Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi
Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi
BSEB 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi
प्रश्न 1. बाजार मूल्यांकन से आप क्या समझते हैं ? बाजार मूल्यांकन पर प्रभाव डालने वाले घटक कौन-कौन से हैं ?
उत्तर: बाजार मूल्यांकन- उत्पाद और सेवाओं का चयन माँग और पति के घटकों के अतिरिक्त अन्य अनेक घटकों पर भी निर्भर करता है। जैसे-उत्पाद की गुणवत्ता पूर्ति के लिए स्रोत एवं वितरण’ के तंत्र। बाजार मूल्यांकन करते समय एक साहसी को निम्न रूपरेखा बना लेनी चाहिए-
- माँग
- पूर्ति और प्रतियोगिता
- उत्पादन की लागत और कीमत एवं
- परियोजना की नवीनीकरण तथा परिवर्तन।
बाजार मल्यांकन पर प्रभाव डालने वाले घटक- किसी कम्पनी के बाह्य वातावरण के अग्र भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) सक्ष्म वातावरण- सूक्ष्म वातावरण में उन शक्तियों का वर्णन होता है जिनसे कम्पनी के ग्राहकों को प्रभावित किया जाता है। ये शक्तियाँ बाह्य होती हैं परंतु कम्पनी की बाजार व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। इन शक्तियों में माल की पूर्ति देने वाले मध्यस्थ, प्रतियोगी, ग्राहक तथा जनता आती है। साधारणतया इन घटकों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।
(ii) पर्ति करने वाले- उत्पाद और सेवाओं को बनाने और देने में किसी कम्पनी को बहुत-से चरों को देखना होता है। वस्तुओं/सेवाओं की पूर्ति देने वालों को ही सुपुर्दगीदाता कहा जाता है। इनका कम्पनी की सफलता व असफलता से सीधा संबंध होता है। विपणन कर्मचारियों का वस्तु की पूर्ति देने वालों से कोई संबंध नहीं होता। हालांकि जब माल की कमी होती है, तब इन्हें भी परेशानी होती है। विपणन की सफलता के लिए पर्याप्त मात्रा, अच्छी किस्म का सामान हर समय उपलब्ध होना चाहिए। जितने अधिक पूर्तिकर्ता, उतनी ही अधिक निर्भरता होगी। अतः पूर्तिकर्ता विपणन को प्रभावित कर सकता है। विपणन प्रबंधकों को सामान की नियमित पूर्ति पर ध्यान देना चाहिए। माल की कमी तथा देरी बिक्री को प्रभावित करती है। ऐसा होने से कम्पनी की ख्याति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।
(iii) विपणन मध्यस्थ- विपणन मध्यस्थ वे स्वतंत्र व्यक्ति अथवा फर्म हैं जो कम्पनी को प्रत्यक्ष सेवाएँ देकर उसकी बिक्री बढ़ाने में सहायता करती हैं तथा उत्पादों को शीघ्र से शीघ्र अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाते हैं।
(iv) प्रतियोगी- विपणन के सही अर्थ में एक सफल कम्पनी को ग्राहकमुखी होना चाहिए। उसको इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि अपने ग्राहकों की इच्छा और आवश्यकताओं का ध्यान अपने प्रतियोगी फर्म से अधिक अच्छा हो। किसी संस्था के विपणन निर्णय केवल ग्राहकों को ही प्रभावित नहीं करते वरन् उस कम्पनी के प्रतियोगी की विपणन व्यूह-रचना पर प्रभाव डालते हैं। परिणामस्वरूप विपणनकर्ताओं को बाजार की प्रतियोगिता, उत्पादों की गुणवत्ता, विपणन माध्यम तथा मूल्यों पर ध्यान रखते हुए विक्रय संवर्द्धन करना चाहिए।
(v) ग्राहक- प्रत्येक कम्पनी को अपने ग्राहकों को पाँच प्रकार के वर्ग में रखना होता है-
- उपभोक्ता बाजार- इस श्रेणी में वे संस्थाएँ आती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं का क्रय केवल भविष्य में उत्पादन क्रिया में उपयोग के लिए करती हैं, आज के लिए नहीं।
- औद्योगिक बाजार- इस श्रेणी में वे संस्थाएँ आती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं का क्रय केवल भविष्य में उत्पादन क्रिया में उपयोग के लिए करती हैं, आज के लिए नहीं।
- सरकारी बाजार- इस श्रेणी में सरकारी कार्यालय अथवा अन्य एजेंसी जो वस्तुओं और सेवाओं का क्रय करके उन्हें बेचते हैं जिन्हें उनकी आवश्यकता होती है।
- पुनः बिक्री बाजार- इस श्रेणी में वे व्यक्ति अथवा संस्थाएँ आती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं को खरीदकर दूसरों को बेचकर लाभ कमाती हैं। ये फुटकर व्यापारी अथवा थोक व्यापारी हो सकते हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय बाजार- व्यक्ति/संगठन भी ग्राहक हो सकते हैं, यहाँ क्रेता दूसरे देशों के होते हैं। इसमें उपभोक्ता, उत्पादक, पुनः विक्रेता तथा सरकार भी क्रेता हो सकती है।
- जनता- जनता से हमारा अभिप्राय ऐसे व्यक्ति के समुदाय से है जिसका वर्तमान तथा भविष्य कम्पनी की स्थिरता से जुड़ा हो और कम्पनी के उत्पादों को खरीदकर कम्पनी के उद्देश्यों को पूरा करने में सहयोग दे।
प्रश्न 2. कोष प्रवाह विवरण आर्थिक चिट्ठे से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर: कोष प्रवाह विवरण तथा चिट्ठे में मुख्य अन्तर इस प्रकार है-
प्रश्न 3. उद्यमिता की परिभाषा दें एवं इसकी विशेषताएँ बताइए।
उत्तर: उद्यमिता या साहसिक कार्य की परिभाषा देते हुए यह कहा जा सकता है कि कार्यो को देखना, विनयोग करना, उत्पादन के अवसरों को देखना, उपक्रम को संगठित करना, नयी विधि से उत्पादन करना, पूँजी प्राप्त करना, श्रम और सामग्री को एकत्रित करना और उच्च पद के अधिकारी, प्रबंधकों का चयन को संगठन के दिन-प्रतिदिन के कार्यों को करेंगे।
1. उद्यमिता से अभिप्राय निवेश तथा उत्पादन अवसरों को खोजना, एक नई उत्पादन प्रक्रिया को स्वीकार कर एक नये उद्यम का गठन करना, पूँजी जुटाना, श्रम उपलब्ध करना, कच्चे माल की आपूर्ति की व्यवस्था करना, स्थान का चयन, नई तकनीकी सामग्री के स्रोत की जानकारी प्राप्त करना तथा उद्यम के दैनिक कार्य हेतु उच्च प्रबन्धकों की नियुक्ति आदि क्रियाओं का संयोजन है।
यह परिभाषा उद्यमी के कार्यों से सम्बन्धित है। इन क्रियाओं के अन्तर्गत आर्थिक क्रियाओं व्यवहरण, जोखिम वहन, कुछ नया सृजन तथा साधनों का गठन एवं समन्वय सम्मिलित है।
2. उद्यमिता की परिभाषा के अन्तर्गत मूल रूप से ऐसे कार्य किये जाते हैं जो कि व्यवसाय के साधारण व्यवहार में नहीं किये जाते हैं।
इस परिभाषा ने शुम्पीटर के नव-सृजन प्रक्रिया जो उद्यमी द्वारा संचालित होती है, पर बल दिया है। उसके द्वारा साधनों का एकत्रण, निपुणता का संयोजन तथा व्यवसाय को सफल बनाने हेतु नेतृत्व प्रदान करना शामिल है।
3. उद्यमिता अतिरिक्त धन सृजित करने को गतिशील करने की गतिशील प्रक्रिया है। यह धन व्यक्तियों द्वारा सृजित किया जाता है जो पूँजी, समय तथा वृत्ति की वचनबद्धता द्वारा किसी उत्पादन अथवा सेवा में मूल्य प्रदान करते हैं। उत्पाद अथवा सेवा स्वयं में एकाकी न भी हो, परन्तु उद्यमी द्वारा आवश्यक गुणों एवं साधनों के संयोजन, द्वारा उनमें मूल्य (Value) सृजित किया जाता है।
इन परिभाषा में उद्यमिता प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम, अतिरिक्त धन का सृजन है। मूल्य सृजन जोखिमी प्रक्रिया है परन्तु उद्यमी को पूँजी व समय की संलग्नता में जोखिमों को कम करना आवश्यक है।
4.”उद्यमिता तब उजागर होती है जब साधनों का पुन: निर्देशन, अवसरों की प्रगति की और प्रशासनिक कार्यशीलता समृद्ध करते हुए सुनिश्चित की जाती है। उद्यमिता स्वाभाविक नहीं होती, यह कार्य करने में निहित है। उद्यमिता जोखिम के प्रबन्धन से जुड़ी है।
उपरोक्त परिभाषा में, ड्रकर उद्यमिता को प्रबन्धन उन्मुख बताते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं कि उद्यमितीय संगठन अपनी सफलता के लिए वर्तमान प्रबन्ध की अपेक्षा भिन्न प्रबन्धन को अनिवार्य मानते हैं। परन्तु वर्तमान के अनुरूप, प्रबंधन उसी प्रकार तंत्र युक्त, संगठित एवं उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए। समूह नियम प्रत्येक उद्यम के लिए समान होते हुए भी वर्तमान व्यवसाय, लोक सेवा संस्थाएँ तथा नए उद्यम भिन्न-भिन्न चुनौतियाँ एवं समस्याएँ प्ररस्तुत करते हैं, उसके ऊपर उनमें विघटनकारी प्रवृतियों पर रोक लगाने की चेष्टा अनिवार्य है। व्यक्तिगत उद्यमियों को अपनी भूमिका एवं समर्पिताओं हेतु निर्णय लेने चाहिए।
उद्यमिता की विशेषता- उद्यमिता की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
- उद्यमिता एक प्रक्रिया है।
- उद्यमिता सृजन की प्रक्रिया है।
- उद्यमिता एक कार्य-योजना है।
- उद्यमिता प्रशासन एवं नियंत्रण है।
- उद्यमिता उत्पादन के साधनों को प्रयोग करने की प्रक्रिया है।
- उद्यमिता जोखिम के साधनों को प्रयोग करने की प्रक्रिया है।
प्रश्न 4. आर्थिक चिट्ठा का काल्पनिक प्रारूप तैयार करें।
उत्तर:
प्रश्न 5. नियोजन प्रक्रिया में प्रबन्ध द्वारा लिये गये कदम क्या हैं ?
उत्तर: नियोजन प्रक्रिया में प्रबन्ध द्वारा लिये गये कदम निम्नलिखित हैं-
- समस्या का विश्लेषण।
- उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या।
- आवश्यक सूचनाओं का एकत्रीकरण।
- एकत्रित सूचनाओं का विश्लेषण और वर्गीकरण।
- नियोजन की आधारभूत धारणाएँ एवं सीमाएँ निश्चित करना।
- विभिन्न कार्यों तथा दशाओं का निर्णय।
- विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन।
- नियोजन क्रम और समय निश्चित करना।
- सहायक योजनाओं का निर्माण।
- नियोजन की उपलब्धियों का मूल्यांकन।
- नियोजन कार्य पर नियंत्रण।
प्रश्न 6. केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीकरण के बीच अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर: जब प्रबंधक या उच्च अधिकारी अपने कार्य भार को स्वयं अपने पास रखता है तथा प्रबन्ध और संचालक की सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वयं करता है तो उसे केन्द्रीकरण’ कहा जाता है। इसमें उत्तरदायित्व का वितरण अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच नहीं किया जाता है।
इसके ठीक विपरीत विकेन्द्रीकरण में अधिकार एवं दायित्वों का वितरण छोटी-से-छोटी इकाई को किया जाता है।
कीथ डेविस ने विकेन्द्रीकरण को परिभाषित करते हुए कहा है कि “संगठन की छोटी-से-छोटी इकाई तक, जहाँ तक व्यावहारिक हो, अधिकार एवं दायित्व का वितरण विकेन्द्रीकरण कहलाता है।”
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण दोनों अलग-अलग चीजें हैं और दोनों में स्पष्ट अंतर है।
प्रश्न 7. प्रबन्ध के आधारभूत विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: प्रबन्ध की आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- यह एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है।
- यह एक सामाजिक प्रक्रिया है।
- यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है।
- यह एक क्रियाशील कार्य है।
- यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
- यह एक पेशा है।
- यह कला एवं विज्ञान दोनों है।
- यह मानवीय प्रयासों से संबंधित है।
- इसका कार्य दूसरों से कार्य कराना है।
- यह कार्य करने सम्बन्धी वातावरण उत्पन्न करने की युक्ति है।
प्रश्न 8. पूंजी बाजार और मुद्रा बाजार में अंतर बताइए।
उत्तर: पूँजी बाजार से अभिप्राय उस बाजार से है जहाँ पर दीर्घकालीन वित्त का क्रय-विक्रय या माँग और पूर्ति की जाती है। पूँजी बाजार वह केन्द्र है जहाँ पर दीर्घकालीन पूँजी की माँग एवं पूर्ति का परस्पर समायोजन होता है। यह वह स्थान है जहाँ पर किसी राष्ट्र की उधार देय पूँजी का संचय किया जाता है तथा जहाँ पर दीर्घकालीन पूँजी के साथ व्यवहार किया जाता है। इस बाजार में विशेष रूप से निजी उद्यमियों जिन्होंने नये औद्योगिक संस्थान या पुराने औद्योगिक संस्थानों के विस्तार के लिए दीर्घकालीन पूँजी की माँग की जाती है। दीर्घकालीन पूँजी की पूर्ति सरकार, अर्द्ध-सरकारी संस्थाएँ, व्यापारिक तथा औद्योगिक कंपनियाँ आदि करती है, जबकि उधार देने वालों में व्यापारिक बैंक, औद्योगिक वित्तीय संगठन तथा देशी साहूकार आदि आते हैं।
दीर्घकालीन पूँजी की माँग एवं पूर्ति का स्रोत पूँजी बाजार के अंतर्गत अंश, ऋण-पत्र आदि का क्रय-विक्रय होता है। इसके अंतर्गत दीर्घकालीन पूँजी का बड़े पैमाने पर व्यवहार किया जाता है। पूँजी बाजार संगठित और असंगठित होता है। पूँजी बाजार वित्तीय स्रोतों को प्रोत्साहन देता है। किसी भी देश की समृद्धि एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर. पूँजी बाजार है। शासन की नीति पूँजी बाजार को प्रभावित करती है।
भारतीय मुद्रा बाजार संगठित तथा असंगठित भागों का एक मिश्रण है। भारतीय मुद्रा बाजार के विभिन्न अंगों में एक ही समय पर ब्याज की भिन्न दरें विद्यमान रहती हैं। भारतीय मुद्रा बाजार के संगठित भाग में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया तथा इसके सात सहायक बैंक, विदेशी तथा भारतीय अनुसूचित बैंक सम्मिलित है। इसके अलावे बीमा कंपनी, अर्द्ध सरकारी संस्थाएँ तथा मिश्रित पूँजी कम्पनियों भी मुद्रा बाजार में उधारदाताओं के रूप में प्रवेश करती है। इन संस्थाओं के अतिरिक्त मुद्रा बाजार में ऋण दलाल, सामान्य वित्त एवं पूँजी दलाल तथा हामीदार भी वित्तीय मध्यस्थों के रूप में कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय मुद्रा बाजार में स्वीकृत व्यापार भी कोई विशेष मात्रा में नहीं होता है।
प्रश्न 9. विपणन मिश्रण के आवश्यक तत्त्व क्या हैं ?
उत्तर: विपणन मिश्रण शब्द का प्रयोग जेम्स कुलिशन ने किया, जिसे नील एच. ब्राउन ने लोकप्रिय बनाया। ऐसे समस्त विपणन निर्णय जो कि विक्रय को प्रेरित या प्रोत्साहित करते हैं विपणन मिश्रण कहलाते हैं। विपणन मिश्रण के आवश्यक तत्त्व चार हैं जो P अक्षर से आरम्भ होते हैं। इसलिए प्रसिद्ध अमेरिकन प्रोफेसर जेरोम मेककारटी ने विपणन मिश्रण को चार ‘P’ कहा है, जो इस प्रकार है-
- उत्पाद (Product)- उत्पाद से आशय किसी भौतिक वस्तु या सेवा से है जिससे क्रेता की आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है।
- मूल्य (Price)- मूल्य से आशय किसी उत्पाद या सेवा के लिए ग्राहक से वसूल की जाने वाली मुद्रा से है।
- स्थान (Place)- स्थान से आशय उस स्थान से है जहाँ वस्तुएँ और सेवाएँ उचित मूल्य पर विक्रय के लिए रखा जाता है। बिना स्थान के विपणन संभव नहीं है।
- संवर्द्धन (Promotion)- संवर्द्धन से आशय उन सभी क्रियाओं से है जो ग्राहकों को उत्पाद या सेवा के सम्बन्ध में सूचना देने तथा उन्हें क्रय करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु सम्पन्न की जाती है। इन सभी का उद्देश्य उत्पाद या सेवा की बिक्री में वृद्धि करना होता है।
प्रश्न 10. उपक्रम के चुनाव में साहसी को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
अथवा, व्यावसायिक उपक्रम के प्रवर्तन में ध्यान देने योग्य तत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर: एक उपक्रम के चुनाव में साहसी को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. व्यवसाय का चयन- जब साहसी या उद्यमी में कोई व्यावसायिक विचार उत्पन्न होता है उसी समय नए उपक्रम की स्थापना की प्रक्रिया शुरू हो जाती है उसे व्यवसाय की लाभदायकता, उसमें सन्निहित जोखिम एवं आवश्यक पूँजी का विश्लेषण कर व्यवसाय का चयन करना चाहिए।
2. संगठन के प्रारूप का चुनाव- बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए कम्पनी प्रारूप और छोटे या मध्यम आकार के व्यवसाय के लिए एकांकी या साझेदारी प्रारूप उपयुक्त होता है। परन्तु आजकल छोटे एवं मध्यम वर्ग के उद्यमी भी कम्पनी प्रारूप को पसंद करते हैं, क्योंकि इसमें लोचनीयता एवं असीमित स्वीकृति का गुण होता है।
3. वित्तीय साधन- उद्यमी यदि पूँजी जुटाने में स्वयं सक्षम है तो उसे एकांकी व्यापार का उपक्रम चुनना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो साझेदारी उपयुक्त होगी। किन्तु इससे भी अधिक पूँजी की आवश्यकता होने पर कम्पनी प्रारूप वाला उपक्रम ठीक होगा।
4. प्लाण्ट का स्थान निर्धारण- उद्यमी को व्यवसाय के लिए ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ कच्चा माल, श्रम, शक्ति, बाजार एवं अन्य सहायक सुविधाएँ उचित मात्रा में उपलब्ध हो।
5. इकाई का आकार- यदि उद्यमी अपने उत्पाद की बिक्री एवं आवश्यक वित्त की व्यवस्था करने में समर्थ है तो बड़े पैमाने पर उत्पादन अच्छा विकल्प होगा।
6. संयंत्र विन्यास- संयंत्र विन्यास ऐसा होना चाहिए जो श्रमिकों, मशीन, औजार एवं स्थान का सर्वोत्तम उपयोग निश्चित कर सके।
7. श्रमशक्ति की उपलब्धता- उद्यमी को कुशल श्रमिकों को नियुक्त करना चाहिए, क्योंकि अच्छी श्रमशक्ति की उपलब्धता उपक्रम के सफल संचालन के लिए आवश्यक है।
8. प्रक्रियागत औपचारिकताओं की पूर्ति- एकांकी व्यापार एवं साझेदारी संस्थाओं को केवल सामान्य औपचारिकताएँ पूरी करनी होती है, किन्तु कम्पनी संगठन के अंतर्गत उद्यमी को रजिस्ट्रेशन, अंशों को सूचीबद्ध कराना, उत्पादों का रजिस्ट्रेशन कराना आदि औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती है।
9. उपक्रम आरम्भ करना- उद्यमी श्रम, सामग्री, मशीन, मुद्रा, प्रबंधकीय कौशल आदि की व्यवस्था कर संस्था की संरचना विकसित कर सकता है तथा प्रबंधक एवं कर्मचारियों के बीच कार्य का विभाजन करेगा। साहसिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्रियात्मक संगठन संरचना से काफी मदद मिलती है।
प्रश्न 11. एक व्यवसाय की दीर्घकालिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वित्त के कौन-कौन से प्रमुख स्रोत हैं ?
उत्तर: व्यवसाय में दीर्घकालीन कोषों की आवश्यकता सामान्यतः इसकी स्थिर पूँजी की प्रकृति की होती है।
दीर्घकालीन पूँजी प्राप्त करने के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं-
(i) अंश- एक कम्पनी दीर्घकालीन एवं स्थायी वित्त प्राप्त करने के लिए समता एवं पूर्वाधिकार अंशों का निर्गमन कर सकती है।
(ii) ऋण पत्र- एक कम्पनी अपने वित्तीय साधनों को बढ़ाने के लिए ऋणपत्रों को जारी कर सकती है। ऋणपत्रों पर ब्याज की दर निश्चित हो सकती है। इसका शोधान एक निश्चित तिथि पर किया जा सकता है। इसका निर्गमन मूल्य निश्चित हो सकता है।
(iii) ऋण- व्यावसायिक संस्था बैंक या विशिष्ट संस्थाओं से ऋण प्राप्त कर सकती है। ऋण की स्वीकृति की शर्ते हो सकती हैं और स्वीकृत ऋण का सवितरण समय-समय पर किया जा सकता है।
(iv) प्राप्त लाभों का पुनर्विनियोग- यह अर्थ प्रबन्धन का आन्तरिक स्रोत है। बहुत सी संस्थाएँ अपने व्यवसाय के वित्त की व्यवस्था के लिए अवितरित लाभ, संचय आदि को पूँजी के रूप में प्रयोग कर लेती है। इसे लाभों का पुनर्विनियोग कहा जाता है।
प्रत्येक व्यवसाय को सर्वप्रथम अपनी दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की प्रकृति राशि, अवधि एवं उद्देश्य को चिह्नित करना चाहिए और तब संसाधानों का प्रयोग करना चाहिए ताकि उनका लाभप्रद उपयोग हो सके।
प्रश्न 12. प्रबन्ध की प्रकृति का उल्लेख करें।
उत्तर: प्रबंध की प्रकृति को निम्न रूप में समझ सकते हैं-
1. प्रबंध विज्ञान एवं कला दोनों है।
प्रबंध कला के रूप में,
प्रबंध को सामान्यतया कला समझा जाता है क्योंकि कला का अर्थ किसी कार्य को करने अथवा किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञान एवं कुशलता का प्रयोग करना है। वास्तव में कला सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने की विधि है। जार्ज टैरी का कथन है कि “चातुर्य के प्रयोग से इच्छित परिणाम प्राप्त करना ही कला है।”
प्रबंध विज्ञान के रूप में, व्यवस्थित ज्ञान जो किसी सिद्धांतों पर आधारित हो, विज्ञान कहलाता है। अर्थात् विज्ञान ज्ञान का वह रूप है जिसमें अवलोकन तथा प्रयोग द्वारा कुछ सिद्धांत निर्धारित किये जाते हैं। विज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। वास्तविक विज्ञान और नीति प्रधान विज्ञान। वास्तविक विज्ञान के अन्तर्गत हम केवल वास्तविक अवस्था का ही अध्ययन करते हैं जबकि नीति प्रधान विज्ञान के अन्तर्गत हम आदर्श भी निर्धारित करते हैं। व्यावसायिक प्रबंध भी निश्चित सिद्धांतों पर आधारित सुव्यवस्थित ज्ञान का भंडार है। विद्वानों ने समय-समय पर अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है जो प्रबंध को विज्ञान की कोटि में रखने के लिए पर्याप्त उदाहरणार्थ, वैज्ञानिक प्रबंध, विवेकीकरण, विज्ञापन व बिक्री कला के सिद्धांत आदि।
प्रबंध विज्ञान एवं कला दोनों के रूप में, उपरोक्त अध्ययन करने के उपरांत हम कह सकते हैं कि प्रबंध कला और विज्ञान दोनों है। वास्तव में उसके वैज्ञानिक एवं कलात्मक रूप को अलग नहीं कर सकते हैं। सैद्धांतिक ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान के बिना अधूरा है तथा व्यावहारिक ज्ञान सैद्धांतिक ज्ञान के बिना अपूर्ण है। अर्थात् एक कुशल प्रबंधक के लिए प्रबंध का ज्ञान और अनुभव दोनों आवश्यक है।
प्रबंध एक पेशा है। आधुनिक प्रबंध विद्वानों का मत है कि प्रबंध एक पेशा है तथा उसी रूप में उसका धीरे-धीरे विकास होता जा रहा है। उनके अनुसार विकसित शब्द जैसे अमरीका, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी अन्य उद्योग प्रधान देशों में व्यावसायिक प्रबंध एक तंत्र देश के रूप में विकसित हो चुका है तथा प्रबंधकों को उनकी प्रबंध योग्यता के आधार पर ही कार्य सौंपा जाता है। भारत में भी अब पूँजी प्रबंधकों का स्थान धीरे-धीरे पेशेवर प्रबंधक ग्रहण करते जा रहे हैं।
प्रश्न 13. बतायें कि प्रबंधन को निर्णय लेने की प्रक्रिया के रूप में क्यों जाना जाता है ?
उत्तर: एक व्यावसायिक उपक्रम का संवर्द्धन, परिचालन एवं विस्तार मुख्यतः प्रबन्धन की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। प्रबन्धन सदैव कुशलता के लिए चिन्तित व जागरूक रहती है। कुशलता प्राप्त करने के लिए प्रबन्ध निम्न कार्यों को सम्पन्न करता है-
- नियोजन
- संगठन
- नियुक्तिकरण
- निर्देशन
- नियंत्रण
- समन्वय
इसके अन्य कार्य भी है जैसे-सम्वादवाहन, प्रेरित करना एवं नेतृत्व प्रदान करना।
प्रबन्धन के इन सभी चरणों में निर्णयन या निर्णय लेना एक सतत समस्या है। यह किसी समस्या के समाधान हेतु विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ को चयन करने की प्रक्रिया है। प्रबन्ध में विभिन्न प्रकार के निर्णय लेने पड़ते हैं और उनकी प्रकृति भी भिन्न-भिन्न होती है। ये निर्णय निम्न हैं-
- उद्यमी के रूप में निर्णय- अवसरों की पहचान एवं चुनाव, नीतियों में परिवर्तन लाने की आवयश्यकता, उन परिवर्तनों को लागू करना।
- धमकियों का सामना करना- गैर अनुमानित समस्याओं जैसे हड़ताल या दुर्घटना आदि से निपटने के लिए सुधार के उपाय करना।
- संसाधनों के आवंटन के सम्बन्ध में निर्णय- संसाधनों का अनुमान लगाना, पर्याप्त संसाधान जुटाने के लिए इसकी आपूर्ति पर ध्यान देना।
- संगठनात्मक प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना- अंशधारियों, कर्मचारियों, लेनदारों, समाज, व्यापारियों, सरकार तथा देश के हितों की रक्षा करना।
इस प्रकार प्रबन्धन निर्णय लेने की प्रक्रिया है। इसका अर्थ यह है कि विभिन्न विकल्पों में से उचित एवं सही विकल्प का चुनाव करना है ताकि आवश्यक कदम उठाया जा सके।
प्रश्न 14. स्थायी (स्थिर) लाग्न तथा परिवर्तनशील लागत में अंतर बताइये।
उत्तर: स्थायी लागत तथा परिवर्तनशील लागत में निम्नलिखित अंतर है-
प्रश्न 15. एक उद्यमी किस प्रकार सही उत्पादन तथा उत्पादन के प्रवाह का सुनिश्चित कर सकता है ?
उत्तर:
प्रत्येक उद्यमी को वस्तु या सेवाओं के उत्पादन की योजना बनानी चाहिए। इस नियोजन का उद्देश्य निम्न को सुनिश्चित करना है-
- सही गुण
- सही मात्रा
- सही समय
- न्यूनतम लागत
उत्पादन ऐसा हो जो उपभोक्ता को अधिकतम संतुष्टि दे सके। इसके लिए गुणवत्ता, मात्र एवं सामग्रियों की पूर्ति, लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तरीके, श्रमशक्ति की आवश्यकता, संयंत्र के प्रकार, प्रयोग में लाये जाने वाले उपकरण आदि के सम्बन्ध में उचित निर्णय लेना आवश्यक है।
एक उचित उत्पादन नियोजन के लिए निम्न पर ध्यान देना आवश्यक है-
- नियमित रूप से सामग्री प्राप्त करने की प्रक्रिया।
- निर्बाध रूप से उत्पादन प्रवाह के लिए उत्पादन का क्रम एवं सूची तैयार करना।
- मशीनों का संधारण/रख-रखाव।
- किस्म नियंत्रण ताकि उत्पादन उपयोगिता के वांछित स्तर पर हो सके।
- उत्पादन क्षमता का आदर्श उपयोग।
- विक्रय पूर्वानुमान ताकि उत्पादन कार्यक्रम को मदद मिल सके।
- बाजार की आवश्यकता व माँग के अनुरूप परिवर्तन लाना।
प्रश्न 16. समता अंश तथा पूर्वाधिकार अंश में अन्तर्भेद कीजिए।
उत्तर: समता अंश तथा पूर्वाधिकार अंश में मुख्य अन्तर निम्नलिखित है-
प्रश्न 17. पर्यावरण के सूक्ष्म परीक्षण को उद्यमिता का एक महत्वपूर्ण पहलू क्यों माना जाता है ?
उत्तर: पर्यावरण में वे शक्तियाँ शामिल हैं जो व्यवसाय के परिचालन को प्रभावित करती हैं। ऐसी शक्तियाँ मुख्यतः बाहरी हैं और उद्यमी के नियंत्रण से परे हैं। एक व्यावसायिक उपक्रम को मौजूदा वातावरण में प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य करना पड़ता है। इसकी चुनौतियों को समझना एवं उचित मूल्यांकन करना आवश्यक है।
व्यवसाय एवं पर्यावरण के संबंधों के तीन रूप हैं-
- आदान- पर्यावरण संगठन को आवश्यक आदान प्रदान करता है जैसे भूमि, सामग्री मानव संसाधान, मुद्रा, मशीन इत्यादि।
- परिवर्तन- एक दिये गये ढाँचे के अन्तर्गत वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन हेतु संसाधानों का प्रयोग किया जाता है।
- उत्पादन- उत्पादित वस्तुएँ लोगों को बेची जाती हैं। यह पर्यावरण तथा उपक्रम के बीच सम्बन्ध प्रक्रिया का चक्र है।
वातावरणीय या पर्यावरणीय विश्लेषण के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं-
- संसाधनों का प्रभावपूर्ण उपयोग
- बाजार मांग में बदलती प्रवृत्तियों के सम्बन्धा में सूचना
- उभरती समस्याओं का सामना करने के लिए संगठन के आधानिकीकरण, विविधीकरण की आवश्यकता
- अवसरों की लाभप्रद खोज तथा बाधाओं को दूर करने के लिए रणनीति का विकास
- प्रबन्धकीय कुशलता का उन्नत स्तर
- भावी घटनाओं का पूर्वानुमान तथा प्रत्याशित विकास के लिए अग्रिम तैयारियाँ।
अतः सफल उद्यमिता पर्यावरण की सूक्ष्म जाँच सतत आधार पर करना चाहता है। ऐसा होने पर ही व्यावसायिक इकाई जीवित रह सकती है और इसकी सम्वद्धि होती रहेगी।
प्रश्न 18. किसी उपक्रम को स्थापित करने के लिए किन-किन चरणों (कदमों) की आवश्यकता होती है ?
उत्तर: उद्यमी के सामने कई विकल्प होते हैं जो लाभ प्रदान करते हैं। इन सभी विकल्पों का परीक्षण करना होता है ताकि एक ऐसे प्रोजेक्ट का चुनाव किया जा सके जिसमें न्यूनतम लागत, न्यूनतम जोखिम, अधिकतम लाभ, और संवृद्धि के अधिकतम अवसर निहित हो। एक उपक्रम स्थापित करने के लिए कई क्रियाओं का समन्वय करना पड़ता है जिससे हम विभिन्न चरण का नाम दे सकते हैं।
- उद्यमितीय कार्य का चयन।
- पूँजी प्राप्त करना और इसका उचित निवेश।
- वस्तु एवं सेवाओं का उत्पादन एवं वितरण।
- लाभ प्राप्त करना, लाभ अर्जन करना।
- बचत संसाधनों का विस्तार कार्यों में उपयोग करना।
दूसरे शब्दों में किसी उपक्रम की स्थापना के निम्नलिखित चरण होते हैं-
- संभावित अध्ययन के माध्यम से किसी औद्योगिक या व्यावसायिक कार्यों का चुनाव।
- विपणन, श्रम, विद्युत इत्यादि प्राप्त करने के लिए प्रयास करना।
- कोष (वित्त) जुटाना ताकि मशीन उपक्रम आदि खरीदी जा सके।
- उत्पादन के विक्रय हेतु बाजार की तलाश करना।
- लाभ का अर्जन।
प्रश्न 19. उद्यमिता का अर्थ एवं महत्व बतावें।
उत्तर:
1. उद्यमिता का आशय है तीव्र गति से आर्थिक विकास सामाजिक विकास के लिए विकास विभिन्न साधनों की प्रभावपूर्ण गतिशीलता है। यह बेहतर जीवन स्तर प्राप्त करने की प्रक्रिया है।
2. विकास की प्रक्रिया मुख्यतः व्यावासयिक गृहों द्वारा प्रारम्भ किया जाता है जो लाभप्रद विकास का दोहन करता है। उद्यमिता आर्थिक व व्यावसायिक विचारों, अवसरों व प्रस्तावों को व्यावसायिक परियोजना में परिवर्तित करता है। यह ज्ञान को नीति में बदलता है।
3. उद्यमिता नियोजन, संगठन, परिचालन तथा व्यावसायिक उपक्रम के जोखिमों को ग्रहण करने की प्रक्रिया है।
4. उद्यमिता सृजनात्मक एवं नव प्रवर्तनीय विचारों एवं कार्यों को प्रबन्धकीय तथा संगठनात्मक ज्ञानों को एक साथ लाने की प्रक्रिया है। यह चिह्नित आवश्यकता को पूरा करने के लिए उचित लोगों, मुद्रा एवं संचालन संसाधनों को गतिशील बनाने तथा धन के निर्माण के लिए आवश्यक है।
5. उद्यमिता विकास है-
- व्यावसायिक उपक्रम के निर्बाध संचालन के लिए प्रबन्धकीय चतुराई का।
- कार्यकुशलता बनाये रखने के लिए प्रशासकीय ज्ञान का।।
- संगठन को पर्यावरण/वातावरण के साथ सम्बन्धित करने के लिए सृजनात्मक चतुराई/नव प्रवर्तनीय ज्ञान का।
6. उद्यमिता एक सामूहिक प्रयास है जो चतुराई, ज्ञान, क्षमता द्वारा व्यवसाय को प्रारंभ करने एवं इसके संचालन में सहायक होता है।
प्रश्न 20. एक व्यवसाय की स्थायी पूँजी की आवश्यकताओं को कौन-कौन कारक निर्धारित करते हैं?
उत्तर: स्थायी पूँजी की आवश्यकता दीर्घकालीन परिसम्पत्तियों के क्रय के लिए पड़ती है। दीर्घकालीन सम्पत्तियों में भूमि, भवन, मशीन, उपकरण, संयंत्र आदि आते हैं। ये सम्पत्तियां स्थायी प्रकृति की होती हैं और इनका प्रयोग आय अर्जन के लिए किया जाता है।
व्यवसाय की दीर्घकालीन या स्थायी पूँजी की आवश्यकता निम्न घटकों पर निर्भर करती है-
(i) व्यावसायिक परिचालन की प्रकृति- लघु औद्योगिक इकाई को थोड़ी मात्र में स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है। जबकि बड़े पैमाने वाले औद्यौगिक उपक्रमों को बड़े पैमाने पर दीर्घकालीन पूँजी चाहिए।
(ii) उत्पाद के प्रकार- उपभोक्ता वस्तुओं जैसे स्टेशनरी, वाशिग पाउडर इत्यादि के उत्पादन के लिए थोड़ी मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ती है। जबकि विशालकाय वस्तुओं या महँगी वस्तुओं जैसे रेफ्रीजेरेटर, वांशिग मशीन, कार, ट्रक इत्यादि के उत्पादन के लिए बड़ी मात्रा में स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है।
(iii) औद्योगिक कार्य का आकार- एक वृहत स्तरीय उत्पादन इकाई जैसे-सूती वस्त्र उद्योग को विशाल संयंत्र एवं मशीनरी की आवश्यकता होती है जिसपर लघु औद्योगिक इकाई जैसे हैन्डलूम उत्पादों की तुलना में अधिक स्थायी पूँजी चाहिए होती है।
(iv) उत्पादन की प्रक्रिया- यदि व्यवसाय किसी उत्पाद के सभी अंगों का उत्पादन करता है (जैसे-टेलीविजन सेट) तो इसे बड़े पैमाने पर स्थायी पूँजी की आवश्यकता पड़ेगी। परन्तु यदि किसी उत्पाद का एक भाग या कुछ अंगों का उत्पादन किया जाना हो तो अपेक्षाकृत कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी।।
(v) स्थायी पूँजी प्राप्त करने की प्रणाली- स्थायी पूँजी की पूर्ति बिना भुगतान के प्राप्त करने की सुविधा।
(vi) व्यावसायिक उत्तरदायित्व- यदि फर्म वस्तु एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण दोनों में ही संलग्न हो तो ऐसे फर्म को उन फर्मों की तुलना में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जो सिर्फ उत्पादन कार्य में लगी होती है। इसी प्रकार एक ऐसे कार्य में स्थायी पूँजी की कम आवश्यकता होती है जो दूसरे के द्वारा उत्पादित वस्तु को बेचती है।
इस प्रकार व्यवसाय की स्थायी पूँजी की आवश्यकता अलग-अलग इकाइयों को अलगअलग होगी जो व्यवसाय की प्रकृति, आकार प्रणाली, प्रक्रिया और अन्य परिचालनों पर निर्भर करेगी।
प्रश्न 21. पूर्वानुमान के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर: पूर्वानुमान के अलग-अलग प्रकार जैसे-अल्पकाल पूर्वानुमान एवं दीर्घकाल पूर्वानुमान के अनुसार इनके उद्देश्य भी अलग-अलग होते हैं।
अल्पकाल पूर्वानुमान के उद्देश्य (Purposes of Short Term Forecasting):
1. अति एवं अल्य उत्पादन को समाप्त करना (To Avoid over and Under Production)- उत्पाद का अति-उत्पादन अथवा अल्प उत्पादन दोनों ही व्यवसाय के लिए अहितकर होते हैं। अतः इस समस्या से बचने के लिए उत्पादन तालिका का निर्माण वांछनीय समझा जाता है।
2. लागत कम करना (Reducing Cost)- सामग्री क्रय की लागत को कम करना तथा भावी आवश्यकताओं का निर्धारण कर स्कन्ध नियंत्रण करना।
3. मूल्य नीति का निर्धारण (Determination of Price Policy)- समुचित मूल्य नीति का निर्धारण करना ताकि जब बाजार की स्थिति खराब हो वृद्धि की समस्या टाली जा सके तथा जब बाजार की स्थिति ठीक हो कम कीमत की समस्या को दूर करना।
4. बिक्री का लक्ष्य निर्धारित करना (Setting Sales Targets)- बिक्री का लक्ष्य निर्धारित करना भी इसका उद्देश्य है। बिक्री का लक्ष्य संतुलित होना चाहिए। यदि बिक्री का लक्ष्य अत्यधिक निर्धारित होता है और जिसे विक्रेता पूरा नहीं कर पाते हैं तो वे हतोत्साहित होंगे। इसके विपरीत यदि बिक्री का लक्ष्य अत्यधिक कम निर्धारित होता है तो विक्रेता उसे बहुत ही सरलता से प्राप्त कर लेंगे जिससे प्रेरणाएँ अर्थहीन साबित हो जाएँगी।
5. विज्ञापन एवं सम्वर्द्धन (Advertising and Promotion)- उपयुक्त विज्ञापन एवं सम्वर्द्धन योजना तैयार करना अथवा शामिल करना भी पूर्वानुमान का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।
6. अल्पकालीन वित्तीय आवश्यकता (Short-term Financial Requirement)- रोकड़ की आवश्यकता विक्रय स्तर एवं उत्पादन संचालन पर निर्भर करती है। हालाँकि, सरल शर्तों पर कोष की व्यवस्था करने में थोड़ा समय अवश्य लगता है। अत: बिक्री पूर्वानुमान सहज शर्तों पर पूर्व में । ही व्यवस्था करने में सहायक होता है।
दीर्घकालीन पूर्वानुमान के उद्देश्य (Purpose of Long-term Forecasting)- दीर्घकालीन पूर्वानुमान के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
1. नई इकाई का नियोजन एवं विद्यमान इकाई का विस्तार (Planning of a New Unit or Expansion of an Existing Unit)- इसके लिए सम्बन्धित उत्पादन की संभावित दीर्घकालीन माँग स्थिति का ही अध्ययन नहीं कर व्यक्तिगत उत्पादों की माँग का अनुमान करना चाहिए। यदि किसी कम्पनी को उसकी प्रतियोगी कम्पनी की तुलना में अच्छा ज्ञान हो तो कम्पनी की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति सृदृढ़ होगी।
2. दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं का नियोजन (Planning Long Term Financial Requirements)- दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं का नियोजन करने के लिए पूर्व में ही सूचना की उपलब्धता आवश्यक होती है। इसके लिए दीर्घकालीन-विक्रय पूर्वानुमान अति आवश्यक होता है।
3. मानवशक्ति का नियोजन (Planning Manpower Requirements)- प्रशिक्षण एवं सेवावर्गीय विकास की प्रक्रिया दीर्घकालीन प्रक्रिया होती है, जिसको पूरा करने में लम्बी अवधि की आवश्यकता होती है। ये क्रियाएँ पूर्व में ही प्रारम्भ की जा सकती हैं जिसके लिए मानवशक्ति का पूर्वानुमान आवश्यक होगा।
प्रश्न 22. प्रेरणा को परिभाषित करें।
उत्तर: प्रेरणा का अर्थ (Meaning of Motivation)- प्रबन्ध का एक विशिष्ट कार्य है, “अन्य लोगों के प्रयत्नों से कार्य पूरा कराना।” किन्तु कार्य कराना मुख्यतः इस बात पर निर्भर है कि क्या कार्य करने वाले व्यक्ति शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से कार करने को तत्पर है? ‘कार्य करने की क्षमता’ और ‘कार्य कराने की इच्छा’ दोनों अलग-अलग बातें हैं। भले ही कोई व्यक्ति किसी कार्य को करने के लिए दैहिक, मानसिक और तकनीकी क्षमताएँ रखता हो किन्तु नियोक्ता के लिए उस व्यक्ति का तब तक कोई महत्व नहीं, जब तक कि वह अपनी क्षमताओं का उपक्रम की उन्नति के लिए प्रयोग करने को तत्पर न हो अर्थात् मानसिक दृष्टि से कार्य करने के लिए तत्पर न हो।
आप किसी व्यक्ति के समय खरीद सकते हैं, एक दिन हुए स्थान प्रवर उसकी दैहिक उपस्थिति खरीद सकते हैं किन्तु उसके उत्साह, उसकी पहल शक्ति और निष्ठा को नहीं खरीद सकते। उसमें उत्साह अथवा कार्य करने को तत्पर करने हेतु हमें प्रेरित करना पड़ता है। इसे ही हम प्रबन्ध विज्ञान में ‘अभिप्रेरण’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, सहयोग प्राप्त करने की कला को ही अभिप्रेरण कहते हैं। वास्तव में देखा जाए तो कर्मचारियों को अधिकाधिक कार्य करने की प्रेरणा देना तथा कार्य संतुष्टि की उपलब्धि कराना ही अभिप्रेरणा है। अतएव यह ठीक ही कहा गया है कि “प्रेरणा प्रबंध मानवीय पहलू है।” प्रेरणा को रेन्सिस लिकर्ट ने ‘प्रबंध का हृदय’ माना है।
प्रश्न 23. माँग पूर्वानुमान की विधियों का वर्णन करें।
उत्तर: सर्वप्रथम इस बात पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है कि माँग पूर्वानुमान की कोई भी विधि सरल नहीं है और न कोई सरल सूत्र है जिसके माध्यम से ठोस रूप में भविष्य का अनुमान लगा सकें तथा सोचने की कठिन प्रक्रिया से मुक्त हो सकें। पूर्वानुमान की विधियों के सम्बन्ध में दो खतरों से सावधान होना आवश्यक है। पहला खतरा यह कि सांख्यिकीय अथवा गणितीय विधियों पर अत्यधिक बल नहीं दिया जाना चाहिए। हालाँकि सांख्यिकीय विधियाँ सम्बन्धों को स्पष्ट करने हेतु आवश्यक होती हैं। दूसरा खतरा यह है कि हम विपरीत दिशा की ओर अग्रसर हो सकते हैं क्योंकि पूर्वानुमान के सम्बन्ध में तथाकथित विशेषज्ञ द्वारा दिये गये निर्णय में कुछ छूट भी सकता है। माँग पूर्वानुमान के लिए सबसे अधिक प्रयुक्त होने वाली विधियों का विवेचन नीचे किया जा रहा है-
1. सर्वेक्षण विधि (Survey Method)- माँग पूर्वानुमान के लिए सर्वाधिक प्रचलित विधि सर्वेक्षण विधि ही है। यह विधि संभावित ग्राहकों से आँकड़ों के संकलन पर आधारित है। इस विधि के अन्तर्गन यदि ग्राहकों एवं डीलर्स की संख्या कम है तो आँकड़ों का संकलन व्यक्तिगत स्तर पर संभव हो सकता है। किन्तु यदि उनकी संख्या अत्यधिक है तो सभी ग्राहकों से व्यक्तिगत स्तर पर आँकड़ों का संकलन संभव नहीं हो सकता है। वैसी परिस्थिति में प्रतिनिधित्व करने वाले ग्राहकों . से ही आँकड़े संकलित किये जा सकते हैं और तब उक्त आँकड़ों से निकाले गये निष्कर्ष में परिशुद्धता का र तुलनात्मक कम होगा।
2. सांख्यिकीय विधियाँ (Statistical Methods)- माँग पूर्वानुमान के लिए कुछ सांख्यिकीय विधियाँ भी हैं जैसे-काल श्रेणी, प्रतीपगमन, आन्तर-गणन एवं बाह्य गणन आदि। काल श्रेणी विश्लेषण विधि वहाँ प्रयुक्त होती हैं जहाँ भावी प्रवृत्ति जानने के लिए भूतकालीन आँकड़े प्रयुक्त होते हैं। प्रतीपगमन विश्लेषण विधि का प्रयोग तब उपयुक्त समझा जाता है जब सम्बन्धित चरों के बीच निश्चित सम्बन्ध होता है और जो स्थापित आय एवं माँग को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए यदि उपभोक्ता की आय एवं स्थापित माँग के बीच सम्बन्ध जानना हो तो प्रतीपगमन विश्लेषण विधि का प्रयोग किया जायेगा। यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस विधि का कुशलतम प्रयोग के लिए सांख्यिकीय विषय का ज्ञान होना आवश्यक होता है।
3. मार्गदर्शन निदेशक विधि (Leading Indicator Method)- यह विधि इस तथ्य पर आधारित है कि कुछ निदेशक दूसरों से ऊपर अथवा नीचे घूमते रहते हैं। उनकी गति का अध्ययन कर, जो घटना उनका अनुकरण करती है, का अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए वर्षा के द्वारा बादल के जमाव का अनुकरण किया जाता है।
प्रश्न 24. सफल उपक्रम की आवश्यक शर्तों का वर्णन करें।
उत्तर: सफलता को प्राप्त करने के लिए, एक उपक्रम को निम्नलिखित शर्ते पूरी करनी होती हैं-
1. सुपरिभाषित संस्थागत लक्ष्य (Well Defined Organisational Goals)- एक उद्यमी को चाहिए कि वह उद्देश्य को परिभाषित करें जिसे प्राप्त करने हेतु व्यावसायिक उपक्रम की स्थापना की गई है। इन उद्देश्यों में मुख्य उद्देश्य, सहायक उद्देश्य एवं अन्य उद्देश्य शामिल होने चाहिए। इसके अतिरिक्त उत्पाद की प्रकृति, इकाई के आकार को ध्यान में रखते हुए क्रियात्मक क्षेत्र का भी निध रिण होना चाहिए।
2. प्रभावपूर्ण नियोजन (Effective Planning)- नियोजन में निर्णयन शामिल होता है जिसका अर्थ है विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ एवं लाभप्रद विकल्प का चुनाव किया जाना। अतः एक उद्यमी को चाहिए कि वह विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में वांछित नियोजन कर ले। यह प्रक्रिया व्यावसायिक पूर्वानुमान से नियंत्रित होता है। नियोजन में उद्देश्य, नीतियाँ, कार्यक्रम, तालिकाएँ, बजट आदि शामिल किये जाते हैं।
3.प्रभावपूर्ण संगठन प्रणाली (Effective Organisation System)- प्रभावपूर्ण संगठन समूह प्रक्रिया पर आधारित होता है। यह किसी संस्था की संरचना तैयार करता है जिसके अन्तर्गत श्रमिक व प्रबन्धक अपने कार्यों का निष्पादन करते हैं। यह कार्य के संचालन में समन्वय स्थापित करता है तथा व्यावसायिक उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। उद्यमी को चाहिए कि वह एक प्रभावपूर्ण संगठन संरचना विकसित करे जो अधिकार एवं उत्तरदायित्वों को सही ढंग से निरूपित कर सके।
4. वित्तीय संसाधन (Financial Resources)- उद्यमी को चाहिए कि वह एक प्रभावपूर्ण वित्त कार्य का प्रबन्ध विकसित करे जैसे-विनियोग निर्णय, वित्तीय निर्णय एवं लाभांश निर्णय ऐसे होने चाहिए जो संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक हो सकें। इसके लिए आदर्श पूँजी संरचना का होना आवश्यक होता है।
5.संयंत्र आकार, विन्यास एवं स्थान निर्धारण (Plant size, Layout and Location)- आदर्श आकार प्रति इकाई निम्नतम औसत लागत सुनिश्चित करता है। समुचित विन्यास कार्य-क्षमता विकसित करता है तथा संसाधनों के क्षम को नियंत्रित करता है। इस प्रकार, स्थान-निर्धारण संचालन की लागत को कम करता है। ये निर्णय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होते हैं अतः उद्यमी को चाहिए कि वह इन निर्णयों को सावधानीपूर्वक ले क्योंकि ये संस्था की व्यवहार्यता को प्रभावित करते हैं।
6. पेशेवर प्रबन्ध (Professional Management)- यह उपक्रम के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होता है। पेशेवर प्रबन्धक संख्या में सेवारत कर्मचारियों से वांछित परिणाम सुनिश्चित करता है तथा विभिन्न क्रियात्मक क्षेत्रों के बीच समन्वय स्थापित करता है।
7. विपणन (Marketing)- ग्राहकों एवं उपक्रमों के बीच अच्छा सम्बन्ध फर्म के लिए दीर्घकाल में अत्यन्त लाभप्रद साबित होता है। अतः विपणन व्यूह रचना ग्राहक-आधारित होनी चाहिए। उद्यमी को चाहिए कि उत्पाद की किस्म एवं ब्रांड के अनुसार वितरण-मार्ग निर्धारित करे जिससे उत्पाद में ग्राहकों का विश्वास बढ़े।
8. मानव सम्बन्ध (Human Relation)- कर्मचारियों एवं प्रबन्धकों के बीच एक प्रभावपूर्ण द्विपक्षीय संवादवाहन की समुचित प्रणाली होनी चाहिए। कर्मचारियों की प्रतिक्रियाएँ, सुझाव एवं शिकायत आदि को दूर करने के लिए उचित व्यवस्था उचित समय के अन्तर्गत होनी चाहिए। प्रबन्धकों का श्रमिकों के साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए तथा सामाजिक सुरक्षा की भी समुचित व्यवस्था होनी चाहिए।
9.आविष्कार (Innovation)- एक उद्यमी परिवर्तन का प्रतिनिधि होता है। लगातार शोधकार्य, विकास क्रियाओं के आधार पर संस्था में आविष्कार बाजार में पूर्णता की स्थिति सृजित करता है जिससे बिक्री एवं लाभ दोनों बढ़ते हैं।
प्रश्न 25. व्यवसाय नियोजन के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर: सुदृढ़ व्यवसाय नियोजन के अभाव में व्यवसाय दुःस्वप्न है। अत: किसी उपक्रम को प्रारम्भ करने के पूर्व सुदृढ़ नियोजन तैयार कर लेना आवश्यक होता है। व्यवसाय नियोजन निम्नलिखित उद्देश्यों से लाभप्रद होता है-
1. दिशा-निर्देश देना (Provide Guidelines)- व्यवसाय नियोजन सड़क-मानचित्र की तरह होता है। व्यवसाय का लक्ष्य क्या है, यह लक्ष्य कैसे प्राप्त किया जायेगा तथा निर्धारित लक्ष्य की ओर व्यवसाय कैसे आगे बढ़ेगा के सम्बन्ध में नियोजन निर्देशन देता है। इतना ही नहीं उद्यमी इसके आधार पर यह जान सकता है कि व्यवसाय सही दिशा में जा रहा है या नहीं।
2. डॅन स्टेनहॉफ एवं जॉन० एफ० बेरगिज के अनुसार, “बिना सोचे-समझे निर्धारित लक्ष्य एवं संचालन विधियों की स्थिति में अधिकांश व्यवसाय बुरे दिनों में चट्टानों से ढंक जाते हैं।”
3. निवेशकर्ताओं को आकर्षित करना (Attract Investor)- समुचित ढंग से तैयार किया. गया नियोजन भावी निवेशकों, ऋणदाताओं, आपूर्तिकर्ताओं, ग्राहकों एवं योग्य कर्मचारियों को उपक्रम की ओर आकर्षिक करता है। वैसे उपक्रमों में कोई भी व्यक्ति अपना धन विनियोग नहीं करना चाहता जहाँ उचित प्रत्याय दर एवं शीघ्र ऋण वापसी की संभावना नहीं हो। व्यवसाय के सम्बन्ध में अनुकूल सूचना के अभाव में न तो कोई निवेशकर्ता आकर्षित होगा और न कोई दक्ष एवं कार्यकुशल कर्मचारी।
4. उत्तोलन (शक्ति) प्रदान करना (Provide Leverage)- नियोजन उपक्रम को आवश्यकता की घड़ी में बैंकों से ऋण लेने की शक्ति प्रदान करता है जिससे कार्यशील पूँजी की आवश्यकता की पूर्ति की जा सके। प्रत्येक व्यवसाय को देर-सबेर कार्यशील पूँजी की समस्या झेलनी पड़ती है। व्यवसाय के दैनिक संचालन हेतु आवश्यक पूँजी को कार्यशील पूँजी कहते हैं।
5. मनोवैज्ञानिक प्रभाव (Psychological Impact)- साझेदार एक साथ काम करते हैं ताकि वे व्यवसायं नियोजन तैयार कर सकें, संशोधित कर सकें एवं उसमें परिवर्तन ला सकें। नियोजन उन्हें योजना को वास्तविकता में बदलने के लिए वचनबद्ध करता है। इससे साझेदारों के बीच मिल-जुलकर काम करने की भावना जागृत होती है। संयुक्त नियोजन के परिणामस्वरूप व्यवसाय संचालन का सिरदर्द घटना है। यह सामान्य मनोवैज्ञानिक तथ्य है।
6. व्यूह-रचना का पुनर्मूल्यांकन (Re-evaluation of the Strategy)- व्यवसाय नियोजन का निर्माण उद्यमी को समय-समय पर व्यूह-रचना का मूल्यांकन अथवा पुनर्मूल्यांकन करने के लिए बाध्य करता है। उद्यमी को इस जटिल प्रश्न का उत्तर देना होगा-वास्तव में, हम लोग किस व्यवसाय में हैं ? चूँकि व्यवसाय की परिस्थितियाँ बदलती रहती हैं अतः उद्यमी को समय-समय पर प्रश्न करना चाहिए एवं उत्तर भी देना चाहिए। ये उत्तर व्यवसाय के सफल संचालन में सहायक सिद्ध होते हैं।
ए० स्टेनियर के शब्दों में, “उद्यमी अपने व्यवसाय का भविष्य सृजित/निर्माण करते हैं तथा असफलता की संभावना को निम्नतम करते हैं।”
प्रश्न 26. उत्पाद चुनाव को प्रभावित करने वाले तत्त्वों का उल्लेख करें।
उत्तर: उत्पाद का चुनाव करते समय एक उद्यमी को निम्नलिखित तत्त्वों को ध्यान में रखना चाहिए-
1. तकनीकी ज्ञान (Technical Knowledge)- उद्यमी में तकनीकी ज्ञान उत्पाद के चुनाव में किसी विशेष तकनीकी क्षेत्र में सहायक होता है। इसी प्रकार, यदि उद्यमी उत्पादन एवं विपणन के क्षेत्र में पर्याप्त अनुभव रखता है तो यह भी उत्पाद-चुनाव में उसे सहायक होगा।
2. बाजार की उपलब्धता (Availability of Market)- बाजार की उपलब्धता भी उत्पाद चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। एक वृहत बाजार उत्पाद की अधिक माँग सृजित करता है, साथ ही जोखिम की मात्रा को भी कम करता है। उद्यमी को बाजार की सही जानकारी होनी चाहिए जैसे–कैसे एवं कहाँ बिक्री होगी। हालाँकि, छोटी इकाइयों के लिए क्षेत्रीय बाजार उपयुक्त होते हैं। किन्तु बाद में बाजार के विस्तारीकरण की आवश्यकता होती है।
3. वित्तीय सृदृढ़ता (Financial Strength)- किसी उत्पाद की उत्पादन प्रक्रिया में बड़ी मात्रा में पूँजी की आवश्यकता होती है, जैसे-आदि प्रारूप विकास (Prototype Development), शोध एवं विकास, कार्यशील पूँजी तथा अधिकार शुल्क आदि के भुगतान पर व्यय। उद्यमी को, यह तय कर लेना चाहिए कि वह किस हद तक इन व्ययों का वहन कर सकेगा तथा इसमें तरलता कायम रख सकेगा।
4. प्रतिस्पर्धा की स्थिति (Position of Competition)- उत्पाद-चुनाव बाजार में विद्यमान प्रतिस्पर्धा की स्थिति पर भी निर्भर करता है। प्रतियोगियों के उत्पादन की बाजार में व्याप्त स्थिति भी उत्पाद-चुनाव को प्रभावित करती है।
5. उत्पाद की प्राथमिकता (Priority of Products)- कुछ खास परिस्थितियों में उत्पाद प्राथमिक क्षेत्र उद्योगों के अन्तर्गत आते हैं और कुछ लघु पैमाने क्षेत्र में। इन क्षेत्रों में प्रतिस्पर्धा की स्थिति सामान्य उत्पादों के बाजार की तुलना में कम होती है। इसी प्रकार, कुछ उत्पाद ऐसे होते हैं जिनका क्रय सरकार द्वारा निर्धारित लघु-पैमाने क्षेत्रों से ही किया जा सकता है। इस प्रकार, जो उत्पाद इन श्रेणियों के अन्तर्गत आते हैं उनका चुनाव किया जाना अधिक उपयुक्त एवं जोखिम मुक्त होता है।
6. मौसमी स्थायित्व (Seasonal Stability)- ऐसे उत्पाद जिनकी माँग पूरे वर्ष होती रहती है उनका बाजार वैसे उत्पाद की तुलना में स्थिर होता है जिनकी माँग मौसमी (सामयिक) होती है। एक उत्पाद की मौसमी आलोचनीयता उत्पाद के चुनाव पर अनुकूल प्रभाव डालती है। साथ ही साथ उत्पाद की बिक्री असामान्य उतार-चढ़ाव से प्रभावित नहीं होनी चाहिए। एक उद्यमी को वैसे उत्पादों का चुनाव करना चाहिए जिनकी बाजार में निरन्तर माँग हो।
7.आयात पर प्रतिबन्ध (Restriction on Imports)- आयात पर प्रतिबन्ध का लगाया जाना उद्यमियों के हित में होता है। दूसरे शब्दों में उद्यमियों को वैसे उत्पादों का चुनाव करना चाहिए जिनकी वैकल्पिक वस्तुओं पर आयात प्रतिबन्ध हो।
8. कच्ची सामग्री की आपूर्ति (Supply of Raw Materials)- किसी उत्पाद के निरन्तर उत्पादन के लिए पर्याप्त सामग्री की आपूर्ति आवश्यक होती है। अतः किसी उत्पाद का चुनाव करते समय उद्यमी को अश्वस्त हो लेना चाहिए कि सामग्री की पर्याप्त आपूर्ति वर्ष भर होती रहेगी। यदि पूरे वर्ष सामग्री की आपूर्ति नहीं होगी तो उद्यमी को उत्पादन के निरन्तर संचालन के लिए अधिक मात्रा में सामग्री का स्थायी स्टॉक बनाये रखना होगा, परिणामतः कोष की भी अधिक आवश्यकता होगी साथ ही कोष भी अवरोधित रहेगा।
9. प्रेरण एवं आर्थिक सहायता की उपलब्धता (Availability of Incentive and Subsidy)- सामान्यतया सरकार आयात-विकल्प एवं अति आवश्यक वस्तुओं के सम्बन्ध में उत्पादक को कुछ विशेष प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती हैं जैसे-प्रेरणाएँ, रियायत, कर-मुक्ति, कर में छूट आदि। स्वाभाविकतः उद्यमी इस प्रकार के उत्पाद का चुनाव करेगा क्योंकि ऐसे उत्पादों के सम्बन्ध में माँग एवं लाभ की निश्चितता होगी, साथ ही जोखिम की मात्रा भी कम होगी ।
10. सहायक उत्पाद (Ancillary Products)- यदि उत्पाद मूल उद्योग (Parent Industry) के लिए महत्त्वपूर्ण अवयव के रूप में है तो ऐसे उत्पाद की माँग सुनिश्चित होगी और उद्यमी ऐसे उत्पादों का नि:संकोच चुनाव करेंगे।
11. स्थान सम्बन्धी लाभ (Locational Advantages)- कुछ ऐसे उत्पाद होते हैं जिनका उत्पादन क्षेत्र विशेष में ही किया जाता है जैसे-स्वतंत्र व्यापार क्षेत्र, निर्यात संवर्द्धन क्षेत्र, विशेष निर्यात संवर्द्धन क्षेत्र आदि। इन क्षेत्रों में सरकार द्वारा उद्यमियों को विशेष प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं जैसे-कर रियायत, आर्थिक सहायता आदि। अतः उत्पादन के उद्देश्य से इन उत्पादों का चुनाव उद्यमियों के लिए लाभप्रद होगा। बगल के क्षेत्रों में बड़े उपभोक्ता बाजार का होना भी उत्पाद के चुनाव पर अनुकूल प्रभाव डालता है।
12.अनुज्ञा प्रणाली (Licensing System)- औद्योगिक नीति के अनुसार, सरकार समय-समय पर अनुज्ञा नीति निर्धारित करती है। कुछ खास उत्पादों के सम्बन्ध में उद्यमी को सरकार से अनुज्ञा पत्र लेना आवश्यक होता है। यदि अनुज्ञा प्रणाली किसी खास उत्पाद के सम्बन्ध में अधिक कठोर है तो ऐसे उत्पादों का चुनाव करना उद्यमियों के लिए एक जटिल कार्य होगा। अर्थात्, अनुज्ञा प्रणाली भी उत्पाद के चुनाव को प्रभावित करती है।
13. सरकारी नीति (Government Policy)- किसी उत्पाद का चुनाव करते समय सरकारी नीति का विश्लेषण आवश्यक होता है। यदि उत्पाद के सम्बन्ध में सरकारी नीति अनुकूल है तो उद्यमी को वैसे उत्पादों का चुनाव करना चाहिए। यदि कोई उत्पाद समाज के हित में नहीं है तो वैसी स्थिति में उद्यमी को सरकारी नीति का लाभ नहीं मिल सकेगा।
उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि एक उद्यमी को किसी उत्पाद का चुनाव करते समय उपरोक्त बातों को ध्यान में अवश्य रखना चाहिए। यदि गलत उत्पाद का चुनाव कर लिया जाता है तो यह उद्यमी के लिए भविष्य में सबसे बड़ा सिरदर्द का कारण बन जायेगा। अत: उत्पाद का चुनाव करते समय उसे काफी सावधानी बरतनी चाहिए।
प्रश्न 27. स्थिर पूँजी के स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर: स्थिर पूँजी के विभिन्न स्रोत निम्नलिखित हैं-
1. समता अंश (Equity Shares)- समता अंशधारी व्यवसाय के मालिक होते हैं तथा उनके लगायी जाती है तथा आवश्यक शेष पूँजी बाजार में अंशों के निर्गमन से प्राप्त की जाती है। समता अंशधारी ही व्यवसाय के जोखिम का वहन करते हैं। कम्पनी की वित्तीय संरचना समता अंश पूँजी से ही सशक्त होती है समता अंशधारियों के दायित्व सीमित होते हैं तथा उन्हें वोट देने का भी अधिकार होता है। वे अधिकार में बोनस अंशों का निर्गमन कर कम्पनी पर नियंत्रण कायम रख सकते हैं। समता पूँजी स्थिर पूँजी होती है तथा कम्पनी के समापन के पूर्व इनका भुगतान नहीं करना होता है। इनके लाभांश का भुगतान भी अनिवार्य (Obligatory) नहीं होता है।
2. पूर्वाधिकार अंश (Preference Shares)- पूर्वाधिकार अंश वे अंश होते हैं जिनका पूँजी की वापसी एवं लाभांश पर पूर्वाधिकार होता है। वैसे निवेशक जो अपने विनियोग पर सीमित प्रत्याय की चाहत रखते हैं वे पूर्वाधिकार अंश क्रय करते हैं। पूर्वाधिकार अंश पूँजी में समता अंश पूँजी एवं ऋणगत पूँजी की विशेषताओं का मिश्रण होता है। पूर्वाधिकार अंशधारी समता अंशधारियों की ही तरह लाभांश प्राप्त करते हैं। इसी प्रकार वे ऋणदाता की तरह होते हैं क्योंकि उनके लाभांश की राशि पूर्व निर्धारित होती है।
समता अंशधारियों का लाभांश पूर्व निर्धारित होता है पूर्वाधिकार अंश संस्था के लिए स्थायी दायित्व नहीं होता क्योंकि लाभांश का भुगतान उन्हें तभी किया जाता है जब संस्था में लाभ होता है। एक कम्पनी अपनी पूँजी संरचना में लोचनीयता लाने के लिए शोधनीय पूर्वाधिकार अंशों का निर्गमन कर सकती है जिनका शोधन लाभ होने की स्थिति में किया जा सकता है। इस प्रकार के अंश भारत में अधिक प्रचलित नहीं हैं किन्तु संचयी परिवर्तनशील पूर्वाधिकार अंशों का निर्गमन कर इसका प्रचलन बढ़ाया जा सकता है।
3.ऋण पत्र(Debentures)- ऋण पत्र जनता में दीर्घकालीन ऋण प्राप्त करने का अन्य विकल्प है। ऋण पत्र सामान्यतः पूर्णतया सुरक्षित एवं एक स्थिर ब्याज दर से आय प्राप्त करने वाले होते हैं। ये कम जोखिम के होते हैं तथा ऋण पत्रधारियों को सतत् प्रत्याय देते हैं। ऋण पत्र निर्गत होने से अंशधारी कम्पनी पर नियंत्रण कायम रख सकते हैं तथा अधिक धन अर्जित कर सकते हैं। ऋण पत्र बुरे दिनों में कम्पनी पर वित्तीय बोझ बढ़ा देते हैं साथ ही दिवालिया घोषित होने की भी संभावना बढ़ाते हैं। विगत वर्षों में विभिन्न भारतीय कम्पनियों ने परिवर्तनशील ऋण पत्र एवं आशिक परिवर्तनशील ऋण पत्र निर्गमित किए हैं ताकि उन्हें समता अंशों में परिवर्तित किया जा सके।
4. मियाद ऋण (Term Loan)- ये वैसे ऋण होते हैं जो बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त किये जाते हैं तथा वित्त के मुख्य स्रोत होते हैं। मियाद ऋण सामान्यतया 10 वर्ष या अधिक वर्षों की अवधि के होते हैं तथा उन पर ब्याज दर निश्चित होती है। ऋणदाता संस्थाएँ पार्श्व मुद्रा पर अधिक बल देती हैं जो कि प्रवर्तकों से प्राप्त किया जाता है तथा शेष भुगतान को गर्भावधि (Gestation Period) तक लंबित करने की स्वीकृति देती हैं। मियाद ऋण स्थिर एवं कार्यशील पूँजी की आवश्यकता की पूर्ति हेतु लिए जाते हैं। दीर्घकालीन ऋण समता पर व्यापार में सहायक होते हैं तथा अंशधारियों के हाथ में नियंत्रण रहने की स्थिति सृजित करते हैं।
5. रोकी गयी आय (Retained Earnings)- आय (लाभ) का वह भाग जो अंशधारियों के बीच नहीं बाँटा जाता है और व्यवसाय में अवितरित रूप में रखा जाता है, उसे रोकी गयी आय कहते हैं। इस राशि का व्यवसाय के विस्तार में प्रयोग किया जा सकता है। वस्तुतः इस प्रकार की पूँजी की लागत शून्य होती है साथ ही किसी दायित्व का सृजन भी नहीं होता है।
6. पूँजी सहायता (Capital Subsidy)- पिछड़े इलाकों में उद्यमियों को प्रोत्साहित करने के लिए केन्द्रीय सरकार पूँजी सहायता की व्यवस्था करती है। इसी प्रकार कुछ राज्य सरकारें भी निर्देशित क्षेत्रों में उद्योग स्थापित करने के लिए विकास ऋण की व्यवस्था करती हैं।
प्रश्न 28. कार्यशील पूँजी से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न प्रकार का वर्णन करें।
उत्तर: नित्य-प्रतिदिन की व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जिस पूँजी की आवश्यकता होती है, उसे कार्यशील पूँजी कहते हैं।
शुबिन के अनुसार, “कार्यशील पूँजी वह राशि है जो उपक्रम को संचालित करने के लिए आवश्यक होती है।”
सकल कार्यशील पूँजी चालू सम्पत्तिायों में कुल विनियोग को प्रदर्शित करती है जिसे लेखांकन वर्ष के अन्तर्गत रोकड़ में परिवर्तित किया जा सकता है। इसी प्रकार, चालू दायित्वों के ऊपर चालू सम्पत्तियों के आधिक्य को कार्यशील पूँजी कहते हैं। चालू सम्पत्तियों के अन्तर्गत हाथ में रोकड़, बैंक में रोकड़, देनदार, प्राप्य बिल, स्टॉक, अल्पकालीन अग्रिम की राशि, पूर्ववत् व्यय इत्यादि आते हैं। दूसरी ओर चालू दायित्व के अन्तर्गत-लेनदार, देय बिल, अदत्त व्यय, बैंक अधिविकर्ष, अल्पकालीन ऋण, देय लाभांश, आयकर के लिए प्रावधान आदि शामिल किये जाते हैं।
कार्यशील पूँजी की पर्याप्त राशि उपक्रम की तरलता के लिए आवश्यक होती है। साथ ही यह व्यवसाय के सफल संचालन के लिए आवश्यक होती है। यहाँ तरलता का अभिप्राय यह है कि संस्था के पास इतनी तरल सम्पत्ति होनी चाहिए जिससे चालू दायित्वों का समय पर भुगतान हो सके। यह व्यवसाय के ख्याति निर्माण में सहायक होती है। कार्यशील पूँजी की पर्याप्तता संस्था के. सतत् संचालन एवं स्थापित क्षमता के प्रयोग को सफल बनाती है। अपर्याप्त कार्यशील पूँजी होने पर संस्था के संचालन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
कार्यशील पूँजी के प्रकार
(Types of Working Capital)
कार्यशील पूँजी विभाजित की जा सकती है-
1. स्थायी कार्यशीलता पूँजी (Permanent Working Capital)- स्थायी कार्यशील पूँजी विनियोग की वह निम्नतम राशि है जिसकी आवश्यकता व्यवसाय में स्थायी सुविधाओं के प्रयोग हेतु एवं चालू सम्पत्तियों के संचार हेतु होती है। इस पूँजी को ही स्थायी कार्यशील पूँजी कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है-
(i) नियमित कार्यशील पूँजी (Regular Working Capital)- नियमित कार्यशील पूँजी आवश्यक कार्यशील पूँजी की वह निम्नतम राशि है जो चालू सम्पत्ति जैसे-रोकड़ से स्टॉक, स्टॉक से प्राप्य एवं प्राप्य से रोकड़ एवं इसी प्रकार संचार के लिए आवश्यक होती है।
(ii) संचित कार्यशील पूँजी (Reserve Working Capital)- संचित कार्यशील पूँजी आवश्यक कार्यशील पूँजी पर आधिक्य है जिसका प्रयोग भावी संभाव्यों जैसे-कीमत में वृद्धि, मंदी आदि के लिए किया जा सकता है।
2. परिवर्तनशील कार्यशील पूँजी (Variable Working Capital)- परिवर्तनशील कार्यशील पूँजी वह है जो विभिन्न समयों पर अतिरिक्त सम्पत्तियों के लिए आवश्यक होती है। परिवर्तनशील कार्यशील पूँजी की आवश्यकता अल्पकाल में होती है। यह व्यवसाय में स्थायी रूप से प्रयुक्त नहीं हो सकती है। यह दो प्रकार की होती है-
- मौसमी कार्यशील पूँजी (Seasonal Working Capital)- मौसमी कार्यशील पूँजी वह है जो मौसमी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयुक्त होती है।
- विशिष्ट कार्यशील पूँजी (Special Working Capital)- विशिष्ट कार्यशील पूँजी वह है जो विशिष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्रयुक्त होती है।