने के लिये अंग्रेजों ने विशिष्ट अधिकारों के अंतर्गत अपना दमन-चक्र चलाया। युद्ध के बाद इस दमनचक्र की कोई आवश्यकता नहीं थी। परन्तु शासन क्रांतिकारियों के भय से आतंकित था। उसने अपना दमन चक्र बन्द नहीं किया, बल्कि इसको विधिवत रूप देने के लिए उसने एक आयोग स्थापित किया। आयोग की अध्यक्षता सर सिडनी रॉलेट ने की। अप्रैल 1918 में रॉलेट महोदय ने अपनी रिपोर्ट दी, जिसके आधार पर रॉलेट अधिनियम पास किया गया। इस अधिनियम के अनुसार शासन को किसी भी व्यक्ति को संदिग्ध घोषित कर, बिना दोषी सिद्ध किये, जेल में बंद करने का अधिकार दिया गया।
महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि वे इस काले कानून के विरोध में आंदोलन चलायेंगे। अतः उन्होंने घोषणा की कि 6 अप्रैल को सारे भारत में रॉलेट अधिनियम को ‘मातम दिवस’ मनाया जाय। उनकी पुकार पर भारत के अनेक नगरों में हड़तालें और प्रदर्शन हुए। इस आन्दोलन की तीव्रता को देखकर शासन ने गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया। परन्तु गाँधीजी की गिरफ्तारी ने आग में घी का काम किया। यद्यपि गाँधीजी तो छोड़ दिये गए लेकिन अंग्रेजों की पाशविकता बढ़ गई। जिसके फलस्वरूप पंजाब में जालियाँवाला बाग काण्ड हुआ।
6. जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड (1919) – जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने आग में घी का काम किया। 10 अप्रैल 1919 को पंजाब के प्रसिद्ध नेता डॉ० सत्यपाल तथा किचलू को गिरफ्तार करके किसी अज्ञात स्थान में भेज दिया गया। उसी के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन अमृतसर के जालियाँवाला बाग में एक सभा की गई। हालांकि जनरल डायर ने इस सभा को अवैध घोषित किया था, लेकिन जनता को बाग में एकत्रित होने दिया। जब उसमें हजारों व्यक्ति एकत्रित हो गये तो जनरल डायर 100 भारतीय तथा 50 अंग्रेज सैनिकों को लेकर जालियाँवाला बाग में घुस गया और बिना कोई चेतावनी दिए अपने सिपाहियों को निहत्थी और शांतिमयी सभा पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चे इस सभा में एकत्रित हए थे। बाग से निकलने के लिए एक ही मार्ग था। उसको भी जनरल डायर ने रोक लिया था। परिणामस्वरूप लोग भागने में असमर्थ रहे। फलस्वरूप सरकारी आँकडे के अनसार 379 लोग मारे गये और लगभग 200 घायल हुए, जबकि सेवा समिति के अनुसार मारे जाने वालों की संख्या 500 तथा पंजाब चैम्बर कॉमर्स के अध्यक्ष प्रत्यक्षदर्शी लाला गिरधारी लाल के अनुसार उनकी संख्या 1000 थी।
अमृतसर के अतिरिक्त लाहौर, कसूर एवं गुजरनवाला में भी हिंसा भड़की तथा पंजाब के पाँच जिलों में मार्शल लॉ लगा दिया गया। अमृतसर के जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड का भारतीय जनता के हृदयों पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा जिसकी प्रतिक्रिया हमें असहयोग आंदोलन के रूप में देखने को मिला।
7. हंटर कमिटी की रिपोर्ट – इस घटना से गाँधीजी को बड़ा क्षोभ हुआ और उन्होंने अंग्रेजी सरकार से मांग की कि भारत के वायसराय को वापस बुला लिया जाय तथा इस हत्याकाण्ड के लिए उत्तरदायी अधिकारियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाय। जाँच के लिये नियुक्त हंटर समिति की रिपोर्ट के द्वारा अधिकारियों के कुकृत्य को न्यायपूर्ण ही ठहराया गया। ब्रिटेन की लॉर्डसभा ने जनरल डायर को ब्रिटिश साम्राज्य का शेर कहा तो ब्रिटिश इण्डियन प्रेस ने उसे ब्रिटिश राज्य का रक्षक माना। ऐसी दशा में पंजाब की घटनाओं तथा सरकारी नीति के कारण एक ऐसे वातावरण का निर्माण हुआ, जिसमें क्षुब्धता एवं विरोध की लहर सी दौड़ गयी जिसका परिणाम हमें असहयोग आन्दोलन के रूप में मिला।
8. खिलाफत आन्दोलन – महासमर में तुर्की मित्र राष्ट्र के विरोध में लड़ा था। मुसलमान उसे अपना धर्म गुरु समझते थे। मित्रराष्ट्रों की ओर होना भारतीय मुसलमानों के लिए अपनी धर्म गुरु का विरोध करना था। भारतीय मुसलमानों की ओर से तुर्की के खलीफा की खिलाफत की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया गया। खिलाफत कमिटी ने गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होने का निश्चय किया। परिणामस्वरूप हिन्दुओं तथा मुसलमानों में एक प्रकार की मैत्री स्थापित हो गयी और इस प्रकार खिलाफत आन्दोलन देशव्यापी बना।
इन्हीं सब कारणों के चलते काँग्रेस ने 1920 ई० के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव स्वीकार किया और गाँधीजी को नेतृत्व करने को कहा। इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई। पटाभिसितारमैया ने लिखा है कि “नागपुर काँग्रेस से वास्तव में एक नवीन युग का प्रादुर्भाव होता है। निर्बल, क्रोध और आग्रह भारत के इतिहास में पूर्ण प्रार्थनाओं का स्थान उत्तरदायित्व के एक नवीन भाव तथा स्वावलम्बन की एक नवीन भावना ने ले लिया।
असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम – असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किया गया-
- सरकारी उपाधियाँ पद व अवैतनिक पद त्याग दिए जाएँ।
- स्थानीय संस्थाओं के नामजद सदस्य अपना त्याग पत्र दे दें।
- सरकारी दरबारी, उत्सवों और स्वागत समारोहों का पूर्ण बहिष्कार।
- सरकारी अथवा सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार।
- सरकारी अदालतों के वकीलों का मुवक्किलों द्वारा बहिष्कार।
- विदेशी माल का बहिष्कार किया जाय।
- 1919 के अधिनियम द्वारा निर्मित विधान मण्डलों के निर्वाचनों में खडे उम्मीदवारों को बैठाना और मतदाताओं को खड़े हुए उम्मीदवार को वोट न देने देना।
उपर्युक्त ध्वंसात्मक (Destructive) कार्यक्रम के अलावा असहयोग आन्दोलन के निम्नलिखित रचनात्मक कार्यक्रम भी था-
- स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग किया जाय।
- प्रत्येक घर में चरखे और कताई-बुनाई का प्रचार किया जाय।
- राष्ट्रीय विद्यालय स्थापित किये जाएँ।
- सरकारी अदालतों के स्थान पर पंचायती अदालतों की स्थापना की जाए।
- हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत किया जाय।
- अस्पृश्यता का निवारण किया जाय।
गाँधीजी ने कहा कि यदि जनता ने उपर्युक्त कार्यक्रम का पालन किया तो एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्त हो जायेगा। उन्होंने आगे कहा कि आन्दोलन में अहिंसा का कड़े रूप में पालन किया जाय।
असहयोग आन्दोलन की प्रगति – गाँधीजी का असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय हुआ। सर्वप्रथम गाँधीजी ने स्वयं अपना ‘कैसरे हिन्द’ पदक त्याग दिया। फिर सैकड़ों लोगों ने अपनी पदवियों का परित्याग कर दिया। सुप्रसिद्ध वकील पं० मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि ने अदालतों का बहिष्कार किया। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल एवं कॉलेज छोड़ दिये।
विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। अनेक स्थानों पर विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलाई गयी। स्वदेशी वस्तुओं का खुब प्रचार बढ़ा। इस समय अजीब हिन्दू मुस्लिम एकता देखी गई। आन्दोलन में अनेक प्रमुख मुसलमान नेताओं ने भाग लिया। खिलाफत समिति ने मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरी ‘हराम’ बताई। इस अवसर पर लगभग 40 लाख स्वयं सेवक बने। इस प्रकार आन्दोलन अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।
सरकार द्वारा दमन चक्र – नवम्बर 1921 में सम्राट जार्ज पंचम के ज्येष्ठ पुत्र प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आने वाले थे। काँग्रेस ने उनके बहिष्कार का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप सरकार ने आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनपूर्ण कानूनों का सहारा लिया। अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर कोड़े लगवाये गए। सितम्बर 1921 में अली बन्धुओं के जोशीले भाषण के कारण उनको गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु इस घोर दमन और अत्याचार के बाद भी जनता का साहस कम नहीं हुआ।
चौरी-चौरा काण्ड और आन्दोलन का स्थगन – चौरी-चौरा काण्ड के फलस्वरूप गाँधीजी ने अपना असहयोग आन्दोलन एकदम स्थगित कर दिया। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा नामक स्थान पर 5 फरवरी 1922 को एक उत्तेजित भीड़ ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी। पुलिस चौकी में एक सब-इंस्पेक्टर और 21 सिपाहियों को जिन्दा जला दिया गया। इस हिंसात्मक घटना के कारण गाँधीजी की एक बैठक बुलाई जिसमें चौरी-चौरा घटना के कारण सामुहिक सत्याग्रह एवं असहयोग आन्दोलन स्थगित करने का प्रस्ताव कराया। इसी समिति के निर्णय के आधार पर असहयोग आन्दोलन स्थगित हो गया।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय मुक्ति संग्राम के इतिहास में असहयोग आन्दोलन का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात एकाएक नहीं हुआ था बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में अनेक कारण थे जैसे युद्ध के बाद भारतीयों में असंतोष, भारतीय अर्थव्यवस्था पर युद्ध का प्रभाव, सेना संबंधी नीति, सरकार की दमनकारी नीति, रॉलेट ऐक्ट, जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, खिलाफत आंदोलन इत्यादि। असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम भी काफी महत्त्वपूर्ण थे जिसके चलते असहयोग आन्दोलन काफी लोकप्रिय साबित हुआ। इसी बीच चौरी-चौरा काण्ड हुआ। परिणामस्वरूप गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन को बन्द कर दिया।
प्रश्न 24. सविनय अवज्ञा आंदोलन पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर: 1929 ई० में काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में गाँधीजी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने का निर्णय लिया गया।
कार्यक्रम – सविनय अवज्ञा आंदोलन के निम्नलिखित कार्यक्रम थे-
- प्रत्येक गाँव में नमक कानून तोड़कर नमकं बनाया जाए।
- शराब और विदेशी कपड़ों की दूकानों पर धरना (विशेषकर महिलाओं द्वारा) दिया जाए।
- विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाएँ।
- हिन्दु छुआछूत को पूर्णतया छोड़ दें।
- विद्यार्थियों को सरकारी स्कूल व कॉलेजों में पढ़ना बंद कर देना चाहिए।
- सरकारी कर्मचारियों को सरकारी नौकरियाँ छोड़ देनी चाहिए।
(क) आंदोलन का प्रथम चरण-
- डांडी यात्रा-12 मार्च, 1930 को गाँधीजी ने डांडी यात्रा आरम्भ की तथा डांडी के तट पर पहुँचकर समुद्र के जल से नमक बनाकर नमक कानून को भंग किया।
- आंदोलन में तीव्रता-सारे देश में सरकारी कानूनों का उल्लंघन शुरू हो गया। लोगों ने कर देना बंद कर दिया। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया।
- सरकार की दमन-नीति-सरकार की दमन नीति शुरू हुई। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। 1931 ई० के आरंभ में लगभग 90,000 व्यक्ति जेलों में थे।
- प्रथम गोलमेज सम्मेलन-पेशावर में भारतीय सिपाहियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। स्थिति खराब होते देखकर लंदन में 1930 ई० में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया किन्तु, काँग्रेस ने इसका बहिष्कार किया।
- गाँधी-इरविन समझौता-जनवरी 1931 में गाँधीजी एवं दूसरे अन्य नेता रिहा कर दिए गए। मार्च 1931 में गाँधी-इरविन समझौता हो गया। सभी राजनैतिक बंदियों के मुकदमें वापस ले लिए गए और गाँधीजी द्वारा आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
(ख)आंदोलन का दूसरा चरण-
- भारत के लिए नया संविधान बनाने हेतु द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गाँधीजी ने भाग लिया। लेकिन कोई खास नतीजा न निकला। गाँधीजी निराश होकर भारत लौटे।
- पुनः आंदोलन प्रारंभ-गाँधीजी ने पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन दो वर्षों तक चला।
- दमनचक्र इस बार सरकार का दमनचक्र पहले से भी भयानक था। गाँधीजी सहित लगभग एक लाख बीस हजार व्यक्तियों को जेलों में बंद कर दिया गया।
प्रश्न 25. गोलमेज सम्मेलन क्यों आयोजित किये गये? इनके कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर: प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ। सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की थी। इस सम्मेलन में 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें ब्रिटेन के तीनों दलों का प्रतिनिधिमंडल करने वाले 16 ब्रिटिश संसद सदस्य, ब्रिटिश भारत के 57 प्रतिनिधि जिन्हें वायसराय ने मनोनीत किया था तथा देशी रियासतों के 16 सदस्य सम्मिलित थे। काँग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। काँग्रेस की अनुपस्थिति पर ब्रेल्सफोर्ड ने कहा, “सेन्ट जेम्स महल में भारतीय नरेश, हरिजन, सिक्ख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई और जमींदारों, मजदूर संघों और वाणिज्य संघों सभी के प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हुये पर भारत माता वहाँ उपस्थित नहीं थी।
गाँधी-इरविन समझौता-प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। 19 जनवरी, 1931 को बिना किसी निर्णय के यह समाप्त कर दिया गया। यह स्पष्ट हो गया कि काँग्रेस के बिना कोई संवैधानिक निर्णय नहीं लिया जा सकता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड तथा इरविन दोनों को ज्ञात हो गया कि काँग्रेस के बिना किसी संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। देश में उचित वातावरण बनाने के लिए इरविन ने काँग्रेस से प्रतिबंध हटा दिया तथा गाँधीजी तथा अन्य नेताओं को छोड़ दिया। अंततः 5 मार्च, 1931 को गाँधी तथा इरविन में समझौता हो गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस हो गया व द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस ने भाग लेना स्वीकार कर लिया।
दूसरा गोलमेज सम्मेलन-गाँधी-इरविन समझौता के तहत दूसरे गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस को भाग लेना था। काँग्रेस की ओर से एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गाँधी ने भाग लिया। मुस्लिम लीग ने मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया। 7 सितम्बर, 1931 ई० को दूसरा गोलमेज सम्मेलन आरंभ हुआ। गाँधीजी 12 सितम्बर को लंदन पहुँचे। विभिन्न दल व वर्ग अपना-अपना हित देख रहे थे। गाँधीजी ने कहा, “अन्य सभी दल साम्प्रदायिक हैं। काँग्रेस ही केवल सारे भारत और सब हितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर सकती है।”
तीसरा गोलमेज सम्मेलन-भारत मंत्री ने तीसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन 17 नवम्बर, 1932 ई० से 24 दिसम्बर, 1932 ई० तक चला। काँग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया क्योंकि सभी नेता जेल में बंद थे।
प्रश्न 26. माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख प्रावधान क्या थे ?
अथवा, माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख परिणामों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
- 3 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने भारत विभाजन योजना रखी। इसमें संविधान सभा का कार्य जारी रखने को कहा गया। यह भी कहा गया कि यह संविधान उन पर लागू नहीं होगा।
- पंजाब व बंगाल का विधानमंडल मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जिलों के अनुसार बाँटा जायेगा।
- ब्लूचिस्तान के लोगों को आत्म-निर्णय लेने का अधिकार होगा।
- पंजाब, बंगाल सिलहट में संविधान सभा के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव होगा और भारतीय राजाओं को संप्रभुसत्ता लौटा दी जायेगी।
प्रावधान (Provisions)-
- इसमें कहा गया कि ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को भारत की सत्ता ऐसी सरकार को सौंपेगी जिसका निर्माण जनता की इच्छा के अनुसार हुआ हो।
- वर्तमान संविधान सभा में सरकार किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेगी।
- संविधान को उन भागों में लागू किया जायेगा जो उसे लागू करना चाहेंगे।
- इस योजना के अनुसार भारत को दो अधिराज्यों में बाँट दिया जायेगा; भारत और पाकिस्तान दोनों को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दे दी जायेगी।
- यह तय किया गया कि बंगाल और पंजाब में विधान सभाओं के अधिवेशन दो भागों में किए जाएंगे। एक भाग में मुस्लिम बहुमत जिलों के प्रतिनिधि होंगे और दूसरे भाग में हिंदू बहुमत जिले के। प्रत्येक भाग बहुमत के आधार पर फैसला करेगा कि वह उस भाग का विधान चाहते हैं या नहीं।
- सिंध का विधान-सभा तय करे कि वह भारत की संविधान सभा में मिलना चाहती है या नहीं।
- असम के मुस्लिम बहुल प्रांत सिलहट जिले में इस बात का निर्णय जनमत संग्रह द्वारा लिया जायेगा कि वहाँ की जनता समय में या पूर्वी बंगाल (बंगला देश) में रहना चाहती है।
- बलूचिस्तान भी तय करे कि वह भारत में रहेगा या अलग।
- उत्तर-पश्चिम प्रांत में जनमत द्वारा निर्णय होगा।
- यदि बंगाल, पंजाब और असम के द्वारा भारत का विभजन मान लिया जाए तो भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ तय करने के लिए गवर्नर जनरल एक कमीशन बनाएगा।
- भारत और पाकिस्तान राज्यों के बीच लेन-देन विभाजन के लिए भी समझौता होगा।
- देशी रियासतों को भी भारत या पाकिस्तान में अपनी इच्छानुसार मिलने की छूट होगी।
- भारत और पाकिस्तान को राष्ट्रमंडल की सदस्यता रखने या छोड़ने का अधिकार होगा।
प्रश्न 27. 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की मुख्य विशेषताओं पर विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर: भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 (India IndependenceAct, 1947) – माउंटबेटन योजना को 18 जुलाई को ब्रिटिश सम्राट ने विधिवत् स्वीकृति दे दी। इस अधिनियम में कुल 20 धारायें थीं। इनमें से कुछ प्रमुख धाराओं को नीचे बतलाया गया है-
- 15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान नामक दो हिस्से बना दिये जायेंगे और ब्रिटिश सरकार उन्हें सत्ता सौंप देगी।
- दोनों अधिराज्यों का वर्णन किया गया और यह भी बतलाया गया कि बंगाल और पंजाब की विभाजन रेखा निश्चित करने के लिए एक सीमा आयोग होगा।’
- दोनों अधिराज्यों की संविधान सभाओं को शासन की सत्ता सौंपी जायेगी। इन्हें अपना संविधान बनाने का पूर्ण अधिकार होगा।
- इन दोनों अधिराज्यों को अधिकार होगा कि वे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के सदस्य रहें या उसे त्याग दें।
- दोनों के लिए अलग-अलग एक गवर्नर जनरल होगा जिसकी नियुक्ति उनके मंत्रिमंडल की सलाह से होगी।
- इन हिस्सों के विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार होगा। 15 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश सरकार का इन पर कोई अधिकार न होगा, न ही उसका कोई कानून लागू होगा।
- भारत मंत्री का पद समाप्त कर दिया जायेगा।
- जब तक दोनों संविधानों का निर्माण हो तब तक दोनों हिस्सों और प्रांतों का शासन 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार चलेगा, परंतु इन पर गर्वनर जनरल, प्रांतीय गवर्नर का कोई विशेषाधिकार न रहेगा।
- जब तक नए विधान के अनुसार चुनाव होंगे, वर्तमान प्रांतीय विधानमंडल कार्य करेंगे।
- 15 अगस्त, 1947 से ब्रिटिश सरकार की देशी रियासतों पर सर्वोच्चता को समाप्त कर दिया जायेगा। इसके पश्चात् देशी रियासतें नवीन अधिराज्यों से अपने राजनीतिक संबंध स्थापित करने में स्वतंत्र होंगी। अब वे इच्छानुसार भारत और पाकिस्तान में चाहे मिल सकती हैं अथवा स्वतंत्र रह सकती हैं।
- भारतीय नागरिक सेवाओं के सदस्य अधिकारों को बनाए रखा जाए।
प्रश्न 28. भारत का विभाजन क्यों हुआ ?
अथवा, 1947 में भारत के विभाजन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर: कई नेताओं के न चाहने पर भी भारत विभाजन को रोका नहीं जा सका। इसके लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे-
- सन् 1909 के कानून में मुसलमानों के लिए निर्वाचन का अधिकार देकर अंग्रेजों ने उन्हें हिन्दओं से अलग करने का प्रयास किया। ‘फट डालो और शासन करो’ की नीति से मस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग भी और तेजी से बढ़ती गई।
- काँग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ सदा समझौता करने की नीति अपनाई। इससे मुस्लिम लीग को यह आशा हो गई कि यदि वह अपनी माँग पर डटी रही, तो एक न एक दिन पाकिस्तान की माँग मान ली जाएगी।
- मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना की हठधर्मिता के कारण हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे, अतः विवश होकर भारत का विभाजन स्वीकार कर लिया गया।
- साम्प्रदायिक दंगों ने स्थान-स्थान पर नेताओं और जनता को अत्याचार बंद करने को लाचार कर दिया था, अन्यथा पूरा देश रक्त के सागर में डूब जाता।
- सन् 1946 में अंतरिम सरकार में शामिल होने पर मुस्लिम लीग ने काँग्रेस की योजनाओं में रुकावट डालनी प्रारम्भ कर दी। काँग्रेस के नेताओं को भी लगने लगा कि वे मुस्लिम लीग पार्टी के साथ मिलकर सरकार नहीं चला पाएँगे।
- लार्ड माउंटबेटन भारत में राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने के लिए यहाँ का वायसराय बनकर आया था। उसने अपने प्रभाव से काँग्रेस पार्टी को विभाजन के लिए तैयार कर लिया था।
प्रश्न 29. भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का वर्णन करें।
उत्तर: भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इनका स्थान सर्वोच्च है। भारत की स्वाधीनता उन्हीं की भूमिका का फल है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक नये युग का निर्माण किया और जीवन के अंतिम क्षण तक देश सेवा तथा राष्ट्रीय आंदोलन का पथ-प्रदर्शन करते रहे। इसी कारण उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता था। वे शांति के दूत थे। सत्य और अहिंसा उनके हथियार थे। उनका आंदोलन इसी पर आधारित था।
वैसे तो 1914 ई० में उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया था लेकिन 1919 ई० में अत्यंत प्रभावशाली ढंग से राष्ट्रीय आंदोलन को प्रभावित करना शुरू किया और अन्त तक राष्ट्रीय आंदोलन के प्राण बने रहे। 1920 ई० से 1947 ई० तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर उन्हीं के हाथों में रही। इस अवधि में राष्ट्रीय संग्राम के सर्वोच्च नेता के रूप में भारतीय राजनीति का उन्होंने मार्ग दर्शन किया, उसने साधन दिये, उसको नया दर्शन दिया और उसे सक्रिय बनाया। इसी कारण इस अवधि को ‘गाँधी युग’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने असहयोग आन्दोलन करते हुए भारत को स्वतंत्रता दिलाई। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आंदोलन का रूप दिया।
1919 ई० में उन्होंने ‘रॉलेट ऐक्ट’ के विरोध स्वरूप देश व्यापी आंदोलन छेड़ा। जालियाँवाला बाग कांड के बाद आंदोलन को और तीव्र रूप दिया। उन्होंने खिलाफत आंदोलन में भाग लेकर मुसलमानों का दिल जीत लिया। वे हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य और अस्पृश्यता के पक्के विरोधी थे। वे क्रांतिकारी तथा आतंकवादी आंदोलन के भी विरोधी थे।
1 अगस्त, 1920 ई० को अंग्रेजी राज्य का अंत करने के लिए ‘असहयोग आंदोलन’ छेड़ा जिसके तहत विद्यार्थियों ने स्कूल, कॉलेज छोड़ा, वकीलों ने वकालत छोड़ी तथा कई लोग नौकरियाँ छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। वे अहिंसा के इतने बड़े पोषक थे कि जब 1922 ई० में चौरा-चौरी काँड में थाने में आग लगाकर 22 सिपाहियों की हत्या कर दी गई तो दुखित होकर उन्होंने आंदोलन को स्थगित कर दिया । गाँधीजी को कैद कर जेल भेज दिया गया। बाद में अस्वस्थता के आधार पर 1924 ई० में उन्हें जेल से रिहा किया गया।
1927 ई० में जब साइमन कमीशन (जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे) भारत की राजनीतिक स्थिति का जायजा लेने भारत आया तो गाँधीजी के नेतृत्व में समूचे देश में इसका बहिष्कार किया गया। 1930 ई० में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ शुरू किया गया। मार्च 1930 ई० में ‘दांडी यात्रा’ कर नमक कानून को तोड़ा और उस कानून में संशोधन के लिए सरकार को बाध्य किया। दिसम्बर 1931 ई० में गाँधीजी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने इंगलैंड गये। इसकी असफलता पर इंगलैंड से लौटकर 1932 ई० में पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन चालू कर दिया।
8 अगस्त 1932 ई० को ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ की घोषणा के विरुद्ध गाँधीजी ने 20 सितम्बर 1932 ई० में आमरण अनशन शुरू कर दिया। गाँधीजी का जीवन बचाने के लिए गणमान्य नेताओं ने बैठकर एक समझौता किया (जिसमें हरिजन नेता डॉ० अम्बेदकर भी थे), जिसे ‘पूना समझौता’ कहा जाता है। 26 सितम्बर 1932 ई० को इसपर गाँधीजी की मुहर लग गई और तब गाँधीजी ने अपना अनशन तोड़ा।
उसके बाद उन्होंने सारा ध्यान सक्रिय राजनीति से हटाकर हरिजनों की सेवा और उनके उत्थान में लगाया। उन्होंने 1934 ई० के बम्बई अधिवेशन में काँग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया लेकिन 1935 ई० से वे पुनः सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे। 1940 ई० में गाँधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के समय अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण का प्रलोभन देकर भारतीयों का सहयोग प्राप्त किया था लेकिन जब अंग्रेज अपने वादे से मुकरने लगे तो 7 अगस्त, 1942 ई० को गाँधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया और आंदोलन शुरू कर दिया। 8 अगस्त, 1942 ई० को गाँधीजी सहित कई नेताओं को कैद कर लिया गया। उसी समय उनकी पत्नी कस्तूरबा बाई का देहान्त हो गया। मई 1944 ई० में अस्वस्थता के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया।
1946 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग दुहराई। कई जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। पूर्वी बंगाल में यह दंगा भीषण रूप धारण कर लिया। गाँधीजी ने घूम-घूमकर साम्प्रदायिक एकता बनाये रखने की अपील की। नवम्बर 1946 ई० से फरवरी 1947 ई० तक गाँधीजी ने बंगाल के नोखाअली जिले में गाँव-गाँव घूमकर दंगा पीड़ितों की सेवा की और सहायता कर साम्प्रदायिक अग्नि को शांत करने की कोशिश की। मार्च 1947 ई० से मई 1947 तक बिहार के दंगा पीड़ित क्षेत्रों का दौरा किया। जब वे कलकत्ता में दंगा की आग बुझा रहे थे उसी समय ‘माउन्टबेटन योजना’ के अन्तर्गत 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत को आजाद कर दिया गया। 30 जनवरी 1948 ई० को बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे नामक एक युवक ने प्रार्थना सभा में उन्हें गोलियों का शिकार बना दिया। इस घटना से सम्पूर्ण विश्व मर्माहत हो गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गाँधीजी की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण रही जिसे देश कभी भुला नहीं सकता है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाया तथा जन-आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने शांति, सत्य तथा अहिंसा को आधार बनाकर आंदोलन को एक नया रूप दिया। उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन जैसे सकारात्मक कार्यक्रमों को अपनाया। उन्होंने स्वतंत्रता का बिगुल बजाकर जनता में जागृति पैदा कर उसमें नई जान फूंक दी और लोग मुक्ति हेतु उद्यत हो गये। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग में आये संकटों तथा गतिरोधों को दूर कर आंदोलन की दिशा प्रदान की। इस प्रकार उनकी देन सर्वोपरि एवं अमूल्य है। देश को आजादी दिलाने में उनका सर्वोपरि स्थान है। माउन्टबेटन ने कहा था ‘जिस कार्य को पचास हजार हथियारबन्द सिपाही नहीं कर सके, उसको गाँधीजी ने कर दिखाया, उन्होंने वहाँ शान्ति की स्थापना की। वे अकेला हजारों के समान हैं।”
प्रश्न 30. आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ० बी० आर० अम्बेडकर की देनों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर: डॉ० भीमराव अंबेडकर उस तेजपुंज का नाम है जो प्रकाश ही प्रकाश देता है, लेकिन जलाता नहीं। जीवन को समरसता से ग्रहण करते एवं विसंगतियों से संघर्ष करते हुए अपनी निन्दा एवं स्तुति से आत्मशोध की यात्रा में सदा अग्रसर होने वाले महान सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतक बाबा साहब अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई० में महाराष्ट्र के महू नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रामजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। ये अपने माता-पिता के चौदहवीं संतान थे। ये महार जाति के थे और उस समय महार को अछूत समझा जाता था। अम्बेडकर ने बचपन से ही अछूत होने की पीड़ा को भोगा था और उनका बाल-मन उसी काल से इस दुर्व्यवस्था से आक्रांत हुआ था। मानवमात्र की सेवा में अपने को समर्पित करने वाला व्यक्तित्व दलितों, दुखियों, शोषितों एवं पीड़ितों की दर्दभरी मूक भाषा को अमर स्वर प्रदान करने वाला महामानव समाज में कभी-कभी ही आविर्भूत होता है और वह जन-जन के मन में परमेश्वर की तरह आराध्य बन जाता है। अम्बेडकर उन्हीं प्रतिभाओं में से एक थे।
बचपन से ही ये मेधावी और गहन चिंतक छात्र थे। चौदह वर्ष की उम्र में ही इनका विघाह रामाबाई से हो गया। इसके बाद वे पिता के साथ 1905 ई० में मुम्बई आ गए और 1907 ई० में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1912 ई० में इन्होंने बी० ए० की परीक्षा पास की। ये उच्च शिक्षा के लिए लालायित थे पर आर्थिक कठिनाई रास्ते में रूकावट बनी हुई थी। बड़ौदा नरेश ने मेधावी छात्र की प्रतिभा को कुंठित होते हुए देखा, तो उन्होंने आर्थिक सहायता देना स्वीकार किया। 1913 ई० में अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की सहायता से अमेरिका चले गये। 1915 में इन्होंने वहाँ एम० ए० की डिग्री प्राप्त की और 1916 ई० में इन्हें पी० एच० डी० की डिग्री से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे इंगलैण्ड और जर्मनी भी गए जहाँ उन्होंने डी० एस. और ‘बारर एट लॉ’ की डिग्री प्राप्त की। यहीं पर अम्बेडकर ने संसदात्मक प्रजातंत्र उदारवादी प्रजातंत्र पर गहन अध्ययन किया। इसी अध्ययन-क्रम में वे संसारभर के देशों के संविधानों से परिचित हुए।
अपने देश लौटने पर इन्होंने 1920 ई० में कोल्हापुर के महाराजा की सहायता से ‘मूक नन्ह’ नामक पत्रिका का सम्पादन आरंभ किया, जिसमें सामाजिक विकृतियों पर करारा प्रहार किया। सन् 1923 से 1931 तक का समय अम्बेडकर के लिए कठोर संघर्ष और अभ्युदय का था। इसी बीच वे दलितों के नेता एवं प्रवक्ता के रूप में उभरकर सामने आए। इन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और अंग्रेज शासक से दलितों की गई माँग भारतीय दलितों को इन्होंने कहा-शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो।
1935 ई० में इनकी धर्मपनी का देहांत हो गया। इसी साल इन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की। इन्होंने बहिष्कृत हितकारी सभा, सिद्धांत महाविद्यालय एवं स्वतंत्र मजदूर की स्थापना की। 1946 ई० तक अम्बेडकर की ख्याति देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी थी। 1947 ई० में नेहरूजी के मंत्रिमंडल में इन्हें कानून मंत्री बनाया गया। 21 अगस्त, 1950 ई० को इन्होंने भारत का संविधान राष्ट्र को समर्पित कर दिया। इसी साल वे कोलम्बो गए और दिल्ली में अम्बेडकर भवन का शिलान्यास किया। 1956 ई० में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और 6 दिसम्बर, 1956 ई० को ही इस महामानव का महापरिनिर्वाण हुआ।
वे अछूतों और दलितों के मसीहा, उद्धारकर्ता और पथ-प्रदर्शक थे। 1990-91 ई० में इनकी जन्म-शताब्दी धूम-धाम से मनायी गयी और भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। दलितों को समान अधिकार देना और उनका यथोचित उत्थान करना ही बाबा साहब की सच्ची श्रद्धांजलि 155 होगी। भारत के दलितों एवं पीड़ितों को उन्होंने जो जीवन-संदेश दिया था-‘उठकर आगे बढ़ो’ आज उससे सबों के हृदयतंत्र झंकृत हो रहे हैं और उनमें से मधुर संगीत का स्वर फुट रहा है।
प्रश्न 31. संविधान सभा का गठन कैसे हुआ? संविधान सभा में उठाये गये महत्वपूर्ण मुद्दों का उल्लेख करें।
उत्तर: भारतीय संविधान (Indian Constitution) – भारतीय संविधान का निर्माण 26 नवम्बर, 1949 ई० को हुआ। इसका निर्माण एक संविधान सभा ने किया जिसका निर्वाचन 1946 ई. की कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत हुआ था। संविधान सभा के कुल 296 सदस्यों में से 211 काँग्रेस के तथा 73 मुस्लिम लीग के थे। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 ई० को डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। 11 दिसम्बर, 1946 ई० को स्थायी अध्यक्ष चुने गये। इसके बाद एक संविधान प्रारूप समिति बनायी गयी जिसके अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे। 26 नवम्बर, 1949 ई० को 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन के बाद संविधान बनकर तैयार हुआ और इसे 26 जनवरी, 1950 ई० को लागू किया गया।
संविधान का स्वरूप तैयार करने वाली ऐतिहासिक ताकतें – (i) संविधान का स्वरूप तय करने वाली प्रथम ऐतिहासिक ताकत भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस थी जिसने देश के संविधान को लोकतांत्रिक गणराज्य, धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में भूमिका अदा की थी।
(ii) मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन को बढ़ावा दिया परंतु उदारवादी मुसलमान और वे मुस्लिम जो भारत विभाजन के विरोधी थे और विभाजन के बाद भी विभिन्न दबाव समूहों या राजनैतिक दलों से जुड़े रहे, उन्होंने भी भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने तथा सभी नागरिकों कॊ अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने में संविधान के माध्यम से आश्वस्त किया।
(iii) दलित या तथाकथित दलित और हरिजनों के समर्थक नेताओं ने संविधान को कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता और न्याय दिलाने वाला आरक्षण की व्यवस्था करने वाला, छुआछूत का उन्मूलन करने वाला स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया।
(iv) समाजवादी विचारधारा या वामपंथी विचारधारा वाले लोगों ने संविधान में समाजवादी ढाँचे की सरकार बनाने, भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने और धीरे-धीरे समान काम के लिए समान वेतन, बंधुआ मजदूरी समाप्त करने, जमींदारी उन्मूलन आदि की व्यवस्थायें करने के लिए वातावरण या संवैधानिक व्यवस्थायें तय करने में योगदान दिया।
(v) एन० जी० रांगा और जयपाल सिंह जैसे आदिवासी नेताओं ने संविधान का स्वरूप तय करते समय इस बात की ओर ध्यान देने के लिए जोर दिया कि उनके समाज का गैर मूलवासियों द्वारा शोषण हुआ है। इसलिए आदिवासियों की सुरक्षा तथा उन्हें आम आदमियों की दशा में लाने के लिए संविधान में आवश्यक परिस्थितियाँ बनाने की आवश्यकता है।
प्रश्न 32. संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
उत्तर: भाषा के विवाद को हल करने के उपाय (Methods or Measures to solve the Language Problem)-
(i) भारत प्रारंभ से ही एक बहुत भाषा-भाषी देश है। देश के विभिन्न प्रांतों और हिस्सों में लोग अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग करते हैं, बोलियाँ बोलते हैं। जिस समय संविधान सभा के समक्ष राष्ट्र की भाषा का मामला आया तो इस मुद्दे पर अनेक महीनों तक गरमा-गर्म बहस हुई, कई बार काफी तनाव पैदा हुए।
(ii) आजादी से पूर्व 1930 के दशक तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का मानना था कि प्रत्येक भारतीय को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदी और उर्दू के मेल से बनी हिंदुस्तानी भारतीय जनता की बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी और अनेक संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।
(iii) जैसे-जैसे समय बीता, हिंदुस्तानी भाषा ने अनेक प्रकार के स्रोतों से नए-नए शब्द अपने में समा लिए और उसे आजादी के आने तक बहुत सारे लोग समझने लगे। गाँधीजी को ऐसा लगता था कि यही भाषा देश के समुदायों के बीच आचार-विमर्श का माध्यम बन सकती है। हिंदू और मुस्लमानों को एकजूट कर सकती है।
(iv) दुर्भाग्यवश हिंदी और उर्दू पर साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिक दंगों और साम्प्रदायिकता से प्रेरित राजनीति और धार्मिक संकीर्णता का कुप्रभाव पड़ने लगा। हिंदी और उर्दू परस्पर दूर होती जा रही थी। मुसलमान फारसी और उर्दू से ज्यादा से ज्यादा शब्द हिंदी से मिला रहे थे तो अनेक हिंदू भी संस्कृतनिष्ठ शब्दों को ज्यादा से ज्यादा हिंदी में ले रहे थे। परिणाम यह हुआ कि भाषा भी धार्मिक पहचान का राजनतिक हिस्सा बन गई। लेकिन महात्मा गाँधी जैसे महान नेताओं के हिंदुस्तानी (भाषा) के साझे चरित्र में आस्था कम नहीं हुई।
(v) संयुक्त प्रांत के एक कांग्रेसी सदस्य आर० वी० धुलेकर ने आवाज उठाई थी, हिंदी को संविधान बनाने की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए। धुलकर ने उन लोगों का विरोध किया जिन्होंने यह तर्क दिया कि संविधान सभा के सभी सदस्य हिंदुस्तानी भाषा नहीं समझते।।
आर० वी० धुलेकर ने कहा था, “इस सदन में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा की सदस्यता के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिए।”
(vi) धुलकर की टिप्पणियों से संविधान सभा में हंगामा खड़ा हो गया। अंत में जवाहरलाल के हस्तक्षेप से संविधान सभा में शांति स्थापित हुई। लगभग तीन वर्षों के बाद 12 सितम्बर, 1947 को राष्ट्र की भाषा के प्रश्न पर आर. वी. धुलेकर के भाषण ने एक बार फिर तूफान खड़ा कर दिया। तब तक संविधान सभा की भाषा समिति अपनी रिपोर्ट पेश कर चुकी थी। समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिंदी के समर्थकों और विरोधियों के बीच पैदा हो गए गतिरोध को तोड़ने के लिए फार्मूला विकसित कर लिया था। समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिर्दै भारत की राजकीय भाषा होगी परंतु इस फार्मूले को समिति ने घोषित नहीं किया था।
(vii) भाषा संबंधी समिति का यह विचार था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के मामले में हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए।
(viii) कुछ लोगों का विचार था कि संविधान लागू होने के बाद लगभग पंद्रह वर्षों के बाद तक ब्रिटिश काल की तरह सरकारी कामकाज में अंग्रेजी को जारी रखा जाए। हर प्रांत को अपने कार्यों के लिए कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा। संविधान सभा की समिति ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की बजाय राज भाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावना को शांत करने और सर्वस्वीकृत समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया था।
(ix) आर० बी० धुलेकर ने उन लोगों का मजाक उड़ाया जो गाँधी का नाम लेकर हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे। मद्रास के सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने आर० बी० धुलेकर के वक्तव्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि, “अध्यक्ष महोदय, गैर हिंदी भाषायी क्षेत्रों के लोगों को यह महसूस कराया जा रहा है कि भाषा संबंधी झगड़ा या हिंदी भाषा क्षेत्रों का यह दृष्टिकोण वस्तुतः एक राष्ट्र की सांझी संस्कृति पर भारत की दूसरी उन्नत भाषाओं के स्वाभाविक प्रभाव को रोकने की लड़ाई बनाई जा रही है।” उन्होंने आगे कहा हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़ें खोदने के प्रयास के तुल्य हैं।”
अंततः कुछ सदस्यों ने दक्षिण भारत से जिनमें महाराष्ट्र, मद्रास आदि के सदस्यों के प्रयासों से सम्पूर्ण सदस्यों को यह अहसास करा दिया कि हिंदी के लिए जो भी किया जाए, बड़ी सावधानी से किया जाए तभी इस भाषा का भला हो जाएगा। सभी सदस्यों ने हिंदी की हिमायत को स्वीकार किया लेकिन इनके वर्चस्व को अस्वीकार कर दिया।
कालांतर में देश की सभी क्षेत्रीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया। शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रभाषा बनाए जाने के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी को वर्षों तक सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया। हिंदी अधिकांश राज्यों की प्रमुख भाषा है लेकिन इसका प्रचार अब लोकतांत्रिक ढंग से स्वयं होता जा रहा है। जनसंचार माध्यम, दूरदर्शन, रेडियो, प्रेस, साहित्य, फिल्में इसके प्रचार-प्रसार में प्रशंसनीय योगदान दे रहे हैं।