Bihar Board Class 10 Hindi | साहित्यिक गद्यांश
Bihar Board Class 10 Hindi | साहित्यिक गद्यांश
1. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
विद्यापति के समय में भारत में आमतौर से दिल्ली सल्तनत का राज्य था। इसे स्पष्ट रूप से कहा जाए कि विद्यापति के जीवन काल में दिल्ली पर तुगलक और लोदी वंश का शासन था। जाहिर है कि विद्यापति के जन्म के बहुत पहले भारत में इस्लाम का आगमन हो चुका था और दिल्ली सल्तनत भी बहुत पहले स्थापित हो चुकी थी। भारत की जनता ने काफी पहले दिल्ली
सल्तनत को स्वीकार कर लिया था, बावजूद इसके कि पूरे देश पर दिल्ली सल्तनत का शासन नहीं था। लेकिन व्यवहार में उनका प्रभुत्व देश पर था । ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में विद्यापति ने कीर्तिलता और कीर्तिपताका की रचना की । खुसरो और विद्यापति में फर्क यह है कि खुसरो दिल्ली में रहते थे और विद्यापति मिथिला में । दिल्ली में दिल्ली सल्तनत की राजधानी थी, फलतः
खुसरो का उससे सीधा लगाव था । मिथिला दिल्ली से बहुत दूर देश के पूर्वी क्षेत्र का अंग होने के कारण केन्द्रीय सत्ता में होनेवाली उथल-पुथल के तात्कालिक प्रभाव से दूर रही है । मिथिला में, जो अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक समय तक तुर्क आक्रमणों से अछूती रही थी, संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास हुआ, क्योंकि वहाँ भारी संख्या में ब्राह्मण एकत्र हो सके जिन्होंने अपनी कृतियों में संस्कृत साहित्य की परंपरा को सुरक्षित रखा । इस कथन का महत्त्व इस बात को ध्यान
में रखकर समझा जा सकता है कि दिल्ली सल्तनत के शासनकाल में फारसी के राजभाषा हो जाने से संस्कृत का महत्त्व कम हो गया और इसी कारण समाज में ब्राह्मणों का महत्त्व भी घट गया। मिथिला में संस्कृत भाषा-साहित की परंपरा और ब्राह्मणों का प्रभाव कायम रहने के बावजूद विद्यापति के समय में बदलाव आया । मिथिला पर असलान शाह का हमला भी हुआ और भाषा-साहित्य के अखिल भारतीय परिदृश्य का प्रभाव भी पड़ा । इतिहासकार राधाकृष्ण चौधरी लिखते हैं, “विद्यापति के समय में इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच भी एक प्रकार का आदान-प्रदान शुरू हो चुका था और उत्तर विहार उस समय सूफियों का एक प्रधान केंद्र बन चुका था । महाराज शिव सिंह ने कुछ मुसलमान संतों और फकीरों को जो दान दिया था उसका प्रमाण भी मिला है। हिंदू-मुसलमान का संबंध मिथिला-क्षेत्र में काफी अच्छा था और ज्योतीरीश्वर ठाकुर के ‘वर्ण
रत्नाकर’ में जो विदेशी अरबी-फारसी शब्द है, इससे यह सिद्ध होता है कि राजनीतिक आधिपत्य के बहुत पूर्व ही मिथिला का अरबी-फारसी से संपर्क हो गया था ।
प्रश्न:
(1) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दें ।
(ii) विद्यापति ने किस राजनीतिक परिस्थिति में ‘कीर्तिलता’ और कीर्तिपताका’ की रचना की?
(iii) मिथिला में संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास क्यों संभव हुआ?
(iv) दिल्ली सल्तनत के शासन काल में संस्कृत एवं ब्राह्मणों का महत्त्व क्यों कम हो गया ?
(v) विद्यापति के समय में दिल्ली पर किस वंश का आधिपत्य था।
(vi) ‘सुरक्षित’ और केंद्रीय’ शब्दों का निर्माण किन प्रत्ययों के योग से हुआ है ? ‘इत’ और ‘ईय’ प्रत्यय के योग से दो-दो शब्द बनाएँ।
उत्तर-(i) शीर्षक : ‘विद्यापति के युग की राजनीतिक परिस्थिति’ ।
(ii) विद्यापति के जीवन-काल में दिल्ली में तुगलक और लोदी वंश का राज्य था । भारत में इस्लाम का आगमन हो चुका था और दिल्ली सल्तनत की भी स्थापना हो चुकी थी । दिल्ली सल्तनत का प्रभुत्व पूरे देश पर था । इसी राजनीतिक परिस्थिति में विद्यापति ने ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ की रचना की ।
(iii) मिथिला दिल्ली से बहुत दूर देश के पूर्वी क्षेत्र का अंग होने के कारण केंद्रीय सत्ता में होनेवाली उथल-पुथल के तात्कालिक प्रभाव से दूर थी और भारत के अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक समय तक तुर्क आक्रमणों से अछूती रही । अतः, वहाँ भारी संख्या में ब्राह्मण एकत्र हुए और अपनी कृतियों में संस्कृत-साहित्य की परंपरा को सुरक्षित रखा । इस प्रकार, मिथिला में संस्कृत विद्या के एक केंद्र का विकास हुआ ।
(iv) दिल्ली सल्तनत के शासन काल में फारसी राजभाषा के रूप में स्वीकृत थी । फलस्वरूप संस्कृत का महत्त्व घट गया और इसी कारण समाज में ब्राह्मणों का महत्त्व भी कम हो गया ।
(v) विद्यापति के समय में दिल्ली पर तुगलक और लोदी वंश का आधिपत्य था।
(vi) ‘सुरक्षित’ और ‘केंद्रीय’ शब्दों में क्रमशः ‘इत’ और ‘ईय’ प्रत्यय का योग हुआ है। ‘इत’ और ‘ईय’ प्रत्यय के योग से क्रमशः ‘सुरक्षित’ और ‘केंद्रीय’ शब्दों का निर्माण हुआ है।
‘इत’ प्रत्यय से बने दो शब्द : कल्पित (कल्प + इत), केंद्रित (केंद्र + इत) ‘ईय’ प्रत्यय के योग से बने दो शब्द : राष्ट्रीय (राष्ट्र + ईय), क्षेत्रीय (क्षेत्र + ईय)
2. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
साहित्यकार का हृदय और मस्तिष्क रेडियो के ग्राहक-यंत्र से भी ज्यादा संवेदनशील होता है। उसकी वाणी की अभिव्यक्ति में ध्वनि-विस्तारक यंत्र से भी ज्यादा प्रभाव होता है । साहित्यकार के शक्तिपूर्ण स्वर में थोड़ी भी कर्कशता नहीं होती । वह विपत्ति में भी अपनी शालीनता नहीं खोता और उसकी वाणी में वीभत्सता का नामोनिशान नहीं होता । वह किसी पर
कीचड़ नहीं उछालता, अपितु कीचड़ के कलुषित स्थल को वह धोकर परिमार्जित और परिष्कृत करने में रुचि लेता है, सच्चा साहित्यकार मानवता की उपासना करता है। वह स्वयं दीन रहकर दूसरों के दैन्य को दूर करने का प्रयास करता है । वह अपने अभिमान की अपेक्षा दूसरों के अभिमान की रक्षा करने को अधिक महत्त्व प्रदान करता है । वह यदि सेवा का दायित्व अपने कंधों पर
लता है तो उसमें शासन की दुर्गंध को नहीं आने देता । उसके उपदेश में कांता से अधिक माधुर्य होता है। उसकी कठोरता लोक मंगल के लिए होती है, अपनी महत्ता प्रदर्शित करने के लिए नहीं होती । पुजाने की अपेक्षा वह पूजने के लिए अधिक लालायित रहता है । दंभ, पाखंड, प्रपंच और छल-कपट से वह कोसों दूर रहता है । सच्चा साहित्यकार अपने दोषों की उपेक्षा नहीं रता । अपने विपरीत मत का अनुकूल मत से भी अधिक स्वागत करता है तथा सफलता-विफलता
सता हुआ अपना कर्तव्य पालन करता है ।
पर ध्यान नहीं देकर वह बराबर
प्रश्न:
(i) उपर्युक्त गद्यांश पर एक उपयुक्त शीर्षक दें ।
(ii) साहित्यकार (साहित्यिक ) के हृदय और मस्तिष्क तथा वाणी की तुलना लेखक ने किससे की है?
(iii) साहित्यिक क्या पसंद करता है ?
(vi) साहित्यकार यदि कठोर बनता है तो किसके लिए ?
(v) साहित्यकार किन दुर्गुणों से दूर रहता है ?
(vi) साहित्यकार किसे महत्त्व देता है ?
उत्तर-(i) शीर्षक : साहित्यिक (साहित्यकार) के विशिष्ट गुण ।
(ii) लेखक ने साहित्यकार के हृदय और मस्तिष्क की तुलना रेडियो के ग्राह्य-यंत्र से और वाणी की तुलना ध्वनि-विस्तारक यंत्र से की है।
(iii) साहित्यिक (साहित्यकार) कीचड़ उछालने की अपेक्षा कीचड़ से कलुषित हुए (गंदा हुए) स्थल को धोकर उसे परिमार्जित और परिष्कृत करना अधिक पसंद करता है ।
(iv) (साहित्यिक) साहित्यकार अपने जीवन में कभी कठोर बनता भी है तो लोकमंउल के लिए, अपने लिए नहीं ।
(v) साहित्यकार दंभ, पाखंद आदि दुर्गुणों से दूर रहता है ।
(vi) वह शक्ति की अपेक्षा शील और सौंदर्य को अधिक महत्त्व देता है।
3. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
यह कोई अनहोनी बात नहीं थी कि प्रारंभ में छायावाद का विरोध हुआ था। नई प्रवृत्ति का होता ही है । पर, छायावाद का विरोध इसके स्थापित होने के बाद भी किया गया। आचार्य शुक्ल को छायावाद का विरोधी माना जाता है । पर, वे प्रारंभिक दौर के विरोधी थे।
अंतिम दौर के विरोधी आलोचढ़ देवराज ने ‘छायावाद का पतन’ लिखा । नामवर सिंह ने ‘कविता के नए प्रतिमान’ में छायावाद में पर्याप्त भावुकता देखी है । इसके पहले वे ‘छायावाद’ नामक पुस्तक में इस काव्य का वैभव-विश्लेशण कर चुके थे । इसके बावजूद खड़ी बोली हिंदी कविता के इतिहास का अद्यावधि स्वर्णयुग छायावाद को ही माना गया है । रामविलास शर्मा ने ‘निराला’ को तुलसीदास के बाद हिंदी का श्रेष्ठ कवि माना है । लोकप्रियता में महादेवी वर्मा की तुलना किसी
से नहीं की जा सकती । यदि इस काव्य-प्रवृत्ति की अनुपम भाव-समृद्धि और लोकप्रियता का कारण खोजा जाता है तो इससे बाद की कविता की स्थिति पर प्रकाश डाला जा सकता है। भक्तिकाव्य के बाद हिंदी साहित्य का सबसे महत्त्वपूर्ण काव्यांदोलन छायावाद है । भक्तिकाव्य का आधार भक्ति-आंदोलन था और छायावाद का स्वाधीनता-आंदोलन । भक्ति-आंदोलन अखिल भारतीय था । सारी भारतीय भाषाओं और बोलियों में भक्ति-काव्य रचा गया। स्वाधीनता आंदोलन
में इस दौर में महान कवि पैदा हुए । द्विवेदी युग की कविता पर भी स्वाधीनता-आंदोलन का प्रभाव कुछ ऐसा ही था जिसने साहित्य को व्यापक रूप से प्रभावित किया। भारत की सभी भाषाओं है, किंतु उसमें कल्पना का समावेश नहीं है । रचनाधर्मिता में स्वातंत्र्य का अर्थ कल्पना है । बीसवीं विरोध प्रायः भी शताब्दी का चौथा दशक हिंदी साहित्य का सर्वाधिक सर्जनात्मक दशक है । इसी से ‘कामायनी ‘राम की शक्तिपूजा’, ‘सरोज-स्मृति’, ‘गोदान’ जैसी कालजयी कृतियाँ लिखी गई । छायावारी । के साहित्य में हिंदी प्रदेश का विषम यथार्थ और उस विषमता से रहित स्थिति का स्थान न अभिव्यक्त एवं सह-स्थित हैं।
प्रश्न:
(i) दिए गए गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखें ।
(ii) भक्ति-काव्य और छायावाद का आधार क्या है?
(iii) छायावाद के तीन विरोधी आलोचकों के नाम बताएँ । डॉ. नामवर सिंह । छायावाद का विरोध किस आधार पर किया ?
(iv) ‘छायावाद का पतन’ के रचनाकार कौन हैं ? ‘छायावाद’ नामक उनके ग्रंथ डॉ० नामवर सिंह ने किसका विश्लेषण किया है ?
(v) किस आलोचक ने तुलसी के बाद ‘निराला’ को हिंदी का सबसे बड़ा कवि माना
(vi) प्रेमचंद के कथा-साहित्य तथा छायावादी काव्य में क्या अंतर है?
उत्तर-(i) शीर्षक : ‘छायावाद’ का स्वरूप
(ii) भक्ति-काव्य का आधार भक्ति-आंदोलन था और छायावाद का आधार स्वाधीनता-आंदोलन।
(iii) छायावाद के तीन विरोधी आलोचक हैं : आचार्य रामचंद्र शुक्ल, देवराज एवं डॉ. नामवर सिंह । डॉ० नामवर सिंह ने छायावाद का विरोध इस आधार पर किया कि छायावाद में अतिशय भावुकता है, जीवन का यथार्थ पर्याप्त रूप में चित्रित नहीं है।
(iv) ‘छाचावाद का पतन’ शीर्षक आलोचनात्मक ग्रंथ के रचयिता देवराज हैं। ‘छायावाद’ नामक अपनी समीक्षात्मक रचना में डॉ. नामवर सिंह ने छायावाद के काव्य-वैभव का विश्लेषण किया है।
(v) डॉ० रामविलास शर्मा ने ‘निराला’ को तुलसी के बाद हिंदी का सबसे बड़ा कवि माना है।
(vi) प्रेमचंद के कथा-साहित्य में विषय यथार्थ चित्रित है और छायावादी काव्य में स्वप्न चित्रित है । छायावाद का स्वज स्वप्निल स्वप्न नहीं है, वह यथार्थी स्वप्न है।
4. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कहानी अपनी कथा-वृत्ति के कारण संसार की प्राचीनतम विधा है। गल्प, कथा, आख्यायिका, कहानी इन अनेक नामों से आख्यात-विख्यात कहानी का इतिहास विविध कोणीय है । युगान्तर के साथ कहानी में परिवर्तन हुए है और इसकी परिभाषाएँ भी बदली हैं । कहानी का रंगमंचीय संस्करण हैं एकांकी । इसी तरह उपन्यास का रंगमंचीय संस्करण है नाटक । लेकिन,
उपन्यास और कहानी अलग-अलग हैं । कहानी में एकान्वित प्रभाव होता है, उपन्यास में समेकित
प्रभावान्विति होती है । कहानी को बुलबुला और उपन्यास को प्रवाह माना गया है। कहानी टार्चला है,
किसी एक बिन्दु या वस्तु को प्रकाशित करती है, उपन्यास दिन के प्रकाश की तरह शब्दों को समान रूप से प्रकाशित करता है । कहानी में एक ओर एक घटना ही होती है । उपन्यास में प्रमुख और गौण कथाएँ । कहानी ध्रुपद की तान की तरह है, आरम्भ होते ही समाप्ति का सम-विषम उपस्थित हो जाता है । उपन्यास शास्त्रीय संगीत का आलाप है । आलाप में आधी रात गुजर जाती है । कुछ लोग दर्शक दीर्घा में सो जाते हैं, कुछ घर लौट जाते हैं । पर कहानी शुरू हो गयी तो पढ़ने वाले को खत्म तक पहुँचने को लाचार कर देती है चाहे परोसा गया खाना ठंडा हो या डाकिया दरवाजे पर खड़ा है। कहानी प्रमुख हो जाती है। उपन्यास पुस्तक से
निकलकर पाठक के साथ शौचालय, शयनगृह, चौराहा-सड़क सर्वत्र चलने लगता है।
(क) उपर्युक्त गद्यांश का एक समुचित शोर्ष दें।
(ख) ‘कहानी’ अन्य किन नामों से आख्यात-विख्यात है ?
(ग) कहानी और उपन्यास में मुख्य अन्तर क्या है ?
(घ) उपन्यास पुस्तक से निकल कर पाठक के साका कहाँ-कहाँ चलने लगता है ?
(ङ) कहानी पाठक को किस प्रकार लाचार कर देती है ?
(च) संसार की प्राचीनतम विधा कहानी क्यों है ?
उत्तर-(क) कहानी और उपन्यास
(ख) गल्प, कथा और आख्यायिका आदि नामों से कहानी आव्यात विख्यात है।
(ग) कहानी और उपन्यास में मुख्य अन्तर निम्नलिखित हैं-
कहानी में एकान्वित प्रभाव होता है जबकि उपन्यास में समेकित प्रभावान्विति होती है
(ii) कहानी लघु कलेवर की होती है, उपन्यास वृहत कलेवर की रचना होता है
(ii) कहानी एक ही कथा होती है लेकिन उपन्यास में मुख्य घटना के साथ-साथ अनेक गौण कथाएँ होती हैं ।
(घ) उपन्यास पुस्तक से निकलकर पाठक के साथ शौचालय, शयनगृह, चौराहा-सड़क सर्वत्र जाने लगता है
(ङ) जब भी कोई कहानी पढ़ना प्रारंभ करता है तो अन्त जानने के लिए वह पाठक को लाचार कर देती है।
(च) कहानी संसार की प्राचीनतम विधा है क्योंकि सृष्टि के आरंभ के साथ ही कहानी का भी आरंभ माना जाता है । कहानी के पश्चात् ही अन्य साहित्यिक विधाओं
उपन्यास, नाटक की रचना हुई।
5. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कबीर ने अपने युग की जीती-जागती रोजमर्रा की भाषा में अपनी बानियों की रचना की है । उन्होंने अपनी कविताओं में विभिन्न स्रोतों से शब्दों का चयन किया है । उन्होंने जन-प्रचलित संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के पारिभाषिक शब्दों के साथ अरबी-फारसी के भी शब्द लिए है।
यह काल आधुनिक भाषाओं के उत्थान का काल है । अतः, खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी के शब्द-संगीत तथा उच्चारण ने कबीर की रचनाओं में विस्मयपूर्ण ढंग से सजीवता का संचार किया है । रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कबीर की भाषा की सृजनशीलता का उल्लेख करते हुए लिखा है-“कबीर में कई तरह के रंग हैं, भाषा के भी और संवेदना के भी । हिंदी की बहुरूपी प्रकृति उनमें खूब खुली है ।”
कबीर जिस शोषित-पीड़ित जनता को संबोधित कर रहे थे, उसके सगे अनुभवों की संपदा से ही शब्द, वाक्यांश, मुहावर, क्रियापद और चुस्त उक्तियाँ छाँट लिया करते थे । कीर सादि मध्यकालीन संतों ने सिद्धों-नाथों की वाचिक परंपरा को परिष्कृत किया था । संतों की बानियों पर जनसाधारण के संघर्ष और क्लेशपूर्ण जीवनानुभवों की गहरी छाप परिलक्षित हाती है । सत्य की आँच में तपी और ढली कबीर की काव्यभाषा में एक ओर यदि दो टूक खरापन है, तो दूसरी ओर उस जमाने की पीड़ित मानवता के लिए करुणा और गहरी आत्मीयता है । आलोचनात्मक
मूल्यांकन के नवीन नानदण्डों की दृष्टि से देखा जाए तो पता चलता है कि भाषिक संरचना में कबीर ने तनाव के कंपन की रक्षा की है । तार्किकता और प्रेम की सहानुभूति के बीच सेतु भी है और संघर्ष भी । कहना यही चाहिए कि कबीर की राजनात्मकता इसी तनी हुई प्रत्यंचा पर टंकार प्रतिध्वनित करती है जिससे संभावित अर्थों के गवाक्ष (झरोखे) खुलने लगते हैं।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दें।
(ii) कबीर नेनी बानियों की रचना किस भाषा में की है ?
(iii) कबीर ने किन-किन स्रोतों से अपनी कविताओं के लिए शब्दों का चयन किया कबीर की कविताओं में अपर्व सजीवता का संचार किस आधार पर संभवमा
(iv) कधीर ने विधिन रेशी-विदेशी सोतों से अपनी कविताओं के लिए शब्दों का चयन किया अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी आदि के शब्द-संगीत के उपयोग से अपनी बानियों को अद्भुत ढंग है?
” प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कबीर की भाषा के संबंध में क्या कर संतों की पापियों पर किसकी है। कबीर अपनी भाषा का सृजन कि आधार पर कर रहे थे।
उत्तर- शीर्थक । कचोर को कालपापा का सौर
(v) कचौर ने अपनी बानियों की रचना अपने पुरा की जीती-जागती रोजमर्रा की भाणा । है। रेशो स्रोतों में संस्कृत, प्राकृत तथा अपश के जन-प्रचलित शब्द हैं तथा विदेशी प्रोता। अरबी-फारसी के वह प्रचलित शब्द हैं। से सजोन बनाया है । (खड़ी बोली, ब्रजभाषा, अवधी, राजस्थानी, भोजपुरी आदि के शब्द संगीत
(vi) प्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कचीर की भाषा के बारे में लिखा है कि कवी को भाषा बहुरंगी है । हिंदी को बहुरूपी प्रकृति उनकी भाषा में खूब खुली है ।
(vii) संतों की चानियों पर जनसाधारण के संघर्ष और कष्ट से परिपूर्ण जीवन अनुभवों की गहरी है।
कबीर ने अपने समय की दलित-पीड़ित जनता के सगे अनुभवों की निधि से शब्द, वाक्यांश, मुहावरे, क्रियापद तथा चुस्त उक्तियों का चुनाव किया और उनके सार्थक प्रयोग से अपनी काव्य भाषा का सृजन किया।
6. निम्नलिखित गद्यांश को पड़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कृष्णभक्ति परंपरा में राधा-कृष्ण को आराध्य मानकर बड़ी व्यापकता क साथ प्रेम तत्त्व की अभिव्यंजना की गई है । सूरदास ने कृष्णजन्म से लेकर उनके मथुरा जाने तक की कथा विस्तार से प्रस्तुत की है । उन्होंने कृष्ण के बालसुलभ भावों और क्रीड़ाओं का सहज एवं स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत किया है । उन्होंने ‘सूरसागर’ में वात्सल्य रस की धारा बहा दी है । सूर ने बालक्रीड़ाओं
त्सल्य से पूर्ण माता-पिता के प्रेम का निश्छल चित्र प्रस्तुत किया है । इन चित्रणों में सूर का प्रेम उलक-छलक पड़ा है। सूर एवं अन्य कृष्णभक्त कवियों की रचनाओं में ही स्त्री-पुरुष के संबंधों के चित्रण में इतना खुलापन मिलता है । सूर के पूर्व सिद्ध, नाथ एवं संत कवियों ने स्त्री को माया का प्रतिरूप तथा संसार की सारी बुराइयों को खान कहा था । तुलसीदास भी प्रायः स्त्री के प्रति सही धारण रखते हैं। हमारे मन में प्राय: यह प्रश्न उठता है कि सूरदास के काव्य में स्त्री-स्वाधीनता और स्त्री-पुरुष के संबंधों में इतनी स्वच्छंदता का आगमन कैसे हो गया जबकि उनके पूर्व के कवियों में ऐसी परंपरा नहीं मिलती । कुछ इतिहासकारों ने ब्रजप्रदेश में अमीरों की उपस्थिति को इसका आधार माना है तथा पशुचारण सभ्यता के अवशेष के रूप में इसकी व्याख्या की है । उनकी मान्यता है कि अमीरों के समाज में स्त्री-पुरुष समान रूप से खेती और पशुपालन में भाग लेते थे । अभी
पितृसत्तात्मक, सामंती समाज की मर्यादाओं तथा नैतिक विधि-निषेधों का दुराग्रह पैदा नहीं हुआ
था । अतः, ब्रजक्षेत्र में राधा-कृष्ण की प्रेम-लीला के गीतों की परंपरा लोक संस्कृति में बहुत पुराने समय से चली आ रही थी । सूरदास उस परंपरा को अपनी प्रेमभक्ति से परिष्कृत और मधुर रूप दे रहे थे। प्रसिद्ध आलोचक रामचंद्र शुक्ल इस तथ्य की चर्चा करते हैं कि सूर के आविर्भात के पहले ही बैजूबावरा के भी ऐसे ही गीत प्राप्त होते हैं।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दें।
(ii) ‘सूरसागर’ के रचयिता कौन हैं ? ‘सूरसागर’ में किसकी कथा वर्णित है ?
(iii) किन चित्रणों में सूर का प्रेम छलक-छलक पड़ता है ?
(iv) नाथ, सिद्ध या संत कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं में स्त्री को किस रूप में चित्रित क्या है?
(v) सूर तथा अन्य कृष्णभक्त कवियों की रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों के चित्रण में खुलापन क्यों मिलता है ?
(vi) सूरदास के पहले किसने नैतिक दुराग्रहों से मुक्त स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक संबंधों के खुलापन को अपने गीतों में स्थान दिया था?
उत्तर-(i) शीर्षक : सूर के काव्य में प्रेमानुभूति
(ii) ‘सूरसागर’ के रचयिता सूरदास है । ‘सूरसागर’ में कृष्णजन्म से लेकर कृष्ण के मथुरा जाने की कथा वर्णित है।
(iii) सूरदास ने बालक कृष्ण के बालसुलभ भावों और चेष्टाओं का बड़ा ही स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत किया है । साथ ही, उन्होंने वात्सल्य से पूर्ण कृष्ण के माता-पिता के प्रेम का निश्छल चित्रण किया है । इन दोनों चित्रणों में सूर का प्रेम छलक-छलक पड़ता है ।
(iv) नाथ, सिद्ध या संत कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं में स्त्री को माया के प्रतिरूप और
सांसारिक बुराइयों की खान के रूप में चित्रित किया है।
(v) सूरदास तथा अन्य कृष्णभक्त कवियों की रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों के चित्रण में खुलापन मिलता है । इसका मुख्य कारण है ब्रज की आभार संस्कृति जिसमें तब पितृसत्तात्मक सामंती समाज की मर्यादाओं तथा नैतिक विधि-निषेधों का दुराग्रह आरंभ नहीं हुआ था ।
(vi) सूरदास के पूर्व बैजू बावरा ने अपने गीतों में नैतिक दुराग्रहों से मुक्त स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक संबंधों के खुलापन को चित्रित किया था ।
7. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
केदार को जन-जीवन और प्रकृति का प्रवाह आकर्षित करता है । उनके काव्य में जन-जीवन का सहज संस्कार वर्तमान है, जो सहज है, लेकिन दुर्लभ नहीं है, जिसे खुली आँखों से पहाड़ पर, नदी में, फैले हुए खेतों में, पतली टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में और जन-जीवन के प्रवाह में देखा जा सकता है। केदारनाथ अग्रवाल की कविताओं में उन फूल-पत्तों का चित्रण है जिन्हें देशवासी हर ऋतु
में पहचानता है, देखता है। केदार के जीवन में प्रकृति पहाड़ों में बादलों-सी घुली-मिली है।
चट्टान-सी मजबूती की मानवी रेखाकृतियों और मुलायम, कोमल पत्तियों का मर्मर स्वर, दोनों का कवि केदारनाथ अपने देश की सहज संस्कृति मानते हैं। उनके अनुभव में समाया यह विस्तृत दश, सहज है, संस्कृत है और वह इसके सिद्ध गायक है । स्वतंत्रता के पूर्व और इसके बाद उनके काव्य, व्यक्तित्व में राष्ट्रीय सहज जीवन का संगीत गूंजता रहा है । वह भावुक मन के ताप और स्वच्छंद (रोमांटिक) भावावेश को भी पहचानते हैं । उनके मन में स्वतंत्रता के पूर्व भी
समाज-व्यवस्था, मानव-मूल्यों और मानव के अधिकारों के प्रति गहरा असंतोष था । केदार को प्रकृति है- यह सहज असंतोष । वह सामाजिक जीवन पर पूर्ण विश्वास रखते हैं। उनका ज्यादा समय बाँदा में बीता है । ऊँचे पर्वत, घने वृक्ष, ऊपर चँदोवे की तरह फैला आकाश, उन्हें आकृष्ट करते रहे हैं । जब वंशी बजती है तब उनका मन केन के तट पर कुछ खोजने लगता है, वह स्वय से कहते हैं-
माँझी बजाओ न वंशी, मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता कि जैसे तून डोलता
तृन’ की तरह डोलनेवाला उनका मन सहदय मनुष्य का मन है जिसके सामने कठोर और
बोझिल जीवन है ओर जीवन की कुछ कड़वी समस्याएँ हैं ।
जनता का जीवन/अधिकांश जनता का/रही की टोकरी का जीवन है,/संज्ञाहीन, अर्थहीन, विकार, चिरे-फटे टुकड़ों सा पड़ा है देरी है-/एक दिन, एक बार आग के छूने की, (राख हो जाता है।
प्रश्न:
(i) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दें।
(ii) कवि केदारनाथ अग्रवाल को क्या आकृष्ट करता है? उनके काव्य में किसका सहज संस्कार अभिव्यक्त हुआ है ?
(iii) कवि केदार के जीवन में प्रकृति किस प्रकार घुली-मिली है ?
(iv) कवि केदार की दृष्टि में देश की सहज संस्कृति का स्वरूप क्या है?
(v) कवि केदार के काव्य व्यक्तित्व में कैसा संगीत गूंज रहा है ? कवि केदार की प्रकृति कैसी है?
(vi) कवि केदारनाथ अग्रवाल को क्या आकृष्ट करते रहे हैं ?
उत्तर-(i) शीर्षक : कवि केदारनाथ के काव्य में जन-जीवन
(ii) जन-जीवन और प्रकृति का प्रवाह कवि केदारनाथ अग्रवाल को आकृष्ट करता है। उनके काव्य में जन-जीवन का सहज संस्कार अभिव्यक्त हुआ है।
(iii) कवि केदार के जीवन में प्रकृति पहाड़ों में बादलों-सी घुली-मिली है।
(iv) कवि केदारनाथ अग्रवाल की दृष्टि में देश की सहज संस्कृति चट्टान की दृढ़ता और मुलायम तथा मसृण (कोमल) पत्तियों के मर्मर स्वर के सामंजस्य से निर्मित है।
(v) कवि केदार के काव्य व्यक्तित्व में राष्ट्रीय सहज जीवन का संगीत गूंजता रहा है सामाजिक व्यवस्था, मानव- -मूल्यों और मानव के अधिकारों के प्रति उनके मन में एक गहरा असंतोष व्याप्त रहा है और यही उनकी प्रकृति है।
(vi) कवि केदारनाथ अग्रवाल को पर्वत, घने वृक्ष तथा ऊपर चैदोवे की तरह फैला आकाश आकृष्ट करता रहा है । वंशी बजने पर कवि केदार के मन में एक हलचल-सी होने लगती है और उनका मन केन के तट पर कुछ खोजने लगता
8. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
संसार के प्रत्येक कोने में जहाँ भारतीय बिखरे हैं, ‘अज्ञेय’ नाम जाना जाता है । ‘अज्ञेय’ ऐसे साहित्यकार है जिनके लेखन की भाषा हिंदी थी, परंतु अनुभव की भाषा भारतीयता और मानवीयता थी । बीसवीं सदी के भारत की मर्यादाएँ प्रतिष्ठित करनेवाले इतिहास निर्माताओं की सूची में सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन का नाम अमर रहेगा । उनका कार्यक्षेत्र साहित्य माना जाता है, पर साहित्य की सामान्य समझ रखनेवाले भी यह कहेंगे कि वे केवल साहित्यकार नहीं थे।
सभ्यता और संस्कृति का अन्वेषण और उनकी लगातार पहचान अज्ञेयजी की चिंता थी । इस अन्वेषण का माध्यम था साहित्य, समाज-निर्माण के विकसित साधनों में उन्होंने भाषा को अपना केंद्रीय साधन चुना था । वे राजनीतिक को संन्यासियों की तरह अस्वीकार नहीं करते थे, केवल यह पहचानते थे और बताते भी थे कि सत्ता की राजनीति अभिव्यक्ति (वाणी) के विरुद्ध काम करती है । यही कारण है कि साहित्य की सत्ता अपने में संपूर्ण है और राज्यसत्ता पर आश्रित नहीं है।
अज्ञेयजी ने साहित्य को नई भाषा दी। नई भाषा में उन्होंने नई वेदना पैदा की और उस वेदना में उन्होंने मानक मंगल की नई आकांक्षा भर दी । आधी शताब्दी उन्होंने मानव को वेदना-व्यथा को ही नहीं आनंद को बढ़ाने में भी खर्च की । उन्होंने आधी शताब्दी इस तरह बढ़ाने में खर्च की कि पाठक अपने भीतर नए सिरे से वही अनुभूति जगाये जो उनके लेखक में जगी थी । यह कहना मुश्किल है कि वे मूलतः कवि थे या कि उपन्यासकार । वे एक ही साथ कवि उपन्यासकार, आलोचक, शिक्षक और निर्माता थे । गरिमा, संस्कार, ममता, शालीनता, करुणा और सौंदर्य के गुण उनके व्यक्तित्व में संश्लिष्ट रूप में वर्तमान थे। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने ध्यानपूर्वक इन गुणों का संचय किया हो और तत्पश्चात उन्हें आत्मसात कर लिया हो । सच्चे
अर्थों में वह पूर्णपुरुष थे । वे आजीवन ऐतिहासिक दायित्व के प्रति सचेत रहे । उन्होंने हमें जो कुछ दिया, उसके आधार पर वे युग-प्रवर्तक बन गए ।
(i) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दें।
(ii) ‘अज्ञेय’ कैसा नाम है? ‘अज्ञेय’ के अनुभव की भाषा कैसी थी?
(iii) ‘अज्ञेय’ जी का पूरा नाम क्या है ? भारत की मर्यादाएँ प्रतिष्ठित करने में उनका क्या योगदान है?
(iv) ‘अज्ञेय’ साहित्यकार के अतिरिक्त और क्या थे ? सत्ता की राजनीति के प्रति उनकी धारणा क्या थी?
(v) ‘अज्ञेय’ ने साहित्य को क्या दिया ? ‘अज्ञेय’ के संबंध में क्या कहन, कठिन है?
(vi) ‘अज्ञेय’ के व्यक्तित्व में कौन-से गुण संश्लिष्ट थे ?
उत्तर-(i) शीर्षक : युग प्रवर्तक अज्ञेय
(ii) ‘अज्ञेय’ एक ऐसा नाम है जो संसार के हर कोने में, जहाँ भारतीय निवास करते हैं, जाना
(iii) ‘अज्ञेय’ का पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ है । भारत की मर्यादाएँ रयापित करनेवाले इतिहास निर्माताओं की सूची में उनका (‘अज्ञेय’ का) नाम अमर रहेगा ।
(iv) ‘अज्ञेय’ साहित्यकार के अतिरिक्त सभ्यता और संस्कृति की खोज तथा उसकी पहचान को स्थापित करनेवाले साधक इतिहासवेत्ता थे । अज्ञेयजी की धारणा थी कि सत्ता की राजनीति वाणी के प्रतिकूल काम करती है ।
(v) ‘अज्ञेय’ ने साहित्य को नई भाषा दी । ‘अज्ञेय’ के संबंध में यह कहना कठिन है कि वे मूलतया कवि थे कि उपन्यासकार ।
(vi) अज्ञेय’ के व्यक्तित्व में संस्कार, गरिमा, शालीनता, ममता, करुणा और सौंदर्य के गुण संश्लिष्ट थे।
9. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
आधुनिक हिंदी साहित्य के संबंध में प्रसिद्ध कथाकार नरेंद्र कोहली कहते हैं, जब हम साहित्य के असर की बात करते हैं तो पहले तो हमें यह निर्णय करना होगा कि साहित्य के जरिए परिवर्तन की प्रक्रिया क्या है.? साहित्य कोई सरकारी आदेश तो नहीं कि आज जारी किया गया और कल समाज बदल गया हमारे लिखते या लोगों के पढ़ते ही सारे दोष मिट जाएँ, यह अपेक्षा गलत है । हम अपना संदेश प्रसारित करते हैं। आगे समाज की अपनी इच्छा पर निर्भर है कि वह उसे
स्वीकारे या न स्वीकारे । और, समाज कोई एक इकाई नहीं है । इसके कई अंग हैं । साहित्य का जो रूप समाज के लिए उपयोगी होता है, उसे ही वह ग्रहण कर लेता है । सबकी अपनी-अपनी रुचि है, अपना-अपना चिंतन है । दोनों में बड़ा भेद है । रामायण, महाभारत या उपनिषदों की बात आज हम करते हैं तो इसीलिए कि वे आज भी प्रासंगिक हैं । फिर, हम भारतीय हैं तो यह
बिलकुल जरूरी नहीं है कि भारत के साहित्य से ही संस्कार ग्रहण करें ।
किसी रचना को समाज अगर ग्रहण नहीं करता है तो इसका मतलब यह है कि उसमें दम नहीं है । ऐसी किताबें पढ़ी ही नहीं जाती हैं । इसमें भी सारे साहित्यकारों को एक नियम में आब करके एक ही लाठी से नहीं हाँक सकते हैं। साहित्य एक आदर्श आपके सामने रख.. आदर्श की ओर कम लोग आकृष्ट होते हैं । अधिकांश लोग यहाँ गनोरंजन के लिए आते हैं।
मनोरंजन की रेखा को पार करके जब वह मर्जगमन करता है तब वास्तविक संस्कार मिलता है।
जैसे गाँधी और विनोबा भावेने जो किया उसके लिए संस्कार उन्होंने गीता से ग्रहण किया। उनके बाद उनके जो अनगामी उसी आधार पर चले, सबने वह संस्कार नहीं ग्रहण किया । साहिल की एक ही पुस्तक को दोनों ने ग्रहण किया, लेकिन अपने-अपने बैग से।
चार सौ साल पहले लिखे गए रामचरितमानस की प्रासंगिकता हम आजद रहे। समकालीन कृतियों में जो महत्वपूर्ण हैं, ग्रहण करने के लायक हैं, उनको ग्रहण किया जाएगा। लेकिन, अब तलसी हर साल तो पैदा हो नहीं सकते हैं। तुलसी जैसा रचनाकार तो कई सदियों
में एक पैदा होता है । दूसरी तरफ अपने समकालीनों को हम ऊँचाई पर देख नहीं सकते है।
यह हमें कष्टकर लगता है, इसलिए भी बहुत बार रोना रोया जाता है । यह बात केवल हिंदी में साहित्य में हो, ऐसा नहीं है । ऐसा दुनिया भर के साहित्य में है । हिंदी में इसका एक कारण यह भी है कि हमारी अगली पीढ़ी शिक्षा ग्रहण कर रही है अँगरेजी में । वह हिंदी के
को कैसे पढ़ेगी और पढ़ेगी भी तो उसका संस्कार कैसे पाएगी?
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।
(ख) साहित्य के प्रभाव की बात करने के पहले हमें क्या निर्णय करना होगा?
(ग) साहित्य के उद्देश्य और ‘पाठक और साहित्य’ के संबंध में लेखक ने क्या कहा है ?
(घ) तुलसी के संबंध में लेखक ने क्या कहा है ?
(ङ) साहित्य का कौन सा रूप समाज स्वीकार करता है?
(च) मनुष्य को वास्तविक संस्कार कब मिलता है?
उत्तर-(क) शीर्षक : साहित्य : परिवर्तन का एक सफल माध्यम अथवा पाठक और साहित्य का संबंध ।
(ख) साहित्य के प्रभाव की बात करने के पहले हमें यह निर्णय करना होगा कि साहित्य के माध्यम से परिवर्तन की प्रक्रिया क्या है।
(ग) साहित्य के उद्देश्य के संबंध में लेखक कहता है कि साहित्य का उद्देश्य है मनोरंजन के माध्यम से किसी आदर्श की स्थापना करना । पाठक साहित्य का अध्ययन मूलत: अपने मनोरंजन के लिए करता है । मनोरंजन की पार करने के बाद उसे साहित्य के ध्वन्यार्थ और आदर्श सत्य से साक्षात्कार होता है और वह वहाँ से वास्तविक संस्कार ग्रहण करता है।
(घ) तुलसी के संबंध में लेखक ने कहा है कि तुलसी एक महान साहित्यकार हैं । तुलसी जैसा रचनाकार तो कई सदियों में एक पैदा होता है । तुलसी ऐसा महाकवि हर साल पैदा नहीं हो सकता ।
(ङ) साहित्य का जो रूप समाज के लिए उपयोगी होता है उसे ही समाज ग्रहण करता है ।
(च) मनुष्य साहित्य का अध्ययन करते हुए जब मनोरंजन की रेखा को पार करके उद्गमन करता है तब उसे वास्तविक संस्कार मिलता है।
10. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
कविता का उद्देश्य हमारे हृदय पर प्रभाव डालना है, जिससे उसके भीतर प्रेम, आनंद, हास्य, करुणा, आश्चर्य आदि अनेक भावों में से किसी का संचार हो । जिस पद्य में इस प्रकार प्रभाव डालने की शक्ति न हो, उसे कविता नहीं कह सकते । ऐसा प्रभाव उत्पन्न करने के लिए कविता पहले कुछ रूप और व्यापार हमारे मन में इस ढंग से खड़ा करती है कि हमें यह प्रतीत होने लगता
है कि वे हमारे सामने उपस्थित हैं । जिस मानसिक शक्ति से कवि ऐसी वस्तुओं और व्यापारा की योजना करता है और हम अपने मन में उन्हें धारण करते हैं, वह कल्पना कहलाती है । इस शक्ति के बिना न तो अच्छी कविता ही हो सकती है, न उसका पूरा आनंद ही लिया जा सकता है । सृष्टि में हम देखते हैं कि भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तुओं को देखकर हमारे मन पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है। किसी सुंदर वस्तु को देखकर हम प्रफुल्ल हो जाते हैं, किसी अद्भुत वस्तु या व्यापार को देखकर आश्चर्यमान हो जाते हैं, किसी दुख के दारुण दृश्य को देखकर करुणा से आई हो जाते हैं। यही बात व्यक्ति में भी होती है।
जिस भाव का उदय कवि को मन में कराना होता है, उसी भाव को जगानेवाले रूप और व्यापार वह अपने वर्णन द्वारा पाठक के मन में लाता है । यदि सौंदर्य की भावना उत्पन्न करके न को प्रफुल्ल और आह्लादित करना होता है तो कवि किसी सुंदर व्यक्ति अथवा किसी सुंदर और रमणीय स्थल का शब्दों द्वारा चित्रण करता है।
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए ।
(ख) कविता का उद्देश्य क्या होता है ? स्पष्ट कीजिए ।
(ग)कल्पना किसे कहते हैं ?
(घ) कविता में कल्पना क्यों आवश्यक है ?
(ङ) किसी अद्भुत वस्तु को देखकर हमारे मन पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(च) विपरीतार्थक शब्द लिखिए : कवि, पाठक, उपस्थित, दुःख ।
उत्तर- (क) ‘कविता का उद्देश्य’ अथवा ‘कवि और पाठक’
(ख) कविता का उद्देश्य हमारे हृदय को प्रभावित करना होता है । कविता की रचना इसी उद्देश्य से की जाती है कि वह हमारे हृदयस्थ स्थायी भावों में से किसी एक भाव को, जो उस कविता में वर्णित-चित्रित होता है, जागृत कर दे ।
(ग) कवि वस्तुओं और क्रियाओं को इस रूप में प्रस्तुत करता है कि वे पाठकों को दृश्यजगत की वस्तुओं और क्रियाओं के समान प्रत्यक्ष-सी प्रतीत होने लगती हैं, जिस मानसिक शक्ति से कवि ऐसी वस्तुओं और व्यापारों की योजना करता है और पाठक उन्हें अपने मन में धारण करता है, उसे ‘कल्पना’ कहते हैं ।
(घ) कविता में कल्पना आवश्यक है, क्योंकि कविता के भाव को इसी की सहायता से ग्रहणीय बनाया जाता है । कविता के भाव को मन पर अकित करने के लिए कल्पना को जरूरत पड़ती है।
(ङ) किसी अद्भुत वस्तु को देखकर हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं ।
(च) कवि-कवयित्री, पाठक-पाठिका, उपस्थित-अनुपस्थित, दु:ख-सुख ।
11. निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए-
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ हिंदी कविता के ऐतिहासिक विकास में संभवतः गोस्वामी तुलसीदास के बाद सबसे बड़ी विभूति हैं । उन्होंने हिंदी कविता को अपनी अशेष अपराजेय प्राणशक्ति से सींचा । उस महाप्राण कवि की अप्रतिहत जीवनी शक्ति पाकर वह शत-सहस्र अंकुरों
में पल्लवित होकर अनेक पदों पर फैल चली । नए युग में हिंदी कविता को निरे पद्य के दुर्गम दुर्ग से उबारकर अरुद्ध प्रकाश, वायु, जल और आकाश वाले प्रशस्त क्षेत्र में लानेवाले कवियों में निराला निर्विवाद रूप से प्रमुख हैं । तुलसीदास की तरह ही उनके पास कविता के चहु-विपुल स्रोत थे, अनुभव का अछीज खजाना था, शब्दार्थ-प्रतिपत्ति की अपरिमित भूमि और भगिमाएँ थीं।
निराला का भाषा, भाव और अभिव्यक्ति कला पर ही असाधारण अधिकार नहीं था, प्रकृति और समाज का गहन पर्यवेक्षण, व्यापक मानवीय करुणा तथा संवेदना और सहानुभूति को मर्म-संपदा भी उनके कोष में असाधारण थी। जीवन और सृजन के दोनों धरातलों पर आजीवन दुर्गम संघर्ष करते हुए अपराजित जिजीविषा के इस कवि ने दोनों हाथों से अनवरत आत्मदान किया, अपनी मर्म-संपदा लुटाई ।
निराला ने कविता को छंद के बंधन से मुक्ति दिलाई, ऐसा प्रसिद्ध है; किंतु उन्होंने काव्यभाषा, काव्य विषय और रूप आदि क्षेत्रों में भी कविता को अनेक रूढ़ियों से आजाद किया तथा उसे नए जीवन प्रोतों से जोड़कर नए, भावपथों पर अग्रसर किया । निराला ने कविता में आपाततः कायिक, वाचिक और मानसिक ऐसे परिवर्तन किए और उसके भीतर नया अवकाश, नई कामनाएँ
अभीप्याएँ और संकल्प सिरजे । इस तरह हिंदी कविता प्रौढ़तर अवस्थाओं में पहुँचकर प्रायः वैश्विक समांतरता अर्जित कर सकी ।
(क) प्रस्तुत गद्यांश का शीर्षक दीजिए ।
(ख) लेखक हिंदी कविता के इतिहास में तुलसीदास के बाद सबसे बड़ी विभूति किसे मानते हैं?
(ग) तुलसीदास और निराला में कैसी समानताएँ हैं ? अपनी टिप्पणी दें।
(घ) हिंदी काव्य के क्षेत्र में निराला के अवदान पर प्रकाश डालें।
(ङ) लेखक ने निराला को हिन्दी कविता के इतिहास में तुलसी के बाद सबसे बड़ी विभूति माना है क्यों?
(च) निराला ने कविता को किसके बंधन से मुक्ति दिलायी ?
उत्तर- (क) हिन्दी कविता और सुर्यकान्त त्रिपाठी निराला ।
(ख) लेखक हिंदी कविता के इतिहास में तुलसीदास के बाद सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को सबसे बड़ी विभूति मानते हैं ।
(ग) तुलसी और ‘निराला’ में अनेक समानताएँ हैं । तुलसी और निराला साहित्यिक परंपरा से पूर्णत: परिचित हैं । दोनों में अनुभव का अक्षुण्ण भंडार है तथा दोनों में शब्दार्थ प्रतिपत्ति (बोध) की अपरिमित भूमि और भगिमाएँ हैं। दोनों के यहाँ जीवन और काव्य एक और अखंड है।
(घ) हिंदी काव्य के क्षेत्र में ‘निराला’ के अवदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। उन्होंने भाव, भाषा तथा अभिव्यक्ति कला के स्तर पर हिन्दी कविता में नवीनता का संचार किया । ‘निराला’ ने जीवन-संघर्ष को कविता के साथ जोड़ा, व्यक्ति-अनुभव को विराट सामाजिक अनुभव बनाया
और कविता में उसका भव्य संप्रेषण किया । उन्होंने जीवन और काव्य तथा बाहर और भीतर को एक और अखंड रूप दिया । उन्होंने कविता को छंद के बंधन से मुक्त किया तथा काव्य भाषी, काव्य विषय तथा रूप आदि के क्षेत्रों में भी कविता को अनेक रुढ़ियों से आजाद किया । उन्होंने हिंदी कविता को नये युग की आशा-आकांक्षा और संकल्प के अनुसार नवीन रूप दिया और इसे वैश्विक समांतरता प्रदान की।
(ङ) लेखक के अनुसार ‘निराला’ ने हिंदी कविता को अपनी अशेप अपराजेय प्राणशक्तिसे सींचा । उन्होंने कविता को जीवन के विविध क्षेत्रों से जोड़कर उसे अपूर्व विस्तार दिया । निराला ने रुढ़ियों को नकारा । वे क्रांतदर्शी कवि थे । भाव, भाषा और कलात्मकता के स्तर पर उन्होंने कविता में नई परंपरा की नींव डाली । इसीलिए, लेखक ‘निराला’ को तुलसी के बाद हिंदी कविता के इतिहास में सबसे बड़ी विभूति मानते हैं ।
(च) निराला ने कविता को छन्द के बंधन से मुक्ति दिलायी ।