Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 1
Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 1
BSEB 12th History Important Questions Long Answer Type Part 1
प्रश्न 1. प्राचीन भारतीय इतिहास के अध्ययन के विभिन्न स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर: सुविधा के दृष्टिकोण से प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के साधनों को दो विस्तृत वर्गों में विभक्त किया जा सकता है, यथा-साहित्यिक सामग्री एवं पुरातात्विक अवशेष। जहाँ पर साहित्य हमारी मदद नहीं करते वहाँ हमें पुरातात्विक सामग्री का सहारा लेना पड़ता है। वैसे तो साहित्यिक साधनों का इतिहास-लेखन में अपना महत्त्व है ही, परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से पुरातात्विक सामग्री इसलिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह साहित्य में उपलब्ध विवरणों की पुष्टि करने में सहायक सिद्ध होती है।
साहित्यिक स्रोत
देशी साहित्य – साहित्यिक साधनों में सबसे प्रमुख देशी साहित्य हैं। इनकी भी दो श्रेणियाँ हैं-धार्मिक ग्रन्थ और ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक एवं अन्य प्रकार की समकालीन रचनाएँ जो भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालती है। सबसे पहले हम धर्मग्रन्थों को लें।
ब्राह्मण धर्मग्रन्थ-वेद – धर्मग्रन्थों की श्रेणी में सबसे प्रमुख वैदिक साहित्य है। यह आर्यों के आगमन, उनके निवास, उनके प्रसार, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर यथेष्ट प्रकाश डालता है। इन ग्रन्थों में श्रेष्ठतम एवं प्राचीनतम स्थान चार वेदों-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का है। इनमें सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण ऋग्वेद है। इसकी रचना संभवतः आर्य भारत-आगमन के पहले ही कर चुके थे। यह ग्रन्थ आर्यों के प्रारंभिक जीवन के विषय में विस्तृत जानकारी देता है। अन्य वेदों से भी आर्यों के जीवन, उनके क्रियाकलाप, उनके धार्मिक एवं सामाजिक अनुष्ठानों पर यथेष्ट प्रकाश पड़ता है।
ब्राह्मण – वेदों के बाद ब्राह्मण ग्रन्थों का स्थान आता है। ये पद्य में विरचित वेदों की टीका है और मुख्यतया यज्ञों एवं धार्मिक अनुष्ठानों का विवरण प्रस्तुत करते हैं, परन्तु अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों पर भी इनसे प्रकाश पड़ता है। इनमें सबसे प्रमुख शतपथ ब्राह्मण है। उदाहरणस्वरूप शतपथ ब्राह्मण में राजसूय यज्ञ का जो वर्णन है उससे उत्तर-वैदिककाल में आर्यों की राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति की भी झाँकी मिलती है।
आरण्यक और उपनिषद् – आरण्यक और उपनिषद् भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। यद्यपि मूलतः ये भी धार्मिक ग्रन्थ ही हैं, परन्तु इनमें एक नयी बात देखने को मिलती है। ये ग्रन्थ दार्शनिक प्रश्नों, यथा-ईश्वर एवं आत्मा के अस्तित्व पर भी विचार करते हैं। आरण्यक प्रारम्भिक ग्रन्थ हैं जो दार्शनिक प्रश्नों पर विचार करते हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण आरण्यक हैं-ऐतरीय, तैतरीय, मैत्रायणी इत्यादि। इन्हें संहिता भी कहा जाता है।
स्मृति – स्मृति साहित्य भी हमारे लिए काफी महत्त्वपूर्ण है। ये ग्रन्थ विभिन्न विषयों पर प्रकाश डालते हैं। इनमें राजा के अधिकारों एवं कर्त्तव्यों से लेकर जन-साधारण के सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक विधानों की चर्चा है। यह सत्य है कि ये सभी ग्रन्थ राजनीतिक इतिहास की जानकारी के दृष्टिकोण से बहत लाभदायक नहीं हैं। परन्त अन्य विषयों पर इनसे यथेष्ट मदद मिलती है। वस्तुतः स्मृति ने आगे आनेवाले समयों में न्यायिक साहित्य का रूप ले लिया। स्मृतियों में सबसे प्रमुख मनुस्मृति है। याज्ञवल्क्य, विष्णु, वृहस्पति एवं नारद स्मृति भी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण हैं।
बौद्ध एवं जैन धर्मग्रन्थ – ब्राह्मण धर्मग्रन्थों के अतिरिक्त बौद्ध एवं जैन धर्मग्रन्थ भी तत्कालीन इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति पर यथेष्ट प्रकाश डालते हैं। छठी शताब्दी ई० पू० में इन धर्मों के उदय तथा उसके बाद के समय में इनके प्रसार के चलते बौद्ध एवं जैन धर्मग्रन्थों की रचना बड़े पैमाने पर हुई। ये ग्रन्थ भी ब्राह्मण धर्मग्रन्थों की तरह ही मुख्यतः धर्म प्रधान नहीं हैं।
महाकाव्य – महाकाव्यों में सबसे प्रमुख महाकाव्य हैं-रामायण और महाभारत। वाल्मीकि कृत रामायण में एक आदर्श राजा एवं राज्य का विवरण है। इस ग्रन्थ से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक जीवन पर यथेष्ट प्रकाश पड़ता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से रामायण का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि सांस्कृतिक दृष्टिकोण से। इसके निश्चितकाल के विषय में विद्वानों में मतभेद है, परन्तु यह भी माना जाता है कि इसका अन्तिम संकलन गुप्तकाल में हुआ होगा।
पुराण – महाकाव्यों के अतिरिक्त पुराणों से भी इतिहास की यथेष्ट जानकारी मिलती है। इनका राजनीतिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था तथा इतिहास के लिए काफी महत्त्व है। प्राचीन राजवंशों के इतिहास के विषय में इनसे जानकारी मिलती है। उदाहरणस्वरूप, शिशुनागवंश, नन्दवंश, मौर्यवंश से लेकर गुप्तवंश तक के राजनीतिक इतिहास की झाँकी इनमें मिलती है। सांस्कृतिक महत्त्व के प्रश्नों पर तो पुराणों में काफी महत्त्वपूर्ण सामग्री भरी पड़ी है। इनकी भी रचना गुप्तकाल में और उसके बाद के समय में हुई है। इनसे तिथि के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है।
अर्थशास्त्र – पुराणों के बाद हम कौटिल्य के अर्थशास्त्र को रख सकते हैं। यह ग्रन्थ धार्मिक दृष्टिकोण से परे होकर नीतिशास्त्र पर बहुत अच्छी सामग्री प्रस्तुत करता है। अनुश्रुतियों के अनुसार इसके लेखक मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य के महामन्त्री चाणक्य, कौटिल्य या विष्णुगुप्त थे। ऐसा अनुमान किया जाता है कि इसकी रचना मौर्यकाल में ही हुई होगी, यद्यपि कुछ आधुनिक विद्यानों का विचार है कि इसमें मौर्योत्तरकालीन समाज एवं राजनीति की भी चर्चा है। इस ग्रन्थ में राजतन्त्र, प्रशासन, समाज और आर्थिक व्यवस्था से सम्बन्धित अनेक तत्त्वों का सुन्दर संकलन है। यूनानी राजदूत मेगास्थनीज द्वारा दिये गये विवरणों से काफी अंश में इनमें समानता है। इनमें शक नहीं कि मौर्य एवं मौर्योत्तर काल के लिए कौटिल्य का अर्थशास्त्र काफी महत्वपूर्ण है। इसका महत्त्व इसलिए बढ़ जाता है कि यह सम्भवतः नीतिशास्त्र पर प्राचीनतम ग्रन्थ है।
विदेशी साहित्य एवं यात्रा-विवरण – सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय बहुत-सारे इतिहासकार और यात्री भारत आये। उनलोगों ने तत्कालीन व्यवस्था का अच्छा वर्णन किया है। उनके मूल लेख अभी उपलब्ध नहीं है। बाद के ग्रीक एवं लैटिन ग्रन्थों में उनका जिक्र मिलता है। इस कोटि में आरिस्टीहलत, निआर्कस चारस, यूमेनीरस आदि प्रमुख है। सिकन्दर के बाद भी यूनानी यात्रियों का भारत में आगमन जारी रहा। मेगास्थनीज, जो यूनानी शासक सेल्यूकस का राजदूत था, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र आया था। उसने अपनी पुस्तक इंडिका में उस काल के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। मेगास्थनीज के इंडिका और कौटिल्य के अर्थशास्त्र के विवरणों में खासकर पाटलिपुत्र का वर्णन और इसके प्रशासन के विषय में समानता देखने को मिलती है।
चीनी विवरण – ग्रीक और रोमन यात्रियों के विवरणों के अतिरिक्त चीनी यात्रियों के विवरण भी हमारे लिए महत्त्वपूर्ण है। इनके विवरण का महत्त्व इसलिए अधिक हो जाता है कि ये स्वयं भारत के विभिन्न भागों में बौद्ध ग्रन्थों की खोज में घूमे और उस समय की अवस्थाओं का विवरण दिया। चीनी लेखकों में सर्वप्रथम शुमाचीन का स्थान आता है। इसके लेखों में भारतीय इतिहास की झलक मिलती है। फाहियान जो गुप्तकाल में भारत आया था, उसके विवरण से तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक अवस्था पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। ह्वेनसांग (युवानच्चांग) सातवीं शताब्दी में भारत आया था और हर्षवर्द्धन के समय की अवस्था का जिक्र करता है। हालाँकि इन लेखकों के विवरणों में भी धार्मिक पक्षपात की भावना देखने को मिलती है, फिर भी उनके महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। चीनी यात्री इत्सिग और तिब्बती लामा तारानाथ के विवरण भी हमारी प्रचुर सहायता करते हैं।
अरबी एवं मुसलमानी विवरण – इस्लाम धर्म के उदय और प्रसार होने से बहुत से अरब और मुसलमान यात्री भी भारत आए और यहाँ की अवस्था का वर्णन अपने ग्रन्थों में किया। ऐसे लेखकों में अबिलादुरी, सुलेमान मिनहाजुद्दीन, अलम मसूदी आदि प्रसिद्ध हैं, परन्तु मुसलमान लेखकों में सबसे महत्त्वपूर्ण कृति अलबरुनी की तहकीके हिन्द है। महमूद गजनवी के भारत आक्रमण के समय की दशा का इसमें अच्छा वर्णन है। इन सभी विवरणों के आधार पर प्राचीन भारतीय इतिहास का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
पुरातात्विक स्रोत
उत्खनन – पुरातात्विक सामग्री की कोटि में सबसे प्रमुख हैं-उत्खनन द्वारा प्राप्त वस्तुएँ। ये वस्तुएँ विभिन्न प्रकार की होती हैं, जैसे-प्राचीन भवनों के स्मारक, मृण् मूर्तियाँ, मिट्टी के बर्तन, मिट्टी के खिलौने, सिक्के, हथियार इत्यादि। ये किसी काल और जातियों द्वारा प्रयुक्त वस्तुओं की वास्तविक जानकारी देकर उस काल की सभ्यता एवं संस्कृति की जानकारी प्राप्त करने में सहायता देते हैं। आज हड़प्पा या सिंधुघाटी सभ्यता के विषय में हमारी जानकारी पूर्णत: पुरातात्विक सामग्री पर ही आधारित है। प्रागैतिहासिक काल, उसके पहले और बाद के काल के इतिहास के लिए भी उत्खननों द्वारा महत्त्वपूर्ण सामग्रियाँ प्रकाश में लायी गयी हैं और उनसे इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है।
अभिलेख – पुरातात्विक सामग्री की कोटि में दूसरा प्रमुख स्थान अभिलेखों का आता है। ये अभिलेख विभिन्न प्रकार के होते हैं, जैसे-गुफालेख, शिलालेख, स्तम्भलेख, ताम्रपत्र, मुहरों पर अभिलेख इत्यादि। ये विभिन्न विषयों पर प्रकाश डालते हैं। सबसे प्राचीन अभिलेख सिन्धु घाटी की मुहरों पर मिले हैं परन्तु इनको अभी तक ठीक ढंग से पढ़ा नहीं जा सका है। यद्यपि इस दिशा में निरन्तर प्रयास जारी है। ऐतिहासिक काल में सबसे प्राचीन और महत्त्वपूर्ण अशोक के अभिलेख हैं। इनमें उस काल की महत्त्वपूर्ण घटनाओं-कलिंगयुद्ध सम्राट की नीति में परिवर्तन, प्रशासनिक सुधार, आर्थिक व्यवस्था आदि के विवरण प्राप्त होते हैं। उत्तर मौर्यकालीन अभिलेखों में कलिंग के शासक खारवेल का हाथीगुफा अभिलेख, रुद्रदमन का जूनागढ़ अभिलेखों आदि प्रमुख हैं।
सिक्के – अभिलेख के बाद सिक्कों का स्थान आता है। वैसे तो सिक्के आर्थिक इतिहास की जानकारी के मुख्य साधन हैं, परन्तु इन पर उत्कीर्ण लेखों से प्रशासनिक बातों पर भी प्रकाश पड़ता है। तिथि निर्धारण में भी इनसे सहायता मिलती है।
प्राचीन स्मारक – इन पुरातात्विक सामग्रियों के अतिरिक्त प्राचीन भवन, मंदिर, गुफा, मूर्तियों आदि के अध्ययन से तत्कालीन इतिहास की जानकारी मिलती है। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, तक्षशिला, कौशाम्बी आदि से प्राप्त भवनों के अवशेष उस समय की नगर-निर्माण योजना पर प्रकाश डालते हैं। गान्धार कला का ज्ञान तक्षशिला और उसके आसपास से प्राप्त मूर्तियों के आधार पर होता है। इसी प्रकार मथुरा की मूर्तियाँ भी मथुरा कला के विषय में जानकारी देती है। साँची, भरहुत, मथुरा के स्तूप तथा उनपर चित्रित मूर्तियों से बुद्ध के जीवन की झाँकी मिलती है। अजन्ता, एलोरा, एलीफैन्टा की गुफाएँ भी तत्कालीन कला एवं शिल्प का ज्ञान कराती हैं। विदेशों में भी भारतीय कला के अवशेष स्थित है जो भारत का उन देशों से घनिष्ठ सम्बन्ध बतलाते हैं जैसे-बामियान (अफगानिस्तान) की विशाल बुद्ध की प्रतिमा, कम्बोडिया के अंकोरवाट तथा जावा के बोरोबुदुर के मन्दिर एवं अन्य अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं। मध्य एशिया और रोमन साम्राज्य हिस्सों से प्राप्त विभिन्न भारतीय मूल की वस्तुएँ, जैसे-पौम्पेई से प्राप्त लक्ष्मी की हाथीदाँत की मूर्ति तथा भारत में विदेशों की बनी वस्तुएँ, जैसे-रोमन शासकों के सिक्के, शराब रखने के बर्तन आदि को देखने से भारत का इन देशों के साथ सम्बन्ध पर यथेष्ट प्रकाश पड़ता है।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय इतिहास की जानकारी के अनेक साधन हैं। हरेक का अपना अलग महत्त्व है। जितना महत्त्व साहित्यिक सामग्री का है उतना ही महत्त्व पुरातात्विक सामग्री का भी है परन्तु तुलनात्मक दृष्टि से पुरातात्विक सामग्री ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। फिर भी दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं और बिना दोनों साधनों के उचित प्रयोग के प्राचीन भारतीय इतिहास की सही जानकारी नहीं हो सकती है।
प्रश्न 2. हड़प्पा सभ्यता के नमर-निर्माण की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: हड़प्पा संस्कृति में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिनको सामने रखकर कुछ इतिहासकार अब यह मानने लगे हैं कि अवश्य ही यह सभ्यता, अन्य सभ्यताओं से श्रेष्ठ है और इसकी संसार को बड़ी देन हैं। निम्नलिखित क्षेत्रों में सिन्धु घाटी के लोगों की उन्नति उनकी श्रेष्ठ सभ्यता का स्पष्ट प्रमाण है-
1. श्रेष्ठतम तथा सनियोजित नगर (Best and well planned city) – हड़प्पा के नगरों की स्थापना ऐसे मनोवैज्ञानिक एवं सुनियोजित ढंग से की गई थी जिसका उदाहरण प्राचीन संसार में कहीं नहीं मिलता। आज की भाँति आवश्यकतानुसार सड़कें व गलियाँ छोटी और बड़ी दोनों प्रकार की बनाई गई थीं। डॉ. मैके जैसे लोग भी इन नगरों की प्रशंसा किये बिना न रह सके। उनके कथनानुसार गलियाँ एवं बाजार इस प्रकार के बनाये गये थे कि वायु अपने आप ही उनको साफ कर दे।
2. श्रेष्ठतम, सनियोजित एवं सव्यवस्थित निकास व्यवस्था (Best and well planned drainage) – सफाई काँ जितना ध्यान यहाँ के लोग रखते थे, उतना शायद ही किसी दूसरे देश के लोग रखते हों। इतनी पक्की और छोटी-छोटी नालियाँ आजकल भी हमें आश्चर्य में डाले बिना नहीं रहती।
3. श्रेष्ठतम व निपण नागरिक प्रबंध (Bestand the most efficient civil organization) – नगर प्रबंध भी सर्वोत्तम ढंग का था। ऐसा संसार के किसी दूसरे प्राचीन देश में देखने में नहीं आता। स्थान-स्थान पर पीने के पानी का विशेष प्रबंध था। गलियों में प्रकाश का भी प्रबंध था। यात्रियों के लिए सराएँ और धर्मशालाएँ बनी हुई थीं और नगर की गंदगी को बाहर ले जाकर खाइयों में डलवा दिया जाता था। वे लोग आधुनिक युग की भाँति स्वास्थ्य के नियमों से अच्छी तरह परिचित थे। इसलिये तो उन्होंने बर्तन बनाने की भट्टी को भी नगर के अंदर नहीं बनने दिया था।
4. सन्दर और उपयोगी कला (Art both with beauty and utility) – यहाँ की कला में दो विशेष गुण थे, जो अन्य देशों की कला. में एक साथ देखने को कम मिलते हैं-(i) इस सभ्यता में बनावटीपन लेशमात्र को भी न था। इसके घरों अथवा भवनों का निर्माण लोगों की उपयोगिता या आराम को ध्यान में रखते हुए हुआ था। (ii) उपयोगिता के साथ-साथ मकानों में सुन्दरता भी थी। मेसोपोटामिया के मकान चाहे अधिक सुंदर व अच्छे हों, परंतु उनमें कृत्रिमता अधिक थी और वे इतने उपयोगी भी नहीं थे। उधर, मिस्र में भवन तो अनेक थे परंतु उनमें कला का अभाव है।
प्रश्न 3. हड़प्पा संस्कृति के निर्माता कौन थे ? इस संस्कृति की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर: एक लम्बी अवधि तक इतिहासकारों का मत था कि भारतवर्ष में सभ्यता का प्रारंभ आर्यों के आगमन के बाद हुआ और वैदिक सभ्यता को ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता माना जाता था, किन्तु सिन्धु प्रान्त में स्थित हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से जो अवशेष प्राप्त हुए वे एक नयी सभ्यता पर प्रकाश डालते हैं। उत्खनन से वस्तुओं के अवशेषों से पता चलता है कि आर्यों के आगमन के पहले ही सिन्धुघाटी में एक उच्च कोटि की सभ्यता विकसित हो चुकी थी, जो मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता की समकालीन थी। इस सभ्यता के नगर योजना के अनुसार बनाये गये थे। यहाँ का समाज मातृसत्तात्मक था। लोग बहुदेववादी थे। कृषि, पशुपालन, व्यापार और उद्योग-धन्धे जीविका के प्रमुख साधन थे। सामान्यतः 1500 ई० पूर्व में बाढ़, अग्निकाण्ड और बाह्य आक्रमण के कारण इस सभ्यता का अंत हो गया।
सिन्धघाटी सभ्यता का क्षेत्र – सिन्धुघाटी सभ्यता का प्रसार-क्षेत्र आधुनिक खोजों के आधार पर काफी विस्तृत हो गया है। पश्चिमी पंजाब और सिन्ध में यह सभ्यता समान रूप से फैली हुई थी। इस सभ्यता का प्रभाव गंगा, यमुना, नर्मदा और ताप्ती नदियों की घाटियों तक था। उत्तर-पूर्व में रोपड़ तक इसका प्रभाव था। गंगा की घाटी में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले हैं। पूर्व में काठियावाड़ से पश्चिम में मकरान तक यह सभ्यता फैली हुई थी। राजस्थान की कालीबंगा और गुजरात की लोथल नामक जगह एवं उसके आगे तक भी इस सभ्यता के अवशेष पाये गये हैं। इसके एक मुख्य केन्द्र हड़प्पा के नाम के आधार पर इसे ‘हड़प्पा की सभ्यता’ भी कहा जाता है।
सिन्धघाटी सभ्यता का समय – प्राचीन इतिहास में समय-निर्धारण एक जटिल प्रश्न है। सिन्धु घाटी सभ्यता के साथ भी यही बात है। इस सभ्यता की उत्पत्ति कब हुई, इस संबंध में विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत व्यक्त किये हैं। सर जॉन मार्शल ने इस सभ्यता का काल 3250 ई० पू० से 2750 ई० तक माना है। कुछ अन्य लोगों का विचार है कि यह सभ्यता 2200 ई० पू० से 1500 ई० पू० तक फलती-फूलती रही। गार्डन चाइल्ड के अनुसार ई० पू० 3000 के आरम्भ में यह सभ्यता विकसित हुई होगी। कुछ लोग इसे मिन और मेसोपोटामिया की सभ्यताओं का समकालीन मानते हैं, लेकिन अब तिथि-निर्धारण के नये तरीके निकाले गये हैं जिनके अनुसार इस सभ्यता का काल 2350 ई० पू० से 1750 ई० पू० तक माना जाता है।
सिन्धु सभ्यता के निर्माता – अब इस बात पर भी विचार कर लेना आवश्यक है कि इस सभ्यता के निर्माता कौन थे ? इस सम्बन्ध में विद्वानों में बड़ा मतभेद है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि सिन्धु सभ्यता के निर्माता वही आर्य थे जिन्होंने वैदिक सभ्यता का निर्माण किया था, परन्तु यह मत ठीक नहीं लगता, क्योंकि सिन्धु सभ्यता तथा वैदिक सभ्यता में इतना बड़ा अन्तर है कि एक ही लोग इन दोनों के निर्माता नहीं हो सकते। कुछ विद्वानों के विचार में सिन्धु सभ्यता के निर्माता सुमेरियन जाति के थे। एक विद्वान के विचार में सिन्धु सभ्यता के निर्माता वही असुर थे, जिनका वर्णन वेदों में मिलता है। डॉ. राखालदास बनर्जी के विचार में सिन्धु सभ्यता के निर्माता द्रविड़ लोग थे चूँकि दक्षिण भारत में द्रविड़ों के मिट्टी और पत्थर के बर्तन तथा उसके आभूषण सिन्धुघाटी के लोगों के बर्तनों तथा आभूषणों से मिलते-जुलते हैं, अतएव यह मत अधिक प्रतीत होता है, परन्तु खुदाई में जो हड्डियाँ मिली हैं, वे किसी एक जाति की नहीं हैं, वरन् वे विभिन्न जातियों की हैं। अतएव, कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सिन्धु सभ्यता के निर्माता मिश्रित जाति के थे। यही मत सबसे अधिक ठीक लगता है।
सिन्धु सभ्यता का स्वरूप – यह सभ्यता प्रस्तर-धातुयुगीन सभ्यता थी, क्योंकि उत्खनन से दोनों के अवशेष मिले हैं। खुदाई में साम्राज्य, युद्ध और सैन्य संगठन संबंधी कोई वस्तु नहीं मिली है। अस्त्र-शस्त्र का सर्वथा अभाव है। यहाँ तक कि राजाओं के नाम भी नहीं मिलते हैं। इससे हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सभ्यता शातिमूलक थी। यह सभ्यता व्यापार-प्रधान और शहरी थी। लोग नागरिक जीवन व्यतीत करते थे और प्रत्येक वस्तु को उपयोगिता की दृष्टि से देखते थे। बड़े-बड़े नगरों की स्थापना की गयी थी और विदेशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किया गया था। विशाल भवन और स्नानागार उस समय के लोगों के सामूहिक जीवन के द्योतक हैं, अतएव कुछ लोगों का मत है कि यह सभ्यता लोकतंत्रात्मक थी, क्योंकि राजाओं के अस्तित्व का पता नहीं चलता है, परन्तु वहाँ के निवासियों की शांतिमूलकता एवं अपरिवर्तनवादी स्वभाव से इस बात का संकेत मिलता है कि धर्म का प्रभाव राजनीति पर भी था।
सिन्धु सभ्यता की विशेषताएँ-
(i) कांस्य सभ्यता – सिन्धु घाटी की सभ्यता को ‘ताम्रयुगीन सभ्यता’ कहते हैं, क्योंकि ताँबे के हथियारों एवं अन्य वस्तुओं की बहुतायत थी। पत्थर से भी अस्त्र-शस्त्र बनाये जाते थे। बाद में बहुत पैमाने पर काँसे के औजारों और अन्य वस्तुओं का निर्माण होने लगा। काँसे की प्रधानता रहने के कारण ही इस सभ्यता को कांस्यकालीन सभ्यता कहते हैं।
(ii) नागरिक सभ्यता – सिन्धु सभ्यता के निवासियों का आर्थिक जीवन औद्योगिक विशिष्टीकरण और स्थानीयकरण पर आधारित था। प्रत्येक व्यवसायी एक ही प्रकार का व्यवसाय करता था और समान व्यवसायवाले एक ही मुहल्ले में रहते थे। यह सभ्यता व्यापार प्रधान सभ्यता थी। बड़े-बड़े नगरों की स्थापना की गयी थी और विदेशों से व्यापारिक सम्बन्ध स्थापित किया गया था।
यह सभ्यता नागरिक भी थी, क्योंकि विशाल नगर, पक्के भवन, सुव्यवस्थित नालियाँ, सड़क एवं सार्वजनिक स्नानागार का निर्माण, सुदृढ़ शासन व्यवस्था-ये प्रमाणित करते हैं कि साधारण नागरिकों की सुख सुविधा पर भी ध्यान दिया जाता था। संभवतः समकालीन अन्य सभ्यताओं में नागरिकों की सुख-सुविधा पर इतना अधिक ध्यान कहीं नहीं दिया गया था।
(iii) जनतांत्रिक सभ्यता – उत्खनन से प्राप्त विशाल सभाभवन और स्नानागार सिन्धुवासियों के सामूहिक जीवन के प्रतीक हैं। सिन्धु प्रदेश में राजा, राजप्रासाद और शाही खजाने का कोई प्रमाण नहीं मिला है। शासन के दो प्रधान केन्द्र थे-हड़प्पा और मोहनजोदड़ो। उत्तरी भाग का शासन हड़प्पा और दक्षिणी भाग का शासन मोहनजोदड़ो से संचालित होता है। इस प्रकार लोकतांत्रिक होते हुए भी शासन व्यवस्था नियंत्रित थी।
(iv) औद्योगिक सभ्यता – सिन्धु सभ्यता के निवासियों के आर्थिक जीवन का आधार व्यापार और उद्योग-धन्धा था। उनका व्यापार दूर-दूर देशों से होता था। अनेक प्रकार के उद्योग-धन्धों का भी विकास हुआ था। आर्थिक जीवन उद्योगीकरण और स्थानीकरण पर आधारित था। ऐसा प्रतीत होता है कि सिन्धु-सभ्यता में श्रम-विभाजन और संगठन की भी व्यवस्था थी। एक व्यक्ति एक ही व्यवसाय करता था और एक प्रकार के व्यवसाय करने वाले लोग एक ही क्षेत्र में निवास करते थे।
(v) शांतिमूलक सभ्यता – सिन्धु सभ्यता के निवासी शांतिप्रिय थे। कवच ढाल, शिरस्त्राण आदि युद्ध में प्रयुक्त होने वाले उपकरणों का अभाव है। उत्खनन से प्राप्त भाला, कुल्हाड़ी, धनुष-बाण उनकी सामाजिक प्रवृत्ति के द्योतक नहीं हैं। इन उपकरणों का प्रयोग आखेट युग में होता था।
प्रश्न 4. सिन्धु घाटी सभ्यता की नगर योजना की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: भारत में जिन प्राचीनतम सभ्यता के अवशेष मूरत इस समय उपलब्ध है उसे हम सिन्धुघाटी की सभ्यता कहते हैं सिन्धु हमारे देश की एक नदी का नाम है जो हिमालय पर्वत से निकलती ‘ है और पंजाब तथा सिन्धु के प्रदेश से होती हुई अरब सागर में मिलती है। घाटी उस प्रदेश को कहते हैं जो किसी नदी के दोनों ओर स्थित रहता है और उस नदी के पानी से सींचा जाता है। अतएव सिन्धु-घाटी का तात्पर्य उस प्रदेश से है जो सिन्धु नदी के दोनों ओर स्थित है। और सिन्धु नदी के जल से सींचा जाता है।
किसी प्रदेश की सभ्यता का यह तात्पर्य होता है कि वहाँ के लोगों का सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक जीवन किस प्रकार का है अतएव सिन्धुघाटी की सभ्यता का यह तात्पर्य हुआ, कि सिन्धुघाटी सिन्धु नदी के दोनों किनारों के प्रदेश में निवास करने वालों की सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक सांस्कृतिक तथा राजनीतिक दशा कैसी थी, चूँकि इस बात का अभी ठीक-ठीक निश्चय नहीं हो पाया है कि इस प्रदेश के निवासी कौन थे अतएव इसे किसी जाति-विशेष की सभ्यता न कह कर सिन्धुघाटी की सभ्यता के नाम से पुकारा गया है। कुछ विद्वानों ने इसे ‘हड़प्पा तथा मोहन जोदड़ों की सभ्यता के नाम से पुकारा गया है। हड़प्पा पश्चिमी पंजाब के मान्टगोमरी जिले में और मोहन जोदड़ो सिन्धु के लरकाना जिले में स्थित है। 1922 ई० में श्री रांखल दास बनर्जी की अध्यक्षता में इन दोनों स्थानों में खुदाइयाँ हुई हैं।
आगे इसी स्थान पर जान मार्शल के नेतृत्व में खुदाइयों में जो वस्तुएँ मिली हैं उनके अध्ययन से भारत की एक ऐसी सभ्यता का पता लगा है जो ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पहले की है। अर्थात् वैदिक कालीन सभ्यता से भी कहीं अधिक पुरानी सिन्धु की घाटी के प्रदेश में तथा कुछ अन्य स्थानों में भी खुदाइयाँ हुई हैं जिनमें वही चीजें मिली हैं। जो हड़प्पा तथा मोहन जोदड़ो में मिली थी। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि सिन्धुघाटी के सम्पूर्ण प्रदेश की सभ्यता एक सी थी। इसी से सिन्धुघाटी की सभ्यता को हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की सभ्यता के नाम से भी पुकारा गया है। परन्तु अधिकांश विद्वानों ने इसे सिन्धु-घाटी की सभ्यता के नाम से ही सम्बोधित किया है। उपर्युक्त विवरण से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सिन्धु-घाटी की सभ्यता का तात्पर्य उन लोगों की सभ्यता से है जो सिन्धुघाटी नदी की घाटी में ईसा से लगभग चार हजार वर्ष पहले निवास करते थे अर्थात् उन लोगों का सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, संस्कृति तथा राजनीतिक जीवन किस प्रकार का था।
नगर-योजना : खुदाइयों से पता लगा है कि हड़प्पा तथा मोहन जोदडो दोनों ही विशाल नगर थे। इन नगरों का निर्माण एक निश्चित योजना के अनुसार किया गया था। नगरों की सड़कें उत्तर से दक्षिण को अथवा पूर्व से पश्चिम को एक दूसरे को सीधे समकोण पर काटती हुई जाती थीं। इस प्रकार नगर इन सड़कों द्वारा कई वर्गाकार अथवा आयताकार भागों में विभक्त हो जाता था। यह सड़कें बड़ी चौड़ी थीं। नगर की प्रमुख सड़कें तैंतीस फीट तक चौड़ी पाई गई है जिससे स्पष्ट है कि सड़कों पर एक साथ कई गाड़ियाँ आ जा सकती थीं। बड़ी-बड़ी सड़कों को मिलाने वाली गलियाँ कम से कम चौड़ी होती थी उनकी भी चौड़ाई चार फीट की पाई गई है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि यह सड़कें कच्ची है और इन्हें पक्की बनाने का प्रयत्न नहीं किया गया।
भवन-निर्माण : सड़कों के दोनों किनारों पर मकान होते थे जो पक्की ईटों के बने होते थे। यह ईटें लकड़ी से पकाई जाती थीं। अधिकांश मकान दो मंजिलों के होते थे परन्तु दीवारों की मोटाई से पता लगता है कि दो से भी अधिक मंजिलों के मकान बनते थे। नीचे के मंजिल से ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी होती थी। अधिकांश सीढ़ियाँ संकीर्ण मिली हैं, परन्तु कुछ काफी चौड़ी तथा सुविधाजनक सीढ़ियाँ भी मिली है। बड़े-बड़े मकानों के दरवाजे बड़े चौड़े होते थे। कुछ मकानों के दरवाजे तो इतने चौड़े मिले हैं कि उनमें रथ तथा बैलगाड़ियाँ भी आ जा सकती थी। कमरों में दीवारों के साथ आलमारियाँ भी लगी होती थीं। हड्डियों तथा शंख की बनी हुई कुछ ऐसी चीजें मिली है जिनसे पता लगता है, कि कमरों में खूटियाँ भी लगी होती थीं। दरवाजों तथा मकानों में खिड़कियों का पूरा प्रबन्ध रहता था जिससे हवा, प्रकाश की कमी न हो। इन दरवाजों तथा खिड़कियों की एक बहुत बड़ी विशेषता यह थी कि यह सभी भीतर की दीवारों में बने होते थे। जो दीवारें सार्वजनिक सड़कों की ओर होती थीं उनमें दरवाजे तथा खिड़कियाँ नहीं होती थीं। मकान के बीच में एक आँगन होता था जिसके एक कोने में रसोईघर बना होता था। रसोईघर के चूल्हें ईटों के बने होते थे। प्रत्येक मकान में एक स्नानागार का होना आवश्यक था। इन स्नानागारों में मिट्टी के बर्तन में पानी रखा रहता था। इन स्नानागारों का फर्श पक्की ईटों का बना होता था और उसकी सफाई का बड़ा ध्यान रखा जाता था। बहुत से स्नानागारों के समीप शौचालय भी मिले हैं।
नालियों का प्रबन्ध : नगर के मैले जल को बाहर ले जाने के लिए नालियों का प्रबन्ध किया गया था। सब नालियाँ पक्की ईटों की बनी होती थीं। ईटों को जोड़ने के लिए मिट्टी मिले चूने का प्रयोग किया जाता था कुछ चौड़ी नालियाँ ईटों से और अधिक चौड़ी नालियाँ पत्थर के टुकड़ों से ढंकी जाती थी। ऊपर की मंजिल का गन्दा पानी नीचे लाने के लिए मिट्टी के पाइपों को प्रयोग किया जाता था।
कओं का प्रबन्ध : आसानी से जल प्राप्त करने के लिए सिन्धु-घाटी के लोगों ने कुआँ का प्रबन्ध किया था। खुदाई में ऐसे कुएँ मिले हैं जिनकी चौड़ाई दो फीट से सात फीट हैं। सार्वजनिक कुओं के अतिरिक्त जो जनता के लिए बने होते थे लोग अपने घरों में अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए भी कुएँ बनवाते थे।
जलाशय तथा स्नानागार : मोहनजोदड़ो की खुदाई में एक बहुत बड़ा जलाशय भी मिला है। यह जलाशय 39 फीट लम्बा 33 फीट चौड़ा और 8 फीट गहरा है। यह पक्की ईटों का बना हुआ है और इसकी दीवारें बड़ी मजबूत हैं। इस जलाशय के चारों ओर एक बारादरी बनी है। जिसकी चौड़ाई 15 फीट है। जल-कुण्ड के दक्षिण-पश्चिम की ओर आठ स्नानागार बने हुए हैं। इस स्नानागारों के ऊपर कमरे बने थे जिनमें पुजारी लोग रहा करते थे। जलाशय के निकट एक कुआँ भी मिला है। सम्भवतः इसी कुएँ के पानी से जलाशय को भरा जाता था। जलाशय को भरने तथा खाली करने के लिए नल बने होते थे। जलाशय के निकट ही एक भवन मिला है जो सम्भवतः हम्माम था और जिसमें जल के गर्म करने का प्रबन्ध था।
नगर की सरक्षा का प्रबन्ध : अपने नगरों को शत्रुओं से सुरक्षित रहने के लिए यह लोग नगर रों आरे खाई तथा दीवार का भी प्रबन्ध करते थे। यह चहारदीवारी सम्भवतः दुर्ग का भी काम देती थी।
प्रश्न 5. हड़प्पा सभ्यता के पतन के प्रमुख कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर: हड़प्पा सभ्यता के पतन के मुख्य कारणों की चर्चा निम्नलिखित रूप से की जा सकती है-
- बाढ – इस मत के अनुसार हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख नगर नदियों के ही किनारे थे। अतः बाढ़ द्वारा इनका पतन हुआ होगा। खुदाई में मिली बालू की मोटी परतें इस मत की पुष्टि करती है।
- अग्निकांड-खुदाई में जली हुई मोटे स्तरों की प्राप्ति से कुछ विद्वान अग्निकांड से इस सभ्यता के पतन की बात करते हैं।
- बाह्य (आर्य) आक्रमण – खुदाई से प्राप्त नरकंकालों, वेदों में दस्युओं दुर्गों के विनाश का वर्णन के आधार पर बाह्य आक्रमण द्वारा पतन के विचार को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
- लगातार गेहूँ उत्पादन से भूमि की उर्वरा शक्ति में कमी से भी इस सभ्यता के पतन के विचार को बल मिलता है।
इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन, नदियों द्वारा मार्ग बदलने, जलप्लावन के सिद्धान्त भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं।
प्रश्न 6. सिन्धु घाटी सभ्यता के पतन के कारणों को बतावें।
उत्तर: सिन्धु सभ्यता करीब 600 वर्षों तक चलती रही (2300-1750 ई० पू०)। 1700 ई० पू० के आस-पास इस सभ्यता का पतन प्रारंभ हुआ। इसके दो प्रमुख केन्द्र हड़प्पा और मोहनजोदड़ो इस समय तक नष्ट हो चुके थे। इन जगहों पर नगर-निर्माण की व्यवस्था ढीली पड़ चुकी थी, मकान बिना किसी योजना के बनाए जाने लगे। पुराने बड़े मकान खंडहर बन चुके थे। सड़कों एवं नालियों की व्यवस्था नष्ट हो चुकी थी। नए प्रकार के मृद्भांड व्यवहार में आने लगे थे। इनसे स्पष्ट हो जाता है कि यह सभ्यता अब पतन के मार्ग पर बढ़ चली थी। अन्य केन्द्रों पर यह सभ्यता पतनोन्मुख स्वरूप में कुछ और अधिक दिनों तक चली, परंतु इसकी प्राचीन गरिमा नष्ट हो चुकी थी।
कुछ विद्वानों की धारणा है कि आर्यों के आक्रमण या विदेशी आक्रमण ने इस सभ्यता को नष्ट कर दिया। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नरकंकालों पर तेज हथियारों के घाव के निशान हैं, जो बाह्य आक्रमण की धारणा की पुष्टि करते हैं। परंतु ये आक्रमणकारी आर्य थे या अन्य कोई बर्बर जाति वाले, यह निश्चित करना कठिन है। इनके आक्रमण से शान्तिमय सिन्धु सभ्यता को क्षति तो पहुँची, लेकिन सिर्फ इसी के कारण यह सभ्यता नष्ट नहीं हुई। इस सभ्यता के विनाश के लिए अन्य आंतरिक एवं भौगोलिक कारण भी उत्तरदायी थे। आधुनिक अनुसंधानों से यह बात अब स्पष्ट होती जा रही है कि बाह्य आक्रमण के पूर्व ही आंतरिक कारणों से कुछ नगरों का पतन प्रारम्भ हो चुका था। इसके लिए बहुत अंश तक अग्नि को उत्तरदायी माना जाता है। 1700 ई० पू० के आस-पास उत्तरी बलूचिस्तान के अनेक स्थलों से भीषण अग्निकांड के प्रमाण मिलते हैं। संभवतः सिन्धुक्षेत्र में भी ऐसा अग्निकांड हुआ हो। दूसरी संभावना भीषण बाढ़ की है।
मोहनजोदड़ो की खुदाइयों में बाढ़ द्वारा लाई गई बलुही मिट्टी की परतें मिली हैं। चूँकि इस समय के नगर नदियों के निकट बसे हुए थे, इसलिए बाढ़ से उनके नष्ट होने की संभावना है। कुछ विद्वानों का विचार है कि किसी बड़ी महामारी (प्लेग या मलेरिया) के प्रकोप से भी बहुत अधिक व्यक्तियों की मृत्यु हो गई और इससे सभ्यता को आघात पहुँचा। इनके अतिरिक्त, नदियों की धारा में परिवर्तन, उनके नगरों से दूर हट जाने के कारण आर्थिक व्यवस्था को क्षति पहुँची होगी। इसी प्रकार राजपूताना रेगिस्तान के बढ़ते प्रभाव ने सिन्धघाटी की उर्वरा-शक्ति को कम कर दिया. जिसके कारण कषि एवं आर्थिक आधार को गहरा धक्का लगा। ऐसा भी अनुमान है कि मोहनजोदड़ो के पास हुए विवर्तनिक हलचलों (Tectonic disturbances) ने जल का स्तर काफी ऊँचा उठा दिया एवं समस्त सिन्धु प्रदेश जलाप्लावित हो गयी।
इन भौगोलिक कारणों के अतिरिक्त आर्थिक कारण भी इस सभ्यता के पतन के लिए जिम्मेदार थे। सिन्धु सभ्यता का जिन देशों के साथ व्यापारिक संबंध था, वहाँ की राजनीतिक स्थिति 17वीं-16वीं शताब्दी ई. पू. में अस्थिर थीं। ऐसी स्थिति में व्यापार को धक्का लगा, जिसने सिन्धु सभ्यता के आर्थिक आधार को कमजोर कर दिया। जनसंख्या में वृद्धि, प्राकृतिक साधनों में कमी तथा आर्थिक अस्थिरता भी इस सभ्यता के पतन के लिए उत्तरदायी थीं। कुछ विद्वानों का विचार है कि हड़प्पा संस्कृति के मूलभूत तत्त्वों में परिवर्तन, इस सभ्यता का बर्बर स्वरूप हो जाना, इसके पतन का एक प्रमुख कारण था। इन अनेक कारणों ने सिन्धु सभ्यता को नष्ट कर दिया; परंतु यह सभ्यता विलुप्त नहीं हो गई।
प्रश्न 7. गणतंत्र और वर्ण में संबंध स्थापित करें।
उत्तर: प्राचीन भारत में सैद्धांतिक रूप से राजतंत्र और वर्ण में गहरा संबंध था। अर्थशास्त्र पर धर्मसूत्रों में इस बात पर बल दिया गया है कि राजा को क्षत्रिय वर्ण का होना चाहिए। शास्त्रों में वर्णित यह व्यवस्था सदैव कारगर नहीं होती थी। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहाँ क्षत्रियों को राज्य करते हुए दिखलाया गया है। उदाहरण के लिए नंदवंशी शूद्र थे, मौर्यों को शूद्र, क्षत्रिय अथवा निम्न कुलोत्पन्न माना गया है। शुंग, सातवाहन ब्राह्मण थे। भारत आने वाले मध्य एशियाई राजाओं को यवन या मलेच्छ माना गया है। अनेक विद्वान गुप्त शासकों को यवन मानते हैं। इस प्रकार सैद्धांतिक रूप से क्षत्रिय को ही आदर्श राजा के रूप में मान्यता थी। परंतु व्यावहारिक रूप से किसी भी वर्ग का व्यक्ति शक्ति संसाधन सम्पन्न होकर राजा बन जा सकता है।
प्रश्न 8. वैदिक काल से आप क्या समझते हैं ? उस काल की सभ्यता का वर्णन करें।
अथवा, वैदिक काल के सामाजिक, आर्थिक. धार्मिक और राजनीतिक जीवन का वर्णन करें
अथवा, वैदिक काल के समाज और धर्म पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: वेद आर्यों के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें ऋग्वेद सबसे प्राचीन है। आर्यों की सभ्यता की पूर्ण जानकारी उनके वेदों से होती है। उस काल में आर्यों के प्रचलित सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक जीवन बहुत ही उन्नत अवस्था में थे। आर्यों के उस काल के इतिहास को वैदिककाल कहा जाता है। उनके उन्नत जीवन का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
सामाजिक जीवन – आर्यों का सामाजिक संगठन मुख्यतः वर्ण व्यवस्था पर आधारित था। वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति श्रम विभाजन के आधार पर हुई। पर उस समय मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक कार्यों के लिए ब्राह्मण, युद्ध और राजनीतिक कार्यों के लिए क्षत्रिय; आर्थिक कार्यों के लिए वैश्य और समाजसेवा के लिए शूद्र थे। एक वर्ण से दूसरे वर्ण में परिवर्तित होना संभव था। वंश परंपरा से इसका कोई संबंध नहीं था। इसमें पारस्परिक खान-पान, आदान-प्रदान और शादी-विवाह आदि होता रहता था। इसमें धीरे-धीरे जटिलता आने लगी। इससे सामाजिक विकास में बाधाएँ उत्पन्न होने लगीं।
सखी पारिवारिक जीवन – आर्यों के सामाजिक संगठन का आधार परिवार था। परिवार का स्वामी परिवार का सबसे वृद्ध पुरुष होता था। उसे गृहपति कहा जाता था। परिवार के सभी सदस्यों को गृहपति की आज्ञा माननी पड़ती थी। वह भी अपने परिवार के सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करता थी। बच्चों के ऊपर पिता का कठोर नियंत्रण रहता था। उस समय संयुक्त परिवार की प्रथा प्रचलित थी।
समाज में नारी का स्थान – आर्यों के सामाजिक जीवन में नारियों को उच्च स्थान प्राप्त था। वे अपने पति के साथ धार्मिक कार्यों में भाग लेती थीं। उन्हें उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने की स्वतंत्रता थी। घोषा, लोपामुद्रा, विश्ववारा अपाला आदि महिलाओं की गणना ऋषियों के रूप में होती थी। पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा आदि कुप्रथाओं का प्रचलन नहीं था। विवाह एक पवित्र बंधन समझा जाता था। विवाह के समय देवताओं को साक्षी करके वर-कन्या दोनों जीवनभर के साथी बनने को परस्पर प्रतिज्ञा करते थे। इस तरह पारिवारिक जीवन सखमय था। समाज में स्त्रियों को उच्च स्थान प्राप्त था। समाज में तलाक की प्रथा प्रचलित नहीं थी।
भोजन और वस्त्र – आर्य शाकाहारी और मांसाहारी दोनों थे। उनका आहार दूध, घी, फल, मक्खन जैसे पौष्टिक पदार्थ थे। गेहूँ और जौ की रोटी तथा शाकभाजी को वे लोग दैनिक भोजन में प्रयोग करते थे। वे मांस खाते थे तथा सोम और सुरा उनके पेय पदार्थ थे।
वे लोग ऊनी, सूती और रेशमी तीनों प्रकार के वस्त्र पहनते थे। वे लोग भड़कीले वस्त्रों का प्रयोग करते थे। धनी लोगों के वस्त्र सोने के तारों से बढ़े होते थे। आभूषणों का प्रयोग स्त्री-पुरुष दोनों करते थे।
आर्थिक जीवन : आर्यों के आर्थिक जीवन निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित थे-
कृषि – आर्यों का आर्थिक जीवन कृषि पर आधारित था। खेती की सभी प्रक्रियाएँ जुताई, बुआई, सिंचाई और कटाई जानते थे। इस समय की प्रमुख उपज गेहूँ और जौ थी। वे लोग हल और बैलों की सहायता से खेती करते थे। भूमि को उर्वरक बनाने के लिए खाद और सिंचाई का भी प्रयोग करते थे।
पशपालन – कृषि के साथ पशुपालन उनका महत्त्वपूर्ण रोजगार था। वे लोग गाय को गोधन कहते थे और उनका विशेष महत्त्व रखते थे। वे गाय, बैल, घोड़े, गधे, खच्चर, भेड़, बकरियाँ आदि पशु पालते थे। वे जंगली पशुओं, जैसे–हाथी, सूअर, बारहसिंगा आदि का शिकार भी करते थे।
व्यवसाय – आर्य लोग व्यापारियों को ‘पणि’ कहते थे। उनका समाज में एक वर्ग होता था। जल-थल दोनों मार्गों से वे व्यापार करते थे। इस काल में इसका प्रचलन कम था और गाय विनिमय का माध्यम थी। धीरे-धीरे लोग ‘निष्क’ नामक स्वर्ण के आभूषणों को विनिमय के लिए व्यवहत करने लगे। व्यापारिक संबंध ईरान और बेबीलोनिया से था। भारत से ही पश्चिम एशिया वालों ने कपास की खेती करना सीखा था।
गृह उद्योग – आर्य लोग रथ, हल, गाड़ियाँ आदि बनाते थे। औद्योगिक कलाकारों में बढ़ई का सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान था। धातुओं की वस्तुओं का विशेष प्रचलन होने के कारण लोहार और सोनार को भी सम्मानित स्थान प्राप्त था। वस्त्र बुनने के लिए जुलाहे और बुने हुए वस्त्र को रँगने के लिए रंगरेज भी थे। स्त्रियाँ चटाई आदि बुना करती थीं। चमार चमड़े की वस्तुएँ तैयार करता था।
धार्मिक जीवन – आर्यों के धार्मिक जीवन में निम्नलिखित बातों का प्रचलन था-
बहुदेववाद की प्रथा – आर्य अनेक देवी-देवताओं की पूजा करते थे। ऋग्वेद में 33 कोटि देवताओं का उल्लेख है। सौरमण्डल में सूर्य उनके सबसे मूर्तिमान देवता थे। उनकी उपासना वे कई रूपों में करते थे। इनके अतिरिक्त वृष्टि के देवता इन्द्र, न्याय के देवता वरुण और अग्नि देवता का विशेष महत्त्व था।
यज्ञ की प्रधानता – आर्यों के जीवन में यज्ञ की प्रधानता थी। वे वर्षा होने और महामारी रोकने के लिए यज्ञ करते थे। वास्तव में उनका जीवन यज्ञमय था। यज्ञ की व्यापकता के कारण उस समय के भारतीय समाज में पुरोहितों और ब्राह्मणों का महत्त्व अधिक बढ़ गया था। यज्ञों की विधियों को निर्धारित करने के लिए जो ग्रन्थ बने, उनका नाम ही उनकी जाति के नाम पर ब्राह्मण पड़ा।
नैतिकता पर जोर – वैदिक आर्यों के धार्मिक विचारों पर नैतिकता की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। उनके देवता वरुण नैतिक व्यवस्था द्वारा संसार को चलाते थे। वरुण की प्रशंसा में अनेक ग्रंथ लिखे गये। वरुण प्रत्येक व्यक्ति के पाप-पुण्य को देखते थे और अपराधियों को दण्ड देते थे। परंतु उनमें क्षमाशीलता भी बहुत थी। वे शुद्ध हृदय से प्रार्थना करने पर अपराधों को शीघ्र ही माफ कर देते थे ऐसा विश्वास लोगों का था।
राजनैतिक जीवन : राजतंत्र – उस समय शासन व्यवस्था राजतांत्रिक थी। परंतु एक तरह से सीमित राजतंत्र की प्रथा थी। उस पर धर्म का नियंत्रण रहता था। युद्ध के समय राजा नेतृत्व के कार्य और शांति के समय न्याय संबंधी कार्य करता था।
नियंत्रण समिति – उस समय राजा की शक्ति को नियंत्रित करने के लिए सभा और समिति नामक संस्था थी। इसके सदस्य अविभाजित वर्ग के लोग होते थे। ‘सभा’ और ‘समिति’ के वास्तविक स्वरूप के विषय में विद्वानों की धारणाएँ भिन्न-भिन्न हैं, क्योंकि ऋग्वेद में कहीं भी सभा और समिति का निरूपण नहीं किया गया है।
राज कर्मचारी – शासन कार्य में राजा को सहायता प्रदान करने के लिए अनेक राजकर्मचारी होते थे। राजकर्मचारियों में ‘पुरोहित’ ‘सेनानी’ और ‘ग्रामणी’ प्रमुख होते थे। पुरोहितों को शासन व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वह राजा के धार्मिक कर्त्तव्यों का पालन करता था और अपनी बहुमूल्य सम्पत्तियों द्वारा उसकी सहायता करता था। सेनानी सेना का प्रधान अधिकारी होता था। इसे राजा स्वयं चुनता था। इनके अतिरिक्त राजकर्मचारी होते थे।
सेना – उस समय तक स्थायी सेना की आवश्यकता का अनुभव नहीं हो पाया था। सेना का नेतृत्व स्वयं राजा करता था। राजा के बाद सेनानी का स्थान था। पैदल और रथ, सेना के मुख्य अंग थे। भाला, धनुष, तलवार और कुल्हाड़ी उस समय के मुख्य शस्त्र थे। युद्ध के लिए सेना के प्रयाण करते समय दुन्दुभि बजाई जाती थी। सेना की व्यवस्था मुख्य रूप से युद्ध के समय की जाती थी।
न्याय व्यवस्था – वैदिक आर्यों की न्याय-व्यवस्था सरल थी। राजा न्याय का सर्वोच्च अधिकारी था। दण्ड-विधान सरल था। मृत्यु-दण्ड अज्ञात था और हत्या जैसे गंभीर अपराध के लिए भी मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था।
प्रश्न 9. वैदिककालीन के दर्शन, साहित्य, विज्ञान और कला का वर्णन कीजिए। भारत में आर्य सभ्यता की क्या देन है ?
उत्तर: पूर्व और उत्तर वैदिक काल के जीवन में बहुत अंतर हो गया। उत्तर वैदिककाल में धार्मिक सरलता समाप्त हो गई और धर्म का रूप यांत्रिक हो गया। इसी तरह जीवन के अनेक क्षेत्रों में पूर्व वैदिककाल की अपेक्षा उत्तर वैदिककाल में काफी परिवर्तन आया। इनका वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है-
षड्दर्शन – पूर्व वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में भारतीय दर्शन का काफी विकास हुआ। इस काल में अनेक ऐसे दार्शनिक हुए जिन्होंने प्रकृति और परमात्मा संबंधी रहस्य का पता लगाने का प्रयास किया। फलतः दो प्रकार के दर्शनों का विकास हुआ – (i) आस्तिक दर्शन, जो वेदों को स्वीकार करता है और (ii) नास्तिक दर्शन, जो वेदों में विश्वास नहीं करता है। न्याय, सांख्य, योग, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत आस्तिक दर्शन के छः रूप हैं।
साहित्य और विज्ञान – पूर्व वैदिक काल की अपेक्षा उत्तर वैदिक काल में मूल्यवान ग्रंथों की रचना की गई। इसी युग में अन्य तीन वेदों-सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद नामक तीन वेदों की रचना हुई तथा श्रुति, स्मृति, ब्राह्मणग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, वेदांग, उपवेद, सूत्र आदि लिखे गये। विज्ञान के क्षेत्र में भी उत्तर वैदिक काल में आर्यों ने गणित, खगोल विद्या, ज्यामिति, ज्योतिषशास्त्र, शरीर विज्ञान इत्यादि के क्षेत्र में काफी प्रगति की। वैदिक साहित्य का काफी महत्त्व है। वेद विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ हैं। इससे स्पष्ट है कि भारतीय सभ्यता और संस्कृति विश्व में सबसे अधिक प्राचीन है। वैदिक साहित्य आर्यों के शारीरिक शक्ति, मानसिक प्रतिभा और आध्यात्मिक चिंतन का द्योतक है। हिन्दू धर्म के मूल सिद्धांत वैदिक ग्रंथों में ही वर्णित है।
कला – वैदिक काल में लेखनकला का विकास नहीं हो पाया था। अतः शिक्षा का स्वरूप मौखिक था। पाँच वर्ष की आयु में उपनयन-संस्कार के बाद बच्चे गुरुकुल भेज दिए जाते थे। वहाँ वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए विद्याध्ययन करते थे। वे गुरु की सेवा करते थे और भिक्षाटन कर पेट भरते थे। उन्हें वेद, उपनिषद्, इतिहास, पुराण, व्याकरण, दर्शन, गणित, नक्षत्रविज्ञान, धनुर्विद्या, अस्त्र संचालन इत्यादि की शिक्षा दी जाती थी। चरित्र-निर्माण पर उस समय अधिक जोर दिया जाता था।
भारत में आर्य सभ्यता की देन – आर्यों ने उच्चकोटि की सभ्यता और संस्कृति का निर्माण किया, जो भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति की रीढ़ है। वैदिक सभ्यता ग्रामीण और कृषि प्रधान थी। वैदिक ग्रंथों में जिन आदर्शों और सिद्धांतों का निरूपण किया गया है, वे भारतीय जीवन के पथ-प्रदर्शक हैं। संस्कृति की हजारों वर्षों की अविच्छिन्न परम्परा का बीजारोपण ऋग्वैदिक काल में ही हुआ। इस युग में ऋग्वैदिक काल में ही हुआ। उन्होंने वेद, उपनिषद्, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और वेदांगों की रचना की। मानव इतिहास में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।
इस तरह आर्यों ने जीवन के प्रायः सभी क्षेत्रों में प्रगति की। हिन्दू-धर्म के सभी आधारभूत ग्रंथों की रचना उसी काल में हुई। आज भी वे हमारे सर्वांगीण विकास के आधार हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आधुनिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में वैदिक सभ्यता की अमिट छाप है।
मैक्समूलर ने ठीक ही कहा है-“वे दार्शनिक रचनाएँ विश्व साहित्य में अमर रहेंगी और मस्तिष्क की अत्यन्त आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ कही जाएँगी।” आर्यों की मनुस्मृति आज भी हिन्दू कानून की आधारशिला है। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था, पारिवारिक परम्परा, विवाह पद्धति, अध्यात्मवाद, एकेश्वरवाद आदि आर्यों की महत्वपूर्ण देन हैं जो हमारे समाज में प्रचलित है। वास्तव में हम आर्य हैं और हमारी रग-रग में उसकी अमिट छाप है।
प्रश्न 10. उत्तरवैदिक काल के लोगों की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर: सामाजिक स्थिति-उत्तर वैदिक काल के लोगों के सामाजिक जीवन में स्थिरता आयी। उनका जीवन अपेक्षाकृत जटिल हो गया। इस काल में समाज में 4 वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का विकास हुआ। वर्गों का निर्धारण वंश के आधार पर होने लगा। प्रत्येक वर्गों के लिए अलग-अलग नियम बनाये गये। श्रम का विभाजन हो गया। जिसके कारण पेशेवर जातियाँ बनती गई। ब्राह्मणों का स्थान सर्वश्रेष्ठ हो गया। शूद्रों को हेय की दृष्टि से देखा जाने लगा। वैश्य तथा शूद्रों का शोषण होने लगा। केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय को विशेषाधिकार दिये गये। जाति-प्रथा के बंधन कठोर होते गये। धीरे-धीरे कई जातियाँ बन गई। छुआछूत की प्रथा का विकास हुआ। दास वर्ग की उत्पत्ति हुई।
इस काल में वर्णाश्रम व्यवस्था की उत्पत्ति हुई। इसके अनुसार मनुष्य को 4 भागों में बाँट दिया गया। ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम। मनुष्य के जीवन को 100 वर्षों का मानकर प्रथम 25 वर्ष ब्रह्मचर्य के रूप में बिताना था जिसमें मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन कर विद्याध्ययन करता था। द्वितीय 25 वर्ष में लोग अपना घर बसाकर संतानोत्पत्ति, यज्ञ, दान आदि करता था। तीसरे 25 वर्ष में तपस्या में लीन रहता था तथा अंतिम के 25 वर्ष विरक्ति का जीवन व्यतीत करता था।
उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा में गिरावट आयी, बहुविवाह की प्रथा बढ़ गई। इस कारण उसका जीवन कलहपूर्ण हो गया। स्त्रियों के कई अधिकार छीन लिये गये। उन्हें केवल भोग-विलास की चीज समझी जाने लगी। पुत्री का जन्म अशुभ माना जाने लगा। कन्याओं का क्रय-विक्रय भी होने लगा। वेश्यावृति का भी प्रचलन हुआ फिर भी उसकी स्थिति संतोषजनक थी। माता, बहन, पत्नी आदि के रूपों में स्त्रियों का परिवार में सम्मान था। नारी शिक्षा पूर्ववत् लोकप्रिय रही। नृत्य एवं संगीत में वे निपुण होती थी तथा वाद-विवादों और शस्त्रार्थों में भाग लिया करती थी।
इस काल में भी लोग पहले की तरह दूध, घी, फल, सब्जी, दाल आदि का प्रयोग करते थे। धनी लोग गेहूँ तथा गरीब लोग बाजरे की रोटी का प्रयोग करते थे। सोमरस का प्रयोग भी किया जाता था यद्यपि मदिरा पान अच्छा नहीं समझा जाता था फिर भी लोग इसका प्रयोग करते थे।
वेश-भूषा में उनका स्तर ऊँचा उठा। इस समय लोग रेशमी तथा केशर से रंगे वस्त्रों का प्रयोग करने लगे। सिर पर पगड़ी पहनने की प्रथा शुरू हुई। स्त्रियाँ किनारेदार साड़ियाँ पहनने लगी तथा नये-नये सुंदर और सुडौल आभूषणों का प्रयोग करने लगी। सौन्दर्य निखार के लिए आँखों में काजल, विभिन्न तरह के सुगंधित तेलों का व्यवहार करने लगे। मनोरंजन के लिए नाटक का प्रचलन शुरू हुआ। इसके अलावे कुश्ती, तलवारबाजी, संगीत, नृत्य, चौपड़, धूत-क्रीड़ा का अधिक प्रचार हो गया था।
राजनीतिक स्थिति – उत्तर वैदिक काल में लोगों की राजनीतिक स्थिति में पहले से काफी परिवर्तन हुए। इस. काल में बड़े एवं शक्तिशाली राज्यों की स्थापना हुई जिनमें प्रभुत्व हेतु आपसी संघर्ष शुरू हुए। यह प्राचीन भारत के साम्राज्यवाद का प्रथम युग था। वे अपना प्रभाव और कीर्ति बढ़ाने के लिए राजसूय तथा अश्वमेघ यज्ञ किया करते थे। इस युग में सामंतवादी प्रवृतियों का भी विकास होने लगा। एक तरफ राजतंत्र तो दूसरी तरफ प्रजातांत्रिक भावनाएँ विकसित हो रही थी।
इस काल में राजा की शक्ति में काफी वृद्धि हुई। वह राजा, सार्वभौम, सम्राट, अधिराज आदि उपाधियाँ ग्रहण करने लगा। वह अपनी इच्छानुसार शासन करता था लेकिन उसपर पुरोहित का नियंत्रण रहता था। यह धर्म के नियमों का पालन करता था। उसका प्रमुख कर्त्तव्य राज्य के नियमों तथा ब्राह्मणों की रक्षा करना था। धर्म विरुद्ध काम करने पर उसे गद्दी से उतार दिया जाता था। उस समय राजा न्यायकर्ता, सेनापति तथा प्रजापालक सभी कुछ होता था। शासन संबंधी मामलों में परामर्श हेतु पूर्व वैदिक काल की तरह सभा और समिति नामक दो संस्थाएँ थी, यद्यपि उसका महत्त्व कम गया था। इस प्रकार राजा निरंकुश नहीं होता था।
उस समय बड़े-बड़े राज्य स्थापित होने के कारण राजपदाधिकारियों की संख्या तथा अधिकारों में काफी वृद्धि हुई। शासन प्रणाली लगभग स्थिर हो गई थी। ऊँचे अधिकारियों की ‘रलिन’ कहा जाता था इनमें प्रमुख थे–मंत्री (पुरोहित), संग्रहात्री (कोषाध्यक्ष), ग्रामिणी (न्यायालय का सभापति), सेनानी (सेनापति), सूत (सारथी) आदि। साधारण अधिकारियों में पालपति (सौ गाँवों का अफसर) स्थपति (सीमांत शासक) आदि थे। ‘उग्र’ एवं ‘जीवग्रह’ नामक पुलिस अधिकारी भी होते थे।
न्याय के क्षेत्र में राजा सर्वोच्च पदाधिकारी था। छोटे-छोटे मामलों की सुनवाई अधीनस्थ के अधिकारी करते थे। जटिल मामलों का निर्णय राजा करता था जो अंतिम एवं सर्वमान्य होता था। राजद्रोह के लिए प्राणदंड की व्यवस्था थी। ब्राह्मणों को प्राणदंड नहीं दिया जाता था।
धार्मिक स्थिति – उत्तर वैदिक काल में धर्म के मूल रूप में परिवर्तन आया। धार्मिक जीवन जटिल हो गया। इन्द्र तथा वरुण देवता का महत्त्व कम हो गया तथा विष्णु और रुद्र का महत्त्व बढ़ गया। धर्म का रूप याज्ञिक हो गया। यज्ञों की संख्या में वृद्धि हुई जिनमें राजसुय यज्ञ तथा अश्वमेघ यज्ञ प्रसिद्ध थे। यज्ञ इतने खर्चीले बना दिये गये कि वह साधारण व्यक्ति के सामर्थ से परे की चीज हो गई। ब्राह्मणों ने संसार से मुक्ति हेतु यज्ञ आवश्यक करार दिया था। अतः यज्ञ सबों के लिए आवश्यक था।
धर्म के क्षेत्र में ब्राह्मणों का महत्त्व काफी बढ़ गया उन्हें भू-सूर, भू-दइव आदि नामों से पुकारा जाने लगा। उनके बिना यज्ञ संभव नहीं था। यज्ञों में पशुबलि भी प्रारंभ हुआ। ऐसा समझा जाता था कि पशुबलि से पूर्वज तथा देवता दोनों खुश होते हैं। धर्म में बाह्याडम्बरों तथा अंधविश्वास लगा कि यज्ञों तथा मंत्रों से न केवल देवताओं को वश में किया जा सकता है, बल्कि उन्हें समाप्त भी किया जा सकता है। तप का महत्त्व काफी बढ़ गया। तप को ब्रह्म स्वीकारा गया। ऐसा समझा जाता था कि तप के बिना ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता है।
इसी काल में लोगों ने अपनी समस्याओं के लिए गहन मनन करना शुरू किया। फलतः आरण्यकों, उपनिषदों, दर्शनशास्त्रों की रचना हुई। पुनर्जन्म के सिद्धांत का अनुमोदन इसी काल में किया गया।
आर्थिक स्थिति-उत्तर वैदिक काल में आर्यों का आर्थिक संगठन और सुव्यवस्थित हुआ ‘ तथा आर्थिक जीवन अधिक समुन्नत हुआ। कृषि, व्यापार, उद्योग-धंधे आदि सभी क्षेत्रों में प्रगति हुई।
कृषि में उस समय बड़े-बड़े हलों का प्रयोग किया जाने लगा। खाद, सिंचाई तथा फसल बोने में अदला-बदली द्वारा पैदावार बढ़ाने का प्रयास किया गया। तरह-तरह की दलहन, कपास तथा सिंचाई के प्रबंध से जमीन उपजाऊ हुई तथा एक साल में तीन फसलें पैदाकर उत्पादन में वृद्धि की गई।
कृषि के अतिरिक्त पशुपालन भी किया जाता था। किसानों के पास गाय, बैल, भेड़, बकरी आदि काफी संख्या में रहते थे। गाय को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता था। पशुओं के लिए चारागाह होते थे। दूध, घी की कमी नहीं थी। लोग हाथी भी पालने लगे थे।
उस समय उद्योग – धंधों का भी काफी विकास हुआ था। धातु संबंधी ज्ञान की वृद्धि हुई। अतः नये-नये पेशों का उदय हुआ, जैसे-जौहरी, नट, गायक, वैद्य, ज्योतिषी, धोबी, सुनार, जुलाहे आदि। स्त्रियाँ चटाई, टोकरी आदि बनाने तथा कपड़े सीने का काम करती थी। शीशे का प्रयोग बटखरे के रूप में होने लगा। चरखों तथा करघों का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा।
इस काल में वाणिज्य व्यापार में काफी वृद्धि हुई। व्यापारियों का अलग आनुवंशिक वर्ग बन प्रथा भली-भाँति शुरू हो गयी। जल तथा स्थल मार्गों से विदेशों से व्यापारिक संपर्क बढ़ा। वस्त्र, कम्बल, बकरी की खाल आदि मुख्य व्यापारिक वस्तुयें थी। निष्क, शतमान तथा कृष्णत नामक सिक्कों का प्रचलन शुरू हुआ। व्यावसायिक संघों की स्थापना हुई।
प्रश्न 11. वैदिक धर्म की प्रमख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: वैदिक साहित्य विशेषकर चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद जिस संस्कृत भाषा में लिखे (या रचे) गए थे वह वैदिक संस्कृति कहलाती है। यह संस्कृत उस संस्कृत से कुछ कठिन एवं भिन्न थी जिसका प्रयोग हम आजकल करते हैं। वस्तुत: वेदों को ईश्वरीय ज्ञान के तुल्य माना जाता था तथा यह शुरू में मौखिक रूप में ही ब्राह्मण परिवारों से जुड़े लोगों तथा कुछ अन्य विशिष्ट परिवारजनों को ही पढ़ाया-सुनाया जाता था। महाकाव्य काल में रामायण तथा महाभारत की रचना के लिए जिन संस्कृत का प्रयोग किया गया वह वैदिक संस्कृत से अधिक सरल थी। इसलिए, वह संस्कृत और अधिक लोगों में लोकप्रिय हुई थी।
आर्यों ने सूर्य, अग्नि, वायु, जल आदि प्राकृतिक शक्तियों को अपने मन में उन्हें दैहिक (शरीर) रूप में उच्च प्राणियों के रूप में माना। उनमें मानव एवं अच्छे (लाभदायक) अणुओं के गुण आरोपित किये। ऋग्वेद में सबसे प्रतापी देवता इन्द्र को माना गया। उसे वर्षा और युद्ध के देवताओं के रूप में माना जाता था। दूसरा देवता अग्नि को माना गया। अग्नि और मानव और देवताओं का मध्यस्थ माना गया। अग्नि में दी गई आहुतियाँ धुंआ बनकर आकाश में जाकर देवताओं तक पहुँच जाती हैं, ऐसी आर्यों की मान्यता थी। तीसरा देवता वरुण है, जो जल और समुद्र का देवता है। उसे प्राकृतिक संतुलन के रूप में माना जाता है।
इसी प्रकार सोम, मारुन, अदिति, ऊषा आदि अन्य देवी-देवता हैं। देवियों की संख्या देवताओं से कम है। उपासना विधि है-स्तुति, पात, यथाहुति, समवेत स्वरों में गान आदि।
प्रश्न 12. महाभारत कालीन भारतीय सामाजिक जीवन की प्रमुख विशेषताओं पर एक निबंध लिखें।
उत्तर: भारत का सामाजिक जीवन (Social Life of India) – मोटे तौर पर महाभारत का काल हम उत्तर वैदिक के अंत से लेकर बुद्ध काल के काल को मानते हैं। इस काल में भी समाज का आधार पारिवारिक जीवन था।
संयुक्त परिवार (Joint Family) – इस काल में कुल या परिवार में सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कुल का प्रमुख कुलपति कहलाता था। कुलपति या तो पिता होता था या सबसे बड़ा भाई होता था। महाभारत से संदर्भ मिलते हैं प्रायः परिवार में प्रेम होता था। आयु में छोटे सदस्य बड़े परिवारजनों का सम्मान करते थे और कुलपति सभी के कल्याण की चिंता करते हुए उनके साथ व्यवहार करता था। नि:संतान दंपत्ति लड़का या लड़की गोद ले सकते थे। इस काल में प्राय: छोटे भाई बहनों की शादी आयु में बड़े भाई-बहनों से पहले करना बुरा माना जाता था। पिता की मृत्यु के बाद सबसे बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहनों का दायित्व निभाता था।
चार आश्रम (The four Ashrams) – इस काल में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन व्यवस्था पर आधारित था। जीवन को चार आश्रमों में बाँटा गया था।
ब्रह्मचर्य – वह काल जब विद्यार्थी अध्यापन में धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करता था।
गृहस्थ – वह काल जब व्यक्ति विवाहित जीवन बिताता था।
वानप्रस्थ – वह काल जब व्यक्ति त्याग का जीवन बिताता और गृहस्थी के बंधनों से मुक्त होने का प्रयत्न करता था।
संन्यास – वह काल जब मनुष्य अपने परिवार और समाज को छोड़कर तपस्वी के रूप में पूर्ण आत्मसंयम का जीवन बिताता था। पर आश्रम-व्यवस्था निम्न वर्ग पर लागू नहीं की जाती थी क्योंकि उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार न था। अन्य सबके लिए यह जीवन का नियम था किन्तु यह कहना कठिन है कि कितने मनुष्य इस व्यवस्था का पालन करते थे।
यह आश्रम विकसित तो अवश्य हुए थे। परन्तु इसमें जटिलता नहीं थी। इनका प्रभाव जनता के सामाजिक जीवन पर बहुत था। इसके कारण ही लोगों का नैतिक उत्थान हुआ।
जाति प्रथा (Caste System) – जाति प्रथा ने प्राचीन भारतीय समाज को स्थयित्व प्रदान किया। उसने देशी और विदेशी-दोनों तत्वों का समावेश प्राचीन भारतीय समाज में आसानी से कर दिया क्योंकि उनके लिए यहाँ के जाति अधिक्रम में स्थान था। यह उल्लेखनीय है कि अनेक प्राचीन समाजों में जो नग्न शोषण उन दिनों चल रहा था, जैसे कि गुलामी की प्रथा, वह प्राचीन भारत में नहीं था।
स्त्रियों की स्थिति (Position of Women) – स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति की स्वामी नहीं हो सकती थीं। वैसे बहुत सी बातों में पूर्ण स्वतंत्रता थी। विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार था। साधारणतया वह देवर के साथ विवाह कर सकती थी। कुछ बातों में स्त्रियों का स्तर बाद में, शूद्रों के समान हो गया। परिवार में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्रों का अधिक मान होने लगा।
विवाह प्रणालियाँ (Types of Marriage) – महाभारत काल में भारत में शादी की अनेक प्रणालियाँ प्रचलित थीं जिनमें प्रमुख थी : ब्रह्म विवाह, प्रजापति विवाह, प्रेम विवाह, असुर विवाह, देव विवाह, गंदर्व विवाह, राक्षस विवाह, पिशाच विवाह।
शिक्षा (Education) – महाभारत काल में शिक्षा विकसित हो गई थी। उपनयन संस्कार द्वारा जब बच्चों को ब्रह्मचर्य आश्रम में भेजते थे तो गुरु के आश्रम में रहकर सारी विद्या प्राप्त करता था। गुरु की सेवा करनी होती थी। हवन के लिए जंगल से लकड़ियाँ तोड़कर लाना, चुल्हा जलाना, भिक्षा माँगना, आदि कार्य विद्यार्थी करते थे। विद्यार्थी बिना कोष शुल्क के पढ़ते थे। भाषा, व्याकरण, सामान्य गणित के साथ-साथ नैतिक शिक्षा और राज परिवार के सदस्यों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा गुरु ही दिया करते थे।
खान-पान (Food and Drink) – गेहँ, चावल, मक्खन, घी के साथ-साथ फल और कुछ लोग माँस-मछली आदि का भी उपभोग करते थे। प्रायः लोग बकरे को काटते थे। गो हत्या को सामाजि दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता था। घोड़े का माँस भी खाते थे जैसा कि अश्व-मेघ की परम्परा से पता चलता है कि मदिरा पान किया जाता था लेकिन अनेक लोग इसे अच्छा नहीं समझते थे।
मनोरंजन (Entertainment) – घरेलू और मैदानी खेल, पासा, जुआ बहुत प्रचलित था। मैदानी खेलों में रथों की दौड़ बहुत लोकप्रिय था। लोग नृत्य और वाद्यवृन्द में भी रुचि लेते थे। स्त्रियाँ प्रायः नृत्य और गाना सीखती थीं। बाँसूरी, बीणा, ढोल, इत्यादि प्रसिद्ध थे।
चरित्रहीनता (Degeneration of Character) – महाभारत महाकाव्य से अनेक उद्धरण मिलते हैं कि लोगों का जीवन नैतिक दृष्टि से गिर गया था। राजा और धनी लोग एक से ज्यादा स्त्रियों से विवाह करते थे। कहीं-कहीं एक ही महिला से कई भाई शारीरिक संबंध रखते थे। शत्रुओं को धोखे से मारने में कोई बुराई नहीं समझी जाती थी। वैश्या गमन, जुआ खेलना, गाना बजाना और शराब पीना उच्च वर्ग के लोगों में आम बात थी।
वस्त्र तथा आभूषण (Dress and Ornaments) – इस काल में सूती वस्त्र के साथ-साथ रेशमी और ऊनी वस्त्र भी पहने जाते हैं। पगड़ी स्त्री तथा पुरुष दोनों ही प्रयोग करते थे। कढ़ाई किए वस्त्रों को विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता था। केसरिया रंग विशेष रूप से पुरुषों के लिए पसंद किया जाता था। स्त्री, पुरुष विभिन्न धातुओं के आभूषण पहनते थे।
प्रश्न 13. महावीर की जीवनी एवं उनके उपदेशों का उल्लेख करें।
उत्तर: छठी शताब्दी ई० पू० भारत में धार्मिक क्रांति हुई, उसके फलस्वरूप दो नये धर्मों का उदय हुआ-जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म। पहले के संस्थापक महावीर तथा दूसरे के गौतम बुद्ध थे। इन धर्मों ने वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध आवाज उठाई तथा मानव कल्याण के लिए सीधा रास्ता बतलाया।
जैनधर्म के प्रमुख प्रवर्तक महावीर थे। उनके बचपन का नाम वर्द्धमान था। उनका जन्म बिहार के वैशाली के निकट कुण्डिग्राम में हुआ था। उनके पिता क्षत्रिय थे और मातृक कुल के सरदार थे। इनका नाम सिद्धार्थ था। इनका विवाह लिच्छवि सरदार की बहन त्रिसला से हुआ था। इनका जन्म पार्श्वनाथ की मृत्यु के 250 वर्षों के बाद 540 ई० पू० में हुआ था। प्रारंभ में वर्द्धमान का जीवन राजकीय समृद्धि और विलासिता के साथ व्यतीत हुआ। उन्हें हरेक प्रकार की राज्योचित विद्याओं की शिक्षा दी गई। युवा होने पर उनका विवाह यशोदा नामक सुन्दर राजकुमारी से कर दिया गया। इस विवाह से उन्हें प्रियदर्शना नाम की पुत्री भी पैदा हुई।
प्रारंभ में ही महावीर चिन्तनशील प्रवृत्ति के युवक थे। 30 वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात् उनकी निवृत्तिमार्गी प्रवृत्ति और भी बढ़ गयी। उन्हें राज-पाट से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अपने बड़े भाई की आज्ञा से उन्होंने एक दिन अपना घर-द्वार छोड़ दिया और संन्यासी बनकर सत्य की खोज में निकल पड़े। कल्पसूत्र के अनुसार घर छोड़ने के 11 मास बाद उन्होंने वस्त्र पहनना छोड दिया और नग्न भ्रमण करने लगे। 12 वर्षों तक उन्होंने घोर तपस्या की। भोजन और शरीर का ध्यान न रखने से शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया। उनके नग्न शरीर पर कीट-कीटाणु चढ़ने लगे और उन्हें काटने लगे, परन्तु उन्हें इनकी जरा भी परवाह नहीं थी। उनके पीछे दुष्ट लड़कों के झुण्ड घूमते थे और उन्हें डण्डों से पीटते थे, परन्तु वर्द्धमान इन कठिनाइयों से जरा भी नहीं घबराये।
इस प्रकार 12 वर्षों तक वे कठिन तपस्या करते रहे। 42 वर्ष की आयु में जुम्मिका ग्राम के निकट राजुपलिका नदी के तट पर वर्द्धमान को एक शाल वृक्ष के निकट कैवल्य अथवा ‘पूर्ण ज्ञान’ की प्राप्ति हुई। उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर विजय भी प्राप्त कर ली थी, अतः वे ‘जिन’ भी कहलाये। अतुल पराक्रम दिखलाने के चलते वे महावीर भी कहलाये। बौद्ध ग्रंथों में उन्हें निगण्ठ नाटपुत्र भी कहा गया।
कैवल्य प्राप्ति के बाद महावीर विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर अपने धर्म का प्रचार करने लगे। वे वर्ष के आठ महीने धर्म का प्रचार करते थे तथा बरसात के दिनों में किसी नगर में विश्राम करते थे। चम्पा, वैशाली, राजगृह, मिथिला आदि जगहों का दौरा कर अपने धर्म का प्रचार लोगों में करते रहे। उनके अनुयायी जैन कहलाने लगे। इस प्रकार अपने धर्म का प्रचार करते हुए 72 वर्ष की आयु में (463 ई० पू०) उन्हें राजगीर के समीप पावापुरी में निर्वाण प्राप्त हुआ।
महावीर ने किसी धर्म की स्थापना नहीं की। उन्होंने पार्श्वनाथ के सिद्धांतों को आगे बढ़ाया तथा उसे स्थायित्व प्रदान किया। जैनियों के अनुसार इनके पहले तीर्थंकर ऋषभदेव थे। उनसे लेकर पार्श्वनाथ तक अन्य कई तीर्थंकर हुए। पार्श्वनाथ जैनियों के 23वें तीर्थंकर थे तथा महावीर 24वें। महावीर ने पार्श्वनाथ के मूल सिद्धांतों सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह (सम्पत्ति का त्याग और उसका संग्रह नहीं करना) तथा अस्तेय (चोरी नहीं करना) को तो बनाये रखा ही साथ-साथ इसमें ब्रह्मचर्य का सिद्धांत भी जोड़ दिया।
जैनदर्शन हिन्दू सांख्यदर्शन के बहुत निकट है। ईश्वर में विश्वास, संसार दुखमय है, मनुष्य को कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है और जीव के आवागमन का सिद्धांत जैनदर्शन में प्रमुख स्थान रखते हैं। जैनदर्शन का विश्वास द्वैतवादी तत्त्वज्ञान में है। उनके अनुसार प्रकृति और आत्मा दो तत्त्व हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व इन तत्त्वों से मिलकर बना है जिसमें प्रथम तत्त्व नाशवान है तथा दूसरा तत्त्व अनन्त और विकासशील है। द्वितीय तत्त्व की प्रगति करने से अन्त में मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है।
जैनदर्शन के सात तत्त्व अर्थात् सत्य हैं-
- कोई ऐसी चीज है जिसे जीवन या आत्मा कहते हैं।
- कोई ऐसी चीज है जिसे अजीव, प्रकृत या पुद्रल कहते हैं।
- जीव और अजीव का मिलन होता है।
- इन दोनों के मिलने से कुछ शक्तियों का निर्माण होता है।
- इन दोनों के मिलन को रोका जा सकता है।
- संचित शक्तियों को नष्ट किया जा सकता है।
- निर्वाण या मोक्ष प्राप्ति संभव है।
इन सात तत्त्वों के आधार पर जैनदर्शन बतलाता है कि पहले मनुष्य को बुरे कर्मों से बचना चाहिए। उसके बाद कर्म बन्द कर देना चाहिए। इसके लिए उपर्युक्त वर्णित जैन धर्म के 5 सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। निर्वाण प्राप्ति के लिए उसे तीन रत्नों-सत्य, विश्वास या श्रद्धा, सत्य ज्ञान और सत्य कर्म करना चाहिए। इनका पालन करने से ही मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है. तथा मनुष्य के कष्टों का अंत हो सकता है।
जैनधर्म में अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया गया है। जैन पशु-पक्षी, वनस्पति आदि ही नहीं, बल्कि जल, पहाड़ आदि में भी जीवन मानते हैं। फलतः आखेट, कृषि एवं युद्ध पर पाबन्दी लगा दी गई। महावीर को यह विश्वास था कि गृहस्थाश्रम में रहकर मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसके लिए संन्यासी का जीवन जीना आवश्यक था। जैन संन्यासियों को इन्द्रिय दमन हेतु कठोर नियमों का पालन आवश्यक था। जैसे-वस्त्र नहीं पहनना, सिर के बालों को जड़ से उखाड़ देना, अपना कोई निश्चित आवास नहीं रखना, सिर्फ दिन में ही यात्रा करना, जीव हत्या से बचना, अपनी प्रशंसा एवं दूसरे की बुराई नहीं करना तथा स्त्रियों के संसर्ग से बचना आदि। इन कठोर नियमों द्वारा जैनियों के कर्मों को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया गया।
जैनधर्म के ब्राह्मण धर्म के वेदवाद, यज्ञ, बलि एवं कर्मकाण्ड का विरोध किया। निर्वाण की प्राप्ति श्रद्धा, ज्ञान एवं कर्म से ही हो सकती है। इसके लिए पुरोहितों एवं यज्ञों को आवश्यकता नहीं थी। जैनधर्म के देवताओं के अस्तित्व को तो स्वीकार किया, परन्तु यह जिन से बड़ा नहीं है। जैनधर्म ने जाति-व्यवस्था पर भी बहुत कठोर प्रहार नहीं किया, बल्कि बाद में उससे समझौता नहीं कर लिया। महावीर के अनुसार पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के आधार पर ही उच्च जाति या निम्न वर्ग में जन्म होता है। शुद्ध एवं सदाचारी जीवन व्यतीत करने से निम्न जाति के मनुष्य भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। प्रारंभ में जैन धर्म में मूर्त्ति-पूजा भी आ गयी, जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा की जाने लगीं। मनुष्य की साधारण दिनचर्या में भी जैन धर्म में परिवर्तन नहीं किया। जन्म, विवाह, मृत्यु आदि के विभिन्न संस्कारों जैनियों में हिन्दुओं की भाँति होते रहे। इसी प्रकार जैन धर्म हिन्दू धर्म से अपने-आपको बहुत दूर नहीं ले जा सका। इसी कारण न तो इस धर्म का पूर्ण प्रसार हो सका और न ही यह पूर्णतया नष्ट हो सका।
महावीर ने न सिर्फ जैनधर्म की स्थापना की, बल्कि इसके प्रचार-प्रसार के लिए भी कदम उठाये। ये स्वयं विभिन्न नगरों में घूम-घूमकर इस धर्म का प्रचार करते थे। इसके प्रचार के लिए जैन संघ की स्थापना की। उनके धर्म को वैश्यों, व्यापारियों एवं राजकुलों का समर्थन प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे कौशल, मगध, विदेह, अवन्ति आदि राज्यों में इनका प्रचार हो गया। इस धर्म के अनुयायियों की संख्या 14,000 बतलाई जाती है। महावीर की मृत्यु के बाद ये दो भागों में बँट गया-एक सम्प्रदाय श्वेताम्बर और दूसरा दिगम्बर सम्प्रदाय कहलाया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने इसका दक्षिण भारत में प्रचार किया। कलिंग अथवा उड़ीसा में इसका प्रचार वहाँ के प्रसिद्ध शासक खारवेल ने किया। फिर भी बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म को न तो उतना राज्याश्रय ही प्राप्त हो सका और न ही जनता का समर्थन मिल सका।
इसके बावजूद जैनधर्म का भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के विकास में अद्भुत योगदान है। अहिंसा पर कठोर प्रतिबन्ध लगाकर इसने पशधन के संरक्षण में सहायता प्रदान की तथा आर्थिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान किया। जैनियों ने लोक-भाषा प्राकत के विकास में भी मदद की। इसी भाषा में जैनियों के इतिहास लिखे गये। इसने भारतीय दर्शन एवं कला को भी आने वाले समय में प्रभावित किया।
प्रश्न 14. जैन धर्म के मुख्य उपदेशों (शिक्षाओं) का वर्णन करें। भारतीय समाज (जीवन) पर इसका क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर: जैन धर्म के संस्थापक वर्द्धमान महावीर थे। जैन धर्म की शिक्षाएँ निम्नलिखित थीं-
(i) आत्म निग्रह से आत्मज्ञान होता है। इसे प्राप्त करने के लिए सम्यक् विश्वास, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् कर्म पर बल दिया गया।
(ii) अहिंसा पर बहुत बल दिया जाता था। उनका कथन था कि निर्जीव वस्तुओं में भी अनुभूति होती है।
(iii) जैन धर्म का पालन करने के लिए पाँच महाव्रत थे-
- अहिंसा
- सत्य
- चोरी न करना
- ब्रह्मचर्य
- अपरिग्रह।
भारतीय समाज पर जैन धर्म के प्रभाव (Effects of Jain Religion on Indian Society) – भारतीय समाज पर जैन धर्म के निम्नलिखित प्रभाव थे-
(a) जाति-पॉति का खंडन (Opposition of Caste System) – जैन धर्म में जातीय बन्धनों पर कड़ा प्रहार किया गया। उन्होंने भ्रातृभाव तथा सद्भावना को बढ़ावा दिया। इससे लोगों में दया, ममता, त्याग आदि भावनाएँ उत्पन्न हुईं।
(b) हिन्दू धर्म की कट्टरता पर प्रहार (Attack on the Rigidity of Hindus religion) – ब्राह्मणों द्वारा अनेक कर्मकाण्डों-यज्ञ, बलि अथवा खर्चीले अनुष्ठानों से जनसाधारण परेशान था। जैन धर्म बिना आडम्बर के सीधा-साधा धर्म था। इसने लोगों (हिन्दुओं) के मन पर प्रभाव डाला।
(c) राजनैतिक दुर्बलता (Political Weakness) – जैन धर्म की ‘अहिंसा परमो धर्म’ की नीति से प्रभावित होकर लोगों ने युद्ध में रुचि लेना छोड़ दिया। इसके परिणामस्वरूप कालान्तर में विदेशी शक्तियों ने आकर भारत पर अपना अधिकार जमा लिया।
(d) खान-पान में परिवर्तन (Changes Eating Habits) – अहिंसा की भावना से प्रेरित होकर लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया। इससे जीव हत्या तो रुकी ही, साथ ही पशु धन में वृद्धि भी हुई।
(e) भारतीय कला, स्थापत्य कला और साहित्य पर प्रभाव (Effects of Indian Art, Architecture and Literature) – दिलवाड़े के जैन मन्दिर, माउण्ट आबू का जैन मन्दिर, खजूराहो के जैन मन्दिर एवं अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ स्थापत्य कला के सुन्दर नमूने हैं। जैन धर्म के ‘अंग’ ग्रन्थ ऐतिहासिक महत्त्व के हैं।
प्रश्न 15. जैनधर्म की सफलता के कारणों को दर्शायें।
उत्तर: महावीर के जीवनकाल में ही और उनकी मृत्यु के पश्चात् भी जैनधर्म का भारत में प्रचार-प्रसार हुआ। जैनधर्म की सफलता या विकास में अनेक कारणों ने योगदान किया-
तत्कालीन राजवंशों का समर्थन – जैनधर्म की सफलता के लिए कुछ सीमा तक स्वयं . महावीर का एक राजपरिवार से सम्बद्ध होना था। महावीर के उपदेशों और उनके आभिजात्य कुल में उत्पन्न होने से प्रभावित होकर क्षत्रिय राजाओं ने उनके उपदेशों को उत्साहपूर्वक ग्रहण किया और उनके समर्थक बन गए। जैनग्रंथ आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ के प्रधान चेटक एवं अवन्ती का राजा प्रद्योत अपनी आठ रानियों के साथ महावीर का अनुयायी बन बैठा। अन्य जैनग्रंथों (उत्तराध्ययनसूत्र, औपपादिकसूत्र इत्यादि) से भी पता चलता है कि बिम्बिसार, अजातशत्रु जैसे मगध के शक्तिशाली शासकों, कौशाम्बी नरेश की रानी मुगावती, सिन्धु-सौवीर के राजा उदयन, पावा के मल्ल इत्यादि भी महावीर के समर्थक थे। बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण में और चेदिवंशीय शासक खारवेल ने उड़ीसा में इसका प्रचार किया। शासकों द्वारा जैनधर्म को मान्यता देने के परिणामस्वरूप उन राज्यों की जनता और आभिजात्य वर्ग के बीच भी नए धर्म की लोकप्रियता बढ़ी।
वैश्यों का समर्थन – नए धर्म को लोकप्रिय और सफल बनाने में वैश्यवर्ग का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। जैनधर्म ने वस्तुत: नवीन आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप ही अपने को ढाला था। हिंसा पर प्रतिबंध लगाने से नवीन कृषि प्रणाली को लाभ पहुँचा। पशुधन का हनन रुक गया, कृषि का उत्पादन बढ़ा। परिणामस्वरूप व्यापार-वाणिज्य, नगरों का उदय, सिक्कों का प्रचलन, कर्ज और सूद की प्रथा और नागरीय जीवन का विकास संभव हो सका। इन नए आर्थिक परिवर्तनों से सबसे अधिक लाभ कृषकों, कारीगरों और व्यापारियों (वैश्यों) को ही था। अतः, इस वर्ग ने नए धर्म की अभिवृद्धि में गहरी रुचि ली एवं आर्थिक सहायता भी प्रदान की। यही बात बौद्धधर्म के साथ भी लागू होती है।
सरल प्रचार माध्यम – जैनधर्म की सफलता इस बात पर भी निर्भर थी कि महावीर और अन्य जैन उपदेशकों ने अपने विचारों को जनता के समक्ष सरल और सुबोध भाषा में रखा। अपने उपदेशों से जनसाधारण को अवगत कराने के लिए संस्कृत जैसी गूढ़ और कठिन भाषा का प्रयोग न कर प्राकृत भाषा को, जो जनसाधारण की भाषा थी, इन लोगों ने माध्यम बनाया। जैनों ने कुछ ग्रंथ बाद में यद्यपि संस्कृत में भी लिखे गए, परंतु आरम्भ में वे अर्द्धमागधी में ही लिखे गए। इसके कारण जनता की रुचि इस धर्म में बढ़ी।
भेदभाव की नीति का परित्याग – जैनधर्म की सफलता का एक प्रधान कारण यह था कि इसने ब्राह्मणधर्म की विभेदपूर्ण नीति का त्याग किया और सभी वर्गों और वर्णों को एक समान धरातल पर ला खड़ा कर दिया। महावीर के धर्म में सभी व्यक्ति समान थे; न कोई ऊँचा था न नीचा। सभी जीवों में समान आत्मा का निवास रहता था। अपने सत्कर्मों द्वारा सभी निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। यहाँ तक कि स्त्रियों और पुरुषों में भी विभेद नहीं किया गया। महावीर ने अपने संघ के द्वार सबके लिए समान रूप से खोल दिए। फलतः, ब्राह्मणवाद से त्रस्त जनता नए धर्म की तरफ आकृष्ट हुई।
जैनधर्म का व्यावहारिक स्वरूप – महावीर का धर्म ब्राह्मणधर्म (वैदिक धर्म) की तरह आडम्बरपूर्ण नहीं था। इस धर्म में आस्था रखना बिलकुल ही सरल था। निर्वाण की प्राप्ति के लिए न तो पुरोहितों के माध्यम की जरूरत थी, न ही यज्ञ या बलि की। बिना किसी विशेष झंझट के पाँच महाव्रतों एवं त्रिरत्नों का पालन कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता था। यद्यपि जैन भिक्षुओं के लिए धर्म के नियम कड़े थे, तथापि जनसाधारण के लिए ये नियम कठिन नहीं थे। अतः, जनता ने नए धर्म का स्वागत किया।
जैनसंघ का योगदान – जैनधर्म के प्रचार में जैनसंघ की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यद्यपि संघ की स्थापना महावीर के पूर्व ही हो चुकी थी, परंतु महावीर ने नए ढंग से संगठित कर इस संघ को प्रचार का माध्यम बनाया। संघ के द्वार सभी के लिए खुले हुए थे, इसमें किसी का प्रवेश वर्जित नहीं था। यहाँ तक कि ब्राह्मणों को भी इसमें शामिल किया गया। इसके सदस्य संयम और नियमपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए धर्म का प्रचार करते थे। इससे नए धर्म की लोकप्रियता बढ़ी।
आरम्भ में यद्यपि जैनधर्म का तेजी से प्रचार हुआ, तथापि यह बौद्धधर्म जैसी स्थिति प्राप्त नहीं कर सका। बाद में इसका पतन होने लगा और यह क्षेत्र-विशेष में ही सिमटकर रह गया। गंगाघाटी में इसका प्रभाव बौद्धधर्म की अपेक्षा कम रहा। अनेक कारणों से जैनधर्म का पतन हुआ।
प्रश्न 16. जैनधर्म के पतन के कारणों को बतावें।
उत्तर: जैनधर्म बौद्धधर्म की तरह लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं-
ब्राह्मणधर्म से सम्बन्ध बनाए रखना – जैनधर्म की असफलता का एक मुख्य कारण यह था कि यह अपने-आपको पूर्णतः ब्राह्मणधर्म से अलग नहीं कर सका। महावीर ने वैदिक दर्शन का पूर्ण परित्याग नहीं किया, बल्कि उसे एक दार्शनिक दर्जा प्रदान कर दिया। इस धर्म के कोई विशेष सामाजिक धर्मोपदेश नहीं थे, बल्कि वे वैदिक धर्म से ही मिलते-जुलते थे। जैनों के पारिवारिक संस्कार वैदिक संस्कारों के ही समान थे। ब्राह्मणधर्म की ही तरह भक्तिवाद, देवताओं का अस्तित्व इत्यादि था। वस्तुतः जैनधर्म ने ब्राह्मणधर्म से अपने को अलग करने का प्रयास नहीं किया। फलस्वरूप, जनता को इस धर्म में कोई ऐसी नई बात नहीं दिखी, जिससे प्रभावित होकर वे इसकी तरफ आकृष्ट हों।
नियमों की कठोरता – जैनधर्म ने कठिन तपस्या और आत्मपीड़न पर अत्यधिक बल प्रदान किया। संघ और धर्म के नियम इतने कठोर थे कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनका पालन संभव नहीं था। वस्त्र नहीं पहनना, भूखा रहना, धूप में शरीर को तपाना, बाल उखड़वाना इत्यादि ऐसे नियम थे, जिनका पालन सबके लिए संभव नहीं था। इसलिए, यह धर्म कभी लोकप्रिय नहीं हो सका।
अहिंसा पर अत्यधिक बल प्रदान करना – जैनधर्म ने अहिंसा की नीति को इतना अधिक महत्त्वपर्ण बना दिया कि वह अव्यावहारिक बन गया। आरम्भ में क्षत्रिय और कषक भी इस धर्म की तरफ आकृष्ट हुए, परंतु बाद में वे इससे विमुख होने लगे। क्षत्रिय के लिए युद्ध करना और कृषक के लिए खेती करना, इस धर्म का पालन करते हुए संभव नहीं था। इसी प्रकार जनसाधारण के लिए भी यह संभव नहीं था कि वह सदैव रास्ता साफ करते हुए चले, जल छानकर पीए या मुख पर वस्त्र डालकर श्वास ले, जिससे किसी जीवाणु की हत्या न हो जाए। जैन अहिंसा का दर्शन अव्यावहारिक सिद्ध हुआ और अपनी महत्ता खो बैठा। गृहस्थों के लिए इसका पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य था।
जातिप्रथा के दर्शन को बनाए रखना – जैनधर्म जाति व्यवस्था से भी अपने-आपको पूर्णतः अलग नहीं कर सका। महावीर भी मानते थे कि कर्मफल के अनुसार ही मनुष्य का जन्म उच्च या निम्नवर्ग में होता है। संघ में व्यावहारिक रूप से उच्चवर्ण के व्यक्ति ही ज्यादा सम्मिलित हुए। जाति प्रथा की कमजोरी ने इस धर्म को सर्वमान्य नहीं बनने दिया।
उचित राज्याश्रय का अभाव – जैनधर्म की विफलता का एक अन्य कारण यह था कि इस धर्म को उचित राज्याश्रय नहीं मिल सका। यद्यपि लिच्छवियों, मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इस धर्म को स्वीकार किया, तथापि इसे वे अपना पूरा समर्थन नहीं दे पाए। इन लोगों ने बाद में बौद्धधर्म को ज्यादा महत्त्व प्रदान किया। इसी प्रकार, चन्द्रगुप्त मौर्य और खारवेल को छोड़कर अन्य किसी महत्त्वपूर्ण शासक ने इस धर्म को प्रश्रय नहीं दिया। बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म को किसी अशोक या कनिष्क जैसे धार्मिक उत्साह से परिपूर्ण शासक का समर्थन नहीं मिल सका। फलतः, जैनधर्म कभी भी राजधर्म नहीं बन सका। इसलिए भी जनसमुदाय का समर्थन जैनधर्म को नहीं मिल सका।
अन्य कारण – अन्य कारणों के चलते भी जैनधर्म का बहुत अधिक प्रचार नहीं हो सका। जैनधर्म के विकास में सबसे बड़ी बाधा बौद्धधर्म के उदय ने कर दी। बौद्ध धर्म जैनधर्म से ज्यादा सरल और ग्राह्य था। इसलिए, धीरे-धीरे बौद्धधर्म का प्रभाव बढ़ता गया और जैनधर्मावलम्बियों की संख्या घटने लगी। इसी प्रकार, ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान ने भी इस धर्म के विकास को आघात पहुँचाया। जैनधर्म का विभाजन भी इसकी प्रगति में बाधक बना। जैनों का संगठन और प्रचार माध्यम भी कमजोर था, संघात्मक संगठन की कमजोरी के कारण धर्म प्रचारकों का भी अभाव था। अतः, जैनधर्म बौद्धधर्म जैसी सफलता नहीं प्राप्त कर सका।
प्रश्न 17. गौतम बुद्ध के जीवन और उपदेशों का वर्णन करें।
उत्तर: गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 563 ई० पू० में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में अवस्थित लुम्बिनी में हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।
बचपन से ही गौतम चिन्तनशील व्यक्ति थे। इनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगता था। इनका विवाह यशोधरा से हुआ था तथा इनको एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। एक बार इन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी एवं एक मृत व्यक्ति को देखा। इन दृश्यों ने इनके मन में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। 29 वर्ष की उम्र में इन्होंने घर छोड़ दिया, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटकते रहे। अन्त में 35 वर्ष की उम्र में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तब से वे बुद्ध अर्थात् प्राज्ञावान कहलाने लगे। उन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। वे लगभग 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे एवं समकालीन सभी वर्ग के लोग उनके शिष्य बने। 483 ई० पू० में पूर्वी उत्तरप्रदेश में कुशीनगर नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हुई। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहते हैं।
गौतम बुद्ध व्यावहारिक सुधारक थे। वे आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्धित निरर्थक वाद-विवादों से दूर रहे तथा उन्होंने दोनों के अस्तित्व से इनकार किया। उन्होंने कहा कि संसार दुःखमय है और इस दु:ख के कारण तृष्णा है। यदि काम, लालसा, इच्छा एवं तृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली जाये तो निर्वाण प्राप्त हो जायेगा, जिसका अर्थ है कि जन्म एवं मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जायेगी।
गौतम बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति का साधन अष्टांगिक मार्ग को माना है। ये आठ साधन हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। उन्होंने कहा कि न तो अत्यधिक विलाप करना चाहिए और न अत्यधिक संयम ही बरतना चाहिए। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे। उन्होंने सामाजिक आचरण के कुछ नियम निर्धारित किये थे जैसे-पराये धन का लोभ नहीं करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, नशे का सेवन नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए तथा दुराचार से दूर रहना चाहिए।
प्रश्न 18. बौद्ध धर्म के पतन के कारणों को लिखिए।
उत्तर: बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
(i) हिन्दू धर्म में सुधार (Reforms in Hinduism) – हिन्दू धर्म के असंख्य देवी-देवता हैं। अतः उन्होंने गौतम बुद्ध को भी अवतार मानकर उसकी भी पूजा अर्चना शुरू कर दी। इनके कुछ सिद्धान्तों जैसे सत्य और अहिंसा को ग्रहण कर लिया। ब्राह्मणों एवं हिन्दू विद्वानों के समय पर चेत जाने के कारण हिन्दू धर्म का विघटन रुक गया। जो लोग हिन्दू धर्म छोड़कर चले गये थे उसे उन्होंने पुनः स्वीकार कर लिया।
(ii) बौद्ध धर्म का विभाजन (Split in Buddhism) – कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म का विभाजन हीनयान और महायान के रूप में हो गया था। महायान शाखा को मूर्तिपूजा की छूट दी गई जिसके फलस्वरूप कई लोगों ने फिर से इस धर्म में प्रवेश पा लिया, जो पहले. इसे छोड़ चुके थे।
(iii) बौद्ध मठों में भ्रष्टाचार (Corruption in the Buddhist Sanghas) – मठों में सुख-सुविधाओं के मिल जाने तथा स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने की छूट दिये जाने के कारण मठों में भ्रष्टाचार फैल गया। भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ धार्मिक कार्यों की आड़ में विषय-वासनाओं में लग गये। उनका चरित्र भ्रष्ट हो गया। उनके सब त्याग, तपस्या व आदर्श मिट्टी में मिल गये। गौतम बुद्ध के उपदेशों को भलकर वे वासनाओं में लिप्त हो गये जिससे समाज पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।
(iv) राजकीय सहायता का न मिलना (Loss of Royal Patronage) – कनिष्क की मृत्यु के पचात बौद्धों को राजकीय सहायता मिलनी बन्द हो गई। गप्त साम्राज्य के आ जाने के कारण हिन्दू धर्म का बढ़ावा मिलना प्रारम्भ हो गया। उधर बौद्ध धर्म धनाभाव के कारण अधिक दिनों तक नहीं चल सका।
(v) बौद्ध धर्म में जटिलता आना (Arrival of Complexity in the Buddhism) – बौद्धों ने हिन्दुओं के कई सिद्धान्त ग्रहण कर लिये थे। जन-साधारण की भाषा को छोड़कर वे संस्कृत में साहित्य रचना करने लगे थे। अतः यह धर्स जनता की समझ से बाहर होने लगा था।
(vi) हिन्दु उपदेशकों का आना (Coming of the Hindu Missionaries) – कुमरिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे हिन्दू विद्वानों के मैदानों में आ जाने से बौद्ध विद्वानों की दाल गलनी बंद हो गई थी। वे इन सिद्धान्तों के तर्कों के सामने नहीं ठहर पाते थे।
(vii) राजपूत शक्ति का विस्तार (Rise of Rajpoot Power) – सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक सारे उत्तरी भारत में राजपूतों की सत्ता छा गई। राजपूत शक्ति के उपासक थे। वे अहिंसा को कायरता मानते थे। उनका मत था कि बौद्ध मत में अहिंसा का अर्थ मृत्यु को बुलावा देना होता है, अत: अहिंसा आदि सिद्धान्त ताक पर रख दिये गये। इससे बौद्ध धर्म का प्रचार कार्य बन्द होने लगा और वे विदेशों में जाने लगे।
(viii) मुसलमानों के आक्रमण (The Muslim Invasions) – बारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी और अन्य आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किये। बौद्धों में उनके आक्रमण का मुकाबला करने का साहस न था। अतः वे या तो मारे गये, या निकटवर्ती क्षेत्रों जैसे नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका आदि में चले गये।
(ix) हूणों का आक्रमण (Invasions of the Hunas) – बौद्धों की अधिकतम हानि हूणों द्वारा हुई। उन्होंने हजारों भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। उनके मठों को खण्डहर बना दिया गया। तक्षशिला आदि विश्वविद्यालयों को आग लगा दी तथा बौद्ध साहित्य को जला दिया गया। इस प्रकार से पंजाब, राजपूताना एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त से बौद्धों का सफाया हो गया था।
प्रश्न 19. छठी शताब्दी ई. पू. में भारत की राजनीतिक दशा का वर्णन करें।
अथवा, बुद्धकालीन सोलह महाजनपदों का परिचय दें।
उत्तर: छठी शताब्दी ई० पू० में उत्तरी भारत की राजनीतिक अवस्था में उत्तरोत्तर उन्नति हो रही थी। वैदिककाल में कबीलों या जनों का महत्व था। उत्तर वैदिककाल में प्रादेशिक राज्यों की स्थापना का काम हुआ था और ई० पूर्व छठी शताब्दी में कई महाजनपदों की स्थापना हुई । इसका वर्णन हमें बौद्ध और जैन धर्मग्रन्थों में मिलता है। बौद्ध धर्म ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में अंग, मगध, काशी, कोशल, बज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अस्मक, अति, गांधार और कंबोज का वर्णन मिलता है। जैन धर्मग्रन्थ भगवती सूत्र में अंग, बंग, मगध, मलय, मालव, अच्छ, वच्छ. कच्छ पाध, लाध, वज्जि, मोलि, काशी, कोशल, अवाह और सम्मतर का वर्णन मिलता है। इन दोनों सूचियों में अंग, मगध, वत्स, बज्जि, काशी और कोशल का नाम समान रूप से मिलता है। इस संदर्भ में अंगुत्तर निकाय द्वारा प्रदत्त सूची को ही ज्यादा प्रामाणिक माना गया है, क्योंकि इसमें समकालीनता की झलक अधिक है। बौद्ध साहित्य में दस गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है। ये गणराज्य थे-कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, कुशीनारा के मल्ल, मिथिला के विदेह, पिप्पलीवन के मोरिय, सुंसुमार पर्वत के भग्ग, अल्कप्प के बुलि से सुपुत्र के कलाम और वैशाली के लिच्छवि। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तरी भारत कई महाजनपदों और गणराज्यों में विभाजित था।
सोलह महाजनपद
1. अंग – अंग मगध के पूर्व में स्थित था। इसकी राजधानी चंपानगरी में थी, जो सभ्यता और संस्कृति का केंद्र था। चम्पानगरी एक व्यापारिक नगर के रूप में मशहूर था। विधुर पंडित जातक के अनुसार राजगृह भी अंग का ही नगर था। अंग का मगध से बराबर संघर्ष होता रहता था। बाद में मगध की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शिकार होकर उसे अपनी स्वतंत्रता खोनी पड़ी।
2. मगध – छठी शताब्दी ई० पूर्व में मगध एक शक्तिशाली राज्य था। इसकी राजधानी राजगृह में थी। वृहद्रथ और जरासंध यहाँ के प्रमुख राजा हो चुके थे। ये प्राग्बुद्ध काल के शासक थे। मगध साम्राज्यवादी नीति में विश्वास रखता था। इसने अंग पर अधिकार भी कर लिया था।
3. काशी – काशी की राजधानी वाराणसी थी। यह वरुणा और असी नदियों के संगम पर बसा हुआ था। बारह योजनों में फैला यह नगर भारत के सर्वश्रेष्ठ नगरों में से था। महाबग्ग में इसके वैभव का उल्लेख सुंदर ढंग से किया गया है। कोशल के साथ राजनीतिक प्रभुता के लिए इसकी लड़ाई होती रहती थी।
4. कोशल – यह राज्य काशी के उत्तर में स्थित था। इसके विस्तार का क्षेत्र उत्तर प्रदेश का मध्य भाग था। इसकी राजधानी श्रावस्ती में थी। इस समय तक इसकी पहली राजधानी अयोध्या का महत्व कम हो चुका था। इसका काशी के साथ बराबर संघर्ष होता रहता था। इसने काशी को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। आगे चलकर मगध के शासक अजातशत्रु ने कोशल को जीतकर मगध में मिला लिया।
5. बज्जि – बृज्जि आठ राज्यों का संघ था जिसमें लिच्छवि, विदेह और ज्ञात्रिक विशेष महत्वपूर्ण थे। यहाँ गणतंत्रीय शासन पद्धति थी। इसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र था। इस संघ की स्वतंत्रता पर भी मगध ने ही आघात पहुँचाया था।
6. मल्ल – मल्ल भी एक महत्वपूर्ण गणराज्य था। यह वृज्जि के पश्चिम और कोशल के पूर्व में स्थित था। यह दो शाखाओं में विभक्त था। एक पावा के मल्ल के नाम से जाने जाते थे, दूसरा कुशीनगर के मल्ल के नाम से जाने जाते थे। इनका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।
7. चेदि – चेदि नामक राज्य यमुना के दक्षिण में स्थित था तथा इसकी राजधानी शक्तिमती थी। शिशुपाल चेदि का ही राजा था।
8. वत्स – वत्स नामक राज्य यमुना के उत्तर में तथा काशी से पश्चिम स्थित था। इसकी राजधानी कौशाम्बी में थी। व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने की वजह से इसका काफी महत्व था।
9. कुरु – आधुनिक दिल्ली और मेरठ के समीप कुरु नामक महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में थी। प्रारंभ में यहाँ राजतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था थी, किन्तु बाद में यहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। एक जातक के अनुसार, इसमें 300 के लगभग संघ थे। जातकों में यहाँ के राजाओं का विवरण मिलता है। इसमें सुतसोम, कौरव एवं धनंजय का नाम उल्लेखनीय है।
10. पांचाल – पांचाल महाजनपद कुरु के पूर्व और दक्षिण में स्थित था। गंगा नदी के द्वारा यह दो भागों में बाँट दिया गया था। उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिछत्र और दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल्य नगर में थी। यहाँ भी कुरु की तरह ही राजतंत्र और बाद में गणतंत्र की स्थापना हुई थीं। चुलानी ब्रह्मदत्त पांचालों का एक महान शासक था।
11. मत्स्य – मत्स्य नामक महाजनपद द्विषद्वती नदी के दक्षिण में स्थित था। इसकी राजधानी विराटनगरी थी। इस पर पहले चेदियों ने और बाद में मगध ने अधिकार कर लिया था।
12. शूरसन – शूरसेन का राज्य कुरु के दक्षिण और यमुना के किनारे था। इसकी राजधानी मथुरा थी। यहाँ पहले गणतंत्र, फिर राजतंत्र की स्थापना हुई थी। यहाँ यादवों का शासन था।
13. अस्मक – यह जनपद गोदावरी नदी के दक्षिण में स्थित था तथा इसकी राजधानी पोतन थी। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं का यहाँ शासन था। अवन्ति के साथ संघर्ष में इसने अपनी स्वतंत्रता गँवा दी।
14. अवन्ति – विन्ध्य पर्वत के उत्तर में यह एक शक्तिशाली राज्य था जो उत्तर और दक्षिण भारत के बीच कड़ी का काम करता था। यह भी दो भागों उत्तरी और दक्षिणी अवन्ति में बँटा हुआ था। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जयनी और दक्षिणी अवन्ति की राजधानी महिष्मती थी । इसका विस्तार क्षेत्र आधुनिक मालवा प्रांत था।
15. गाधार – गांधार नामक जनपद आधुनिक अफगानिस्तान में सिंधु नदी के किनारे स्थित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसका अवन्ति और मगध से शत्रुतापूर्ण संबंध था। इसकी प्रसिद्धि का कारण तक्षशिला स्थित विश्वविद्यालय था।
16. कंबोज – गांधार के उत्तर-पश्चिम में कंबोज नामक महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी हाटक या राजपुर थी। संभवतः द्वारका भी इसी राज्य के अंतर्गत स्थित था।
अन्य छोटे राज्य
अंगुत्तर निकाय में वर्णित इन महाजनपदों के अलावा केकय, भद्रक, त्रिगर्त, यौधेय, शिवि, अम्बष्ठ, सौबीर आदि राज्य भी थे, लेकिन ये बहुत छोटे थे और साम्राज्यवादी ताकतों के बीच महत्वहीन थे।
दस गणराज्य : सोलह महाजनपदों के अलावा पालि ग्रंथों में दस गणराज्यों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इनमें से कुछ का उल्लेख तो सोलह महाजनपदों के अंतर्गत भी है। इन राज्यों में वंश-परम्परा के अनुसार कोई राजा नहीं होता था, बल्कि प्रजा द्वारा निर्वाचित व्यक्ति शासन का प्रमुख होता था। इन दसों गणराज्यों का विवरण नीचे प्रस्तुत है-
- कपिलवस्तु के शाक्य – यह नेपाल की तराई में स्थित था। यहाँ के शासन के प्रधान शुद्धोधन थे जो बुद्ध के पिता थे। उनका शासन 500 सदस्यों वाली परिषद् की सहायता से चलता था।
- रामग्राम के कोलिय – कपिलवस्तु के पूर्व में कोलिय लोगों का राज्य था। इनका शाक्यों से बराबर संघर्ष होता रहता था।
- पावा के मल्ल – यह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के समीप स्थित था। इसकी राजधानी पावा में थी। यहीं संभवतः महावीर का देहांत हुआ था।
- कुशीनारा के मल्ल – यह भी उत्तर प्रदेश में ही था और बुद्ध का परिनिर्वाण संभवतः यहीं हुआ था।
- मिथिला के विदेह – विदेहों का राज्य एक अराजक गणराज्य था। जहाँ जनक जैसे ख्याति प्राप्त राजा हुए थे।
- पिप्पलीवन के मोरिय – यहाँ शक्तियों की ही एक शाखा राज्य करती थी। मोरों की अधिकता के कारण यहाँ के लोगों को मोरिय के नाम से जाना जाता था।
- सुमेर पर्वत के भग्ग – यहाँ ब्राह्मणों का शासन था। इनका राज्य उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के नजदीक था। इनका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है।
- अलकप्प के बुलि – बुलि लोगों का राज्य बिहार के आधुनिक मुजफ्फरपुर और शाहाबाद के नजदीक कहीं था।
- केसपुत्र के कलाम – इसका वर्णन हमें शतपथ ब्राह्मण और जातक ग्रंथों में मिलता है। बुद्ध के गुरु आलार कलाम यहीं के रहनेवाले थे।
- वैशाली के लिच्छवि-लिच्छवियों का यह गणराज्य था और इसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली एक वैभवशाली नगर था। अजातशत्रु के समय में मगध के द्वारा इसकी स्वतंत्रता छीन ली गयी थी। आम्रपाली यहाँ की नगरवधू एवं नर्तकी थी जो बाद में बुद्ध के सम्पर्क में आकर भिक्षुणी बन गयी थी।
राजनीतिक प्रवृत्तियाँ
उपरोक्त बातों को देखने से हमें उस समय की विभिन्न राजनीतिक प्रवृत्तियों का पता चलता है, जो निम्नलिखित हैं-
1. विकेन्द्रीकरण की भावना – ई० पूर्व छठी शताब्दी में संपूर्ण भारत कई भागों में विभाजित था। बौद्ध और जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार भारत सोलह महाजनपदों में विभाजित था। इसके अलावा भी कुछ छोटे-छोटे राज्यों का पता हमें अन्य स्रोतों से चलता है, जिनमें केकय, मुद्रक, त्रिगर्त, यौधेय आदि प्रमुख थे। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में विकेन्द्रीकरण की भावना काम कर रही थी।
2. शासन की पद्धतियाँ – उपरोक्त राज्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इस काल में दो तरह की शासन-पद्धतियाँ प्रचलित थीं। कोशल, मगध, वत्स एवं अवन्ति उस समय के प्रमुख राजतन्त्र थे। बृज्जि, मल्ल, कपिलवस्तु, मिथिला आदि में गणतंत्रीय पद्धति का बोलबाला था। लेकिन राजतंत्रीय एवं गणतंत्रीय दोनों ही शासन-पद्धतियाँ प्रचलित थीं।
3. परिवर्तनशील शासन-पद्धति – इस संदर्भ में एक बात और प्रकाश में आती है। वह यह कि समय के अंतराल में किसी-किसी महाजनपद में शासन-पद्धति में परिवर्तन भी होता रहता था। उदाहरणस्वरूप कुरु और पांचाल में राजतंत्रीय व्यवस्था के बाद गणतंत्र की स्थापना हुई थी, जबकि शूरसेन में गणतंत्र की कब्र पर राजतंत्र की स्थापना हुई। यह समय के मुताबिक राजाओं की मानसिकता में होनेवाले परिवर्तनों को बतलाया है।
4. साम्राज्यवादी भावना का विकास – उपरोक्त विवरणों से यह भी पता चलता है कि छठी शताब्दी ई० पू० राजनीतिक दृष्टिकोण से उथल-पुथल का समय था। एक जनपद दूसरे जनपद के साथ संघर्ष करता था। विजय और विस्तार की लालसा में महाजनपदों के बीच होनेवाला यह संघर्ष उस समय के राजनीतिक जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। कहने का तात्पर्य यह है कि साम्राज्यवाद की भावना का विकास हो रहा है।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ई० पूर्व छठी शताब्दी में भारत कई महाजनपदों में विभक्त था जिनमें अलग-अलग शासन-पद्धतियों की स्थापना हुई थी।
प्रश्न 20. मगध साम्राज्य के उत्थान के क्या कारण थे ?
उत्तर: छठी शताब्दी ई० पूर्व के महाजनपदों में अंतत: मगध एक साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभरा। विम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे पराक्रमी राजाओं ने मगध के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 321 ई० पूर्व तक इसने एक विशाल साम्राज्य का रूप धारण कर लिया।
मगध साम्राज्य के उत्थान के कारण
(i) लोहे का भंडार – मगध की आरंभिक राजधानी राजगृह के नजदीक लोहे का भंडार था। लोहे के औजारों से मगध के लोगों ने जंगलों को साफ किया और इसका अनुकूल असर कृषि के विकास पर पड़ा। कृषि के क्षेत्र में विकास से मगध की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई और उसके राजनीतिक उत्कर्ष में इसने सहायक की भूमिका निभायी। लोहे से शस्त्रास्त्रों का भी निर्माण हुआ। इससे भी वहाँ के लोगों को अन्य जनपदों को जीतने में आसानी हई। कहने का तात्पर्य यह है कि लोहा के भंडार की उपलब्धि उनके लिए दोहरे लाभ की बात सिद्ध हुई। इसने न केवल इन्हें सुदृढ़ आर्थिक आधार प्रदान किया बल्कि उनके राजनीतिक उत्कर्ष में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
सामरिक इष्टिकोण से महत्वपर्ण स्थलों पर राजधानी – मगध की दोनों राजधानियाँ सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थानों पर थीं। राजगृह पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ था और पाटलिपुत्र गंगा, गंडक तथा सोन के संगम पर स्थित था। इसके अलावा यह चारों ओर से नदियों से घिरा था। नदियों के किनारे बसे होने से संचार की काफी सुविधा थी। राजगृह एक अभेद्य दुर्ग था तथा पाटलिपुत्र एक जलदुर्ग की तरह था। पाटलिपुत्र के उत्तर और पश्चिम में गंगा तथा सोन नदी बहती थी और दक्षिण से पुनपुन नदी घेरे हुई थी। मगध का सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान पर होना भी उसके राजनीतिक उत्कर्ष का एक कारण था।
(iii) हाथी के उपयोग की खास सुविधा – मगध को देश के पूर्वी भाग से हाथी मिलते थे। उन्होंने अपनी सेना में हाथियों से युक्त सेना को भी स्थान दिया तथा अपने पड़ोसियों के विरुद्ध इसका उपयोग किया। हाथियों के सहारे वे दुर्गों को भेदने और यातायात की सुविधा से रहित स्थानों पर पहुँचने का काम करते थे। हाथियों के उपयोग की इस खास सुविधा ने मगध के उत्कर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। ऐसा इसलिए कि भारत के विभिन्न राज्य घोड़े और रथ का उपयोगते थे, लेकिन मगध ही पहला राज्य था जिसने हाथियों का बडे पैमाने पर इस्तेमाल किया।
(iv) व्यापारिक मार्ग से जुड़ा होना – मगध व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। वह स्थल और जल-मार्ग से देश के विभिन्न भागों से जडा हआ था। अतः यहाँ व्यापार और वाणिज्य तथा नगरों का उदय हआ था। व्यापार और वाणिज्य से कर के रूप में प्राप्त होनेवाली आमदनी से मगध के राजा आर्थिक दृष्टि से काफी ठोस हो गये थे और उनकी इस आर्थिक सुदृढ़ता ने राजनीतिक महत्व प्रदान करने में काफी मदद की थी।
(v) प्रतापी राजाओं का योगदान – मगध के उत्कर्ष का एक कारण वहाँ के प्रतापी राजा भी थे। बिंबिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे कई साहसी और महत्त्वाकांक्षी राजा मगध में हुए। इन्होंने सभी उपलब्ध साधनों-ईमानदारी तथा बेईमानी से अपने राज्य का विस्तार किया और उसे मजबूत बनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर उपरोक्त वर्णित राजाओं की तरह मगध में राजा नहीं हुए होते तो मगध का उत्कर्ष संभव नहीं होता।
प्रश्न 21. चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर: चन्द्रगुप्त का जन्म 345 ई० पू० में भोरिय वंश के क्षत्रिय कुल में हुआ था जो सूर्य वंशी शाल्यों की एक शाखा थी और जो नेपाल की तराई में पिप्पलिबिन के प्रजातन्त्र राज्य में शासन करते थे। चन्द्रगुप्त का पिता इन्हीं भोरियों का प्रधान था। दुर्भाग्यवश एक शक्तिशाली राजा ने उनकी हत्या करवा दी और राज्य भी छीन लिया। चन्द्रगुप्त की माता उन दिनों गर्भवती थी। इस आपत्ति काल में वह अपने सम्बन्धियों के साथ भाग गई और अज्ञात रूप से पाटलिपुत्र में निवास करने लगी। यहाँ पर अपनी जीविका चलाने तथा अपने राजवंश को गुप्त रखने के लिए यह लोग मयूर-पालकों का कार्य करने लगे इस प्रकार चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक जीवन मयूर-पालकों के मध्य व्यतीत था।
जब चन्द्रगुप्त बड़ा हुआ तब उसने मगध के राजा के यहाँ नौकरी कर ली और उनकी सेना में भर्ती हो गया। चन्द्रगुप्त बड़ा ही योग्य तथा प्रतिभावान व्यक्ति था। अपनी योग्यता के बल से यह मगध की सेना का सेनापति बन गया। परन्तु कुछ कारणों से मगध का राजा अप्रसन्न हो गया और उसे मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दे दी। इन दिनों मगध में नन्द वंश शासन कर रहा था अपने प्राण की रक्षा करने के लिए चन्द्रगुप्त मगध राज्य से भाग गया और उसने नन्द को विनष्ट करने का संकल्प कर लिया।
यद्यपि चन्द्रगुप्त ने नन्दवंश को उन्मूलित करने का संकल्प कर लिया था परन्तु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके पास साधन नहीं थे अतएव साधन की खोज में वह पंजाब की ओर चला गया और इधर-उधर भटकता हुआ तक्षशिला पहुँचा, जहाँ विष्णुशुद्र नामक ब्राह्मण से उसकी भेंट हो गई। विष्णुशुद्र को चाणक्य भी कहते हैं, क्योंकि उसके पितामह (बाबा) का नाम चाणक्य था। उसे कौटिल्य भी कहते हैं, क्योंकि उसके पिता का कुटल था। चाणक्य बहुत बड़ा विद्वान् तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। वह भारत के पश्चिमोत्तर भागों की राजनीतिक दुर्बलता से परिचित था और उसे वह आशंका लगी रहती थी कि वह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार बन सकता है।
अतएव वह इस भू-भाग के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर यहाँ एक प्रबल केन्द्रीय शासन स्थापित करना चाहता था जिसमें विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह मगध नरेश की सहायता प्राप्त करने के लिए पाटलिपुत्र गया परन्तु सहायता प्राप्त करने के स्थान पर वह धार्मिक अनुष्ठान में नन्द-राज द्वारा अपमानित किया गया। चाणक्य बड़ा ही क्रोधी तथा उग्र प्रकृति का व्यक्ति था। उसने नन्द वंश को विनिष्ट करने का संकल्प कर लिया। परन्तु नन्द वंश के विशाल साम्राज्य को उन्मूलित करने के साधन उसके पास भी न थे अतएव वह इस साधन की खोज में संलग्न था। इसी समय चन्द्रगुप्त से उसकी भेंट हो गई।
चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनों के उद्देश्य एक ही थे। यह दोनों व्यक्ति नन्द वंश का विनाश करना चाहते थे परन्तु दोनों ही के पास साधन का आभावं था। संयोगवश इन दोनों ने एक दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति कर दी। चाणक्य को एक वीर साहसी तथा महत्वाकांक्षी नवयुवक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चन्द्रगुप्त ने कर दी और चन्द्रगुप्त को एक विद्वान अनुभवी कुटनीतिज्ञ की तथा सेना एकत्रित करने के लिए धन की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चाणक्य ने कर दी। फलतः इन दोनों में मैत्री तथा गठ-बन्धन हो गया।
अब अपने उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी करने के लिए दोनों मित्र विन्ध्यांचल के वनों की ओर चले गये। चाणक्य ने अपना सारा धन चन्द्रगुप्त को दे दिया। इस धन की सहायता से अपने भाड़े की एक सेना तैयार की और इस सेना की सहायता से मगध पर आक्रमण कर दिया परन्तु नन्दों की शक्तिशाली सेना ने उन्हें परास्त कर दिया और मगध से भाग खड़े हुए। अब इन दोनों मित्रों ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए फिर पंजाब की ओर प्रस्थान कर दिया। अब इन लोगों ने इस बात का अनुभव किया कि मगध राज्य के केन्द्र पर प्रहार कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी। वास्तव में उन्हें इस राज्य के एक किनारे पर उसके सुदूरस्थ प्रदेश पर आक्रमण करना चाहिए था, जहाँ केन्द्रीय सरकार का प्रभाव कम और उसके विरुद्ध असन्तोष अधिक रहता था। इन दिनों यूनानी विजेता सिकन्दर महान पंजाब में ही था और वहाँ के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर रहा था। चन्द्रगुप्त ने नन्दों के विरुद्ध सिकन्दर की सहायता लेने का विचार किया अतएव वह सिकन्दर से मिला और कुछ दिनों तक उसके शिविर में रहा। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतंत्र विचारों के कारण सिकन्दर अप्रसन्न हो गया और उसको वधकर देने की आज्ञा प्रदान की। चन्द्रगुप्त अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ। अब उसने मगध राज्य के विनाश के साथ-साथ यूनानियों को भी अपने देश से मार भगाने का निश्चय कर लिया और अपने मित्र चाणक्य की सहायता से अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने लगा।
चन्द्रगुप्त की विजय-सिकन्दर के भारत से चले जाने के उपरान्त भारतियों ने यूनानियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। चन्द्रगुप्त के लिए यह स्वर्ण अवसर था और इससे उसने पूरा लाभ उठाने का प्रयल किया। उसके क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना आरम्भ किया। यूनानी सरदार युडेमान अन्य यूनानियों के साथ भारत छोड़कर भाग गया और जो यूनानी सैनिक भारत में रह गए थे वे तलवार के घाट उतार दिए गए। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया।
पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य पर आक्रमण करने के लिए पूर्व की ओर प्रस्थान कर दिया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मगध-साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर टूट पड़ा। मगध नरेश के चन्द्रगुप्त की सेना की प्रगति को रोकने के सभी प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। चन्द्रगुप्त की सेना आगे बढ़ती गई और मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के सन्निकट पहुँच गई और उसका घेरा डाल दिया। अन्त में नन्द राजा घनानन्द की पराजय हुई और अपने परिवार के साथ बह युद्ध में मारा गया। अब चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र में सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने 302 ई० पू० में उसका राज्याभिषेक कर दिया।
उत्तर भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर भी अपनी विजय पताका फहराने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उसने सौराष्ट्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके बाद लगभग 303 ई० पू० में उसने मालवा पर अधिकार स्थापित कर लिया और पुष्यगुप्त वंश को वहाँ का प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त कर दिया जिसने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। इस प्रकार काठियावाड़ तथा मालवा पर चन्द्रगुप्त का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इतिहासकारों की धारणा है कि सम्भवतः मैसर की सीमा तक चन्द्रगप्त का साम्राज्य फैला था।
चन्द्रगुप्त का अन्तिम संघर्ष सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ हुआ। सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त सेल्यूकस उसके साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिकारी बना था। उसने 305 ई० पू० में भारत पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा की व्यवस्था पहले से ही कर ली थी। उसकी सेना ने सिन्धु नदी के उस पार ही सेल्यूकस के सेना का सामना किया। युद्ध में सेल्यूकस की पराजय हो गई और विवश होकर उसे चन्द्रगुप्त के साथ सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अपनी कन्या का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया और वर्तमान अफगानिस्तान तथा दिलीचिस्तान के सम्पूर्ण प्रदेश चन्द्रगुप्त को दे दिया। उसने मेगास्थनीज नामक एक राजदूत भी चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र में भेजा चन्द्रगुप्त ने भी 500 हाथी सेल्यूकस को भेंट किए। चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के संघर्ष के सम्बन्ध में डॉ० राय चौधरी ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत की राजनीतिक में लिखा है, यह देखा जाएगा कि प्राचीन लेखकों से हमें सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त के वास्तविक संघर्ष का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। वे केवल परिणामों को बतलाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आक्रमणकारी अधिक आगे बढ़ सका और एक सन्धि कर ली जो वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा सुदृढ़ बना दी गई।
उपर्युक्त विजयों के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैल गया। परन्तु कश्मीर, कलिंग तथा दक्षिण के कुछ भाग में उनके साम्राज्य के अन्दर न थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने अपने बाहुबल तथा अपने मंत्री चाणक्य के बुद्धि बल से भारत की राजनीतिक एकता सम्पन्न की।
चन्द्रगुप्त न केवल एक महान विजेता वरन एक कुशल शासक भी था। जिस शासन व्यवस्था का उसने निर्माण किया वह इतनी उत्तम सिद्ध हुई कि भावी शासकों के लिए वह आदर्श बन गई और थोड़े बहुत आवश्यक परिवर्तन के साथ निरन्तर चलती रही।
प्रश्न 22. चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध विस्तार से लिखें।
अथवा, मौर्य साम्राज्य की शासन पद्धति का वर्णन करें।
अथवा, मौर्यों के नागरिक प्रबन्ध के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर: चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध के विषय में विस्तृत जानकारी कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगास्थनीज की इण्डिका से मिलती है। V.A.Smith के अनुसार, “The Mauryan state was organised and carefully graded officials with well defined duties”.
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध का वर्णन निम्न प्रकार है-
1. केन्द्रीय शासन (Central Administration) – चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन एकतंत्रात्मक था। वह स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। सम्राट तीन कार्य मुख्य रूप से करता था-
(a) सम्राट स्वयं अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह विभिन्न विभागों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह विदेशी मामलों की देख-रेख करता था, आवश्यक आदेश निकालता था। गुप्तचरों द्वारा देश के आन्तरिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करता था और देश में शान्ति व्यवस्था बनाये रखता था। बाहरी आक्रमणों से भी देश की रक्षा करता था।
(b) न्यायाधीश के रूप में वह अपने प्रजा की शिकायतें सुनता था और स्वयं निर्णय कर दोषी को दंड भी देता था।
(c) सैन्य संगठनकर्ता के रूप में राजा ने देश को आन्तरिक विद्रोहों एवं बाहरी आक्रमणों से बचाने का भार भी अपने कन्धों पर ले रखा था। (ए० वी० स्मिथ (A. V. Smith) ने एक स्थान पर लिखा है-“The known facts of Chandra Gupta’s administration prove that he was sternde spot.”)
मन्त्रिपरिषद् (Council of Minister) – राजा को शासन कार्य में परामर्श देने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन किया जाता था, यद्यपि सम्राट उसकी सलाह मानने के लिए बाध्य न था, परन्तु व्यवहार में वह इसका पालन करता था। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा है कि राज्य सत्ता बिना सहायता के सम्भव नहीं होती। अतः सम्राट को मंत्री परिषद् बनानी पड़ती है और राज-काज में उसकी सलाह लेनी पड़ती है।
2. प्रान्तीय शासन (Provincial Government) – चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य की विशालता को देखते हुए उसे कई प्रान्तों में बाँट दिया था जिससे उसे शासन कार्य में सुविधा हो गई थी। प्रत्येक प्रान्त का शासन ‘कुमार’ (राजकीय परिवार के सदस्य) के अधिकार में होता था। कुमार के साथ महामात्र भी शासन कार्य में उसकी मदद करता था। सम्राट इन पर परा नियंत्रण रखता था। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी प्रान्त थे, जो आन्तरिक नीति में पूर्ण स्वतंत्र थे। वे सम्राट को केवल कर (Tax) देते थे एवं विदेश नीति में उसके अधीन रहते थे।
3. स्थानीय शासन (Local Administration)
(i) नगर प्रशासन (Town Administration) – मेगास्थनीज ने अपने भारत वर्णन में पाटलिपुत्र (पटना) नगर के विषय में लिखा है कि वह एक भव्य नगर था। यह सौ मील लम्बा और दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर लकड़ी की एक विशाल दीवार थी, जिसमें 64 दरवाजे और 570 बुर्ज थे। इस नगर का प्रबन्ध 30 सदस्यों के एक आयोग द्वारा किया जाता था जिसमें 5-5 सदस्यों की छः समितियाँ थीं। प्रत्येक समिति के कार्य अलग-अलग थे। पहली समिति नगर के कला-कौशल की देखभाल करती थी। दूसरी समिति विदेशियों के निवास एवं भोजन का प्रबन्ध करती थी। तीसरी समिति जन्म एवं मृत्यु का लेखा-जोखा रखती थी। चौथी समिति का कार्य माप-तौल से सम्बन्धित कारोबार करने वालों की देखभाल करना था। पाँचवीं समिति वस्तुओं के निर्माण एवं उनकी गुणवत्ता की जाँच-पड़ताल करती थी और छठी समिति का कार्य बिक्री वसूल करना था।
(ii) ग्राम प्रशासन (Village Administration) – शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ‘ग्रामिणी’ नामक अधिकारी इसका प्रबन्ध करता था। ग्रामिणी की सहायता के लिये एक सभा होती थी जो ग्राम हित के लिये सड़कें, पुल, तालाब एवं अतिथिशालाओं का प्रबन्ध करती थी। यह समिति मेलों तथा उत्सवों का भी प्रबन्ध करती थी। ग्रामिणी के ऊपर ‘गोप’ और ‘स्थानिक’ आदि अधिकारी होते थे।
4. सेना का प्रबन्ध (Military Administration) – चन्द्रगुप्त के पास अपने विशाल साम्राज्य की रक्षा के लिये एक सुसंगठित और सुदृढ़ सेना थी जिसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार घुड़सवार, 9000 हाथी और 8000 रथ थे। सेना के प्रबन्ध के लिए 30 सदस्यों की समिति थी जो 6 समितियों में विभाजित थी। सेना में निम्नलिखित विभाग थे-(i) पैदल (ii) घुड़सवार (iii) समुद्री बेड़ा (iv) रथ (v) हाथी (vi) अस्त्र-शस्त्र विभाग (vii) रसद विभाग। सैनिकों को राजकोष से वेतन दिया जाता था।
5. न्याय (Justice) – न्याय सम्बन्धी कार्यों का सर्वोच्च अधिकारी राजा स्वयं होता था। नगरों (छोटे नगरों अथवा कस्बों) और गाँवों का न्याय ‘महामात्र’ करते थे। दण्ड व्यवस्था बहुत कठोर थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार 18 प्रकार के दंड दिये जाते थे। कभी-कभी एक ही अपराधी को प्रतिदिन एक नये (अलग-अलग) प्रकार का दंड दिया जाता था। कठोर दंडों के कारण अपराध बहुत कम थे। यदि छोटे न्यायालयों के निर्णय में कोई कमी रह जाती थी तो सम्राट स्वयं निर्णय करता था।
6. भूमिकर (Land Revenue) – कृषकों से उनकी पैदावार का 1/6 भाग भूराजस्व के रूप में लिया जाता था परन्त आपात काल में इसे बढा भी दिया जाता था। भूमि, वन एवं खानों पर राज्य का अधिकार था। उपज से प्राप्त धन राज्यहित तथा सैन्य संगठन में लगा दिया जाता था।
7. सिंचाई (Irrigation) – चन्द्रगुप्त के शासन काल में सिंचाई नहरों, कुँओं और तालाबों से होती थी। सिंचाई विभाग में विभिन्न अधिकारी होते थे। नहरों से प्राप्त जल के बदले में किसान सरकार को कर देते थे।
8. सड़कें (Roads) – सड़कों के प्रबन्ध तथा व्यवस्था के लिये एक अलग विभाग था जिसके अधिकारी इसके निर्माण, सुधार एवं विस्तार का कार्य करते थे। सड़कों के किनारे दूरी बताने के लिए मील के पत्थर लगे होते थे। एक विशाल सड़क तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक जाती थी। इसके अतिरिक्त अन्य सड़कें भी थीं, जो राज्य के प्रमुख नगरों को आपस में मिलाती थीं। सड़कों के किनारे वृक्ष, पानी पीने के लिए कुएँ और धर्मशालाओं का निर्माण कराया गया था। सड़कों की अच्छी दशा के कारण व्यापार में उन्नति होती थी।
9. गुप्तचर विभाग (Institution of Spies) – चन्द्रगुप्त के शासन काल में गुप्तचर विभाग बहुत सुदृढ़ था। साधु, भिक्षु और भिक्षुणी आदि कई रूपों में घूमते थे। राजा को मंत्री, सैनिक, ‘अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों आदि की गतिविधियों की जानकारी शीघ्र पहुँचा देते थे। महलों में कई गुप्तचर होते थे जिससे राजा के विरुद्ध कोई षडयंत्र न रचा जा सके। प्रान्तीय शासकों के पीछे भी गुप्तचर होते थे जिससे उनकी विद्रोह की प्रवृत्ति पर दृष्टि रखी जा सके। दूसरे राज्यों में भी गुप्तचर भेजे जाते थे, जिसके कारण सम्राट के विरुद्ध गतिविधियों का अनुमान लगाया जा सके।
10. अन्य हितकारी कार्य (Other Welfare Works) – चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रजा के अच्छे स्वास्थ्य के लिए औषधालय बनवाए। नगरों व गाँवों की सफाई का प्रबन्ध कराया। खाने-पीने की चीजों की सफाई की देख-रेख की जाती थी। शिक्षा का भी विशेष प्रबन्ध था। मन्दिरों के निर्माण के लिए दान दिया जाता था। प्राकृतिक रूप से यदि कृषि उपज की कोई हानि होती थी तो कृषकों से उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। (V.A. Smith के अनुसार – “The Mauryan government in short was highly organised and thoroughly efficient autocracy capable of controlling an empire more extensive than Akbar. It anticipated in many respects, the institutions of Modern times.”)
प्रश्न 23. अशोक के ‘धम्म’ से आप क्या समझते हैं ? अशोक के धम्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे?
उत्तर: धम्म का स्वरूप : धम्म’ संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत स्वरूप है। अशोक ने इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। बहुत-से विद्वान धम्म और बौद्धधर्म में कोई फर्क नहीं मानते। अतः प्रारंभ में ही यह कह देना आवश्यक है कि धम्म और बौद्धधर्म दोनों अलग-अलग बातें हैं। बौद्धधर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। लेकिन उसने जिस धम्म की चर्चा अपने अभिलेखों में की है वह उसका सार्वजनिक धर्म था तथा विभिन्न धर्मों का सार था। यह अलग बात है कि बौद्धधर्म की कई विशेषताएँ भी उसमें मौजूद थीं। अशोक ने अपने अभिलेखों में कई स्थान पर धम्म (धर्म) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसे बुद्ध, धम्म और संघ में अपना विश्वास प्रकट किया है) उसने कहीं भी धम्म का प्रयोग बौद्धधर्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए ‘सर्द्धम’ या ‘संघ’ शब्द का . प्रयोग किया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्धधर्म नहीं था क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है।
अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार अग्रलिखित हैं-
- बड़ों का आदर (Elder’sregards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि माता-पिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
- छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेम-भाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।
- सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखाने की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
- अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को दु:ख नहीं देना चाहिए।
- दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अन्धकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।
- पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। .
- शुभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।
- सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फंसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए, बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।
- धार्मिक सहनशीलता (Religious Tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सुधार सकें।
प्रश्न 24. अशोक धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे ?
उत्तर: अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त-
- बड़ों का आदर (Elders’ regards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि मातापिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
- छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।
- सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखावे की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
- अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को दुःख नहीं देना चाहिए।
- दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्त्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अंधकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।
- पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।
- शुभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।
- सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फँसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए; बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।
- धार्मिक सहनशीलता (Religious tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।
इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सुधारे।
प्रश्न 25. अशोक ने बौद्ध-धर्म के प्रसार में क्या योगदान दिया ?
उत्तर: अशोक के बौद्ध-धर्म के प्रसार में निम्नलिखित योगदान दिया-
- अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद 265 ई० पू० में बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। उसने अपने पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा तथा स्वयं को इस धर्म के प्रचार में लगा दिया था।
- उसने सम्राट होकर भी भिक्षुओं जैसा जीवन बिताया। उसने अहिंसा को अपनाकर शिकार करना, माँस खाना छोड़ दिया था। उसने राजकीय वधशाला में पशु-वध पर रोक लगा दी थी। जनता राजा के आदर्शों पर चलती थी।
- उसने बौद्ध धर्म के नियम स्तम्भों, शिलालेखों आदि पर खुदवाकर ऐसे स्थानों पर लगवा दिये थे कि जहाँ से जनता देखकर उन्हें पढ़ सके और तत्पश्चात् अमल करे।
- उसने लगभग 84000 बौद्ध विहारों और 48000 स्तूपों का निर्माण कराया। यह मुख्यमुख्य नगरों में स्थापित किये।
- उसने कई धार्मिक नाटकों का आयोजन किया जिनमें बौद्ध धर्म पर आचरण करने पर स्वर्ग की प्राप्ति दिखाई गई थी। अतः बौद्ध धर्म को ग्रहण करने के लिये जनता प्रेरित हुई।
- बौद्ध धर्म के मतभेदों को दूर करने के लिये अशोक ने 252 ई० पू० में एक विशाल सभा का आयोजन किया था, जिससे लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए। सम्राट अशोक स्वयं बौद्ध तीर्थों-सारनाथ, कपिलवस्तु एवं कुशीनगर गया। रास्ते में उसने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उसने धर्म महापात्रों की नियुक्ति की, जो देखते थे कि लोग इस धर्म का पालन कर रहे हैं या नहीं।
- जन साधारण तक बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को पहुँचाने के लिये पालि भाषा में शिलालेख और बौद्ध साहित्य का अनुवाद कराया था। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, गंधार, चीन, जापान, सीरिया श्रीलंका व मित्र आदि देश में भिक्षु भेजे।
- सम्राट ने सम्पूर्ण राजकीय तंत्र बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दिया। सार्वजनिक समारोहों को रोककर उनके स्थान पर बौद्ध उत्सव मनाने प्रारंभ कर दिये। उसने नाचने-गाने तथा मद्यपान पर रोक लगा दी थी तथा लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी।
प्रश्न 26. मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों पर प्रकाश डालें। अशोक इसके लिए कहाँ तक उत्तरदायी था?
उत्तर: मौर्य साम्राज्य का पतन साम्राज्यों की तुलना में बहुत ही शीघ्र हो गया। जिस साम्राज्य की नींव चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने खून-पसीने से डाली थी और सम्राट अशोक ने बुलन्द महलों का निर्माण किया था। परन्तु उसके मरने के साथ ही उसका पतन होना शुरू हो गया, जो वास्तव में एक आश्चर्य की बात है। मौर्य साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-
1. विघटनात्मक प्रवृत्ति – मौर्य साम्राज्य के पतन के यों तो बहुत से कारण हैं परन्तु साम्राज्य की विघटनात्मक प्रवृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है। अशोक के समय तक तो यह साम्राज्य ठोस बना रहा परन्तु उसके आँख मूंदते ही यह साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। उसकी नींव की एक-एक ईंट हिल-हिल कर गिरने लगी और एक दिन ऐसा आया कि सारा बुलन्द महल भरभरा कर पतन के गड्ढे में गिर पड़ा। अर्थात् उसका एक-एक प्रान्त इससे निकलने लगा और स्वतंत्र होकर इस साम्राज्य की नींव को खोदने लगा। कश्मीर के प्रसिद्ध इतिहासकार कल्हण के शब्दों में, “स्वयं अशोक का दूसरा पुत्र कश्मीर का स्वतंत्र शासक हो गया था और कन्नौज तक के प्रदेशों को हस्तगत कर लिया था।”
तारानाथ के अनुसार, वीरसेन नामक अशोक का उत्तराधिकारी गंधार में स्वतंत्र हो गया था। कालिदास के मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि विदर्भ भी इस साम्राज्य से अलग हो गया था। कलिंग भी एक दिन स्वतंत्र हो गया। इन सबों की देखा-देखी साम्राज्य को बहुत से प्रदेश हाथ से निकल गए। अशोक के उत्तराधिकारी इस विकेन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को रोक नहीं सके जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
2. साम्राज्य की विशालता – चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के प्रयत्नों के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य विशाल हो गया था। केन्द्र में इसकी राजधानी भी नहीं थी जिससे शासन काल पर नियंत्रण करने में बड़ी असुविधा होती थी, क्योंकि आवागमन के साधनों का विकास भी नहीं हुआ था। दक्षिण भारत पर नियंत्रण रखने में अशोक के उत्तराधिकारियों को बहुत दिक्कत हो रही थी। अंत में वे इसके पतन को रोकने में सफल नहीं हो सके।
3. प्रांतीय शासकों ने प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया – दूर-दूर के प्रांतों में कर्मचारियों तथा पदाधिकारियों का प्रजा के साथ बर्ताव अच्छा नहीं था। वे लोग जनता को हर तरह से कष्ट दिया करते थे। अंत में विवश होकर जनता विद्रोही हो गयी थी। जैसे-बिन्दुसार के शासन काल में जनता उसके मंत्रियों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठी थी जो दबाते न दबता था। अंत में अशोक ने वहाँ जाकर उस विद्रोह को दबाया था। अशोक के शासन काल में भी तक्षशिला में इस तरह का विद्रोह हुआ था जिसको अशोक के पुत्र कुणाल ने जाकर दबाया था। अशोक के मरने के बाद इस तरह के विद्रोह को दबाने के लिए किसी में ताकत नहीं रह गयी थी। अतः यह भी मौर्य साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बना।
4. अशोक की अहिंसा की नीति – कुछ इतिहासज्ञों का यह मत है कि अशोक की अहिंस्म की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ। क्योंकि इस नीति के फलस्वरूप साम्राज्य की सैनिक शक्ति नष्ट हो गई। जब केन्द्रीय-शक्ति कमजोर हो गई तब प्रांतों के शासन स्वतंत्र होने लग गए। ऐसी परिस्थिति में ही पश्चिमोत्तर प्रदेश में बैक्ट्रिया के यवनों का भयंकर आक्रमण हुआ। इससे भी यह साम्राज्य पतनोन्मुख हुआ।
5. अत्यधिक दान देने की प्रवृत्ति – कहा जाता है कि अशोक की दान देने की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ क्योंकि अत्यधिक दान से शाही खजाना खाली पड़ गया था। जिससे साम्राज्य की आर्थिक स्थिति नाजुक हो गयी थी। सैनिकों का वेतन समय पर नहीं दिया जा रहा था। इतना ही नहीं, एक जगह पर यह भी कहा गया कि अशोक को दान देने की नीति के फलस्वरूप ही राज्य छोड़ देना पड़ा था। इसके बाद मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा।
6. अंतःपुर और राजदरबारियों का षड्यंत्र – अंत:पुर और दरबारियों के षड्यंत्र से मौर्य साम्राज्य को बहुत बड़ा धक्का लगा। स्वयं अशोक की अनेक रानियाँ तथा अनेक पुत्र दिन-रात षड्यंत्र रचा करते थे। राजा वृहद्रथ के शासन काल में तो साम्राज्य की शक्ति दो दलों में बँट गयी थी। एक दल का प्रधान सेनापति और दूसरा दल था प्रधान सचिव थे। इन दलों में हमेशा टक्कर होती रहती थी। फलतः साम्राज्य की शक्ति बहुत कम हो गयी। राजा वृहद्रथ इसमें सुधार नहीं ला सका। मौका पाकर उसी के समय में पुष्यमित्र शुंग ने सम्राट का कत्ल कर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया।
7. अशोक की धार्मिक नीति – अशोक के धार्मिक नीति के कारण हिन्दुओं में उसके विरुद्ध विद्रोह की भावनाएँ उठने लगी। क्योंकि वे लोग बौद्ध धर्म की उन्नति और हिन्दू धर्म की अवनति को नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उनमें बौद्ध धर्म के प्रति द्वेष हो गया। वे लोग मौर्य साम्राज्य को ही नष्ट कर देने की बात सोचने लगे और अंत में मौर्य साम्राज्य को पतन के गड्ढ़े में धकेल कर ही दम लिया।
8. विदेशी आक्रमण – जब उपरोक्त कारणों से मौर्य साम्राज्य कमजोर हो गया तो विदेशियों की दृष्टि इस पर पड़ी और इस पर बहुत से विदेशी आक्रमण हुए। मौर्य साम्राज्य के अंतिम दिनों में यूनानी और बैक्टिरियन राजाओं की चढ़ाई हुई जो मौर्य साम्राज्य के लिए हितकर न हुई।
9. गुप्तचर विभाग में संगठन का अभाव – अंशोक के शासन काल से ही गुप्तचर विभाग में शिथिलता आ गई थी। साम्राज्य को सुन्दर ढंग से चलाने के लिए एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है क्योंकि इसके अभाव में सम्राट को गुप्त बातों की जानकारी नहीं हो सकती। जगह-जगह पर षड्यंत्र रचा जा सकता है। अतः सम्राट गुप्तचर विभाग की मदद से षड्यंत्रों से बचा करता है। परन्तु अशोक के शासन काल में ही यह विभाग अस्त-व्यस्त हो चुका था और उसके उत्तराधिकारी इस ओर ध्यान नहीं दे सके। जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
10. सेना विभाग की उदासीनता – साम्राज्य में अहिंसा की नीति से सैन्य बल कमजोर पड़ गया। सेना का स्तर बहुत नीचे गिर गया। लेकिन उस समय सैन्य बल की पुकार थी क्योंकि साम्राज्यवादी नीति जोर पकड़ रही थी। परन्तु कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र पर पाबन्दी लगा दी गई थी। फलतः मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।
प्रश्न 27. साँची स्तुप से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण दीजिए।
अथवा, साँची स्तूप की मूर्तियों के बारे में दी गई सूचनाओं का उल्लेख कीजिए। इतिहासकारों ने इसका कैसे उल्लेख किया है ?
उत्तर: साँची का स्तूप (The Sanchi Stupa) – साँची का स्तूप मध्यप्रदेश में विदिशा के पास स्थित है। साँची का स्तूप और निकट के एकाश्म स्तंभ द्वारा बनाये गये थे। शुंग काल में स्तूप के आकार में वृद्धि की गई तथा कई नवीन निर्माण किये गये। अशोक के काल में यह स्तूप ईंटों का बनवाया गया था। शुंगकाल में उस पर पाषाण की शिलाओं का आवरण लगाया गया।
स्तूप के चारों ओर 16 फीट ऊँची मेधी या चबूतरे का निर्माण किया गया। इसमें दक्षिण की ओर सीढ़ियों का सोपान निर्माण किया गया। स्तूप के चारों ओर एक वर्गाकार वेदिका का भी निर्माण किया गया। शुंग काल में स्तूप का आकार दुगुना हो गया था। अब यह 54 फीट ऊँचा, 120 फीट व्यास का है।
वेदिका की चारों दिशाओं में चार तोरण द्वारों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक तोरण दो सीधे खड़े वर्गाकार स्तंभों की सहायता से बना है। इन स्तंभों में पाषाण की तीन समानांतर और मेहराबदार बेड़ियाँ लगायी गयी हैं। तोरण द्वार की कलात्मकता उच्च कोटि की है। दोनों स्तंभों के शीर्ष पर चार सिंह, बैलों की मूर्तियों को बनाया गया है।
साँची के तोरण द्वार अधिक अलंकृत हैं। साँची की वेदिका सादी और अलंकरण रहित है। इसलिए सादी वेदिका की पृष्ठभूमि में अलंकृत तोरण प्रभावशाली प्रतीत होता है। स्तंभों की चौकियों पर शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं।
तोरण पर बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों को अंकित किया गया है। डेरियों पर सिंह, हाथी, धर्म चक्र, यक्ष तथा विरल के प्रतीक चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं। स्तंभों के निचले भागों में द्वारपाल यक्षों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। स्तंभ तथा नीचे की डेरी के बाहरी कोनों में शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं। उनके अंग-प्रत्यंगों का अत्यंत आकर्षक अंकन किया गया है। सबसे ऊपर की बड़ेरी के मध्य में धर्मचक्र त्रिरत्न के लक्षण हैं। धर्मचक्र के दोनों ओर चामर लिए यक्ष मूर्तियाँ हैं।
स्तूप के सबसे ऊपर शीर्ष पर हर्मिका, याष्टिदंड तथा त्रिछत्र बने हैं। साँची के तोरण पर पाँच जातक कथाओं के चित्र पहचाने गये हैं। ये जातक कथाएँ हैं-छदंत जातक, महाकपि जातक, वेस्संतर जातक, अलंबुसा जातक, साम जातक। बुद्ध के जन्म, संबोधि, प्रथम प्रवचन, परिनिर्वाण का प्रदर्शन संकेतों के द्वारा किया गया है। माया का गर्भधारण, रथयात्रा, महाभिनिष्क्रमण, सुजाता की भेंट, मार द्वार प्रलोभन आदि बुद्ध के जीवन की घटनाओं के चित्रों को भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ सांसारिक जीवन के दृश्य तथा पुष्पों का अंकन किया गया है।
उपरोक्त वर्णन साँची के मुख्य स्तूप का है। इसके अतिरिक्त दो लघु स्तूप भी मुख्य स्तूप के निकट हैं। कला की दृष्टि से मुख्य स्तूप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।
मूर्तियों का इतिहासकारों द्वारा ऐतिहासिक सृजन के लिए उपयोग (Use of Sculptures by Historians for Reconstruction of History) – बौद्ध की मूर्तियाँ मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित की जाती हैं-मथुरा शैली और गांधार शैली। मथुरा शैली पूर्णतः भारतीय है। इसके विषय भगवान बुद्ध की प्राचीन पौराणिक कथाओं और जीवन से लिए गए हैं। ये प्रतिमाएँ मध्य भारत में अधिक संख्या में पाई जाती हैं। कुछ मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं, जिनमें ईरानी, रोमन और भारतीय मूर्तिकला शैली की विशेषताएँ मिश्रित हैं। इस शैली में विषय तो मथुरा शैली की तरह पूर्णतः भारतीय है लेकिन अभिव्यक्ति की शैली, केश निखार यूनानी और ईरानी है।
इतिहासकारों ने बौद्ध प्रतिमाओं के माध्यम से बौद्ध कालीन भारतीय वस्त्रों, पूजा के तरीकों, बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक तरह की बातों को लोगों के सामने रखा है। यह प्रतिमाएँ भारतीय मूर्ति कला की प्रगति और भव्यता को अभिव्यक्त करती हैं। उदाहरण के लिए अजंता में छा गई बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा उदासी, गंभीरता, आँखों से निकलते हुए आँसू आदि को प्रकट करती है।
कुछ बुद्ध प्रतिमाएँ विदेशों में मिली हैं। इतिहासकार इससे कुछ निष्कर्ष निकालते हैं जिनमें से निम्नांकित प्रमुख हैं-
- बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार चीन, तिब्बत, भूटान, सिक्किम, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मध्य एशिया, मध्यपूर्व एशिया के देशों में हुआ।
- इन प्रतिमाओं से बौद्ध धर्म के प्रचार क्षेत्र की जानकारी मिलती है।
- बौद्ध धर्म की उपस्थिति भारतीय सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होने की पक्की पुष्टि करती है।
- भगवान बुद्ध के बाद की अनेक देशों ने बौद्ध शिक्षाओं और बौद्ध ग्रंथों की तरफ जो अपना धर्म आकर्षित किया और बौद्ध मठों और बौद्ध सभाओं में रुचि ली उसे किसी सीमा तक विभिन्न मूर्तियों ने बनने में अहम् भूमिका अदा की ऐसा विद्वान मानते और ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं।
प्रश्न 28. कुषाण कौन थे? कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों की विवेचना करें।
अथवा, कनिष्क प्रथम की जीवनी एवं उपलब्धियों का विवरण दें।
उत्तर: कडफिसस द्वितीय ने 64-78 ई० के मध्य शासन किया। इसके पश्चात् सत्ता कनिष्क ग्रुप के शासकों के हाथों में आयी। कनिष्क प्रथम इस शाखा का सबसे महान शासक हुआ। वह एक साम्राज्य निर्माता, महान योद्धा, कला, धर्म एवं संस्कृति का संरक्षक माना जाता है। बौद्धधर्म के इतिहास में कनिष्क को विशिष्ट स्थान दिया गया है। अशोक के ही समान कनिष्क ने भी बौद्धधर्म को राज्याश्रय दिया। उनके प्रयासों से महायान बौद्धधर्म का मध्य एशिया में प्रसार हुआ।
कनिष्क की तिथि – कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि विवादग्रस्त है। भिन्न-भिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तिथियाँ सुझायी हैं। अनेक विद्वान मानते हैं कि कनिष्क ने ही अपने राज्यारोहन के साथ 78 ई० में शक संवत आरम्भ किया। फ्लीट महोदय कनिष्क को विक्रम संवत् का संस्थापक (58 ई० पू०) मानते हैं। अन्य विद्वानों ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि क्रमश 125 ई०, 144 ई०, 248 ई०, 278 ई० माना है, परन्तु अधिकांश आधुनिक विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि कनिष्क 78 ई० में गद्दी पर बैठा। उसने 23 या 24 वर्षों तक शासन किया (101-102 ई०)। उसके राज्यारोहण से ही शक संवत आरम्भ हुआ, जिसे भारत सरकार द्वारा भी व्यवहार में लाया जाता है।
कनिष्क की उपलब्धियाँ (Achievements of Kanishka)
साम्राज्य का विस्तार – कनिष्क एक महान योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता के रूप में विख्यात है। उसने कुषाण राज्य का भारत में और अधिक विस्तार किया। कनिष्क के अभिलेखों उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों एवं कतिपय साहित्यिक ग्रन्थों से उसके सैनिक अभियानों एवं साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है। जिस समय कनिष्क गद्दी पर बैठा उस समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया भी सम्मिलित थे। भारत में अपने राज्य का विस्तार उसने मगध तक किया कल्हन की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि उसने कश्मीर पर अधिकार कर कनिष्कपुर नगर (आधुनिक श्रीनगर के निकट काजीपुर) की स्थापना की। तिब्बती साहित्य में यह वर्णित है कि उसने अपनी सेना के साथ साकेत अयोध्या तक आक्रमण किया एवं साकेत के राजा को युद्ध में पराजित किया।
चीनी साहित्य (कल्पनामडितिका का चीनी अनुवाद), अश्वघोष की रचनाओं और श्री धर्मपिटक सम्प्रदायनिदान से विदित होता है कि उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तथा वहाँ से वह प्रसिद्ध बौद्ध-विद्वान अश्वघोष और बुद्ध का भिक्षा-पात्र लेकर अपनी राजधानी पुरुषपर या पेशावर (पाकिस्तान) लौट गया। उसने संभवत: उज्जैन के क्षत्रपों से भी यद्ध कर उन्हें पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। कनिष्क ने भारत के बाहर म एशिया में भी युद्ध किया। काशनगर, यारकंद और खोतान पर आधिपत्य जमाने के लिए उसे चीनी सम्राट हो-तो के महत्त्वाकांक्षी सेनापति पान-चाओ से दो बार युद्ध करना पड़ा। पहली बार युद्ध में कनिष्क पराजित हुआ, लेकिन दूसरी (पानचाओ की मृत्यु के पश्चात्) वह चीनी सम्राट पर विजय प्राप्त कर सका। उसने सम्भवतः पार्थिया के राजा को भी युद्ध में पराजित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई जिसमें गंगा, सिन्धु और ऑक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।’
कनिष्क की विजयों के परिणामस्वरूप कुषाण साम्राज्य अराल समुद्र से लेकर गंगा की घाटी तक फैल गया।
कनिष्क के अभिलेखों और उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से इस विशाल साम्राज्य की सीमा की जानकारी मिलती है। उसके अभिलेख पेशावर, कोशल, सारनाथ, मथुरा, सूई बिहार, जेद्दा तथा मनिक्याला से मिले हैं। साँची से भी एक अभिलेख मिला है। अभिलेखों के आधार पर कनिष्क के साम्राज्य की सीमा, पूर्व में बनारस से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बहावलपुर तक निश्चित की गयी है मालवा सहित परन्तु सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से पता लगता है कि पूर्व में बनारस के आगे भी उनका साम्राज्य था। बिहार में पाटलिपुत्र, बक्सर, चिरांद और बक्सर की खुदाइयों से कनिष्क के सिक्के मिले हैं जिनसे इन जगहों पर कुषाण आधिपत्य की पुष्टि होती है। कुछ विद्वान दक्षिण भारत और बंगाल पर भी कनिष्क का आधिपत्य स्वीकार करते हैं, परन्तु इसके लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।
प्रशासनिक व्यवस्था – साम्राज्य-विस्तार के साथ ही कनिष्क ने प्रशासनिक व्यवस्था की तरफ भी ध्यान दिया। विजित क्षेत्रों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए उसने गौरवपूर्ण उपाधियाँ धारण कीं। चीनी एवं रोमन सम्राटों की ही तरह उसने देवपुत्र (Son of Heaven) और कैसर (Cassar) की उपाधियाँ धारण की। उस समय में साम्राज्य की दो राजधानियाँ थी-पुरुषपुर और मथुरा। कनिष्क ने प्रशासनिक सुविधा के लिए क्षेत्रीय प्रशासनिक व्यवस्था को लागू किया। सारनाथ से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि बनारस में खर-पल्लन एवं वनस्पर कनिष्क के महाक्षत्रप एवं क्षत्रप के रूप में शासन करते थे। पश्चिमोत्तर भाग में सेनानायक लल वेसपति एवं लियाक क्षत्रपों के रूप में शासन करते थे।
धार्मिक नीति – कनिष्क की महानता इस बात में भी निहित है कि विदेशी होते हए भी उसने भारतीय धर्म में गहरी अभिरुचि ली। बौद्धधर्म से वह विशेष रूप से प्रभावित था। बौद्ध ग्रन्थों में कनिष्क को एक उत्साही बौद्ध के रूप में चित्रित किया गया। भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म को संरक्षण देने वाले शासकों में अशोक के पश्चात कनिष्क का ही नाम सबसे अधिक विख्यात है। अश्वघोष और मातृचेट जैसे बौद्धों के आकार उसने बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध विद्वान पार्श्व की सलाह पर उसने कश्मीर कुछ विद्वानों के अनुसार जालंधर में बौद्धों की चौथा महासंगीत का आयोजन किया। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की। इस सभा का उद्देश्य विभिन्न बौद्ध विद्वानों में प्रचलित मतभेदों को दूर करना था। सभा करीब छह मास तक चली जिसमें लगभग 500 विद्वानों ने भाग लिया। अश्वघोष उस सभा का उपाध्यक्ष था।
इस सभा में बौद्ध – धर्म ग्रन्थों पर विस्तृत टीकाएँ लिखवायी गयीं तथा महाविभाग (बौद्ध-ज्ञानकोष) तैयार किया गया। इस परिषद ने महायान-बौद्धधर्म को मान्यता दी। फलस्वरूप इस समय से महायान की प्रमुख बौद्धधर्म बन गया। कनिष्क ने अशोक की ही तरह बौद्धधर्म (महायान शाखा) के प्रसार के लिए अनेक कदम उठाये। उसने अनेक बौद्ध विहारों, चैत्यों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। उसने पेशावर (पुरुषपुर) में एक बहुत ही भव्य स्तूप का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चीन एवं मध्य एशिया में धर्म-प्रचारक भी भेजे गये। यद्यपि कनिष्क स्वयं बौद्धधर्म को माननेवाला था, परन्तु उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी। इसका प्रमाण उसके सिक्कों पर अनुकृत बुद्ध के अतिरिक्त सूर्य, शिव, अग्नि, हेराक्लीज-जैसे भारतीय यूनानी एवं ईरानी देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ ताम्र सिक्कों में उसे वेदि पर बलिदान चढ़ते हुए भी दिखलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कनिष्क अपने राज्य में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।
कला एवं साहित्य को संरक्षण – कनिष्क की उदारता से कुषाणकाल में कला एवं साहित्य की भी प्रगति हुई। स्थापत्य और मूर्तिकला का विकास हुआ। कनिष्क ने पुरुषपुर में एक विशाल स्तूप का निर्माण करवाया जिसकी प्रशंसा चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करता है। कश्मीर में उसने कनिष्क पर नगर की स्थापना की। तक्षशिला का नया नगर सिरसुख भी कनिष्क के समय में ही बनी। कनिष्कयुगीन स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना मथुरा का देवकुल और नाम मन्दिर हैं। महायान बौद्धधर्म के विकास ने मूर्तिकला को भी प्रभावित किया। गांधार और मथुरा की विशिष्ट शैलियों में बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं। कुषाण (कनिष्क) कालीन सिक्के भी कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
कनिष्क ने विद्वानों को समुचित सम्मान प्रदान किया। उसके दरबार में पार्श्व, वसुमित्र, नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं दार्शनिक थे।
प्रश्न 29. समुद्रगुप्त की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर: समुद्रगुप्त-पराक्रमांक के अध्ययन-स्रोत अनेक हैं। कौशाम्बी के अशोक-स्तम्भ पर समुद्रगुप्त की विस्तृत प्रशस्ति अंकित है। हरिषेण-रचित प्रयाग-प्रशस्ति भी उल्लेखनीय है। समुद्रगुप्त की निम्नलिखित उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं-
विजय – समुद्रगुप्त का राजनीतिक आदर्श दिग्विजय और भारत का राजनीतिक एकीकरण था। इसके लिए उसने दिग्विजय की योजना बनायी। इस विजय-यात्रा में उसने आर्यावर्त के नौ राजाओं तथा दक्षिणपथ के बारह नरेशों को परास्त किया, मध्यभारत के समस्त जंगल के राजाओं को अपना सेवक बनाया और सीमा प्रदेश के शासकों तथा गणराज्यों को कर देने के लिए बाध्य किया। दूर देशों के नरेशों ने उससे मित्रता स्थापित की। प्रयाग-प्रशस्ति में उसकी विजयों का वर्णन कई स्थलों पर किया गया है, पर इसके आधार पर तिथिक्रम के संबंध में कुछ कहना असंभव है। समुद्रगुप्त के विजय-कार्य का वर्णन निम्नलिखित है-
1. आर्यावर्त की विजय – विन्ध्य तथा हिमालय के बीच के क्षेत्रों को आर्यावर्त कहते थे। समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तरी भारत के राजाओं को परास्त कर उनके राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। प्रयाग-प्रशस्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं के नाम इस प्रकार हैं-रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि और बलवर्मा। प्रारम्भ में समुद्रगुप्त के दो प्रबल शत्रु थे–पाटलिपुत्र का कोटकुल और मथुरा तथा पद्मावती के नागवंश, जो कोटकुल के सम्बन्धी थे। जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर रहा था, संभवतः उसी समय पीछे से अच्युत और नागसेन नामक राजाओं ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। समुद्रगुप्त ने पहले अच्युत और नागसेन को बुरी तरह से पराजित किया और तब आसानी से कोटकुल का विनाश कर पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। आर्यावर्त में उसे दो बार अपना अभियान चलाना पड़ा। उसने प्रथम अभियान में अच्युत और नागसेन को पराजित किया। दूसरे, आर्यावर्त के युद्ध में उसने शेष राज्यों को बलपूर्वक समाप्त करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। प्रथम अभियान में अच्युत, नागसेन और कोटवंशी शासक और दूसरे अभियान में गणपतिनाग, चन्द्रवर्मन, रुद्रदेव आदि शासक पराजित हुए और उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिये गये।
2. आटविक-नरेश-फ्लीट के अनुसार, आटविक-नरेश गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे। आटविक राज्यों की संख्या 18 थी। इस क्षेत्र को ‘महाकान्तार’ भी कहा गया है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी इसे मध्यभारत का जंगल मानते हैं रामदासजी ने इसे जबलपुर से छोटानागपुर तक का झारखण्ड का क्षेत्र माना है। समुद्रगुप्त ने आटविक के नरेशों को पराजित किया।
3. दक्षिण-भारत-दक्षिण-विजय के सम्बन्ध में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। के० पी० जायसवाल और प्रो० डूबेल का अनुमान है कि कोलेरू तालाब के किनारे दक्षिणी नरेशों ने समुद्रगुप्त से युद्ध किया। इसका नेतृत्व केरल के मण्टराज और काँची के विष्णुगोप ने किया। पराक्रमी विजेता समुद्रगुप्त ने समस्त दक्षिणी राजाओं को पराजित किया, परन्तु उसने राज्यों को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया। उसने विजित प्रदेश स्थानीय शासकों को लौटा दिया तथा अपने छत्रछाया में उन्हें राज्य करने की आज्ञा दी। दक्षिणापथ के पराजित राजाओं की नामावली इस प्रकार हैं-
कोशल का महेन्द्र – इसमें महाकोशल, विलासपुर, रायपुर और संभलपुर के जिले सम्मिलित थे ।
महाकांतार का व्याघ्रराज – व्याघ्रराज महाकान्तार का शासक था।
केरल का मण्टराज – संभवत: यह प्रदेश गोदावरी तथा कृष्णा के बीच कोलेरूकासार है।
पैण्ठपुर का स्वामीदत्त – पिष्टपुर, महेन्द्रगिरी और कोटूर का शासक स्वामी दत्त था।
एरण्डपल्लक दमन – यह स्थान गंजाम जिले में चिकाकोल के समीप एरण्डपल्ली में है।
कांचेयक विष्णुगोप – विष्णुगोप कांची का शासक था। मद्रास के निकट कांजीपुरम ही कांची है।
आवमुक्तक नीलराज – इसकी राजधानी गोदावरी के निकट पिथुण्डा थी।
वैगेयक हस्तिवर्मा – हस्तिवर्मा वेंगी का राजा था। यह स्थान नेलोर जिले में है।
देवराष्ट्रक कुबेर – राजा कुबेर देवराष्ट्र स्थान का था। यह स्थान विजिगापत्तम जिले का एलमंचि है।
कोस्थलपुरम धनंजय – कोस्थलपुर का शासक धनंजय था। वह स्थान उत्तर आर्काट का कुट्टलुर है।
प्रयाग – प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त आटविक राज्यों को जोतकर मध्यप्रदेश में पहुँचा और वहाँ से महाकोशल तथा महाकान्तार के मार्ग से होता हुआ कलिंग के समीप उसने समस्त नरेशों को पराजित किया। दक्षिण-पूर्व के प्रदेशों को अपने अधीन करते हुए उसने कांची पर आक्रमण किया। दक्षिण में उसका प्रभाव चरराज्य तक पहुँच गया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार, “वह महाराष्ट्र तथा खानदेश के रास्ते अपनी राजधानी लौट आया।”
दक्षिणी राजाओं के साथ समुद्रगुप्त ने धर्मविजय-नीति का अवलंबन किया। उसने इन राजाओं को पराजित करने के बाद उनका राज्य फिर उन्हीं को लौटा दिया। उन लोगों ने समुद्रगुप्त का आधिपत्य स्वीकार किया और वह उपहार तथा कर ग्रहण करके उत्तर भारत लौटा। दक्षिण के राज्य उसे कर, आज्ञाकरण और प्रणाम द्वारा प्रसन्न करने लगे।
4. प्रत्यन्त राज्यों (सीमावर्ती राज्यों) से सम्बन्ध-दक्षिणी राजाओं को परास्त करने के बाद सीमावर्ती राज्यों की विजय की गयी। इसमें पाँच भिन्न-भिन्न प्रदेशों के शासक और नौ गणराज्य थे। सीमान्त प्रदेशों ने समुद्रगुप्त को सर्वकर (सर्वनकर दान) दिये, उसकी आज्ञाओं का पालन (आज्ञाकरण) किया, स्वयं उपस्थित होकर प्रणाम (प्रणामकरण) किया और उसके सुदृढ़ शासन को पूर्णतः परितुष्ट किया। ऐसे राज्य निम्नलिखित थे-
समतट-पूर्वी सीमा के राज्य (समुद्र तक विस्तीर्ण पूर्वी बंगाल)।
कामरूप-असम का गौहाटी जिला।
डवाक – नौगाँव जिला।
नोपाल और कर्तपुर – कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखंड के पर्वतीय राज्य। गणराज्यों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-
मालवा – अमेर, टोंक, मेवाड़।
आर्जुनायन – अलवर, मूर्वी जयपुर।
यौधेय – जोहियावार।
मद्र – रावी-चिनाव के बीच का प्रदेश।
आभीर – सराष्ट, मध्य भारत।
आर्जुन-मध्य प्रदेश के नरसिंपुर के पास का क्षेत्र।
सनकानिक – भिलसा के पास के क्षेत्र।
खरपरिक – मध्यप्रदेश में दमोह के पास।
उपर्युक्त नौ गणराज्यों ने स्वयं समुद्रगुप्त के प्रति आत्म-समर्पण कर दिया।
विदेशी राज्यों से सम्बन्ध – सिंहल और समुद्रपार के द्वीपों के साथ समुद्रगुप्त ने इन शर्तों पर सेवा और सहयोग की संधियाँ की-आत्मनिवेदन (मैत्री के प्रस्ताव), कन्योपायन (राजमहल में सेवा के लिए कन्याओं का उपहार), दान (स्थानीय वस्तुओं की भेंट) एवं उनकी स्वायत्तता और सुरक्षा (स्वविषयमुक्ति) को प्रमाणित करनेवाली मुद्रांकित सनदों का याचना। विदेशी राज्यों में दैवपुत्रशाही शाहानुशाही, शक, मुरुण्ड, सिंहल और हिन्दमहासागर के असंख्य छोटे-छोटे द्वीप थे। दैवपुत्रशाही शाहानुशाही उत्तर-पश्चिम में शासन करनेवाले कुषाण थे। शक उत्तर-पश्चिम भारत में थे। मुरुण्ड एक कुषाण जाति का नाम था। सिंहल के राजा मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त की राजसभा में उपहारसहित एक दूतमंडल भेजकर बोधगया में यात्रियों के ठहरने के लिए एक मंदिर बनवाने की अनुमति मांगी थी और समुद्रगुप्त ने उसे मंजूर भी किया था। फाहियान को जावा में एक सम्पन्न हिन्दू-उपनिवेश देखने को मिला था।
इस प्रकार, समुद्रगुप्त ने एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया। उसने आर्यावर्त, दक्षिणापथ, आटविक राज्यों, प्रत्यन्त-नृपति और द्वीपों के नरेशों पर विजय प्राप्त की, लेकिन समस्त विजित देशों को अपने अधिकार में नहीं किया। विभिन्न देशों के प्रति उसकी विभिन्न नीति थी। सुदूर देशों में उसने मैत्री की, दक्षिण के शासकों को अपनी छत्रछाया में रखकर उन्हें स्वतंत्र शासन करने का अधिकार दिया और आर्यावर्त तथा आटविक राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया । इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तरी भारत तथा मध्य भारत तक विस्तृत था। बिहार से कांजीवरम् तक, सीमान्त राजाओं और गणराज्यों को पराजित कर उसने विदेशी शासकों के भी दाँत खट्टे किये और द्वीपान्तरों में अपना प्रभाव फैलाया। अपनी दिग्विजय के फलस्वरूप उसने अश्वमेघ-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में दान देने के लिए उसने सोने के सिक्के भी ढलवाये। सिक्कों पर ‘अश्वमेघ पराक्रम’ लिखा हुआ है।
समुद्रगुप्त के विजय-अभियानों को देखते हुए इतिहासकार विश्व ने उसे भारतीय नेपोलियन कहा है।
प्रश्न 30. गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है ?
अथवा, गुप्तों के अधीन भारत की सांस्कृतिक प्रगति की विवेचना करें।
उत्तर: गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण युग माना जाता है। यह युग सिर्फ राजनीतिक एकता एवं प्रशासन के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण काल है। इस समय कला, साहित्य, विज्ञान, धर्म की तपूर्व वृद्धि हुई। फलस्वरूप अनेक विद्वानों ने इसे प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग (The Golden Age) की संज्ञा दी है। अनेक विद्वानों ने इसकी तुलना यूनान के पेरोक्लीज युग तथा रोम के ऑगस्टस यग से की है।
इसे अभिजात्य यग (Classical Age) भी कहा जाता है। नि:संदेह इस यग में सांस्कतिक प्रगति अधिक हई. परन्त यह प्रगति एक विशेष वर्ग के लिए ही थे साधारण के लिए यह काल सांस्कतिक विकास का यग था. ऐसा नहीं कहा जा स क्योंकि जनसाधारण के लिए इस प्रगति का कोई लाभ नहीं था। फलस्वरूप गप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दे उचित प्रतीत नहीं होता। फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह काल सांस्कृतिक विकास का युग था, भले ही इसका लाभ किसी विशेष वर्ग के लिए सुरक्षित रहा हो।
वास्तव में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ आदि जैसे प्रतापी गुप्त शासकों ने देश के लगभग समस्त भाग में एकछत्र राज्य कायम कर राजनीतिक एकता के सूत्र में समस्त भारत को बाँध दिया। पूरे क्षेत्र पर एक जैसी सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था कायम की गयी। फलस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता एवं अशांति का वातावरण समाप्त हो गया तथा सुख एवं शांति का साम्राज्य व्याप्त हो गया। इस अवस्था ने सांस्कृतिक विकास में काफी मदद पहुँचाई जिसके आधार पर विद्वान गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग मानते हैं।
गुप्तकाल धार्मिक पुनरुत्थान का युग था। इस समय वैदिक धर्म या ब्राह्मण धर्म पराकाष्ठा पर पहुँच गया। मूर्ति पूजा एवं मंदिरों का निर्माण भी इस युग में प्रारंभ हुआ। जैन एवं बौद्ध मतावलम्बी भी इस युग में थे। धार्मिक जीवन की प्रमुख विशेषता विभिन्न समुदायों में सहिष्णुता की भावना है। यूरोपीय देशों की तरह भारत में धर्म-युद्ध नहीं हुए बल्कि सभी धर्म वाले मिलजुल कर एक-दूसरे के साथ रहते थे। ऐसी बात नहीं है कि इनमें आपसी प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी परन्तु वह कभी भी व्यापक रूप नहीं ले सकी। इसी से एक प्रसिद्ध विद्वान ने कहा है- “The Gupta period was an age of catholicity, toleration and a goodwill.”
इस काल में शिक्षा एवं साहित्य की भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। अभी भी मौखिक शिक्षण-संस्थान ही प्रचलित थे। विद्यार्थियों को वेद, वेदांत, पुराण, मीमांसा, न्याय, धर्म एवं कानून की शिक्षा मुख्यतया दी जाती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में 14 प्रकार की विद्या का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक शिक्षा का भी प्रसार इस युग में हुआ। अनेक शिक्षण केन्द्रों की स्थापना गुप्तकाल में हो चुकी थी। पाटलिपुत्र, बल्लभी, उज्जयिनी, पद्मावती, काशी, मथुरा, करा आदि इस समय के प्रख्यात शैक्षणिक केन्द्र थे। नालन्दा विश्वविद्यालय का भी विकास हो रहा था। राजाओं एवं धनी व्यक्तियों द्वारा इन शिक्षण-संस्थानों को धन एवं भूमि दान में दी जाती थी। कुमारगुप्त प्रथम, बुद्धगुप्त, तथागत गुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों ने नालन्दा महाविहार को अनुदान दिये।
गुप्तकाल की साहित्यिक प्रगति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस समय संस्कृत का समुचित विकास हुआ। संस्कृत प्रमुख भाषा बन गई। इसका व्यवहार अभिलेखों एवं मुद्राओं में भी होने लगा। फलस्वरूप यह राजकीय माध्यम बन गयी। संस्कृत में ही काल के प्रमुख विद्वानों एवं कवियों ने रचनाएँ लिखीं। इस युग में धार्मिक एवं धर्म-निरपेक्ष दोनों प्रकार की अनेक रचनाएँ । लिखी गईं। इसी साहित्यिक प्रगति के चलते कुछ विद्वानों में गुप्तकाल को अभिजात्य युग कह कर पुकारा है।
हिन्दू, बौद्ध एवं जैन सभी धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों का रचना-काल गुप्त युग है। रामायण एवं महाभारत इसी काल में परिवर्द्धित रूप में लिखे गये। अधिकांश पुराणों को भी संकलित एवं सम्पादित किया गया। नारद स्मृति इस काल की स्मृतियों में प्रमुख है। पंचतंत्र, मानसागर, आर्यभट्टीय, वृहज्जातक, समाकावली, कामंदकीय, नीतिशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र आदि की भी रचना काल यही है। बौद्ध एवं जैन साहित्य की भी इस समय प्रगति हुई है। बुद्धघोष ने पट्टकथा का पालि भाषा में अनुवाद किया। असंग, दिङ्नाग एवं वसुबंधु ने दर्शन पर पुस्तकें लिखीं। इस युग के अन्य बौद्ध विद्वानों में कुमारजीव, बुद्धभद्र, धर्मरक्ष, गुपभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने चीन में बौद्धधर्म एवं साहित्य का प्रचार किया। जैन रचनाओं में प्रसिद्ध स्थान जैन-आगम का है। जैन विद्वानों में सिद्धसेन, भद्रबाहु द्वितीय और उमास्वाति प्रमुख है।
गुप्तकाल संस्कृत नाटकों एवं काव्यों की रचना के लिए विश्वविख्यात है। इनमें सर्वोच्च स्थान महाकवि कालिदास का है। मेघदूत उनकी अनुपम काव्यकृति है। इसमें एक प्रेमातुर यक्ष की व्याकुल मनोभावना का बड़ा सजीव चित्रण किया गया है। रघुवंश में राम की विजय का उल्लेख है। ऋतुसंहार में विभिन्न ऋतुओं का शृंगारिक वर्णन है। कालिदास की सर्वोत्तम कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम् है। कालिदास के अतिरिक्त शुद्रक एवं विशाखदत्त इस युग के दूसरे महान् नाटककार हुए। शूद्रक ने मृच्छकटिक एवं विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस एवं देवी चन्द्रगुप्त की रचना की। स्वप्नवासवदत्तम भी इसी समय लिखी गई। इस प्रकार संस्कृत साहित्य की प्रगति के दृष्टिकोण से यह काल अपूर्व है।
दर्शन : गुप्त युग दार्शनिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए भी प्रसिद्ध है। षड्दर्शन का इस समय काफी प्रचार हुआ एवं यह भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषता बन गयी है। भारतीय दर्शन के इतिहास में यह युग भाष्य रचनाकाल के रूप में प्रसिद्ध है। अनेक दार्शनिक ग्रंथों की रचना इस समय हुई। इनमें सांख्यशास्त्र, परमार्थ सप्तशती, न्याय, भाष्य, न्यायवर्तिका, पदार्थ-संग्रह इत्यादि प्रसिद्ध ग्रंथ है। जैमिनी-सूत्र, पूर्व-मीमांसा दर्शन, दर्शन के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तों की देन बहुमूल्य है। इस समय गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, रसायन, भौतिकी आदि प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट माने जाते हैं। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक आर्यभट्टीय है। इन्होंने अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति एवं त्रिकोणमिति के क्षेत्र में अन्वेषण किये। इन्होंने यह भी प्रमाणित कर दिया कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है तथा पृथ्वी एवं चन्द्रमा की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण ग्रहण होता है। बाराहमिहिर इस युग के सबसे बड़े ज्योतिषी थे। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक वृहदसहिता है।
बाराहमिहिर के ग्रन्थों में यवन सिद्धांतों का सामंजस्य मिलता है। कल्याणवर्मन ने फलित ज्योतिष पर जवली नाम का ग्रन्थ की रचना की। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने रस चिकित्सा का आविष्कार किया। पारद (पारा) का आविष्कार भी इसी काल में हुआ था। उसके भस्म करने की क्रिया का आविष्कार कर नागार्जुन ने आयुर्वेद तथा रसायन शास्त्र के इतिहास में एक नये युग का आरंभ किया। महान् वैद्य धन्वन्तरि भी संभवत: गुप्तकाल में ही हुआ था। धातु विज्ञान एवं शिल्प कला की भी इस समय में प्रगति हुई। मेहरौली का लौह स्तम्भ गुप्तकालीन धातु विज्ञान की प्रगति का सबसे बढ़िया नमूना पेश करता है।
कला : कला की जितनी प्रगति इस समय हुई वह वास्तव में सराहनीय है। स्थानीय मूर्तिकला एवं चित्रकला की इस समय समुचित प्रगति हुई। मुद्रणकला में भी प्रगति हुई। गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के भी काफी संख्या में ढलवाये। इन पर विभिन्न आकृतियाँ एवं लेख उत्कीर्ण किये जाते थे। इस समय मुद्रण-कला काफी उन्नत अवस्था में थी। संगीत, नाटक, अभिनय एवं नृत्य कला का भी विकास हुआ।
शहरी जीवन के विकास ने ललित कलाओं की प्रगति में सहयोग दिया। पत्थर पर लोहे के विशाल स्तम्भ भी इस युग में बने। लौह-स्तम्भ में राजा चन्द्र के मेहरौली स्तम्भ का उल्लेख किया जा सकता है। हजारों वर्ष तक धूप एवं वर्षा झेलने के बावजूद इसमें आज तक जंग नहीं लगा। गुप्त राजाओं ने अनेक स्तम्भ बनवाये जिनका प्रयोग अभिलेखों को उत्कीर्ण कराने के लिए किया गया। ऐसे स्तम्भ अनेक जगहों पर पाये गये हैं।
गुप्तयुगीन वास्तुकला एवं मूर्तिकला धर्म प्रभावित थी। वास्तुकला के क्षेत्र में स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं, मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। मंदिरों के निर्माण में गुप्तकाल में विशेष प्रगति हुई। इस युग में प्रमुख मंदिरों में साँची, लाघखान, देवगढ़ एवं भुमरा के मंदिर प्रसिद्ध है। इन सबमें देवगढ़ का विष्णु मंदिर महत्त्वपूर्ण है। इस समय में मंदिरों की मुख्य विशेषता यह थी कि इनमें केवल देवस्थान बनाये जाते थे। उपासकों के लिए हॉल या प्रांगण की व्यवस्था इन मंदिरों में नहीं थी। आरंभ में कलशों का भी निर्माण नहीं हुआ था। अजन्ता के कुछ गुफा मंदिर भी गुप्तकाल में ही बने थे। बौद्ध वास्तुकला के उदाहरण अमरावती, नागार्जुन कोण्डा, राजगृह, नालन्दा एवं सारनाथ में पाये जाते हैं।
मंदिर – निर्माण ने मूर्तिकला को भी प्रश्रय दिया। गुप्तकाल का स्वतंत्र रूप से विकास हुआ। इस पर विदेशी प्रभाव नहीं था। इस समय मथुरा, सारनाथ एवं पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। धर्म का मूर्तिकला के विकास पर गहरा प्रभाव था। देवी-देवताओं की विभिन्न मूर्तियाँ इस समय बनायी गईं जिनमें सबसे प्रमुख विष्णु को विभिन्न अवतारों में दिखलाया गया। शिव को भी विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया। एकमुखी शिव, चतुर्मुखी शिव और अर्द्धनारीश्वर शिव की मूर्तियाँ गप्तकाल की विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं। बौद्ध प्रतिमाएँ भी काफी बडी संख्या में बनीं। इनमें सारनाथ से प्राप्त बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की ताम्बे की मूर्तियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला का अनूठा उदाहरण पेश करती हैं। जैन तीर्थंकरों की भी कुछ मूर्तियाँ इस समय बनीं।
चित्रकला भी उन्नत अवस्था में थी। गुप्तकालीन चित्रकला के नमूने अजन्ता, ग्वालियर की बाघ-गुफाओं एवं बादामी की गुफ़ाओं में अभी भी सुरक्षित हैं। अजन्ता की गुप्तयुगीन गुफाओं में गौतम बुद्ध के माहभिनिष्क्रमण का दृश्य बड़ा ही सजीव है। इसके अतिरिक्त इनमें बुद्ध एवं बोधि सत्वों के चित्र, जातक कथाएँ, मानव एवं पशु-पक्षी, देवी-देवता आदि के चित्र भी बड़े ही अच्छे एवं मनमोहक हैं। इन चित्रों में विशषया उच्चवर्गीय जीवन की झलक देखने को मिलती है। बाघ एवं बादामी की गफाओं के चित्र भी काफी सन्दर हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त युग में सभ्यता एवं संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। इसी कारण गुप्त युग को हिन्दू-पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है, परन्तु कई आधनिक विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। वास्तव में, इस समय कला के विकास पर बौद्ध धर्म की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। इसी के प्रभाव में आकर इस युग में कला का विकास हुआ, उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी विदेशी प्रभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप “वारहमिहिर के सिद्धांत रोमन एवं सिकन्दरिया के कालजयी ज्योतिर्विद पाल की स्थापनाओं की छाप है।” इस प्रकार “वैष्णव मत एवं शैव मत से भी किसी धार्मिक पुनरुत्थान का बोध नहीं होता है।”
कालिदास के ग्रंथों से बौद्धिक पुनर्जारण अथवा साहित्यिक कृतित्व के पुनरुत्थान का संकेत नहीं मिलता है। प्रो. डी० एन० झा के मत में “जिस हिन्दू पुनर्जागरण का बहुत प्रचार किया जाता है, वस्तुतः कोई पुनर्जागरण नहीं था, बल्कि वह बहुत अंशों में हिन्दुत्व का द्योतक था।” प्रो० डी. एन झा की यह मान्यता है कि “गुप्तकाल में राष्ट्रीयता का पुनरुत्थान नहीं हुआ, बल्कि राष्ट्रीयता ने ही गुप्तकाल को नवजीवन प्रदान किया। गुप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा देना उचित नहीं है।” फिर भी यह तो मानना ही होगा कि इस युग में कला एवं साहित्य की काफी अधिक प्रगति हुई।
प्रश्न 31. गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की चर्चा करें।
अथवा, गुप्त साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे ?
उत्तर: गुप्त साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
1. अयोग्य उत्तराधिकारी (Weak successors) – विशाल गुप्त साम्राज्य के संभालने के लिये समुद्रगुप्त के बाद कोई सबल शासक न हुआ; अत: केंद्रीय सत्ता के कमजोर होते ही कई राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।
2. उत्तराधिकारी के नियम का अभाव (Lack of the law of succession) – उत्तराधिकार नियम के अभाव के कारण सम्राट के मरते ही गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती थी अत: जो शक्तिशाली होता था, वही राजगद्दी प्राप्त कर लेता था।
3. सीमावर्ती क्षेत्रों की अवहेलना (Negligence of the frontiers) – चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् किसी भी गुप्त शासक ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया। अतः विदेशी आक्रमणकारी बिना रोक टोक भारत में प्रवेश कर लेते थे।
4. बौद्ध धर्म का प्रभाव (Effect of Buddhism) – बौद्ध धर्म के प्रभाव ने राजाओं को अहिंसावादी बना दिया। दूसरे शब्दों में सेना बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण पंगु हो गई। अत: जिनजिन गुप्त शासकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, मानो उन्होंने शत्रुओं को बुलावा दिया था।
5. विशाल साम्राज्य (Vast Empire) – गुप्त साम्राज्य बहुत विशाल था। उस समय यातायात के साधन नहीं के बराबर थे, अत: इतने बड़े राज्य पर नियंत्रण रखना कठिन था। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य की विशालता भी पतन का एक कारण बनी।
6. सैनिक दुर्बलता (Military weakness) – यद्यपि गुप्त काल सुख-समृद्धि का युग था, परंतु बहुत लंबे समय तक युद्ध न होने से सेना सुख-प्रिय, विलासी एवं आलसी हो गई, फलस्वरूप सेना शक्तिहीन हो गई।
7. आंतरिक विद्रोह (Internal Revolts) – जब गुप्त साम्राज्य शक्तिशाली थे तो उनके भारतीय राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी, परंतु गुप्त सम्राटों की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई, तो यह शासक विद्रोह करने लगी। मालवा के राजा यशोधवर्मन तथा वाकाटक के र ने विद्रोह करके स्वयं को स्वतंत्र कर लिया।
8. हूणों के आक्रमण (Attack of Hunas) – गुप्त साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण हूण जाति के आक्रमण थे। ये आक्रमण चन्द्रगप्त विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद ही प्रारंभ हो गये थे। डॉ. वीसेन्ट स्मिथ के अनुसार ‘पांचवीं और छठी शताब्दी के हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया और इस प्रकार कई नये राज्यों के जन्म के लिये क्षेत्र तैयार कर दिया।’
9. आर्थिक संकट (Economic Crisis) – धन की कमी भी गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बनी। स्कंदगुप्त को पुष्यमित्र की शुंग जाति और हूण जाति से बहुत से युद्ध करने पड़े। इससे सरकारी खजाना खाली हो गया। इस प्रकार आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ जाने से गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।
प्रश्न 32. अलबरूनी द्वारा दिए गए उसके तत्कालीन भारत के विवरण को अपने शब्दों में संक्षेप में दीजिए।
उत्तर: अलबरूनी द्वारा दिए गए भारत के बारे में विवरण का सारांश-महमूद गजनवी के आक्रमणों के वक्त भारत में आए यात्री एवं इतिहासकार अलबरूनी ने भारत के बारे में जो वर्णन लिखा है, वह संक्षेप में नीचे लिखा जा रहा है-
1. सामाजिक स्थिति (Social Condition) – अलबिरूनी लिखता है कि सारा हिन्दू समाज जाति प्रथा के कड़े बन्धनों में जकड़ा हुआ था। उस समय बाल-विवाह और सती प्रथा की कुप्रथायें थीं। विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी।
2. धार्मिक स्थिति (Religious Condition) – उसके वर्णन के अनुसार सारे देश में मूर्ति पूजा प्रचलित थी। लोग मंदिरों को बहुत दान देते थे। मंदिरों में बहुत-सा धन जमा था। साधारण जनता अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखती थी जबकि सुशिक्षित एवं विद्वान केवल एक ईश्वर में विश्वास रखते थे।
3. राजनीतिक दशा (Political Condition) – सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। उसमें से कन्नौज, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर तथा बंगाल अधिक प्रसिद्ध थे। इनमें राष्ट्रीय भावना की कमी थी। ये आपस में ईर्ष्या के कारण सदैव लड़ते रहते थे। .
4. न्याय व्यवस्था (Judiciary) – फौजदारी कानून नरम थे। ब्राह्मणों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। केवल बार-बार अपराध करने वाले के ही हाथ-पैर काट दिए जाते थे।
5. भारतीय दर्शन (Indian Philosophy) – भारतीय दर्शन से अल-बिरूनी बहुत प्रभावित हुआ। उसने भगवद्गीता और उपनिषदों के ऊँचे दार्शनिक विचारों की मुक्त कण्ठ से सराहना की है।
6. ऐतिहासिक ज्ञान (Historical Knowledge) – इतिहास लिखने के बारे में वह लिखता है कि “भारतीयों को ऐतिहासिक घटनाओं को तिथि के अनुसार लिखने के बारे में बहुत कम ज्ञान है और जब उनको सूचना के लिए अधिक दबाया जाए तो वे कथा-कहानी शुरू कर देते हैं।” इस वर्णन से स्पष्ट है कि हमें उस काल तक इतिहास लिखने का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था।
7. सामान्य स्वभाव (General Nature) – भारतीय झूठा अभिमान करते हैं तथा अपना ज्ञान दूसरों को देने को तैयार नहीं होते हैं। उसने लिखा है कि हिन्दू अपना ज्ञान दूसरों को देने में बड़ी कंजूसी करते हैं, वे अपनी जाति के लोगों को बड़ी कठिनता से ज्ञान देते हैं, विदेशियों की बात तो दूर रही। हिन्दू यह समझते हैं कि उसके जैसा देश नहीं है, उनके जैसा संसार में कोई धर्म नहीं है. उनके जैसा किसी के पास ज्ञान नहीं है…..।”
सारांश यह है कि अल-बिरूनी के वर्णन से तत्कालीन भारत के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।
प्रश्न 33. इल्तुतमिश की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर: इल्तुतमिश इलबरी जाति का तुर्क था। उसका पिता इलक खाँ एक कबायली सरदार था। उसका राजनीतिक जीवन ऐबक के दास के रूप में आरंभ हुआ लेकिन मुहम्मद गोरी की अनुशंसा पर ऐबक ने उसे दास्ता से मुक्त कर दिया था। आगे चलकर ऐबक ने अपनी एक बेटी का विवाह इल्तुतमिश के साथ कर दिया। दिल्ली का शासक बनने पर ऐबक ने इल्तुतमिश को बदायूँ का प्रशासन नियुक्त किया जो कि उस समय में एक महत्त्वपूर्ण पद था। बदायूँ में ही इल्तुतमिश को आरामशाह के विरोधियों के द्वारा गद्दी पर अधिकार करने का निमंत्रण प्राप्त हुआ।
दिल्ली की सल्तनत के प्रारंभिक तुर्क सुल्तानों में इल्तुतमिश का व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली है। अनिश्चित राजनीतिक परिस्थितियों में और अत्यन्त गंभीर संकट के काल में इल्तुतमिश दिल्ली का शासक बना था। अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर उसने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली रूप प्रदान किया। इल्तुतमिश की उपलब्धियों को समझने के लिए अथवा दिल्ली सल्तनत के प्रति उसके योगदान का मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक है कि उन समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाय तो इल्तुतमिश को राज्यारोहण के समय प्रस्तुत थीं।
इल्तुतमिश को अत्यन्त कठिन परिस्थितियों का सामना करना था। उसके पूर्व ऐबक ने अपने संक्षिप्त शासन काल में दिल्ली सल्तनत की स्थापना का काम आरम्भ तो किया, किन्तु उसे पूरा करने में असमर्थ रहा। इल्तुतमिश के लिए यह अनिवार्य था कि इस नवस्थापित राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करे और इसके लिए एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण करे। किन्तु इन दोनों कामों के लिए पहले यह आवश्यक था कि इल्तुतमिश की अपनी स्थिति सुदृढ़ हो। इल्तुतमिश के समक्ष निम्नलिखित मुख्य समस्याएँ थीं-
- विरोधी सामंतों, विशेषकर कुत्बी और मुइज्जी सामंतों का दमन।
- अपने प्रतिद्वन्द्वियों यल्दोज और कुबाचा का दमन।
- राजपूताना और बंगाल के उपद्रवों और विद्रोहों का दमन।
- मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा।
- सल्तनत के लिए प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण।
उसके 25 वर्षीय शासनकाल में इन सभी समस्याओं का समाधान हुआ। इस काल में निम्न चरणों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम चरण 1210 से 1220 तक रहा जबकि उसने अपने विरोधियों एवं प्रतिद्वन्द्वियों का दमन किया। सर्वप्रथम उसने उन सामन्तों की शक्ति को कुचला जो गद्दी पर उसके अधिकार का विरोध कर रहे थे। इसमें अधिकतर कुत्बी और मुइज्जी सामंत थे जो इस आधार पर इल्तुतमिश के विरुद्ध हो रहे थे कि वह एक दास का भी दास है, अतः राजगद्दी पर उसका अधिकार अनुचित है। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम इन सामंतों को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने क्रमिक रूप से सभी महत्त्वपूर्ण पदों से इन सामंतों को चित किया। उसने अपने विश्वसनीय 40 दासों का एक नया दल संगठित किया जो ‘चालीसा’ दल कहा जाता है। इस दल के सदस्यों को सभी बड़े पदों पर नियुक्त करके इल्तुतमिश ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।
इल्तुतमिश के प्रतिद्वन्द्वियों में सर्वप्रथम यल्दोज के साथ उसका संघर्ष हुआ। यल्दोज गजनी का शासक था. और दिल्ली पर भी अपनी सम्प्रभुता का दावा करता था। यद्यपि उसे ऐबक ने पराजित किया था, परन्तु इल्तुतमिश की आरंभिक कठिनाइयों को देखते हुए यल्दोज ने पुन: अपना दाबा दोहराया था। 1215-16 के बीच इल्तुतमिश ने यल्दोज को पुनः पराजित किया और इस समस्या का समाधान किया। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी क्योंकि उसके साथ ही दिल्ली सल्तनत का गजनी के साथ सम्पर्क सदा के लिए टूट गया और सल्तनत का विकास एक स्वतंत्र उत्तर भारतीय राज्य के रूप में हुआ जिसको मध्य एशियाई राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस समय उसने दूसरे विरोधी कुबाचा के विरुद्ध भी कार्यवाही की किन्तु उसे पूर्ण सफलता नहीं मिली।
दूसरा चरण 1212 से 28 के बीच है। इस काल का आरंभ एक अत्यन्त गंभीर संकट के साथ हुआ जब महान मंगलो विजेता चंगेज खाँ अपनी सेना के साथ दिल्ली सल्तनत की सीमा पर आ पहुँचा। चंगेज खाँ इस ओर ख्वारिज्म के राजकुमार मंगबरनी का पीछा करता हुआ आया था जो कि इल्तुतमिश से मंगोलों के विरुद्ध सहायता का आकांक्षी था। इल्तुतमिश ने कूटनीति से काम लेते हुए मंगबरनी को कोई सहायता नहीं दी। उसके आचरण से चंगेज खाँ संतुष्ट रहा और उसने भी दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण नहीं किया। इस प्रकार यह भयंकर संकट आसानी से टल गया। इसका एक अन्य लाभ इल्तुतमिश को हुआ। मंगबरनी ने सिन्धु नदी के किनारे के क्षेत्र में कुबाचा की शक्ति को बहुत कमजोर कर दिया था, अत: इसका लाभ उठाकर कुबाचा पर इल्तुतमिश ने चढ़ाई कर दी और 1224 में कुबाचा को पराजित करके उसने सिन्ध और मुल्तान को भी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत के क्षेत्रों में पहली बार उल्लेखनीय विस्तार हुआ।
इस अवधि में पूर्वी सीमा की समस्या पर भी इल्तुतमिश ने ध्यान दिया। बंगाल का प्रान्त ऐबक के समय में भी स्वतंत्र होने का प्रयास कर चुका था। इल्तुतमिश की आरंभिक समस्याओं का लाभ उठाकर बंगाल में हेमामुद्दीन इवाज ने स्वतंत्र सत्ता ग्रहण कर ली थी और बिहार, उड़ीसा एवं कामरूप के क्षेत्रों में अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया था। इल्तुतमिश ने बंगाल पर दो सैनिक अभियान किये। 1227 तथा 1229 के अभियानों के फलस्वरूप बंगाल में स्थित लखनौती का राज्य दिल्ली के नियंत्रण में आ गया और बिहार के क्षेत्र बंगाल से अलग करके दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। इस प्रकार अपने राज्य की पूर्वी सीमा को इल्तुतमिश ने सुदृढ़ एवं सुरक्षित बना दिया।
तीसरा चरण 1229 से आरंभ हुआ और 1236 में समाप्त हुआ। इसमें इल्तुतमिश ने राजपूताना की समस्या का समाधान किया और प्रशासन तंत्र को सुव्यवस्थित किया। राजपूताना का क्षेत्र ऐबक के शासन काल से ही विद्रोह और उपद्रवों का केन्द्र बना हुआ था। वहाँ राजपूत सरदार तुर्की की सत्ता का अंत करने के लिए संघर्ष छेड़े हुए थे। अपने संक्षिप्त शासन काल में ऐबक इस समस्या का समाधान करने में असमर्थ रहा था, अतः इल्तुतमिश ने राजपूताना में कार्यवाही आरंभ की। उसका पहला सफल अभियान 1226 में रणथम्भौर पर अधिकार के साथ परा हआ। अगले पाँच वर्षों में इल्तुतमिश ने इस क्षेत्र में कई अभियान किये और अनेक क्षेत्रों को जीता। जिसमें अजमेर, नागौर और थंगनीर के नाम उल्लेखनीय हैं। अंतिम महत्त्वपूर्ण अभियान 1231 में ग्वालियर के विरुद्ध हुआ। इस प्रकार इल्तुतमिश ने उत्तरी और मध्य भारत के राजपूत शासकों को अपने नियंत्रण में रखा।
उपलब्धियाँ – एक विजेता और सेना नायक के रूप में इल्तुतमिश की उपलब्धियाँ अत्यन्त प्रभावशाली हैं। उसने एक असंगठित और निर्बल राज्य को न केवल शक्ति और सुदृढ़ता प्रदान की बल्कि उसके क्षेत्रों का भी पर्याप्त विस्तार किया और अपने विरोधियों की शक्तियों को कुचल डाला। इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली सल्तनत के आरंभिक सुदृढीकरण का काम इल्तुतमिश द्वारा ही संभव हुआ। किन्तु इल्तुतमिश मात्र एक विजेता ही नहीं था बल्कि एक योग्य प्रशासक भी था। उसी ने दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था के निर्माण का काम आरंभ किया। इसके लिए सर्वप्रथम उसने 1229 में बगदाद के अब्बासी खलीफा से एक मंशूर अथवा स्वीकृति पत्र प्राप्त किया जिसके द्वारा उसे दिल्ली सल्तनत के सुल्तान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी क्योंकि अभी तक दिल्ली सल्तनत के स्वतंत्र अस्तित्व को वैधानिक रूप से स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी थी। खलीफा के स्वीकृति पत्र से इल्तुतमिश की स्थिति और भी सुदृढ़ हुई। सुल्तान के रूप में अब उसकी सत्ता का विरोध उसकी मुस्लिम प्रजा द्वारा संभव नहीं रही। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस स्वीकृति द्वारा इल्तुतमिश एवं दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र सत्ता को मान्यता प्राप्त हो गयी।
आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में इल्तुतमिश का योगदान तीन क्षेत्रों में उल्लेखनीय है, इकतादारी व्यवस्था, मुद्रा प्रणाली एवं सैन्य संगठन।
इल्तुतमिश ने अपने राज्य को अनेक छोटे-छोटे भू-खंडों में विभक्त कर दिया जिन्हें इकता कहते हैं। इसके अधिकारी इकतादार कहलाते थे। बड़े क्षेत्रों के इकतादार प्रान्तीय गवर्नर के रूप में थे जो कानून और व्यवस्था की देख-रेख, लगान की वसूली, मुकदमों की सुनवाई और सैनिक सेवा प्रदान करने के कार्य करते थे। छोटे क्षेत्रों के इकतादार केवल सैनिक सेवा प्रदान करते थे। दोनों श्रेणियों के इकतादारों को वेतन के रूप में अपने इकता से लगान वसूलने का अधिकार था। इल्तुतमिश ने इस व्यवस्था का उपयोग उत्तर भारत की सामंतवादी प्रथा को समाप्त करने एवं केन्द्रीय प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए किया। सामंतवादी प्रथा के विपरीत इल्तुतमिश ने समय-समय पर इकतादारों का स्थानान्तरण करके उन्हें केन्द्रीय प्रशासन के नियंत्रण में रखने का सफल प्रयास किया। इसके अतिरिक्त जिन राजपूत शासकों ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली थी उन्हें भी नजराना देने के बदले उनके राज्य लौटा दिये गये।
इल्तुतमिश ने अरबी प्रथा के आधार पर एक नई मुद्रा-प्रणाली भारत में लागू की। इसमें ताम्बे के सिक्के अथवा पीतल और चाँदी के सिक्कों अथवा टंकों को प्रचलित किया गया। इन सिक्कों पर इल्तुतमिश का नाम अरबी में अंकित था। इन नये सिक्कों का प्रचलन भारत में तुर्कों की सत्ता की सुदृढ़ता का प्रतीक था।
इल्तुतमिश के अधीन किसी केन्द्रीय सेना का प्रमाण नहीं मिलता। उसने शाही अंगरक्षकों अथवा सैनिकों का एक दल बनाया था जो युद्ध के समय शाही सेना के रूप में ही काम करता था। इस व्यवस्था से वह सैनिक शक्ति के मामले में इकतादारों के ऊपर पूरी तरह निर्भर रहने से मुक्त हो गया। आगे चलकर बलवन ने इसी आधारशिला पर सैन्य संगठन का निर्माण किया।
इल्तुतमिश विजेता और प्रशासक के रूप में महान तो था ही, कला और संस्कृति का पोषक भी था। उसके शासन के समय में दिल्ली का नगर एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ जहाँ मध्य एशिया से आने वाले शरणार्थी कलाकारों, शिल्पकारों और विद्वानों को प्रश्रय मिला। इल्तुतमिश के दरबार में प्रसिद्ध इतिहासकार, मिनहाजेसिराज को प्रश्रय मिला जिसकी रचना तबकात-ए-नासीरी से भारत में तुर्की शासन के निर्माण और आरंभिक इतिहास का पता चलता है। प्रसिद्ध विद्वान् जुनैदी को इल्तुतमिश ने अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। मध्य एशिया से आने वाले मजदूरों के योगदान से इल्तुतमिश ने अनेक भव्य इमारतों का निर्माण कराया जिनमें कुतुबमीनार, राजकुमार महमूद और इल्तुतमिश के मकबरे और मदरसे आज भी देखे जा सकते हैं।
निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि भारत में तुर्कों की सत्ता के विकास में इल्तुतमिश का उल्लेखनीय योगदान है। उसने नवजात दिल्ली सल्तनत को न केवल विघटन से बचाया बल्कि उसे एक सुदृढ़ अस्तित्व प्रदान किया और उसके क्षेत्रों का विस्तार किया। उसने मंगोल आक्रमण के भीषण संकट से दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखा। ऐबक द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत को इसने सुदृढ़ एवं सुरक्षित बनाया।