bihar board 12 biology solutions | विकास
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विकास
[EVOLUTION]
महत्त्वपूर्ण तथ्य
• पृथ्वी पर जीवन के उद्भव को समझने के लिए ब्रह्मांड और पृथ्वी के उद्गम की जानकारी की पृष्ठभूमि अपेक्षित है।
• अधिकांश वैज्ञानिकों का विश्वास रासायनिक विकास में है अर्थात् जीवन के प्रथम कोशिकीय रूपों के उदय के पूर्व द्वि-अणु पैदा हुए।
• प्रथम जीवों के बाद की उत्तरोत्तर घटनाक्रम कल्पना मात्र है जिसका आधार प्राकृतिकवरण द्वारा जैव विकास संबंधी डार्विन का विचार है।
• करोड़ों वर्षों के दौरान जीवन में विविधता रही है। माना जाता है कि जीव संख्या की विविधता परिवर्ती चरणों के दौरान हुई।
• आवास विखंडन और आनुवंशिक प्रवाह ने नव प्रजाति की उत्पत्ति में सहायता की और इस प्रकार विकास संभव हो सका।
• तुलनात्मक शरीर रचना, जीवाश्म तथा तुलनात्मक जीव रसायन विकास के प्रमाण उपस्थित करते हैं।
NCERT पाठ्यपुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
अभ्यास (Exercises)
1. डार्विन के चयन सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में जीवाणुओं में देखी गई प्रतिजैविक प्रतिरोध का स्पष्टीकरण करें।
उत्तर-किसी भी जीव का पूर्ण विनाश नहीं होता। ठीक उसी प्रकार, शाकनाशकों एवं कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग के परिणामस्वरूप कम समयावधि में केवल प्रतिरोधक किस्मों का चयन हुआ। ठीक यही बात सूक्ष्म जीवों के प्रति भी सही साबित होती है जिनके लिए हम
प्रतिजैविक (ऐंटीबायोटिक) या अन्य दवाइयों को सुकेंद्रकी (यूकेरियोटिक) जीवों/कोशिकाओं के प्रति इस्तेमाल करते हैं बहुत जल्दी ही, यदि शताब्दियों में नहीं तो महीनों और वर्षों की समयावधि में ही प्रतिरोधक जीव/कोशिकाएँ प्रकट हो रही हैं। यह एक मानवोद्भवी क्रियाओं द्वारा विकास का एक उदाहरण है। इसके साथ ही यह हमें बताता है कि निश्चयवाद के अर्थ में विकास की एक प्रत्यक्ष प्रक्रिया नहीं है। यह एक प्रसभाव्य प्रक्रम है, जो प्रकृति के संयोग, अवसरधारी घटना और जीवों में संयोग जन्य उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) पर आधारित है।
2. समाचार पत्रों और लोकप्रिय वैज्ञानिक लेखों से विकास संबंधी नए जीवाश्मों और मतभेदों की जानकारी प्राप्त करें।
उत्तर-पृथ्वी पर जीवों का विकास हुआ, इस बात के कई प्रमाण है। पहला चट्टानों के अंदर जीवाश्म रूप में जीवन के कठोर अंगों के अवशेष में विद्यमान हैं। चट्टानें अवसाद या तलछट से बनी होती हैं और भूपर्पटी (अर्थक्रस्ट) की एक अनुप्रस्थ काट यह संकेत देती है कि एक तलछट पर दूसरे तलछट की परत पृथ्वी के लंबे इतिहास की गवाह है। भिन्न आयु की चट्टानों की तलछट
में भिन्न जीव रूप पाए गए हैं जोकि संभवत उस विशेष तलछट के निर्माण के दौरान मरे थे। उनमें से कुछ आधुनिक जीवों से मिलते-जुलते हैं। वे विलुप्त जीवों (जैसे-डायनासोर) का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपुर्यक्त अध्ययन बतलाते हैं कि समय-समय पर पृथ्वी पर जीवन के रूप में बदलते रहे हैं और कुछ रूप विशेष भूवैज्ञानिक काल तक ही सीमित रहे। अर्थात् जीवों के रूप में विभिन्न कालों में प्रकट हुए। इन सभी को पैलेओटोलोजिकल (पुराजीवी) प्रमाण कहा जाता है।
इथोपिया तथा तंजानिया में कुछ जीवाश्म अस्थियाँ मानवों जैसी प्राप्त हुई हैं। ये जीवाश्म मानवी विशिष्टताएँ दर्शाते हैं जो इस विश्वास को आगे बढ़ाती हैं कि 3-4 मिलियन वर्ष पूर्व मानव जैसे नर वानर गण (प्राइमेट्स) पूर्वी-अफ्रीका में विचरण करते रहे थे। ये लोग संभवत: ऊँचाई में चार फुट से बड़े नहीं थे लेकिन वे खड़े होकर सीधे चलते थे।
3. ‘प्रजाति की स्पष्ट परिभाषा’ देने का प्रयास करें।
उत्तर-डीवेरीज के अनुसार उत्परिवर्तन ही प्रजाति (स्पीशीज) की उत्पत्ति का कारण है। इन्होंने इसे साल्टेशन (विशाल उत्परिवर्तन का बड़ा कदम) बताया।
4. मानव-विकास के विभिन्न घटकों का पता करें (संकेत-मस्तिष्क साइज और कार्य, कंकाल-संरचना, भोजन में पसंदगी आदि)।
उत्तर-लगभग 15 मिलियन वर्ष पूर्व ड्रायोपिथिकस तथ रामापिथिकस नामक नरवानर विद्यमान थे। इन लागों के शरीर बालों से भरपूर थे तथा गोरिल्ला एवं चिंपैजी जैसे
चलते थे। रामापिधिकस अधिक मनुष्यों जैसे थे जबकि ड्रायोपिथिकस वनमानुष (रेप) जैसे थे। इथोपिया तथा तंजानिया (चित्र) में कुछ जीवाश्म (फॉसिल) अस्थियाँ मानवों जैसी प्राप्त हुई हैं। ये जीवाश्म मानवी विशिष्टताएँ
दर्शते हैं जो इस विश्वास को आगे बढ़ाती हैं कि 3-4 मिलियन वर्ष पूर्व मानव जैसे नर वानर गण (प्राइमेट्स) पूर्वी अफ्रीका में विचरण करते थे। ये लोग संभवतः ऊँचाई में 4 फुट’ से बड़े नहीं थे, लेकिन वे खड़े होकर सीधे चलते थे।
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चित्र : आधुनिक वयस्क मानव, शिशु चिपैजी और वयस्क चिंपैजी की खोपड़ियों की तुलना। शिशु चिंपैजी की खोपड़ी अधिक मानव सम है अपेक्षा वयस्क चिंपैजी की खोपड़ी के।
लगभग 2 मिलियन वर्ष पूर्व ओस्ट्रालोपिथेसिन (आदिमानव ) संभवत: पूर्वी अफ्रीका के घास स्थलों में रहता था। साक्ष्य यह प्रकट करते हैं कि वे प्रारंभ में पत्थर के हथियारों से शिकार करते थे, किन्तु प्रारंभ में फलों का ही भोजन करते थे। खोजी गई अस्थियों में से
कुछ अस्थियाँ बहुत ही भिन्न थीं। इस जीव को पहला मानव जैसे प्राणी के रूप में जाना गया और उसे होमो हैबिलिस कहा गया था। उसकी दिमागी क्षमता 650-800 सीसी के बीच थी। वे संभवत: मांस नहीं खाते थे। 1991 में जावा में खोजे गए जीवाश्म ने अगले चरण के बारे में भेद प्रकट किया। यह चरण था होमो इरैक्टस जो 1.5 मिलियन वर्ष पूर्व हुआ। होमो इरैक्टस का मस्तिष्क बड़ा था जो लगभग 900 सीसी का था। होमो इरैक्टस संभवत: मांस खाता था। नियंडरयाल मानव 1400 सीसी आकार वाले मस्तिष्क लिए हुए, 1,00,000 से 40,000 वर्ष पूर्व लगभग पूर्वी एवं मध्य एशियाई देशों में रहते थे।
वे अपने शरीर की रक्षा के लिए खालों का इस्तेमाल करते थे और अपने मृतकों को जमीन में गाड़ते थे। होमो सैंपियंस (मानव ) अफ्रीका में विकसित हुआ और धीरे-धीरे महाद्वीपों से पार पहुँचा तथा विभिन्न महाद्वीपों में फैल गया, इसके बाद वह भिन्न जातियों में विकसित हुआ। 75,000 से 10,000 वर्ष के दौरान हिमयुग में आधुनिक युगीन मानव पैदा हुआ। मानव ने प्रागैतिहासिक गुफा-चित्रों की रचना लगभग 18,000 वर्ष पूर्व की। कृषि कार्य लगभग 10,000 वर्ष पूर्व आरंभ हुआ और मानव बस्तियाँ बननी शुरू हुई। बाकी जो कुछ हुआ वह मानव इतिहास या वृद्धि का भाग और सभ्यता की प्रगति का हिस्सा है।
5. इंटरनेट (अंतरजाल-तंत्र) या लोकप्रिय विज्ञान लेखों से पता करें कि क्या मानवेत्तर किसी प्राणी में आत्म संचेतना थी।
उत्तर-हाँ, बहुत से जीव वैज्ञानिकों के अनुसार बहुत से प्राणियों में मानवेत्तर आत्म संचेतना थी।
6. इंटरनेट (अंतरजाल-तंत्र) संसाधनों का उपयोग करते हुए आज के 10 जानवरों और उनके विलुप्त जोड़ीदारों की सूची बनाएँ (दोनों के नाम दें)।
उत्तर-
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7. विविध जंतुओं और पौधों के चित्र बनाएँ।
उत्तर-
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चित्र : भूवैज्ञानिक कालों में पादपों के विकास का चित्र
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चित्र : भूवैज्ञानिक कालों में कशेरुकीयों का विकासीय इतिहास
8. अनुकूलनी विकिरण को एक उदाहरण द्वारा वर्णन करें।
उत्तर-एक विशेष भू-भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के विकास का प्रक्रम एक बिन्दु से शुरू होकर अन्य भू-भौगोलिक क्षेत्रों तक प्रसारित होने की अनुकूली विकिरण (ऐडेप्टिव रेडिएशन ) कहा गया। डार्विन की फिंच इस प्रकार की घटना का एक सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करती है। डार्विन अपनी यात्रा के दौरान गैलापैगों द्वीप गए थे। जहाँ पर उन्होंने प्राणियों में एक आश्चर्यजनक विविधता देखी। विशेष रुचिकर बात यह थी कि उन्हें एक काली छोटी चिड़िया ने विशेष रूप से आश्चर्यचकित किया। उन्होंने महसूस किया कि उसी द्वीप के अंतर्गत विभिन्न प्रकार के फिंच की प्रजाती पाई जाती है। जितनी भी किस्मों को उन्होंने परिकल्पित किया था, वे सभी उसी द्वीप में ही विकसित हुई थीं। ये पक्षी मूलत: बीजभक्षी विशिष्टताओं के साथ-साथ अन्य स्वरूप में बदलावों के साथ अनुकूलित हुए और चोंच के ऊपर उठने जैसे परिवर्तनों ने इसे कीट भक्षी एवं शाकाहारी फिंच बना दिया।
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चित्र : फिंच पक्षियों की चोंचों की विविधता जो डार्विन ने गैलपैंगोस द्वीप में देखी
एक अन्य उदाहरण ऑस्ट्रेलियाई मार्सपियल (शिशुधानी प्राणियों) का है। अधिकांश मासुंपियल जो एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे; एक पूर्वज प्रभाव से विकसित हुए और वे सभी आस्ट्रेलियाई महाद्वीप के अंतर्गत हुई हैं। जब एक से अधिक अनुकूली विकिरण एक अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्र में प्रकट होती है तो इसे अभिसारी विकास कहा जा सकता है। आस्ट्रेलिया के अपरास्तनी जंतु भी इस प्रकार के स्तनधारियों की किस्मों के विकास में अनुकूली विकिरण प्रदर्शित करती हैं, जिनमें से प्रत्येक मेल खाते मार्सपियल के समान दिखते हैं।
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चित्र : आस्ट्रेलिया के शिशुधानी प्राणियों के अनुकूली विचरण
9. क्या हम मानव विकास को अनुकूलनी विकिरण कह सकते हैं?
उत्तर-मानवीय विकास अनुकूलनी विकिरण नहीं है। लेकिन मानव में हम मांसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार के लोग पाते हैं।
10. विभिन्न संसाधनों जैसे कि विद्यालय का पुस्तकालय या इंटरनेट (अंतरजाल तंत्र) तथा अध्यापक से चर्चा के बाद किसी जानवर जैसे कि घोड़े के विकासीय चरणों को खोजें।
उत्तर-जीवाश्मों के अध्ययन के आधार पर घोड़े का विकास (Evolution of horse besed on the study of fossils)-घोड़े की जीवाश्म कथा जैव विकास होने का एक बहुत उपयुक्त, ठोस तथा ज्वलन्त प्रमाण है।
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चित्र : आधुनिक घोड़े के विकास के इतिहास में कुछ प्रावस्थाएँ
घोड़े के विभिन्न जीवाश्मों से पता चलता है कि इसका उद्भव (origin) लगभग 60 करोड़ वर्ष पूर्व उत्तरी अमेरिकी में इओसीन (Eocene) काल में हुआ था। इस जन्तु को इओहिप्पस Eohippus) का नाम दिया गया।
(i) इओहिप्पस (Eohippus)-इसको ‘Tiny dwarf horse’ या हाइरैकोथीरियम (Hyracotherium) भी कहते हैं। इओहिप्पस लगभग 30 सेमी. ऊँचा तथा लोमड़ी के
आकार का था। इसका सिर तथा गर्दन काफी छोटे थे। यह जंगलवासी था और पत्तियाँ तथा टहनियाँ खाता था। इसके अगले पैरों में चार क्रियात्मक पादागुंलियाँ थीं किन्तु पिछले पैरों में केवल तीन पादा[लियाँ थीं। पिछली टांगों की पहली तथा पांचवीं पादागुॅंलियाँ पृथ्वी तक नहीं पहुँचती थीं। इओसीन काल के बाद घोड़े के जीवाश्म
ओलीगोसीन (Oligocenc) काल में मिले। इनको मीसोहिप्पस (Mesohippus का नाम दिया गया। यह अनुमान लगाया गया कि मीसोहिप्पस का विकास इओहिप्पस से हुआ।
(ii) मीसोहिप्पस (Mesohippus)-यह इओहिप्पस से कुछ बड़ा लगभग भेड़ के आकार का था। इसकी अगली तथा पिछली टांगों में तीन-तीन अंगुलियाँ थीं। इनमें से बीच वाली अंगुली सबसे बड़ी थी और ऐसा प्रतीत होता है कि शरीर का बोझ इसी अंगुली पर रहता था। इसके मोलर दाँत अपेक्षाकृत बड़े थे। ओलीगोसीन काल के घोड़ों से मायोसीन काल के घोड़ों का विकास हुआ और विकास की कई दिशाएँ दिखायी देने लगी जैसे पैराहिप्पस (Parahippus), मेरीचिहिप्पस (Merichihippus) इत्यादि। ये घोड़े घास भी खाते थे तथा हरी पत्तियाँ और टहनियाँ भी।
(iii) मेरीचिहिप्पस (Merichihippus)-मेरीचिहिप्पस की ऊँचाई लगभग आज के टट्टू के बराबर थी। इसके आगे तथा पीछे दोनों टांगों में तीन-तीन पादांगुलियाँ थीं, लेकिन इनमें से केवल बीच वाली ही पृथ्वी तक पहुँचती थीं। एक अंगुली के कारण यह घोड़ा तेज दौड़ सकता था।
(iv) प्लिस्टोसीन काल में आधुनिक घोड़े इक्कस (Equus) का विकास उत्तरी अमेरिका में हुआ। इसकी ऊँचाई लगभग 1.50 मीटर थी। यह घोड़ा बाद में सभी द्वीपों में
(आस्ट्रेलिया को छोड़कर) प्रसारित हुआ।
प्लिस्टोसीन काल में उत्तरी अमेरिका में ही करीब 10जातियाँ पाई जाती थी। ये सभी जातियाँ धीरे-धीरे वातावरण में समन्वय न होने के कारण लुप्त हो गईं लेकिन जो जातियाँ यूरेशिया में आई थीं, वे जीवित रह गईं और उनका विकास धीरे-धीरे होता रहा।
इस प्रकार हमने देखा कि आज के घोड़े का इतिहास 60 करोड़ वर्ष पुराना है और किस तरह से एक लोमड़ी के आकार के घोड़े से 1.50 मीटर ऊँचाई का घोड़ा विकसित हुआ। यह ज्ञान संभव हुआ, केवल घोड़े के जीवाश्मों के अध्ययन से।
इन अध्ययनों के आधार पर हम निश्चितापूर्वक कह सकते हैं कि अन्य जीवधारियों का विकास भी इसी प्रकार हुआ होगा।
परीक्षोपयोगी अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न एवं उत्तर
I. वस्तुनिष्ठ प्रश्न :
1. जैव विकास का सिद्धांत किस बात की सही व्याख्या करता है?
(a) पादप तथा जन्तुओं की जातियों में भिन्नताएँ
(b) पदार्थ, ऊर्जा, जीवन
(c) जन्तुओं में जनन की प्रचुर क्षमता
(d) आनुवंशिकी सिद्धांत
उत्तर-(a) पादप तथा जन्तुओं की जातियों में भिन्नताएँ।
2. ऑर्किऑप्टेरिक्स रेप्टाइल तथा पक्षियों के बीच की एक संयोजी कड़ी है क्योंकि-
(a) इसमें रेप्टाइल तथा पक्षियों के लक्षण विद्यमान थे
(b) इसमें रेप्टाइल तथा स्तनियों के लक्षण विद्यमान थे
(c) यह एक रेप्टाइल था पक्षी नहीं था
(d) इसमें कशेरुकीयों तथा अकशेरुकीयों के लक्षण विद्यमान थे
उत्तर-(d)इसमें रेप्टाइल तथा पक्षियों के लक्षण विद्यमान थे।
3. कौन-सा मत व्यक्तिकृत जातिवृत्त की पुनरावृत्ति करता है की व्याख्या करता है?
(a) उत्परिवर्तन सिद्धांत
(b) वंशागति सिद्धांत
(c) पुनरावृत्ति सिद्धांत
(d) प्राकृतिक चयनवाद
उत्तर-(c) पुनरावृत्ति सिद्धांत।
4. जैव विकास के सिद्धान्त का मुख्य सम्बन्ध है-
(a) स्वतः उत्पादन से
(b) विशिष्ट सृष्टिबाद से
(c) धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तनों से
(d) वातावरण की स्थिति से
उत्तर-(c) धीरे-धीरे होने वाले परिवर्तनों से।
5. जीवाश्म कैसे बनते हैं?
(a) जन्तु प्राकृतिक रूप से दफनाए जाएँ
(b) जन्तुओं को परमार्जित नष्ट कर दें।
(c) जन्तुओं को उनकी शिकारी जातियाँ खा लें
(d) जन्तु वातावरण की परिस्थितियों द्वारा नष्ट हो जाएँ
उत्तर-(d) जन्तु वातावरण की परिस्थितियों द्वारा नष्ट हो जाएँ।
6. निम्न में कौन समजातता प्रदर्शित करते है?
(a) हवेल के चप्पू व मनुष्य के हाथ
(b) कबूतर के पंख व चमगादड़ के पंख
(c) पक्षी के पंख व तितली के पंख
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-(d) हवेल के चप्पू व मनुष्य हाथ।
7. जैव विकास की कौन-सी परिभाषा उचित है?
(a) किसी जाति का उन्नतिशील इतिहास
(b) जाति का विभिन्नताओं सहित इतिहास
(c) जाति का भ्रूणीय विकास
(d) जाति का वर्धन
उत्तर-(a) किसी जाति का उन्नतिशील इतिहास।
8. आर्कियोप्टेरिक्स किसका संयोजक जन्तु है?
(a) सरीसृप एवं स्तनी
(b) सरीसृप एवं पक्षी
(c) उभयचर एवं सरीसृप
(d) पक्षी एवं स्तनी
उत्तर-(b) सरीसृप एवं पक्षी।
9. किस समुद्री जहाज पर डार्विन ने प्रकृति का अध्ययन किया?
(a) बीगल
(b) सेन्चुरी
(c) सीगल
(d) नॉरवे
उत्तर-(a) बीगल।
10. डार्विन किसके कार्य से प्रभावित हुए?
(a) मॉल्थस
(b) वैलेस
(c) लियेल
(d) ये सभी
उत्तर-(b) मॉल्थस।
11. यदि एक जाति की जनसंख्या को अधिक उपयुक्त वातावरण में रखा जाये तो-
(a) शत्रुओं से सुरक्षित रहेगी
(b) इससे अधिक सदस्य जीवित रहेंगे
(c) प्रजनन की दर बढ़ जायेगी
(d) असीमित भोजन उपलब्ध होगा
उत्तर-(c) प्रजनन की दर बढ़ जायेगी।
12. सर्पों में टांगों का अभाव का कारण है-
(a) बिल में घुसते समय टांगें समाप्त हो जाती है
(b) जैव विकास में टांगें समाप्त हो गई हैं
(c) रेप्टाइल के पूर्वजों में टांगों का अभावधा
(d) छिपकलियों में टांगों का अभाव था
उत्तर-(b) जैव विकास में टांगें समाप्त हो गई हैं।
13. जैव विकास के संबंध में अंगों के उपयोग एवं अनुपयोग का मत किसने प्रस्तुत किया?
(a) डार्विन
(b) वीजमैन
(c) ह्यूगो डीवेरीज
(d) लमार्क।
उत्तर-(d) लमार्क।
14. जीवों का अनुकूलन होता है-
(a) निर्मोचन
(b) कायान्तरण
(c) वंशागत लक्षण
(d) उपार्जित लक्षण
उत्तर-(d) उपार्जित लक्षण।
15. आदि वातावरण में निम्न में से किसका अभाव था?
(a) नाइट्रोजन
(b)अमोनिया
(c) ऑक्सीजन
(d) मिथेन
उत्तर-(b)अमोनिया।
16. ब्रह्माण्डवाद के अनुसार पृथ्वी पर जीवन अन्य ग्रहों से किस रूप में आया?
(a) बीजाणु
(b) युग्मक
(c) बीज
(d) उक्त सभी रूपों में
उत्तर-(a)बीजाणु।
II. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :
1. खुले फ्लास्क में……….. को रखने से कुछ समय बाद नए जीव आ जाते हैं।
2. ……….ने 1953 में अपनी प्रयोगशाला में अमीनो एसिड बनाया था।
3.जीवन की………. से उत्पत्ति के सिद्धांत की स्वीकृति को आज बहुमत मिला है।
4. जो………….. में अधिक उपयुक्त थे उनकी अधिक संतानों हुई। अंत में उनका वरण होता गया।
5. जीवों के रूप विभिन्न कालों में प्रकट हुए। इन सभी को……………. प्रमाण कहा जाता है।
उत्तर-1 मृत यीस्ट,2. एस एल मिलर, 3. अजीवों,
4. वातावरण, 5. पुराजीवी।
III. निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सत्य है और कौन-सा असत्य है:
1. बीसवीं सदी के प्रथम दशक में ह्यूगो डीवेरीज में इवनिंग प्राइमरोंज पर काम करके म्यूटेशन के विचार को आगे बढ़ाया। ‘
2. डार्विन के अनुसार विकास क्रमबद्ध होता है जबकि डीवेरीज के अनुसार उत्परिवर्तन ही प्रजाति की उत्पत्ति का कारण है।
3. p²+2pg +q²= 11 यह (p+q)² की द्विपदी अभिव्यक्ति है, यह भिन्नता विकासीय परिवर्तन की व्यापकता का संकेत देती है।
4. सूक्ष्म जीवों में किए गए प्रयोग दर्शाते हैं कि जब पूर्व विद्यमान लाभकारी उत्परिवर्तनों का वरण होता है तब परिणामस्वरूप नए फीनोटाइपों का आविर्भाव होता है।
5. सन् 1938 में दक्षिण अफ्रीका में एक मछली पकड़ी गई थी जो सीलाकेंथि थी, जिसे विलुप्त मान लिया गया था।
6. आधुनिक युग के प्राणी पेंढक एवं सैलामैंडर जीवों के पूर्वज थे। यही प्राणी सरीसृपों के रूप में विकसित हुए।
उत्तर-1.सत्य, 2. सत्य, 3. सत्य,4. सत्य, 5. सत्य, 6. सत्या
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उत्तर-(a)-3.(b)-4, (c)-1, (d)-5, (e)- 8, (f)-6. (g)-2, (h)-7.
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. विकास की कहानी से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-विकास की कहानी जीवन की उत्पत्ति और पृथ्वी नामक ग्रह पर जीवन के रूपों का विकास या जैव विविधता की कहानी है, जोकि पृथ्वी के विकास एवं स्वयं ब्रह्मांड के विकास की पृष्ठभूमि के साथ सन्निहित है।
प्रश्न 2. बिग बैंग क्या है?
उत्तर-ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बन्धित बिग बैंग नामक एक सिद्धांत है जो हमें ब्रह्मांड की उत्पत्ति के विषय में बताने का प्रयास करती है।
प्रश्न 3. पृथ्वी की आयु के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर-‘मिल्की वे’ नामक आकाशगंगा के सौर-मंडल में पृथ्वी की रचना 450 करोड़ वर्ष मानी जाती है।
प्रश्न 4. लुई पाश्चर का जीवन के विकास से सम्बन्धित क्या मत था?
उत्तर-लुई पाश्चर ने सावधानीपूर्वक प्रयोगों को करते हुए यह प्रदर्शित किया कि जीव पहले से विद्यमान जीवन से ही निकल कर आता है।
प्रश्न 5. डार्विन के प्राकृतिक वरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-जीव या जीवों की संख्या में उपयुक्तता जनन संबंधी थी, जो वातावरण में अधिक उपयुक्त थे उनकी अधिक संतानें हुई। अंत में उनका वरण होता गया। डार्विन ने इसे प्राकृतिक वरण का नाम दिया।
प्रश्न 6. पुराजीवी प्रमाण से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर-जीव वैज्ञानिकों के अध्ययन बतलाते हैं कि समय-समय पर पृथ्वी पर जीवन के रूप बदलते रहे हैं और कुछ रूप विशेष भूवैज्ञानिक काल तक ही सीमित रहे। अर्थात् जीवों के रूप विभिन्न काला में प्रकट हुए। इन सभी को पैलेओंटोलोजिकल (पुराजीवी) प्रमाण कहा जाता है।
प्रश्न 7. अनुकूली विकिरण क्या हैं?
उत्तर-एक विशेष भू-भौगोलिक क्षेत्र में विभिन्न प्रजातियों के विकास का प्रक्रम एक बिन्दु से शुरू होकर अन्य भू-भौगोलिक क्षेत्रों तक प्रसारित होने को अनुकूली विकिरण कहते हैं।
प्रश्न 8. डार्विन को किसके कार्यों ने प्रभावित किया?
उत्तर-थॉमस माल्थस के समष्टि संदर्भ में किए गए कार्यों ने डार्विन को प्रभावित किया।
प्रश्न 9. आनुवंशिक संतुलन से आप क्या अभिप्राय रखते हैं?
उत्तर-जीन कोश सदा अपरिवर्तनीय रहते हैं, इसे आनुवंशिक संतुलन कहते हैं।
प्रश्न 10. आनुवंशिक अपवाह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-जीन के बार-बार संस्थानांतरण से जीन प्रवाह हो जाता है। यदि यह परिवर्तन संयोगवश होता है तो आनुवंशिक अपवाह (जेनेट्रिक ड्रिप्ट) कहलाता है।
प्रश्न 11. जीवधारियों में पाई जाने वाली विभिन्नता का क्या कारण रहा है?
उत्तर-जीवधारियों में पाई जाने वाली अभूतपूर्व विभिन्नता जीव विकास के कारण विकसित हुई।
प्रश्न 12. जीवाश्म किसे कहते हैं?
उत्तर-विभिन्न युगों में पाये जाने वाले जीवों के अवशेषों या चिह्नों को जीवाश्म कहते हैं।
प्रश्न 13. समजात अंग से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-वे अंग जो संरचना में समान होते हैं, चाहे कार्य भिन्न हों, समजात अंग कहलाते हैं।
प्रश्न 14. समरूप अंग क्या हैं?
उत्तर-वे अंग जो समान कार्य के लिए योजित होते हैं, एक से दिखाई देते हैं, लेकिन मूल रचना व मौलिकीय परिवर्धन में भिन्न-भिन्न होते हैं, समरूप अंग कहलाते हैं।
प्रश्न 15. अवशेषी अंग से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-जीवधारियों में पाये जाने वाले अंग जो पूर्वजों में क्रियाशील थे, लेकिन अब महत्त्वहीन हैं, अवशेषी अंग कहलाते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जीवन की उत्पत्ति के संदर्भ में लुई पाश्चर के प्रयोगों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-लुई पाश्चर का प्रयोग (Louis Pasteur’s Experiment)-लैजेरो स्पलैन्जानी के प्रयोग पर उनके विरोधियों ने कड़ी आपत्ति की। उनका कहना था कि स्वत: जनन के लिए वायु आवश्यक है। चूंकि लैजेरी ने फ्लास्क को बिल्कुल बंद कर दिया था, इस कारण नए जीवों की उत्पत्ति नहीं हो सकी।
स्वतः उत्पत्तिवाद के समर्थकों की इस आलोचना के जवाब में लुई पाश्चर (Louis Pasteur) ने सन् 1862ई में स्पलैन्जानी के प्रयोग को दोहराया-लेकिन थोड़े अलग ढंग से।
उन्होंने एक फ्लास्क में शोरबे को भली-भाँति उबाला और फ्लास्क की गर्दन को गर्म करके S के आकार में मोड़ दिया। बहुत दिनों तक रखे रहने के बावजूद फ्लास्क में जीवाणु पैदा नहीं हुए, क्योंकि मुड़ी हुई नली द्वारा वायु तो फ्लास्क में प्रवेश कर जाती थी, लेकिन वायु में उपस्थित जीवाणु तथा धूल के कण नली में ही बैठ जाते थे। इस प्रकार पाश्चर ने सिद्ध कर दिया कि जीवाणु रहित शोरबे में तब तक किसी जीवाणु की स्वतः उत्पत्ति नही हो सकती; जब तक बाहरी वातावरण से कोई जीवाणु इसमें न आ पहुँचे। अतएव रेड्डी, स्पलैन्जानी तथा पाश्चर के प्रयोगों से यह सिद्ध हो गया कि जीव केवल जीव से ही उत्पन्न हो सकता है (Life develops from pre-existing life only)। इस प्रकार स्वतः उत्पत्निवाद अब अमान्य हो गया।
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चित्र : लुई पाश्चर का प्रयोग।
प्रश्न 2. आदि पृथ्वी के विषय में मेल्विन केल्विन ने अपने प्रयोग द्वारा क्या स्पष्टीकरण दिया?
उत्तर-मेल्विन केल्विन (Melvin Kelvin) ने मिथेन, हाइड्रोजन तथा जल वाष्प के मिश्रण में गामा किरणें (gamma rays) को प्रवाहित करके अमीनो अम्ल, पिरामिडीन प्यूरीन तथा शर्कराएँ प्राप्त की।
ऐसा अनुमान है कि आदि पृथ्वी पर घर्षण विद्युत की अपेक्षा पराबैंगनी प्रकाश किरणें (ultraviolet rays) के रूप में अधिक ऊर्जा उपलब्ध थी। सी. सेगन (C.Segan) तथा उनके साथियों ने मिथेन, अमोनिया, जल-वाप्प तथा हाइड्रोजन सल्फाइड (H,S) के मिश्रण से पराबैंगनी प्रकाश की किरणें प्रवाहित करके अमीनो अम्ल प्राप्त किये। अमीनो अम्लों के संश्लेषण में कई बार फार्मेल्डिहाइड (HICHO) भी बना। इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि जीवधारियों के लिए आवश्यक सभी अमीनो अम्ल आदि वातावरणीय स्थितियों में बनाये जा सकते हैं। लेकिन इस प्रकार के संश्लेषण के लिए अपचयी वातावरण (reducing atmosphere) की आवश्यकता होती है। क्योंकि इस प्रकार के संश्लेषण की प्रक्रिया में बनने वाले पदार्थ स्वतंत्र ऑक्सीजन के सम्पर्क में आते ही नष्ट हो जाते हैं।
यूॅंकि पृथ्वी पर आजकल विद्यमान वायुमंडल में ऑक्सीजन स्वतंत्र रूप से उपलब्ध है, और वातावरण अपचयी न रहकर ऑक्सीकारक (oxidising) हो गया है इसलिए आजकल की परिस्थितियों में इस प्रकार का रासायनिक संश्लेषण संभव नहीं है।
प्रश्न 3. लैकमार्क के उपार्जित गुणों की वंशागति वाले सिद्धांत की सबसे अधिक आलोचना किसने की और क्यों की?
उत्तर-उपार्जित गुणों की वंशागति वाला उनका विचार सत्य नहीं प्रतीत होता। इस विचार को सबसे अधिक धक्का देने वाले वैज्ञानिक बीजमैन (Weismann) थे। उन्होंने उपार्जित गुणों की वंशागति होने के सिद्धांत की कटु आलोचना की। सन् 1880 से 1892 के बीच उन्होंने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि लगातार 80 पीढ़ियों तक चूहों की पूँछ काटते रहने पर भी बिना पूँछ वाले चूहों की उत्पत्ति नहीं हुई। इसके अतिरिक्त हम सभी जानते हैं कि एक डॉक्टर का पुत्र
पैदा होते ही डॉक्टर नहीं होता, और न ही एक पहलवान का पुत्र अत्यन्त शक्तिशाली होता है। हिन्दुओं में लड़कियों के नाक तथा कान छेदने की प्रथा सदियों से चली आ रही है, लेकिन नवजात शिशु में इसका लेशमात्र (trace) नहीं आता। इसी प्रकार अन्य अनेक उदाहरणों द्वारा सिद्ध किया जाता है कि उपार्जित गुण वंशागत नहीं होते।
वीजमैन का कहना था कि केवल वही लक्षण या गुण माता-पिता से संतान में आते हैं, जो प्राणी के जनन-द्रव्य (somatoplasm) वाले होते हैं, वे वंशागत नहीं होते।
प्रश्न 4. जीवन की उत्पत्ति के संदर्भ में डार्विन के दो प्रमुख योगदान क्या थे?
उत्तर-डार्विन के दो प्रमुख योगदान (Darvin’s two Important Contributions) –उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक ऐसा माना जाता था कि जीवधारियों की विभिन्न जातियों की वर्तमान रूप में ही अलग-अलग सृष्टि हुई। जातियों को अपरिवर्तनीय माना जाता था। चार्ल्स डार्विन (Charles Darwin) के दो मुख्य योगदान इस प्रकार हैं–
(i) जातियाँ अपरिवर्तनीय नहीं हैं। पहले से विद्यमान जातियों से ही नई जातियों की उत्पत्ति होती है। जीवधारियों की सभी जातियाँ एक ही पूर्वज से उत्पन्न हुई हैं।
(ii) किसी भी जाति में समयानुसार होने वाले छोटे-छोटे परिवर्तन कालान्तर में इकट्ठे होकर, मूल जाति से इतने अधिक भिन्न हो जाते हैं कि एक नई जाति का ही
उद्भव हो जाता है। वास्तव में, छोटे-छोटे परिवर्तनों के पीछे लाखों वर्षों में एकत्रीकरण के फलस्वरूप एककोशिकीय जीवधारियों से वर्तमान जटिल जीवधारियों की उत्पत्ति संभव हुई है।
उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर तथा अनेक क्षेपणों (observations)से प्राप्त प्रमाणों के आधार पर डार्विन (Darwin) ने जीवों के विकास की प्रक्रिया को समझाने के लिए एवं नई जातियों की उत्पत्ति के लिए जो विचार प्रस्तुत किये, उन्हें डार्विन का प्राकृतिक वरण (चयन) वाद (Darvin’s Theory of Natural Selection) या डार्विनवाद के नाम से जाना जाता है।
प्रश्न 5. डार्विन की व्याख्या को वैलेस ने कैसे स्पष्ट किया?
उत्तर-वैलेस का चार्ट-डार्विन की व्याख्या को बाद में वैलेस ने निम्नलिखित चार्ट द्वारा संक्षेप में स्पष्ट किया-
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प्रश्न 6. अनुकूलन किसे कहते हैं? अनुकूलताओं का
आनुवंशिक आधार क्या है?
उत्तर-अनुकूलन (Adaptation)-सफलतापूर्वक जीवित रहने व प्रजनन करने हेतु किसी जीवधारी का अपने वातावरण के अनुरूप ढलना ही प्रायः अनुकूलन कहलाता है। परन्तु इस शब्द, अनुकूलता का प्रयोग किसी ऐसे लक्षण के लिए भी किया जाता है, जो उसी जीवधारी को अपने पर्यावरण के अनुकूल ढलने में मदद करता है। मेंढक का त्रिकोणाकार तुंड (snout) पश्च पादों में जाल (web), चमगादड़ में पंख इत्यादि अनुकूलताएँ ही हैं।
अनुकूलताओं का आनुवंशिक आधार (Genetic basis of adaptation)-किसी भी जाति के जीवधारियों के बीच काफी विभिन्नताएँ पाई जाती हैं। कुछ लक्षण जीवधारियों को उनके वातावरण में जीवित रहने व प्रजनन करने में सहायक सिद्ध होती हैं, प्रकृति द्वारा इनका वरण होता है। फलस्वरूप, आगामी पीढ़ियाँ वातावरण के लिए अधिक उपयुक्त सिद्ध होती हैं। दूसरे शब्दों में, समष्टि (population) में पहले से ही विद्यमान विभिन्नताओं में से लाभदायक लक्षणों के चयन से ही जातियों में अनुकूलन होता है।
लैडरबर्ग एवं लैंडरवर्ग के प्रयोग से इस तथ्य का पुष्टिकरण होता है कि “अनुकूलन पूर्व विद्यमान विभिन्नताओं के चयन का परिणाम है।” लैंडरबर्ग एवं लैडरबर्ग ने पाया कि पैनिसिलीन-प्रतिरोधी (penicillin resistant) बैक्टीरिया की कॉलोनियाँ सभी अगार प्लेटों पर एक जैसी थीं (यहाँ तक कि मास्टर प्लेट में भी)। इसी प्रकार पेनिसिलीन के लिए संवेदनशील (penicillin-susceptible) कॉलोनियाँ भी सभी अगार प्लेटों पर एक-सी थीं। इससे स्पष्ट होता है कि पेनिसिलीन-प्रतिरोधी बैक्टीरिया उत्परिवर्ती पहले से ही मास्टर प्लेट अर्थात् मूल समष्टि (original population) में मौजूद थे।
प्रश्न 7. चयन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-चयन (Selection)-पुनः संयोजन तथा उत्परिवर्तनों के फलस्वरूप किसी भी जाति की समष्टि में विभिन्नताएँ उत्पन्न हो जाती हैं। परन्तु केवल चयन (selection) की प्रक्रिया द्वारा ही यह सुनिश्चित होता है कि कौन से वंशागत लक्षणों का प्रसार होना है, जिससे कि समष्टि अपने पर्यावरण के अधिक अनुकूल बन सके। इस स्थिति में प्राकृतिक वरण (natural selection) विभेदी जनन (differential reproduction) के रूप में कार्य करता है, अर्थात् वही जीव वयस्क होकर संतानोत्पत्ति में सफल होते हैं, जो तत्कालीन पर्यावरण में योग्यतम सिद्ध होंगे।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. जीवन के उत्पत्ति के संदर्भ में आधुनिक परिकल्पना क्या है?
उत्तर-आधुनिक परिकल्पना (Modern hypothesis)- आधुनिक वैज्ञानिकों ने प्रमाणित कर दिया है कि जीवन की उत्पत्ति लगभग 3.5 अरब वर्ष पूर्व इसी पृथ्वी पर रासायनिक पदार्थों से हुई। जीवन के उद्भव के पूर्व आदिकालीन पृथ्वी पर केवल रासायनिक पदार्थ ही थे। प्रथम जीव की उत्पत्ति इन्हीं रासायनिक पदार्थों के संगठन से हुई।
ओपेरिन-हेल्डाने के विचार (View of Oparin and Haldane)-सन् 1924 ई. में ए. आई ओपेरिन (A.I. Oparin) नामक रूसी जीव-रसायनशास्त्री ने “दि ओरिजिन ऑफ लाइफ’ (The Origin of Life) नामक मोनोग्राफ प्रकाशित किया। पृथ्वी पर जीवन के उद्भव
के विषय में हमारी वर्तमान विचारधारा इसी पर आधारित है। उसके बाद सन् 1936 में एक ब्रिटिश जीव वैज्ञानिक जे. बी. एस. हेल्डाने भी लगभग इसी प्रकार के निष्कर्षों पर पहुँचे। सन् 1936 में ही ओपेरिन ने अपने विचारों को एक पुस्तक, ‘दि ऑरिजिन ऑफ लाइफ’ (The Origin of Life) में विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया। अन्य वैज्ञानिकों ने अब उनके विचारों को गंभीरतापूर्वक लिया। निर्जीव रसायनों से सजीवों की उत्पत्ति में होने वाली जिन प्रक्रियाओं की ओपेरिन ने कल्पना की थी, वे वास्तव में संभव है भी या नहीं। इसके परीक्षण के लिए विभिन्न प्रयोगशालाओं में अनेक प्रयोग भी किये गये। इनमें से कुछ प्रयोगों से प्राप्त परिणामों की मदद से हमें काफी हद तक उन संभावित प्रक्रियाओं की जानकारी हो गई हैं, जिनके फलस्वरूप संभवत: पृथ्वी पर जीवन की
उत्पत्ति हुई होगी।
ओपेरिन के विचारानुसार आदि काल से पृथ्वी पर विद्यमान समुद्रों में कार्वनिक पदार्थों के अणुओं की प्रचुर मात्रा थी। इस समुद्री जल को, कार्बनिक सूप (Organic soup) कहा गया। कालान्तर में, ये रासायनिक अणु एक-दूसरे से सम्बद्ध होते गये और जटिल अणुओं व सम्मिश्रों (complexes) का निर्माण हुआ। इनमें से कुछ अणु ऐसे थे-
(i) जिनके चारों ओर एक झिल्ली उपस्थित थी, इस झिल्ली के द्वारा ये जटिल अणु ‘कार्बनिक सूप’ में डूबे रहने के बावजूद पृथक् पहचान बनाये रख सकें;
(ii) जो अपने चारों ओर उपस्थित ‘कार्बनिक सूप’ से वांछित रासायनिक पदार्थों का अवशोषण कर सकते थे।
(iii) जो विभाजित होकर अपने ही जटिल अणु को जन्म दे सकते थे (अर्थात् प्रजनन कर सकते थे)।
इसी प्रकार के जटिल सम्मिनों (complexes) जिनमें उपापचय, वृद्धि तथा प्रजनन जैसे गुण उपस्थित रहे होंगे, इस पृथ्वी पर प्रथम जीवधारी रहे होंगे। आदिकाल के ये जीवधारी, आधुनिक काल में उपस्थित सरलतम सूक्ष्मजीवों की तुलना में भी कहीं अधिक सरल रहे होंगे और ओपेरिन ने इनको कोएसरवेटिव्स (coacervatives) कहा।
इस प्रकार ओपेरिन की परिकल्पना निम्नलिखित अभिधारणाओं (assumptions) पर आधारित है-
(i) आदिकाल में पृथ्वी की रचना व वायुमंडल आज जैसी न थी।
(ii) आदि समुद्र में रासायनिक पदार्थ इतनी प्रचुर मात्रा में थे कि वे आसानी से आपस में अभिक्रिया करके उन जटिल कार्बनिक अणुओं का निर्माण कर सकें जो जीवधारियों की रचना के लिए आवश्यक है।
(iii) इन रासायनिक अणुओं की अन्तक्रिया के लिए आवश्यक ऊर्जा भी उपलब्ध थी।
खगोल विज्ञान (astronomy), भूगर्भ विज्ञान (geology), तुलनात्मक जीव रसायन शास्त्र (comparative bio-chemistry) आदि विज्ञान की अनेक शाखाओं में उपलब्ध ज्ञान के आधार पर भी ओपेरिन की परिकल्पना किसी भी अन्य परिकल्पना की तुलना में कहीं अधिक
युक्तिसंगत लगती है।
ओपेरिन द्वारा प्रतिपादित जीवन की प्रक्रिया को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से तीन प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है-
(क) आदि पृथ्वी (Primitive earth)।
(ख) रासायनिक विकास (Chemical evolution)।
चरण 1- साधारण अणुओं का निर्माण।
चरण 2-कार्बनिक अणुओं का निर्माण।
चरण 3-जटिल कार्बनिक यौगिकों का निर्माण।
चरण 4-न्यूक्लिओप्रोटीन का निर्माण।
(ग) जैव विकास (Organic crolution) :
चरण 5 कोएसरवेट्स का निर्माण।
चरण6-आदि कोशिका कानिर्माण।
चरण 7-स्वपोषण की उत्पत्ति।
चरण 8-यूकरियोटी कोशिकाओं की उत्पत्ति
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चित्र : जीवन की उत्पत्ति – ओपेरिन के अनुसार
प्रश्न 2. जीवन की उत्पत्ति के संदर्भ में मिलर एवं यूरे ने क्या प्रयोग किये?
उत्तर-मिलर एवं यूरे का प्रयोग (Miller and Urey’s experiment )-ओरिन-हेल्डाने के विचारों की जाँच करने के लिए स्टैनले मिलर (Stanley Miller) तथा हैरोल्ड सी यूरे (Harold.C.Urey) ने प्रयोगशाला में उन्हीं परिस्थितियों की पुनर्रचना की कोशिश की जैसा कि ओपेरिन के अनुसार पृथ्वी पर आदि काल में ही होगी। इसके लिए उन्होंने एक विशेष उपकरण बनाया। पांच लीटर के एक बड़े फ्लास्क में अमोनिया, मिथेन तथा हाइड्रोजन गैसों को 2:2:1 के अनुपात में मिलाया, क्योंकि यही गैसें शायद इसी अनुपात में आदि वायुमंडल में उपस्थित थीं। आधे लीटर के एक फ्लास्क को कांच की नली द्वारा बड़े फ्लास्क से जोड़ दिया तथा इसमें जल भर दिया गया, जिसको निरन्तर उबालने का भी प्रवन्ध किया गया ताकि जल वाष्य पूरे उपकरण में घूलती रहे। आदि वायुमंडल में कड़कती हुई बिजली का वातावरण पैदा करने के लिए बड़े फ्लास्क में टंगस्टन के बने दो इलैक्ट्रॉड लगाये गये। इन इलैक्ट्रॉडो के बीच 66,000 वोल्ट की विद्युतधारा को 7-8 दिन तक प्रवाहित करके तीव्र विद्युत चिंगारियाँ पैदा की गयी। प्रयोग के अन्त में बनी गैस जब कन्डेन्सर (संघनित्र) के कारण ठंडी हुई तोयू-नली (U-tube) में एक गहरे लाल रंग का तरल पदार्थ भर गया। इस तरल पदार्थ का रासायनिक विश्लेषण करने पर उन्होंने पाया कि इसमें ग्लाइसिन, अलानिन तथा एस्पार्टिल अम्ल जैसे कई अमीनो अम्लों सहित अनेक जटिल कार्बनिक यौगिक विद्यमान थे।
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चित्र : मिलन एवं यूरे द्वारा पृथ्वी के आदि वातावरण की पुनर्रचना हेतु प्रयुक्त स्फुलिंग-विसर्जन उपकरण
मिलर तथा यूरे के प्रयोग से इस बात की पुष्टि हुई कि कार्बन, हाईड्रोजन, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन के रासायनिक संयोग से विभिन जटिल यौगकों का निर्माण होता है, जोकि जैविक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
मिलर एवं यूरे के निष्कर्षों का अन्य वैज्ञानिकों द्वारा पुष्टिकरण (Verification of Miller and Urey’s conclusion by other scientists)-स्टैनले मिलर तथा यूरे के प्रयोगों से प्रभावित होकर अन्य वैज्ञानिकों ने भी विभिन्न प्रकार की गैसों के मिश्रणों तथा ऊर्जा स्रोतों (जिनकी आदि पृथ्वी पर होने की संभावना थी) को लेकर इसी प्रकार के प्रयोग किये।
प्रश्न 3. जैव विकास के संदर्भ में लैगार्क का मत क्या कहता है?
उत्तर-लैमार्कवाद (Lamarchkism)-जैव विकास के सम्बन्ध में सर्वप्रथम अपने विचार रखने वाले फ्रांस के प्रसिद्ध प्रकृति जीन बैप्टिस्टे डी लैमार्क (Jean Baptiste de Lamarck. 1744-1829) थे। इनके मत को जैव विकास के सिद्धांत के रूप में माना जाता है। लैमार्क ने 1809 में एक पुस्तक ‘फिलासफीक जूलोजीक’ (Philosophique Zoologique) नाम से प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध सिद्धांत की घोषणा की। लैमार्क के सिद्धांत को उपार्जित लक्षणों की वंशागति का सिद्धान्त (Theory of Inheritance of Acquired Characters) भी कहते हैं। उन्होंने अपने इस सिद्धांत में यह बताने का प्रयास किया है कि किस प्रकार सरल संरचना वाले जीवों से धीरे-धीरे जटिल संरचना वाले जीवों का विकास हुआ है, या होता है।
लैमार्क का सिद्धांत निम्न तथ्यों पर आधारित है-
(i) वातावरण का सीधा प्रभाव (Direct influence of environment)-प्रत्येक प्राणी पर वातावरण का सीधा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण उसकी संरचना स्वभाव में परिवर्तन होता है। उन्होंने कहा कि पौधों पर यह प्रभाव प्रत्यक्ष रूप पड़ता है, जबकि प्राणियों पर अप्रत्यक्ष रूप से उसके तंत्रिका तंत्र के माध्यम से पड़ता है।
(ii) अंगों के कम या अधिक प्रयोग का प्रभाव (Effect of use and disuse of organs)-किसी अंग का निरंतर उपयोग उस अंग को शक्तिशाली तथा अधिक क्रियाशील बनाता है, जबकि कम उपयोग के कारण अंगों की वृद्धि रुक जाती है तथा उनका हास (degeneration) होने लगता है। ये अंग अवशेषी अंगों (vestigial organ) के रूप में रह जाते हैं या लुप्त भी होने लगते हैं। इस धारणा के कारण लैमार्कवाद को ‘अंगों के कम या अधिक उपयोग का सिद्धांत’ (Theory of use and disuse of organs) भी कहते हैं।
(iii) उपार्जित लक्षणों की वंशागति (Inheritance of acquired characters)- लैमार्क का अनुमान था कि कोई भी प्राणी अपने जीवनकाल में जितने भी गुण (लक्षण) अर्जित करता है वे सभी उसकी आने वाली पीढ़ी में वंशागत हो जाते हैं। ऐसे लक्षणों को उपार्जित लक्षण (acquired character) तथा इनके संतान में पहुँचने की क्रिया को उपार्जित लक्षणों की वंशागति (inheritance of acquired characters) कहते हैं। यदि उपार्जित लक्षणों की वंशागति का क्रम अधिक समय तक चलता रहे तथा संतानों में भी नवीन परिवर्तन होते रहे तो अन्त में जीवों में ऐसे लक्षण विकसित हो जाते हैं। जिनसे जीव अपने पूर्वजों से सम्पूर्ण रूप से भिन्न हो
जायेंगे। इस प्रकार नयी जाति का निर्माण (origin of new species) हो जाता है।
प्रश्न 4. लैमार्कवाद के संदर्भ में दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर-लैमार्कवाद का उदाहरण (Examples of Lamarckism)-
(i) अफ्रीकी जिराफ (African Giraffe)-लैमार्क ने अपने सिद्धान्त को समझाने के लिए जिराफ (Giraffic) की लम्बी गर्दन का उदाहरण दिया। उनके अनुसार जिराफ के पूर्वजों में न तो लम्बी गर्दन ही थी और न ही लम्बी टांगें, क्योंकि उस समय इन प्राणियों को काफी भोजन (हरी घास, पत्ते) इत्यादि बहुत आसानी से मिल जाता था। धीरे-धीरे जिस क्षेत्र में वे रहते थे वहाँ की जलवायु बदली, जिसके फलस्वरूप मैदानों में घास सूखने लगी और हरी झाड़ियाँ समाप्त हो गई। ऊँचे पेड़-पौधे रह गये और वह भाग रेगिस्तान बनने लगा। ऐसी बदलती हुई परिस्थितियों में जिराफ के पूर्वजों को अपनी गर्दन तथा अगले पैर उचकाकर पेड़ों से अपना भोजन प्राप्त करना पड़ा। लगातार इसी तरह अपनी गर्दन तथा अगली टांगों को प्रयोग में लाने से ये दोनों अंग अधिक विकसित हो गये और आने वाली पीढ़ियों में पर्याप्त लम्बे हो गये।
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चित्र : जिराफ की गर्दन तथा अग्रपादों का विकास
(ii) सर्प (Snake)-लैमार्क के अनुसार सर्प का विकास वातावरण के प्रभाव से हुआ। प्रारंभ में सर्पो की टाँगें थीं। सो को घास-फूस, झाड़ियों में दौड़ने, बिलों में घुसने के लिए टांगें रुकावट डालती रहीं। टांगों का उपयोग न होने से वह धीरे-धीरे छोटी होती गयीं तथा अंत में बिलकुल
समाप्त हो गयी तथा शरीर पतला व लम्बा हो गया। इस परिवर्तन में हजारों वर्ष लगे। यही गुण वर्तमान सर्पो में स्थायी लक्षण बन गया।
प्रश्न 5. डार्विन का प्राकृतिक वरणवाद क्या है? चर्चा कीजिए।
उत्तर-डार्विन का प्राकृतिक वरणवाद (Darwin’s Theory of Natural Selection)-चार्ल्स डार्विन का जन्म सन् 1809 में हुआ था। वे एक धनी चिकित्सक के पुत्र थे। सन् 1831 में डार्विन एच. एम. एस. बीगल (H.M.S. Beagle) नामक जहाज पर अवैतनिक प्रकृतिविद् बनकर यात्रा पर गये। इस विशेष यात्रा का मुख्य उद्देश्य गैलापैगों द्वीप समूह का सर्वेक्षण तथा वहाँ के वन्य प्राणियों का अध्ययन करना था। ये द्वीप कभी दक्षिणी अमेरिका की मुख्य भूमि का हिस्सा थे। अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने अनेक द्वीपों एवं महाद्वीपों का सर्वेक्षण
किया; अनेक जीव-जन्तु, चट्टानें व जीवाश्म एकत्रित किये तथा इन पर टिप्पणियाँ लिखीं। इस सर्वेक्षण के दौरान के उनके कुछ निरीक्षण इस प्रकार हैं-
(i)रीआ(शुतुरमुर्ग की तरह की पक्षी) जो दक्षिण अमेरिका में पाये जाते हैं, दक्षिणी अमेरिका के ही सभी स्थानों पर समरूप नहीं थे।
(ii) आर्माडिलो के कुछ जीवाश्म जो उन्होंने ढूँढ़े, आज के आर्माडिलो से आकृति में काफी बड़े थे, लेकिन रचना में एक-से ही प्रतीत होते थे।
(iii) गैलापैगों द्वीपों एवं दक्षिणी अमेरिका के मुख्य स्थल का वातावरण एक-सा होते हुए भी दोनों स्थानों के प्राणी एवं पौधे एक-से नहीं थे।
(iv) ‘तूती’ या फिंच (Finch)(एक प्रकार का पक्षी), में भी उन्होंने विविधताएँ विशेष रूप से देखीं। उन्होंने देखा कि गैलापैंगो द्वीप की तूतियाँ, मुख्य स्थल की तूतियाँ तथा अन्य आस-पास के द्वीपों की तूतियाँ एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। उन्होंने यह भी देखा कि कुछ बीज खाती हैं,कुछ फल खाती हैं तथा कुछ कीटों को खातं हैं। डार्विन के लिए यह एक परेशानी का विषय था।
वह ईश्वर को तथा विशिष्ट सृजनवाद को मानते थे। उन्होंने अपने आपसे प्रश्न किया कि क्या ईश्वर ने हर प्रकार के जीव की सृष्टि पृथ्वी के अलग-अलग भागों के लिए पृथक् रूप से की? इसका उत्तर खोजने के लिए उन्होंने प्रमाणों को इकट्ठा करना शुरू किया। लगभग20वर्ष वह इसी समस्या पर कार्य करते रहे और अपने विचारों को लेखों के रूप में प्रकाशित करते रहे।
सन् 1838 में डार्विन को जी. आर. माल्थस (T..R.Malthus) का एक लेख ‘On the Principles of Population’ पढ़ने को मिला जिसमें यह बताया गया था कि प्राणियों मेंसमष्टि (population) जिस दर से बढ़ रही है, उस दर से उसका भोजन तथा रहने के लिए स्थान
उपलब्ध नहीं हो पाता, जिसके परिणामस्वरूप ‘जीवन के लिए संघर्ष’ होता है। डार्विन ने सोचा कि क्या यह सिद्धांत अन्य जीवों के लिए लागू हो सकता है? बस इसी विचार ने एक नये विचार को जन्म दिया- ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ (Survival of the fitert) अर्थात् बढ़ती हुई आबादी के फलस्वरूप तथा भोजन की कमी के कारण जीवों में सदैव संघर्ष होता रहता है और वे ही जीव जीवित रह पाते हैं, जो योग्यतम होते हैं।
इसी दौरान एक अंग्रेज वैज्ञानिक एल्फ्रेड रसेल वैलेस (Alfred Russel Wallace,1823-1931) ने जाति के उद्भव (Origin of Species) पर एक लेख डार्विन के पास भेजा उसमें भी वही विचार थे, जो डार्विन ने सोचे थे। डार्विन बड़े संकोच में पड़ गये। लेकिन उनके कुछ दोस्तों के बीच-बचाव के कारण डार्विन तथा वैलेस के शोध कार्य संयुक्त रूप से रॉयल लीनियस सोसायटी की सभा में 1 जुलाई, 1858 को पेश किये गये। लेकिन अगले ही वर्ष वैलेस ने डार्विन की श्रेष्ठता स्वीकार कर ली। इसके बाद डार्विन की बहुचर्चित पुस्तक ‘प्राकृतिक वरण द्वारा जाति का विकास’ (Origin of Species by Natural Selection) जैव विकास के सिद्धान्त के रूप में प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में उन्होंने जैव विकास की क्रिया को उदाहरण सहित प्रस्तुत किया तथा कहा कि प्राणी अपने को वातावरण के अनुकूल बनकर ही जीवित रहते हैं तथा संतान उत्पन्न करते हैं। इसके विपरीत, जो जीव अपने को वातावरण के अनुसार बनाने में असमर्थ होते हैं, कुछ समय पश्चात् समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार प्रकृति में जीवों की बढ़ती हुई आबादी को रोकने के लिए एक प्रकार का प्राकृतिक वरण’ (natural selection) होता है।
प्रश्न 6. जाति के उद्भव में बहुगुणिता की क्या भूमिका रही है?
उत्तर-जाति के उद्भव में बहुगुणिता की भूमिका (Role of Polyploidy in Species Formation)-प्रायः जीवधारियों की कायिक कोशिकाओं (somatic cells) में गुणसूत्रों के दो सेट होते हैं जिनको द्विगुणित या 2n कहते हैं। अर्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप जनन कोशिकाएँ बनती हैं जिनमें गुणसूत्रों का एक सेट होता है। इसे अगुणित (haploid) कहते हैं। एक जाति के सदस्यों में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित होती है। परन्तु प्राय: पौधों में गुणसूत्रों के कई सेट भी कोशिकाओं में देखने को मिलते हैं। वे जीवधारी जिनकी संख्या में गुणसूत्रों के दो से अधिक सेट पाये जाते हैं, उन्हें बहुगुणित (polyploid) कहते हैं। 3, 4, 5, 6…….. इत्यादि सेट वाले जीवधारी क्रमशः त्रिगुणित (triploid), चतुर्गुणित (tetrapolid),पंचगुणित (pentaploid),
घटगुणित (haxoploid) इत्यादि कहलाते हैं। जंतुओं में बहुगुणिता दुर्लभ होती है जबकि पौधों की लगभग एक-तिहाई जातियाँ बहुगुणित हैं।
बहुगुणिता का एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण गेहूँ में देखने को मिलता है। गेहूँ के तीन वर्ग है-आइन्कोर्न वर्ग में 14 गुणसूत्र (2n = 14), एमर वर्ग में 28 (4n), तथा वलगेरी वर्ग में (6n) गुणसूत्र होते हैं। इस श्रृंखला से संकेत मिलता है कि गेहूँ के तीनों वर्ग एक बहुगुणित क्रम बनाते हैं जिनमें गुणसूत्रता की संख्या द्विगुणित, चतुगुणित तथा पद्गुणित हैं।
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चित्र : बहुगुणिता द्वारा गेहूँ की विभिन्न किस्मों का विकास