bihar board 12 political | एक दल के प्रभुत्व का दौर
bihar board 12 political | एक दल के प्रभुत्व का दौर
(ERA OF ONE-PARTY DOMINANCE)
याद रखने योग्य बातें
• चुनौती : स्वतंत्र भारत के समक्ष लोकतंत्र स्थापित करने की एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक
चुनौती थी।
• भारतीय स्वतंत्रता का काल : प्रमुख रूप से लगभग 1857 से 14 अगस्त 1947 तक।
• सुकुमार सेन : प्रथम चुनाव आयुक्त (कमिश्नर)।
• प्रथम चुनाव के समय दूसरे नम्बर की राजनैतिक पार्टी : भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी।
• दो अन्य राजनैतिक दलों का नाम और कार्यकाल : केरल डेमोक्रेटिक लेफ्ट फ्रंट
(1957-1959) और जम्मू और कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस (आज तक)।
• राजकुमारी अमृत कौर (जीवन कालांश) : कपूरथला (पंजाब) राज परिवार से
संबंधित 1889-1964
• केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की जीत : 126 में से 60 सीटें प्राप्त की। कुछ स्वतंत्र
उम्मीदवारों के साथ ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद मुख्यमंत्री के नेतृत्व में सरकार का गठन।
• केन्द्र की कांग्रेस सरकार द्वारा संविधान के 356 अनुच्छेद का तथाकथित प्रथम
दुरुपयोग : 1959 में केरल की वैधानिक चुनी गई कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त करके।
• त्रिवेन्द्रम : केरल की राजधानी।
• कांग्रेस पार्टी का पहला चुनाव चिह्न : दो बैलों की जोड़ी।
• दक्षिण अफ्रीका की सर्वाधिक ख्याति प्राप्त राजनैतिक पार्टी : अफ्रीकन नेशनल
कांग्रेस।
• बोल्शेविक क्रांति : अक्टूबर 1917 रूस साम्यवादी क्रांति में हुई।
• सिंहासन फिल्म : मराठी फिल्म जो महान लेखक अरुण साधू के दो प्रसिद्ध उपन्यास
सिंहासन और मुंबई पर आधारित हैं जिसका निर्देशन जब्बार पटेल ने किया।
• भारतीय जनसंघ का गठन और प्रमुख नेता : 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी
संस्थापक अध्यक्ष थे। दीनदयाल उपाध्याय, प्रो. बलराज मधोक एवं अटल बिहारी
वाजपेयी इसके प्रसिद्ध नेता रहे।
• श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जीवन काल : 1901-1953
एन०सी०ई०आर०टी० पाठ्यपुस्तक एवं अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न एवं उनके उत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. सही विकल्प को चुनकर खाली जगह को भरें-
(क) 1952 के पहले आम चुनाव में लोकसभा के साथ-साथ ………के लिए भी चुनाव
कराए गए थे। (भारत के राष्ट्रपति पद/राज्य विधानसभा/राज्य सभा/प्रधानमंत्री)
(ख) ….……लोकसभा के पहले आमचुनाव में 16 सीटे जीतकर दूसरे स्थान पर रही।
(प्रजा सोशलिस्ट पार्टी/भारतीय जनसंघ/भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/
भारतीय जनता पार्टी)
(ग)……….स्वतंत्र पार्टी का एक विशेष सिद्धांत था।
(कामगार तबके का हित/सियासतों का बचाव/राज्य के नियंत्रण से मुक्त अर्थव्यवस्था/संघ के भीतर राज्यों की स्वायतत्ता)
उत्तर-(क) राज्य-विधानसभा। (ख) भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी।
(ग) राज्य के नियंत्रण से मुक्त अर्थव्यवस्था।
2. 1952 के चुनाव में कुल मतदाताओं में केवल साक्षर मतदाताओं का प्रतिशत था-
(क) 35 प्रतिशत
(ख) 25 प्रतिशत
(ग) 15 प्रतिशत
(घ) 75 प्रतिशत उत्तर-(ग)
3. ए० के० गोपालन (1904-1977) जिस राज्य के प्रमुख कम्युनिस्ट नेता थे, वह था-
(क) केरल
(ख) बंगाल
(ग) त्रिपुरा
(घ) पंजाब उत्तर -(क)
4. सिंहासन मूलत: जिस भाषा में फिल्म बनाई गई थी, वह थी-
(क) हिन्दी
(ख) मराठी
(ग) पंजाबी
(घ) तमिल उत्तर-(ख)
5. देश का कौन राजनीतिक दल लोकसभा के प्रथम आम चुनाव में 16 सीटें जीतकर
दूसरे स्थान पर रहा है? [B.M. 2009A]
(क) भारतीय जनसंघ
(ख) सी-पी. आई.
(ग) स्वतंत्र पार्टी
(घ) गणतंत्र परिषद उत्तर-(ख)
6. शिव सेना किस प्रांत में सक्रिय है? [B.M.2009A]
(क) महाराष्ट्र
(ख) गुजरात
(ग) पंजाब
(घ) हरियाणा उत्तर-(क)
7. संविधान की प्रस्तावना में बन्धुता का आदर्श क्यों रखा गया? [B.M. 2009A]
(क) सामाजिक विकास हेतु
(ख) सामाजिक न्याय हेतु
(ग) स्वतंत्रता हेतु
(घ) राष्ट्रीय एकता हेतु उत्तर-(घ)
8. संविधान में भारत के किस राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त है? IB.M. 2009A
(क) जम्मू-कश्मीर
(ख) सिक्किम
(ग) नागालैंड
(घ) अरुणाचल प्रदेश उत्तर-(क)
9. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब हुई? [B.M.2009A]
(क) 1885
(ख) 1905
(ग) 1916
(घ) 1947 उत्तर-(क)
10. भारत में एकदलीय प्रभुत्व का दौर किस दल के नेतृत्व में चला? [B.M. 2009A]
(क) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
(ख) भारतीय जनसंघ
(ग) जनता पार्टी
(घ) समाजवादी पार्टी उत्तर-(क)
11. कांग्रेस के एकदलीय प्रभुत्व कायम करने में निम्न में किस बात का योगदान नहीं
था? [B.M. 2009A]
(क) ऐतिहासिक विरासत
(ख) राजनीतिक विकल्प का अभाव
(ग) नायक पूजा के प्रति झुकाव
(घ) कानूनी प्रावधान उत्तर-(घ)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान निर्माण से पूर्व हिंदुस्तान की राजनीति किस
महत्त्वपूर्ण दुराई की और संकेत किया गया?
उत्तर -संविधान सभा में ठीक संविधान तैयार होने से पूर्व एक दिन पूर्व अर्थात् 25 नवम्बर
1949 को नायक-पूजा (Hero worship) की ओर संकेत दिया गया। इससे संबंधित कथन प्रस्तुत है―
“हिंदुस्तान की राजनीति में नायक- पूजा जितनी बड़ी भूमिका अदा करती है, उसकी तुलना
दुनिया के किसी भी देश की राजनीति में मौजूद नायक- पूजा के भाव से नहीं की जा सकती है,लेकिन राजनीति में मौजूद नायक-पूजा का भाव सीधे पतन की ओर ले जाता है और यह रास्ता
तानाशाही की तरफ जाता है …
2. कांग्रेस पार्टी के सन् 1992 के वर्ष में प्रमुख प्रभावशाली लगभग 12 नेताओं के
नाम लिखिए।
उत्तर-(i) जवाहरलाल नेहरू, (ii) मोरारजी देसाई, (iii) रफी अहमद किदवई, (iv) डॉ.
वी. सी. रॉय, (v) कामराज नाडार, (vi) राजगोपालाचारी, (vii) जगजीवनराम, (viii) मौलाना
आजाद, (ix) डी पी. मिश्रा, (x) पी डी टंडन, (xi) बल्लभ पंत, (xii) सरोजिनी नायडू, (xiii)
श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित।
3. मौलाना अबुल कलाम पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-मौलाना अबुल कलाम का पूरा नाम अबुल कलाम मोहिमुद्दीन अहमद था। वह इस्लाम
के विद्वान थे। वह स्वतंत्रता सेनानी और कांग्रेस के नेता थे। वह हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतिपादक और विभाजन के विरोधी थे। वह संविधान सभा के सदस्य तथा स्वतंत्र भारत में बने पहले मंत्रिमंडल में शिक्षामंत्री बने।
4. राजकुमारी अमृत कौर पर एक अति संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-वह एक गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी थी। उनका संबंध कपूरथला (पंजाब) के
राजपरिवार से था। विरासत में उन्हें अपनी माता से ईसाई धर्म प्राप्त हुआ। उन्हें संविधान-सभा की सदस्य बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वह स्वतंत्र भारत के पहले मंत्रिमंडल में स्वास्थ्य मंत्री बनी। 1964 में उनका निधन हो गया।
5. आचार्य नरेन्द्र देव कौन थे? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-आचार्य नरेन्द्र देव का जन्म 1889 में हुआ। वह देश स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्होंने
सोशलिस्ट कांग्रेस की स्थापना की। स्वराज्य के लिए संघर्ष के आंदोलन के दौरान वह अनेक बार
जेल गए वह वामपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। उन्होंने देश में किसान आंदोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। वह बौद्ध धर्म के ज्ञाता और विद्वान थे। देश की आजादी मिलने के बाद पहले तो उन्होंने सोशलिस्ट पार्टी और कालांतर में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी को नेतृत्व प्रदान किया। 1956 में उन्होंने अपना दिवंगत शरीर छोड़ दिया।
6. बाबा साहब भीमराव रामजी अंबेडकर कौन थे? एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा,
बी० आर० अम्बेदकर के जीवन-चरित्र संक्षेप में लिखें। [Board Exam.2009]
उत्तर -डॉ. भीमराव का जन्म 1891 में एक दलित परिवार में हुआ था। उन्होंने देश में
जाति विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। वह दलितों को न्याय दिलाने के संघर्ष के अगुआ रहे।
वह विद्वान और बुद्धिजीवी थे। वह इंडिपेंडेट लेबर पार्टी के संस्थापक थे। कालांतर में उन्होंने
अनुसूचित जाति परिसंघ (Scheduled Castes Federation) की स्थापना की थी।
बाबा साहब भीमराव रामजी अंबेडकर रिपब्लिकन पार्टी के गठन के योजनाकार थे। दूसरे
विश्वयुद्ध के दौरान (1935-1945) ब्रिटिश भारत के तत्कालीन वायसराय की काउंसिल में सदस्य रहे। वह देश के लिए निर्माण करने वाली संविधान-सभा की प्रारूप समिति (Draft Committee) के अध्यक्ष थे।
स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरू के प्रथम मंत्रिमंडल में मंत्री रहे थे। उन्होंने 1951 में हिंदू
कांड बिल के मुद्दे पर अपनी असहमति दर्ज कराते हुए मंत्रीपद से 1951 में त्यागपत्र दे दिया।
अपने जीवन के अंतिम वर्ष अर्थात् 1956 में अपने हजारों अनुयायियों के साथ उन्होंने बौद्धधर्म
स्वीकार कर लिया।
7. रफी अहमद किदवई का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर – रफी अहमद किदवई का जन्म 1984 में हुआ था। वे उत्तर प्रदेश से कांग्रेस के प्रसिद्ध
नेताओं में से थे। आजादी से पहले बनने वाली प्रथम प्रांतीय सरकार में 1937 में मंत्री नियुक्त हुए। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1946 में उन्हें पुन: मंत्री बनाया गया। आजादी के बाद स्वतंत्र
भारत के पहले मंत्रिमंडल में संचार मंत्री नियुक्त हुए। वे देश के स्वास्थ्य एवं कृषि मंत्री 1952 से
1954 तक रहे। 1954 में उनका निधन हो गया।
8. श्यामा प्रसाद मुखर्जी पर एक अति लघु टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-श्यामा प्रसाद मुखर्जी का जन्म 1951 में हुआ। वह महान देशभक्त, स्वत सेनानी
और हिंदू महासभा के प्रसिद्ध नेता थे। स्वतंत्रता के बाद जवाहरलाल नेहरू के पहले मंत्रिमंडल में
उन्हें मंत्री नियुक्त किया गया। वह सविधान-सभा के सदस्य रह चुके थे। उन्होंने भारतीय जनसंघ
को स्थापना की। नेहरूजी तथा पाकिस्तान के साथ संबंधों में मतभेदों के कारण 1950 में मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। वह लोकसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। वह कश्मीर को स्वायत्तता देने के विरुद्ध थे। कश्मीर नीति पर भारतीय जनसंघ के प्रदर्शन के दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 1953 में पुलिस हिरासत में ही उनकी मृत्यु हो गई।
9. दीनदयाल उपाध्याय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर–दीन दयाल उपाध्याय का जन्म 1916 में हुआ। उन्होंने आजादी में पहले ही देश की
राजनीति में भाग लेना शुरू कर दिया। 1942 से राष्ट्रीय स्वयं सेवा संघ (RSS) के पूर्णकालिक
कार्यकर्ता थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ-साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में से थे। वह
पहले तो भारतीय जनसंघ पार्टी के महासचिव और बाद में अध्यक्ष बने। वह कुशल विचारक
नीतिकार तथा महान संगठनकर्ता थे। उन्हें समग्र मानवता के सिद्धांत के प्रणेता के रूप में याद
किया जाता है। 1968 में उनका देहांत हो गया।
10. सी. राजगोपालाचारी का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-सी. राजगोपालाचारी का जन्म 1878 में हुआ। वे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और
साहित्यकार थे। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के वह प्रिय करीबी कार्यकर्ता थे। वह देश के लिए निर्माण करने वाली संविधान सभा के सदस्य रहे। 1948 से 1950 तक उन्हें स्वतंत्र भारत के प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल बनने का सौभाग्य मिला। देश की स्वतंत्रता के बाद देश की आतरिक सरकार में वह मंत्री नियुक्त हुए कालांतर में वह मद्रास के मुख्यमंत्री बने। वह भारत रत्न से सम्मानित पहले भारतीय थे। उन्होंने 1959 में स्वतंत्र पार्टी का गठन किया और 1972 में उनका स्वर्गवास हो गया।
11. पामर नामक राजनीतिज्ञ ने कांग्रेस पार्टी को छाता संगठन (Umbrella
Organisation) की संज्ञा से क्यों सम्बोधित किया?
उत्तर-दिसम्बर, 1885 में जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई। समस्त भाग्नः ।
समाज ने क्षण भर के लिए अपने विभेद पर ध्यान न देते हुए. काग्रेस के झंडे के अधीन अपने
आपको सुसंगठित कर लिया। इसी कारण पामर (Palmer) ने कांग्रेस को एक छाता संगठन के
नाम से संबोधित किया है। इसका तात्पर्य वह हुआ है कि शुरू में कांग्रेस एक ऐसा दल था। जिसमें देश के सभी धर्म, वर्गो जातियों, हितो. विचारों तथा आदर्शों से सम्बन्धित लोगों की सदस्यता प्राप्त थी।
12. डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कांग्रेस पार्टी की तुलना एक सराय के साथ क्यों की हैं?
इस संदर्भ में महात्मा गाँधी जी ने कांग्रेसियों को क्या परामर्श दिया था? क्या उस
परामर्श का आज प्रभाव दृष्टिगोचर होता है?
उत्तर-डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कांग्रेस की एक सराय के साथ तुलना की है। जिसका
द्वार हमेशा मुर्खों, चालको, मित्रो, दुश्मनों, सम्प्रदायवादियों तथा अन्य सभी के लिए खुला रहता
है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गांँधीजी काँग्रेस देश की स्वतंत्रता की प्राप्ति में सफल रही है, और
नव भारत के निर्माण हेतु अब एक नए संगठन की आवश्यकता है। परंतु गांँधीजी के अनुयायियो
ने उनकी सलाह को स्वीकार नहीं किया, और 1947 के पश्चात् देश कांग्रेस के हाथों में चला गया।
इस प्रकार, 1947 के बाद भी काँग्रेस ने एक दल के रूप में कार्य करना प्रारंभ किया।
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. भारत का प्रथम आम चुनाव अथवा 1952 का चुनाव देश के लोकतंत्र के इतिहास
के लिए मील का पत्थर (Mile stone) क्यों और कैसे सावित हुआ? संक्षेप में
लिखिए।
उत्तर-(1) स्वतंत्र भारत के प्रथम आम चुनावों को दो बार स्थगित करना पड़ा और
आखिरकार 1951 के अक्तूबर से 1952 के फरवरी तक चुनाव हुए। जो भी हो इस चुनाव को
अमूमन 1952 का चुनाव ही कहा जाता है क्योंकि देश के ज्यादातर हिस्सों में मतदान 1952 में
ही हुए। चुनाव अभियान, मतदान और मतगणना में कुल छह महीने लगे।
(2) चुनावों में उम्मीदवारों के बीच मुकाबला भी हुआ। औसतन हर सीट के लिए चार
उम्मीदवार चुनाव के मैदान में थे। लोगों ने इस चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी की। कुल मतदाताओं में आधे से अधिक ने मतदान के दिन अपना वोट डाला।
(3) चुनावों के परिणाम घोषित हुए तो हारने वाले उम्मीदवारों ने भी इन परिणामों को निष्पक्ष
बताया। सार्वभौम मताधिकार (Universal Adult Franchise) के इस प्रयोग ने आलोचकों का मुँह बंद कर दिया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने माना कि इन चुनावों ने “उन सभी आलोचकों के संदेहों पर पानी फेर दिया है जो सार्वभौम मताधिकार की इस शुरुआत को इस देश के लिए खतरे का सौदा मान रहे थे।
(4) देश से बाहर के पर्यवेक्षक भी हैरान थे। हिंदुस्तान टाइम्स ने लिखा- “यह बात हर
जगह मानी जा रही है कि भारतीय जनता ने विश्व के इतिहास में लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रयोग
को बखूबी अंजाम दिया।” 1952 का आम चुनाव पूरी दुनिया में लोकतंत्र के इतिहास के लिए
मील का पत्थर साबित हुआ। अब यह दलील दे पाना संभव नहीं रहा कि लोकतांत्रिक
चुनाव गरीबी अथवा अशिक्षा के माहौल में नहीं कराए जा सकते। यह बात साबित हो गई कि दुनिया में कहीं भी लोकतंत्र पर अमल किया जा सकता है।
2. प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को प्राप्त चुनावी सफलता और प्रभुत्व का उल्लेख
कीजिए।
उत्तर-(i) प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा के पहले चुनाव में कुल 489
सीटों में 364 सीटें जीतीं और इस तरह वह किसी भी प्रतिद्वंद्वी से चुनावी दौड़ में बहुत आगे
निकल गई।
(ii) जहाँ तक सीटों पर जीत हासिल करने का सवाल है, पहले आम चुनाव में भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी दूसरे नंबर पर रही। उसे कुल 16 सीट हासिल हुई।
(iii) लोकसभा के चुनाव के साथ-साथ विधानसभा के भी चुनाव कराए गए थे। कांग्रेस पार्टी
को विधानसभा के चुनावों में भी बड़ी जीत हासिल हुई। त्रावणकोर-कोचीन (आज के केरल का
एक हिस्सा), मद्रास और उड़ीसा को छोड़कर सभी राज्यों में कांग्रेस ने अधिकतर सीटों पर जीत
दर्ज की।
(iv) आखिरकार ऊपर उल्लेखित तीन राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकार बनी। इस तरह
राष्ट्रीय और प्रांतीय स्तर पर पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का शासन कायम हुआ। उम्मीद के मुताबिक
जवाहरलाल नेहरू पहले आम चुनाव के बाद प्रधानमंत्री बने।
3. उन कारकों की चर्चा कीजिए जिनकी वजह से प्रथम आम चुनाव में कांग्रेस को
भारी सफलता प्राप्त हुई थी?
उत्तर-(i) भारत के सन् 1952 में हुए पहले आम चुनाव के नतीजों से शायद ही किसी
को अचंभा हुआ हो। आशा यही थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस चुनाव में जीत जाएगी।
(ii) भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का लोकप्रचलित नाम कांग्रेस पार्टी था और इस पार्टी को
स्वाधीनता संग्राम की विरासत हासिल थी। तब के दिनों में यही एकमात्र पार्टी थी जिसका संगठन पूरे देश में था।
(ii) इस पार्टी में खुद जवाहरलाल नेहरू थे जो भारतीय राजनीति के सबसे करिश्माई और
लोकप्रिय नेता थे। नेहरू ने कांग्रेस पार्टी के चुनाव अभियान की अगुआई की और पूरे देश का
दौरा किया। जब चुनाव परिणाम घोषित हुए तो कांग्रेस पार्टी की भारी-भरकम जीत से बहुतों को
आश्चर्य हुआ।
4. केरल में प्रथम कम्युनिस्टों की जीत और धारा 356 का कांग्रेस द्वारा दुरुपयोग विषय
पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-(1) केरल में कम्युनिस्टों की प्रथम चुनावी जीत (The firstelection victory
of the Communist Party in Kerala)-1957 में ही कांग्रेस पार्टी को केरल में हार का स्वाद चखना पड़ रहा था। 1957 के मार्च महीने में जो विधानसभा के चुनावों के चुनाव हुए उसमें
कम्युनिस्ट पार्टी को केरल की विधानसभा के लिए सबसे ज्यादा सीटे मिली। कम्युनिस्ट पार्टी को
कुल 126 में से 76 सीटे हासिल हुई और पांच स्वतंत्र उम्मीदवारों का भी समर्थन इस पार्टी को
प्राप्त था। राज्यपाल ने कम्युनिस्ट विधायक दल के नेता ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद को सरकार बनाने का न्योता दिया। दुनिया में यह पहला अवसर था। जब एक कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार लोकतांत्रिक चुनावों के जरिए बनी।
(II) संविधान की धारा 356 का दुरुपयोग (Misuse of Article 356 of the
Constitution)-केरल में सत्ता से बेदखल होने पर कांग्रेस पार्टी ने निर्वाचित सरकार के खिलाफ ‘मुक्ति संघर्ष’ छेड़ दिया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सत्ता में इस वायदे के साथ आई थी कि वह कुछ क्रांतिकारी तथा प्रगतिशील नीतिगत पहल करेगी। कम्युनिस्ट पार्टी का कहना था कि इस संघर्ष की अगुआई निहित स्वार्थ और धार्मिक संगठन कर रहें हैं 1959 में केंद्र की कांग्रेस सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 356 के अंतर्गत केरल की कम्युनिस्ट सरकार को बर्खास्त कर दिया। यह फैसला बड़ा विवादास्पद साबित हुआ। संविधान-प्रदत आपातकालीन शक्तियों के दुरुपयोग के पहले उदाहरण के रूप में इस फैसले का बार-बार उल्लेख किया जाता।
5. कांग्रेस किन अर्थों में एक विचारधारक गठबंधन थी। कांग्रेस में मौजूद विभिन्न
विचारधारात्मक उपस्थिति का उल्लेख करें। [B.M. 2009A; NCERT,T.B.Q.5]
उत्तर-(1) प्रारंभ से ही कांग्रेस से इनमें अनेक समूहों ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ
एकमेक कर दिया। कई बार यह भी हुआ कि किसी समूह ने अपनी पहचान को कांग्रेस के साथ
एकसार नहीं किया और अपने-अपने विश्वासों को मानते हुए बतौर एक व्यक्ति या समूह के कांग्रेस के भीतर बने रहे। इस अर्थ में कांग्रेस एक विचारधारात्मक गठबंधन भी थी। कांग्रेस ने अपने अंदर
क्रांतिकारी और शांतिवादी, कंजरवेटिव और रेडिकल, गरमपंथी और नरमपंथी, दक्षिणपंथी, वामपंथी और हर धारा के मध्यमार्गियों को समाहित किया। कांग्रेस एक मंच की तरह थी, जिस पर अनेक समूह, हित और राजनीतिक दल तक आ जुटते थे और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेते थे। आजादी के पहले के वक्त में अनेक संगठन और पार्टियों को कांग्रेस में रहने इजाजत थी।
(2) जहाँ तक कांग्रेस में विभिन्न विचारधारात्मक उपस्थिति के उल्लेख का संबंध है इस विषय
में कहा जा सकता है कि कांग्रेस का जन्म 1885 में हुआ था। उस वक्त यह नवशिक्षित, कामकाजी और व्यापारिक वर्गों का एक हित-समूह भर थी लेकिन 20वीं सदी में इसने जन आंदोलन का रूप ले लिया। इस वजह से कांग्रेस ने एक जनव्यापी राजनीतिक पार्टी का रूप लिया और राजनीतिक व्यवस्था में इसका दबदबा कायम हुआ। शुरू-शुरू में कांग्रेस में अंग्रेजीदां, अगड़ी
जाति, ऊँचे मध्यवर्ग और शहरी अभिजन का बोलबाला था। लेकिन कांग्रेस ने जब भी सिविल
फरमानी (Civil Disobedience) जैसे आंदोलन चलाए उसका सामजिक आधार बढ़ा। कांग्रेस परस्पर विरोधी हितों के कई समूहों को एक साथ जोड़ा। कांग्रेस में किसान और उद्योगपति, शहर वाशिंदे और गाँव के निवासी, मजदूर और मालिक एवं मध्य, निम्न और उच्च वर्ग तथा जाति को जगह मिली। धीरे-धीरे कांग्रेस का नेतृवर्ग भी विस्तृत हुआ। इसका नेतृवर्ग अब उच्च वर्ग जाति के पेशेवर लोगों तक ही सीमित नहीं रहा। इसमें खेती-किसानी की बुनियाद वाले तथा गाँव-गिरान की तरफ रुझान रखने वाले नेता भी उभरे। आजादी के समय तक कांग्रेस एक सतरंगे सामाजिक गठबंधन की शक्ल अख्तियार कर चुकी थी और वर्ग, जाति, धर्म, भाषा तथा अन्य हितों के आधार पर इस सामाजिक गठबंधन से भारत की विविधता की नुमाइंदगी हो रही थी।
6. क्या एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली का भारतीय राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र
पर खराब असर हुआ? [NCERT, T.B.Q. 6]
उत्तर-नि:संदेह एकल पार्टी प्रभुत्व की प्रणाली (System of single party dominance)
लोकतांत्रिक चरित्र पर अच्छा प्रभाव नहीं डालती।
(i) एकल पार्टी प्रभुत्व में आने के बाद देश में तानाशाही को बढ़ावा देती है। वह लोकतांत्रिक
मुल्यों में विशेषकर राजनैतिक स्वतंत्रता, समानता, विचारों की अभिव्यक्ति, पार्टियों के गठन,
दबाव समूहों की राजनैतिक गतिविधियों, जनसंचार और समाचार जैसे माध्यमों की पूर्ण स्वतंत्रता में पूरा विश्वास नहीं करती। वह राजनीतिक अवसर और सत्ता को लोगों पर अपनी विचारधारा, नीतियाँ, कार्यक्रम आदि लादने को माध्यम बनाती है।
(ii) लोकतंत्र में प्रेस, मीडिया, जनमत, विरोधी दल, लोकतांत्रिक सरकार व्यवस्था, न्याय
प्रणाली की स्वतंत्रता, निष्पक्षता और विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए अनिवार्य स्तंभ और
घटक माने जाते हैं। लोकतंत्र के लिए वस्तुतः दो या तीन दलों या राजनीतिक गुटों का होना ही
प्रायः अधिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल माना जाता है। जब तक कांग्रेस ने विभिन्न धर्मों,
सम्प्रदायों, समूहों दोनों लैंगिक मतदाताओं, विभिन्न प्रदेशों के कार्यकर्ताओं, क्षेत्रीय-समस्याओं को ध्यान में रखा और सभी को साथ लेकर चलने की नीति का अनुसरण किया तब तक केन्द्र और अधिकांश प्रांतों में उसकी प्रभुता का बहुत विरोध नहीं हुआ लेकिन जब कभी उसने संविधान की धारा 356 का दुरुपयोग किया या मनमाने ढंग से आपातकाल की घोषणा की। विरोधी दलों को कुचलने का प्रयास किया तब तक विरोधी दल और मतदाता उससे नाराज हुए।
(iii)1977 में विरोधी दलों का एक छाते के नीचे आना और जनता पार्टी का गठन जयप्रकाश
नारायण के कार्यक्रम और नारे लोगों के लिए अत्यधिक लुभाने वाले हो गए। भारत विभिन्नताओं
का देश है। यहाँ एकल राजनीतिक दल की सत्ता निःसंदेह देश के लोकतंत्र के लिए खराब ही
साबित होगी।
7. अगर पहले आम चुनाव के बाद भारतीय जनसंघ अथवा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
की सरकार बनी होती तो किन मामलों में इस सरकार ने अलग नीति अपनाई होती?
इन दोनों दलों द्वारा अपनाई गई नीतियों के बीच तीन अन्तरों का उल्लेख करें।
[NCERT, T.B.Q.4]
उत्तर―भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-(i) यह दल देश में रूस की तरह एक पार्टी अर्थात्
साम्यवादी पार्टी की लोकतांत्रिक या सर्वहारा की अधिनाययकवादी व्यवस्था का पक्षधर था।
(ii) वह देश में सच्ची आजादी और लोकतंत्र लाने के लिए तेलंगाना जैसे हिंसक आंदोलन
को बढ़ावा देना चाहती थी लेकिन जब सशस्त्र सेनाओं ने तेलंगाना सेनाओं को कुचल दिया तो
1957 में साम्यवादी पार्टी ने हिंसा का रास्ता छोड़ दिया।
(iii) 1952 के आम चुनाव में इस पार्टी ने भाग लिया। इस पार्टी ने लोकसभा में 16 सीटें
जीतकर सबसे बड़ी विरोधी पार्टी का श्रेय प्राप्त किया
(iv) चीन ने भारत पर 1962 में आक्रमण किया और 1959 से ही चीन और सोवियत संघ
की सरकारों में मतभेद बढ़ा तो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर भी इसका असर पड़ा। यह दल 1964 में दो विरोधी गुटों में बंट गया : एक गुट पूर्णतया सोवियत संघ की विचारधारा को ठीक मानता था। वह गुट भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी कहलाया जबकि दूसरा गुट चीन की नीतियों और विचारधारा को ठीक मानता था। वह गुट सी• पी• आई• एम• गुट कहलाया।
(v) यह दल रूस या चीन की मित्रता को विदेश नीति में अधिक महत्त्व देता रहा है। यह
प्राचीन भारतीय संस्कृति, धर्म और हिंदी को राष्ट्रभाषा को दर्जा देने के पक्ष में उस तरह की विचारधारा नहीं रखता जैसी भारतीय जनसंघ रखता था। वह अल्पसंख्यक सास्कृतिक और धार्मिक लोगों को विशेष अधिकार और रियायतें दिए जाने के पक्ष में है।
भारतीय जनसंघ-(i) एक देश, एक संस्कृति और एक राष्ट्र के विकास पर बल दिया
जाता। जनसंघ का मानना था कि देश भारतीय संस्कृति और परम्परा के आधार पर आधुनिक
प्रगतिशील शक्तिशाली बन सकता है। (ii) भारतीय जनसंघ की अखंडता को पुनः स्थापित करने
की बात कहता था अर्थात् वह पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की तरह भारत और पाकिस्तान को पुनः
एक इंडिया (हिन्दुस्तान) देखना चाहता था। (iii) भारतीय जनसंघ अंग्रेजी को हटाकर हिन्दी का
राष्ट्रभाषा बनाने का समर्थक था। (iv) भारतीय जनसंख्या सभी नागरिकों की समानता के व्यवहार का पक्षधर था अर्थात् इस दल ने धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को रियायत देने का विरोध किया। (v) 1964 से चीन द्वारा आणविक परीक्षण किए जाने पर भारतीय जनसंघ निरंतर देश द्वारा आणविक हथियार तैयार करने पर जोर देता रहा।
8. कांग्रेस व्यवस्था से क्या अभिप्राय है? [B.M.2009A]
उत्तर-रजनी कोठारी ने भारत की राजनीतिक व्यवस्था को ‘कांग्रेस व्यवस्था’ की संज्ञा
दिया है। इस दल का संगठन प्रारंभ से ही राष्ट्रीय स्वरूप का रहा। लम्बे स्वतंत्रता संघर्ष के काल
में इस दल ने भारतीय नीतियों, मूल्यों, आवश्यकताओं तथा समस्याओं के समाधान की प्रक्रियाओं में आम सहमति बनाने का प्रयास किया। ‘इस दल का स्वरूप एक मध्यवर्गीय स्वरूप का रहा। दक्षिण पंथी तथा वामपंथी दोनों विचारों का सम्मिश्रण, इस दल की नीतियों में पाया जाता है।’ धर्मनिरपेक्षता के प्रति आस्था तथा गुटनिरपेक्ष विदेशनीति की घोषणा के कारण भी कांग्रेस की मूल्यपरक प्रतिबद्धता की स्थिति स्पष्ट हुई। कांग्रेस की ये नीतियाँ आम भारतीय विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे। यही कारण है कि कांग्रेस से अलग होकर बने अन्य दलों की नीतियों में भी कांग्रेस की ये विशेषताओं पायी गयीं। भारत की कांग्रेस व्यवस्था का अभिप्राय केवल दल की संरचना से नहीं है, बल्कि कांग्रेस द्वारा स्थापित नीतियों एवं मूल्यों से है, जो भारतीय राजनीति को प्रभावित करते हैं।
9. क्षेत्रीय दलों के अभ्युदय के कारणों को वताएँ। [B.M.2009A]
उत्तर-1967 ई. के चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों की भूमिका बढ़ने लगी। 1985 ई. में
लोकसभा में विपक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल एक क्षेत्रीय दल तेलगु देशम था। 1989 ई.के
बाद गठबंधन राजनीति के विकास के साथ क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय राजनीति में विशिष्ट भूमिका
हो गई तेलगु देशम तथा शिवसेना जैसे क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि को लोकसभा का अध्यक्ष पद
तक प्राप्त हुआ। क्षेत्रीय दलों के अभ्युदय का मुख्य कारण राष्ट्रीय दलों का कमजोर पड़ना है।
राष्ट्रीय दलों द्वारा क्षेत्रीय समस्या तथा पहचान की उपेक्षा का आरोप लगाया जाता है। इसी क्षेत्रीय
भावना को उभारकर क्षेत्रीय दल अपनी स्थिति सुदृढ़ करते हैं। राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र को भारत में नहीं अपनाये जाने की परम्परा भी क्षेत्रीय दलों के विकास के कारण हैं।
10. दल-बदल के अर्थ क्या हैं? [Board Exam.2009A]
उत्तर-जब किसी दल के सदस्य चुनाव से पहले या निर्वाचित होने के बाद अपने राजनीतिक
दल को छोड़कर दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं, दल-बदल कहलाता है। दल-बदल अपनी
राजनीतिक इच्छा की पूर्ति या पार्टी में उपेक्षित महसूस करने की स्थिति में कोई सदस्य पार्टी की
सदस्यता छोड़ते हैं। पार्टी के आदेश के उल्लंघन के कारण पार्टी से उन्हें निकाल भी दिया जाता
है। इसके अन्तर्गत सदस्य अपनी मर्जी से भी पार्टी छोड़ सकते हैं। 1985 में 52वाँ संविधान
सेशोधन लाकर दल-बदल को रोकने का प्रयास किया गया, जो नाकामयाब साबित हुआ। पुनः
1991 में संविधान संशोधन द्वारा एक नया कानून लाया गया, जिसके अनुसार यदि कोई सदस्य
दल-बदल करता है तो वह सदन की सदस्यता खो देगा और किसी भी राजनीतिक पद के लिए
आयोग्य होगा। अध्यक्ष का फैसला इस मामले में अन्तिम माना जाएगा।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र स्थापित करने की चुनौती को कैसे स्वीकार किया और
उसकी सफलता के उपरान्त विश्व कैसे हैरान रह गया?
उत्तर-(I) स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र स्थापित करने की चुनौती (Challenge to
establish democracy before independent India) –
(क) स्वतंत्रता से पूर्व ही भारत के अनेक राष्ट्रीय नेता यह मानते थे कि राष्ट्रीय एकता हमारी
सबसे बड़ी प्राथमिकता की चुनौती है और अनेक नेताओं में देश में लोकतंत्रीय शासन प्रणाली को
अपनाये जाने में मतभेद था। कुछ नेताओं का यह तर्क था कि लोकतंत्र देश में संघर्ष को बढ़ावा
देगा। जो भी हो, हमारे नेता लोकतंत्र को प्यार करते थे और लोकतंत्र में राजनीति की निर्णायक
भूमिका को लेकर सचेत थे।
(ख) राष्ट्रीय नेतागण राजनीति को एक गंभीर समस्या के रूप में नहीं देखते थे। सत्ता और
प्रतिस्पर्धा राजनीति की सबसे ज्यादा स्पष्ट रूप से प्रगट चीजें वे मानते थे। वे वह भी जानते थे
कि यदि देश में राजनीति का उद्देश्य जनहित का फैसला करना और उस पर अमल करना होगा
तो देश के लोग पूर्णतया सहयोग देंगे। 26 जनवरी 1950 को देश के संविधान के लागू होने के
बाद भारत में चुनाव आयोग का गठन 1950 के जनवरी मास में ही हो गया। सुकुमार सेन प्रथम
चुनाव आयुक्त बने। उम्मीद की जा रही थी कि भाम चुनाव 1950 में किसी समय हो जाएगा।
(II) प्रथम आयुक्त के समक्ष कठिनाइयाँ (Problems before first election
commission)―
(क) भारत के प्रथम चुनाव आयोग ने पाया कि भारत के आकार को देखते हुए एक मुक्त
और निष्पक्ष आम चुनाव कराना कोई आसान मामला नहीं है। चुनाव कराने के लिए चुनाव क्षेत्रों
का सीमांकन जरूरी था। फिर, मतदाता सूची यानी मताधिकार प्राप्त वयस्क व्यक्तियों की सूची
बनाना भी आवश्यक था इन दोनों कामों में बहुत सारा समय लगा। मतदाता सूचियों का जब पहला प्रारूप प्रकाशित हुआ तो पता चला कि इसमें 40 लाख महिलाओं के नाम दर्ज होने से रह गए हैं। इन महिलाओं को ‘अला की बेटी’ फलां की बीवी’… के रूप में दर्ज किया गया था। चुनाव
आयोग ने ऐसे इंदराज (प्रविष्ट) को मनाने से इनकार कर दिया।
(ख) देश के प्रथम चुनाव आयोग ने निर्णय किया कि संभव हो तो मतदाता सूचियों को
दुबारा से ध्यानपूर्वक जांचा जाए और आवश्यकतानुसार उसमें उन मतदाताओं के नाम हटा दिए
जाएंँ, जिनका सम्मिलित किया जाना अनुचित अथवा गलत रहा। यह अपने आप में हिमालय की
चढ़ाई जैसा कठिन कार्य था। इतने बड़े पैमाने का ऐसा काम दुनिया में अब तक नहीं हुआ था।
(ग) उस समय देश में 17 करोड़ मतदाता थे। इन्हें 3200 विधायक और लोकसभा के लिए
489 सांसद चुनने थे। इन मतदाताओं में महज 15 प्रतिशत साक्षर थे। इस कारण चुनाव आयोग
को मतदान की विशेष पद्धति के बारे में भी सोचना पड़ा। चुनाव आयोग ने चुनाव कराने के लिए
3 लाख से ज्यादा अधिकारियों और चुनावकर्मियों को प्रशिक्षित किया।
(घ) देश के विशाल आकार और मतदाताओं की भारी-भरकम संख्या के लिहाज से ही पहला
आम चुनाव अनूठा नहीं था, बल्कि मतदाताओं की एक बड़ी संख्या गरीब और अनपढ़ लोगों की
धी और ऐसे माहौल में यह चुनाव लोकतंत्र के लिए परीक्षा की कठिन घड़ी थी। इस वक्त तक
लोकतंत्र सिर्फ धनी देशों में ही कायम था। उस समय यूरोप के बहुतेरे देशों में महिलाओं को
मताधिकार नहीं मिला था। ऐसे में हिंदुस्तान में सार्वभौम मताधिकार पर अमल हुआ और यह अपने आप में बड़ा प्रशंसनीय लेकिन जोखिम भरा प्रयोग था।
(III) विभिन्न व्यक्तियों, एजेन्सियों द्वारा प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति आश्चर्यजनक थी।
एक हिंदुस्तानी संपादक ने इसे ‘इतिहास का सबसे बड़ा जुआ” करार दिया। ‘आर्गनाइजर मान
की पत्रिका ने लिखा कि जवाहरलाल नेहरू “अपने जीवित रहते ही यह देख लेंगे और पछताएंँगे
कि भारत में सार्वभौम मताधिकार असफल रहा।” इंडियन सिविल सर्विस के एक अंग्रेज नुमाइदे
का दावा था कि “आने वाला वक्त और अब से कहीं ज्यादा जानकार दौर बड़े विस्मय से लाखो अनपढ़ लोगों के मतदान की यह बेहूदी नौटंकी देखेगा।” आज लगभग 60 वर्षों से भारत में सार्वभौमिक मताधिकार व्यवस्था खूब सफल रही है।
(IV) मूल्यांकन (Evaluation)-प्रथम चुनाव अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 तक
चला। देश की जनता ने जिसमें बढ़-चढ़कर भाग लिया। चुनाव के परिणाम घोषित हुए। हारने वाले उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग की खूब प्रशंसा की और चुनाव को पूर्णतया निष्पक्ष बताया। भारतीय लोकतंत्र की प्रशंसा देशी और विदेशी समाचारपत्रों और सभी माध्यमों (Media) ने की। दुनिया के इतिहास में भारत में 1952 का आम चुनाव एक ऐतिहासिक मील का पत्थर साबित हुआ।
2. समाजवादी दलों और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच के तीन अंतर बताएँ। इसी तरह
भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी के बीच के तीन अंतरों का उल्लेख करें।
[NCERT, T.B.Q.7]
उत्तर-समाजवादी और कम्युनिस्ट पार्टी में अंतर (Differences between Socialist
Party and Communist Party) –
फोटो-1
भारतीय जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी में अंतर (Difference between BhartiyaJansangha
and Swatantra Party)―
फोटो-2
3. भारत और मैक्सिको दोनों ही देशों में एक खास समय तक एक पार्टी का प्रभुत्व
रहा। बताएँ कि मैक्सिको में स्थापित एक पार्टी का प्रभुत्व कैसे भारत के एक पार्टी
के प्रभुत्व से अलग था? [NCERT, T.B.Q,8]
उत्तर-(1) भारत और मैक्सिको में एक पार्टी के प्रभुत्व के मध्य एक बड़ा भारी अंतर यह
है कि मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व लोकतंत्र की कीमत पर कायम हुआ जबकि भारत में ऐसा कभी नहीं हुआ। अभी कुछ साल पहले मैक्सिको में एक पार्टी का प्रभुत्व स्थापित हुआ। भारत में कांग्रेस पार्टियों के साथ-साथ शुरू से ही अनेक पार्टियाँ चुनाव में राष्ट्रीय स्तर और क्षेत्रीय स्तर के रूप में भाग लेती रहीं जबकि मैक्सिको में ऐसा नहीं हुआ।
(2) कांग्रेस पार्टी को पहले तीन चुनावों में भारी बहुमत मिला क्योंकि उसने देश के संघर्ष
के लिए 1885 से 1947 तक भूमिका निभाई। उसके सामने दूसरा राजनैतिक दल पूर्ण आर्थिक,
सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम लेकर उपस्थित नहीं हुआ।
(3) भारतीय साम्यवादी दल भी अपनी कुछ आर्थिक नीतियों के कारण देश के 565 देशी
रियासतों के शासकों, हजारों जमींदारों, जागीरदारों, पूंँजीपतियों और यहाँ तक कि मिल्कियत लिए हुए धार्मिक नेताओं एवं बड़े किसानों की लोकप्रिय पार्टी नहीं बन सकी। अनेक राजनैतिक स्वतंत्रता प्रेमी, प्रेस और मीडिया भी पूर्ण स्वतंत्रता के पक्षधर पूँजीवादी या मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसी प्रणालियों के सर्मथकों का ही हृदय जीतने में वह असफल रही। दूसरी ओर मैक्सिको का एक राजनीतिक दल पूर्णतया अधिनायकवादी कहा गया।
‘इंस्टीट्यूशनल रिवोल्यूशनरी पार्टी (स्पेनिश में इसे पीआरआई कहा जाता है) का मैक्सिको
में लगभग साठ सालों तक शासन रहा। इस पार्टी की स्थापना 1929 में हुई थी। तब इसे नेशनल
रिवोल्यूशनरी पार्टी कहा जाता था। इसे मैक्सिकन क्रांति की विरासत हासिल थी। मूल रूप से
पीआरआई में राजनेता और सैनिक-नेता, मजदूर और किसान संगठन तथा अनेक राजनीतिक दलों समेत कई किस्म के हितों का संगठन था। समय बीतने के साथ पीआरआई के संस्थापक प्लूटार्को इलियास कैलस ने इसके संगठन पर कब्जा जमा लिया और इसके बाद नियमित रूप से होने वाले चुनावों में हर बार पीआरआई ही विजयी होती रही। बाकी पार्टियाँ बस नाम की थी ताकि शासक दल को वैधता मिलती रहे। चुनाव के नियम इस तरह तय किए गए कि पीआरआई की जीत हर बार पक्की हो सके। शासक दल ने अक्सर चुनावों में हेर-फेर और धाँधली की पीआरआई के शासन को ‘परिपूर्ण तानाशाही’ कहा जाता है। आखिरकार सन् 2000 में हुए राष्ट्रपति पद के चुनाव में यह पार्टी हारी। मैक्सिको अब एक पार्टी के दबदबे वाला देश नहीं रहा। बहरहाल, अपने दबदबे के दौर में पीआरआई ने जो दाँव-पेंच अपनाए थे उनका लोकतंत्र की सेहत पर बड़ा खराब असर पड़ा है। मुक्त और निष्पक्ष चुनाव की बात पर अब भी नागरिकों का पूरा विश्वास नहीं जम पाया है।
4. दूसरे और तीसरे आम चुनावों में कांग्रेस को मिली सफलता से जुड़े विभिन्न पहलुओं
पर आलोचनात्मक रूप में एक लेख लिखिए।
उत्तर-(1) दूसरा आम चुनाव 1957 में और तीसरा 1962 में हुआ। इन चुनावों में भी
कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा में अपनी पुरानी स्थिति बरकरार रखी और उसे तीन-चौथाई सीटें मिली। कांग्रेस पार्टी ने जितनी सीटें जीती थीं उसका दशांश भी कोई विपक्षी पार्टी नहीं जीत सकी।
(2) विधानसभा के चुनावों में कहीं-कहीं कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला। ऐसा ही एक महत्त्वपूर्ण
उदाहरण केरल का है। 1957 में केरल में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में एक गठबंधन
सरकार बनी। ऐसे एकाध मामलों को अपवाद मान लें तो कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार और
प्रांतीय सरकारों पर कांग्रेस पार्टी का नियंत्रण था।
(3) कांग्रेस पार्टी की जीत का यह आंकड़ा और दायरा हमारी चुनाव-प्रणाली के कारण भी
बढ़ा-चढ़ा दिखता है। चुनाव प्रणाली के कारण कांग्रेस पार्टी की जीत को अलग से बढ़ावा मिला।
मिसाल के लिए, 1952 में कांग्रेस पार्टी को कुल वोटों में से मात्र 45 प्रतिशत वोट हासिल हुए
थे लेकिन कांग्रेस को 74 फीसदी सीटें हासिल हुई।
(4) सोशलिस्ट पार्टी वोट हासिल करने के लिहाज से दूसरे नंबर पर रही। उसे 1952 के
चुनाव में पूरे देश में कुल 10 प्रतिशत वोट मिले थे लेकिन यह पार्टी 3 प्रतिशत सीटें भी नहीं
जीत पायी।
(5) हमारे देश की चुनाव-प्रणाली में ‘सर्वाधिक वोट पानी वाले की जीत’ के तरीके को
अपनाया गया है। ऐसे में अगर कोई पार्टी बाकियों की अपेक्षा थोड़े ज्यादा वोट हासिल करती है
तो दूसरी पार्टियों को प्राप्त वोटों के अनुपात की तुलना में उसे कहीं ज्यादा सीटें हासिल होती हैं।
यही चीज कांग्रेज पार्टी के पक्ष में साबित हुई।
(6) अगर हम सभी गैर-कांग्रेसी उम्मीदवारों के वोट जोड़ दें तो वह कांग्रेस पार्टी को हासिल
कुल वोट से कहीं ज्यादा होंगे। लेकिन गैर-कांग्रेसी वोट विभिन्न प्रतिस्पर्धी पार्टियों और उम्मीदवारों में बंँट गए। इस तरह कांग्रेस बाकी पार्टियों की तुलना में आगे रही और उसने ज्यादा सीटें जीतीं।
5. सोशलिस्ट पार्टी के जन्म, विकास, विचारधारा, उपलब्धियाँ और प्रमुख नेताओं को
ध्यान में रखकर एक लेख लिखिए।
उत्तर–(i) पृष्ठभूमि (Background)-सोशलिस्ट पार्टी जड़ों को आजादी के पहले
के उस वक्त में ढूंँढा जा सकता है जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जनआंदोलन चला रही थी। कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन खुद कांग्रेस के भीतर 1934 में युवा नेताओं की एक टोली ने किया
था। ये नेता कांग्रेस को ज्यादा-से-ज्यादा परिवर्तनकामी और समतावादी बनाना चाहते थे। 1948
मे कांग्रेस ने अपने संविधान में बदलाव किए। यह बदलाव इसलिए किया गया था ताकि कांग्रेस
के सदस्य दोहरी सदस्यता न धारण कर सकें। इस वजह से कांग्रेस के समाजवादियों को मजबूरन
1948 में अलग होकर सोशलिस्ट पार्टी बनानी पड़ी।
(ii) पार्टी एवं आम चुनाव (Party and General Elections)- सोशलिस्ट पार्टी चुनावों
में कुछ खास कामयाबी हासिल नहीं कर सकी। इससे पार्टी के समर्थकों को बड़ी निराशा हुई।
हालांँकि सोशलिस्ट पार्टी की मौजूदगी हिंदुस्तान के अधिकतर राज्यों में थी लेकिन पार्टी को चुनावों मे छिटपुट सफलता ही मिली।
(iii) समाजवादी पार्टी की विचारधारा (Ideology of Socialist Party)-समाजवादी
लोकतात्रिक समाजवाद की विचारधारा में विश्वास करते थे और इस आधार पर वे कांग्रेस तथा
साम्यवादी (कम्युनिस्ट) दोनों से अलग थे। वे कांग्रेस की आलोचना करते थे कि वह पूंजीपतियों
और जमीदारों का पक्ष ले रही है और मजदूरों-किसानों की उपेक्षा कर रही है।
(iv) लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी (Socialist Partyunder the leadership
of Lohia)-लोहिया को 1955 में दुविधा की स्थिति का सामना करना पड़ा क्योंकि कांग्रेस ने
घोषणा कर दी कि उसका लक्ष्य समाजवादी बनावट वाले समाज की रचना है। ऐसे में समाजवादियों के लिए खुद को कांग्रेस का कारगर विकल्प बनाकर पेश करना मुश्किल हो गया। राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में कुछ समाजवादियों ने काग्रेस से अपनी दूरी बढ़ायी और कांग्रेस की आलोचना की। कुछ अन्य समाजवादियों मसलन अशोक मेहता ने कांग्रेस से हल्के-फुल्के सहयोग की तरफदारी की।
(v) विभाजन (Division)-सोशलिस्ट पार्टी के कई टुकड़े हुए और कुछ मामलों में
बहुधा मेल भी हुआ। इस प्रक्रिया में कई समाजवादी दल बने। इन दलों में, किसान मजदूर प्रजा
पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी का नाम लिया जा सकता।
(vi) नेतागण (Leaders)-जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता.
आचार्य नरेन्द्र देव, राममनोहर लोहिया और एस.एम. जोशी समाजवादी दलों के नेताओं में प्रमुख
थे। मौजूदा हिंदुस्तान के कई दलों जैसे समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल
(यूनाइटेड) और जनता दल (सेक्युलर) पर सोशलिस्ट पार्टी की छाप देखी जा सकती है।
6. भारत में गठबंधन राजनीति की आवश्यकता एवं संभावना पर प्रकाश डालें।
[B.M.2009A]
उत्तर―भारत में एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली पर पहला आघात 1967 में हुआ जब कई राज्यों
में गैर कांग्रेसी गठबंधन सरकारें स्थापित की गयीं। 1977 में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति का पुन: प्रयोग परिवर्तित रूप में किया गया। विभिन्न विचारधाराओं और नेतृत्वों पर आधारित राजनीतिक दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया। जनता पार्टी तकनीकि रूप में एक दल था किंतु व्यवहारतः यह एक गठबंधन ही था। यह प्रयोग भी असफल रहा।
1989 के बाद भारतीय राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। कांग्रेस दिनों-दिन कमजोर
होती चली गई। दूसरी ओर भाजपा की लोकप्रियता में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। राज्यों में क्षेत्रीय दलों का भी विकास होने लगा। बिहार में राजद, जद (यू), उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी तथा बसपा, आध्रप्रदेश में तेलगुदेशम, पंजाब में अकाली दल, महाराष्ट्र में शिवसेना आदि क्षेत्रीय दल प्रभावी स्थिति में आ गये। कांग्रेस का बार-बार विघटन होने लगा। कांग्रेस के परम्परागत वोट बैंक-ब्राह्मण, हरिजन अल्पसंख्यक में भी दरार पैदा हो गया।
इन समस्त परिस्थितियों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि कोई भी दल अपने बलबूते सरकार बनाने
की स्थिति में नहीं रहा। इस कारण गठबंधन राजनीति का दौर प्रारंभ हुआ।
इस दौर में भी पहला प्रयास अल्पमत सरकारों के गठन का किया गया। इसमें बाह्य समर्थन के आधार पर सरकारें बनाई गयीं।
अल्पमत सरकारों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि बाह्य समर्थन देने वाला दल जहाँ
समर्थन दिये जाने का मूल्य वसूलता था वहाँ उत्तरदायित्व के निर्वाह के साफ बच निकलता था।
अतः ऐसी आवश्यकता महसूस की गई कि समर्थन देने वाली सभी पार्टियाँ मिलकर सरकार बनाएँ। वे साथ रहकर सामूहिक दायित्व का निर्वाह करें।
गठबंधन सरकार के सफल संचालन का प्रथम श्रेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी को दिया जा
सकता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन. डी. ए.) के नाम से उन्होंने सरकार बनाई जो करीब
5 वर्षों से अधिक तक चलती रही। इसे देखकर कांग्रेस ने भी गठबंधन राजनीति से जुड़ने का
निर्णय लिया। उसके नेतृत्व में गठित गठबंधन संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (संप्रग) अपना कार्यकाल
पूरा करने जा रही है। मनमोहन सिंह इस सरकार के प्रधानमंत्री हैं।
इस प्रकार भारतीय राजनीति गठबंधन की राजनीति के दौर से गुजर रही है। लोकसभा का
अगला चुनाव भी दोनों गठबंधनों के बीच होगा। गठबंधन की रक्षा, सरकार को बचाये रखना,
गठबंधन हेतु नये सहयोगियों की खोज, राजनीतिक प्रक्रिया का मुख्य आयाम हो जाता है।
भविष्य में उम्मीद की जाती है कि गठबंधन राजनीति द्विध्रुवीय राजनीति के रूप में स्थाई रूप
ले सकेगा ऐसा होने पर संसदीय व्यवस्था मजबूत होगी।
7.क्षेत्रीय दलों के उदय के कारणों पर प्रकाश डालें [B.M.2009A]
उत्तर-1990 के बाद देश में क्षेत्रीय पार्टी की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हो गई जिसने
बड़ी पार्टी, यथा-कांग्रेस, बी. जे. पी. तथा जनता दल को विवश किया कि वे छोटी पार्टियों
के साथ तालमेल बढ़ाएँ। यद्यपि 1990 से पूर्व कई राज्यों, यथा-तमिलनाडु, आसाम, आन्ध्रप्रदेश
तथा जम्मू-काश्मीर में क्षेत्रीय दल सत्ता संभाल चुकी थी।
1996 में उन्हें केन्द्रीय स्तर पर भी सत्ता में भागीदारी मिली। देवगौड़ा, गुजराल, वाजपेयी व
मनमोहन सिंह के मंत्रिमण्डल में इन सभी छोटे दलों को स्थान मिला, जिन्होंने इससे पूर्व केन्द्रीय
स्तर पर सत्ता का मुंह नहीं देखा था। सभी घटकों की सहमति से न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना और सरकार का संचालन होने लगा। जो दल या गुट बिल्कुल महत्त्वहीन थे वे अपनी प्रभावशाली
निर्णायक भूमिका निभाने लगे।
वर्तमान समय गठबंधन सरकारों का आ गया है, जिसमें क्षेत्रीय दलों का महत्त्व बढ़ना एक
स्वाभाविक घटना है।
कारण-(i) राष्ट्रीय छवि के नेताओं का अभाव है जिसके कारण स्थानीय स्तर के चतुर
क्षेत्रीय नेताओं ने अपनी स्थिति को शक्तिशाली बनाने हेतु जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद जैसे
तत्त्वों का सहारा लिया।
★★★