Bihar board 9th class sanskrit notes | ईशस्तुति:
Bihar board 9th class sanskrit notes | ईशस्तुति:
Bihar board 9th class sanskrit notes
वर्ग – 9
विषय – संस्कृत
पाठ 1 – ईशस्तुति:
ईशस्तुति:
(उपनिषद: भगवद् गीता चेति जीवनस्य अभ्युदयाय विकेसित: अमूल्या ग्रंथा:। उपनिषद: अनेकेषाम् ऋषीणां विचारान् प्रकटयन्ति भगवद् गीता तू केवलस्य योगेश्वरस्य कृष्णस्य। उभयत्रापि प्रमात्मन: सर्वशक्तिसम्पन्नतता दर्शिता । अस्मिन् पाठे तस्यैव परमेश्वरस्य स्तुति: वर्तते)
(उपनिषद् और भगवद् गीता जीवन की उन्नति के लिए रचित अमूल्य ग्रंथ है। उपनिषद् अनेक ऋषियों के विचारों को प्रकट करतें है। भगवद् गीता केवल योगेश्वर कृष्ण के विचारों वयक्त को करता है। उपनिषदों और गीता दोनों मे परमात्मा को सर्वशक्तिसम्पन्न दिखाया गया हैं। ईस पाठ मे उसी परमेश्वर की स्तुति की गयी है।)
1.यतों वाचो निवर्तन्ते आप्राप्य मनसा सह।
आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान न विभेती कुतश्चन।।
(तैतिरिय 2.9)
सन्धि विच्छेद : यतो वाचो = यतः+वाच: । ब्रह्मणो विद्वान्= ब्रह्मण:+विद्वान्। कुतश्चन= कुत:+चन।
शब्दार्थ : यतः=क्योंकि। वाचा:=वाणी(बहुवचन )। निवर्तन्ते=लौट जाती है। मनसा=मन का। सह=साथ। आनन्दं=आनंद स्वरुप। ब्रह्मण:=ईशवर। विद्वान्=जानने वाला(सर्वज्ञ) । विभेति=डरता है। कुतश्चन=किसी से भी।
अन्वय : वाचः मनसा सह अप्राप्य (ईश्वरात्) निवर्तन्ते यतः (सः) आनन्दं विद्वान् ब्रह्मण: कुतश्चन न विभेती
हिन्दी अनुवाद : (हमारी) वाणी मन का साथ नही पाकर ईश्वर के पास से लौट जाती है क्योंकि (वह) आनंद स्वरूप सर्वज्ञ ईश्वर किसी से भी नहीं डरता।
व्याख्या : यह श्लोक तैतिरिय उपनिषद् से लिया गया है। इसमे यह बताया गया है कि ईश्वर के पास के लिए हमारी वाणी को मन का साथ चाहिए। अर्थात स्तुति (ईश्वर की पुकार) मनसा, वचसा, कर्मणा तीनों रूपों में होनी चाहिए। तभी ईश्वर हमारी पुकार सुनता है। क्योंकि परमात्मा आनन्दस्वरूप और सर्वज्ञ है। वह किसी से भी डरता नही। हमारी ऊँची आवाज से डरकर वह हमारी बात कभी नही सुनेगा। अतः ईश्वर तक पहुँचने के लिए हमारी वाणी को हमारे मन तथा कर्म का साथ चाहिए।
2.असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योर्तिगमय।
मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
सन्धि विच्छेद : ज्योर्तिगमय।= ज्योतिः+गमय । मृत्योर्मा =मृत्यो:+मा। असतो मा=असतः+मा। तमसो मा =तमसः+ मा।
शब्दार्थ : असतः =अस्तित्व से, असत्य से। सत्=अस्तित्व, सत्य। तमसः=अंधकार से। ज्योति:=प्रकाश। गमय=ले चलो, ले जाओ। मा=मुझको, मुझे। मृत्यो:=मृत्यु से। अमृतं= अमरता को।
अन्वय : मा असतो (असतः) सद्गमय मा तमसो (तमसः) ज्योतिः गमय। मा मृत्यो: अमृतं गमय।
हिन्दी अनुवाद : (हे परमात्मा) मुझे अनस्तित्व (असत्य) से अस्तित्व (सत्य) की ओर अज्ञान के अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
व्याख्या : प्रस्तुत श्लोक बृहदाण्यक उपनिषद् से लिया गया है। इसमे ऋषि ईश्वर से यह प्राथना करता है कि मुझे असत्य जगत के बंधन से मुक्त कर सत्यरूप परमात्मा का बोध कराओ। ज्ञानरूपी प्रकाश से मेरे अज्ञान रूपी अंधकार को दूर कर दो। ऋषि को यह बोध तो है ही कि शरीर की तो मृत्यु होगी ही अतः प्राथना करते हैं मुझे यश और कीर्तिरूपी अमरता प्रदान करो।
3. एको देवः सर्वभूतेषु गूढ़:। सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा। कर्माधयक्ष: सर्वभूताधिवास:। साक्षी चेता: केवलो निर्गुणश्च।।
सन्धि विच्छेद: सर्वभूतान्तरात्मा=सर्वभूत+अंतः+आत्मा कर्माधयक्ष:=कर्म+अध्यक्ष: सर्वभूताधिवास:=सर्वभूत+अधिवास:। निर्गुणश्च=निर्गुण +च।
शब्दार्थ: सर्वभूतेषु = सभी जीवों में। एको = एकः = एक। गुढः = छिपा हुआ, रहस्मय। सर्वव्यापी = सब जगह व्याप्त। सर्वभूतान्तरात्मा = सभी प्राणियों तथा
पदार्थों के भीतर स्थित आत्मा। कर्माध्यक्ष = सभी कार्यों का संचालक, सभी कर्मों का नियन्त्रण करने वाला। सर्वभूताधिवासः = सभी जीवों में रहने वाला। साक्षी द्रष्टा, गवाह। चेताः = चेतना रूप में। निर्गुणः = गुणरहित। अन्वय.: एकः देवः (ईश्वरः) सर्वभूतेषु गुढः। (सः) सर्वव्यापी सर्वभवभूतान्तरात्मासः) कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः। (सः) च निर्गुणः चेताः केवलो साक्षी।
हिन्दी अनुवाद: एकमात्र परमात्मा ही सभी प्राणियों में छिपा हुआ है। वह सर्वत्रस्थि स्थित रहने वाला सभी प्राणियों के भीतर स्थित आत्मा है। वह सारे कार्य व्यापारों का नियंता तथा सभी प्राणियों के भीतर निवास करने वाला है। (इतना कुछ होते हुए भी)
वह गुणरहित चेतना रूप में केवल (हमारे कर्मों का) साक्षी (द्रष्टा) है।
व्याख्या: श्वेताश्वर उपनिषद् से संकलित ‘ ईशस्तुति ‘ पाठ के इस श्लोक में उपनिषद् के रचयिता ईश्वर को निर्गुण बताते हुए कहते हैं कि एकमात्र वही सभी जीवों में वर्तमान है। सभी की आत्मा में स्थित है। सारे कार्य-व्यापारों का नियन्त्रणकर्ता एक मात्र वही ईश्वर है जो साक्षी और चैतन्यरूप सबके हृदय में वास करता है।
4. त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः
त्वमस्य विश्वस्य
परं निधानम्।
वेत्तासि वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं विश्वमनन्तरूप ॥
(गीता 11.38)
सन्धि विच्छेद: त्वमादिदेवः त्वम् + आदि देवः। त्वमस्य = त्वम् + अस्य। वेत्तासि = वेत्ता + आसि। विश्वमनन्तरूपम् = विश्वम् + अनन्तरूपम्।
शब्दार्थ: आदि देवः आदि कारण, परमात्मा। पुराणः = प्राचीन: पुराना, पुरातन। अस्य विश्वस्य = इस विश्व के। परं = श्रेष्ठ। निधानम् = धन, आश्रय, सहारा। वेत्ता = जानने वाले। असि = हो। वेद्यं = जानने योग्य। परं च धाम = श्रेष्ठ धाम = मोक्ष। अनन्तरूप = असंख्य रूपों वाला। त्वया = तुम्हारे द्वारा, ततम् =व्याप्त।
अन्वय: (हे ईश्वर) त्वम् आदि देवः पुराणः पुरुषः च त्वम् अस्य विश्वस्य परं निधानम्। (त्वम्) वेत्ता च वेद्यं च परं धाम असि। अनन्तरूपं (इदं) विश्वं त्वया (एव) ततम्।
हिन्दी अनुवाद: हे प्रभो! तुम्हीं आदि देव और पुरातन पुरुष हो। तुम इस विश्व के सबसे बड़े आश्रय हो। तुम ही जानने वाले और जानने योग्य तथा श्रेष्ठ धाम हो।
(यह) अनन्तरूप विश्व तुम्हारे द्वारा ही व्याप्त है।
व्याख्या: प्रस्तुत श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता के अध्याय ग्यारह का अड़तीसवाँ श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए अर्जुन कहते हैं कि हे प्रभो तुम ही आदिदेव और पुरातन पुरुष हो। इस विश्व का सबसे बड़ा आश्रय भी तुम्हीं हो। तुम सब कुछ जाननेवाले हो और जानने योग्य भी तुम्ही हो। सभी भूतों के श्रेष्ठ धाम भी तुम्हीं हो यह पूरा विश्व जो अनन्तरूप दृष्टिगोचर है, वह तुम्ही से व्याप्त है। अर्थात्
यह सारा विश्व तुम्हारे ही अनन्त रूपों में व्यक्त है।
5. नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।
अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वं
सर्वं समाप्नोषि ततोऽसि सर्वः ।।
(गीता 11.40)
सन्धि विच्छेद : पुरस्तादथ = पुरस्तात् + अथ। पृष्ठतस्ते = पृष्ठतः + ते। नमोऽस्तु = नमः + अस्तु। अनन्तवीर्यामितविक्रमस्त्वम् = अनन्तवीर्य + अमितविक्रमः + त्वम्। समाप्नोषि = सम + आप्नोषि। ततोऽसि = ततः + असि।
शब्दार्थ: पुरस्तात् = आगे से। अथ = उसके बाद, और पृष्ठतः पीछे से (भी)
अस्तु = हो। सर्वतः = सभी ओरों से। सर्व = हे सर्वात्मन्। अनन्तवीर्य =
अनन्तसामर्थ्यशाली। अमित विक्रमः = असीमित-पराक्रमशाली। सम = बराबर।
आप्नोषि = समाहित किये हुए हो। ततः = व्याप्त। सर्वः = सब कुछ।
अन्वय: (हे) सर्व! ते पुरस्तात् अथ पृष्ठतः नमः। ते सर्वतः (मम) नमः अस्तु। (हे) अनन्तवीर्य।अमित विक्रमः त्वं सर्व समाप्नोषि। (त्वं) सर्वः ततः असि।
हिन्दी अनुवाद : हे सर्वात्मन! आपको आगे से तथा पीछे से नमस्कार है। आपको सब ओरों से (मेरा) नमस्कार है। हे अनन्त सामर्थ्यशाली! असीमित पराक्रमी आप सब कुछ को समाहित किये हुए हैं। आप सर्वत्र व्याप्त हैं।
व्याख्या: ‘ ईशस्तुतिः ‘ का यह श्लोक गीता के ग्यारहवें अध्याय का चालीसा श्लोक है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए अर्जुन का भाव है कि भगवान अनन्त सामर्थ्यशाली और असीमित पराक्रमी हैं। वह सब कुछ को अपने में समाहित किये हर तरह हुए हैं से। नमस्कार यह सब करते कुछ हैं उन्हीं। से व्याप्त है। अतः अत्यन्त श्रद्धावान् होकर वह उन्हें हर तरह से नमस्कार करते हैं।
अभ्यासः (मौखिकः)
1. एकपदेन उत्तरं वदत
(क) ईश्वरात् काः निवर्तन्ते?
(ख) केन सह ताः निवर्तन्ते?
(ग) ब्रह्मणः किं स्वरूपम्?
(घ) कः न बिभेति?
(ङ) तमसः कुत्र गन्तुमिच्छति?
उत्तर- (क) ईश्वरात् वाचः निवर्तन्ते।
नोट – उत्तर केवल एक पद मे मांगा जा रहा है। अतएव, छात्रों को केवल वाच: बोलना या लिखना चाहिए। शिक्षक द्वारा प्रश्न किया जाएगा और छात्र केवल एक पद ही बोलेंगे।
(ख) मनसा (ग) आनन्दम्।
(घ) आनन्दः ब्रह्मणः विद्वान्। (ङ) ज्योतिः।
2. एतानि पद्यानि एकपदेन मौखिक रूपेण पूरयत
(क) यतो वाचो………..। (निवर्तन्ते)
(ख) आनंद ब्रह्मणो……….। (विद्वान्)
(ग) सर्वभूतेषु…………। (गूढ:)
(घ) केवलो…………। (निर्गुणश्च)
(ङ) त्वमस्य विश्वस्य परं……। (निधानम्)
3. एतेषां पदानाम् अर्थं वदत-
विद्वान् = जाननेवाला, पंडित
गूढः = छिपा हुआ
बिभेति = डरता है
कुतश्चन = किसी से भी
ततम् = व्याप्त
4. स्वस्मृत्या काञ्चित् संस्कृतप्रार्थनां श्रावयत
त्वमेव माता च पिता त्वमेव
त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव
त्वमेव विद्या द्रविडं त्वमेव
त्वमेव सर्वं मम देव देव।
अभ्यासः (लिखितः)
1. संधिविच्छेदं कुरुत
(क) कुतश्चन = कुतः + चन
(ख) ज्योतिर्गमय ज्योतिः + गमय
(ग) वेत्तासि = वेत्ता + असि
(घ) नमोऽस्तु = नमः + अस्तु
(ङ) ततोऽसि = ततः + असि
2. प्रकृति-प्रत्यय-विच्छेदं कुरुत
(क) अप्राप्य = नब् + प्र + आप् + ल्यप्
(ख) विद्वान् = विद् + शतृ
(ग) गूढः = गुह् + क्त
(घ) ततम् = तत् + क्त
(ङ) वेद्यम् = विद् + ण्यत्
3. समासविग्रहं कुरुत
(क) सर्वभूतेषु = सर्वाणि भूतानि तेषु
(ख) कर्माध्यक्षः = कर्मणाम् अध्यक्षः
(ग) अनन्तरूपः = अनन्तानि रूपाणि यस्य सः
(घ) सर्वभूताधिवासः = सर्वभूतानाम् अधिवासः
(ङ) अमितविक्रमः = अमित: विक्रमः
4. रिक्त स्थानानि पूरयत
(क) ………मा सद्गमय। (असतो)
(ख) तमसो मा …….. गमय। (ज्योति 🙂
(ग) नमः …..पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते। (पुरस्ता)
(घ) वेत्तासि …… च …. च धाम। (वेद्यम्/ परम्)
5. अधोनिर्दिष्टानां पदानां स्ववाक्येषु प्रयोगं कुरुत
(क) बिभेति = प्रवरः सर्पात् बिभेति।
(ख) निवर्तते = प्रखर: गृहात् निवर्तते।
(ग) वेत्ता = ईश्वर: वेत्ता अस्ति।
(घ) सवर्तः = ग्रामं सर्वतः पर्वता: सन्ति।
(ङ) नमः = श्रीगणेशाय नमः।
अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न और उत्तर
‘ उपनिषद् ‘ से आप क्या समझते हैं? संपेक्ष में लिखें
उत्तर- उपनिषद् एक वेदांग है। यों तो इसकी संख्या 108 है; परन्तु प्रमुख रूप से 10 उपनिषदों को इस प्रकार बाँटा गया है
(1) ऐतरेय उपनिषद् – ऋग्वेद से सम्बद्ध
(11) ईशावास्योपनिषद् – शुक्लयजुर्वेद से सम्बद्ध
(111) बृहदारण्यकोपनिषद् – शुक्लयजुर्वेद से सम्बद्ध
(iv) तैत्तिरीयोपनिषद् – कृष्णयजुर्वेद से सम्बद्ध
(v) कठोपनिषद् – कृष्णयजुर्वेद से सम्बद्ध
(vi) केनोपनिषद् – सामवेद से सम्बद्ध
(vii) छान्दोग्योपनिषद् – सामवेद से सम्बद्ध
(viii) मुण्डकोपनिषद् – अथर्ववेद से सम्बद्ध
(ix) माण्डूक्योपनिषद् – अथर्ववेद से सम्बद्ध
(x) प्रश्नोपनिषद् – अथर्ववेद से सम्बद्ध
उपनिषदों में वेदों की व्याख्या की गई है। इनमें ब्रह्म, आत्मा, अद्वैत, सृष्टि, प्राण, कर्म सिद्धांत, वैराग्य, ज्ञान आदि के उपदेश हैं।
2. सबसे छोटी उपनिषद् का नाम लिखकर बताएँ कि इसमें कुल कितने मंत्र हैं।
उत्तर – सबसे छोटी उपनिषद् माण्डूक्योपनिषद् है, जिसमें कुल 12 मंत्र हैं।
3. गीता का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर- गीता महाभारत के भीष्मपर्व का अंश है। इसमें कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया है। निराश व्यक्ति को जीवन में कर्म के प्रति प्रवृत्त करना ही इसका उद्देश्य है। इसमें 700 श्लोक हैं जो 18 अध्यायों में विभक्त हैं। बालगंगाधर तिलक महात्मा गाँधी और विनोबा भावे ने इसकी स्वतंत्र रूप से व्याख्या की है। स्वाधीनता संग्राम में इसकी बहुत बड़ी भूमिका रही है।
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